हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 269 ☆ लघुकथा –  लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 269 ☆

? लघुकथा – लंदन से 5 –  सेव पेपर सेव ट्री ?

सार्वजनिक मुद्दो को जनहित याचिकाओ के माध्यम से उठाने के लिए वकील साहब की बड़ी पहचान थी। बच्चों के एजुकेशन को लेकर चलाई गई उनकी पिटिशन को विश्व स्तर पर यूनेस्को ने भी रिकगनाईज किया था।

उस दिन एक मंहगे रेस्त्रां में काफी पीते हुए उन्होंने देखा कि रेस्त्रां ने अपना मीनू कागज की जगह मोबाइल से स्कैन के जरिए प्रस्तुत कर सेव पेपर की मुहिम प्रमोट की थी। इससे वकील साहब बहुत प्रभावित हुए। उन का ध्यान गया कि ई पेपर के इस नए जमाने में भी ढेर सारे अखबार प्रिंट हो रहे हैं, स्कूलों में बच्चों को कापी पर ढेर सा होम वर्क करना होता है, चुनावों में बेहिसाब पोस्टर छापे जाते हैं, पेपर प्लेट्स में खाद्य पदार्थ दिए जाने भी कागज वेस्ट होता है, प्रचार में हैंड बिल्स में कागज की बेहिसाब बरबादी उन्हें दिखी। वकील साहब को समझ आया कि थोड़े से कागज की बचत का मतलब एक वृक्ष की जिंदगी बचाना है।

वकील साहब ने सेव पेपर की पी आई एल लगाने का मन बना लिया। उसी रात उन्होंने गहन अध्ययन कर एक तार्किक ड्राफ्ट तैयार किया, जिसमें उन्होंने मांग रखी कि यह अनिवार्य किया जाए कि न्यूज पेपर्स प्रकाशक महीने के अंत में अपने ग्राहकों से पुराने रद्दी अखबार वापिस खरीदें और रिसाइकिल हेतु भेजें। अखबार छापने के लिए कम से कम 50 प्रतिशत रिसाइकिल पेपर ही प्रयुक्त किया जावे।

सुबह सेव पेपर सेव ट्री की अपनी यह जन हित याचिका लेकर वे कोर्ट पहुंचे। उनके बड़े कांटेक्ट सर्किल में उनकी इस नई पी आई एल को हाथों हाथ लिया गया। और उसी शाम क्लब में उनकी एक प्रेस वार्ता रखी गई। पत्रकारों को पी आई एल की जानकारी देने के लिए वकील साहब के स्टाफ ने एक बड़ी विज्ञप्ति प्रिंट की। एन समय पर वकील साहब की दृष्टि पड़ी की विज्ञप्ति में उन्हें प्राप्त सम्मानों में हाल ही मिले कुछ अवार्ड छूट गए हैं। उन्होंने स्टाफ को कड़ी फटकार लगाई, आनन फानन में विज्ञप्ति के नए सविस्तृत प्रिंट फिर से निकाले गए, प्रेस वार्ता बहुत सक्सेसफुल रही, क्योंकि दूसरे दिन हर अखबार के सिटी पेज पर उनकी फोटो सहित चर्चा थी। उनके पर्सनल स्टाफ ने अखबार की कटिंग की फाइल बनाते हुए देखा कि कल शाम की रिजेक्टेड विज्ञप्ति के पन्ने फड़फड़ा रहे थे और उनसे रद्दी की टोकरी भरी हुई थी, जिसे जलाने के लिए आफिस बाय बाहर ले जा रहा था।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 – मुलताई होली – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मुलताई होली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 ☆

☆ लघुकथा 🌻 मुलताई होली 🌻

रंग उत्सव का आनंद, फागुन होली की मस्ती, किसका मन नहीं होता रंगों से खेलने का। लाल, हरा, पीला, नीला, गुलाबी, गुलाल सबका मन मोह रही है।

और हो भी क्यों नहीं, होली की खुशियाँ भी कुछ ऐसी होती है कि हर उम्र का व्यक्ति बड़ा – छोटा सबको रंग लगाना अच्छा लगता हैं।

अरे कांता…… सुनो तुम जल्दी-जल्दी काम निपटा लो। आज 12:00 बजे हमारे सभी परिचित होली खेलने आएंगे। रंग, फाग उड़ेगा, ढोल – नगाड़े बजेंगे, मिठाइयां बटेगी और स्वादिष्ट भोजन सभी को खिलाया जाएगा।

जी मेम साहब…. कांता ने चहक कर आवाज लगाई।

अपना काम कर रही थी। झाड़ू – पोछा लगाते- लगाते देखी कि बाहर बालकनी में कई बोरी मुल्तानी मिट्टी जिससे होली खेली जाती है, रखी हैं। जिसमें से भीनी-भीनी खुशबू भी आ रही है।

गांव में थोड़ा सा गुलाल, रंग और फिर कीचड़, पानी से होली खेलते देख, वह शहर आने के बाद मिट्टी से होली का रंग लगाते देख रही थी।

पिछले साल भी वह इस होली का आनंद उठाई थी। परंतु आज इतने बोरियों को इकट्ठा देख उसके अपने छोटे से घर जहाँ की मिट्टी की दीवार जगह से उखड़ी थी, याद आ गया… अचानक काम करते-करते वह रुक गई।

हिम्मत नहीं हो रही थी कि मेमसाहब से बोल दे….. कि वह दो बोरियां मुझे भी दे दीजिएगा। ताकि मैं अपने घर ले जाकर दीवारों को मुलताई मिट्टी पोत-लीप लूंगी।

