हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी  एक विचारणीय लघुकथा हम।)

☆ लघुकथा – हम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

बचपन में मैं इस जंगल में कई बार आया था। तब यह जंगल सघन था, इतना कि धूप की पहुँच धरती तक बमुश्किल ही हो पाती थी; और आज पेड़ इतने विरल कि जंगल को जंगल कहते डर लगता है। मैंने एक पेड़ से पूछा, “जंगल का यह हश्र कैसे हुआ?”

“पेड़ों का क़त्ल कौन कर सकता है- बारिश, बिजली, तूफ़ान, बाढ़, भूकंप या तुम?” पेड़ के पत्ते ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे थे। लगा, जैसे तमाम गुज़रे हादसों को याद कर उनकी चेतना काँप रही हो।

“तुमने बताया नहीं?” पेड़ ने मेरी ख़ामोशी को झिंझोड़ा।

“पेड़ों का क़त्ल हम ही कर सकते हैं।” मैंने कहा।

“और पेड़ों को बचा कौन सकता है?”

“हम।” अचानक पेड़ की छाल में मेरे हाथों ने गीलापन महसूस किया और फिर वह गीलापन मेरे वजूद में उतरने लगा। तभी काँपती पत्तियों में से एक बहुत ताज़ा पत्ती मेरे कंधे पर आ गिरी।

– हरभगवान चावला

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 122 – लघुकथा – गहराई… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “गहराई… ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 122 ☆

☆ लघुकथा – गहराई 

कुएं रहट से लगी रस्सी से बंधी बाल्टी पर गहराई से पानी निकालते अहिल्या नीचे देख सोचने लगी??? कब तक जिंदगी इन गहराई से निकलती जल की बाल्टी की तरह बनी रहेगी। ऐसा क्या हुआ जो उसका जीवन उसके लिए अभिशाप बन चुका था।

गांव में शादी होकर अहिल्या आई बहुत ही सुखद जीवन था पतिदेव और देवर। दोनों साथ साथ खेती का कार्य करते थे। साधारण परिवार में सभी कुशल मंगल था।  परिवार के नाम में और कोई नहीं था कुछ दिनों बाद नन्हा बालक आया और सभी कुछ बहुत अच्छा था।

खेत में काम करते करते दोनों भाई खुशी से रहते। देवर के हसीन सपने दिनों दिन बढ़ते जा रहे और होता भी क्यों नहीं इतना प्यार करने वाले भैया भाभी और भतीजे को देख उसका मन तो अपनी जीवनसंगिनी को ढूंढ रहा था। उसी के सपने देखता और हंसता मुस्कुराता रहता।

एक सुबह जब वह भाई के लिए रोटी लेकर खेत पहुंचा देखा भैया बेसुध पड़े हैं। घर लाया गया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अहिल्या की तो जैसे दुनिया ही उजड़ चुकी।

पत्थर सी बन गई। दिन बीतने पर  गांव में तरह-तरह की बातें बनने लगी। देवर भी परेशान रहने लगा भाभी के दर्द को और नन्हे बच्चे की परवरिश को लेकर वह सोचने लगा।

इस आग उगलती दुनिया में भाभी का अपना कोई नहीं है। क्या ऐसे में वह भाभी को अपनाकर अपने घर को फिर से बचा सकता है?

एक समझौता कर उसने अपने सपनों की दुनिया को खो दिया और ठान चुका कि किसी भी प्रकार से वह अपने भाभी को कष्ट नहीं होने देगा। चाहे उसे जमाना कुछ भी कहे।

खेत से काम करते हुए घर की तरफ आ रहा था। भाभी मटके से पानी भरकर अपने रास्ते आ रही थी। दो रास्ते जहां पर एक होते हैं वहां पर देवर ने गिरने का बहाना किया और बेसुध होकर लेट गया।

आसपास के लोगों ने चिल्लाना शुरु कर दिए… अहिल्या ने घबराकर मटके का पानी देवर के ऊपर डाल मटका फेंका और लिपट कर रोने लगी… मैं आपको खोना नहीं चाहती.. रोते-रोते वह शुन्य हो गई।

देवर भी तो यही चाहता था कि भाभी के मन की गहरी बात को सबके सामने रख सके और बाहर निकाल सके। किसी तरह रिश्तो में जकड़ी भाभी अपने मन से सबके सामने रिश्तो को अपना सके। रिश्तो को मान सके और नई जीवन शुरू कर सके। यही तो वह चाहता था जो वह कभी भी बोल नहीं पा रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(यह कहानी ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में पूर्व प्रकाशित  हुई थी।)

विजयेंद्र ने पोर्ट्रेट के लिए मोहना की अनुमति लेने की ज़िम्मेदारी स्वीकार की, फिर भी प्रतिनिधि मंडल बैठा रहा। सुगबुगाहट चल रही थी। जो कहना था, वह अब भी पूरा नहीं हुआ था। कोहरे से लिपटे पेड़-पौधों का अस्तित्व महसूस हो रहा था, लेकिन उनका रंगरूप समझ में नहीं आ रहा था!

‘‘मोहना देवी का पोर्ट्रेट उनका नाम और महाराज के चित्र के कलाकक्ष की शान के अनुरूप ही होना चाहिए।”

देसाई जी ने नज़रे झुकाकर कह, ‘‘हम चाहते हैं, यह ज़िम्मेदारी अगर आप लें तो… मतलब यह विनती है। इस पोर्ट्रेट के लिए सांस्कृतिक कला संचालनालय ने उचित मानदेय देना स्वीकार किया है।”

विजयेंद्र ने कल्पना भी नहीं की थी कि एस प्रकार का प्रस्ताव रखा जाएगा।

विजयेंद्र एक चित्रकार थे। अच्छे चित्रकार! उनके इलाक़े में लोक उन्हें अच्छा कलाकार मानते थे। उनके दादाजी, महेंद्रनाथ भी चित्रकला के शौक़ीन थे। लेकिन केवल शौक़ के लिए अपने दादाजी-जैसी कला-साधना करना उनके लिए मुमकिन नहीं था। चित्रकला उनकी  रोज़ी-रोटी का साधन बन गई थी। वे अपनी चित्रकारिता का उपयोग लोगों की माँग के अनुसार और विज्ञापन के लिए चित्र बनाने में करते थे। फिर भी ख़ालिस चित्रकारिता का छोटा सा झरना उन्होंने अपने दिल में धीरे-धीरे बहा रखा था। व्यवस्थापकीय मंडल के सदस्यों में विजयेंद्र और उनकी कला के बारे में आदर था। उनका मानना था कि किसी अन्य कलाकार की अपेक्षा विजयेंद्र इस काम के लिए अधिक योग्य हैं। लेकिन क्या वे स्वीकार करेंगे?

