श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा नशा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 ☆

☆ लघुकथा 🌹 नशा 🌹

रंग से सराबोर और लाल-लाल आँख, बिखरे बाल, चेहरे पर मासूमियत और लड़खड़ाते कदम।

दरवाजे की घंटी बजी। जैसे ही दरवाजा खुला लगभग गिरते हुए बबलू ने कहा… “अंकल मुझे माफ कर दीजिए। पापा नाराज होंगे और इस हालत में मैं उनके सामने नहीं जाना चाहता। बाकी आप संभाल लेना।”

कहते-कहते धड़ाम से कमरे में बिछे पलंग पर औंधा गिरा।

संजय और उसकी धर्मपत्नी को समझते देर नहीं लगी कि बबलू आज नशे में धुत है।

गुस्से में पत्नी ने बोलना आरंभ किया..” घसीट कर बाहर कर दो हमें क्या करना है। इस लड़के से कोई लेना-देना नहीं।” कहते-कहते जल्दी-जल्दी पानी का गिलास लाकर बबलू को पिलाने लगी। मुँह पर पानी के छींटे मारने लगी। “हे भगवान यह क्या हुआ… कैसी संगत हो गई। हमने आना-जाना क्या छोड़ा। बच्चे को बिगाड़ कर रख डाला।” संजय भी आवक बबलू के सिर पर हाथ फेरता जा रहा था।

“अब चुप हो जाओ मैं ही बात करता हूँ।” पत्नी ने कहा.. “कोई जरूरत नहीं होश आने पर स्वयं ही चला जाएगा” और जोर-जोर से इधर-उधर चलने लगी और बातें करने लगी ताकि पड़ोसी सुन ले।

आकाश और संजय की गहरी दोस्ती थी। और होती भी क्यों नहीं एक अच्छे पड़ोसी भी साथ-साथ बन गए थे। परंतु एक छोटी सी गलतफहमी के कारण दोनों के बीच मनमुटाव यहाँ तक हुआ की बातचीत तो छोड़िए शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते थे।

बरसों बाद फोन नंबर डायल किया, नंबर देखते ही दोस्त आकाश ने अपनी पत्नी से कहा… “संजय का फोन आ रहा है।” श्रीमती झल्लाकर बोली… “कोई जरूरत नहीं है अब वक्त मिल गया। अकल ठिकाने आ गई। रहने दीजिए।”

“परंतु पता भी तो चले हुआ क्या है।”

“हेलो… बबलू मेरे घर पर है। संगति का असर है। थोड़ा बहक गया है तुम नाराज नहीं होना डर रहा है। अभी सोया है। सब ठीक हो जाएगा। हम मिलकर संभाल लेंगे।”

फोन पर बात करते-करते दोनों पति-पत्नी की आँखों में आँसू बहने लगे।

“मैं अभी आता हूँ।” दरवाजे पर बरसों बाद दोनों दोस्त मिले। पलंग पर बैठ गंभीर चर्चा करने लगे।

“अरे छोड़ यार हो जाता है गलती हो गई है। अब दोबारा नहीं होना चाहिए।” बबलू अचानक उठ बैठा जेब से गुलाल उड़ाते कहने लगा…. “मैंने कोई नशा नहीं किया। आप दोनों का नशा उतारना था और जो असली नशा आप दोनों के बीच है उसे फिर से चढ़ाना था।

इसलिए मैंने इस नशे का नाटक किया।” चारों एक दूसरे का मुँह देखने लगे।” इस नाटक को करने के लिए मैंने कल से कुछ नहीं खाया है। कुछ मिलेगा।” “अब तुम मार खाओगे।”

हँसी का गुब्बारा फूटने छूटने लगा.. बबलू के नशे ने अपना काम कर दिया था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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