मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – कानवसा – ☆ सुश्री उषा जनर्दन ढगे ☆

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – कानवसा –  ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

विसावली एक पक्षिणी

झाडाच्या एका फांदीवर

काय चालले तिच्या मनांत

कुठे असावे तिचे कोटर..?

कावरे बावरे चित्त तिचे

नजर बावरी दूर दूरवर

वाट पहात असावी ती

पिले उडाली तरी कुठवर..?

बसली आहे तरु शलाकेवर

भवतीच्या निसर्ग परिसरात

परी काहूर माजे मनी तिच्या

काय चाले कोवळ्या अंतरात..?

शुष्क कोरडेपणात मोहवी

हरित पालवीची नक्षी

कुणी पहात होता का तिज

तिच्या एकांताचा साक्षी..?

येतील कधी पिले परतूनी

आशा डोकावी नयनांत

तयां संगे मग घेईल फिरूनी

मोदीत झेप उंच गगनांत..!

चित्र साभार – सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 86 ☆ गजल – ’’हिलमिल रहो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “हिलमिल रहो …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 86 ☆ गजल – हिलमिल रहो …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

परचम लिये मजहब का जो गरमाये हुये हैं

आवाज लगा लड़ने को जो आये हुये हैं।

उनको समझ नहीं है कि मजहब है किस लिये

कम अक्ल हैं बेवजह तमतमाये हुये हैं।

नफरत से सुलझती नहीं पेचीदगी कोई

यों किसलिये लड़ने को सर उठाये हुये हैं।

मजहब तो हर इन्सान की खुशियों के लिये हैं

ना समझी में अपनों को क्यों भटकाये हुये हैं।

औरों की भी अपनी नजर अपने खयाल हैं

क्यों तंगदिल ओछी नजर अपनाये हुये हैं।

दुनियां बहुत बड़ी है औ’ ऊँचा है आसमान

नजरें जमीन पै ही क्यों गड़ाये हुये है।

फूलों के रंग रूप औ’ खुशबू अलग है पर

हर बाग की रौनक पै सब भरमाये हुये हैं।

मजहब सभी सिखाते है बस एक ही रास्ता

हिल-मिल रहो, दो दिनों को सभी आये हुये हैं।

कुदरत भी यही कहती है-दुख को सुनो-समझो

जीने का हक खुदा से सभी पाये हुये हैं।

इन्सान वो इन्सान का जो तरफदार हो

इन्सानियत पै जुल्म यों क्यों ढाये हुये हैं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 94 – उपकार किस पर करें? ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #94 🌻 उपकार किस पर करें? 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

🔷 जंगल में शेर शेरनी शिकार के लिये दूर तक गये अपने बच्चों को अकेला छोडकर। देर तक नही लौटे तो बच्चे भूख से छटपटाने लगे उसी समय एक बकरी आई उसे दया आई और उन बच्चों को दूध पिलाया फिर बच्चे मस्ती करने लगे तभी शेर शेरनी आये बकरी को देख लाल पीले होकर हमला करता उससे पहले बच्चों ने कहा इसने हमें दूध पिलाकर बड़ा उपकार किया है नही तो हम मर जाते।

🔶 अब शेर खुश हुआ और कृतज्ञता के भाव से बोला हम तुम्हारा उपकार कभी नही भूलेंगे जाओ आजादी के साथ जंगल मे घूमो फिरो मौज करो। अब बकरी जंगल में निर्भयता के साथ रहने लगी यहाँ तक कि शेर के पीठ पर बैठकर भी कभी कभी पेडो के पत्ते खाती थी।

🔷 यह दृश्य चील ने देखा तो हैरानी से बकरी को पूछा तब उसे पता चला कि उपकार का कितना महत्व है। चील ने यह सोचकर कि एक प्रयोग मैं भी करता हूँ चूहों के छोटे छोटे बच्चे दलदल मे फंसे थे निकलने का प्रयास करते पर कोशिश बेकार।

🔶 चील ने उनको पकड पकड कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया बच्चे भीगे थे सर्दी से कांप रहे थे तब चील ने अपने पंखों में छुपाया, बच्चों को बेहद राहत मिली काफी समय बाद चील उडकर जाने लगी तो हैरान हो उठी चूहों के बच्चों ने उसके पंख कुतर डाले थे। चील ने यह घटना बकरी को सुनाई तुमने भी उपकार किया और मैंने भी फिर यह फल अलग क्यों?