‘‘मैं सोचकर बताऊँगा”, विजयेंद्र ने कहा था।

विजयेंद्र के कलाजीवन की शुरुआत ही मोहना के चित्र से हुई थी। उस समय उन्होंने मोहना के रेखाचित्र निकाले थे। महेंद्रनाथ जी की नजर अचानक उन रेखाचित्रों पर पड़ी थी। अपने पोते ने वह बनाए हैं, यह जानकर वे अति प्रसन्न हुए थे।

‘‘हम ब्रश का चमत्कार नहीं दिखा सके। आप करके दिखाइए। साधना कीजिए। चित्रकारी सीखो!” महेंद्रनाथ जी ने कहा था। वे केवल कहकर रुके नहीं। उन्होंने अपने पोते का चित्रकारी सीखने का इंतजाम भी किया था। चित्रकारी सिखाने के लिए एके ब्रिटिश और एक फ्रेंच चित्रकार नियुक्त किया गया था।

विजयेंद्र हमेशा सोचते, अण्णा साहब ने उस वक्त कितनी दूरदर्शिता दिखाई थी। रियासत विलीन होने के बाद, छोटे-मोटे रियासतकारों के वारिसों की जो दयनीय स्थिती हो गई थी, वैसी अपनी नहीं हुई। कला के बलबूते पर ही शान से गुज़ारा कर रहे हैं। अण्णा साहब की पीढ़ी रियासत के विलीन होने का दर्द सीने में लिए चली गई। राजमहल में पलनेवाले चंपत हो गए। पिताजी, चाचा, चचेरे भाई-बहन, उनके पास कुछ ज्यादा बचा नहीं था। फिर भी उनका दिल राजमहल के बाहर कभी निकला नहीं था। थोड़ी-बहुत जो भी चीज़ें बची थीं, वह बेचकर उन्होंने जीवन बिताया था। लेकिन अपने ऐशोआराम और शान-बान में कोई कमी नहीं आने दी थी।

विजयेंद्र अलग हुए, क्योंकि वे पढ़ाई के लिए बाहर गए थे। देश-विदेश घूमकर आए थे। उन्होंने अपने आपको बदल दिया, लेकिन उनका दिल अब भी रतनगढ़ में ही रहता है! अपने बच्चों की ऐसी दोहरी मानसिकता नहीं है क्योंकि उन्होंने वह ऐश्वर्य, वैभव देखा ही नहीं, उपभोग किया ही नहीं। इसलिए उसके जाने का उन्हें गम नहीं हैं। रतनगढ़ रियासत विलीन हो गई और रतनगढ़ की शान ही चली गई। अब केवल रजतमहल के रूप में उसकी गौरव गाथा का ध्वज फहराता है।

‘‘जहाँ तक मुझे याद है, मोहना का पहला कार्यक्रम रजतमहल में ही हुआ था। आपको याद होगा?” देशमुख जी ने कहा।

चालीस साल पुरानी घटना विजयेंद्र की आँखों के सामने चलचित्र की तरह दिखाई देने लगी।

विजयेंद्र। रियासत के युवराज, भावी राजा! उनकी परवरिश युवराज की हैसियत से ही की गई थी। उनकी चौदहवीं सालगिरह बड़े धूमधाम से मनाई गई थी। उनका ठाठ-वाट तो उनकी शादी में भी नहीं हुआ था।

जन्मदिन के उपलक्ष में रियासत में रोशनी की गई थी। दावतें दी गई थीं। प्रतियोगिताएँ रखी गई थीं। विजेताओं को पुरस्कार दिए गए थे। तोहफ़े लिए-दिए गए थे। दूसरे दिन महल में नयनतारा के गाने के कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। पहले दिन के कार्यक्रम से विजयेंद्र थकान महसूस कर रहे थें। लेकिन उनका वहाँ रुकना जरूरी था। जन्मदिन के उपलक्ष में कार्यक्रम रखा गया था और जन्मदिन उनका था!

कक्ष सजाया गया था। कलात्मक क़ालीन बिछाए गए थे। सुंदर दीपदान जगमगा रहे थे। गाने की समझ रखनेवाले जानकार श्रोता उपस्थित थे। नयनतारा ने महेंद्रनाथ जी और श्रोताओं को प्रणाम किया। और कहा, ‘‘आज युवराज के जन्मदिन के अवसर पर, उनके सम्मान में मेरी बेटी मोहना गाना सुनाएगी। युवराज इसे हम ग़रीब का तोहफ़ा समझें।”

महेंद्रनाथ जी ने सर हिलाकर अनुमति दी। तानपुरे से सुर निकलने लगे। उस बारह साल की लड़की ने आँखें मूँदकर षड्ज लगाया, गाना शुरू किया। कितनी सुरीली आवाज़! उस मासूम लड़की की गाने की कुशलता, तैयारी और मधुर आवाज़ से श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे। स्वर ऐसे स्पर्श कर रहे थे, मानो शरीर पर कोई मोरपंख डुला रहा हो। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो गाने को दैवी स्पर्श है। आवाज़ में अद्भुत जादू था। विजयेंद्र की सारी थकान, ऊब ग़ायब हो गई थी। गाना सुनते हुए उनको समझ में आया कि घुड़सवारी करके लौटते समय यही स्वर उन्हें मिलते हैं और घर तक साथ देते हैं। उन स्वरों का स्रोत आज मूर्त रूप से सामने आया था। जैसे उसका संगीत स्वर्गीय है, वैसा ही रूप। उसकी ख़ूबसूरती भी मंत्रमुग्ध करनेवाली थी। उसके स्वर दिल में और रूप आँखो में भरा है।

युवराज के मन में विचारों को लहरें उठ रही थीं। मोहना आत्ममग्न होकर गा रही थी। मानो उसे सुरों का साक्षात्कार हो रहा हो और वह उसे गले से साकार कर रही हो!

मोहना ने डेढ़ घंटा गायन किया। ‘‘क्या जादू है लड़की की आवाज़ में! यह लड़की तरक़्क़ी करेगी।” महेंद्रनाथ जी ने सराहना करते हुए कहा था। उसके बाद नयनतारा का गाना हुआ ही नहीं। महाराज ने दीवान जी को बुलाकर कुछ कहा। थोड़ी देर में मोतियों से भरा स्वर्ण थाल विजयेंद्र के हाथ में दिया गया। विजयेंद्र के हाथों वह थाल मोहना को दिया गया। पल भर को नज़रें मिलीं! मोहना ने नज़रें झुका लीं, और प्रणाम करने के लिए झुक गईं।

महेंद्रनाथ जी ने नयनतारा से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी की आवाज़ सोना है। हमारी इस सौगात से उसके गाने का मोल नहीं हो सकता।”

माँ-बेटी दोनों कृतार्थ हुई थीं। सौगात से? नहीं-नहीं। महेंद्रनाथ जी की प्रशस्ति से!

मोहना के गले में मोतियों की तीन लड़ीवाली माला हमेशा रहती है। विजयेंद्र को किसी ने बताया था कि रतनगढ़ मे उसका पहला कार्यक्रम हुआ था। उसकी विदाई के रूप में महेंद्रनाथ जी की दी हुई मोतियों की माला है।

जन्मदिन के कार्यक्रम के बाद विजयेंद्र कई दिनों तक परेशान रहे थे। परेशानी की वजह समझ नहीं पा रहे थे। मोहना के स्वर कानों में गुँजते रहते थे। उसकी कई भावमुद्राएँ याद आतीं। कभी आँखे मूँदकर तानपुरे के तारों को छूतीं, जहाँ लय की समाप्ति और ताल का आरंभ होता है, वहाँ हाथ आगे आया हुआ, और वह पलभर की नज़रानज़र!

