हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समझ समझकर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – समझ समझकर ??

प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’ इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’ बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।

कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।

कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर संतुलन(!) साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।

समझ समझकर समझ को समझो।…क्या समझे!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 84 ⇒ दान, दहेज, और दक्षिणा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दान, दहेज, और दक्षिणा”।)  

? अभी अभी # 84 ⇒ दान, दहेज, और दक्षिणा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

इंसान को दान पुण्य करते रहना चाहिए। अगर दानवीर कर्ण हो, तो सभी दान के पात्र होते हैं, लेकिन अगर आपको कहीं कोई पात्र नजर नहीं आए, तो आसपास दान पात्र पर नजर दौड़ाएं, क्योंकि दान से ही पुण्य की प्राप्ति होती है।

दान तो किसी को भी दिया जा सकता है, लेकिन दक्षिणा सिर्फ गुरु को ही दी जाती है। गुरु से ज्ञान की दीक्षा दान में ली जाती है और प्रतिदान स्वरूप दक्षिणा दी जाती है। पंडित पुजारी की बात अलग है, वहां दान और दक्षिणा दोनों यजमान ही देता है और बदले में यश, कीर्ति, मनोवांछित फल और ढेरों आशीर्वाद प्राप्त करता है।।

दान दक्षिणा तो ठीक है, लेकिन दान दहेज की बात हमारे मुंह से अच्छी नहीं लगती। लेकिन कौन समझाए उस बाबुल को, जो आज भी दुआ के साथ अपनी कन्या का दान करता है। हमारे भाई मुकेश तो कह भी गए हैं ;

कोई पुण्य करे कोई दान करे

कोई दान का रोज बखान करे।

जिन कन्या धन का दान दियो

उन और को दान दियो न दियो। ।

सती प्रथा, बाल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ तो अब कानून भी है, नारी स्वयं आजकल अपने अधिकारों के प्रति सजग है, दुल्हन ही दहेज है, बेटियां बचाई जा रही हैं और लाड़ली योजना के अंतर्गत उन पर दिल की दौलत लुटाई जा रही है।

ऐसे में दान दहेज की बात शोभा नहीं देती।

आज से ५० वर्ष पूर्व एक बाबुल ने हमें भी भरे मन से अपनी कन्या का दान किया था। दान के साथ दहेज में क्या आया, आज कुछ याद नहीं लेकिन हां एक हाथ से चलाने वाली उषा सिलाई मशीन जरूर हमें नजर आई थी। वैसे भी खाली हाथ कौन अपनी कन्या को विदा करता है।

हमने भी अपनी बहन बेटियां ब्याही हैं। ।

हम अपने माता पिता के एक आज्ञाकारी पुत्र हैं, हमारे माता पिता भी आधुनिक विचारों के ही थे, लेकिन व्यवहार कुशल थे और सबकी मान मर्यादा का पूरा खयाल रखते थे।

अपनी सभी बहुओं को उन्होंने बेटियों की तरह ही रखा। शादियों में अपनी बेटियों को भले ही अपनी हैसियत अनुसार कुछ दिया हो, लेकिन घर आई बेटियों को ही लक्ष्मी माना।

हम तब भी अजीब थे, आज भी अजीब हैं। खुद को समझदार समझते हैं, लेकिन कभी सामने वाले को समझने की कोशिश नहीं करते। उस उषा सिलाई मशीन से जुड़ी किसी की भावना की हमने कभी कद्र नहीं की, हमें वह मशीन हमेशा पराई ही लगी। थाली में परोसी मिठाई तो हमें पसंद आई लेकिन करेला कड़वा लगा। ।

कुछ वर्ष पूर्व एकाएक हमें पुराना घर खाली करना पड़ा। हमें और हमारे सामान को भी लदकर, दूसरे मकान में जाना पड़ा। हमारी नज़रों में खटकने वाली उषा सिलाई मशीन से हमेशा के लिए छुटकारा पाने का हमें मौका मिल गया। हमने आव देखा न ताव, जो मजदूर सामने नज़र आया, उसे ही कह दिया, भैया यह मशीन तुम ले जाओ। उसे कुछ क्षण विश्वास नहीं हुआ, लेकिन उसने भी मौका हाथ से नहीं जाने दिया, बाबू जी पैसे ? हमने जोश में जवाब दिया, कुछ नहीं, ऐसे ही ले जाओ।

जोश में होश नहीं खोना चाहिए, लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत। हमने न तो अपनी धर्मपत्नी से राय ली, न उन्हें कुछ बताया, बस चले दानवीर बनने! बाद में पता चला, वह मशीन हमारी पत्नी के ही, स्कॉलरशिप की बचत के पैसे से खरीदी हुई मशीन थी, जो उनके पिताजी ने आशीर्वाद स्वरूप अपनी बेटी के साथ भिजवाई थी। ।

अब हमारे पास सिवाय पछताने और प्रायश्चित करने के, कोई विकल्प नहीं। पत्नी की अब सिलाई बुनाई की उम्र नहीं रही।

उन्हें उनकी मशीन जाने का कोई रंज, अफसोस प्रकट रूप से नहीं। दोष हमारा ही है, दान दहेज के भ्रम में हम किसी की अमानत में खयानत कर बैठे। आज हमारी कारगुजारी पर अफसोस करने वाले ना तो वे बाबुल हैं, जिन्होंने अपनी बेटी का कन्यादान किया था, और ना ही हमारे माता पिता।

