हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 4 – जम्मूवाली दादी – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  जम्मूवाली दादी)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – जम्मूवाली दादी  ?

माताजी तो माताजी थीं। मोहल्ले भर की गली – मोहल्ले की माताजी, और क्यों ना हो! 101 वर्ष उम्र और अनुभव दोनों का अद्भुत मिलन जो था।

माताजी 100 साल तक जिंदा रहना चाहती थीं। अब उसके ऊपर एक और साल जुड़ गया। पूरे कुनबे को जोड़कर रखने वाली माताजी गली – मोहल्ले के लोगों से भी आजीवन जुड़ी ही  रहीं। घर में कुल मिलाकर 40 लोग होंगे और मोहल्ले वाले उनकी तो कोई गिनती ही नहीं!

माताजी 60 साल की रही होंगी जब बाबूजी गुज़र गए पर माताजी टूटी नहीं, और न  सारे परिवार को ही टूटने -बिखरने  दिया। जिस भूमिका को बाबूजी निभाते थे, वही भूमिका अब माताजी निभाती आ रही थीं।वह विशाल छायादार वटवृक्ष के समान सशक्त थीं।

माता जी के पाँच पुत्र थे । आज उनका बड़ा बेटा 85 साल का है उसकी दुल्हन 82 साल की है, उनका बड़ा बेटा 62 साल का है उसका बेटा 38 साल का है और उसका बच्चा 16 साल का। कुल मिलाकर इस तरह घर के हर एक बेटे उनके बच्चे, पढ़ पोते- पतोहू सब मिलाकर कुनबे में 40 लोगों का समूह रहता आ रहा था। साझा व्यापार था।

आज भी जम्मू-कश्मीर में ऐसे अनेक परिवार मिल जाएँगे जो संयुक्त परिवार में रहते हैं। सेब, बादाम, अखरोट, चिलगोज़ा, खुबानी के बाग हैं और व्यापार भी उसी का ही है।

माताजी का एक बेटा कटरा में व्यापार करता था, वही ड्राईफ्रूट और गरम कपड़ों का। पर रोज़ रात को घर लौटकर आता ही था।यद्यपि जम्मू और कटरा के बीच चालीस किलोमीटर का अंतर है। प्रति घंटे बसें चलती हैं तो घर आना ही होता है।यह माताजी का आदेश था।रात के भोजन के समय वे बेटे बहुओं को लेकर भोजन करना पसंद करती थीं।शायद परिवार को जोड़कर रखने का यह एक गुर था।

माताजी के तीसरे बेटे की अकाल मृत्यु हुई थी।पर माताजी ने बहू को अपने मायके न जाने दिया और न सफ़ेद कपड़े ही पहनने दिए।माताजी का कहना था, “पति मर गया, यादें तो हैं !चिट्टे ( सफेद) कपड़े पाकर ओदा दिल न दुखाईं पुत्तर।” बड़ी प्रोग्रेसिव थिंकिंग थी माताजी की।

माताजी के घर में आज तक कभी किसी ने ऊँची आवाज में बात ना की थी और ना उस घर में विवाद का कभी प्रश्न ही उठ खड़ा हुआ।सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे चाहे भूषण हों या पड़पोते का पाँच साल का गुड्डू।

बड़ा बेटा भूषण आज भी गुल्लक संभालते थे। सूखे मेवे का व्यापार था उनका जिसे बाबूजी चलाते आ रहे थे। उनके देहांत के बाद बड़ा बेटा चलाने लगा और अब उसके बेटे चलाते हैं। पर गुल्लक संभालने की जिम्मेदारी आज भी माता जी के बड़े बेटे के पास ही है। यही नहीं हर रोज की कमाई का हिसाब माताजी को जरूर देना पड़ता था। माताजी अपने पास जरूरत के हिसाब से पैसे रख लेती थी॔ बाकी जमा करवा देती थीं। जो धनराशि वह अपने पास रखती थी वह  घर के बच्चे और उनके जन्मदिन, तीज -त्योहार,  विवाह वार्षिक दिन के उत्सव पर उन्हें आशीर्वाद के रूप में दिया करती थी॔। शुरू में तो यह ₹11 हुआ करते थे । समय की बढ़ती चाल देखकर माता जी अब ₹101 पर आकर अटक गईं। कहती थीं “मेरी भी तो उमरा 101 ही है तो क्यों ना 101 दिया करूँ।”