हमारी तो होली के साथ-साथ दीवाली भी हो जाएगी और घर भी अपने आप महकने लगेगा। फिर बुदबुदाते हुए जाने लगी और मन में ही बात कर रही थीं… यह सब बड़े आदमियों के चोचलें  हैं। इन्हें क्या पता कि हम गरीबों की देहरी इन मिट्टी से नया रंग रूप ले खिल उठती है।

जाने दो मैं फिर कभी मांग लूंगी। कांता के हाव-भाव और गहरी बात को सुन मेमसाहब सोच में पड़ गई।

बातें मन को एक नया विचार दे रही थी। सभी मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। जब सभी लोग आ गए कोई रंग कोई गुलाल कोई मिट्टी लेकर आए थे। जोर-जोर से ढोल नगाड़े और डीजे की आवाज के बीच अचानक मेमसाहब की आवाज गूंज उठी…. आज की होली हम सिर्फ अबीर, गुलाल और रंग से खेलेंगे।

जो भी मिट्टी रखी है उसे सभी पास के गांव में ले चलेंगे। वहाँ पर होली खेलकर आएंगे। हँसते हुए सब ने कहा… अच्छा है मिट्टी से होली खेल कर आ जाएंगे गांव वाले जो ठहरें।

सभी की सहमति लगभग तय हो गई इन सब बातों से अनजान कांताबाई अपने काम में लगी।

किसी दूसरे ने कहा देखो कांता मेमसाहब कह रही हैं… सब तुम्हारे गांव जा रहे हैं।

खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह सोचकर झूम उठी कि मैं सभी को थोड़ा सा अच्छा वाला गुलाल, रंग लगाकर मिट्टी की बोरी को दीवाल रंगने के लिए रख लूंगी।

मेरे घर की दीवाल भी मुलताई मिट्टी से होली खेल महक उठेगी । जोश से भरा उसका हाथ जल्दी-जल्दी काम में चलने लगा। मेमसाहब को आज होली के मुलताई रंग की अत्यंत प्रसन्नता हो रही थीं। सच तो यह है कि हम बेवजह किसी भी चीज की उपयोगिता को बिना सोचे समझे उसे नष्ट कर देते हैं। सोचने वाली बात है आप भी जरा सोचिएगा। 🙏🙏🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 76 – देश-परदेश – निबंध : होली का त्यौहार☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 76 ☆ देश-परदेश – निबंध : होली का त्यौहार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे पड़ोसी शर्मा जी के पुत्र ने होली त्यौहार पर आज निबंध लिख कर हमें जांच के लिए दिया, जो निम्नानुसार हैं।

हमारे घर पर होली त्यौहार की चर्चा दीपावली के बाद से ही आरंभ हो जाती हैं। पिता और मां बात बात पर “होली के बाद या होली के समय” जैसे शब्दों का प्रयोग इस प्रकार से करते है, जैसे इतिहास में “ईसा पूर्व या ईसा के बाद” का हवाला दिया जाता हैं।

मां तो होली को ही भला बुरा बताती रहती हैं। गृह कार्य सेविका होली से पहले ही अपने गांव चली जाती है, और उसकी वापसी में भी कुछ अधिक समय ही लगाती है, इस काल में अधिकतर गृह कार्य पिता जी सम्पन करते हैं।

होली के दिन खाने पीने का सारा सामान खाद्य दूत स्विगी तुरंत लाकर दे जाता हैं। पिता जी प्रातः से ही अपने चहते फिल्मी हीरो अनिल कपूर के बताने पर मोबाईल पर “जंगली पोकर” खेलते रहते हैं।

हमारे पिताजी बहुत दूरदर्शी व्यक्ति हैं, होली के दिन मदिरा की दुकान बंद रहने के कारण पिताजी मदिरा और उसकी एसेसरीज की व्यवस्था समय से पूर्व कर लेते हैं।

मां प्रातःकाल से मोबाईल पर प्राप्त होली त्यौहार के मैसेज को “बिजली की गति” से भी तीव्र गति द्वारा इधर उधर कर त्यौहार की खुशियां मनाती हैं।

मैं और मेरी बहन भी अपने अपने मोबाईल से वीडियो गेम खेलकर त्यौहार का आनंद लेते हैं। घर पर होली की बख्शीश लेने जब भी कोई घंटी बजाता है, तो पिता जी हमको दरवाज़े पर ये कह देने के लिए भेज देते है, कि घर में कोई बड़ा नहीं हैं। इसकी एवज में हमें प्रति झूठ बोलने पर पचास का पत्ता मिल जाता हैं।

होली त्यौहार की समाप्ति पर दूसरे दिन से ही दीपावली त्यौहार की चर्चा आरंभ हो जाती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #230 ☆ मोगलाई… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 230 ?