बस हम हैं, हमारा झूठा अहंकार है और दुनिया भर की बेवकूफी है।

आज हम अपनी मर्जी के मालिक हैं, कोई हमारा कान पकड़ने वाला नहीं, डांटने वाला नहीं, दो बातें सुनाने वाला नहीं। लगता है, अब यही सब काम भी हमें ही करना पड़ेगा। आज अगर उषा सिलाई मशीन होती तो शायद हमारा घाव भर जाता। उसने कई बार हमारे कपड़ों को रफू किया होगा, हमारे लिए रूमाल तैयार किए होंगे। शायद कोई पुराना रूमाल मिल जाए, हमारे पश्चाताप के आंसू केवल उसे ही नजर आएंगे, उसके बनाए रूमाल ही शायद वे आंसू पोंछ पाएंगे। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 72 – पानीपत… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 72 – पानीपत… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जिस राजसिंहासन पर हमारे नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक विराजमान हो रहे थे, उसकी महिमा राजा विक्रमादित्य के बत्तीस पुतलियों वाले सिंहासन से कम नहीं थी, अंतर सिर्फ यह था कि पुतलियों ने अपनी काया की सर्जरी करवा ली थी और पुतलों में बदल गये थे. इनका काम पदस्थ राजा के दमखम का आकलन करना और उसकी रपट दैनिक आधार पर अपने बहुत बहुत बड़े बॉस को करना था. साथ ही ये नवपदस्थ राजा से बड़ी उद्दंडता पूर्वक सवाल करने की भी हिमाकत करते रहते थे. कोई न कोई पुतला, कभी न कभी, कोई न कोई सवाल दाग ही देता था. जैसे पहले दिन ही :

“रुक जाओ राजन! क्या तुम वाकई खुद को इस सिंहासन में बैठने की योग्यता रखते हो”. अक्सर चतुर राजन यही जवाब देते कि “अगर बैंक ने समझ लिया है और मान भी लिया है तो फिर किसको दिक्कत है. भोले भाले राजन ये भूल जाते थे कि बैंक के इतर भी बहुत विभूतियां होती हैं जो इस तरह के फॉस्ट ट्रेक कैडरलैस धावकों पर सवाल उठाती रहती हैं. आसमां को छूता उनका अहंकार ये बर्दाश्त नहीं कर पाता कि जब इनको ही राजा बनाना था तो हमारे लोगों को क्यों बुलाया. फिर शक्तिशाली कुर्सी से शंका का समाधान किया जाता कि बैंक रूपी समंदर में कुछ “बरमूडा ट्रायंगल्स” भी होते हैं जहाँ हम अपने टाइटेनिक नहीं डुबाना चाहते.

Scapegoats are always required and allowed to play in high profile brain games or you can say  blame games, without hockey sticks, shoes and body protecting pads.

खैर, कहानी आगे बढ़ती है नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक जी के सिंहासन ग्रहण प्रक्रिया के बाद परिचय और आकलन की. नवागत तो परिचय और नाम याद करने की कसरत में उलझ जाता है पर परिचय के उस छोर पर विराजित जन अपने अपने हिसाब से, मानदंडों और मापदंडों से नापतौल करने में लग जाते हैं. ये सब “मुन्नाभाई एमबीबीएस के बोमन ईरानी बन जाते हैं जिनका दृढ़तापूर्वक यह मानना होता है कि “सर जी, ये शाखा तो गरम गुलाबजामुन है, न निगल पाओगे न उगल पाओगे, जब तक हमसे सेटिंग नहीं होगी.

वैसे तो ये स्थान रेल से वेल कनेक्टेड था पर अनिभिज्ञ प्रबंधक बाद में समझ पाते थे कि रेल कभी कभी उनके कैरियर या नौकरी की सलामती के ऊपर से भी गुजर सकती है. वर्कलोड और रिस्क फैक्टर में प्रतिस्पर्धा थी कि कौन ज्यादा घातक है. पर इन सबके बावजूद इस शाखा की कुछ खासियत भी थी कि यहाँ कुछ बहुत अच्छे और समर्पित कारसेवक भी थे जो राहत और सुकून के मामले में ईश्वर के उपहार थे. ऐसे लोग आमतौर पर दुर्लभ ही होते हैं जो हर आपदा में हर चुनौती में आपके साथ खड़े होते हैं. आपकी मन:स्थिति, उदासी, बेचैनी, निराशा, गुस्सा, फ्रस्ट्रेशन, नाउम्मीदी को दूर करने की कोशिश करते रहते हैं. जब आप दस बजे से चार बजे तक लगातार डिमांडिंग और आक्रामक कस्टमर्स से उलझते हुये, सर को दोनों हाथों के बीच टिकाकर परेशान और थकित बैठे रहते हैं तो ये एक हवा के ठंडे झोंके की तरह आते हैं और अपनी राहतभरी आवाज से कहते हैं “चलिए सर, काम तो चलता रहेगा, अभी तो बाहर ठंडी हवाओं के बीच अदरक वाली कड़क चाय पीने का मौसम है”और आपको लगभग खींचकर अपने साथ ले जाते हैं. इन लम्हों को और इस अन ऑफीशियल अंतरंगता को कभी भूला नहीं जाता बल्कि अपनी सुनहरी यादों के लॉकर में संभाल कर रख लिया जाता है.