गली मोहल्ले में कोई बीमार पड़े तो माताजी जरूर पहुँच जाती थीं।यदि कोई पुरुष बीमार हो तो वहाँ उनके पास बैठकर पाठ करती  और ठीक होने की दुआ कर घर लौट आतीं।

यदि कोई स्त्री बीमार हो तो उन्हें पता होता था कि परिवार को भोजन की आवश्यकता होती है। माताजी सुबह-शाम भोजन भेजने की व्यवस्था भी करतीं और समय-समय पर उनसे मिलने भी जातीं।

कोई बच्चा बीमार हो तो न जाने माताजी कौन-कौन से काढ़ा और  घुट्टियाँ तैयार करके बच्चे को पिलातीं। लोगों को पता था अनुभवी माताजी एक लंबा जीवन देख चुकी थीं।ऐसा जीवन जहाँ  आज जैसी दवाइयाँ नहीं थी इसलिए लोगों का  उन पर बड़ा भरोसा था।

खाली बैठना माताजी को कभी गवारा न था।इन एक सौ एक वर्ष की उम्र तक पचास -साठ स्वेटर बुन चुकी थीं साथ में न जाने कितने ही शालों पर कढ़ाई कर चुकी थीं।पड़ोस में किसीकी शादी हो तो माताजी चद्दर काढ़ने बैठ जातीं।

प्रातः चार बजे उठना, नहा धोकर पाठ करने बैठना उनकी बरसों की आदत थी। वे पाँच क्लास तक पढ़ी थीं जिस कारण पढ़ने लिखने की आदत बनी रही।तेरह वर्ष की उम्र में ब्याहकर आई थी इस परिवार में। यह परिवार जम्मू का डोगरी परिवार था।माताजी श्रीनगर की थीं जिस कारण उनकी वेष-भूषा आज भी काश्मीरियों जैसी ही थीं।हाँ भाषा वे डोगरी सीख गई थीं।

उनकी उम्र की महिलाएँ सारा दिन लेटी बैठी रहती होंगी पर माताजी को बैठे रहना मंजूर न था।सारे परिवार के लिए रात को बादाम भिगोकर रखना भी उनकी आदत में शामिल थी।हर कोई जब सुबह उठ कर उनके कमरे में पैरीपौना (प्रणाम) करने आता तो माताजी उसके हिस्से के बदाम – अखरोट उन्हें पकड़ा देतीं। घर के छोटे बच्चे कहीं बादाम अखरोट कूड़ेदान में ना डालें इसलिए उन्हें अपने सामने बिठाकर बादाम अखरोट चबाने के लिए कहती थीं।यह उनके अनुभव का ही एक हिस्सा था। रोज अखरोट तोड़ना,  खरबूजे के सूखे बीज से बीज निकालना, कद्दू के  सूखे बीज से छोटे बीज निकालना माताजी का ही काम था।नाखून अब काले से पड़ गए थे, हथेलियों पर रेखाओं का जाल बिछा था जिन्हें देखकर कोई भी कह सकता है कि वे कर्मठ हाथ थे।घर परिवार के लोगों को अपने हाथ से  खिलाना माता जी का निजी शौक था।

यही नहीं गर्मी के मौसम में आम का अचार- मुरब्बा बनाना आज भी माता जी का ही काम था। ठंड के मौसम में  जब फूल गोभी, गाजर शलगम, मटर खूब सस्ते हो जाते तो माताजी उन सब से अचार बनातीं। जम्मू के लोगों का यह बड़ा प्रिय अचार होता है ।

ठंड के दिनों में जब बड़ी-बड़ी, लाल – लाल मिर्चे  आते तो माता जी अपने हाथ से मसाले तैयार करके भरवे मिर्ची के अचार बनातीं। जम्मू में आज भी लोग सरसों का तेल भोजन के लिए प्रयोग में लाते हैं इसलिए सभी चीजें घर पर होने के कारण माताजी दिन भर अपने काम को लेकर व्यस्त रहती थीं। किसी पड़ पतोहू को साथ में ले लेती मदद के लिए और उन्हें सिखाती भी चलती।

ठंड के मौसम में जब वह भी गाजर शलगम मटर बाजार में आते तो माताजी उन सब को साफ करके खूब धूप में सुखातीं ताकि बारिश के दिनों में किसी को भोजन की कमी ना हो। रात के समय दही जमाने का काम भी माताजी ही किया करती थीं। गर्मी के मौसम में माताजी का अधिकांश समय घर की छत पर ही कटती थीं।लौकी -कद्दू डालकर बड़ियाँ डालना, मसालेवाली बड़ियाँ बनाना, पापड़ बनाना सब सुखाना माताजी का शौक था।