मोगलाई ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दार उघडाया आता घाबरते चिऊताई

कावळ्याच्या रुपामध्ये नराधम दिसे बाई

*

रात्र झाली खूप होती झोपत का पिल्लू नाही

चिऊताई पिल्लासाठी गात होती गं अंगाई

*

पडताच अंगावर सूर्य किरणं कोवळी

झटकून आळसाला फुलल्या या जाई जुई

*

पाखरांची चिव चिव उठताच ही सकाळी

चारा शोधण्याच्यासाठी झाली साऱ्यांचीच घाई

*

तुला पाहताच घास बाळ आनंदाने खाई

साऱ्या बालंकांची तेव्हा असतेस तू गं ताई

*

चिमण्या ह्या गेल्या कुठे दिसायच्या ठायी ठायी

अचानक आली कशी त्यांच्यासाठी मोगलाई

*

नातं भावाचं पवित्र सांगा निभवावं कसं

आता तर गुंडालाही म्हणू लागलेत भाई

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 181 – सुमित्र के दोहे… फागुन ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – याद के संदर्भ में दोहे।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 181 – सुमित्र के दोहे… फागुन ✍

तितली भौरा फूल रस, रंग बिरंगे ख्वाब ।

फागुन का मतलब यही, रंगो भरी किताब ।।

*

औगुनधर्मी देह में, गुनगुन करती आग।

 फागुन में होता प्रकट, अंतर का अनुराग ।।

*

फागुन बस मौसम नहीं, यह गुण-धर्म विशेष।

फागुन में केवल चले ,मन का अध्यादेश ।। 

*

कोयल कूके आम पर ,वन में नाचे मोर।

मधुवंती -सी लग रही, यह फागुन की भोर।। 

*

मन महुआ -सा हो गया ,सपने हुए पलाश।

जिसको आना था उसे ,मिला नहीं अवकाश।।

*

क्वारी आंखें खोजती ,सपनों के सिरमौर।

चार दिनों के लिए है ,यह फागुन का दौर।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 182 – “उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 182 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

बहुत लिखा जा सकता था

लेकिन कुछ नहीं हुआ

अब किस लिये स्मरण व

होती आशीष दुआ

 

निपट गया तन राख हुई

अपनी सारी सत्ता

लगे भूलने लोग कह रहे

इसको अलबत्ता

 

इस अप्रत्याशित दुख में तो

थे सारे घर के

नहींआ सकी लकवामारी

कुबड़ी सुधा बुआ

 

पिता कहे थे प्राण यहाँ

कब उड जायें मेरे

उगा करेंगे प्रश्न अनगिनत

अन्धे और घनेरे

 

तब तुम सब इस पिंजरे का

दरवाजा धीमे से

देना खोल , उड़ा देना

यह व्याकुल बन्द सुआ

 

इसी गाँव के बेटा !

सारे भूखे लोगों को

बनवाना तुम भले न

रुचिकर छप्पन भोगों को

 

करवाना भरपेट उन्हे

भोजन इस चौखट पर

चाहे न बन पाये सबको

रबड़ी मालपुआ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 38 ☆ व्यंग्य – “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…।) 

☆ शेष कुशल # 38 ☆

☆ व्यंग्य – “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…” – शांतिलाल जैन 

मैं इस समय ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. तकलीफ क्या है ये मैं बाद में बताता हूँ, पहले आप बनेसिंग के बारे में जान लीजिए.

जब से बनेसिंग के मन में ये बात घर कर गई है कि मोबाइल कंपनीवाले दूसरी तरफ जाती हुई उसकी आवाज़ रिसीवर तक पहुँचने से पहले धीमी कर देते हैं तब से हर कॉल पर वो इतनी जोर से बात करता है कि आप हज़ार कोस दूर हरा बटन प्रेस किए बिना ही उसे सुन सकते हैं. बनेसिंग जब फोन पर बात करना शुरू करता है तो समूची कायनात सहम उठती है. उसके ‘हेलो’ बोलते ही अफरा-तफरी सी मच जाती है. एक जलजला आ जाने की आशंका में लोग इधर उधर छिपने-दुबकने लगते हैं. डेसीबल मीटर काम करना बंद कर देता है. हमारे विभाग की खिडकियों के कांच बनेसिंग के ट्रान्सफर होकर आने से पहले साबुत अवस्था में हुआ करते थे, चटक गए हैं. बनेसिंग को मैंने जब भी फोन करते सुना है हमेशा आरोह के स्वर में ही सुना है. ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ.’  जी, पता है आप ही बोल रहे हो.  ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ, मेरी आवाज़ आ रही है आपको.’  जी, आ रही है, संसदों-विधायकों का तो नहीं पता परन्तु शेष देश में साढ़े छह करोड़ बधिरों को भी आ रही है.

यूं तो बनेसिंग एक दुबला पतला ज़ईफ़ इंसान है मगर कुदरत की मेहर से उसने फेफड़े मज़बूत पाए हैं, वोकल कार्ड भी उतनी ही सशक्त. कोरोना की दोनों लहरों में बनेसिंग के फेफड़े संक्रमित हुए मगर परवरदिगार ने उसकी ज़ोरदार आवाज़ में कोई कमी नहीं आने दी. काश!! समय रहते उसकी आवाज़ किसी समाचार चैनल के एचआर हेड के कानों में पड़ी होती तो वो आज देश का नंबर वन न्यूज एंकर होता. मुझे विश्वास है एक दिन ऐसा आएगा जब कवि सम्मलेन के मंच से वो पाकिस्तान में किसी को आईएसडी कॉल लगाकर बात करेगा और हम लोग हिंदी कविता के क्षितिज़ पर वीर रस का तेज़ी से उभरता कवि देखेंगे, बनेसिंह ज्वालामुखी.

