श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जोरू का भाई।)  

? अभी अभी # 83 ⇒ जोरू का भाई? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या यह शीर्षक आपको आपत्तिजनक लगता है, लेकिन सन् १९५५ में चेतन आनंद ने बलराज साहनी और विजय आनंद को लेकर इसी नाम से एक हास्य फिल्म बनाई, जिसमें जॉनी वॉकर भी थे, और संगीतकार जयदेव का कर्णप्रिय संगीत भी था। याद कीजिए, देवानंद की अगली फिल्म हम दोनों, (१९६१), जिसमें साहिर के गीत और जयदेव का ही मधुर संगीत था। लेकिन जयदेव और देवानंद का यह साथ जिंदगी भर नहीं निभ पाया।

बात फिल्म के शीर्षक की हो रही थी। क्या आपको जोरू शब्द असंसदीय नहीं लगता। क्या इसकी जगह और कोई शालीन शब्द नहीं है हिंदी में। जी हां है, जोरू के भाई को आप साला भी कह सकते हैं।

लेकिन यह क्या, साला, साला शब्द मुंह से निकला नहीं कि, फिर यही कहावत अनायास मुंह से टपक पड़ती है। सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ। ।

वैसे तो साला शब्द भी कोई शालीन शब्द नहीं, लेकिन जहां एक ओर यह एक बड़ा नाजुक रिश्ता है, वहीं दूसरी ओर यह हमारा तकिया कलाम भी है। रात भर साली नींद ही नहीं आई, इधर लाईट नहीं, और उधर मच्छर ही मच्छर।

रिश्तों में थोड़ा अदब भी जरूरी होता है, आप तो साले साहब कहकर जोरू के भाई को सम्मान दे सकते हैं, लेकिन अगर साले साहब ने प्रति प्रश्न दागकर पूछ लिया, आप तो बस इतना बता दीजिए श्रीमान, जोरू का गुलाम कौन है, मैं या आप ? तो आपके पास क्या जवाब है। ।

जोरू के गुलाम से याद आया, शायद इसी नाम से भी एक फिल्म भी बनी थी, ज्यादा पुरानी नहीं, यह अंदाजन १९७२ की फिल्म है, जिसमें राजेश खन्ना और ओमप्रकाश का अभिनय है। सन् २००० में गोविंदा और ट्विंकल खन्ना की इसी नाम से एक और फिल्म आई थी, जिसमें कादर खान भी थे, और आशीष विद्यार्थी भी।

हम भी अजीब हैं। हमें रिश्तों में ही नहीं, जीवन में भी मनोरंजन भी चाहिए और गंभीरता भी। हमें फालतू मजाक भी पसंद नहीं, और फालतू रिश्ते भी हमें अच्छे नहीं लगते। लेकिन जब कोई हमारी दुखती रग दबाता है, तो हम तिलमिला जाते हैं। ।

यही तो जीवन है, थोड़ी मिठास और थोड़ी कड़वाहट ! जब हम अपनों में शामिल हो जाते हैं तो पूरी तरह अनौपचारिक हो जाते हैं, रिश्तों में घुल मिल जाते हैं और जब औपचारिक हो जाते हैं, तो बस पूछिए ही मत। वही अकड़ और तुनकमिजाजी। दीदी, आजकल जीजाजी तो खाने को दौड़ते हैं, कैसे कर लेती हो ऐसे खड़ूस इंसान को बर्दाश्त ! कल की साली भी आजकल जबान चलाने लग गई है ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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