🔷 बकरी हंसी फिर गंभीरता से कहा

🔶 उपकार भी शेर जैसो पर किया जाए चूहों पर नही। चूहों  (कायर) हमेशा उपकार को स्मरण नही रखेंगे वो तो भूलना बहादुरी समझते है और शेर(बहादुर )उपकार कभी नही भूलेंगे।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 107 – येऊन जा जरा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 107 – येऊन जा जरा ☆

हा दाह जाळणारा शमवून जा जरा।

ही ओल भावनांची देऊन जा जरा।

 

नाही मुळीच माया माता पिता नसे।

हे बाल्य खेळवाया येऊन जा जरा।

 

नुरलेत त्राण देही वृद्धाश्रमी जरी।

घर आज आश्रयाला ठेऊन जा जरा।

 

झेलून या विषारी नजराच बोचऱ्या।

अबलेस तारणारा होवून जा जरा।

 

भोगीच आज योगी हे मातले अती।

धर्मांध दानवांना ताडून जा जरा।

 

थकलेत राबणारे जोडून हात ही ।

हे पाश सावकारी तोडून जा जरा।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #137 ☆ ट्यूशन व तलाक़  ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख  ट्यूशन व तलाक़ . यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 137 ☆

☆ ट्यूशन व तलाक़ ☆

जो औरतें शादी के बाद मायके से ट्यूशन लेती हैं; वे औरतें तलाक़ की डिग्री ज़रूर हासिल कर लेती हैं,’ यह कथन कोटिशः सत्य है। आजकल माता-पिता, भाई-बांधवों व अन्य परिजनों के पास उनकी पल-पल की रिपोर्ट दर्ज होती है और वे ससुराल में रहते हुए भी मायके वालों के आदेशों की अनुपालना करती हैं। खाना बनाने से लेकर घर-परिवार की छोटी से छोटी बातों की ख़बर उनकी माता व परिजनों को होती है। आजकल विदाई के समय उसे यह सीख दी जाती है कि उसे वहाँ किसी से दब कर रहने की आवश्यकता नहीं है; सदा सिर उठाकर जीना। हम सब तुम्हारे साथ हैं और उन्हें दिन में तारे दिखला देंगे। वैसे भी वर के परिवारजनों को सीखचों के पीछे धकेलने में समय ही कितना लगता है। उन पर दहेज व घरेलू हिंसा का इल्ज़ाम लगाकर आसानी से निशाना साधा जा सकता है। सो! दूर-दूर के संबंधियों की प्रतिष्ठा भी अकारण दाँव पर लग जाती है और रिश्ते उनके लिए गले की फाँस बन जाते हैं।

इतना ही नहीं, अक्सर वे माता-पिता की इच्छानुसार सारी धन-दौलत व आभूषण एकत्र कर अक्सर अगले दिन ही नये शिकार की तलाश में वहाँ से रुख़्सत हो जाती हैं। जब से महिलाओं के पक्ष में नये कानून बने हैं, वे उनका दुरुपयोग कर प्रतिशोध ले रही हैं। शायद वे वर्षों से सहन कर रही गुलामी व ज़ुल्मों-सितम का प्रतिकार है। पुरुष सत्तात्मक परंपरा के प्रचलन के कारण वे सदियों से ज़ुल्मों-सितम सहन करती आ रही हैं। अब तो वे मी टू की आड़ में अपनी कुंठाओं की  रिपोर्ट दर्ज करा रही हैं। 

महिलाओं को समानता का अधिकार लम्बे समय के संघर्ष के पश्चात् प्राप्त हुआ है। इसलिए अब वे आधी ज़मीन ही नहीं; आधा आसमान भी  चाहती हैं; जिस पर पुरुष वर्ग लम्बे समय से  काबिज़ था। इसलिए वे ग़लत राहों पर चल निकली हैं। चोरी-डकैती, अपहरण आदि उनके शौक हो गए हैं तथा पैसा ऐंठने के लिए वे पुरुषों पर निशाना साधती हैं तथा उन पर अकारण दोषारोपण करना व उनके लिए सामान्य प्रचलन हो गया है। महफ़िल में शराब के पैग लगाना, सिगरेट के क़श लगाना, रेव पार्टियों में सहर्ष प्रतिभागिता करना उनके जीवन का हिस्सा बन गया है। आजकल अक्सर महिलाएं अपने माता- पिता के हाथों की कठपुतली बन इन हादसों को अंजाम दे रही हैं तथा दूसरों का घर फूंक कर तमाशा देखना उनके जीवन का शौक हो गया है।