बहरहाल, वो कितनी तेज़ आवाज़ में बात करे ये उसका संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है. गला है उसका, फेफड़े उसके, वोकल कार्ड उसकी, मोबाईल हेंडसेट उसका, तो फिर आप कौन? खामोखां. जिस खुदा ने उसे तेज़ आवाज़ के गले की नेमत बख्शी है उसी ने आपको पाँच अंगुलियाँ प्रति कान की दर से प्रोवाइड की हैं, बंद कर लीजिए, स्टरलाईज्ड कॉटन के फाहे लगा सकते हैं. बनेसिंग को दोष नहीं दे सकते. ऊँची आवाज़ के मामले में वो समाजवादी है. ‘आय लव यू’ जैसा नाजुक, कोमल, मृदुल-मधुर वाक्य भी उतनी ही हाय पिच पर बोल लेता है जितने कि हाय पिच पर ‘कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊँगा’. कभी उसे मिसेज बनेसिंग से बात करते सुन लीजिए आपको लगेगा किसी प्राईवेट फाइनेंस कंपनी का एजेंट अपना रिकवरी टारगेट पूरा कर रहा है.

फोन पर संवाद बनेसिंग अक्सर खड़े हो कर करता है. शुरूआती पंद्रह सेकंड्स के बाद वह छोटा सा स्टार्ट लेता है और आगे की तरफ चलने लगता है. उसकी आवाज़ के आरोह और पैरों की गति में एक परफेक्ट जुगलबंदी नज़र आती है. आप समझ नहीं पाते कि वो चलते चलते बात कर रहा है कि बात करते करते चल रहा है. कभी कभी तो चलते चलते वो उसी शख्स के पास पहुँच जाता है जिससे कॉल पर बात कर रहा होता है. उसकी मसरूफियत का खामियाजा बहुधा उसकी नाक भुगतती है जो कभी दीवार पर टंगे फायर एक्स्टिंग्युषर से, कभी पुश/पुल लिखे दरवाजे से टकराकर चोटिल होती रहती है. एक बार तो वह बात करते करते बॉस के चेंबर की कांच की दीवार से टकरा चुका है. गनीमत है वे हफ्ते भर के अवकाश पर थे, उनके ज्वाइन करने से पहले रिपेयरिंग करा ली गई, वरना बनेसिंग तो….

तो हुआ ये श्रीमान उस रोज़ मैं घर पर ही था और बनेसिंग का फोन आया. मैं उसे बिना हरा बटन दबाए भी सुन सकता था मगर मैंने बेध्यानी में ऑन कर लिया. जैसे ही बनेसिंग ने बोला – “हेलो शांतिबाबू”, मेरे ईयरड्रम्स चोटिल हो गए. अब मैं ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

श्री अभिमन्यु जैन

परिचय 

  • जन्म – 15 फरवरी 1952
  • रुचि – साहित्य, संगीत, पर्यटन
  • प्रकाशन/प्रसारण –  मूलतः व्यंग्यकार, आकाशवाणी से कभी कभी प्रसारण, फीचर एजेन्सी से पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन।
  • पुरस्कार/सम्मान – अनेक संस्थाओं से पुरस्कार, सम्मान
  • सम्प्रति – सेल्स टैक्स विभाग से रिटायर होकर स्वतंत्र लेखन
  • संपर्क – 955/2, समता कालोनी, राइट टाउन जबलपुर

☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆

“जन संत : विद्यासागर☆ श्री अभिमन्यु जैन

तुम में कैसा सम्मोहन है, या है कोई  जादू टोना,

जो दर्श तुम्हारे  कर जाता नहीं  चाहे  कभी विलग होना.

जी हाँ,  गुरुवर, संत शिरोमणि 108 आचार्य  विद्यासागरजी महामुनिराज का आकर्षण चुम्बकीय रहा. आचार्यश्री के ह्रदय में वैराग्यभाव का बीजारोपण बाल्यावस्था  में ही आरम्भ हो गया था, मात्र 20वर्ष की अवस्था में आजीवन ब्रह्म चर  व्रत  तथा 30जून 1968 को 22 वर्ष की युवावस्था में मुनि दीक्षा हुई. आचार्यश्री के विराट व्यक्तित्व को  कुछ शब्दों या पन्नों में समेटना, समुद्र के जल को अंजुली में समेटने जैसी  कोशिश होगी.

गुरुवर का व्यक्तित्व अथाह, अपार, असीम, अलोकिक, अप्रितिम,, अद्वितीय  रहा. महाराजश्री की वाणी और चर्या  से प्रेरणा लेकर अनगिनत भव्य श्रावक धन्य हुए. आचार्य श्री ने  मूकमाटी जैसे महाकाव्य का सृजन करके साहित्य परम्परा को समृद्ध किया है. विहार के दौरान महाराजश्री के पाद प्रक्षा लन जल को श्रावक सिर माथे धारण करते. इस जल को, खारे जल के कुंवें में डाला तो जल मीठा हो गया, सूखे कुंवें में डाला तो  जल से भर गया, बीमार पशुओं को पिलाया तो, निरोगी हो गया. आचार्यश्री एक, घर के बाहर पड़े पत्थर पर क्या बैठे, पत्थर अनमोल हो गया. उसे खरीदने वाले  लाखों रूपया देने तैयार हो गये, पर  गरीब  ने सब ठुकरा दिया. महाराज जी को मूक पशुओं विशेषकर  गौवंश से बहुत लगाव था, उनका जहां जहां  चातुर्मास हुआ, वहाँ वहाँ  गौशाला की स्थापना कराई. आचार्यश्री को नर्मदाजी से विशेष लगाव था. नर्मदा किनारे अमरकंटक,/ जबलपुर /नेमावर आदि स्थानों पर उनके द्वारा गौशाला एवं जिना लयों का निर्माण कराया गया, उनके द्वारा 500  से अधिक दीक्षा दी गईंउनका सोच, धर्म – अध्यात्म को जीवन से जोड़ने का था. उनके द्वारा चल चरखा के माध्यम से हज़ारों युवाओं को रोजगार मुहैया कराया. इंडिया नहीं भारत बोलो, का  नारा देकर अपनी बोली, अपनी भाषा को बढ़ावा दिया.