यद्यपि शाखा की “विश्वस्तरीय कस्टमर सर्विस को अंगूठा दिखाती सेवा”, तो विख्यात थी ही, फिर भी आने वाले “दिल है कि मानता नहीं” की भावना के साथ बड़ी उम्मीद लेकर आते थे और काम न होने पर भी खुद को ईशकृपा पाने के अयोग्य समझ कर वापस चले जाते थे. यही आत्मसंतोष उन्हें उस रात की नींद और फिर दूसरे दिन आने का हौसला और उम्मीद प्रदान करता था. जिनका काम उस दिन हो जाता, वे इसे अपने पूर्व जन्म के सुकर्मों का प्रतिफल मानकर खुश होते. इस स्थिति के लिए शाखा का प्राचीन दोमंजिला भवन, उसकी लोकेशन, शहर की बारहमासी गर्मी, भवन के मालिक का व्यवसायिक स्थल के मुताबिक किराया नहीं मिलने से उपजा असंतोष, संकरी सड़क भी जिम्मेदार थे. शहर व्यवसाय की असीम संभावनाओं से ओवरफ्लो हो रहा था और प्रतिस्पर्धा के नाम पर चुनौती देने वाले बैंक दूर दूर तक कहीं नहीं थे. इस कारण बैंक की स्थिति 1952 की कांग्रेस या 2023 की भाजपा सी अजेय थी. (राजनैतिक तुलनात्मक संदर्भ के लिए क्षमा). शाखा में एक दो केजरीवाल जैसे ज्ञानी भी थे (फिर से क्षमा) जो बैंक से और उसके उच्चाधिकारियों से लीगल टक्कर लेने की योग्यता रखते थे और ये नहीं सोचा करते थे कि यही प्रतिभा अगर बैंक के काम आती तो स्थिति कितनी अलग और बेहतर होती. बैंक में उन्हें क्या करना चाहिए इससे परे, प्रबंधन की क्या ड्यूटी है और कस्टमर की क्या, इसका उन्हें जबरदस्त ज्ञान था. बैंक में निर्देशानुसार कौन सी संकेतक पट्टी नहीं लगी है इसका ज्ञान वे समय समय पर प्रबंधन को देते रहते थे जबकि कस्टमर्स इस पट्टिका के मायाजाल से परे सिर्फ और सिर्फ अपनी बैंकिंग की जरूरतों का समाधान चाहते थे. चूंकि यह शहर  एक बहुत बड़े और उच्च राजनैतिक प्रभुत्व पाये महापुरुष की विशाल इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट से भी संपन्न था तो ये इनके आधुनिक, तकनीकी रूप से उच्च प्रशिक्षित और डिमांडिंग कर्मचारियों को भी बैंकिंग की आधुनिकतम सेवाएं मिलने की उम्मीद से, शाखा के मुख्य द्वार तक ले आता था. व्यवसाय के रास्ते हर तरफ से हर तरह के कस्टमर्स को, बैंक की ओर भेजते थे, सिर्फ कृषि और शासकीय व्यवसाय और शासकीय कर्मचारियों को छोड़कर. पर फिर भी असंतोष ही ऐसी खुशबू थी जो शाखा के परिसर में हमेशा बहती रहती थी, कस्टमर्स, स्टाफ, अधिकारी, भवन स्वामी सभी सब कुछ ए-वन संतुष्टि चाहते थे और इस सब को डिलीवर करने का दायित्व बस दो लोगों का ही माना जाता था. शाखा के बड़े नायक अपर फ्लोर पर और छोटे वाले भूतल पर पाये जाते थे. 

पानीपत युद्ध जारी रहेगा.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 219 ☆ आलेख – जी २० – वन अर्थ, वन फैमली, वन फ्यूचर… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखजी २० – वन अर्थ, वन फैमली, वन फ्यूचर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 219 ☆  

? आलेख – जी २० – वन अर्थ, वन फैमली, वन फ्यूचर?

आज विश्व को ग्लोबल विलेज कहा जाता है, क्योंकि सभी देश एक दूसरे पर किसी न किसी तरह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर हैं. दुनियां में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त १९३ देश हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ सबसे बड़ा संगठन है. वैश्विक राजनीती में राष्ट्रों के बीच परस्पर प्रभाव बढ़ाने के लिये आज केवल युद्ध ही साधन नहीं होते. विभिन्न देश अपना व्यापार और प्रभुत्व बढ़ाने के लिये, तथा क्षेत्रीय स्तर पर स्वयं को मजबूत करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय संधियां करते हैं. कूटनीति, विदेश नीति, शह और मात के परदे के पीछे के खेल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निरंतर चलते रहते हैं. विभिन्न देश अलग अलग उद्देश्यों से परस्पर गठबंधन करते हैं. इस तरह राष्ट्रों के अंतर्राष्ट्रीय समूह बनते हैं. ये सामूहिक प्लेटफार्म सदस्य देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देते हैं. दुनियां में संयुक्त राष्ट्र संघ के सिवाय कामन वेल्थ उन ५४ देशो का संगठन है जहां ब्रिटिश साम्राज्य रह चुका है, नाटो, यूरोपीय संघ, एमनेस्टी इंटरनेशनल, ओपेक, इंटरपोल, विश्व बैंक, गुट निरपेक्ष आंदोलन, आसियान , जी८, जी १५, ब्रिक्स, सार्क, आदि आदि ढ़ेरों इसी तरह के संगठन हैं. बदलते परिप्रेक्ष्य में अनेक संगठनो में नये सदस्य जुड़ते रहते हैं. वैश्विक राजनीति के चलते अनेक संगठन समय के साथ गौण भी हो जाते हैं. वर्तमान में लगभग सौ अंतर्राष्ट्रीय संगठन विभिन्न मुद्दों को लेकर कई देशों के बीच सक्रिय हैं. जी20 विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्था वाले देशो का सबसे सक्रिय संगठन है. इन देशों के वित्त मंत्रियों और भागीदार राष्ट्रों के सेंट्रल बैंक के गवर्नर्स का यह समूह जी20 के रूप में जाना जाता है. जी २० में 19 देश क्रमशः अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, यूरोपीय संघ, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैँ. इस तरह अमेरिका और रूस दोनो महाशक्तियां, चीन, फ्रांस, इंगलैंड सहित यह अत्यंत प्रभावी संगठन है. स्पेन जी २० का स्थाई अतिथि देश है. जी20 के मेहमानों में आसियान देशों के अध्यक्ष, दो अफ्रीकी देश और एक या अधिक पड़ोसी राष्ट्र को आयोजक देश द्वारा आमंत्रित किया जाता है.