घर के हर सदस्य के स्वास्थ्य की देखभाल का मानो उन्होंने जिम्मा उठा रखा था। आजकल कुछ दिनों से माताजी अक्सर जोर से चिल्ला पड़ती और परिवार के लोगों को एकत्रित करती कहतीं ” ओए, ओए बड़ी पीड़ है छाती ते, आ … आ गया मैंन्नू लैंण। चलो मेन्नू मंजीते उतार लो, थल्ले जमीन पर चदरा बिछा दो मेरे जाणे दा वखत आ गिया।”

माताजी अक्सर कहती थीं “मैं मंजी ते न मरणा, थल्ले लिटाणा।”

इस तरह पिछले छह माह में माताजी ने कई बार कुनबे को अपने कमरे में एकत्रित कर लिया था।पहली बार जब ऐसा हुआ तो सब घबड़ा गए।तुरंत डॉक्टर बुलाया गया।डॉक्टर ने कहा हाइपर एसिडिटी है माताजी को घबराने की बात नहीं।” फिर जब कभी छाती में दर्द होता तो बच्चे दो चम्मच जेल्यूसिल उन्हें पिला देते।

एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में माताजी ने न शोर मचाया न किसी को एकत्रित किया।न चाहकर भी अपने पलंग पर जिसे वे आजीवन मंजी कहती आईं थीं, पड़ी रहीं। सुबह जब भूषण माताजी से रोज़ की तरह पैरीपौना करने आया तो देखा हाथ में जप माला पकड़े वह निस्तेज पड़ी हैं।देह शांत, चेहरे पर मृदु मुस्कान!

खबर मिलते ही गली- मोहल्ले के लोग दर्शन के लिए आने लगे।देह को खूब सजाया गया पशमीना शाल ओढ़ाया गया, गुब्बारे बाँधे गए।

बड़ी उम्र के लोगों के देहांत के बाद इस तरह सजाकर ले जाना संभवतः डोगरी लोगों की संस्कृति है।  कंधे देनेवाले अनेक थे। खूब छुट्टे पैसे लुटाए  गए। घाट तक सौ दो सौ लोग पहुँचे। माताजी कहती थीं, “लकड़ी न सुलगाई मेरे लई, बच्च्यांदे काम्म आणा लकड़ियाँ। मेन्नू भट्टी विच पा देणा।” अर्थात फर्नेस में। लकड़ियाँ बच्चों के काम आएगी कहती थीं शायद इसलिए कि भारत में सबसे ज्यादा पेंसिल का कच्चा माल लखीमपुरा पुलवामा काश्मीर में बनाया जाता है। क्या सोच है माताजी की!

एक एरा, प्रचुर तजुर्बा लेकर,  कुनबे को, गली- मोहल्ले को अपने संस्कार से अवगत कराती हुई  प्रोग्रेसिव  सोच रखनेवाली माताजी परलोक सिधार गईं।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 – लघुकथा – नशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा नशा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 ☆

☆ लघुकथा 🌹 नशा 🌹

रंग से सराबोर और लाल-लाल आँख, बिखरे बाल, चेहरे पर मासूमियत और लड़खड़ाते कदम।

दरवाजे की घंटी बजी। जैसे ही दरवाजा खुला लगभग गिरते हुए बबलू ने कहा… “अंकल मुझे माफ कर दीजिए। पापा नाराज होंगे और इस हालत में मैं उनके सामने नहीं जाना चाहता। बाकी आप संभाल लेना।”

कहते-कहते धड़ाम से कमरे में बिछे पलंग पर औंधा गिरा।

संजय और उसकी धर्मपत्नी को समझते देर नहीं लगी कि बबलू आज नशे में धुत है।

गुस्से में पत्नी ने बोलना आरंभ किया..” घसीट कर बाहर कर दो हमें क्या करना है। इस लड़के से कोई लेना-देना नहीं।” कहते-कहते जल्दी-जल्दी पानी का गिलास लाकर बबलू को पिलाने लगी। मुँह पर पानी के छींटे मारने लगी। “हे भगवान यह क्या हुआ… कैसी संगत हो गई। हमने आना-जाना क्या छोड़ा। बच्चे को बिगाड़ कर रख डाला।” संजय भी आवक बबलू के सिर पर हाथ फेरता जा रहा था।