महाराजश्री विनोदप्रिय भी थे,  प्रवचनों के दौरान कहते, ” काये सुन रहे हो न ” तो पुरे पंडाल में एक स्वर में आवाज गूंजती  “हओ”.

प्रतिभा स्थली के माध्यम से बालिकाओं के शिक्षण मार्ग को सरल बनाया. पूर्णायु  आयुर्वेद संस्थान  से प्राकृतिक  उपचार और जड़ी बूटीयों  के महत्वपूर्ण को पुनरस्थापित करने के प्रयास हो रहे हैँ. संत सबके, अवधारणा को आचार्यश्री के महाप्रयाण  ने  प्रमाणित किया है. उनकी ख्याति और कीर्ति  जैन समाज तक सीमित न होकर जन जन तक व्याप्त है. उनके समाधिस्ट होने से  हर मन व्याकुल और व्यथित है. हर आँख नम होकर यही कह रही है -:

तेरे चरण कमल द्वय गुरुवर रहें ह्रदय मेरे,

मेरा ह्रदय  रहे सदा ही चरणों में तेरे,

पंडित पंडित मरण हो मेरा  ऐसा  अवसर दो,

मेरा अंतिम मरण समाधि तेरे दर पर हो.

© श्री अभिमन्यु जैन

संपर्क – 955/2, समता कालोनी, राइट टाउन जबलपुर

साभार – जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी व्यंग्य पत्रिका की समीक्षा  “# समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023”#”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆

☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023” # ☆ 

आज के युग में हर व्यक्ति भागम-भाग की जिंदगी जी रहा है, किसी के भी पास समय नहीं है   की , थककर, बैठकर शांति से कुछ पल बिता सकें. इन्हीं अमूल्य पलों में मन के दरवाजे पर दस्तक देकर, अंतर्मन को आल्हादित कर हृदय को झंकृत करने का प्रयास हास्य-व्यंग्य की पत्रिका द्वारा किया जाता है. इसी कड़ी में “अट्टहास” पत्रिका का योगदान महत्वपूर्ण है.

” अट्टहास” पत्रिका का परसाई विशेषांक अगस्त, 2023 एक अनूठा प्रयास है .

स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी का नाम व्यंग की दुनिया में प्रथम पायदान पर है, उनके जैसा दूसरा व्यंग्यकार होना असम्भव है, जिन्होंने अपने जीवन काल में अनेक व्यंग अनेक विषयों पर लिखें, उन्हें खूब प्रशंसा भी मीली.

उन्होंने सामान्य व्यक्ति के जिव्हा को अपने शब्द दीये, पिड़ा को अपनी समझकर व्यक्त किया, सरल सहज व्यक्ति के मन की बात जन-जन तक पहुंचाई. अपने   तिक्ष्ण बाणों से घांव किये,और उस चुभन को सदा के लिए जागृत छोड़ दिया, जो आज भी हम अपने आसपास महसूस करते है.

इस विशेषांक का विश्लेषण दो भागों में करना मुझे उचित लगा.

1) परसाई जी के लिखे हुए व्यंग्य 

2) परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ 

1) परसाई जी ने अपने ” व्यंग्य क्यों? कैसे ? किसलिए ? मे लिखा है कि –  आदमी कब हंसता है ?

एक विचार यह है कि जब आदमी हंसता है, तब उसके मन में मैल नहीं होता. हंसने के क्षणभर पहले  उसके मन में मैल हो सकता है और हंसी के क्षणभर बाद भी. पर जिस क्षण वह हंसता है, उसके मन में किसी के प्रति मैल नहीं होता.

आदमी हंसता क्यों है ?

वह  कहते है, लोग किसी भी बात पर हंसते हैं, हलकी, मामूली विसंगति पर भी हंस देते है. दीवाली पर कुत्ते की दूम में पटाखे की लड़ी बांधकर उसमें कुछ लोग आग लगा देते हैं, बेचारा कुत्ता तो मृत्यु के भय से भागता और चीखता है, पर लोग हंसते हैं.

व्यंग्य किसलिए ?

वह  कहते है, मेरा खयाल है, कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता है. व्यंग मानव सहानुभूति से पैदा होता है. वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है. वह उससे कहता है – तू अधिक सच्चा, न्यायी मानवीय बन .

अच्छे व्यंग्य में करूणा की अंतर्धारा होती है, चेखव में शायद यह बात साफ है, चेखव की एक कहानी है – बाबू की मौत. इस कहानी को पढ़ते -पढ़ते हंसी आती है पर अन्त में मन करूणा से भर उठता है।

व्यंग के सम्बंध में यह बातें, व्यंग का मर्म समझने में इनसे कुछ सहायता मिलेगी.

2) उखड़े खंभे

इस व्यंग्य में बहुत ही सुन्दर कथा के द्वारा यह बताया गया है की, मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए कैसे प्रपंच रचे जाते हैं।

एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटका दिया जाएगा , लोग शाम तक इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगें जाएंगे – और अब, पर कोई टांगा नहीं गया।

सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं, राजा ने सभी जिम्मेदार दरबारी यों से जब पूछा, यह जानते हुए भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने लिए करने वाला हूं, तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया?

