डॉ कुंदन सिंह परिहार

 

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 127 ☆

☆ व्यंग्य – एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू 

शहर के जाने-माने विद्वान प्रोफेसर विद्याधर प्रसाद की फाइल नगर निगम के बड़े बाबू के पास अटकी थी। मामला मकान के नक्शे का था जो नगर निगम से पास होना था। प्रोफेसर साहब को रिटायरमेंट पर मोटी रकम मिली थी और उन्होंने ऊपर एक मंज़िल बनाने की योजना बनायी थी ताकि बढ़ते किरायों के दौर का फायदा उठाकर मुकम्मल आमदनी का ज़रिया बनाया जा सके।

प्रोफेसर साहब का एक चेला कुछ दिन से बड़े बाबू के चक्कर लगा रहा था और बड़े बाबू उसे टरका रहे थे। अमूमन गुरूजी के रिटायरमेंट के बाद चेले दाहिने बायें हो जाते हैं, लेकिन कुछ नासमझ चेले फिर भी गुरूजी के प्रति समर्पित रहते हैं। ऐसा ही एक चेला गुरूजी के लिए दौड़ लगा रहा था।

आख़िरकार एक दिन बड़े बाबू द्रवित हुए। फाइल को पलटते हुए चेले से बोले, ‘ये कौन  से गुरूजी हैं जिनके लिए चक्कर लगा रहे हो?’

चेला बोला, ‘हमारे गुरू हैं। यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए हैं। हिन्दी और उर्दू के माने हुए विद्वान हैं।’

बड़े बाबू बोले, ‘कभी हमसे मिलवाओ। हम भी समझें कितने बड़े विद्वान हैं।’

फाइल से बँधे प्रोफेसर साहब एक दिन चेले के साथ बड़े बाबू के सामने हाज़िर हो गये। बड़े बाबू बड़े प्रेम से मिले। बोले, ‘आपकी विद्वत्ता के बारे में बहुत सुना है। दरअसल हमको भी उर्दू का सौक है। कभी कभी सेर कह लेते हैं। आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी।’

बड़े बाबू के पीछे खड़ा एक छोटा बाबू बोला, ‘बड़े बाबू उर्दू के भारी सौकीन हैं। बात बात पर सेर पटकते हैं। एक मुसायरे में सेर पढ़े तो बरेली के एक सायर कहने लगे आप कहाँ दफ्तर में अपना टाइम खराब कर रहे हैं। मुसायरों में आइए,नाम और नावाँ दोनों मिलेगा। लेकिन बड़े बाबू कहते हैं कि हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे दफ्तर, किसे देखकर फाइल निपटाइएगा?’

बड़े बाबू कुछ शर्मा कर बोले, ‘अरे आप जैसे विद्वानों के सामने हम क्या हैं?हाँ,आप जैसे लोगों की सोहबत से कभी कभी दो चार सेर कह लेते हैं। दरअसल हमको बड़े सायरों के सेरों से लिखने का हौसला मिलता है। जैसे वो एक सेर है, ‘हसरते कतरा है दरिया में फना हो जाना’।’

प्रोफेसर साहब के भीतर का सोया हुआ मास्टर कसमसा कर जाग उठा। बोले, ‘वो लफ्ज़ ‘हसरते कतरा’ नहीं, ‘इशरते क़तरा’ है।’

बड़े बाबू अप्रतिभ हुए। बोले, ‘नहीं, वह हसरते कतरा है। हम पढ़े हैं।’

प्रोफेसर साहब सिर हिलाकर बोले, ‘नहीं, वह इशरते क़तरा है। इशरत का मतलब समृद्धि होता है, जैसे ऐशो-इशरत। हमें मालूम है।’

बड़े बाबू चुप हो गये। थोड़ी देर बाद बोले, ‘और भी अच्छे सेर हैं, जैसे वह ‘मौत का एक दिन मुकर्रर है, नींद क्यों रात भर नहीं आती।’

प्रोफेसर साहब बोले, ‘वह शब्द ‘मुकर्रर’ नहीं, ‘मुअय्यन’ है। ये दोनों शेर ग़ालिब के हैं।’

बड़े बाबू माथा सिकोड़कर बोले, ‘यह मुअय्यन क्या होता है?’

प्रोफेसर साहब ने जवाब दिया, ‘मुकर्रर जैसा ही है, लेकिन है मुअय्यन।’

बड़े बाबू का चेहरा बिगड़ गया। थोड़ी देर में सँभलकर बोले, ‘एक और सेर है जो हमें बहुत पसन्द है। वो ‘गिरते हैं सहसवार ही मैदाने जंग में, वो तिल्फ क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले।’

प्रोफेसर साहब मौके की नज़ाकत को नहीं समझ रहे थे। तपाक से बोले, ‘वो लफ्ज़ तिफ़्ल है, तिल्फ नहीं। तिफ़्ल का मतलब बच्चा होता है।’

सुनकर बड़े बाबू पूरी तरह बुझ गये। कनखियों से दाहिने बायें देखा कि कोई उनकी फजीहत को तो नहीं देख रहा है। सौभाग्य से सब बाबू अपनी अपनी फाइलों में मसरूफ थे।

बड़े बाबू ठंडे स्वर में बोले, ‘आपसे मिलकर खुसी हुई। बहुत ज्ञान भी मिला। दो तीन दिन में चेले को भेज दीजिएगा। मैं बता दूँगा।’

दो तीन दिन बाद चेला मिला तो बड़े बाबू उखड़े हुए थे। बोले, ‘टाइम लगेगा। फाइल में बहुत सी कमियाँ हैं। पन्द्रह बीस दिन बाद आना। मैं देखूँगा। गनेस जी की तरह रोज चक्कर मत लगाओ।’

चेला समझदार था। लौट कर गुरूजी से बोला, ‘सर, आपने बड़े बाबू की गलतियाँ निकालकर गड़बड़ कर दी। वे बिलकुल उखड़ गये हैं। उन्हें सँभालना पड़ेगा।’

दो दिन बाद चेला फिर बड़े बाबू के पास पहुँचा। मुलायम स्वर में बोला, ‘गुरूजी ने आपके लिए संदेसा भेजा है कि उनसे ही देखने में गलती हो गयी थी। दरअसल वो शेर वैसे ही हैं जैसे आपने बोले थे। गुरूजी की याददाश्त गड़बड़ हो गयी थी। आप खयाल मत कीजिएगा।’

बड़े बाबू गर्व से मुस्कराये, बोले, ‘हो जाता है। बढ़ती उम्र में याददास्त गड़बड़ाने लगती है। लेकिन हमें प्रोफेसर साहब की विद्वत्ता में सक नहीं है। उनसे हमारा सलाम कहना और बता देना कि सोमवार तक उनका काम हो जाएगा। आप आकर हाथोंहाथ आर्डर ले लेना।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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