हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #129 ☆ व्यंग्य – महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 129 ☆

☆ व्यंग्य – महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या

हमारे नगर के गौरव ‘उन्मत्त’ जी का दृढ़ विश्वास है कि ‘निराला’ के बाद अगर किसी कवि को महाकवि कहलाने का हक है तो वे स्वयं हैं,भले ही दुनिया इसे माने या न माने।दाढ़ी-मूँछ हमेशा सफाचट रखे और कंधों तक केश फैलाये ‘उन्मत्त’ जी हमेशा चिकने-चुपड़े बने रहते हैं।उनके वस्त्र हमेशा किसी डेटरजेंट का विज्ञापन लगते हैं।बढ़ती उम्र के साथ रंग बदलते बालों को वे सावधानी से ‘डाई’ करते रहते हैं।कोई बेअदब सफेद खूँटी सर उठाये तो तत्काल उसका सर कलम कर दिया जाता है।
घर-गृहस्थी को पत्नी के भरोसे छोड़ ‘उन्मत्त’ जी कवि-सम्मेलनों की शोभा बढ़ाने के लिए पूरे देश को नापते रहते हैं।उनके पास दस पंद्रह कविताएँ हैं, उन्हीं को हर कवि सम्मेलन में भुनाते रहते हैं। कई बार एक दो चमचों को श्रोताओं के बीच में बैठा देते हैं जो उन्हीं पुरानी कविताओं की फरमाइश करते रहते हैं और ‘उन्मत्त’ जी धर्मसंकट का भाव दिखाते उन्हीं को पढ़ते रहते हैं।

‘उन्मत्त’ जी के पास कई नवोदित कवि मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आते रहते हैं। ऐसे ही एक दिन एक कवयित्री अपनी कविता की पोथी लिये सकुचती हुई आ गयीं। ‘उन्मत्त’ जी ने उनकी पोथी पलटी और पन्ने पलटने के साथ उनकी आँखें फैलती गयीं। फिर नवोदिता के मुख पर दृष्टि गड़ा कर बोले, ‘ आप तो असाधारण  प्रतिभा की धनी हैं। अभी तक कहाँ छिपी थीं आप? आपको सही अवसर और मार्गदर्शन मिले तो आपके सामने बड़े-बड़े जीवित और दिवंगत कवि पानी भरेंगे। अपनी प्रतिभा को पहचानिए, उसकी कद्र कीजिए।’

फिर उन्होंने एक बार और कविताओं पर नज़र डालकर चिबुक पर तर्जनी रख कर कहा, ‘अद्भुत! अद्वितीय!’     

नवोदिता प्रसन्नता से लाल हो गयीं। आखिर रत्न को पारखी मिला। ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘आपको यदि अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करना हो तो मेरे संरक्षण में आ जाइए। मैं

आपको कवि- सम्मेलनों में ले जाकर कविता के शिखर पर स्थापित कर दूँगा।’

कवयित्री ने दबी ज़बान में घर-गृहस्थी की दिक्कतें बतायीं तो ‘उन्मत्त’ जी बोले,  ‘यह घर-गिरस्ती प्रतिभा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। कितनी महान प्रतिभाएँ घर-गिरस्ती में पिस कर असमय काल-कवलित हो गयीं। थोड़ा घर- गिरस्ती से तटस्थ हो जाइए। बड़े उद्देश्य के लिए छोटे उद्देश्यों का बलिदान करना पड़ता है।’

‘उन्मत्त’ जी ने उस दिन नवोदिता को ‘काव्य-कोकिला’ का उपनाम दे दिया। बोले, ‘मैं सुविधा के लिए आपको ‘कोकिला’ कह कर पुकारूँगा।’

‘उन्मत्त’ जी ने ‘कोकिला’ जी को एक और बहुमूल्य सलाह दी। कहा, ‘कवि- सम्मेलनों में सफलता के लिए कवयित्रियों को एक और पक्ष पर ध्यान देना चाहिए। थोड़ा अपने वस्त्राभूषण और शक्ल-सूरत पर ध्यान दें। बीच-बीच में ‘ब्यूटी पार्लर’ की मदद लेती रहें। कारण यह है कि श्रोता कवयित्रियों को कानों के बजाय आँखों से सुनते हैं। कवयित्री सुन्दर और युवा हो तो उसके एक-एक शब्द पर बिछ बिछ जाते हैं, घटिया से घटिया शेरों पर भी घंटों सर धुनते हैं। यह सौभाग्य कवियों को प्राप्त नहीं होता। हमारा एक एक शब्द ठोक बजाकर देखा जाता है।’

‘कोकिला’ जी घर लौटीं तो उनके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। घर पहुँचने पर उन्हें अपना व्यापारी पति निहायत तुच्छ प्राणी नज़र आया। घर पहुँचते ही उन्होंने पति को निर्देश दिया कि उनके लिए तत्काल नई मेज़-कुर्सी खरीदी जाए ताकि उनकी साहित्य-साधना निर्बाध चल सके और जब वे मेज़-कुर्सी पर हों तब उन्हें यथासंभव ‘डिस्टर्ब’ न किया जाए।साथ ही उन्होंने पतिदेव से यह भी कह दिया कि खाना बनाने के लिए कोई बाई रख ली जाए ताकि उन्हें इन घटिया कामों में समय बर्बाद न करना पड़े।पतिदेव की समझ में नहीं आया कि उनकी अच्छी-भली पत्नी को अचानक कौन सी बीमारी लग गयी।

इसके बाद ‘उन्मत्त’ जी के साथ कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी अवतरित होने लगीं।बाहर के दौरे भी लगने लगे।देखते देखते ‘कोकिला’ जी कवयित्री के रूप में मशहूर हो गयीं।वे ‘उन्मत्त’ जी से ज़्यादा दाद बटोरती थीं।जल्दी ही  उन्होंने ‘ज़र्रानवाज़ी, इरशाद, इनायत, तवज्जो, पेशेख़िदमत, मक़्ता, मतला, नवाज़िश, हौसलाअफज़ाई का शुक्रिया’ जैसे शब्द फर्राटे से बोलना और मंच पर घूम घूम कर माथे पर हाथ लगाकर श्रोताओं का शुक्रिया अदा करना सीख लिया।

अब बहुत से पुराने, पिटे हुए और कुछ नवोदित कवि ‘कोकिला’ जी के घर के चक्कर लगाने लगे थे।रोज़ ही उनके दरवाज़े पर दो चार कवि दाढ़ी खुजाते खड़े दिख जाते थे।शहर के बूढ़े, चुके हुए कवि उन्हें अपने संरक्षण में लेने और उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए रोज़ फोन करते थे।

लोकल अखबार वाले उनके इंटरव्यू छाप चुके थे।हर इंटरव्यू में ‘कोकिला’ जी आहें भरकर कहती थीं, ‘मेरा हृदय एक अनजानी पीड़ा से भारी रहता है।संसार का कुछ अच्छा नहीं लगता।यह दुख क्या है और क्यों है यह मुझे नहीं मालूम।बस यह समझिए कि यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?मैं नीर भरी दुख की बदली।इसी दुख से मेरी कविता जन्म लेती है।इसी ने मुझे कवयित्री बनाया।’

