हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 68 ☆ व्यंग्य – छगनभाई और फेसबुक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक यथार्थवादी व्यंग्य  ‘छगनभाई और फेसबुक’।  आज सोशल साइट्स ने लोगों की दुनिया ही बदल डाली।  लाइक और कमेंट की पतवार के सहारे कई लोगों की नैया सोशल साइट्स में तैर rahi है। थोड़ी सी अड़चन आई और नाव डूबे या ना डूबे मन जरूर डूब जाता है। विश्वास न हो तो यह व्यंग्य पढ़ लीजिये। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 68 ☆

☆ व्यंग्य – छगनभाई और फेसबुक

छगनभाई फेसबुक के कीड़े हैं। दिन रात फेसबुक में डूबे रहते हैं। फेसबुक में अपनी एक अलग दुनिया बसा ली है। उसी में रमे रहते हैं। अब बाहरी दुनिया की बेरुखी की ज़्यादा परवाह नहीं रही। फेसबुक पर ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ लेते-देते रहते हैं। उसी में मगन रहते हैं।

छगनभाई साहित्य की सभी विधाओं में दखल रखते हैं। कविता, कहानी, निबंध, गज़ल, चुटकुले, कुछ भी ठोकते रहते हैं और दोस्तों की तारीफ और ‘वाह वाह’ पाकर निहाल होते रहते हैं। जो ‘लाइक’ नहीं देते उन्हें दोस्तों की लिस्ट से खारिज करते रहते हैं।

उस दिन सबेरे सबेरे छगनभाई बाहर निकले। मौसम सुहाना था। बिजली के तारों पर बैठीं चिड़ियां चहचहा रही थीं। सूरज का लाल गोला सामने उभर रहा था। छगनभाई के मन में कविता फूटी। तत्काल वापस लौट कर तख्त पर आसन जमाया और एक चौबीस लाइन की कविता ठोक दी। उसके बाद फटाफट उसे फेसबुक पर ठेल दिया और फिर चातक की तरह टकटकी लगाकर बैठ गये कि ‘लाइक’और ‘कमेंट’ की बूंदें गिरें और उनकी बेचैन आत्मा को सुकून मिले।

समय गुज़रता गया और मोबाइल चुप्पी साधे रहा। न कोई ‘लाइक’,न ‘कमेंट’। छगनभाई कोई भी टोन आने पर उम्मीद में मोबाइल में झांकते और वहां फैले वीराने को देखकर मायूस हो जाते। धीरे धीरे दोपहर हो गयी। कहीं से कोई हलचल नहीं। छगनभाई का भरोसा दुनिया से उठने लगा। दुनिया बेरौनक, बेरंग, बेवफा लगने लगी।

जब शाम तक कोई सन्देश नहीं आया तो छगनभाई का धीरज छूट गया। एक घनिष्ठ मित्र जनार्दन जी को फोन लगाया। पूछा, ‘क्या हालचाल है?’

जवाब मिला, ‘सब बढ़िया है गुरू। आप सुनाओ। ‘

छगनभाई बोले, ‘कहां हो अभी?’

जनार्दन जी बोले, ‘ग्वारीघाट आया था। नर्मदा जी में डुबकी लगा कर निकला हूँ। चित्त प्रसन्न हो गया। ‘

छगनभाई बोले, ‘एक कविता फेसबुक पर डाली है। देख लेना। ‘

उधर से जवाब मिला, ‘घर पहुंचकर देखूंगा भैया। मैं तो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े ही ‘लाइक’ या ‘बढ़िया’ ठोक देता हूँ। आखिरकार दोस्त किस दिन काम आएंगे?’

छगनभाई चुप हो गये। चैन नहीं पड़ा तो एक और मित्र शीतल जी को फोन लगाया। पूछा, ‘फेसबुक पर मेरी कविता देखी क्या?’

शीतल जी दबी ज़बान से बोले, ‘अभी एक प्रवचन में बैठा हूँ। घर पहुँचकर पढ़ूँगा। ‘

छगनभाई कुढ़ गये। हताश पलंग पर लेट गये। लग रहा था दुनिया में सब व्यर्थ है, कोई आदमी भरोसे के लायक नहीं।

घर में उनके साले साहब आये हुए थे। पत्नी से छोटे। बोले, ‘जीजाजी, उठिए। सिनेमा देख आते हैं। अच्छी फिल्म लगी है। टिकट मेरे जिम्मे। ‘

छगनभाई भुनकर बोले, ‘ये फिल्म-विल्म सब फालतू लोगों के काम हैं। मुझे कोई फिल्म नहीं देखना। तुम अपनी दीदी को लेकर चले जाओ। ‘