विजयेंद्र ने कागज़ लिए और उसको सारी भाव मुद्राएँ अंकित कर डालीं। इन रेखाचित्रों ने उन्हें और महेंद्रनाथ जी को उनके कलाकार होने का एहसास दिलाया। महेंद्रनाथ जी की नज़रों में अचानक वे रेखाचित्र आए थे। वे जान गए थे कि उनके पोते की उँगलियों में कला है। उन्होंने विजयेंद्र की चित्रकला शिक्षा का ख़ास इंतजाम किया था। उसके बाद उनमें छिपा कलाकार उभरता गया था। समझदारी से बढ़ता हुआ बड़ा हुआ था!

आगे चलकर वे पढ़ाई के लिए मुंबई आए। फिर पेरिस गए। वे जब पेरिस में थे, तब इधर रियासत विलीन हो गई थी। वे पेरिस लौटे, तब हवेलीं में बहुत कुछ बदल गया था। हड़बड़ी मची थी। उनके रेखाचित्र उनके पास थे, इसलिए सुरक्षित रह गए थे। चालीस साल पहले, विजयेंद्र में छिपे अपरिपक्व कलाकार ने मोहना-जैसी एक कलावती के कलात्मक पलों के बनाए रेखाचित्र! वह पल मोहना के कला-निर्माण का था; वैसा ही विजयेंद्र में छिपे कलाकार को जगानेवाला था। उन रेखाचित्रों के रूप में, वह आज भी उनके पास मूर्त रूप में है। विजयेंद्र के सबसे पहले रेखाचित्र, जो किसी ने देखे तक नहीं थे। शायद विद्यागौरी और बच्चों ने भीं नहीं!

मोहना आज दुनिया की मशहूर गायिका है। ट्रस्टी चाहते हैं कि रजतमहल के कलाकक्ष में उसका चित्र हो। उसके लिए विजयेंद्र उसे राज़ी करें। इतना ही नहीं, उसका चित्र भी विजयेंद्र ही बनाए। उसके लिए उचित मानदेय देने का प्रस्ताव भी रखा है।

क्या करें? अगर उसने ऐसा सोच लिया कि मुझे पैसे मिलनेवाले हैं, इसलिए मैं उसे चित्र बनाने के लिए राजी कर रहा हूँ, तो?

विजयेंद्र को लगा, कोहरा उन्हें घेर रहा है। इस कोहरे में उन्हें राह ढूँढ़नी है। किसी निश्चित दिशा में ले जानेवाली राह…

जो कभी उनकी आश्रित थी। उसका चित्र, किसी ज़माने में जो युवराज था, वह बनाए… विदाई के बावजूद, कोहरा और भी घना होने लगा।… और फिर अचानक कोहरे के उस पार से सुनहरी किरणें फैल गईं। उनके दिल से भानवाओं की लहरें उठने लगीं…

नहीं नहीं! अब इस जमाने में भी… ये कैसे सामंतशाही विचार उभरकर आ रहे हैं। आश्रित और युवराज… भला हम ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं? एक कलाकार को यह काम स्वीकार करना चाहिए।… काम नहीं… कला निर्माण!

दूसरे कलाकार के प्रति आत्मिकता, सौहार्द, उसके कला के प्रति महसूस होनेवाला सम्मान, सराहना प्रकट करने के लिए किया गया निर्माण!

मोहना का सम्मान करना है। बस! निर्णय हो गया था। विजयेंद्र को लगा, सूरज की किरणों से कोहरा छटने लगा है। राह साफ़-साफ़ नज़र आ रही है।

विजयेंद्र का मुस्कुराता हुआ चेहरा ट्रस्टी लोगों को बता रहा था कि उनका काम होनेवाला है। रजतमहल में स्वर शारदा का चित्र लगेगा और वह भी विजयेंद्र का बनाया हुआ!

 – समाप्त –

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

मो. 9403310170,   e-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 87 – समय का सदुपयोग ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #87 🌻 समय का सदुपयोग 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था। वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।

एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।

उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।

अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।

तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।

उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।

आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।

साधु ने कहा-तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(यह कहानी ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में पूर्व प्रकाशित  हुई थी।)

विजयेंद्र सुबह की सैर से लौटे, तब साढ़े सात बज चुके थे। आज लौटने में देर हो गई थी। सुबह, जब वे घूमने निकले थे, तब घना कोहरा था। देह पर लिपटे वस्त्रों-सा लिपटकर शरीर से एक रूप हो रहा था। उन्हें लगा, शरीर के छिद्रों से कोहरा अंदर रिस रहा है। वे उनकी हमेशा की राह से ही जा रहे थे। हमेशा की तरह टीले पर चढ़कर लौटनेवाले थे। लेकिन आज उन्हें महसूस हो रहा था, मानो किसी अज्ञात मार्गसे किसी रहस्य की ओर जा रहे हैं। पीछे छूट गए परिचित निशान कोहरे की वजह से मिट गए थे। क़रीब के निशान धुँधले हो रहे थे। अनजाने-से लग रहे थे। पहाड़ी चढ़ते हुए उन्हें लगा, कोहरा आक्रामक होकर उन पर हावी हो रहा है।

विजयेंद्र को बचपन याद आया, जब वे रतनगढ़ रियासत में थे! कोहरे में घोड़ा दौड़ाते हुए तेज़ रफ़्तार से जाना उन्हें पसंद था। जब वे थके-हारे लौटते, तब मार्ग में मोहना के सुर सुनाई देते, बड़ी दूर से आते प्रतीत होते। ऐसा लगता, मानो सुरों का आवरण बुना जा रहा है। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते जा रहे हैं, आवरण का एक-एक रेशमी रेशा खुलता जा रहा है!

कोहरा झीना होता जा रहा है। वह पारदर्शी पटल मानो सूरज की कोमल किरणों से उजास ले रहा है। नज़ाकत से झीने होते कोहरे से पेड़ों की फुनगियाँ, घरों की छत, दूर की पहाड़ी ऐसे खिलते जा रहे हैं, जैसे पौधे पर कली खिलती है। सूरज में यदि चाँद की शीतलता का अनुभव करना हो तो ऐसे घने कोहरे में सूरज को देखना चाहिए।

अपने दिल की चौखट में अंकित प्रकृति का यह रूप काग़ज़ पर साकार करना चाहिए। दिल में बहुत कुछ छलक रहा है। हाथ सुरसुरा रहे हैं। ब्रश हाथ में लेकर मन में उभरकर आई तसवीर चित्रित करने के लिए बेताब हुए।

विजयेंद्र जल्दी लौटे थे, फिर भी देर हो ही हुई थी। साढ़े-सात बज चुके थे। अब समाचार-पत्र पढ़ना, फिर स्नान, नाश्ता करके एक बार ऊपर की मंज़िल पर अपने स्टुडियो में गए कि उन्हें आवाज़ देने की हिम्मत किसी में नहीं होती थी। वे अपने साम्राज्य में गए कि उनकी मर्ज़ी से ही लौटेंगे। खाने-पीने के लिए भी बुलाना उन्हें पसंद नहीं था।