‘उन्मत्त’ जी शहर के बाहर कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी को ले तो जाते थे लेकिन जो पैसा-टका मिलता था उसका हिसाब अपने पास रखते थे। थोड़ा बहुत प्रसाद रूप में उन्हें पकड़ा देते थे। पूछने पर कहते, ‘इस पैसे- टके के चक्कर से फिलहाल दूर रहो। पैसा प्रतिभा के लिए घुन के समान है। कविता के शिखर पर पहुँचना है तो पैसे के स्पर्श से बचो। ये फालतू काम मेरे लिए छोड़ दो। आप तो बस अपनी कविता को निखारने पर ध्यान दो।’

अब कवि-सम्मेलनों के आयोजक ‘कोकिला’ जी से अलग से संपर्क करने लगे थे। कहते, ‘आप ‘उन्मत्त’ जी के साथ ही क्यों आती हैं? हम आपको अलग से आमंत्रित करना चाहते हैं। ‘उन्मत्त’ जी हमेशा पैसे को लेकर बखेड़ा करते हैं।’

दो-तीन साल ऐसे ही उड़ गए। कवि-सम्मेलन, गोष्ठियाँ, अभिनन्दन, सम्मान। ‘कोकिला’ जी आकाश में उड़ती रहतीं। जब घर लौटतीं तो दो चार लोकल या बाहरी कवि टाँग हिलाते, दाढ़ी खुजाते, इन्तज़ार करते मिलते। घर- गिरस्ती की तरफ देखने की फुरसत नहीं थी।

एक दिन ‘कोकिला’ जी के पतिदेव आकर उनके पास बैठ गये। बोले, ‘कुछ दिनों से तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा था लेकिन तुम्हें तो बात करने की भी फुरसत नहीं। तुम कवयित्री हो, बड़ा नाम हो गया है। मैं साधारण व्यापारी हूँ। मुझे लगने लगा है कि अब हमारे रास्ते अलग हो गए हैं। अकेले गृहस्थी का बोझ उठाते मेरे कंधे दुखने लगे हैं। मेरा विचार है कि हम स्वेच्छा से तलाक ले लें।’

‘कोकिला’ जी जैसे धरती पर धम्म से  गिरीं। चेहरा उतर गया। घबरा कर बोलीं, ‘मुझे थोड़ा सोचने का वक्त दीजिए।’

दौड़ी-दौड़ी ‘उन्मत्त’ जी के पास पहुँचीं। ‘उन्मत्त’ जी ने सुना तो खुशी से नाचने लगे। नाचते हुए उल्लास में चिल्लाये, ‘मुक्ति पर्व! मुक्ति पर्व! बधाई ‘कोकिला’ जी। छुटकारा मिला। कवि की असली उड़ान तो वही है जिसमें बार-बार पीछे मुड़कर ना देखना पड़े।’ फिर ‘कोकिला’ जी का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अब हम साहित्याकाश में साथ साथ निश्चिन्त उड़ान भरेंगे। टूट गई कारा। मैं कल ही आपके अलग रहने का इन्तज़ाम कर देता हूँ।’

‘कोकिला’ जी उनका हाथ झटक कर घर आ गयीं।

दो दिन तक वे घर से कहीं नहीं गयीं। दो दिन बाद वे स्थिर कदमों से आकर पति के पास बैठ गयीं, बोलीं, ‘मैंने आपकी बात पर विचार किया। मैं महसूस करती हूँ कि पिछले दो-तीन साल से मैं घर गृहस्थी की तरफ ध्यान नहीं दे पायी। कुछ बहकाने वाले भी मिल गये थे। लेकिन अब मैंने अपनी गलती समझ ली है। भविष्य में आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’

उसके बाद वे जा कर ड्राइंग रूम में ऊँघ रहे कवियों से बोलीं, ‘अभी आप लोग तशरीफ ले जाएँ। मैं थोड़ा व्यस्त हूँ। अभी कुछ दिन व्यस्त ही रहूँगी, इसलिए आने से पहले फोन ज़रूर कर लें।’

कविगण ‘टाइम-पास’ का एक अड्डा ध्वस्त होते देख दुखी मन से विदा हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 90 ☆ बसंती बयार… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना बसंती बयार …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 90☆ बसंती बयार  

बसंत ऋतु के आगमन के साथ ही फागुन भी दस्तक देने लगता है। मौसम का असर सभी पर पड़ना स्वाभाविक है। इस समय तो चुनावी माहौल होने के कारण रंगों की राजनीति भी जोर पकड़ती दिख रही है। कौन आएगा कौन जाएगा ये तो मतदाता की इच्छा पर निर्भर करेगा किन्तु पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपनी – अपनी तैयारियों में व्यस्त हैं। पहले चुनावी टिकट के लिए घमासान मचा हुआ था। अब मनोरंजन हेतु देश -विदेश की यात्रा के टिकट के लिए मारामारी हो रही है। एक दूसरे को समझते- समझाते वे ये भूल गए थे कि उन्हें अपनी यात्रा भी तो सुनिश्चित करनी है। ऊँट किस करवट बैठेगा इसका अंदाजा तो उन्हें है किंतु सकारात्मक चिंतन के वशीभूत वे देखकर भी अनदेखा करने में महारथी हो रहे हैं।

कहा भी गया है आँख ओट पहाड़ ओट, अच्छा है परिवर्तन होना ही चाहिए। भले ही सत्ता का हो, स्थान का हो, दल या विचारधारा का हो। डॉक्टर भी रोगियों को यही कहते हैं कि आप जगह बदलें,हवा- पानी बदलते ही दवा- दारू भी असर करने लगेगी। चुनावी जोड़तोड़ में दो महीने की मेहनत कितना रंग लाएगी ये तो मतपेटी में पड़े हुए बैलेट पेपर ही तय करेंगे पर होली में कौन सा रंग सबके चेहरों पर दिखाई देगा ये चुनावी परिणाम ही बताएंगे। आम मतदाता तो जिधर का पड़ला भारी देखेगा उसी ओर मुड़ जाएगा। उसे तो रंगों से खेलना है चाहें कोई भी रंग क्यों न हो।

मौखिक प्रचार में सभी लोग लगे हुए हैं। अपना प्रत्याशी जीते ये न केवल कार्यकर्ता चाहते हैं वरन मतदाता भी हवा का रुख निर्धारित करते हुए देखे जा सकते हैं। प्रादेशिक चुनाव केवल उस विशेष राज्य तक सीमित नहीं रह गए हैं। उनका भी कार्यक्षेत्र बढ़ है। अब सब लोग केंद्र के साथ ही अपने प्रदेश की गोटी फिट करना चाह रहे हैं। बदलाव का असर हो रहा है, लोकतंत्र की विशालता चुनावों की गतिविधियों द्वारा ही तय होती है। जागरूकता का असर साफ दिखाई दे रहा है। जैसे- जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता जाएगा, लोगों को रोजगार मिलेगा, उनके पेट भरे होंगे वैसे- वैसे चुनावी मुद्दे भी बदलेंगे। अब दलों को भी अपने कार्यों पर पूरे पाँच वर्षों का लेखा – जोखा देना होगा क्योंकि मतदाता जागरूक हो रहा है। किस रंग से रंगे ये निर्धारण अब वो स्वयं करेगा। मौसम हर बार बासंती नहीं हो सकता।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #128 ☆ व्यंग्य – घर आया मेहमान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘घर आया मेहमान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 128 ☆