“अब चुप हो जाओ मैं ही बात करता हूँ।” पत्नी ने कहा.. “कोई जरूरत नहीं होश आने पर स्वयं ही चला जाएगा” और जोर-जोर से इधर-उधर चलने लगी और बातें करने लगी ताकि पड़ोसी सुन ले।

आकाश और संजय की गहरी दोस्ती थी। और होती भी क्यों नहीं एक अच्छे पड़ोसी भी साथ-साथ बन गए थे। परंतु एक छोटी सी गलतफहमी के कारण दोनों के बीच मनमुटाव यहाँ तक हुआ की बातचीत तो छोड़िए शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते थे।

बरसों बाद फोन नंबर डायल किया, नंबर देखते ही दोस्त आकाश ने अपनी पत्नी से कहा… “संजय का फोन आ रहा है।” श्रीमती झल्लाकर बोली… “कोई जरूरत नहीं है अब वक्त मिल गया। अकल ठिकाने आ गई। रहने दीजिए।”

“परंतु पता भी तो चले हुआ क्या है।”

“हेलो… बबलू मेरे घर पर है। संगति का असर है। थोड़ा बहक गया है तुम नाराज नहीं होना डर रहा है। अभी सोया है। सब ठीक हो जाएगा। हम मिलकर संभाल लेंगे।”

फोन पर बात करते-करते दोनों पति-पत्नी की आँखों में आँसू बहने लगे।

“मैं अभी आता हूँ।” दरवाजे पर बरसों बाद दोनों दोस्त मिले। पलंग पर बैठ गंभीर चर्चा करने लगे।

“अरे छोड़ यार हो जाता है गलती हो गई है। अब दोबारा नहीं होना चाहिए।” बबलू अचानक उठ बैठा जेब से गुलाल उड़ाते कहने लगा…. “मैंने कोई नशा नहीं किया। आप दोनों का नशा उतारना था और जो असली नशा आप दोनों के बीच है उसे फिर से चढ़ाना था।

इसलिए मैंने इस नशे का नाटक किया।” चारों एक दूसरे का मुँह देखने लगे।” इस नाटक को करने के लिए मैंने कल से कुछ नहीं खाया है। कुछ मिलेगा।” “अब तुम मार खाओगे।”

हँसी का गुब्बारा फूटने छूटने लगा.. बबलू के नशे ने अपना काम कर दिया था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 75 – देश-परदेश – रस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 75 ☆ देश-परदेश – रस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

भारत की रसमलाई दुनियाभर में
दूसरा सबसे स्वादिष्ट चीज डेजर्ट

बाल्यकाल में सबसे प्रिय गन्ने का रस हुआ करता था। हाथ गाड़ी वाला घर के बाहर आकर पुकार लगाता था। पहले इकन्नी बाद में दस पैसे में रसपान सुविधा उपलब्ध हुआ करती थी।

रसगुल्ले जब कोई परिचित हांडी में भेंट स्वरूप लेकर घर पर आता था, तो हम भाई बहन रस पर नज़र रखते थे, क्योंकि रसगुल्ले की संख्या की तो गणना हो जाती थी, रस की हांडी में तो कोई भी बाजी मार सकता था। वैसे बाद में ब्रेड के साथ रस के शाही टोस्ट बनने लगे थे। हांडी को साफ कर गर्मियों में पक्षियों के लिए जल भर कर पुण्य कमाया जाता था।

पाठशाला में जब माध्यमिक स्तर पर पहुंचे तो पता चला रस के ग्यारह भेद भी होते हैं। गुरुजन जब मुंह जबानी पूछते थे, तो हमेशा आठ/नौ ही याद आते थे।

आज प्रकाशित समाचार से जानकारी प्राप्त हुई कि हमारे देश की रसमलाई विश्व की दूसरी सबसे स्वादिष्ट “चीज़” द्वारा निर्मित मिठाई है।

चीज़ शब्द हमारे यहां बहुतायत से उपयोग किया जाता हैं। कपड़े की दुकान पर अक्सर हम लोग कहते है, कोई बढ़िया चीज दिखाएं। युवाकाल में जब कोई आकर्षित अपरिचित युवती पर दृष्टि पड़ जाती थी, तो मित्र कहा करते थे “क्या चीज” है।

हम भी कहां फालतू चीज़ों में उलझ गए है। मलाई पर ध्यान देना चाहिए। सरकारी सेवा में कार्यरत अधिकतर लोग “मोटी मलाई” हासिल कर लेते हैं। कुछ विभाग में तो मलाई वाली पोजीशन भी होती है। हमारे यहां तो दूध पर भी मलाई नहीं जम पाती है। सप्रेटा दूध में मलाई क्या खाक आयेगी।

अब आप जब भी रसमलाई खायेंगे तो और अधिक स्वादिष्ट लगेगी, क्योंकि किसी विदेशी संस्था ने इसकी पुष्टि जो कर दी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #229 ☆ प्रेम दिगंतर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 229 ?