‘गुरु बिन गति नांहि’ ऐसी महिलाओं के गुरू अक्सर उनके माता-पिता होते हैं, जो उनकी सभी शंकाओं का समाधान कर उन्हें सतत्  विनाश के पद पर अग्रसर होने की सीख देकर उनका पथ प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार ऐसी महिलाएं जो अपने मायके की ट्यूशन लेती हैं, उन्हें तलाक़ की डिग्री अवश्य प्राप्त हो जाती है। मुझे एक ऐसी घटना का स्मरण हो रहा है, जिसमें विवाहिता ने चंद घंटे पश्चात् ही तलाक़ ले लिया। विवाह के पश्चात् प्रथम रात्रि को वह पति को छोड़कर चली गई। उसका अपराध केवल यही था कि उसने पत्नी से यह कह दिया कि ‘तुम्हारे बहुत फोन आते हैं। थोड़ी देर आराम कर लो।’ इतना सुनते ही वह अपना आपा खो बैठी और उसे खरी-खोटी सुनाते हुए भोर होने पूर्व ही पति के घर को छोड़कर चली गई।

अक्सर महिलाएं तो यह निश्चय करके ससुराल में कदम रखती हैं कि उन्हें उस घर से पैसा व ज़ेवर आदि बटोर कर वापस लौटना है और वे इसे अंजाम देकर रुख़्सत हो जाती हैं। वैसे भी  आजकल तो हर तीसरी लड़की तलाक़शुदा है। फलत: सिंगल पैरंट का प्रचलन भी बेतहाशा बढ़ रहा है और लड़के ऐसी ज़ालिम महिलाओं के हाथों से तिरस्कृत हो रहे हैं। इतना ही नहीं, वे निर्दोष अपने अभागे माता-पिता सहित कारागार में अपनी ज़िदगी के दिन गिन रहे हैं और उस ज़ुल्म की सज़ा भोग रहे हैं।

पहले माता पिता बचपन से बेटियों को यह शिक्षा देते थे कि ‘पति का घर ही उसका घर होगा और उस घर की चारदीवारी से उसकी अर्थी निकलनी चाहिए। उसे अकेले मायके में आने की स्वतंत्रता नहीं है।’ सो! तलाक़ की नौबत आती ही नहीं थी। वास्तव में तलाक़ की अवधारणा तो विदेशी है। मैरिज के पश्चात् डाइवोरस व निक़ाह के पश्चात् तलाक़ होता है। हमारे यहां तो विवाह के समय एक-दूसरे के लिए सात जन्म तक जीने- मरने की कसमें खाई जाती हैं। परंतु हमें तो पाश्चात्य की जूठन में आनंद आता है। इसलिए हमने ‘हेलो हाय’ ‘मॉम डैड’ व ‘जींस कल्चर’ को सहर्ष अपनाया है। वृद्धाश्रम पद्धति भी उनकी देन है। हमारे यहां तो पूरा विश्व एक परिवार है और ‘अतिथि देवो भव’ का बोलबाला है।

आइए! हम बच्चों को संस्कारित करें उन्हें जीवन मूल्यों का अर्थ समझाएं व ‘सत्यमेव जयते’ का पाठ पढ़ाएं। अपने घर को मंदिर समझ सहर्ष उसमें रहने का संदेश दें, ताकि कोरोना जैसी आपदाओं के आगमन पर उन्हें घर में रहना मुहाल हो। लॉकडाउन जैसी  स्थिति में वे न विचलित हों और न ही डिप्रेशन कि शिकार हों। हम भारतीय संस्कृति का गुणगान करें और बच्चों को सुसंस्कारित करें, ताकि उनकी सोच सकारात्मक हो। वे घर-परिवार की महत्ता को समझें तथा बुजुर्गों का सम्मान करें तथा उनके सान्निध्य में शांति व सुक़ून से रहें। वे अधिकतम समय मोबाइल के साथ में न बिताएं तथा घर-आंगन में दीवारें न पनपने दें। महिलाएं  ससुराल को अपना परिवार अर्थात् मायका समझें, ताकि तलाक़ की नौबत ही न आए। वे एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव से रहें, ताकि  सोलोगैमी अर्थात् सैल्फ मैरिज की आवश्यकता ही न पड़े। 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #136 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 136 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