विजयेंद्र ने समाचार-पत्र पर नज़र डाली, लेकिन उन्हें न समाचार दिखाई दे रहे थे, न शब्द! सुबह का नज़ारा ही बार-बार नज़रों के सामने आ रहा था। मानो पूरा अख़बार कोहरे से ढक गया था। पीछे की ओर सुनहरी झलक, पेड़-पौधे कोहरे में छिपे हुए थे। यह सब चित्रित करने की उन्हें जल्दी थी।

विजयेंद्र अपने स्टुडियो में आए। उन्होंने स्टेंड पर फलक लगाया और वे रंग घोलने लगे। आज उन्हें चित्रित करना हैं छोटे-बड़े पेड़, नज़दीक से, दूर से, घर की छत, दूर की पहाड़ी के शिखर, जिनका अस्तित्व महसूस हो रहा है लेकिन रंग रूप का सुडौल एहसास कहीं खो गया है। इन सबके अस्तित्व को घेरकर बैठा हुआ कोहरा… घना कोहरा! विनाशी… फिर भी इस पल वही एक चिरंतन सत्य है, इस बात का एहसास दिलानेवाला कोहरा… उस कोहरे से दूर से भरकर आनेवाली हलकी पीली किरण… वैसी ही, जैसे मोहना के सुर दूर से आनेवाले कोहरे की तरह लिपटनेवाले… वो सामने नहीं आते, फिर भी उस पल चिरंतन सत्य प्रतीत होनेवाले सुर!

कोहरा देखकर विजयेंद्र की रतनगढ़ की यादें जाग उठीं! वे जब भी कोहरा देखते हैं, उन्हें रतनगढ़ याद आता है। रतनगढ़ जंगल से घिरा था। वहाँ कोहरा घना होता था। कोहरे से गुज़रते हुए पीछे मुड़कर देखते। कोहरे का परदा फिर से जुड़ जाता। घुड़सवारी करके लौटते समय मोहना के सुर सुनाई देते। दूर तक चले आते। हवेली तक साथ देते। वैसे तो उसके सुर आज भी, यहाँ भी, आसपास मौजूद हैं। अपनी ही नहीं, औरों की ज़िंदगी में भी इन सुरों ने ख़ुशियाँ भर दी है। आज यह दुनिया की मशहूर गायिका बन गई है। उसके हज़ारो, नहीं लाखों रिकॉर्ड्स बने हैं। अपने संग्रह में भी उसके कई रिकॉर्ड्स हैं। लेकिन अपने दिल में उसकी वह बचपन की आवाज़ ही बसी है। और उसकी वह मासूम ख़ूबसूरती!

काग़ज़ पर चित्र उभर रहा था। दूर की पहाड़ी, घर, पेड़ मानो हाथ में आ गए थे! इन सबको घेरकर बैठा हुआ कोहरा, बूँद-बूँद से काग़ज़ पर उतर रहा था।

स्टुडियो की कॉलबेल बज उठी। विजयेंद्र नाराज़ हुए। चित्र पूरा करके ही, वे नीचे जाना चाहते थे। लेकिन मिलने आनेवाले आदमी का काम भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा, वरना विद्यागौरी बेल ना बजाती। उन्होंने ब्रश धोकर रखे और नीचे आ गए।

विजयेंद्र की आते देख, हॉल में बैठे हुए लोग उठकर खड़े हो गए। ‘‘बैठिए बैठिए! हमारे आते ही आप बुज़ुर्ग खड़े हो जाएँ ऐसे अब हम कौन रह गए हैं भई!” विजयेंद्र ने कहा। चित्रकारिता में गतिरोध आने से विजयेंद्र नाराज़ हुए थे, लेकिन जो लोग मिलने आए थे, उन्हें देककर उनकी नाराजगी दूर हो गई। आज सुबह सैर करते हुए उन्हें रतनगढ़ की याद आई थी, और अब रतनगढ़ के लोग सामने खड़े हैं। 

‘‘हाँ, कहिए, कैसे आना हुआ? कोई खास बात?” विजयेंद्र ने पूछा।

‘‘इस वर्ष, बड़े महाराज महेंद्रनाथ जी की पुण्यतिथि के मौक़े पर मोहना देवी के गाने के कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है।”

‘‘यह अच्छी बात है। बड़े महाराज उनकी सराहना करते थे।”

‘‘कार्यक्रम भारत सांस्कृतिक संचनालय की ओर से किया जाएगा। उनसे बात हो चुकी है।” देसाई जी ने कहा।

‘‘इसी बहाने मोहना देवी का सम्मान करने का इरादा है। भारत सरकार ने उन्हें ‘स्वर शारदा’ उपाधि प्रदान की है। कल ही घोषणा हुई है।”

‘‘हाँ!”

कल टी.वी. पर समाचार सुनने के बाद, मोहना को बधाई देने के लिए विजयेंद्र ने पाँच-छह बार फ़ोन किया था, लेकिन फ़ोन व्यस्त लग रहा था। वो तो लगना ही था। हर कोई फ़ोन पर बधाई देने का प्रयास जो कर रहा होगा! आज किसी को पोस्ट ऑफ़िस भेजकर बधाई का तार भिजवा देंगे। विजयेंद्र मन-ही-मन सोच रहे थे, लेकिन अगर फ़ोन पर बात होती है, तो उसकी सुरीली आवाज़ सुनाई देगी! अब तक तो उसने फ़ोन पर स्वयं बात की है। सचिव से संदेश देना-लेना नहीं किया है। देखते हैं, आज रात फ़िर से फ़ोन करेंगे!

‘‘आप उस समय रतनगढ़ में होंगे ना?” जेधेजी ने पूछा।

‘‘हाँ, बिल्कुल रहूँगा।”

इतना कहने-सुनने के बावजूद बात आगे नहीं बढ़ रही थी। विजयेंद्र समझ गए, ये लोग और कुछ कहना चाहते हैं। जो कहने के लिए आए हैं, अब तक वह कह नहीं पाए हैं। समझ में नहीं आ रहा था किन शब्दों में कहा जाए। मानो कोहरे में छिपा रास्ता ढूँढ़ रहे हों। मंज़िल का पता है, लेकिन जाएँ कैसे? उनकी चुलबुलाहट देखकर विजयेंद्र ने पूछा, ‘‘इस कार्यक्रम के संबंध में आपको क्या मुझसे कोई अपेक्षा है? आप खुलकर बताइए।”

‘‘हम रजतमहल के सारे ट्रस्टी चाहते हैं कि रजतमहल के कला कक्ष में मोहना देवी का पोर्ट्रेट लगाया जाए!” देसाई जी ने कहा।

‘‘दुनिया की सबसे मशहूर गायिका अपने रतनगढ़ की है, यह हमारे लिए गर्व की बात है।”

‘‘सही कहा आपने। उनके संगीत ने हम सबकी ज़िंदगी में खुशियाँ भर दी हैं। आपकी पोर्टेट की कल्पना बहुत अच्छी है।” विजयेंद्र ने कहा।

‘‘लेकिन मोहना देवी ने मना कर दिया है। अगर आप उन्हें मना लें तो… वो आपको न नहीं कहेंगी।”