प्रेम दिगंतर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

लोहमार्गाचे रूळ समांतर

बोलत नाहीत कधी अवांतर

*

जरी उभी तू पल्याड नदीच्या

दोन मनातील प्रेम दिगंतर

*

नजरेतून तू जरी बोलली

करतील डोळे हे भाषांतर

*

नदी मिळाली आज खाडीला

वाढत गेले भरपूर अंतर

*

चंद्र आभाळी कुठे थांबला

वाट पहाते वेळ ही कातर

*

टाकू का मी गादी म्हणालो

मला म्हणाली काळीज अंथर

*

तिच्यात नाहीच कुठे कस्तुरी

तिच्या भोवती तरीही अत्तर

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ साठवणीतल्या आठवणी– ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘साठवणीतल्या आठवणी–’ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

प्रत्येक व्यक्ती स्वतंत्र असते आणि प्रत्येकाचं आयुष्य म्हणजे फक्त त्याचीच मालमत्ता असु शकते व त्यात कडू गोड आठवणींचा भरगच्च  खजिना असतो. कडू आठवणी मनाच्या तळाशी दाबल्या की मग वर येतो तो सुंदर आनंदी आठवणींचा    साठा. मग त्या आठवणींचा ठेवा दुसऱ्यांना वाटावासा वाटतो. अगदी तसंच झालं आहे माझं.   

महाशिवरात्र आली की वडीलधाऱ्यांच्या आठवणी उफाळून येतात. वडीलधारी काळाच्या पडद्याआड जातात आणि आपण पोरकं होतो. अकाली पोक्तपणा येतो.

प्रियकर आपल्या प्रेयसीला म्हणतो ‘तुझ्यापेक्षा मला तुझ्या आठवणीच जवळच्या वाटतात, कारण त्या सतत माझ्याजवळ राहतात.’ अशीच एक माझ्या आई -वडिलांची सुखद आठवण आठवली.

माझे मेव्हणे श्री. दत्तात्रय पंडित, पंजाबच्या गव्हर्नरांचे, श्री काकासाहेब गाडगीळ यांचे  P. A. होते. त्यांच्यामुळे पुणे ते चंदीगड अशा लांबच्या प्रवासाचा योग आला. त्यावेळी सोयीस्कर गाड्या नव्हत्या. प्रवासात दोन-चार दिवस जात असत.

माझे वडील ति. नाना, दत्तोपंत स. माजगावकर कट्टर शिवभक्त होते. रोज सोवळं नेसून त्यांनी केलेल्या पार्थिव पूजेचा सोहळा अवर्णनीय असायचा. दंडाला कपाळाला भस्माचे पट्टे लावून स्पष्ट मंत्रोच्चारांनी केलेल्या मंत्रध्वनीने शंखनिनादाने आमची प्रभात, सुप्रभात व्हायची. रोज महादेवाची सुबक पिंड तयार करून यथासांग पूजा करण्यावर त्यांचा कटाक्ष होता. 

तर काय सांगत होते! आमचा प्रवास सुरू झाला. पळणाऱ्या झाडांमधून सूर्याची सोनेरी किरणे आत आली तर कापराचा सुगंध नाकात शिरला. किलकीले डोळे विस्फारले गेले, कारण धावत्या गाडीत मांडी घालून प्रवासातही नेम न मोडता  नानांची पूजा चालू होती. शिवभक्त मंडळी सरळ मार्गी असतात. वाकडी वाट करून नेम मोडणं त्यांच्या तत्वात बसत नाही.

प्रवासातही आई -नाना पूजेच्या तयारीनिशी आले होते. नानांच्या पुण्यकर्माला आईची साथ होती. त्यावेळी लकडी पुलावर नदीकाठी काळीशार माती भरपूर असायची. आई अवघड लकडी पूल उतरून, नदी काठावरची काळी माती पिशवी भरून, खांद्यावरून आणायची. ती चाळणीने मऊशार चाळायची आणि देवघराच्या फडताळ्यात डब्यात भरून ठेवायची. देवाची तांब्याची उपकरणी लख्ख करण्याचं काम आम्हा मुलींकडे असायचं आणि त्याबद्दल आम्हांला बक्षीस काय मिळायचं माहित आहे? श्रीखंडाची गोळी. पण ती चघळतांना आमची ब्रह्मानंदी टाळी लागायची. आजकालची कॅडबरी पण त्याच्यापुढे नक्कीच फिक्की ठरेल.