१९९९ में एशियाई वित्तीय संकट और मंदी के बाद वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों के लिए वैश्विक आर्थिक और वित्तीय मुद्दों पर चर्चा करने के लिए एक मंच के रूप में जी २० की स्थापना गई थी. वसुधैव कुटुम्बकम्, की मूल भावना से वन अर्थ, वन फेमली, वन फ्यूचर के ध्येय को उद्देश्य बनाकर यह संगठन प्रभावी कार्य कर रहा है. वर्तमान परमाणु युग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, स्पेस टेक्नालाजी, के परिवेश में सारी दुनिया एक परिवार ही है तथा सबका भविष्य परस्पर व्यवहार पर निर्भर है. वर्ष १९९९ से वर्ष २००७ तक यह समूह वित्त मंत्रियों के मंच के रूप में ही रहा पर २००७ के वैश्विक आर्थिक संकट के कारण जी २० को राष्ट्राध्यक्षों के परस्पर चर्चा के मंच के रूप में प्रोन्नत किया गया.

२००९ में लंदन शिखर सम्मेलन ऐसे समय में हुआ जब विश्व द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे विकट आर्थिक संकट का सामना कर रहा था. लंदन शिखर सम्मेलन का उद्देश्य विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के नेताओं को एक साथ लाना था ताकि वैश्विक अर्थव्यवस्था को स्थिर करने तथा आर्थिक बहाली सुनिश्चित करने और नौकरियों को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक सामूहिक कार्रवाई की जा सके. नेताओं को अनेक अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ा. गंभीर मंदी को रोकना और अल्पावधि में विकास को बहाल करना, साथ ही वित्तीय प्रणाली को पुनर्स्थापित करना, विश्व व्यापार प्रणाली को संरक्षित करना तथा स्थायी आर्थिक बहाली के लिए बुनियाद रखना. शिखर सम्मेलन में वास्तविक कार्रवाई पर सहमति हुई जिसके तहत नेताओं ने विश्वास, विकास और नौकरियों को बहाल करने, वित्तीय पर्यवेक्षण को सुदृढ़ करने,इस संकट को दूर करने और भावी संकटों को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का वित्तपोषण करने और उनमें सुधार करने, पर निर्णायक कदम उठाये. तब से लगातार हर बार समावेशित वैश्विक विकास में जी २० शिखर सम्मेलन महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है.

चूंकि यह समूह प्रमुख अर्थव्यवस्था वाले देशो का संगठन है इसलिये इसकी चर्चाओ में वित्त मंत्रियों, विदेश मंत्रियों, राष्ट्र प्रमुखों की बड़ी भूमिका होती है एवं उनके शिखर सम्मेलन आयोजित किये जाते हैं. शिखर सम्मेलन प्रतिवर्ष समूह के देशो की क्रमिक अध्यक्षता में आयोजित किया जाता है. इस तरह से बारी बारी सभी देश अध्यक्षता और मेजबानी करते हैं. शुरुआत में जी २० व्यापक आर्थिक मुद्दों तक केंद्रित था, परंतु बाद में इसके एजेंडे में विस्तार करते हुए इसमें अन्य बातों के साथ व्यापार, जलवायु परिवर्तन, सतत विकास, स्वास्थ्य, कृषि, ऊर्जा, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और भ्रष्टाचार एवं आतंक के विरोध को भी शामिल किया गया है. वर्तमान जी २० सदस्य देशों की आबादी विश्व की लगभग दो-तिहाई आबादी है. इसलिये जी २० को दुनियां बहुत महत्व देती है. वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 85%, और वैश्विक व्यापार में 75% से अधिक जी २० देशों की हिस्सेदारी है. जी २० समूह का कोई स्थायी सचिवालय नहीं है. इसका संचालन त्रयी सिद्धांत पर आधारित है – पिछला, वर्तमान और आने वाला अध्यक्ष देश समूह का संचालन करता है. वर्ष २०२३ भारत की अध्यक्षता का साल है. पिछला निवर्तमान अध्यक्ष इंडोनेशिया था और आगामी अध्यक्ष ब्राजील होंगा अतः ये तीन राष्ट्र वर्तमान में बड़ी भूमिका में हैं. १७ वें जी-२० शिखर सम्मेलन का आयोजन 9-10 सितंबर 2023 को दिल्ली में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में संपन्न होगा.