पाती तेरी मिल गई, लिया प्रभु का नाम।

संदेशा आया सुखद, हुई निराली शाम।।

सुनती है सखियां सभी, क्या लिखते हैं श्याम।

रोम रोम पुलकित हुआ, केवल मेरा नाम।।

शब्द पाती के पढ़कर, नहीं चैन आराम।

मिलना होगा कब प्रिये, आओगे कब धाम।

पाती तुमको लिख रही, लिखती  हूं अविराम।

शब्द शब्द में है रचा, बस तेरा ही नाम।।

नेह निमंत्रण दे रहे, इसे करो स्वीकार।

आपस के संबंध में, नहीं जीत या हार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #125 ☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “बुन्देली पूर्णिका… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 125 ☆

☆ बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

एक नओ भुनसारो हो रओ

घर-घर में बंटवारों  हो रओ

 

जब सें आई  नई दुल्हनिया

बेटा  घर सें  न्यारो हो  रओ

 

नई  पीढ़ी  के  मोड़ा-मोड़ी

अपनों सँग नबारो हो रओ

 

जाने कौन मुरहु सें फँस खें

अपनो पूत गंवारों हो  रओ

 

कबहुँ सुनें ने घर  की  भैया

पी खें वो  आबारो  हो रओ

 

को समझावे उन खों अब तो

जैसे   भूसा   चारो   हो  रओ

 

हमखों अब “संतोष” ने आबे

मों करतूतों से कारो हो रओ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #129 – कातर वेळी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 129 – विजय साहित्य ?

☆ कातर वेळी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(दशाक्षरी कविता)

नदी रंगते, कातरवेळी

रविकिरणांच्या, पायघड्या

निरोप घेई,रवी कुणाचा

अंधारतीच्या, विश्वात बड्या…!

 

तरंग हळवे, थाट बडा

पाखरझुंडी, मंथर नाद

सुरावटीला, पाखरगाणी

बघ घरट्याची, आली साद…!

 

नदी किनारी, गोड सावल्या

रती मदनाचा, रंगे खेळ

सहवासाची,मादक धुंदी

हितगुज वारा,घाली मेळ….!

 

कोणी चुकला,कोणी मुकला

युवा वयस्कर, विसावला

नदी किनारी, गोड नजारा

भिरभिरताना, सुखावला…!

 

नाही घडले, विशेष काही

तरंग उठले, सभोवती

मार्ग जाहले,जरा प्रवाही

निरोप समई मनाप्रती..!

 

कातरवेळी, चंद्र चांदणी

ओला दरवळ मनोमनी

निरोप नाही, भेट रवीची

मनपटलावर क्षणोक्षणी…!

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बंध रेशमाचे!…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆  बंध रेशमाचे!…अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

“कमवता झालास, की कळेल तुला एका एका पैशाची किंमत! कमवता होत नाहीस तोपर्यंत वाचवायला शिक!,” असं आई म्हणायची. मला पटायचं नाही. शाळेत होतो, बंडखोरी नुकतीच शिकत होतो! “हा असला साबण मी वापरणार नाही, मला नवाच साबण पाहिजे!” असा इशारा द्यायचो; पण काही उपयोग व्हायचा नाही. “नको वापरूस साबण. बरंच आहे!” असा बचाव पक्षाचा बचाव असायचा.

पंडित भीमसेन जोशी यांचं कन्नडमधलं ‘भाग्यदा लक्ष्मी बारम्मा’ कुठंही आणि कधीही ऐकलं, तरी मला बेळगाव-धारवाड रस्त्यावरचा पहाटेचा एक ढाबा आठवतो! एका जवळच्या मित्राबरोबर बेळगावहून मोटारसायकलवर आम्ही भल्या पहाटे धारवाडला निघालो होतो.