‘‘में कोशिश करूँगा।”

रजतमहल में महेंद्रनाथ जी ने चुनिंदा चित्र-शिल्प कृतियों का बहुत ख़ूबसूरत संग्रह जमा किया था। महेंद्रनाथ जी रतनग़ढ रियासत के आख़िरी राज थे। उनकी ढलती उम्र में रियासत विलीन हो गई थी। वे बड़े रसिक और दिलदार थे। कलाकारों के क़द्रदान थे। उन्होंने कई कलाकारों को आश्रय दिया था। चित्रकला में उन्हें ख़ास रुचि थी। फ़ुरसत के समय में वे चित्र बनाते थे। कई जाने-माने, देशी-विदेशी चित्रकारों की चित्र-कृतियाँ उन्होंने ख़रीदी थीं। जब वे राजा थे, तब ब्रिटिश गवर्नर से और अन्य लोगों से भी कुछ चित्र उन्हें भेंटस्वरूप मिले थे। उन्होंने जाने-माने चित्रकारों से अपने दादा, परदादा, माँ, दादी, चाची आदि के पोर्ट्रेट बनवा लिए थे। एक इतालवी चित्रकार ने विजयेंद्र का भी चित्र बनाया था। उड़नेवाली तितली, उसे पकड़ने के लिए लपकते दो नन्हे हाथ! आँखों में उत्सुकता! विजयेंद्र को वह चित्र बहुत पसंद था। इसलिए नहीं की वह उनका था, बल्कि इसलिए कि वह एक सुंदर कलाकृति थी। रजतमहल के चित्र देखते-देखते और महेंद्रनाथ जी ने जिन कलाकारों को आश्रय दिया था, उनकी कलाकृतियों का कैसे निर्माण होता है, यह देखते-देखते वे बड़े हुए थे। स्वतंत्रता के बाद रतनगढ़ रियासत भारतीय प्रजातंत्र में विलीन हुई थी। रजतमहल, उसमें रखी चित्र-शिल्प कृतियाँ सैलानियों के आनंद का और चित्रकारों के अभ्यास का केंद्र बन गया था।

रजतमहल महेंद्रनाथ जी के पिताजी विश्वनाथ जी ने अपनी पत्नी माधवी देवी को उनके पच्चीसवें जन्मदिन पर बतौर तोहफ़ा देने के लिए बनवाया था। रतनगढ़ रियासत के दक्षिण में नील सरोवर नाम का विशाल सरोवर है। इस सरोवर का आकार कमल के पत्ते की तरह है। सरोवर का पानी साफ़ और मीठा है। सरोवर के किनारे रजतमहल ऐसा खड़ा है, मानो कमल के पत्तों के बीच खिला श्वेत कमल हो! महल संगमरमर का बना है। उसमें चाँदी जड़े खंबे हैं! उस पर नक़्क़ाशी की गई है।

सामने भव्य कक्ष है। उसके चारों तरफ़ छोटे-छोटे आठ कक्ष हैं। महल के दक्षिण की ओर नील सरोवर है, बाक़ी तीनों तरफ़ बग़ीचा है।

पहले रजतमहल में चुनिंदा कलाकारों के नृत्य संगीत के कार्यक्रम हुआ करते थे। राज परिवार के लोगों के साथ दरबार और रियासत के गिने-चुने प्रतिष्ठित लोगों को भी आमंत्रित किया जाता था। बसंत पंचमी, शरद पूर्णिमा को यहाँ बड़ा उत्सव मनाया जाता था। इस उत्सव में प्रजा भी शामिल हो सकती थी।

रियासत विलीन होने के बाद, रियासत के आश्रय में रहनेवाले लोग, अपना आबोदाना ढूँढ़ने के लिए चारों दिशाओं में चल पड़े। बग़ीचे वीरान हुए। फूल पौधों की जगह कँटीले पेड़-पौधों से बग़ीचा भर गया।

रजतमहल महेंद्रनाथ जी की पसंदीदा जगह थी। अपने अंतिम समय में वे वहीं पर थे। अपना चित्र-संग्रह उन्होंने वहीं पर मँगवाया था। उनकी मृत्यु के बाद महल और चित्र-संग्रह सरकार के क़ब्ज़े में चले गए। आज वह पर्यटन स्थल हो गया है। प्रकृति का ख़ूबसूरत नज़ारा, कला का उत्कृष्ट नमूना? रजतमहल और उसमें रखे गए सुंदर चित्र देखकर सैलानियों की आँखे जुड़ा जाती हैं। मन प्रसन्न हो जाता है। धन्य-धन्य कहते हुए लोग बाहर आते हैं।

रजतमहल के चित्र-संग्रह में और एक चित्र रखने का व्यवस्थापक मंडल ने निर्णय लिया था। मोहना देवी का चित्र। बाक़ी लोगों की सहमति थी। विजयेंद्र विश्वस्त मंडल के सदस्य थे। अगर रियासत विलीन न होती तो आज वे रजतमहल के मालिक होते, इसलिए उनके साथ चर्चा करके उनकी अनुमति लेना आवश्यक था। देसाई जी ने बात शुरू की थी।

रजतमहल में उनका चित्र लगाना उनका बड़ा सम्मान होगा। मोहना देवी आज दुनिया की मशहूर गायिका हैं। रतनगढ़ उनकी साधना भूमि है। रियासत विलीन होने के बाद अन्य कलाकारों की तरह नयनतारा भी अपनी बेटी को लेकर शहर चली गई थी। वहाँ उसने गाने के कार्यक्रम किए थे। बेटी की पढ़ाई का इंतज़ाम किया था। नयनतारा जब अपनी बेटी को लेकर रतनगढ़ आई थी, तब मोहना केवल डेढ़ साल की थी। महेंद्रनाथ जी ने उसे आश्रय दिया था। उसे घर दिया, अन्न-वस्त्र दिए, उसका मारा-मारा फिरना समाप्त हो गया था। महाराज की इच्छानुसार उसे उन्हें गाना सुनाना था। दशहरा, दीपावली, वर्षप्रतिपदा, बसंत पंचमी, जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा आदि ख़ास मौकों पर गिने-चुने आमंत्रित लोगों के सामने उसका गाना होता था। रतनगढ़ में आश्रय मिलने के बाद उसे अपनी बेटी मोहना की संगित शिक्षा की ओर ध्यान देने के लिए भी फ़ुरसत मिली थी। मोहना आज मशहूर गायिका है। उसे मिलनेवाले पैसा, प्रतिष्ठा, सराहना सब कुछ नयनतारा ने अपनी आँखों से देखा था। आज वह इस दुनिया में नहीं रही। दोनो – माँ – बेटी अपने अन्नदाता के प्रति कृतज्ञ थीं। अपनी साधना भूमि रतनगढ़ के लिए उनके मन में आत्मीयता थी। विजयेंद्र महेंद्रनाथ जी के पोते होने से उनके प्रति मोहना के मन में अपनापन था। कभी-कभी कार्यक्रम में वह प्रकट भी होता था। उसके पीछे क्या केवल कृतज्ञता है या और भी कुछ…? जब जब मोहना की याद आती है तो लगता है, मानो दूर से हवा के झोंके के साथ कोई ख़ुशबू आई और दिल पर छा गई। विजयेंद्र कभी-कभी सोचते, मोहना के दिल में उनके लिए कौन सी भावनाएँ होंगी भला!