सेक्रेटरी ने कहा,’ साहब,  पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था, अगर रात को खम्भे ना हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता. यह सलाह मुझे विशेषज्ञ ने दी थी.यह सुनकर सारे लोग सकते में खड़े रहे,  वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये. वे सब उस संकट से अविभूत थे,जिसकी कल्पना उन्हें दी गई थी, जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे, चुपचाप लौट गये.

उसी सप्ताह बैंक में सेक्रेटरी एवं संबंधित अधिकारियों के खाते में मोटी रकम जमा की गई, उनको उपकृत किया गया।

उसी सप्ताह ” मुनाफाखोर संघ ” के हिसाब में सारी रकमें ‘ धर्मादा ‘ खाते में डाली गयी.

यह व्यंग आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं।

3) विकलांग श्रध्दा का दौर

इस व्यंग्य में दिखावे की श्रद्धा पर चुभता हुआ कटाक्ष है.

” अभी अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है, मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है.

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है, लंगोटी धोने के बहाने लंगोटी चुराई है.

अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं -‘ यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है. मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ.

4) एक अशुद्ध बेवकूफ

बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है। मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है वह सब झूठ है – बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मज़ा है।

“एक प्रोफेसर साहब थे क्लास वन के। वे इधर आए। विभाग क डीन मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, यह वे नहीं जानते थे। यों वे मुझे पच्चीसों बार मिल चुके थे। पर जब वे डीन के साथ मिले तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। डीन ने मेरा परिचय उनसे करवाया। मैंने भी ऐसा बर्ताव किया, जैसे यह मेरा उनसे पहला परिचय है।

डीन मेरे यार है। कहने लगे- यार चलो केंटीन में, अच्छी चाय पी जाएं। अच्छा नमकीन भी मिल जाए तो मजा आ जाए।

अब क्लास वन के प्रोफेसर साहब थोड़ा चौंके।

हम लोगों ने चाय और नाश्ता किया। अब वे समझ गए कि मैं ” अशुद्ध” बेवकूफ हूं।

5) खेती

सरकारी घोषणाओं में और वास्तविक जमीन पर क्या होता है इस समस्या पर यह व्यंग बहुत ही मार्मिक है।

“एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा – हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया –‘ अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज़ पर अन्न पैदा कर रहे हैं।

6) अरस्तू की चिट्ठी

इस व्यंग्य में जनता जनार्दन पर कटाक्ष है कि वे कैसे ईव्हेंट मॅनेजमेंट में शिकार होते हैं

“तुम्हारे मुखिया में यह अदा है। इसी अदा पर तुम्हारे यहां की सरकार टिकी है, जिस दिन यह अदा नहीं है, या अदाकार नहीं है उस दिन वर्तमान सरकार एकदम गिर जायेगी।जब तक यह अदा है तब तक तुम शोषण सहोगे, अत्याचार सहोगे, भ्रष्टाचार सहोगे क्योंकि तुम जब क्रोध से उबलोगे, तुम्हारा मुखिया एक अदा से तुम्हें ठंडा कर देगा।। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे मुल्क की सारी व्यवस्था एक ‘ अदा ‘ पर टिकी हुई है।

आज भी यह कितना प्रासंगिक है?

7) गर्दिश के दिन

परसाई जी ने अपने जीवन में विपत्तियों को अलग अंदाज में लिया, कभी टूटें नहीं, बेफिक्र होकर सब कुछ सहा और अपनी पिड़ा को अपने लेखन में लायें, उन्होंने गर्दिश के दिन में लिखा है कि ” मैं डरा नहीं। बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा  तो नौकरियां गयी।लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैरजिम्मेदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूं।रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी – साग  खाकर मजे में बैठा हूं कि चिंता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। “

वो आगे लिखते है, ” गर्दिश कभी थी, अब नहीं है,आगे नहीं होगी – यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता इस लिए गर्दिश नियति है।  “

वो आगे लिखते हैं, ” मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा खयाल है, तब ऐसी ही बात होगी।”

वो अंत में लिखते हैं कि,” मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन है। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है। “

उन्होंने सही कहा है,” पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है।”

8) प्रेमचंद के फटे जूते

इस लेख में उन्होंने लेखक की आर्थिक स्थिति के ऊपर व्यंग किया है कि प्रसिद्ध लेखक भी ऐसे जीते हैं।

वो लिखते हैं, ” प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, 

गालों की हड्डियां उभर आई है, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा भरा बतलाती है।

पांवों में केनवास के जूते है, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।

मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग – मुस्कान भी समझता हूं।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उनपर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहें हैं। तुम कह रहे हो – मैंने तो ठोकर मार मारकर जूता फाड़ लिया है, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बचा रहा और मैं चलता रहा,  मगर तुम अंगुली ढांकने की चिन्ता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे ? “

यहां पर उन्होंने सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग किया है , जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है.