अगुवाई के अवसर तो सभी राष्ट्रो को मिलते हैं किन्तु कौन कितनी जबाबदेही से अध्यक्षता के कर्तव्य को निभाता है, तथा उससे वैश्विक कल्याण के क्या रास्ते खोजता है यह उस देश के नेतृत्व पर निर्भर होता है. हम जी २० की अध्यक्षता का निर्वाह भारत के व्यापक हित में और समूह के हित में बड़ी कुशलता से कर रहे हैं. काश्मीर सहित सारे भारत के अनेक नगरों में जी २० के अलग अलग समूहों की बैठके आयोजित की जा रही हैं. इससे भारत की बहुआयामी संस्कृति से विश्व परिचित हो रहा है. पुणे में जी २० समूह के शिक्षा मंत्रियों की बैठक, गोवा , काश्मीर, महाबालिपुरम,वाराणसी, नई दिल्ली, बेंगलोर, लखनऊ, जोधपुर, गुवहाटी, कच्छ, कोलकाता, चंडीगढ़, तिरुअनंतपुरम, मुम्बई, उदयपुर, ॠषिकेश आदि स्थानो में विभिन्न समूहों की बैठकें हुई हैं. मध्यप्रदेश में भी खजुराहो में संस्कृति ग्रुप तथा इंदौर में जी २० के कृषि विषयक समूह की बैठक संपन्न हुई है. जी २० में गम्भीर चिंतन, सहयोग, सामूहिक वैश्विक हित के निर्णय दुनिया की बेहतरी के लिये दूरगामी परिणाम अवश्य लायेंगे. विश्व राजनीति में यह समय बहुत महत्वपूर्ण है. भारत को विटो पावर की मांग, विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत को तीसरे स्थान पर लाना, हमारे लक्ष्य हैं. यूक्रेन युद्ध, कोरोना के बाद से अनेक देशो की ठप्प होती इकानामी, बढ़ती आबादी, पर्यावरण जैसे अनेक मुद्दों पर दुनियां भारत को तथा जी २० को बड़ी आशा से देख रही है. ऐसे समय में जी २० भारतीय नेतृत्व में दुनियां के लिये विकास के नये मार्ग तैयार रहा है तथा जी २० की वैश्विक प्रासंगिकता बढ़ रही है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 83 ⇒ जोरू का भाई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जोरू का भाई।)  

? अभी अभी # 83 ⇒ जोरू का भाई? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या यह शीर्षक आपको आपत्तिजनक लगता है, लेकिन सन् १९५५ में चेतन आनंद ने बलराज साहनी और विजय आनंद को लेकर इसी नाम से एक हास्य फिल्म बनाई, जिसमें जॉनी वॉकर भी थे, और संगीतकार जयदेव का कर्णप्रिय संगीत भी था। याद कीजिए, देवानंद की अगली फिल्म हम दोनों, (१९६१), जिसमें साहिर के गीत और जयदेव का ही मधुर संगीत था। लेकिन जयदेव और देवानंद का यह साथ जिंदगी भर नहीं निभ पाया।

बात फिल्म के शीर्षक की हो रही थी। क्या आपको जोरू शब्द असंसदीय नहीं लगता। क्या इसकी जगह और कोई शालीन शब्द नहीं है हिंदी में। जी हां है, जोरू के भाई को आप साला भी कह सकते हैं।

लेकिन यह क्या, साला, साला शब्द मुंह से निकला नहीं कि, फिर यही कहावत अनायास मुंह से टपक पड़ती है। सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ। ।

वैसे तो साला शब्द भी कोई शालीन शब्द नहीं, लेकिन जहां एक ओर यह एक बड़ा नाजुक रिश्ता है, वहीं दूसरी ओर यह हमारा तकिया कलाम भी है। रात भर साली नींद ही नहीं आई, इधर लाईट नहीं, और उधर मच्छर ही मच्छर।

रिश्तों में थोड़ा अदब भी जरूरी होता है, आप तो साले साहब कहकर जोरू के भाई को सम्मान दे सकते हैं, लेकिन अगर साले साहब ने प्रति प्रश्न दागकर पूछ लिया, आप तो बस इतना बता दीजिए श्रीमान, जोरू का गुलाम कौन है, मैं या आप ? तो आपके पास क्या जवाब है। ।

जोरू के गुलाम से याद आया, शायद इसी नाम से भी एक फिल्म भी बनी थी, ज्यादा पुरानी नहीं, यह अंदाजन १९७२ की फिल्म है, जिसमें राजेश खन्ना और ओमप्रकाश का अभिनय है। सन् २००० में गोविंदा और ट्विंकल खन्ना की इसी नाम से एक और फिल्म आई थी, जिसमें कादर खान भी थे, और आशीष विद्यार्थी भी।

हम भी अजीब हैं। हमें रिश्तों में ही नहीं, जीवन में भी मनोरंजन भी चाहिए और गंभीरता भी। हमें फालतू मजाक भी पसंद नहीं, और फालतू रिश्ते भी हमें अच्छे नहीं लगते। लेकिन जब कोई हमारी दुखती रग दबाता है, तो हम तिलमिला जाते हैं। ।

यही तो जीवन है, थोड़ी मिठास और थोड़ी कड़वाहट ! जब हम अपनों में शामिल हो जाते हैं तो पूरी तरह अनौपचारिक हो जाते हैं, रिश्तों में घुल मिल जाते हैं और जब औपचारिक हो जाते हैं, तो बस पूछिए ही मत। वही अकड़ और तुनकमिजाजी। दीदी, आजकल जीजाजी तो खाने को दौड़ते हैं, कैसे कर लेती हो ऐसे खड़ूस इंसान को बर्दाश्त ! कल की साली भी आजकल जबान चलाने लग गई है ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 40 – देश-परदेश – व्हाट्स ऐप को कोविड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 40 ☆ देश-परदेश – व्हाट्स ऐप को कोविड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