☆ व्यंग्य – घर आया मेहमान

मुरली बाबू उस वक्त आनन्द और सुकून की स्थिति में थे। सुबह का खुशनुमा शान्त माहौल, लॉन की हरयाली, हाथ में चाय का प्याला और बतयाने के लिए बगल में पत्नी। कलियुग में इससे ज़्यादा और क्या चाहिए? तभी गेट के सामने ऑटो रुका। मुरली बाबू के कान खड़े हुए। इतने सबेरे कौन मेहमान अवतरित हुए? गर्दन उठाकर देखा तो ऑटो से उतरता आदमी अपरिचित लगा। आधे मिनट बाद वे सज्जन मुरली बाबू और उनकी पत्नी के चरणों से लग गये। पूरे दाँत चमका कर बोले, ‘पहचाना नहीं, सर? मैं चिन्टू, आपके साले नन्दू भाई का दोस्त। दीदी तो मुझे अच्छी तरह से जानती हैं। पिछली बार आप ससुराल आए थे तो मैंने आपके चरण छुए थे।’

मुरली बाबू को कुछ कुछ याद आया। चिन्टू बाबू कुर्सी ग्रहण करके बोले, ‘यहाँ यूनिवर्सिटी में कॉपी जाँचने आया हूँ। छः-सात दिन का काम है। यहाँ कहीं भी रुक जाता, दो चार दोस्त हैं, लेकिन सोचा मौका मिला है तो सर और दीदी के साथ चार छः दिन बिता लूँ।ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा? नन्दू भाई ने भी कहा था कि जब जीजाजी हैं तो कहीं और क्यों ठहरना? कहीं और ठहरोगे तो उनको बुरा लगेगा।’

चिन्टू बाबू प्रेम से जम गये। नाश्ते के बाद स्नान हुआ। मुरली बाबू अपनी चप्पल ढूँढ़ने लगे तो पता चला वह चिन्टू बाबू के चरणों में है। थोड़ी देर में चिन्टू बाथरूम में टँगे, मुरली बाबू के तौलिए से बदन पोंछते प्रकट हुए। हँस कर बोले, ‘मैं हमेशा तौलिया चप्पल रखना भूल जाता हूँ। बाजार तरफ जाऊँगा तो तौलिया खरीद लूँगा। चप्पल तो थोड़ी देर को चाहिए।’

दीदी से बोले, ‘दीदी, टिफिन दे दीजिएगा। लौटते लौटते शाम हो जाएगी। पता नहीं वहाँ खाने पीने की कोई ठीक जगह है या नहीं। परदेस में वैसे भी थोड़ा सावधान रहना चाहिए।’

वे कॉपी जाँचने के अपने हथियार लेकर विदा हुए। शाम को लौटे तो थके थके कुर्सी में धँस गये। बोले, ‘थकाने वाला काम है।’

मुरली बाबू का बारह साल का बेटा टीनू उनके आगमन का कारण जानकार उत्सुक था। बोला, ‘अंकल, आप कॉपी चेक करने आये हैं?’

चिन्टू बाबू ने उत्साह से जवाब दिया, ‘हाँ बेटा।’

टीनू ने पूछा, ‘एक दिन में कितनी कॉपियाँ चेक कर लेते हैं?’

चिन्टू बाबू बोले, ‘अरे यहां बड़े कानून- कायदे हैं। दिन भर में सत्तर कॉपियों से ज्यादा नहीं देते। हम तो दिन भर में आराम से डेढ़ सौ कॉपियाँ खींच देते हैं।’

टीनू आँखें फैलाकर बोला, ‘डेढ़ सौ चेक कर सकते हैं? इतनी सारी कैसे पढ़ लेते हैं?’

चिन्टू बाबू गर्व से बोले, ‘पढ़ना क्या है? थोड़ा थोड़ा देख लेते हैं। हंडी के एक चावल से पूरी हंडी की हालत का पता चल जाता है। एक नजर में समझ में आ जाता है कि लड़का कितने पानी में है।’

टीनू बोला, ‘स्टूडेंट आलू-चावल होते हैं क्या?’

चिन्टू बाबू झेंप कर बोले, ‘मेरा वो मतलब नहीं। उदाहरण दे रहा था। घर छोड़कर यहाँ आये हैं। ज्यादा कॉपियाँ दें तो जल्दी खतम करके आगे बढ़ें। दूसरी यूनिवर्सिटी भी जाना है।’

फिर मुरली बाबू की तरफ मुँह घुमा कर बोले, ‘सर, यह हम लोगों का सीजन है। तीन चार यूनिवर्सिटी भी हो लिये तो बीस पचीस हजार खड़े हो जाएँगे। सब्जी-भाजी का इंतजाम हो जाएगा।’

दो-तीन दिन बाद एक शाम लौटे तो बड़े दुखी थे। बोले, ‘आज मैंने कॉपियों का एक बंडल ज्यादा ले लिया तो मुझे उल्टी सीधी बातें सुनायीं। कहने लगे आपने ज्यादा क्यों ले लिया। अब बताइए हमारा क्या कसूर है? आपने दे दिया तो हमने ले लिया। आप नहीं देते तो हम कहाँ से ले लेते? इस यूनिवर्सिटी का काम धाम ठीक नहीं है। यहां टीचर की इज्जत नहीं है।’

फिर एक दिन लौटे तो उनके बीस इक्कीस साल के सुपुत्र साथ थे। हँसते हँसते बोले, ‘मैं पंद्रह बीस दिन से घर से निकला हुआ हूँ। इस बीच घर में खबर नहीं दे पाया तो वाइफ ने घबराकर इसे ढूँढ़ने के लिए भेज दिया। वहीं यूनिवर्सिटी में भेंट हुई। बात यह है सर, कि मोबाइल मैं रखता नहीं क्योंकि कहीं भी छूट जाता है और टेलीफोन बूथ ढूँढ़ने में आलस लगता है।’

सुपुत्र एक रात पिताजी के साथ काट कर दूसरे दिन निश्चिन्त विदा हुए।

जिस दिन काम खत्म हुआ उस दिन चिन्टू बाबू कुछ उदास थे। मुरली बाबू से बोले, ‘ज्यादा नहीं, सात हजार का ही बिल बना, सर। चलो, जो भी मिल जाए। अभी दो यूनिवर्सिटी और बाकी हैं।’

फिर हँसकर बोले, ‘आपसे बतायें, बड़ा गड़बड़ हुआ,सर। मेरा चश्मा घर पर ही छूट गया था इसलिए कॉपियाँ जाँचने में काफी दिक्कत हुई। बेटा भी लेकर नहीं आया। खैर कॉपियाँ तो किसी तरह जँच गयीं, लेकिन बिल बनाने के लिए एक टीचर का चश्मा माँगना पड़ा। बिल गलत बन जाता तो बड़ा नुकसान हो जाता।’

चलते वक्त दीदी के पाँव छू कर बोले, ‘दीदी, अब अगले साल आऊँगा, तब फिर आपके हाथ का प्रसाद पाऊँगा।’

दीदी घबरा कर बोलीं, ‘अगले साल हमारा साउथ घूमने जाने का प्लान है। शायद हम लोग उस वक्त घर पर नहीं रहेंगे।’