9) सरकारी भ्रष्टाचार का विरोध

इस व्यंग्य में भ्रष्टाचार करने वाले महानुभावों की सच्चाई व्यक्त की है।

वो लिखते है,” सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। भ्रष्टाचार विरोधी कोई नहीं डरता। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी कभी खेल लेती है, जैसे कब्बड्डी का मैच। इससे ना सरकार घबड़ाती, न मुनाफाखोर, ना कालाबाजारी, सब इसे शंकर की बारात समझकर मजा लेते हैं। “

यह हमारी व्यवस्था पर किया हुआ व्यंग्य , एक कटु सत्य है।

परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ  

आइये हम इस कड़ी में सर्व प्रथम ” अट्टहास ” पत्रिका के अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी की बात करते हैं,उनका परिश्रम प्रशंसनीय है, उन्होंने सभी व्यंग कारों को आमंत्रित कर, उनकी रचनाओं को सलिके से माला में पीरो कर, एक हास्य -व्यंग का सुगंधित हार बनाया है, जिसकी सुगंध सदैव पाठकों को लुभाती रहेगी, यह प्रयास अविस्मरणीय संस्मरण बनकर पाठकों के हृदय को हमेशा गुदगुदाता रहेगा.

उनके शब्दों में,” समाज से, सरकार से,मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते है, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी। व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लंबी गाथा है।

उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि – “कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे”।

उनके द्वारा परसाई जी का साक्षात्कार मील का पत्थर है, उन्होंने परसाई जी के सानिध्य में

काफी समय व्यतीत किया है, यह उनके लिए सौभाग्य की बात है.

अब हम दूसरे व्यंग्यकारों की सम्मिलित रचनाएं, और परसाई पर उनकी टिप्पणी या देखते हैं

डाॅ. आभा सिंह के लेख ” परसाई व्यंग्य के चप्पू ” में लिखती हैं, ” टूटती तो चाल भी है, चलन भी टूटता है। चाल और चलन के टूटने पर चिंतन करो तो टांग भी टूटती है। यह दर असल व्यंग्य का चक्र है”.

डाॅ. नामवर सिंह अपने लेख मे ” एक अविस्मरणीय चरित नायक” में लिखते हैं,” परसाई जी की समस्त रचनाओं में वह तेज पैनी नजर वाला एक व्यक्तित्व है, जो इस दुनिया को तार तार करके देखता है, चिकोटी काटता है, झकझोरता है, चुनौती देता है, वह उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है “

प्रेम जनमेजय: व्यंग को भी दिल बहलाव के साधन के रूप में अधिक प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि परसाई जैसे साहित्यिक व्यक्तित्व को बार-बार इस समय में साथ रखा जाए। उनके चिंतन को आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए ।”

एम.  एम. चंद्रा: इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास सम्बंधी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है ।

राजीव कुमार शुक्ल : बुद्धिजीवी वर्ग पर बेहद निर्मम विश्लेषण के साथ परसाई जी ने लिखा है, मसलन ‘ इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर है, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते है”।

अलका अग्रवाल सिग्तिया : परसाई की कलम से आजादी के बाद के मोहभंग, शासक वर्ग के नैतिक पतन, दोगलेपन, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, झूठे आचरण, छल,  कपट, स्वास्थ्य परता, सिद्धांतविहीन विचारधारा और गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाना, सत्ता का उन्माद और इन सब में  आम आदमी का पग-पग पर ठगा जाना सबको अपना विषय बनाया। इसलिए उनका लेखन आज भी उतना ही मारक है क्योंकि सरेआम यही तो हो रहा है।

गिरीश पंकज : व्यंग्य विधा है या शैली ? इस प्रश्न पर परसाई जी बोले, ‘ मैं व्यंग्य को एक शैली मानता हूं, जो हर विधा में हो सकती है।”

सुसंस्कृति परिहार : वास्तव में परसाई ने सामाजिक व्यवस्था खासकर शिक्षा संस्थानों की चीर-फाड़ कर यह जताने की पुरजोर कोशिश की कि यदि इस बदरंग व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया गया तो स्थितियां भयावह होगी। शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, राजनीति सब पूंजीपतियों के पास पहुंच जायेगी। अफसोसजनक यह कि हम तेजी से इसी दिशा में बढ़ रहे हैं।”

डाॅ. महेश दत्त मिश्र : 

इलाही कुछ न दे लेकिन ये सौ देने का देना है,

अगर इंसान के पहलू में तू इंसान का दिल दे,

वो कुव्वत दे कि टक्कर लूं हरेक गरदावे से,

जो उलझाना है मौजों में, न कश्ती दे न साहिल दे ।

परसाई जी पर यह शेर बखूबी लागू होता है.

डॉ कुन्दन सिंह परिहार :  “परसाई जी का साहित्य सोद्देश्य, समाज के हित में, समाज में परिवर्तन की आकांक्षा से रचा गया। उनके मित्र स्व. मायाराम सुरजन ने उनके विषय में लिखा है,” परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी निजी जिंदगी केवल दूसरों की समस्यायों की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं।”

परसाई जी ने अपने जन्मदिन पर रचना लिखी, “इस तरह गुजरा जन्मदिन” में कुछ घटनाओं का वर्णन किया है कि जन्मदिन मनाना नहीं चाहते हुए भी उन्हें मनाना पड़ा।

इस संदर्भ में वे लिखते हैं, ” रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया।  नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है।”

डाॅ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’: “परसाई ने आज से पांच साल पहले जो लिखा वह आज भी केवल प्रासंगिक नहीं बल्कि एक तरह से भविष्यवाणी की तरह सिद्ध हो रहा है। उनका लिखा अक्षरशः सही साबित हो रहा है, नई दुनिया में जब  वे “सुनो भाई साधो” स्तंभ लिख रहे थे तो उन्होंने व्यवस्था पर प्रहार किए थे। यह लेख उसी दौर का है जो आज आपको सच जान पड़ेगा क्योंकि आज भी हालत ऐसे हैं। ‘ न खाऊंगा न खाने दूंगा ‘ की असलियत सामने आ गयी है।