तर त्या चंदीगड प्रवासात आईने काळ्या मातीचे बोचकंही बरोबर आठवणीने घेतलं होतं. आणि हो! काळीमाती भिजवायला पुरेसं घरचं पाणी फिरकीच्या तांब्यातून घ्यायला आई विसरली नव्हती. तेव्हा पितळीचे छान कडी असलेले तांबे प्रवासात सगळेजण वापरायचे. थर्मास चा शोध तेव्हां लागला नव्हता आणि प्लॅस्टिकच्या पाण्याच्या बाटल्या तर अस्तित्वातच नव्हत्या.

ति. नानांनी महादेवाची पिंड इतकी सुबक, इतकी सुबक बनवली की, रेल्वेच्या जनरल बोगीतली लोकं महादेवाची पिंड बघायला गोळा झाले. पार्थिव पूजा, मंत्र जागर, उत्तर पूजा पण गाडीतच झाली. सगळ्यांना इतकी अपूर्वाई वाटली. नानांच्या भोवती ही गर्दी झाली.

त्यावेळी रेल्वे डब्याच्या खिडक्यांना गज नव्हते. इतकी गर्दी झाली की एका पंजाबी ‘टीसी’ नें ही बातमी स्टेशन मास्तरला पुरवली. प्लॅटफॉर्मवर नानांची पूजा बघायला हा घोळका झाला.

योगायोग असा की कुणालातरी जवळच असलेलं बेलाचं झाड दिसलं.. गाडी सुटायला अवकाश होता. वयस्करांनी तरुणांना पिटाळलं. पटापट गाडीतून माकडा सारख्या उड्या मारून पोरांनी बेलाची पाने तोडली. भाविकांनी पिंडीवर मनोभावे वाहिली. भाविकांच्या श्रद्धेने छोटीशी पिंड हां हां म्हणता बेलाच्या पानाने झाकली गेली. 

रेल्वे डब्यात आपण चहा नाश्ता करतो ना त्या छोटेखाली टेबलावर ही पूजा झाली होती. गाडीच्या त्या जनरल बोगीला मंदिराचं स्वरूप आलं होतं. असा आमचा एरवी कंटाळवाणा वाटणारा प्रवास मजेशीर झाला. नंतर तर लोक नानांच्याही आणि जोडीने  आईच्या पण पाया पडायला लागले.   आई नाना अवघडले, संकोचले. आम्ही मात्र तोंडावर हात ठेवून हा सोहळा बघतच राह्यलो. खरं सांगु, तेव्हा तर माझे आई-वडिल मला शंकर-पार्वतीच भासले.

तर मंडळी, अशी ही भावभक्तीने भारलेल्या शिवभक्ताची ही आठवण कथा.

शिवशंभो  महादेवा तुला त्रिवार दंडवत. 

माझी सासरेही महा पुण्यवान  शिवभक्त होते. कारण महाशिवरात्रीलाच ते जीवा शिवाच्या भेटीला गेले. अशा या थोर वडीलधाऱ्यांच्या पूर्वपुण्याई मुळेच आपण सुखात आहोत नाही कां?

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ महादेव शिवशंकर ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– महादेव शिवशंकर – ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

सर्व देवांच्यात सर्वश्रेष्ठ,

असती हर हर महादेव!

सृष्टीचा तारणहार,

शिवस्तुती करावी सदैव! …..१

 

पत्नी पार्वती, 

पुत्र कार्तिकेय -गणपती ! 

पुत्री अशोक सुंदरी, 

भक्तांच्या हाकेला धावती!….२

 

शिरी चंद्रकोर धारण, 

हातात त्रिशूल डमरू! 

नंदीवर होई स्वार,

भोलेनाथ बाबा अवतरू! …..3

 

जटातून वाहे गंगा ,

म्हणती कुणी गंगाधर!

कंठात हलाहल प्राशन करून

नीळकंठ परमेश्वर ! …..४

 

चिताभस्म नित्य लावे,

कंठाभोवती वासुकी नाग!

व्याघ्र चर्मावर बैसे,

त्रिकाळाची असे जाग!   …..५

   

त्रिनेत्र सामर्थ्य शिवाचे ,

पाही भूत ,भविष्य, वर्तमान!