पत्नी नाराज़ होकर बोली, ‘आपको नहीं जाना तो विक्की को क्यों डाँट रहे हैं?आपका मिजाज़ समझना बड़ा मुश्किल है। पता नहीं कब देवता चढ़ जाएं। ‘

छगनभाई में पत्नी से टकराने का साहस नहीं था। मुँह को चादर से ढक कर पड़े रहे।

तभी मोबाइल की टोन बजी। छगनभाई ने चादर हटाकर उसमें झाँका। एक फेसबुक मित्र ने उनकी कविता की भरपूर प्रशंसा की थी और उन्हें शब्दों का चितेरा और अद्भुत प्रतिभा-संपन्न बताया था। पढ़ कर छगनभाई की तबियत बाग-बाग हो गयी। सबेरे से जमकर बैठा अवसाद पल भर में छँट गया। दुनिया सुहानी और भरोसे के लायक लगने लगी।

उसके पीछे पीछे एक और पोस्ट आयी। उसमें भी छगनभाई की कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी थी और उन्हें आला दर्जे का कवि सिद्ध किया गया था।

छगनभाई चादर फेंककर पलंग से उठ बैठे। विक्की के कंधे को बाँह में लपेट कर बोले, ‘मैं तो ऐसे ही मज़ाक कर रहा था। फिल्म देखने ज़रूर चलूँगा और टिकट भी मैं ही खरीदूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी ☆ लघु व्यंग्य कथा – लाखों में एक ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं प्रेरणास्पद लघु व्यंग्य कथा   “लाखों में एक”.  )

☆ लघु व्यंग्य कथा – लाखों में एक

वे व्यंग्यात्मा हैं, वे व्यंग्य ओढ़ते, बिछाते हैं तथा दिन रात व्यंग्य की ही जुगाली करते हैं । वे  हमारे पास आये तो हमने उनसे सहज भाव से पूछ लिया कि ‘अब तक 75 ‘(व्यंग्य संकलन),  ‘सदी के 100  व्यंग्यकार’ (व्यंग्य संकलन)’ एवं ‘131 श्रेष्ठ व्यंग्यकार ‘ (व्यंग्य संकलन) प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन इनमें आप शामिल नहीं हैं ऐसा क्यों ?

उन्होंने (मन ही मन खिसियाते हुए ) कहा -‘अभी तो संख्या 131 पर ही पहुंची है, और आपको तो मालूम ही है कि हम 100, पांच सौ, या हजार में एक नहीं हैं, हम तो लाखों में एक हैं ।’

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 36 ☆ भागमभाग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “भागमभाग”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 36 – भागमभाग ☆

कुर्सी दौड़ का आयोजन चल रहा था। एक आनर सौ बीमार का दृश्य। आयोजक भी बहुत होशियार अपनी कुर्सी तो फिक्स करके बैठ गए बाकी सब को संगीत की धुन पर दौड़ा दिया। जो प्रतिभागी उनकी ओर विश्वास की दृष्टि से देखता, उसी की कुर्सी छिन जाती।  खेल शुरू हो गया। हर राउंड में, एक कुर्सी कम हो जाती , कुर्सी छोड़ कर  जाने वाला कातर निगाह से देखता और मन ही मन बड़बड़ाते हुए चला जाता। देखते ही देखते बस तीन लोग बचे अब तो समझ में ही नहीं आ रहा था कौन जीतेगा। बस आयोजक ही पूर्ण आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे।  अन्य दो प्रतिभागियों ने उनकी कुर्सी की जाँच करवाने के लिए कहा तो वो तैयार ही न हुए।

दूर बैठे वो सभी लोग जो अभी तक इस दौड़ में शामिल थे आ धमके और आयोजक को पूरी ताकत से हटाने लगे पर वो तो अपनी कुर्सी से हिल ही नहीं रहे थे।

किसी ने कहा फेविकोल का जोड़ है, हटेगा नहीं , कुर्सी ही तोड़ दो, तो न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी।

तोड़- फोड़ शुरू हो गयी। एक दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप की झड़ी लग चुकी थी तभी  समझाइश लाल जी देवदूत के समान आ पहुँचे। अब तो सबकी निगाहें उनकी ओर ही लगी हुई थी।

उन्होंने सर्वप्रथम कुर्सी दौड़ के आयोजक को धन्यवाद देते हुए कहा आप सचमुच बधाई के पात्र हैं , जो सबको इस तरह से जोड़ कर रखे हुए हैं। अपने भावों को व्यक्त करने का ये सशक्त माध्यम है।  मन की बात अगर मन में रह जाए,  तो ये किसी भी काल में उचित नहीं रहा है। हम सब लोग चाय पर चर्चा करते हुए इस समस्या का निराकरण भी कर लेंगे।

