श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जान बचाकर भागना”।)  

? अभी अभी # 82 ⇒ जान बचाकर भागना? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जान है तो जहान है! जान किसे प्यारी नहीं होती। जब भी किसी की जान पर बन आती है तो समझदारी इसी में है, कि वह जान की बाजी लगाने के बजाय वहां से जान बचाकर भाग ले। व्यर्थ में जान से खेलने में कोई समझदारी नहीं।

सबसे पहले तो सयानों की यही सीख होती है कि इंसान को अपनी जान जोखिम में नहीं डालनी चाहिए। वैसे कौन इंसान जान बूझकर खतरे को खत के साथ पीले चावल भेजकर आमंत्रित करता है। लेकिन कभी कभी बिन बुलाए मेहमान की तरह खतरा खुद ही दस्तक दे देता है। मेहमान को भांपने की भी एक कला होती है। जो अनाड़ी होते हैं वे खतरे और मुसीबत में भेद ही नहीं कर पाते। उधर बाहर दरवाजे की घंटी बजी, और इधर तपाक से द्वार खुले। ।

एक समझदार इंसान को साधारण घंटी और खतरे की घंटी में भेद करते आना चाहिए। दरवाजे पर किसी भी दस्तक के पश्चात् कम से कम दस तक गिनती गिनना चाहिए। बस, ट्रेन और हवाई जहाज की तरह आपातकालीन परिस्थिति में घर में एक पिछला दरवाजा भी होना चाहिए।

आजकल तो घरों में भी सीसीटीवी कैमरे लगे रहते हैं, आगंतुक की फिल्म तो पहले से ही उतर जाती है।

हर इंसान की जिंदगी में खतरनाक मोड़ आते हैं।

कहीं भीड़ में तो कहीं सुनसान अकेले में अकस्मात् खतरे से सामना हो ही जाता है। जिन्हें खतरों से खेलने का शौक होता है, वे सर पर पांव रखकर, वहां से भागने के बजाय आ बैल मुझे मार की तरह आव्हान कर, अनावश्यक मुसीबत मोल ले लेते हैं। जो ज़ाबांज होते हैं वे संकट की परवाह किए बिना परिस्थिति से लोहा लेते हैं, और अपनी जान पर खेलकर कई निर्दोष लोगों की जान बचा लेते हैं। उन्हें बहादुर कहा जाता है। ।

जान पर खेलना और जान की बाजी लगाना हर इंसान को प्रेरित और रोमांचित अवश्य करता है, लेकिन उसे इतना भी खयाल रखना चाहिए कि, ये जिंदगी ना मिलेगी दोबारा। कभी कभी जंगल का राजा शेर भी सूझबूझ से काम लेता है, और खतरे को भांप, वहां से नौ दो ग्यारह हो जाता है। कमजोर पर तो सब जोर आजमाते हैं, लेकिन अगर शत्रु शक्तिशाली है तो कूटनीति से काम लिया जाता है। यह कोई इश्क का मैदान नहीं कि जान ही हथेली पर लेकर चले आए।

कहने को यह नन्हीं सी जान है, लेकिन सबको इसकी परवाह है। जब भी

कभी जान पर बन आए, तो सबसे पहले जान बचाकर वहां से भाग लें। यह मत सोचें, भागकर कहां जाएंगे, बस इतना ही सोचें, चलो अपनी जान तो छूटी। जान में जान आने का अनुभव भी केवल वही जानते हैं, जो कहीं से जान बचाकर भागकर आते हैं। ।

हमने आपने कितनी बार भागकर अपनी जान बचाई होगी, अथवा जान बचाकर भागे होंगे। कितनी बार हम व्यर्थ जान गंवाने से बचे। जरा सोचिए, आज हम एक नहीं, कितनी जिंदगियां जी रहे हैं। बूंद बूंद से घड़ा भरता है, हमने बड़े जी जान से अपनी जिंदगी बचाई है, तब ही तो हम आज शान से यह जानदार और शानदार जिंदगी जी रहे हैं। वैसे इसमें उस ऊपर वाले का शुक्रिया तो बनता ही है, क्योंकि जाको राखे साईंया, मार सके ना कोय।

जब तक जिंदा हैं, जिंदगी जीते रहें, कोशिश आगे भी यही रहे, जान को जोखिम में ना डालें, किसी बीमारी अथवा बिन बुलाई मुसीबत को न्यौता ना दें, नन्हीं सी प्यारी सी जान है आपकी, इसका हमेशा खयाल रखें। आखिर आप भी हमारी जान ही तो हैं।

मान जाइए, मान जाइए, बात मेरे दिल की जान जाइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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