तांडव नृत्य करून, 

नृत्यात नटराज सामर्थ्यवान! …..६

 

त्रिदल बेल वाहता, 

होई भोलेनाथ प्रसन्न!

मनोप्सित वर देऊन,

भक्तांना करी धन्य! …..७

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 180 – याद के संदर्भ में दोहे… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – याद के संदर्भ में दोहे।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 180 – याद के संदर्भ में दोहे …  ✍

याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।

अपना तो यह हाल है, यादें बने लिबास।।

*

 फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।

 वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।।

*

 यादों की कंदील ने ,इतना दिया उजास।

 भूलों के भूगोल ने, बांच लिया इतिहास ।।

*

बादल आकर ले गए ,उजली उजली धूप ।

अंधियारे में कौंधते, यादों वाले स्तूप।।

*

 सांसो की सरगम बजे, किया किसी ने याद।

 शब्दों का है मौन व्रत, कौन करे संवाद ।।

*

यादों के आकाश में,फूले खूब बबूल ।

सांसों की सर फूंद भी, अधर रही है झूल ।।

*

सांसों का संकीर्तन, मिलन क्षणों की याद।

 मन – ही – मन से कर रहा, एकाकी संवाद।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 181 – “पहिन धूप ढूंढती-…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  “पहिन धूप ढूंढती-...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 181 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “पहिन धूप ढूंढती-...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

अधबहियाँ छाँव

के सलूके

पहिन धूप ढूंढती-

छेद कुछ रफू के

 

आ बैठी रेस्तराँ

 दोपहरी

देख रही मीनू को

टिटहरी

 

हैं यहाँ तनाव

फालतू के

 

स्वेद सनी गीली

बहस सी

सभी ओर असुविधा

उमस सी

 

मैके में मौसमी

बहू के

 

श्वेत- श्याम धरती

के द्वीपों

गरमी है खुले

अन्तरीपों

 

पेड़ सभी बन गये

बिजूके

 

इधर- उधर भटकी

छायायें

अब उन्हें कहो कि

घर चली जायें

 

बादल शौकीन

कुंग-फू के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-11-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय)

☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆

“व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कवि, व्यंग्यकार, सम्पादक श्रीबाल पाण्डेय जी का जन्म 19जुलाई1921 को नरसिंहपुर जिले के बिलहरा गांव में हुआ था,उनका पहला काव्य संग्रह 1958 में प्रकाशित हुआ था, ‘जब मैंने मूंछ रखी’ निबंध संग्रह के अलावा कुछ व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हुए और पसंद किए गए, व्यंग्य संग्रह ‘तीसरा कोना जुम्मन मियां का कहना है’के अलावा ‘माफ कीजिएगा हुजूर’ और ‘साहिब का अर्दली’ खूब चर्चित हुए थे। मानवीय संवेदनाएं उनकी कविताओं में कूट-कूट कर भरीं थीं,होटल में काम कर रहे छोटे से लड़के पर लिखी गई कविता पढ़कर हर पाठक की आंखें नम हो जातीं हैं, कविता में एक जगह आया है….

आज तक इसने चांद को देखा नहीं है,

हाथ में इसके सौभाग्य की कोई रेखा नहीं है,

श्रीबाल पाण्डेय जी ने साहित्यिक पत्रिका ‘सुधा’ का सम्पादन किया और ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की चर्चित पत्रिका ‘वसुधा’के प्रबंध सम्पादक रहे।वे लेखन के मामले में किसी के सामने कभी झुके नहीं, कभी किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं की। वे हरिशंकर परसाई जी के बहुत करीबी थे। श्रीबाल पाण्डेय जी के बारे में लिखते हुए याद आ रहा है जब  हम लोगों ने भारतीय स्टेट बैंक की तरफ से श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान किया था।

साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘रचना’ के संयोजन में जबलपुर के मानस भवन में हर साल मार्च माह में अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। जिसमें देश के हास्य व्यंग्य जगत के बड़े हस्ताक्षर शैल चतुर्वेदी, अशोक चक्रधर,शरद जोशी, सुरेन्द्र शर्मा, के पी सक्सेना जैसे अनेक ख्यातिलब्ध अपनी कविताएँ पढ़ते थे। रचना संस्था के संरक्षक श्री दादा धर्माधिकारी थे सचिव आनंद चौबे और संयोजन का जिम्मा हमारे ऊपर रहता था। देश भर में चर्चित इस अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान हम लोगों ने जबलपुर के प्रसिद्ध हास्य व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय का सम्मान करने की योजना बनाई, श्रीबाल पाण्डेय जी से सहमति लेने गए तो उनका मत था कि उन्हें सम्मान पुरस्कार से दूर रखा जाए तो अच्छा है फिर ऐनकेन प्रकारेण परसाई जी के मार्फत उन्हें तैयार किया गया।