चिन्टू निश्चिन्त भाव से बोले, ‘आप पड़ोस में चाबी दे दीजिएगा। घर में तो सब चीज मैंने देख ही ली है। गैस रहेगी ही। मैं खटर-पटर करके चार रोटी सेंक लूँगा। आपसे फोन पर बात करके सब ‘सेट’ कर लूँगा।’

फिर बोले, ‘ऐसा करूँगा, वाइफ को साथ लेता आऊँगा। वे किचन सँभाल लेंगीं। उनका भी घूमना हो जाएगा।’

इस तरह अगले साल फिर आने का वादा करके चिन्टू बाबू खुशी खुशी इस घर से किसी दूसरे घर के लिए विदा हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #89 ☆ चाहे जितना जोर लगा लो… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चाहे जितना जोर लगा लो…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 89 ☆ चाहे जितना जोर लगा लो… 

वादों के जुमलों से घिरे हुए मतदाता आखिरकार वोटिंग बूथ तक पहुँच ही गए। अब किस चुनाव चिन्ह का बटन दबाएंगे ये तो उनके विवेक पर निर्भर करता है। यहाँ तक आने से पहले उन्होंने वाद, विवाद, संवाद, प्रतिवाद सभी का सहारा लिया है। अंत में निर्विवाद रूप से जातिगत समीकरणों को धता देते हुए कार्यों की गुणवत्ता को ही आबाद करने का सामूहिक निर्णय नजरों ही नजरों में ले लिया है।

मजे की बात ये है कि इस बार रिपोर्टर ये नहीं पूछ रहे हैं कि आपने किसे वोट दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए ये पता लगाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं कि किन मुद्दों पर मतदान हुआ है। अक्सर ही ओपिनियन पोल चुनावी परिणामों से नहीं मिलता है जिससे उनके चैनल की प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाती है। जितनी मायूसी हारने वाले खेमे को होती है उससे कहीं ज्यादा चैनल के सी ई ओ को होती है। उसे बड़े दलों का जिम्मा आगे के चुनावों में नहीं दिया जाता है। यही तो समय है ये देखने का कि उन्होंने माहौल निर्मित करने में कितना जोर लगाया है। निष्पक्ष होने का दावा करने के बाद भी कौन किस दल के प्रचार में लगा हुआ ये साफ दिखता है।

जो दिखता है वही बिकता है। ये स्लोगन केवल वस्तुओं की बिक्री हेतु लागू नहीं होता है। इसका उपयोग सभी क्षेत्रों में बखूबी हो रहा है। एक- एक मतदाता को लुभाना उसे अपनी पार्टी की विचारधारा से जोड़ना; ये सब कुछ ही दिनों के भीतर करना कोई जादुई कार्य ही तो है।आँखों की नींद उनकी वाणी से साफ झलकती है। कोई मुखिया अपने प्रत्याशी को ही नहीं पहचानता क्योंकि उसने हाल में ही पार्टी की बागडोर संभाली है। उसके शुभचिंतक ही उसे बताते हैं कि आज आपको इनके लिए बोलना है। बोलने से याद आया, कुछ भी बोलो; बस अंत में चुनाव चिन्ह सही बोलना क्योंकि कोई कुछ भी ध्यान नहीं दे रहा है वो तो स्टार प्रचारक को नजदीक से देखना चाहता है सो यहाँ बैठा हुआ है।

कई लोग तो विवशता वश अपना ही प्रचार नहीं कर पा रहे हैं पर उन्हें व उनके समर्थकों को विश्वास है कि वे भारी बहुमत से जीतेंगे। कथनी और करनी का तालमेल तो चुनाव परिणाम वाले दिन ही पता चलेगा बस इंतजार है कि मतदाता किन बातों से प्रभावित हो रहा उसकी समीक्षा का क्योंकि अगले चुनावों की भी भूमिका इसी बात पर तो निर्भर करेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 124 ☆ “वेलेंटाइन डे पर पत्र” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर समसामयिक व्यंग्य वेलेंटाइन डे पर पत्र”।)  

☆ व्यंग्य # 124 ☆ “वेलेंटाइन डे पर पत्र” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

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प्राण प्यारी प्रिये,

     जुग जुग जियो।

यहां कुशल सब भांति सुहाई,

      वहां कुशल राखें रघुराई,

रघुराई का सहारा इसलिए लेना पड़ रहा है कि वेलेंटाइन डे सामने खड़ा हो गया है, और हमें चिंता है कि इस साल तुम सुरक्षित रहो, पिछले साल वेलेंटाइन डे मनाते समय तुम्हारी उन लोगों ने पिटाई कर दी थी, हालांकि उस पिटाई में हम भी शामिल थे, अपन दोनों वेलेंटाइन डे के स्वागत के लिए गार्डन में एक दूसरे से चिपके बैठे थे तो पीछे से कुछ लोगों ने लठ्ठ पटक दिया था। इस बार का वेलेंटाइन डे तुम किसी और के साथ कहीं और मना लेना क्योंकि इन दिनों अपना उपयोग गधे की भांति किया जा रहा है। टारगेटों से लदे हुए हम कराह रहे हैं। इधर सरकारी योजनाओं का टारगेट पूंछ उठा कर खड़ा है, डिपाजिट और एडवांस का टारगेट  ओमीक्रान बन गया है। पत्नी ने जो टारगेट दिया था वो हवा में उड़ गया है। ससुराल वालों का साहब बने रहो के टारगेट से टांग टूट गई है। बच्चे पैदा करने का टारगेट  हवा हवाई हो गया है। इस बार गरीबी रेखा के साथ मजबूरी में वेलेंटाइन डे मनाने का टारगेट हाथ लगा है, तुम चिंता नहीं करना, एंज्वॉय में कमी न करना, भरपूर एंज्वॉय के साथ वेलेंटाइन डे मनाना, चाहे जिसके साथ मनाओ पर बीच-बीच में हमें भी याद कर लेना। इस बार यदि वसूली का टारगेट पूरा हो जाएगा तो तुम्हारे लिए बरेली के बाजार से सोने का झुमका लेकर आयेंगे, तुम चिंता नहीं करना क्योंकि अभी हम मीटिंग में बैठे हैं और तरह तरह के टारगेट पर टारगेटेड हैं। थोड़ी देर में बाॅस गाली देने का टारगेट पूरा करेंगे, इस बार बाॅस की चमचागिरी का टारगेट नयी आयी सुंदर सी स्टेनो को दिया गया है, इस बार बाॅस अपने केबिन में नयी स्टेनो के साथ वेलेंटाइन डे मनाने वाले हैं, और हमें एनपीए महारानी के साथ वेलेंटाइन डे मनाने का टारगेट दिया गया है। अपनी इज्जत अपने हाथ बचाने का टारगेट हमने फिक्स कर लिया है इससे लठ्ठ पड़ने का डर खतम हो गया है। तुम अपना बहुत ख्याल रखना, इस बार लठ्ठ चलाने वाले बहुतायत से घूम रहे हैं, इन्हें बड़े बड़े टारगेट दिये गये हैं। ये टारगेट पूरा करने बहुरुपिए बनकर आयेंगे, इसलिए सेफ वेलेंटाइन डे मनाने के तरीकों का सहारा लेना। बहुत बहुत शुभकामनाएं तुम इस वेलेंटाइन डे को खूब ऐश करो और तुम्हें खूब सुख मिले।