श्री अनूप शुक्ल : इन्होंने “परसाई के व्यंग्य बाण” मे उनके व्यंग्य बाणों का संकलन दिया है, जो बहुत ही सुन्दर प्रयास है।

लीजिये एक व्यंग्य बाण – “कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। “

“हरिशंकर परसाई की कलम से” में वे लिखते हैं कि मुझे प्रशंसा के साथ साथ गालियां बहुत मिली है,

“बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘ तुमने मेरे मामा का, जो फारेस्ट अफसर है, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मै तुम्हारे खानदान का नाश कर दूंगा। मुझे शनि सिद्ध है।”

वे आगे लिखते हैं कि, “हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिंदी में हास्य – व्यंग्य का अभाव है।”

अनूप श्रीवास्तव : आखिरी पन्ना में लिखते हैं, ” परिस्थितियों के चलते चाहे अनचाहे क ई  मोड़ पर उन्हें मन के खिलाफ जाना पड़ा। लेकिन परसाई जी तमाम दबावों के बावजूद न खुद झुके ना ही उनकी विचारधारा बदली। इसलिए उनका व्यंग्य लेखन आज भी शास्वत है। आज भी वे व्यंग्य शिखर पर शक्ति पुंज की तरह स्थापित है। “

यही उनकी जीवन भर की पूंजी है।

पदमश्री (डॉ.) ज्ञान चतुर्वेदी जी ने परसाई जी के बारे में लिखा है कि, “उनका तथाकथित तात्कालिक व्यंग्य लेखन दर असल शोषक शक्तियों और शोषित जनों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अंतर्संबंधों से बावस्ता शास्वत प्रश्नों के हल तलाशता शाश्वत लेखन है। तभी वे आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि ये सारे प्रश्न भेष बदलकर आज भी हमारे सामने है।,”

इस “अटृहास” के परसाई विशेषांक में परसाई जी के व्यंग्यों का एक उत्कृष्ट संकलन है, व्यंग्यकारों की टीप्पणी यां है,जो आपको हंसने के साथ साथ सोचने पर भी मजबूर करेगी.

अगर आप तनाव में हैं तो आपको एक सुकून देगी, आप के जीवन में कुछ पल के लिए ही सही शांति प्रदान करेगी. यह विशेषांक संग्रहण करने योग्य है, अदभुत एवं बेमिसाल है.

सभी “अट्टहास” के संपादक मंडल का प्रयास अतुलनीय है, और सोने पे सुहागा अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी का संपादन प्रशंसनीय है.

आखिरी में ” शनि की प्रतिमा को विनम्र अभिवादन”

होली की रंग- गुलाल के साथ बहुत बहुत शुभकामनाएं

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भूख… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…’।)

☆ लघुकथा – भूख… ☆

शांति, घर घर में जाकर बर्तन धो कर अपनी आजीविका चलाती थी, पिछले कई दिनों से बीमार थी, वह काम पर नहीं जा पाई थी, घर में, दाल, चावल, आटा सब खत्म हो चुका था, फाके की नौबत आ गई थी, अपने बेटे को भी कुछ नहीं बना पाई थी, बेटा कल रात से भूखा था, शाम होने को आई, घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, वह जानती थी, अभी उसका शराबी पति, आकर, पैसे मांगेगा, अब उसके पास पैसे नहीं हैं, जब भी शराब पीने के लिए पैसे नहीं देगी, तो उसका पति उसकी पिटाई करेगा, यह रोज का नियम बन गया था, उसका पति रमेश कई दिनों से बेकार था, काम पर नहीं जाता था, उधार ले लेकर शराब पीता था, और अब तो उसके सभी जानने वालों ने, उसे उधार देना बंद कर दिया था, परंतु वह सोचता था, कि, उसकी पत्नी के पास पैसे रखे होंगे, वही वह मांगता था, जब वह मना करती तो वह अपनी पत्नी को पीटता था, आज भी जैसे ही घर में घुसा उसने देखा, बच्चे ने कागज खा लिया है, उसने बच्चे की पिटाई करना शुरू कर दी, बच्चा रोता रहा, परंतु उसने कुछ नहीं बताया कि कागज क्यों खाया,

क्योंकि बच्चा जानता था, कि पिता कुछ नहीं सुनेगा, फिर मारेगा,

उसके पिता ने, अपनी पत्नी से शराब के लिए पैसे मांगे, जब शांति ने पैसे देने से मना किया, कहा नहीं हैं, तो  रमेश ने उसकी डंडे से पिटाई की,

बहुत मारा, और कहा बच्चा कागज खा रहा था, तो यह भी नहीं देख सकती, ,

और मार पीट कर बाहर चला गया,

शांति कराहती हुई उठी, बेटे को उठाया, और आंसू बहाते हुए, बेटे से बोली,

क्यों जान लेना चाहता है मेरी,

क्यों कागज खा रहा था, ,

बेटे ने कहा, मां कल से भोजन नहीं मिला, बहुत भूख लगी थी, कागज पर रोटी बनी थी, इसलिए कागज खा लिया था..

शांति कुछ नहीं बोल सकी, जड़ हो गई, आंसू भी थम गए, बेटे को गले लगाकर स्तब्ध हो गई.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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