25 अक्टूबर मंगलवार की दोपहरी जब व्हाट्स ऐप ने अपनी प्रणाली को लगाम लगा दी थी। पूरा विश्व सन्नाटे में आ गया था।

आरंभ में जैसे ही व्हाट्स ऐप बंद हुआ तो एक क्षण लगा हृदय की धड़कन भी बंद हो गई थी। घर के सभी विद्युत उपकरण कार्य कर रहे थे, फिर भी लाइन चेक कर ली, प्यूज भी देखा सब ठीक था।

पड़ोसी के यहां की कॉल बेल बजाई, ऐसा करने का मौका लंबे अंतराल के बाद मिला, क्योंकि हमेशा व्हाट्स ऐप से कॉल कर के ही उनका दरवाज़ा खुलता है। उनके हाथ में ग्लूकोस वाला पानी का गिलास था, कहने लगे कुछ तबीयत ठीक नहीं है बेचैनी से परेशान हैं। उनको लेकर नजदीक के एक परिचित डॉक्टर के हॉस्पिटल जाना पड़ा। वहां काफी भीड़ हो गई थी। मन में विचार आया कोई बड़ी दुर्घटना हो गई होगी। आगंतुक कक्ष में पता चला व्हाट्स ऐप बंद होने से लोगों को मितली और घबराहट हो रही हैं। लाइन में लगने के बाद काउंटर पर पता चला कि व्हाट्स ऐप से संबंधित बीमारी बीमा में कवर नहीं होती हैं। जैसा आरंभ में कॉविड भी कवर नहीं था।

पड़ोसी का इलाज़ करवा कर वापिस अपने घर आए तो पता चला श्रीमतीजी का जब व्हाट्स ऐप नही चला तो बाज़ार जाकर एक नया मोबाइल खरीद लिया की कही उनको छः माह पुराना मोबाइल खराब तो नही हो गया। बाद में वो बोली व्हाट्स ऐप को भी कोविड हो गया था, लेकिन हमको तो फट्का लगा गया।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 82 ⇒ जान बचाकर भागना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जान बचाकर भागना”।)  

? अभी अभी # 82 ⇒ जान बचाकर भागना? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जान है तो जहान है! जान किसे प्यारी नहीं होती। जब भी किसी की जान पर बन आती है तो समझदारी इसी में है, कि वह जान की बाजी लगाने के बजाय वहां से जान बचाकर भाग ले। व्यर्थ में जान से खेलने में कोई समझदारी नहीं।

सबसे पहले तो सयानों की यही सीख होती है कि इंसान को अपनी जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए। वैसे कौन इंसान जान बूझकर खतरे को खत के साथ पीले चावल भेजकर आमंत्रित करता है। लेकिन कभी कभी बिन बुलाए मेहमान की तरह खतरा खुद ही दस्तक दे देता है। मेहमान को भांपने की भी एक कला होती है। जो अनाड़ी होते हैं वे खतरे और मुसीबत में भेद ही नहीं कर पाते। उधर बाहर दरवाजे की घंटी बजी, और इधर तपाक से द्वार खुले। ।

एक समझदार इंसान को साधारण घंटी और खतरे की घंटी में भेद करते आना चाहिए। दरवाजे पर किसी भी दस्तक के पश्चात् कम से कम दस तक गिनती गिनना चाहिए। बस, ट्रेन और हवाई जहाज की तरह आपातकालीन परिस्थिति में घर में एक पिछला दरवाजा भी होना चाहिए।

आजकल तो घरों में भी सीसीटीवी कैमरे लगे रहते हैं, आगंतुक की फिल्म तो पहले से ही उतर जाती है।

हर इंसान की जिंदगी में खतरनाक मोड़ आते हैं।

कहीं भीड़ में तो कहीं सुनसान अकेले में अकस्मात् खतरे से सामना हो ही जाता है। जिन्हें खतरों से खेलने का शौक होता है, वे सर पर पांव रखकर, वहां से भागने के बजाय आ बैल मुझे मार की तरह आव्हान कर, अनावश्यक मुसीबत मोल ले लेते हैं। जो ज़ाबांज होते हैं वे संकट की परवाह किए बिना परिस्थिति से लोहा लेते हैं, और अपनी जान पर खेलकर कई निर्दोष लोगों की जान बचा लेते हैं। उन्हें बहादुर कहा जाता है। ।

जान पर खेलना और जान की बाजी लगाना हर इंसान को प्रेरित और रोमांचित अवश्य करता है, लेकिन उसे इतना भी खयाल रखना चाहिए कि, ये जिंदगी ना मिलेगी दोबारा। कभी कभी जंगल का राजा शेर भी सूझबूझ से काम लेता है, और खतरे को भांप, वहां से नौ दो ग्यारह हो जाता है। कमजोर पर तो सब जोर आजमाते हैं, लेकिन अगर शत्रु शक्तिशाली है तो कूटनीति से काम लिया जाता है। यह कोई इश्क का मैदान नहीं कि जान ही हथेली पर लेकर चले आए।

कहने को यह नन्हीं सी जान है, लेकिन सबको इसकी परवाह है। जब भी

कभी जान पर बन आए, तो सबसे पहले जान बचाकर वहां से भाग लें। यह मत सोचें, भागकर कहां जाएंगे, बस इतना ही सोचें, चलो अपनी जान तो छूटी। जान में जान आने का अनुभव भी केवल वही जानते हैं, जो कहीं से जान बचाकर भागकर आते हैं। ।

