डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘घर आया मेहमान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 128 ☆

☆ व्यंग्य – घर आया मेहमान

मुरली बाबू उस वक्त आनन्द और सुकून की स्थिति में थे। सुबह का खुशनुमा शान्त माहौल, लॉन की हरयाली, हाथ में चाय का प्याला और बतयाने के लिए बगल में पत्नी। कलियुग में इससे ज़्यादा और क्या चाहिए? तभी गेट के सामने ऑटो रुका। मुरली बाबू के कान खड़े हुए। इतने सबेरे कौन मेहमान अवतरित हुए? गर्दन उठाकर देखा तो ऑटो से उतरता आदमी अपरिचित लगा। आधे मिनट बाद वे सज्जन मुरली बाबू और उनकी पत्नी के चरणों से लग गये। पूरे दाँत चमका कर बोले, ‘पहचाना नहीं, सर? मैं चिन्टू, आपके साले नन्दू भाई का दोस्त। दीदी तो मुझे अच्छी तरह से जानती हैं। पिछली बार आप ससुराल आए थे तो मैंने आपके चरण छुए थे।’

मुरली बाबू को कुछ कुछ याद आया। चिन्टू बाबू कुर्सी ग्रहण करके बोले, ‘यहाँ यूनिवर्सिटी में कॉपी जाँचने आया हूँ। छः-सात दिन का काम है। यहाँ कहीं भी रुक जाता, दो चार दोस्त हैं, लेकिन सोचा मौका मिला है तो सर और दीदी के साथ चार छः दिन बिता लूँ।ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा? नन्दू भाई ने भी कहा था कि जब जीजाजी हैं तो कहीं और क्यों ठहरना? कहीं और ठहरोगे तो उनको बुरा लगेगा।’

चिन्टू बाबू प्रेम से जम गये। नाश्ते के बाद स्नान हुआ। मुरली बाबू अपनी चप्पल ढूँढ़ने लगे तो पता चला वह चिन्टू बाबू के चरणों में है। थोड़ी देर में चिन्टू बाथरूम में टँगे, मुरली बाबू के तौलिए से बदन पोंछते प्रकट हुए। हँस कर बोले, ‘मैं हमेशा तौलिया चप्पल रखना भूल जाता हूँ। बाजार तरफ जाऊँगा तो तौलिया खरीद लूँगा। चप्पल तो थोड़ी देर को चाहिए।’

दीदी से बोले, ‘दीदी, टिफिन दे दीजिएगा। लौटते लौटते शाम हो जाएगी। पता नहीं वहाँ खाने पीने की कोई ठीक जगह है या नहीं। परदेस में वैसे भी थोड़ा सावधान रहना चाहिए।’

वे कॉपी जाँचने के अपने हथियार लेकर विदा हुए। शाम को लौटे तो थके थके कुर्सी में धँस गये। बोले, ‘थकाने वाला काम है।’

मुरली बाबू का बारह साल का बेटा टीनू उनके आगमन का कारण जानकार उत्सुक था। बोला, ‘अंकल, आप कॉपी चेक करने आये हैं?’

चिन्टू बाबू ने उत्साह से जवाब दिया, ‘हाँ बेटा।’

टीनू ने पूछा, ‘एक दिन में कितनी कॉपियाँ चेक कर लेते हैं?’

चिन्टू बाबू बोले, ‘अरे यहां बड़े कानून- कायदे हैं। दिन भर में सत्तर कॉपियों से ज्यादा नहीं देते। हम तो दिन भर में आराम से डेढ़ सौ कॉपियाँ खींच देते हैं।’

टीनू आँखें फैलाकर बोला, ‘डेढ़ सौ चेक कर सकते हैं? इतनी सारी कैसे पढ़ लेते हैं?’

चिन्टू बाबू गर्व से बोले, ‘पढ़ना क्या है? थोड़ा थोड़ा देख लेते हैं। हंडी के एक चावल से पूरी हंडी की हालत का पता चल जाता है। एक नजर में समझ में आ जाता है कि लड़का कितने पानी में है।’

टीनू बोला, ‘स्टूडेंट आलू-चावल होते हैं क्या?’