 रस्त्यात एका ठिकाणी चहासाठी थांबलो. झुंजूमुंजू झालेली होती. सगळं वातावरणच रम्य. त्या रसिक ढाबेवाल्यानं मोठ्या आवाजात कॅसेटवर “भाग्यदा लक्ष्मी बारम्मा’ लावलं. ते तसलं सुंदर वातावरण, हवेतला सुखकर गारवा, गरम चहाचा घोट आणि पहाटे-पहाटे पंडितजींचा मस्त लागलेला आवाज! कानडी येत नाही, त्यामुळे शब्द समजले नाहीत. अर्थ तर फारच दूर; पण हे काहीतरी पवित्र आहे, सुंदर आहे एवढं मात्र जाणवलं. मनाच्या पार आतवर खोल कोरलं गेलं. अधाशासारखं तीनदा परतपरत ऐकलं, तरी मन भरेना. शेवटी, कानात अतृप्तता घेऊन तिथून निघालो. इतकी वर्षं झाली, आजही हे “भजन’ ऐकलं, की दरवेळी मला माझा मित्र सुधीर आठवतो, तो प्रवास आठवतो, त्याची गाडी आठवते, तो “ढाबेवाला’ शिवा आठवतो. एवढंच काय, हे ऐकताना प्यायलेल्या आलेमिश्रित चहाची चवही आठवते! मेंदू कुठंतरी या सगळ्या गोष्टींची एकत्रित सांगड घालतो!

आजही किशोरकुमारचं, “वो शाम, कुछ अजीब थी’ ऐकलं, की कॉलेज आठवतं, “ती’ आठवते, कॉलेजचं कॅंटीन आठवतं, “ती’चं हॉस्टेल आठवतं. दिवाळीच्या सुट्टीमुळे घरी जावंच लागेल, ही तिची असहायता आठवते—- एवढं सुंदर गीत; पण आजही त्रास देऊन जातं!

आठवणींचं घटनांशी, वस्तूंशी, गंधाशी, सुरांशी अतूट असं नातं असतं. आठवणी कधी सुरांना चिकटून येतात, तर कधी वासाला. कधी एखादा विशिष्ट रंगसुद्धा तुम्हाला पुर्वायुष्यातल्या एखाद्या घटनेची “याद’ देऊन जातो. आठवणी या सगळ्यांशी कोणत्या ना कोणत्या तऱ्हेनं निगडित असतात. तोडू म्हटलं, तरी ते बंध तोडता येत नाहीत.

मुंबईत बांद्रयाला हिलरोडवर उभा होतो. अचानक सिग्नलवर गर्दी झाली. टाचा उंचावून बघितलं. सिग्नलवर फेरारी! फेरारी पाहायला, एवढी गर्दी कशाला? “काय कळत नाही का या मुंबईकरांना,’ असं म्हणणार होतो. म्हणणारच होतो, की ड्रायव्हर साईडच्या काचा खाली झाल्या, आणि समोर साक्षात गॉगलधारी “सचिन’!

नेहमीसारखा हसतमुख! “अबे, जाने दो ना..’ सगळ्यांना अशी हसतहसत विनंती करणारा! शेवटी, चार वेळा हिरवे होऊन परत लालटलेले सिग्नल, मागच्या शंभर गाड्यांचे हॉर्न, भलामोठा ट्रॅफिक जॅम आणि सहस्त्र फोटो यानंतरच तो जाऊ शकला! “फेरारी’ आणि आपला “सचिन’, हे समीकरण तेव्हापासून डोक्‍यात घट्ट झालं, नंतर त्यानं ती फेरारी विकली, हे माहिती असूनही! देशी-परदेशी फिरत असतो, हजारो प्रकारच्या गाड्या दिसतात. त्यात कधीकधी “फेरारी’ही दिसते; पण “फेरारी’ पाहिली, की आठवतो, तो आपला “तेंडल्या’च! फेरारी चालवणारा कोणी दिसलाच, तर तो चोरीची फेरारी वापरतोय, असंच जणू मनात येतं! फेरारीवर पहिला हक्क आपल्या “तेंडल्या’चाच!

दिवेआगारला गेलो होतो. सकाळी लवकर उठलो. पायीपायी हॉटेलपासून एखादा किलोमीटर आलो असेन, एका चिरपरिचित पण तत्क्षणी ओळखू न आलेल्या वासानं आसमंत व्यापून टाकला होता. ओळखताच येत नव्हता. रस्त्यातल्या चाफ्याचा, पारिजातकाचा, नारळाचा इतकंच काय, झाडांवरच्या पिकलेल्या आंब्यांचा वास, या सगळ्यांवर मात करत, हा वास नाकातून मनात शिरला. काहीतरी सुखद संवेदना होत होती. छान असं वाटत होतं; पण कशामुळे हे उमजत नव्हतं!—–