हमने आपने कितनी बार भागकर अपनी जान बचाई होगी, अथवा जान बचाकर भागे होंगे। कितनी बार हम व्यर्थ जान गंवाने से बचे। जरा सोचिए, आज हम एक नहीं, कितनी जिंदगियां जी रहे हैं। बूंद बूंद से घड़ा भरता है, हमने बड़े जी जान से अपनी जिंदगी बचाई है, तब ही तो हम आज शान से यह जानदार और शानदार जिंदगी जी रहे हैं। वैसे इसमें उस ऊपर वाले का शुक्रिया तो बनता ही है, क्योंकि जाको राखे साईंया, मार सके ना कोय।

जब तक जिंदा हैं, जिंदगी जीते रहें, कोशिश आगे भी यही रहे, जान को जोखिम में ना डालें, किसी बीमारी अथवा बिन बुलाई मुसीबत को न्यौता ना दें, नन्हीं सी प्यारी सी जान है आपकी, इसका हमेशा खयाल रखें। आखिर आप भी हमारी जान ही तो हैं।

मान जाइए, मान जाइए, बात मेरे दिल की जान जाइए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 196 – बिन पानी सब सून ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 196 बिन पानी सब सून ?

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा  जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियाँ नहीं बसाईं। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है। यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।  

जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती  शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहाँ जीवन की संभावना नहीं है।  सुभाषितकारों ने भी जल को  पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-

पृथिव्याम्‌ त्रीनि रत्नानि जलमन्नम्‌ सुभाषितम्‌।

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है। वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का स्रोत बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

दुर्भाग्य से मनुष्य की लघुता ने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं। बाल्टी से पानी खींचने के बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। सब जानते हैं कि प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते।  प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें।

रहीम ने लिखा है-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून,

पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।

विभिन्न संदर्भों  में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की  कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! यथार्थ के संदर्भ में अपनी कविता की दो पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं-

आदमी की आँख का जब मर जाता है पानी।

ख़तरे का निशान पार कर जाता है पानी।

आवश्यक है कि हम समय रहते चेत जाएँ ताकि आदमी की आँखें सजल रहें, प्रकृति में सदा पर्याप्त जल रहे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 81 ⇒ ऑंसू और मुस्कान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ऑंसू और मुस्कान”।)  

? अभी अभी # 81 ⇒ ऑंसू और मुस्कान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

सुना है चेहरे को दिल की जुबान कहते हैं। सुना तो हमने यह भी है, ये ऑंसू मेरे दिल की जुबान है। चेहरा एक ही है, जिस पर कभी ऑंसू तो कभी मुस्कान है। जीवन में रात और दिन की तरह, अंधेरे और उजाले की तरह, कभी ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं, तो कभी चेहरे पर मुस्कान छा जाती है। शायर लोग ऑंसुओं की हजारों किस्म बताते हैं, ऐसा लगता है, मानो वे ऑंसुओं के सौदागर हो, लेकिन जब भी मुस्कान का जिक्र होता है, तो बस, एक इंच मुस्कुराकर रह जाते हैं।

ऑंसू पर हर दुखी इंसान का कॉपीराइट है। इतना ही नहीं, खुशी में भी अगर ऑंसू आ जाए, तो भी वे ऑंसू ही कहलाते हैं। सुख दुख से परे भी कुछ लोग होते हैं, जो बस प्याज के ऑंसू बहाते हैं। ।

ऑंसू अगर परिस्थिति की देन है, तो मुस्कान कुदरत की देन है। लो एक कली मुस्काई ! एक कली की मुस्कान और एक बालक की मुस्कान, कुदरत की और ईश्वर की मिली जुली मुस्कान है। अहैतुकी कृपा की तरह ही एक कली की मुस्कान और एक बच्चे की मुस्कान का कोई हेतु नहीं होता, क्योंकि इस मुस्कान के पीछे ना तो कोई प्रयत्न होता है, और न ही कोई हेतु।

मुस्कान में ईश्वर का वास है। तस्वीर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की हो या योगेश्वर कृष्ण की, उनके चेहरे पर शांत और सौम्य मुस्कुराहट देखी जा सकती है। मुस्कुराहट एक स्थायी भाव है, जब कि हंसना और रोना जीव की परिस्थिति पर निर्भर है। ईश्वर प्रकट रूप से कभी हंसता रोता नहीं। करुणासागर होते हुए भी वे सदा मुस्कुराने के लिए ही नियुक्त हुए हैं।।

(He is destined to smile only.)

ईश्वर भी रोता होगा, ऑंसू भी बहाता होगा, कभी कभी अपनी ही बनाई दुनिया को देख हंसता भी होगा, लेकिन यह कार्य शायद वह प्रकृति पर छोड़ देता है। ईश्वर हमसे नाराज है और प्रसन्न है। कभी छप्पर फाड़कर देता है, कभी खड़ी फसल उजाड़ देता है। लेकिन जब वरदान देता है तो उसके चेहरे पर सदा मुस्कुराहट रहती है। जो रहबर है, दयालु है, करुणासागर है, वह कभी शाप नहीं द सकता, सिर्फ अपने भक्त की परीक्षा ले सकता है।

एक शब्द है आशीर्वाद !