शेष कुशल है।

 

तुम्हारा टारगेटेड प्रेमी

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #127 ☆ व्यंग्य – एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

 

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 127 ☆

☆ व्यंग्य – एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू 

शहर के जाने-माने विद्वान प्रोफेसर विद्याधर प्रसाद की फाइल नगर निगम के बड़े बाबू के पास अटकी थी। मामला मकान के नक्शे का था जो नगर निगम से पास होना था। प्रोफेसर साहब को रिटायरमेंट पर मोटी रकम मिली थी और उन्होंने ऊपर एक मंज़िल बनाने की योजना बनायी थी ताकि बढ़ते किरायों के दौर का फायदा उठाकर मुकम्मल आमदनी का ज़रिया बनाया जा सके।

प्रोफेसर साहब का एक चेला कुछ दिन से बड़े बाबू के चक्कर लगा रहा था और बड़े बाबू उसे टरका रहे थे। अमूमन गुरूजी के रिटायरमेंट के बाद चेले दाहिने बायें हो जाते हैं, लेकिन कुछ नासमझ चेले फिर भी गुरूजी के प्रति समर्पित रहते हैं। ऐसा ही एक चेला गुरूजी के लिए दौड़ लगा रहा था।

आख़िरकार एक दिन बड़े बाबू द्रवित हुए। फाइल को पलटते हुए चेले से बोले, ‘ये कौन  से गुरूजी हैं जिनके लिए चक्कर लगा रहे हो?’

चेला बोला, ‘हमारे गुरू हैं। यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए हैं। हिन्दी और उर्दू के माने हुए विद्वान हैं।’

बड़े बाबू बोले, ‘कभी हमसे मिलवाओ। हम भी समझें कितने बड़े विद्वान हैं।’

फाइल से बँधे प्रोफेसर साहब एक दिन चेले के साथ बड़े बाबू के सामने हाज़िर हो गये। बड़े बाबू बड़े प्रेम से मिले। बोले, ‘आपकी विद्वत्ता के बारे में बहुत सुना है। दरअसल हमको भी उर्दू का सौक है। कभी कभी सेर कह लेते हैं। आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी।’

बड़े बाबू के पीछे खड़ा एक छोटा बाबू बोला, ‘बड़े बाबू उर्दू के भारी सौकीन हैं। बात बात पर सेर पटकते हैं। एक मुसायरे में सेर पढ़े तो बरेली के एक सायर कहने लगे आप कहाँ दफ्तर में अपना टाइम खराब कर रहे हैं। मुसायरों में आइए,नाम और नावाँ दोनों मिलेगा। लेकिन बड़े बाबू कहते हैं कि हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे दफ्तर, किसे देखकर फाइल निपटाइएगा?’

बड़े बाबू कुछ शर्मा कर बोले, ‘अरे आप जैसे विद्वानों के सामने हम क्या हैं?हाँ,आप जैसे लोगों की सोहबत से कभी कभी दो चार सेर कह लेते हैं। दरअसल हमको बड़े सायरों के सेरों से लिखने का हौसला मिलता है। जैसे वो एक सेर है, ‘हसरते कतरा है दरिया में फना हो जाना’।’

प्रोफेसर साहब के भीतर का सोया हुआ मास्टर कसमसा कर जाग उठा। बोले, ‘वो लफ्ज़ ‘हसरते कतरा’ नहीं, ‘इशरते क़तरा’ है।’

बड़े बाबू अप्रतिभ हुए। बोले, ‘नहीं, वह हसरते कतरा है। हम पढ़े हैं।’

प्रोफेसर साहब सिर हिलाकर बोले, ‘नहीं, वह इशरते क़तरा है। इशरत का मतलब समृद्धि होता है, जैसे ऐशो-इशरत। हमें मालूम है।’

बड़े बाबू चुप हो गये। थोड़ी देर बाद बोले, ‘और भी अच्छे सेर हैं, जैसे वह ‘मौत का एक दिन मुकर्रर है, नींद क्यों रात भर नहीं आती।’

प्रोफेसर साहब बोले, ‘वह शब्द ‘मुकर्रर’ नहीं, ‘मुअय्यन’ है। ये दोनों शेर ग़ालिब के हैं।’

बड़े बाबू माथा सिकोड़कर बोले, ‘यह मुअय्यन क्या होता है?’

प्रोफेसर साहब ने जवाब दिया, ‘मुकर्रर जैसा ही है, लेकिन है मुअय्यन।’

बड़े बाबू का चेहरा बिगड़ गया। थोड़ी देर में सँभलकर बोले, ‘एक और सेर है जो हमें बहुत पसन्द है। वो ‘गिरते हैं सहसवार ही मैदाने जंग में, वो तिल्फ क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले।’

प्रोफेसर साहब मौके की नज़ाकत को नहीं समझ रहे थे। तपाक से बोले, ‘वो लफ्ज़ तिफ़्ल है, तिल्फ नहीं। तिफ़्ल का मतलब बच्चा होता है।’

सुनकर बड़े बाबू पूरी तरह बुझ गये। कनखियों से दाहिने बायें देखा कि कोई उनकी फजीहत को तो नहीं देख रहा है। सौभाग्य से सब बाबू अपनी अपनी फाइलों में मसरूफ थे।

बड़े बाबू ठंडे स्वर में बोले, ‘आपसे मिलकर खुसी हुई। बहुत ज्ञान भी मिला। दो तीन दिन में चेले को भेज दीजिएगा। मैं बता दूँगा।’

दो तीन दिन बाद चेला मिला तो बड़े बाबू उखड़े हुए थे। बोले, ‘टाइम लगेगा। फाइल में बहुत सी कमियाँ हैं। पन्द्रह बीस दिन बाद आना। मैं देखूँगा। गनेस जी की तरह रोज चक्कर मत लगाओ।’

चेला समझदार था। लौट कर गुरूजी से बोला, ‘सर, आपने बड़े बाबू की गलतियाँ निकालकर गड़बड़ कर दी। वे बिलकुल उखड़ गये हैं। उन्हें सँभालना पड़ेगा।’

दो दिन बाद चेला फिर बड़े बाबू के पास पहुँचा। मुलायम स्वर में बोला, ‘गुरूजी ने आपके लिए संदेसा भेजा है कि उनसे ही देखने में गलती हो गयी थी। दरअसल वो शेर वैसे ही हैं जैसे आपने बोले थे। गुरूजी की याददाश्त गड़बड़ हो गयी थी। आप खयाल मत कीजिएगा।’

बड़े बाबू गर्व से मुस्कराये, बोले, ‘हो जाता है। बढ़ती उम्र में याददास्त गड़बड़ाने लगती है। लेकिन हमें प्रोफेसर साहब की विद्वत्ता में सक नहीं है। उनसे हमारा सलाम कहना और बता देना कि सोमवार तक उनका काम हो जाएगा। आप आकर हाथोंहाथ आर्डर ले लेना।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #88 ☆ ब्रेक और ब्रेकर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “लेखा जोखा… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 88 ☆ ब्रेक और ब्रेकर… 