चाय की चुस्कियों के साथ जब – जब चर्चा होती है , तब- तब बात केवल नाश्ते पर ही रुक जाती है। क्योंकि चाय और नाश्ते का चोली दामन का साथ जो ठहरा।

खैर निष्कर्ष वही ढाक के तीन पात, जिसको इस आयोजन में भाग लेना हो वो रुके अन्यथा द्वारा खुले है। जो नियमों के अनुसार नहीं चलेगा वो जा सकता है।

अगले महीने पुनः प्रथम रविवार को कुर्सी दौड़ की प्रतियोगिता होगी जो भी जुड़ना चाहे जुड़ सकता है , बस आयोजक के नियमों को मानना होगा।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 12 ☆ व्यंग्य ☆ गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  समसामयिक विषय पर व्यंग्य  “गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 12 ☆

☆ व्यंग्य – गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है 

अब यह तो पता नहीं कि ये सरकारों के सुशासन का ही परिणाम है या नारी सशक्तीकरण आंदोलनों की सफलता, मगर जो भी हो, एक अच्छी बात यह है कि बलात्कार करना आसान सा अपराध नहीं रह गया है. इतना तो हो ही गया है कि अकेले रेप करने की हिम्मत अब कम ही लोग कर पाते हैं. सामूहिक रूप से गैंग बना कर करना पड़ता है. एक से भले दो, दो से भले चार. पैन इंडिया – नोयडा, बैतूल, बेटमा, जयपुर, बलरामपुर, मुंबई, कोलकत्ता, चंडीगढ़. नई सभ्यता, नये समाज का नया नार्म है – गैंग रेप. नया चलन, नई फैशन. एक आरोपी से मैंने पूछा – “गैंग कैसे बनाते हैं आप ? मेरा मतलब है मिनिमम कितने आदमी रखते हैं ?”

“चार तो होना ही चाहिये. चार में, कम से कम, एक दो लड़के सांसदो के, विधायकों के, पार्षदों के, सरपंच के भांजे, भतीजे रख लेते हैं. मंत्रीजी का लड़का हो तो सोने में सुहागा.”

“टाइमिंग का भी ध्यान रखना पड़ता होगा आपको ?”

“बिल्कुल. हमसे कुछ केसेस में टाइमिंग की ही मिस्टेक हुई. जब संसद का सत्र चल रहा हो, विधान सभा चल रही हो या किसी सूबे में चुनाव नजदीक हों, तब नहीं करना चाहिये. मामला ज्यादा तूल पकड़ लेता है. समूची बहस पीड़िता से हट कर इस बात पर आ टिकती है कि उसकी जाति-समाज के वोट कितने प्रतिशत हैं ? पीड़िता दलित है कि महादलित ? दलित है तो जाटव है कि गैर जाटव ? रेप से सूबे की सरकार पर क्या असर पड़ेगा ? सोशल इंजिनियरिंग दरक गयी तो सूबेदार फिर से सत्ता में आ पायेगा कि नहीं ? सामूहिक बलात्कार कैसे सूबे की सरकार के लिए कैसे राजनीतिक चुनौती बन सकता है ? रेप हमारे लिये एक प्रोजेक्ट है तो सियासतदानों के लिये सुपर-प्रोजेक्ट. इसीलिये सोचते हैं आगे से इस पीरियड में ‘नो-गैंगरेप-डेज’ डिक्लेयर कर देंगे.”

“गैंगरेप में बड़ी बाधा क्या है ?”

“मीडिया से परेशानी है. शहरों में, शहरों के आसपास मीडिया हाइपर-एक्टिव है. हमारे छोटे-छोटे प्रोजेक्ट्स भी हाइप का शिकार हो जाते हैं. इसीलिये हमें दूर गांवो में अन्दर जाना पड़ता है. शिकार नाबालिग हो, आदिवासी हो, गरीब हो, ठेठ गांव के पास बाजरे जुआर के खेत में हो तो केसेस लाइट में नहीं आ पाते. जो पीड़िताएँ दिल्ली नहीं ले जाईं जाती उनके केस में बवाल इतना नहीं कटता.”

“रेप कर चुकने के बाद खर्चा तो लगता होगा ना.”

“ओह वेरी मच. बाद में ही ज्यादा लगता है. लीगल एक्सपेंसेस  भारी पड़ते हैं. अस्पताल, पोस्ट-मार्टम, पुलिस, वकील, गवाह, कोर्ट- कचहरी,  मुंशी,  मोहर्रिर. सब जगह पैसा तो लगता ही है, फीस कम रिश्वतें ज्यादा. मीडिया जितना ज्यादा कवर करता है पैसा उतना ज्यादा लगता है. लेकिन, जैसा मैंने आपको बताया कि व्यापारी, उद्योगपति, अफसर, किसी बड़े बल्लम का बेटा साथ में हो तो फिनांस मैनेज हो जाता है.”