वह आशीर्वाद समारोह वाला आशीर्वाद नहीं। वह आशीर्वाद जिसमें व्यक्ति का कल्याण निहित हो, जो केवल बड़े बुजुर्ग और सतगुरु की मुस्कुराहट के साथ ही प्राप्त होता है। बड़ा राज होता है इस मुस्कुराहट में, क्योंकि यह साधारण नहीं दिव्य(डिवाइन) होती है। ।

झूठ मूठ के आंसू और कुटिल मुस्कुराहट होगा कलयुग का चलन और मुखौटा, हमें उससे कुछ लेना देना नहीं। असली ऑंसू कभी थमते नहीं, दुख, विरह, विछोह और पश्चाताप के ऑंसुओं को कभी रोकना नहीं चाहिए, बह देना चाहिए। कलेजे का बोझ हट जाता है, चित्त निर्मल हो जाता है।

और ऐसी ही स्थिति में जो चेहरे पर मुस्कान आती है, वह दिव्य मुस्कान होती है। कुछ चेहरे ईश्वर ने बनाए ही ऐसे हैं, जो एक फूल की तरह सदा मुस्कुराते ही रहते हैं।

काश, दुनिया के हर बच्चे बूढ़े, जवान, स्त्री पुरुष, के चेहरे पर सदा मुस्कान हो, किसी की आंख में गम, अभाव और अवसाद के आंसू ना हो। तब शायद कोई बदनसीब इस तरह शिकायत भी ना करे ;

आज सोचा,

तो ऑंसू भर आए।

मुद्दतें हो गई मुस्कुराए ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख – “हरियाणा की माटी से – गीता प्रेस, गोरखपुर का सम्मान”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ “हरियाणा की माटी से – गीता प्रेस , गोरखपुर का सम्मान” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

सन् 1923 में जय दयाल गोयनका और घनश्याम दास जालान ने मिलकर जो पौधा गीता प्रेस, गोरखपुर के रूप में रोपा था वह पूरी एक शताब्दी से फलता फूलता जा रहा है। इसके योगदान को देखते हुए गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है। हालांकि पुरस्कार की घोषणा के बाद रविवार को देर रात गीता प्रेस ट्रस्टी बोर्ड की बैठक हुई जिसमें यह आश्चर्यजनक फैसला लिया गया कि सम्मान तो स्वीकार करेंगे लेकिन एक करोड़ रुपये की राशि जो सम्मान में दी जायेगी उसे नहीं लेंगे ! यह भी एक बहुत बड़ी बात है। यह पुरस्कार मिलना निश्चित ही सम्मान की बात है लेकिन दान लेना हमारी परंपरा नहीं है। इसलिये हम इसमें मिलने वाली एक करोड़ रुपये की राशि स्वीकार नहीं करेंगे ! गीता प्रेस के प्रबंधक लालमणि त्रिपाठी ने बताया कि सन् 2022 -2023 में पंद्रह भाषाओं में प्रकाशित किताबों से दो करोड़,चालीस लाख रुपये की पुस्तकें पाठकों को उपलब्ध करवाई गयीं ! कम कीमत की पुस्तकों के बावजूद पुस्तकों का मीट्रिक मूल्य 111 करोड़ रुपये बनते हैं। गीता प्रेस , गोरखपुर सनातन धर्म के सिद्धांतों का दुनिया का सबसे बड़ा  प्रकाशक है।

हमारे देश भारत में संभवतः ऐसा कोई भारतीय नहीं होगा जिसने कभी न कभी गीता प्रेस , गोरखपुर के प्रकाशन से आई पुस्तक न पढ़ी होगी ! मुझे अपनी याद है जब प्राइमरी कक्षाओं में था सहपाठी शरत अपने बैग में छुपा कर गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तकें लाता था और इसके रंगीन प्रकाशन हम बच्चों को रंगीन टीवी की तरह बहुत लुभाते थे। पूतना का दूध पीते ही कैसे नन्हे कृष्ण उसे मार देते हैं यह दृश्य एकदम याद आ रहा है। गाय के पास खड़े उसके आगे पीत वस्त्रों में खड़े बालक कृषि भी याद हैं आज तक। कदम्ब के पेड़ों में छिपकर कैसे कैसे खेल रचते थे यह भी याद आता है। हम बच्चे कभी कभार इतने उतावले हो जाते कि छीना झपटी तक पहुंच जाते , फिर शरत चेतावनी देता कि यदि ऐसे करोगे तो किताबें नहीं लाऊंगा और हम सुधर जाते !

बड़ी बात कि किसी प्रकाशन के एक सौ साल पूरे हो जाना। आज डिजीटल या कहें कि ई बुक्स के जमाने में भी प्रकाशित पुस्तकें करोड़ों रुपये में पाठकों के हाथों में पहुंचती हैं , यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। भारतीय ज्ञानपीठ ही शायद इसके बाद ऐसा प्रकाशन हो जिसकी भूमिका साहित्य में उल्लेखनीय मानी जा सकती है लेकिन इसे आगे किसी प्रकाशन को बेच दिया गया जो हिंदी का दुर्भाग्य कहा जा सकता है। यहां से मिशन खत्म और सिर्फ व्यवसाय शुरू होता है। भारतीय ज्ञानपीठ युवाओं को भी न केवल पुरस्कार देता था बल्कि उनकी पुस्तक भी प्रकाशित करता था ! अब तो किसी के पुरस्कार की बात नहीं सुनी ! यह बात बिल्कुल फिर याद आती है  प्रसिद्ध कथाकार राकेश वत्स की कि छपे हुए शब्द की शक्ति से मेरा विश्वास डगमगाया नहीं ! मेरी भी किताबें पहुंचाने की मुहिम से अब हिसार ही नहीं अन्य दूर दराजदे  विदेश के मित्र भी परिचित हो चुके हैं और पूर्ण सहयोग मिलता है। तभी तो दुष्यंत कुमार कहते हैं : 

कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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