सीरियल देखते हुए बीच ब्रेक में कितने सारे कार्य हो जाते हैं। 20- 22 मिनट के अंतराल में 4 ब्रेक होने से सोचने – समझने का मौका मिलता है। दिमाग जो सीरियल में घुसा रहता है अचानक से फिर धरातल में लौटता है। सोचिए अगर ये ब्रेक न होता तो हम पूरी तरह से उसी समस्या में डूब कर मनोरोगी बन चुके होते। अब समझ में आया कि आधे घण्टे  की पढ़ाई के बाद ब्रेक क्यों लेना चाहिए। कोई भी कार्य हो समय- समय पर रिलेक्स करना ही चाहिए।

रोड में तरह- तरह के ब्रेकर इसीलिए बनाये जाते हैं ताकि भागती हुई गाड़ी कन्ट्रोल में रह सके। ऐसा ही कुछ इस बार के चुनावों में भी देखने को मिल रहा है किसी को पहली बार टिकट के रूप में ब्रेक मिल रहा है तो किसी का चुनावी करियर भी दाँव पर लगा हुआ है। उसे किसी भी सूची में टिकट नहीं दिया गया। वो बस बेसब्री से इंतजार किए जा रहा है कि शायद  बाद में कोई लाभ मिलेगा। इस सबमें प्रत्याशी किस दल का नुमाइंदा है ये भी तय नहीं रहता है। दरसल टिकट ही उनके जीवन मूल्य व राष्ट्रवाद को तय करता है। इन सबमें मतदाता कहाँ खो जाता है , उसकी सारी योजनाओं व उम्मीदों में लगा हुआ ब्रेक कब दूर होगा,  वर्चुअल रैली सुनने के लिए बैठी भीड़ बस इंतजार में रहती है कि मंत्री जी की वाणी में विराम लगे और वो वहाँ से उठकर अपने बैठने की कीमत व भोजन पा सके। दरसल लोगों को एकत्रित करके लाने का ये सिलसिला शुरू से ही चला आ रहा है।

सारे दौर के नामांकन के बाद भी जिनकी गाड़ी को गति नहीं मिलती है, वे राज्यसभा की ओर निगाह जमा लेते हैं आखिर उनकी सेवा का प्रतिफल तो मिलना ही चाहिए। लोग गठबंधन पर गठबंधन किए जा रहे हैं। मजे की बात इन चुनावों में विचारों के मूल्यों को प्रमुखता न देकर टिकट को वरीयता मिल रही है। इसी की कीमत पर मूल्यों का निर्धारण हो रहा है। मतदाता भी किसकी ओर से बोलें, किसके गुणगान करें ये उन्हें आखिरी समय पर ही पता चलेगा। कुछ भी कहें इस व्यवस्था ने मतदाताओं को जागरूक तो बना ही दिया है। अब उन्हें किस का बटन दबाना है, ये तो वक्त किस करवट बैठता है यही तय करेगा। वे तो चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण पर नजर जमाए हुए हैं। 

सकारात्मकता का यही लाभ होता है कि अवसरवादी भी अवसरों की तलाश में आखिरी दम तक एड़ी चोटी का जोर लगाने से नहीं चूकता है। कुछ भी कहें इस बार परिवार बाद, भाई – भतीजा बाद पर लगाम कसी है। उम्मीद है कि अगले चुनावों में जातिगत समीकरणों पर भी रोक लगेगी। हम सब बस मतदाता है ये चिंतन जिस दिन मतदाता करने लगेंगे उस दिन से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सही मायनों में जनजागरण शुरू होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 123 ☆ “लोक-लुभावन बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य ।“लोक-लुभावन बजट”।)  

☆ व्यंग्य # 123 ☆ “लोक-लुभावन बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

“लोक-लुभावन बजट”

जनता का बजट है, जनता के लिए बजट है,पर सरकार कह रही है कि ये फलांने साब का लोकलुभावन बजट है।खूब सारे चेहरों को बजट के बहाने साब की चमचागिरी करने का चैनल मौका दे रहे हैं। विपक्ष विरोध कर रहा है या विपक्ष अपना धर्म निभा रहा है ये तो पता नहीं, पर जनता को कुछ लोग बता रहे हैैं कि विपक्ष भी होता है,जो बजट के समय बोलता है।

छकौड़ी दो दिन से खाद लेने की लाइन में लगा रहा खाद नहीं मिल पायी तो भूखा प्यासा टीवी पर बजट देखने लगा। उसने देखा एक  चमचमाते माॅल में बजट बाजार  ।इस बजट में खाद मिलने की उम्मीद। उसने देखा बेरोजगार बेटे के लिए 60लाख रोजगार का सपना। उसने देखा माल के दुकानदार निकल निकल कर हंस रहे हैं, एक सजी धजी लिपिस्टिक लगी एंकर चिल्ला रही है,बजट में गांव की आत्मा दिख रही है, माॅल के कुछ लोग तालियां बजाने लगे।

छकौड़ी का भूखा पेट गुड़गुड़ाहट पैदा कर रहा है, गैस बन रही है, माॅल में जो दिख रहा उसे देखना मजबूरी है। एकदम से चैनल पलटी मार कर इधर लंच के दौरान बजट पर चर्चा पर आकर रुकता है, पार्टी के बड़े पेट वाले और कुछ बिगड़े बिकाऊ पत्रकार भी बैठे हैं, लाल परिधान में लाल लाल ओंठ वाली बजट के बारे में बता रही है, सबके सामने थालियां सज गयीं हैं, थाली में बारह तेरह कटोरियों में पानी वाली सब्जियां डालीं जा रहीं हैं, दो दुबले-पतले खाना परोसने वाले मास्क लगाकर खाना परोस रहे हैं, इतने सारे बड़े पेट वाले बिना मास्क लगाए, स्वादिष्ट व्यंजन सूंघ रहे हैं, बजट पर चर्चा चल रही है, कुछ लोग खाने के साथ बजट खाने पर उतारू हैं। कोरोना दूर खड़ा हंस रहा है। 

भूखा प्यासा छकौड़ी जीभ चाटते हुए सब देख रहा है। साब बार बार प्रगट होकर कहते हैं  बजट की आत्मा में गांव है और गांव के किसान के लिए ही बजट है। बजट तुम्हें बधाई। बजट तुम्हें सुनने में खूब मजा आया, अंग अंग रोम रोम रोमांचित हो गया, अंग अंग कान बन गए, सपनों के गांव में  उम्मीद के झूले झूलने का अलग सुख है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #126 ☆ व्यंग्य – गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 126 ☆

☆ व्यंग्य – गलती मेरी और भोगना भोगीलाल का

हुज़ूर! मेरा बचाव यही है कि इस मामले में मैं बेकसूर हूँ। यह इत्ता बड़ा प्लॉट जो आप देख रहे हैं, मेरे वालिद साहब ने खरीदा था।पच्चीस-  तीस साल पहले ज़मीन चवन्नी फुट के भाव मिलती थी और ज़मीनों के मालिक ग्राहकों से चिरौरी करते फिरते थे कि भाई ले लो,पैसे धीरे धीरे दे देना।मगर पिछले पन्द्रह-बीस साल में आबादी ने ऐसे पाँव पसारे और ज़मीन की कीमतों में ऐसे खेल हुए कि अब एक आदमी अपनी कब्र के लायक ज़मीन पा जाए तो ऐसे खुश होता है जैसे जंग जीत लिया हो।हर रोज़ कोई मुझे सूचना देता है, ‘भाईजान, आपकी कृपा से सरस्सुती नगर में मकान बनाया है।कभी चरन-धूल दीजिए न।’