मोहना देवी आज कला, प्रतिष्ठा, पैसा और लोकप्रियता के जिस शिखर पर है, उसकी तुलना में विजयेंद्र उस शिखर के तीसरे-चौथे पायदान पर भीं नहीं होंगे। लेकिन व्यवस्थापक मंडली का मानना है कि पुराने ऋणानुबंध के कारण एक-दूसरे के लिए जो आत्मीयता, सम्मान उनके दिल में है, यदि विजयेंद्र बात करेंगे तो मोहना देवी पोर्ट्रेट बनवाने के लिए मना नहीं करेंगी।

क्रमशः…

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

मो. 9403310170,   e-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #128 ☆ लघुकथा – निर्णय ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय लघुकथा “निर्णय।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 128 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – निर्णय ☆

“बाबूजी यह मैं क्या सुन रहा हूँ.. कि नीता कहीं और शादी करना चाहती है और वह लड़का अपनी जात बिरादरी का नहीं है।”

हाँ तुमने सही सुना है ..कोई बात नहीं जब उसकी यही मर्जी है तो उसे करने दो।”

” बाबू जी आपका दिमाग खराब हो गया है कोई ब्राह्मण पंजाबी लड़के से शादी करेगा क्या? मैं तो हरगिज भी उसकी शादी नहीं करूंगा।”

नीता के आते ही सुदीप ने कहा..” एक बात कान खोल कर सुन लो जहां हम चाहेंगे वही तुम्हारी शादी होगी घर से बाहर कदम निकाला तो टांग तोड़ देंगे।”

नीता भाई के डर के मारे  उस वक्त कुछ कह न पाई और एक दिन उसने फैसला किया कि मैं अपनी जिंदगी इस घर में नहीं गुजार सकती और वह घर से निकल गई।” भाई को जैसे ही पता चला भाई ने माता-पिता से कहा कि खबरदार आपने जो इससे रिश्ता रखा तो आप मेरा मरा हुआ मुंह देखेंगे या मैं समझ लूंगा कि आप हमारे लिए मर गए।”

माता पिता डर के मारे उससे मिलने नहीं जाते थे। कुछ दिन बाद नीता ने एक बेटे  को जन्म दिया।नीता माता पिता के दर्द और तड़प के कारण उसको बीमारी ने घेर लिया और एक दिन वह इस दुनिया को छोड़ कर चली गई।

अब सुदीप भैया के बेटी की शादी है भैया बहुत उत्साह के साथ अपनी बिटिया का विवाह कर रहे हैं क्योंकि बिटिया ने अपनी मनपसंद बंगाली लड़के को चुना है।

पिताजी यह सब देखकर अपने आपको रोक नहीं पाए और वक्त  उनके मुंह से निकला “अगर तुमने  यही सही निर्णय उस वक्त लिया होता तो आज शायद मेरी बेटी जिंदा होती।”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 91 ☆ फाँस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘फाँस’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 91 ☆

☆ लघुकथा – फाँस ☆ 

अर्चना बालकनी में खड़ी बिजली के तार पर बैठी गौरैया को देख रही थी जिसने बच्चों के उड़ जाने के बाद अभी – अभी घोंसला छोड़ दिया था। घोंसला सूना पड़ा था। कुछ दिन पहले ही चूँ –चूँ  की आवाजों से लॉन गूँजा करता था।  जैसे बच्चों के रहने से घर में रौनक बनी रहती है। घोंसले का सूनापन घर के सन्नाटे को और बढ़ा रहा था। फ्लैशबैक की तरह पति की  एक- एक बात उसके दिमाग में गूँज रही थी –  ‘टू बेडरूम हॉल किचन के फ्लैट से क्या होगा ? कम से कम थ्री बेडरूम हॉल किचन का फ्लैट होना चाहिए। एक  बेटे – बहू का, दूसरा बेटी- दामाद या कोई मेहमान आए तो उसके लिए और तीसरा बेडरूम हमारा। ऐश करेंगे यार, पैसे कमाए किस दिन के लिए जाते हैं।‘  बड़े चाव से खरीदे तीन बेडरूम के फ्लैट में आज सन्नाटा पसरा था। बेटी की शादी हो गई,  कभी – कभार आ जाती हैं सुख – दुख में। बेटे को एम.एस करने विदेश भेजा था,  वह वहीं रम गया।  तीसरे में अकेली रह गई वह। क्यों ???  शादी के बीस साल बाद उसके पतिदेव को समझ में आया कि वे दोनों अब साथ नहीं रह सकते। उसने पति के फोन पर कई बार उसके ऑफिस की एक महिला की चैट पढ़ी  थी। इस पर उसने सवाल भी किए थे पर पति ने उसे तो यही जताया कि ‘तुम हमें समझ ही नहीं सकीं। गल्ती तुम्हारी ही है जो मुझे बांधकर ना रख सकीं। यह तो औरतों का काम होता है पति और बच्चों को संभालना। मेरा क्या ? ‘जो भी राह में मिला, हम उसी के हो लिए’ गीत गुनगुना दिया उसने। दो बेडरूम  खाली रह सकते हैं यह तो उसे मालूम था लेकिन तीसरा ?

 फाँस बहुत गहरी चुभी थी। समझ ही नहीं पाई कि कहाँ,  क्या गलत हो गया? खुद को  कितना समझाती पर चुभन कम नहीं होती। फाँस कुरेद रही थी  उसे भीतर ही भीतर – ‘ इतने वर्षों का साथ, पर एक पल नहीं लगा घरौंदा बिखरने में ? पति और बच्चों के इर्द- गिर्द ही तो जीवन था उसका। मकान को घर बनाने में उसने जीवन खपा दिया। किसी बात का कोई मोल नहीं ? ‘ आँसू थम नहीं रहे थे, दिल बैचैन जोर से धड़कने लगा,  घबराकर फिर से बालकनी में जाकर घोंसले को देखने लगी। गौरैया आकाश में दूर उड़ गई। अर्चना हसरत भरी निगाहों से गौरैया को उड़ते देख रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कालजयी☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – कालजयी ??