रस्त्याजवळच्या एका “वाडी’त, बाहेरच पाणी गरम करायचा एक तांब्याचा “बंब’ धडाडून पेटला होता. धूर सगळीकडे पसरवत होता. एक तर अक्षरशः इसवीसनापूर्वीचा तो बंब बघूनच मी व्याकुळ झालो! मधल्या काळ्या लोखंडी पाईपमधून टाकलेल्या शेणाच्या गोवरीच्या, लाकडाच्या ढलप्यांचा जळण्याचा वास मला भूतकाळात घेऊन गेला! शाळेत असताना सुट्टीत मोठ्या काकांकडे जायचो. त्यांच्याकडे, असाच एक “बंब’ होता. त्या धुराच्या वासानं क्षणात, कित्येक वर्षं ओलांडून, वर्तमानकाळाला फोडून भूतकाळात गेलो! त्या सुट्ट्या आठवल्या, काकांचं घर आठवलं, काकू आठवली, तिच्या पुरणपोळ्या आठवल्या. तिचं आम्हा बालबच्च्यांवर असलेलं निरपेक्ष प्रेम आठवलं. दिवेआगारच्या रम्य सकाळी धुराच्या वासानं नाशिकची प्रेमळ शालनकाकू आठवून दिली!

असंच, पिझ्झा पाहिला, की मला पुण्यातल्या जंगली महाराज रोडवरचा एक भिकारी आठवतो! रात्रीचे दहा वाजले असतील. हा माणूस छानपैकी पिझ्झा खात होता! कोणी उरलेला दिला असावा, वा कोणी दानशुरानं अख्खा न खाता दिला असावा. काहीही असो. तो माणूस “उदरम भरणमं’ या भावनेनं मन लावून तो पिझ्झा खात होता. चव वगैरे त्याच्या दृष्टीनं गौण होतं. त्याचं मन लावून ते पिझ्झा खाणं मनात त्या दोन विजोड गोष्टींची सांगड घालून गेलं! अगदी खुद्द इटलीतल्या मिलानला बावीसशे रुपयांचा पिझ्झा खातानाही, मला तो काळा-पांढरा पट्टेरी ठिगळाचा शर्ट घातलेला, तृप्ततेनं पिझ्झा खाणारा पुण्यातला गरीब माणूसच आठवला!

परवा दिल्लीला मित्राकडे मुक्कामाला होतो. त्याच्या बाथरूममध्ये नारंगी रंगाच्या साबणावर पोपटी रंगाचा साबणाचा छोटा तुकडा चिकटवलेला दिसला. हा असला विजोड साबण बघितला, अन्‌ टचकन डोळ्यात पाणी आलं. एकदम्‌ आई आठवली! साबण विरत आला, हातात येईनासा झाला, की आई नवा साबण काढायची, हा जुना तुकडा त्याला चिटकवायची. मला नाही आवडायचे.””हा काय किडेखाऊपणा?” मी चिडायचो. आमची आर्थिक परिस्थिती छानच होती. गरीबी लांबच; उच्च मध्यमवर्गीयांपेक्षाही उच्चच होतो आम्ही. हे असले प्रकार करायची काही एक गरज नसायची; पण आई ऐकायची नाही.

बादली गळायला लागली, की तिच्या बुडाला डांबर लाव. गळली बादली, की लाव डांबर, असं तिचं चालायचं. काही दिवसांनी बादलीपेक्षा डांबराचंच वजन जास्त व्हायचं! मग ती बादली बाजूनंही चिरली, की त्यात माती भरून तिची कुंडी बनव, आमच्या चपला झिजल्या, की त्या दुरुस्त करणाऱ्यांकडून त्याला ट्रकच्या टायरची टाच लाव, जुन्या कपड्यांच्या पिशव्या शिव, त्यांचाही जीव गेला, की त्याचं पायपुसणं बनव, असे माझ्या भाषेतले “उपद्‌व्याप’ आई सदैव करायची. त्याकाळी किराणा सामान कागदी पुड्यांमध्ये यायचं. त्या पुड्यांचा कागद रद्दीच्या गठ्ठ्यात आणि धागा रिळाला! मी दहावीला आलो, तेव्हा तर वाण्याच्या दुकानातल्यापेक्षा मोठा दोराचा रिळ आमच्या घरी बनला होता!