सब अपना अपना ताजमहल बना कर मगन हैं, भले ही ताजमहल बनाने में उनकी मुमताज के गहने-जे़वर नींव में दफन हो गए हों। मैं ताजमहल बनने की सूचना पाकर खुश नहीं होता क्योंकि अभी करोड़ों लोगों का ताजमहल फुटपाथ पर और खूब हवादार बना है और उनकी मुमताज (वह अभी ज़िन्दा है) जब सोती है तो उसके आधे पाँव ताजमहल से बाहर सड़क पर होते हैं।

पिताजी ने पुराने ज़माने के हिसाब से सामने काफी खाली ज़मीन छोड़कर मकान बनवाया। अब सामने ज़मीन छोड़ने का चलन रहा नहीं, इसलिए सामने छूटी लम्बी चौड़ी ज़मीन के मुकाबले हमारा मकान बेतुका और पिद्दी लगता है। दाहिने बाएँ वाले उस ज़़मीन में धीरे से पाँव पसार लेने की फिराक में रहते हैं। इसलिए हमने एक लम्बी चौड़ी चारदीवारी ज़रूर बनवा दी है।

मैं इतने बड़े प्लॉट को खाली रखकर हमेशा बहुत शर्मिन्दा रहता हूँ क्योंकि मेरे शुभचिन्तक हमेशा पहली नज़र उस ज़मीन पर और दूसरी मेरे चेहरे पर डालते हैं कि मेरा दिमाग ठीक-ठाक है या नहीं। जो पूछ सकते हैं वे पूछते रहते हैं, ‘कहो भई, क्या सोचा इस ज़मीन के बारे में?’ दरअसल आसपास के घने मकानों के बीच यह ज़मीन ऐसे ही पड़ी है जैसे ठेठ शहरियों की महफिल के बीच में कोई देहाती अपनी पगड़ी सिरहाने रख कर पसर जाए।

एक दिन मैं उस ज़मीन के फालतू पौधे उखाड़ रहा था कि देखा कमीज़ पायजामा धारी एक अधेड़, ठिगने सज्जन मेरे पास खड़े हैं। मैं उन्हें शक्ल से जानता था क्योंकि वे बेहद बदरंग स्कूटर पर कई बार सड़क से आते जाते थे। परिचय का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था।

वे नमस्कार के भाव से हाथ उठाकर बोले, ‘जी, मैं भोगीलाल। जमीन मकान का धंधा करता हूँ। यह सारी जमीन आपकी है?’

मैंने कहा, ‘हां जी, अपनी है। आपकी दुआ है।’

वह बोले, ‘वह तो ठीक है साब, लेकिन यह इतनी लम्बी चौड़ी जमीन खाली क्यों पड़ी है?’

मैंने जवाब दिया, ‘बात यह है भोगीलाल जी, कि यह ज़मीन मेरे मरहूम पिताजी ने खरीदी थी। उन्होंने यह मकान बनवाया। अब हमारे पास इतना पैसा नहीं कि सामने मकान बना सकें और हमारी माता जी ज़मीन को बेचना नहीं चाहतीं।’

भोगीलाल जी कुछ आहत स्वर में बोले, ‘क्यों नहीं बेचना चाहतीं जी?’

मैंने कहा, ‘यों ही। बस इस ज़मीन से उनका जज़्बाती लगाव है। कहती हैं कि जब तक वे ज़िन्दा हैं, जमीन नहीं बिकना चाहिए।’

भोगीलाल जी मेरी बात सुनकर दुखी भाव से हाथ मलने लगे।बोले, ‘यह तो अंधेर है भाई साब। सोने के मोल वाली जमीन मिट्टी बनी पड़ी है और आप जज्बात की बात कर रहे हो। यह जज्बात क्या होता है साब? सुना तो कई बार है।’

मैंने कहा, ‘उसे आप नहीं समझेंगे। आप तो इतना ही समझिए कि हमें अभी यह ज़मीन नहीं बेचनी है।’

वे बड़े परेशान से चले गये।

दो तीन दिन बाद ही वे फिर आ धमके। मुझे घर से बाहर बुलाकर एक तरफ ले गये, फिर बोले, ‘तो क्या सोचा जी आपने?’

मैंने पूछा, ‘किस बारे में?’

वह आश्चर्य से बोले, ‘क्यों! वही जमीन के बारे में।’

मैंने कुछ झुँझलाकर कहा, ‘मैंने आपसे कहा था न कि माता जी अभी ज़मीन नहीं बेचना चाहतीं।’

सुनकर भोगीलाल जी ऐसे दुखी हुए कि मुझे उनकी हालत पर दया आ गयी। मेरा हाथ पकड़ कर बोले, ‘नादानी की बातें मत करो बाउजी। इतनी कीमती जमीन यों फालतू पड़ी देखकर मेरा तो दिल डूब डूब जाता है। आप अपनी माता जी को समझाओ न बाउजी। यह ‘प्राइम लैंड’ है, ‘प्राइम लैंड’।’

मैंने कहा, ‘मालूम है भोगीलाल जी, लेकिन मेरी माता जी इस बारे में कुछ नहीं सुनना चाहतीं और मैं उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता।’

भोगीलाल जी कुछ क्षण मातमी मुद्रा में शान्त खड़े रहे, फिर बोले, ‘देखो साब, मेरी बात का बुरा मत मानना। आप तो बालिग हैं, खुद फैसला कर सकते हैं। आज के जमाने में इस तरह सरवन कुमार बन जाना ठीक नहीं। माफ करना बाउजी, माता जी तो स्वर्गलोक चली जाएँगीं, जमीन यहीं रहेगी और आप यहीं रहोगे। जिनको चले जाना है उनकी बात का इतना ख्याल करना ठीक नहीं। थोड़ा प्रैक्टिकल बनो, बाउजी। मैं यहाँ फ्लैट बनवा दूँगा। एक दो फ्लैट आप ले लेना। मिनटों में लाखों के वारे न्यारे हो जाएँगे।’

मैंने चिढ़कर कहा, ‘मैंने कहा न, भोगीलाल जी, मुझे ज़मीन नहीं बेचना है। आप बार-बार इस बात को मत उठाइए।’

उन्होंने एक लम्बी आह भरकर धीरे से कहा, ‘जैसी आपकी मरजी।’ फिर उस खाली ज़मीन को ऐसी हसरत से देखा जैसे युद्ध में घायल कोई सैनिक अपने आखिरी क्षणों में अपनी बिछुड़ती हुई मातृभूमि को देखता है। इसके बाद वे भारी कदमों से विदा हुए।

इस मुलाकात के बाद मैंने कई बार उन्हें अपनी ज़मीन के सामने खड़े देखा। वे वहाँ खड़े खड़े ज़मीन के पूरे क्षेत्र की तरफ उँगली घुमाते रहते या उसकी लम्बाई और चौड़ाई की तरफ धीरे धीरे उँगली चलाकर फिर उँगलियों पर कुछ गुणा-भाग करने लगते। एक बार उन्हें कैलकुलेटर के बटन दबाकर उसमें झाँकते हुए भी देखा। लेकिन हर बार मुझे देखते ही वे स्कूटर स्टार्ट करके वहां से रवाना हो जाते।

एक दिन भोगीलाल जी की युवा कॉपी जैसा एक युवक मेरे घर आया। मुझसे पूछा, ‘जी,एम एल त्रिपाठी साहब यहीं रहते हैं?’