कितना धीरे धीरे चढ़ते हैं आप..! देखो, मैं कैसे फटाफट दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ रहा हूँ..! लिफ्ट खराब होने के कारण धीमी गति से घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे दादा जी से नौ वर्षीय पोते ने कहा। दादा जी मुस्करा दिए। अनुभवी आँख के एक हिस्से में अतीत और दूसरे में भविष्य घूमने लगा।

अतीत ने याद दिलाया कि बरसों पहले, अपने दादा जी को मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ाते समय यही बात उन्होंने अपने दादा जी से कही थी। उनके दादा जी भी मुस्करा दिए थे।

भविष्य की पुतली दर्शा रही थी कि लगभग छह दशक बाद उनके पोते का पोता या पोती भी उससे यही कहेंगे। दादा जी दोबारा मुस्करा दिए।

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:34 बजे, 18.4.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 105 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 16 – पुन्न पुरानौ घृत नयौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 105 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 16 – पुन्न पुरानौ घृत नयौ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (16)  

पुन्न पुरानौ घृत नयौ, उर कुलवंती नार।

जे तीनों तबहीं मिलै, जब प्रसन्न करतार ॥

शाब्दिक अर्थ :- पुरखों द्वारा कमाया पुण्य, ताजे घी से युक्त स्वादिष्ट भोजन और कुल का मान बढ़ाने वाली चरित्रवान पत्नी हर किसी के भाग्य में नहीं होती और यह तीनों तभी प्राप्त होते हैं जब ईश्वर की कृपा होती है।

हिरदेपुर में हुई पंचायत की खबर आसपास के गाँवों में और दमोह तक जंगल में आग की तरह फैल गई। दुपरिया होते होते आसपास के गाँवों से लोग बाग शिव मंदिर में और ठाकुर साहब की बखरी पर जुटना चालू हो गए। कुछ तो सजीवन के समर्थन में थे पर ठाकुर साहब के दर से खुल कर कुछ न कह पाते। अनेक तमाशबीन भी थे जो चुपचाप तमाशा देख मजे लेने वाले भी थे तो कुछ चुखरयाई करबे में माहिर  इधर की बात उधर करने में लग गए। कुछ बुजुर्ग जो समझाइश देने को अपना पुश्तैनी दायित्व  समझते थे दोनों पक्षों को समझाने में लग गए। लेकिन बात जितनी बनती उतनी ही बिगड़ जाती। ठाकुर साहब को धर्म की चिंता थी, पुरखों का यशोगान और धर्म के लिए क्षत्रियों द्वारा किया गया बलिदान रह रहकर याद आ रहा था तो सजीवन के कान में महात्मा जी के शब्द गूँज रहे थे, हिन्दुस्तान में जो सबसे सबसे अधिक दुःख में पड़े हुए हैं, उन्हें हरिजन कहना यथार्थ है| हरिजन का अर्थ है, ईश्वर का भक्त, ईश्वर का प्यारा, गरीबा बसोर की कातर आँखे बार बार उनके सामने आ जाती मानो कह रही हों कि ‘महराज एक बार शंकर जी की बटैया मोहे भी छू लेन देओ।

शाम होते होते खबर आई कि दमोह से कांग्रेसियों का एक दल कल सुबह हिरदेपुर आयेगा और समस्या का  समाधान खोजने में मदद करेगा। इस खबर से बड़े बुजुर्गों ने राहत की साँस ली और ठाकुर साहब भी गाँव के लोगों की बात मानकर चर्चा के लिए तैयार हो गए। सब अपने अपने घर चल दिये पर लोगों को अनिष्ट की आशंका सता रही थी ऐसे में  भला नींद किसे आती। ठंड से गाँव के कुत्ते भी रोने लग जाते तो कहीं छींक की आवाज आती और लोग बाग भयभीत हो जाते। खैर रात कटी मुर्गे की बांग और चिड़ियों के चहचहाने ने सुबह की घोषणा कर दी। सारा गाँव फिर से ठाकुर साहब की बखरी पर आ डटा तो अनेक लोग मंदिर में बैठ सजीवन के साथ भजन गाने लगे। सूरज चढ़ते ही दमोह से कांग्रेसियों के दल आने शुरू हो गए। कुछ ही देर में ढगटजी, वर्माजी, मोदीजी, पलन्दीजी, मेहताजी, श्रीवास्तवजी   आदि नेता भी हिरदेपुर पहुँच गए। बातचीत शुरू हो इसके पहले ही ठाकुर साहब ने अपने कारिंदों को भेजकर नेताओं को अपनी बखरी में ही बुला लिया। कांग्रेस के नेता काफी देर तक ठाकुर साहब से चर्चा करते रहे और जलपान आदि ग्रहण कर ठाकुर साहब को ले कर मंदिर आ पहुँचे, जहाँ सजीवन अपनी मण्डली के साथ गांधीजी का प्रिय भजन जो उन्होने परसों ही दमोह की सभा में सुना था गा रहे थे।

रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम

सीताराम सीताराम, भज प्यारे तू सीताराम

ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सब को सन्मति दे भगवान

सबको अपनी ओर आता देख सजीवन ने भजन गाना बन्द कर दिया पर रणछोड़ शंकर ढगट ने सजीवन से भजन को गाना जारी रखने को कहा और खुद भी उसे दुहराने लगे।

भजन समाप्ति पर पलन्दीजी ने चर्चा शुरू की’ ठाकुर साहब और गाँव की जनता हम सब जानते हैं की दो दिन पहले जब महात्माजी दमोह पधारे थे तब आपके गाँव के लोगों ने यहाँ उनका भारी स्वागत किया था।‘

ठाकुर साहब बोले हाँ भैया जा सही बात हे और ई कार्यक्रम की सफलता को पुरो यश सजीवन पंडित जी खों हेंगो। गाँव के अन्य लोगों ने भी ठाकुर साहब की हाँ में हाँ मिलाई।

‘ठाकुर साहब कल आपके गाँव की पंचायत के बारे में सुना और हम सब दमोह से इस विषय पर चर्चा करने आए हैं कि एक समाधान जो सबके हिट में हो निकाल सकें।‘ वर्माजी की गंभीर वाणी गूँजी।

‘भाइयो यह मंदिर हमारे पुरखों ने धर्म की रक्षा के लिए बनवाया था।‘  ठाकुर सहाब बोले।

‘लेकिन ठाकुर साहब महात्मा गांधी कहते हैं कि हरिजनों को अधिकारों से वंचित रखना अधर्म है।‘ दमोह से आए श्रीवास्तव जी बोले।

धनीराम बनिया से रहा न गया वह बोला कि ‘भइया गोस्वामी जी कह गए हैं कि ढ़ोल ग्वार शूद्र पशु नारी सकल तारणा के अधिकारी।‘

‘कल की बातें छोड़ो बाबू ,जमाना बदल रहा है।‘ धनीराम बनिया का शहर में पढ़ने वाला लड़का बोला।

‘तुम बीच में मत बोलो अभी कल के लड़के हो वेद पुराण मनु स्मृति सब कहते हैं कि केवल द्विज को शिक्षा ग्रहण करने का पात्रता है। शूद्र तो पैदा ही इसलिए होते हैं कि वे सवर्णों की सेवा करें, यह मंदिर उनके लिए खोलना घोर पाप का काम है।‘ बटेसर यादव बोले । 

अब सजीवन से रहा न गया वे बोले ‘भाइयो मैंने अपने पिताजी से वेद आदि शास्त्र पढ़े हैं। मनु स्मृति में भी शूद्र को शिक्षा न दिए जाने को कहीं भी स्पष्ट रूप से मनाही  नहीं  है। वैदिक काल में एतरैय, एलुष आदि दासी पुत्रों, सत्यवान जाबाल गणिका पुत्र व मातंग चांडाल पुत्र का उल्लेख है जो उच्च शिक्षित होने पर ब्राह्मण बन समाज में प्रतिष्ठित हुए। महर्षि बालमिकी भी शूद्र थे, विदुर दासी पुत्र थे तो निषादराज आदिवासी। यदि वैदिक काल में व मनु स्मृति में शूद्रों के पठन पाठन पर रोक लगाई गई होती तो उपरोक्त व्यक्ति ऋषि न बनते।‘