इतने बड़े आयोजन में सबका सहयोग जरूरी होता है। लोगों से सम्पर्क किया गया बहुतों ने सहमति दी, कुछ ने मुंह बिचकाया, कई ने सहयोग किया। स्टेट बैंक अधिकारी संघ के पदाधिकारियों को समझाया। उस समय अधिकारी संघ के मुखिया श्री टी पी चौधरी ने हमारे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा। तय किया गया कि स्टेट बैंक अधिकारी संघ ‘रचना’ संस्था के अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान करेगी।

हमने परसाई जी को श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की तैयारियों की जानकारी जब दी तो परसाई जी बहुत खुश हुए और उन्होंने श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की खुशी में तुरंत पत्र लिखकर हमें दिया।

श्रीबाल पाण्डेय जी उन दिनों बल्देवबाग चौक के आगे  के एक पुराने से मकान में रहते थे। आयोजन के पहले शैल चतुर्वेदी को लेकर हम लोग उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़े, शैल चतुर्वेदी डील – डौल में तगड़े मस्त – मौला इंसान थे, पहले तो उन्होंने खड़ी सीढ़ियाँ चढ़ने में आनाकानी की फिर हमने सहारा दिया तब वे ऊपर पहुंचे। श्रीबाल पाण्डेय जी सफेद कुर्ता पहन चुके थे और जनाना धोती की सलवटें ठीक कर कांच लगाने वाले ही थे कि उनके चरणों में शैल चतुर्वेदी दण्डवत प्रणाम करने लोट गए। श्रीबाल पाण्डेय की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी पर वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे चूंकि उनकी जीभ में लकवा लग गया था। उस समय गुरु और शिष्य के अद्भुत भावुक मिलन का दृश्य देखने लायक था। श्रीबाल पाण्डेय शैल चतुर्वेदी के साहित्यिक गुरु थे।

मानस भवन में हजारों की भीड़ की करतल  ध्वनि के साथ श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान हुआ। मंच पर देश भर के नामचीन हास्य व्यंग्य कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया था पर उस दिन मंच से शैल चतुर्वेदी अपनी रचनाएँ नहीं सुना पाये थे क्योंकि गुरु से मिलने के बाद नेपथ्य में चुपचाप जाकर रो लेते थे और उनका गला बुरी तरह चोक हो गया था।

स्वर्गीय श्रीबाल पाण्डेय जी अपने जमाने के बड़े हास्य व्यंग्यकार माने जाते थे।जब परसाई जी  ‘वसुधा’ पत्रिका निकालते थे तब वसुधा पत्रिका के प्रबंध सम्पादक पंडित श्रीबाल पाण्डेय हुआ करते थे। उनके “जब मैंने मूंछ रखी”, “साहब का अर्दली” जैसे कई व्यंग्य संग्रह पढ़कर पाठक अभी भी उनको याद करते हैं। उन्हें सादर नमन।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 169 ☆ # भूख # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# भूख #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 169 ☆

☆ # भूख #

थानेदार ने

उस मासूम बच्चे से पूछा ?

तुमने ब्रेड और रोटी

क्यों चुराई  ?

तुममें इस उमर में

कैसे आयी यह बुराई  ?

क्या तुम नहीं जानते हो ?

कानून को नहीं मानते हो ?

यह गुनाह है, जुर्म है

क्या तुम्हें नहीं

कोई शर्म है?

तुम्हें सजा हो सकती है

तुम्हें जेल भी

हो सकती है

वह मासूम

अपने आंसू

पोंछते हुए बोला –

साहिब!

यह सब मैं

नहीं जानता हूं

पर कानून को जरूर

मानता हूं

घर में,

मेरी मां बीमार पड़ी है

जीवन भर वो भी

भूख से लड़ी है

दो छोटे भाई बहन

रोटी के लिए

तड़प रहे है

भूख से लड़ रहे हैं

साहिब! मै नहीं जानता

क्या सही, क्या चूक है ?

मेरे आंखों के आगे

तो बस

उन सबकी

भूख है, भूख है, भूख है …….? /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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