मैंने कहा, ‘जी, मेरा ही नाम एम एल त्रिपाठी है। कहिए।’

युवक बोला, ‘जी, मैं भोगीलाल जी का बेटा हूँ।उन्हें हार्ट अटैक आया है। अस्पताल में भर्ती हैं। आपको मिलने के लिए बुलाया है। कहा है कि तकलीफ करके थोड़ी देर के लिए जरूर मिल लें।’

मैंने अफसोस ज़ाहिर किया और मिलने का वादा किया, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि उन्होंने मुझे क्यों याद किया।अस्पताल पहुँचा तो वे बिस्तर पर लेटे हुए मिले। कमज़ोर और पीले दिख रहे थे। मैंने सहानुभूति जतायी।

वे धीमी आवाज में बोले, ‘दरअसल आप की जमीन ने मुझे मार डाला बाउजी। इसीलिए मैंने आपको तकलीफ दी। बात यह है कि मैंने बहुत दिनों से इतनी कीमती जमीन इतने दिन तक फालतू पड़ी हुई नहीं देखी। आपकी जमीन के पास से निकलते वक्त मेरा ब्लड- प्रेशर बढ़ जाता था। अकेले में बैठता था तो आप की जमीन मेरी खोपड़ी पर सवार हो जाती थी बाउजी। उस दिन आप की जमीन के बाजू से निकलते वक्त ही मुझे हार्ट की तकलीफ शुरू हुई।’

मैंने अपराधी भाव से कहा, ‘मुझे बहुत अफसोस है भोगीलाल जी। मैं क्या करूँ? मैं खुद मजबूर हूं, नहीं तो आपकी सेहत की खातिर ज़रूर उस ज़मीन का फैसला कर देता।’
भोगीलाल जी बोले, ‘हां जी, आपका भी क्या कसूर। फिर भी कोशिश करो जी। मुझे क्या लेना देना है, फायदा तो आपको ही होना है। मुझे तो बीच में दो चार पैसे मिल जाएँगे।’

मैंने उन्हें शान्त करने के लिए कहा, ‘मैं फिर कोशिश करूंगा, भोगीलाल जी। आप इत्मीनान से स्वास्थ्य लाभ कीजिए।’

वे कुछ संतोष के भाव से बोले, ‘बहुत शुक्रिया जी! आपने बहुत समझदारी की बात की। माता जी से बात करो बाउजी, नहीं तो मुझे आपकी सड़क से निकलना बन्द करना पड़ेगा। आप की जमीन को देखकर मेरे दिल को धक्का लगता है साब।’

मैं उन्हें आश्वस्त कर के चला आया। दुर्भाग्य से माता जी का फैसला नहीं बदला और भोगीलाल जी फिर मेरी सड़क से नहीं गुज़रे। एक बार मैंने उन्हें अपने मकान से कुछ दूर एक आदमी से बातें करते देखा, लेकिन वे मेरे मकान की तरफ पीठ करके खड़े थे। जल्दी ही वे गाड़ी स्टार्ट करके चलते बने, लेकिन उन्होंने मेरे मकान की तरफ नज़र नहीं डाली।

साल भर बाद ही मैंने सुना कि भोगीलाल जी को दूसरा अटैक हुआ और वे अपने लिए पहले से रिज़र्व ऊपर के फ्लैट में रहने के लिए इस दुनिया के ज़मीन-मकान छोड़कर चले गए। लगता है मेरे जैसे किसी दूसरे नासमझ की खाली ज़मीन उनके लिए जानलेवा साबित हुई।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #87 ☆ लेखा जोखा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “लेखा जोखा… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 87 ☆ लेखा जोखा… 

मोबाइल पर ही जीवन सिमटता जा रहा। एक बार जो रील देखना शुरू कर दो तो कैसे एक से दो धण्टे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता। इतने मजे से उसकी सेटिंग रहती है कि जिसको जो पसंद हो वही वीडियो लगातार मिलते जाते हैं। बीच- बीच में ज्ञानवर्द्धक बातें, किचन टिप्स, ज्योतिषी, वास्तु शास्त्र, खाने की रेसिपी, नेटवर्क मार्केटिंग से सम्बंधित ज्ञानार्जन भी होता जाता है। मन भी बड़ा चंचल ठहरा, बदल-बदल कर देखने की आदत ने इस लत को जुनून तक पहुँचा दिया है।

जब ऐसा लगता कि बहुत समय व्यर्थ कर दिया तो झट से एफ एम पर गाना लगाकर काम काज में जुट जाना और स्वयं को सुव्यवस्थित करते हुए आधे घण्टे में सारे कार्य निपटाकर पुनः तकनीकी से जुड़ जाना। अब तो पड़ोसियों की कोई जरूरत रही नहीं है, उनका सारा व्योरा स्टेटस से मिल जाता। खुद को अपडेट रखने हेतु ऐसा करना पड़ता। देश विदेश की सारी जानकारी इन्हीं रीलों के द्वारा छोटे- छोटे रूपों मिलती है। अब देश के बजट को भी समझने हेतु ऐसी ही रीलों का इंतजार है। दरसल कम में ज्यादा समझने की आदत दिनों दिन अखबार से दूर करती जा रही है। मोबाइल पर पेपर, पत्रिका सभी कुछ है। अलादीन का चिराग जैसा कार्य तो ये करता ही है। सेवा में गूगल महाराज चौबीसों घण्टे हाजिर रहते हैं।

यूट्यूब पर सचित्र बोलते हुए लोगों को देखना, सुनना, समझना कितना आसान हो चुका है। पहले टी वी पर न्यूज सुनने हेतु समय निर्धारित रहता था, अब तो जब चाहो पूरी न्यूज देख सकते हैं।सभी हाइलाइट्स जोर शोर से आकर्षण का केंद्र बनाकर बार- बार सामने आते हैं। चौराहे पर खड़े होकर बहस बाजी करने की लत दूर होकर अब सभी अपनी निगाहें मोबाइल पर टिकाए रहते हैं और पास खड़े व्यक्ति को स्क्रीन दिखाते हुए कॉपी लिंक भेज देते हैं ताकि वो भी वही देख सके जो वे देखते हैं। एक घर में चार लोग रहते हैं और चारों के फेसबुक पर अलग- अलग वीडियो व पोस्ट दिखाई देती हैं। जिसको जो पसंद होता है वो  तकनीकी एक्सपर्ट समझ जाते हैं  और उसी से मिलती हुई पोस्ट भेजना शुरू कर देते हैं।

कल्पना से परे ये तकनीकी युग दिनों दिन तरक्की कर रहा है।हर चीजें चुटकी में हासिल करने की ये आदत न जाने किस ओर ले जा रही है। बदलते वक्त के साथ सब सीखना होगा। अब तो यही लेखा- जोखा बचा था सो वो भी पूरा करना होगा।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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