रणछोड़ शंकर ढगट की दमोह और आस पास के गाँवों में धर्म प्रेमी विद्वान ब्राह्मण के रूप में  बड़ी प्रतिष्ठा थी उन्होने ने भी सजीवन की बात का समर्थन करते हुये कहा कि शास्त्रों में  वर्ण परिवर्तन को मान्यता  है व शिक्षा प्राप्त कर शूद्र भी उच्च वर्ण में जा सकता है। अशिक्षित ब्राह्मण शूद्र समान है। ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह सब वर्णों को उनकी जीविकोपार्जन के उपाय बताए व स्वंय भी अपने कर्तव्यों को जाने इस प्रकार सजीवन की बात सही है और हमे उनकी बात मानते हुये यह मंदिर हरिजनों के लिए खोल देना चाहिए।

‘सही बात है राजा गरीबा बसोर और पुनिया चमार अपने साथियों के साथ मंदिर आएँगे, हम सब लोगों के बीच उठेंगे बैठेंगे तो उनका ज्ञान बढ़ेगा।‘ परम लाल काछी बोला।

यह सब बातें सुनते सुनते हरिजनों में भी कुछ जाग्रति का भाव आया और पुनिया व गरीबा एक साथ बोल उठे ‘राजा हम ओरन पर क्रिपा करो मंदिर में दर्शन कर लें देओ।‘

‘भाइयो गांधीजी खाते हैं कि हरिजनों को साथ लाने से अंग्रेजों को देश की एकता समझ में आएगी देश जल्दी आजाद हो जाएगा। उनकी हरिजन यात्रा से अंग्रेज डर गए हैं।‘ प्रेम शंकर धगट बोले।

ठाकुर साहब पर इन सब बातों का कोई असर न हुआ और उन्होने अपनी अंतिम घोषणा कर दी कि ‘ ‘हमारा मंदिर शूद्रों के लिए नहीं खोला जाएगा।‘

सभा ख़त्म होने की घोषणा होती उसके पहले ही सहसा सजीवन की कोठरी का द्वार खुला और पंडिताइन एक पोटली लेकर मंदिर के चबूतरे पर पहुँच अपनी धीमी किन्तु मधुर आवाज़ में बोली ‘ राजा अब तुमने हुकुम सुआ दओ हेगों कि हम जा मंदिर छांड देबें तो ठीक है जा गहनों की पुटलिया आय, भोला के बब्बा और दद्दा ने मंदिर के खेत जौन आमदनी बची उसे हमाए लाने बनवाए हते अब जब हम मंदिर छोड़ राय हें तो इन पर भी हमाओ कौनों अधिकार नई रह जात।‘

इतना कह कर पंडिताइन मुडी और वापस अपनी कोठरी की ओर चल दी.  

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 28 – स्वर्ण पदक – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 28 – स्वर्ण पदक 🥇 – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

जैसा कि अनुमान था, स्वर्णकांत ने परिवीक्षाधीन अधिकारी की परीक्षा पास की और देश के एक प्रतिष्ठित बैंक में दो वर्षीय प्रशिक्षण के लिये स्टॉफ एकेडमी गुरुग्राम की राह पकड़ी किन्तु, इसके पहले जब मां ने स्वर्णकांत को अपने गुरुजनों और मार्गदर्शकों से उनके घर जाकर उन्हें मिठाई भेंटकर आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ने की सलाह दी तो समय की कमी का बहाना बनाकर टाल गये. अब उनके मन में “स्वंय ग्रंथि” ने जड़ जमाने की शुरुआत कर दी थी जब उन्होंने यह सोचना शुरु कर दिया कि “शिक्षक तो बहुतों को पढ़ाते हैं, ये तो उनकी नौकरी का अंग है, सफलता तो प्रतिभाशाली छात्र को ही वरण करती है जो उनमें कूट कूट कर भरी है.”

जो गुरु उन्हें पहले सफलता के गुर सिखाते थे अब उनकी नज़रों में नज़रअंदाज करने लायक बन गये थे. गुरुग्राम, हैदराबाद के विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सभी व्यवसायिक प्रखंडों के व्यवहारिक ज्ञान से लैस होकर स्वर्णकांत जी ने दूसरे सर्किल में ज्वाइनिंग की और अनुभवों के समृद्धि कोष में निरंतर पायदान चढ़ते हुये विशालनगर की विशाल शाखा के मुख्य प्रबंधक की कुर्सी पर पदासीन हुये. इस पद का पदभार ग्रहण करने के पहले स्वर्णकांत ने अपना रूरल, और लाईन असाइनमेंट नाम करने के नाम पर पूरा किया. वे इस अवधि में हाईवेल्यू एडवांसेस के दुर्लभ विशेषज्ञ बन चुके थे तो उनकी अपरिहार्यता को देखते हुये ठीक 731वें दिन वे अपनी सिद्धहस्तता के बल पर विशिष्ट क्रेडिट एनालिस्ट की मनपसंद पोस्ट प्राप्त कर लेते हैं.

पहले एकेडमिक सफलता, फिर प्रतियोगितात्मक सफलता और फिर मैनेजर क्रेडिट की एक्सप्रेस क्रेडिट की सफलता ने जब अतिआत्मविश्वास रूपी व्याधि से उन्हें संक्रमित किया तो वो आत्मविश्लेषण की विधा में निपुण होने की जगह उसे अनावश्यक एक्सेसरीज़ समझकर किनारा कर बैठे और उसे नाग की केंचुली के समान उतार फेंकने में कामयाब हो गये.

जब विशालनगर की विशाल सेंटर शाखा में उनकी पदस्थापना हुई तो उनके पास अतिआत्मविश्वास था जिसके सामने घमंड भी खुद को छोटा महसूस करने लगता था. शैक्षणिक योग्यता और कैडर के डंके थे, प्रसिद्घ क्रेडिट एनालिस्ट की सर्किल स्तर की ख्याति थी, पर जो नहीं थी वह थी आत्मविश्लेषण करने की योग्यता जिसे उन्होंने हासिल करने की जरूरत भी नहीं समझी. अगर समझते भी तो किताबों में नहीं मिलती. विधाता अगर हर उँगली एक सी बना देता तो हाथों से लिखने पकड़ने की जगह सिर्फ एक ही काम हो पाता “करबद्धता”.

विशालनगर की ये शाखा कुरूक्षेत्र का मैदान थी जहां अच्छे-अच्छे सूरमा ढेर हो जाते थे और उच्च प्रबंधन ने इनके प्रोफाईल को देखते हुये और इनकी क्रिटिकल ब्रांच संचालन की अनुभवहीनता को नज़रअंदाज करते हुये इन्हें कुरूक्षेत्र का अर्जुन समझकर रणभूमि में उतार दिया. ये उतर तो गये पर न इनके साथ कृष्ण थे न ही गीता का ज्ञान जो आध्यात्मिक से ज्यादा व्यवहारिक है.

पराक्रम कथा जारी रहेगी.   क्रमशः …

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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