चिन्टू बाबू झेंप कर बोले, ‘मेरा वो मतलब नहीं। उदाहरण दे रहा था। घर छोड़कर यहाँ आये हैं। ज्यादा कॉपियाँ दें तो जल्दी खतम करके आगे बढ़ें। दूसरी यूनिवर्सिटी भी जाना है।’

फिर मुरली बाबू की तरफ मुँह घुमा कर बोले, ‘सर, यह हम लोगों का सीजन है। तीन चार यूनिवर्सिटी भी हो लिये तो बीस पचीस हजार खड़े हो जाएँगे। सब्जी-भाजी का इंतजाम हो जाएगा।’

दो-तीन दिन बाद एक शाम लौटे तो बड़े दुखी थे। बोले, ‘आज मैंने कॉपियों का एक बंडल ज्यादा ले लिया तो मुझे उल्टी सीधी बातें सुनायीं। कहने लगे आपने ज्यादा क्यों ले लिया। अब बताइए हमारा क्या कसूर है? आपने दे दिया तो हमने ले लिया। आप नहीं देते तो हम कहाँ से ले लेते? इस यूनिवर्सिटी का काम धाम ठीक नहीं है। यहां टीचर की इज्जत नहीं है।’

फिर एक दिन लौटे तो उनके बीस इक्कीस साल के सुपुत्र साथ थे। हँसते हँसते बोले, ‘मैं पंद्रह बीस दिन से घर से निकला हुआ हूँ। इस बीच घर में खबर नहीं दे पाया तो वाइफ ने घबराकर इसे ढूँढ़ने के लिए भेज दिया। वहीं यूनिवर्सिटी में भेंट हुई। बात यह है सर, कि मोबाइल मैं रखता नहीं क्योंकि कहीं भी छूट जाता है और टेलीफोन बूथ ढूँढ़ने में आलस लगता है।’

सुपुत्र एक रात पिताजी के साथ काट कर दूसरे दिन निश्चिन्त विदा हुए।

जिस दिन काम खत्म हुआ उस दिन चिन्टू बाबू कुछ उदास थे। मुरली बाबू से बोले, ‘ज्यादा नहीं, सात हजार का ही बिल बना, सर। चलो, जो भी मिल जाए। अभी दो यूनिवर्सिटी और बाकी हैं।’

फिर हँसकर बोले, ‘आपसे बतायें, बड़ा गड़बड़ हुआ,सर। मेरा चश्मा घर पर ही छूट गया था इसलिए कॉपियाँ जाँचने में काफी दिक्कत हुई। बेटा भी लेकर नहीं आया। खैर कॉपियाँ तो किसी तरह जँच गयीं, लेकिन बिल बनाने के लिए एक टीचर का चश्मा माँगना पड़ा। बिल गलत बन जाता तो बड़ा नुकसान हो जाता।’

चलते वक्त दीदी के पाँव छू कर बोले, ‘दीदी, अब अगले साल आऊँगा, तब फिर आपके हाथ का प्रसाद पाऊँगा।’

दीदी घबरा कर बोलीं, ‘अगले साल हमारा साउथ घूमने जाने का प्लान है। शायद हम लोग उस वक्त घर पर नहीं रहेंगे।’

चिन्टू निश्चिन्त भाव से बोले, ‘आप पड़ोस में चाबी दे दीजिएगा। घर में तो सब चीज मैंने देख ही ली है। गैस रहेगी ही। मैं खटर-पटर करके चार रोटी सेंक लूँगा। आपसे फोन पर बात करके सब ‘सेट’ कर लूँगा।’

फिर बोले, ‘ऐसा करूँगा, वाइफ को साथ लेता आऊँगा। वे किचन सँभाल लेंगीं। उनका भी घूमना हो जाएगा।’

इस तरह अगले साल फिर आने का वादा करके चिन्टू बाबू खुशी खुशी इस घर से किसी दूसरे घर के लिए विदा हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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