काही वर्षांपूर्वी आई गेली. जेव्हा होती, तेव्हा बऱ्याच वेळा तिच्या छोट्या छोट्या गोष्टींचं मोल केले नाही, आणि आता गेली आहे, तर तिच्या सगळ्याच गोष्टी अमोल वाटताहेत!

बाथरूममधून बाहेर आलो. डोळे लाल झाले होते. 

मित्रानं विचारलं: “”काय रे, डोळ्यात साबण गेला का?”

मी म्हणालो: “नाही रे, साबणामागची आई!”

लेखक : अज्ञात 

संग्रहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 93 ☆ कसक ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा ‘कसक’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 93 ☆

☆ लघुकथा – कसक ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कॉलबेल बजी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक वृद्धा खड़ी थीं। कद छोटा, गोल- मटोल, रंग गोरा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, जो उनके चेहरे पर निहायत सलोनापन बिखेर रही थी। कुल मिलाकर सलीके से सिल्क की साड़ी पहने  बड़ी प्यारी सी महिला मेरे सामने खड़ी थी। जवानी में निस्संदेह बहुत खूबसूरत रही होंगी। मैंने उनसे घर के अंदर आने का आग्रह किया तो बोलीं – ‘पहले बताओ मेरी कहानी पढ़ोगी तुम?  ‘

अरे, आप अंदर तो आइए, बहुत धूप है बाहर – मैंने हंसकर कहा।

सब सोचते होंगे बुढ़िया सठिया गई है। मुझे बचपन से ही लिखना पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ना कुछ लिखती रहती हूँ पर परिवार में मेरे लिखे हुए को कोई पढ़ता  ही नहीं।  पिता ने मेरी शादी बहुत जल्दी कर दी। सास की डाँट खा- खाकर जवान हुई। फिर पति ने रौब जमाना शुरू कर दिया। बुढ़ापा आया तो बेटा तैयार बैठा है हुकुम चलाने को। पति चल बसे तो मैंने बेटे से कहा – अब किसी की धौंस नहीं सहना,मैं अकेले रहूंगी। सब पागल कहते हैं मुझे कि बुढ़ापे में लड़के के पास नहीं रहती।  जीवन कभी अपने मन से जी ही नहीं सकी। अरे भाई, अब तो अपने ढ़ंग से जी लेने  दो मुझे।

वह धीरे – धीरे संभलकर चलती हुई अपनेआप ही बोलती जा रही थीं।

मैंने कहा – आराम से बैठकर पानी पी लीजिए, फिर बात करेंगे। गर्मी के कारण उनका गोरा चेहरा लाल पड़ गया था और लगातार बोलने से साँस फूल रही थी। वह सोफे पर पालथी मारकर बैठ गईं और साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछने लगीं। पानी पीकर गहरी साँस लेकर बोलीं – अब तो सुनोगी मेरी बात?

हाँ बिल्कुल, बताइए।

 मैं पचहत्तर साल की हूँ। मुझे मालूम है कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ पर क्या बूढ़े आदमी की कोई इच्छाएं नहीं होतीं? उसे  बस मौत का इंतजार करना चाहिए? और किसी लायक नहीं रह जाता वह? बहुत- सी कविताएं और कहानियां  लिखी हैं मैंने। घर में सब मेरा मजाक बनाते हैं, कहते हैं चुपचाप राम – नाम जपो, कविता – कहानी छोड़ो। कंप्यूटरवाले की दुकान पर गई थी कि मुझे कंप्यूटर सिखा दो तो वह बोला माताजी, अपनी उम्र देखो।

 मैंने कहा – उम्र को क्या देखना? लिखने पढ़ने की भी कोई  उम्र होती है? तुम अपनी फीस से मतलब रखो मेरी उम्र मत देखो। जब उम्र थी तो परिवारवालों ने कुछ करने नहीं दिया। अब करना चाहती हूँ तो उम्र को बीच में लाकर खड़ा कर दो, ना भई !

यह कहानी लिखी है बेटी ! तुम पढ़ना,  उन्होंने बड़ी विनम्रता से कागज मेरे सामने रख दिया। मैं उनकी भरी आँखों और भर्राई आवाज को महसूस कर रही थी। मैंने कागज हाथ में ले लिया। अपने ढ़ंग से जिंदगी ना जी पाने की कसक की कहानी उनके  चेहरे पर साफ लिखी थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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