“कभी शर्म लगती है आपको ?”

“हमारी छोड़िये सर, किसे लगती है अब ? सियासत की दुनियां में हम शर्म के विषय नहीं रह गये है.”

“तब भी अपराधी कहाने से डर तो लगता होगा ?”

“किसने कहा हम अपराधी हैं. हम या तो ठाकुर हैं या ब्राह्मण हैं या दलित हैं या महादलित हैं. जाति अपराध पर भारी पड़ती है सर. पॉवर पोजीशन में अपनी जाति का आदमी बैठा हो तो नंगा नाच सकते हैं आप. कोई टेंशन नहीं है.”

“पुलिस वालों को नहीं रखते हैं टीम में ?”

“नहीं, वे अपनी खुद की गैंग बनाकर थाने में ही कर लेते हैं. हमारे साथ नहीं आते.”

“आगे की योजना क्या है ?”

वे सिर्फ मुस्कराये और थैंक्यू कह कर चले गये. जल्दी में हैं. गैंग के बाकी सदस्य इंतज़ार कर रहे होंगे उनका, एक दो प्रोजेक्ट्स प्लान कर लिये हैं उन्होंने. आखिर दुनिया की आधी आबादी उनके लिये एक शिकार है और जीवनावधि छोटी. कब पूरे होंगे उनके सारे प्रोजेक्ट्स!!!

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

(ई-अभिव्यक्ति किसी व्यंग्य /रचना की वैधानिक जिम्मेदारी नही लेता। लेखकीय स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रस्तुत।)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 67 ☆ व्यंग्य – जहाज का पंछी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक यथार्थवादी व्यंग्य  ‘जहाज का पंछी ’।  आखिर जहाज का पंछी कितना भी ऊंचा उड़ ले , वापिस जहाज पर ही आएगा। कहावत नहीं साहब यह शत प्रतिशत सत्य है।   विश्वास न हो तो यह व्यंग्य पढ़ लीजिये। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 67 ☆

☆ व्यंग्य – जहाज का पंछी

परमू भाई से वहीं बात हुई थी जहाँ हो सकती थी, यानी मल्लू के ढाबे में। जो ज्ञानी हैं वे उन्हें दफ्तर में उनकी सीट पर खोजने के बजाय सीधे मल्लू के ढाबे पर ब्रेक लगाते हैं,उनका चाय-समोसे का बिल चुकाते हैं और आराम से काम की बात करते हैं। जो अज्ञानी हैं वे दफ्तर में उनको उसी तरह ढूँढ़ते रह जाते हैं जैसे लोग ज़िन्दगी भर मन्दिर में भगवान को खोजते रह जाते हैं।

उस दिन मैंने परमू भाई को ढाबे में अकेला पा, हिम्मत जुटा कर कहा, ‘परमू भाई, बहुत दिनों से आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। ‘

परमू भाई निर्विकार भाव से चाय पीते हुए बोले, ‘बेखटके कह डालो भाई। ‘

मैंने कहा, ‘परमू भाई!बहुत दिनों से आप पर लक्ष्मी की कृपा है। आप का घर अब धन-धान्य से परिपूर्ण है,भाभी इस उम्र में भी पन्द्रह तोले के गहने लटकाये घूमती हैं, तीनों सपूत लाखों के धंधे में लग गये और दोनों पुत्रियाँ रिश्वतखोर, संभावनाशील अफसरों की पत्नियाँ बन कर विदा हुईं। अब मेरे ख़याल से आपको परलोक के वास्ते कुछ ‘प्लानिंग’ करना चाहिए और लक्ष्मी के प्रति मोह कम करना चाहिए। ‘

परमू भाई सामने दीवार पर नज़र टिकाकर दार्शनिकों के लहजे में बोले, ‘किसोर भाई!(वे ‘श’ को ‘स”बोलते थे) आपने बात तो कही, लेकिन सोच कर नहीं कही। आपने कभी पाइप से पानी निकाला होगा। पहले आदमी को मुँह से खींचकर निकालना पड़ता है, फिर पानी अपने आप खिंचा चला आता है। मैं भी अब उस अवस्था में पहुँच गया हूँ जहाँ मुझे खींचना नहीं पड़ता, माल अपने आप चला आता है। ‘

मैंने कहा, ‘मैं जानता हूँ परमू भाई, कि आप समृद्धि की इस उच्च अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं,लेकिन पाइप को कभी न कभी बन्द न किया जाए तो आदमी बाढ़ में डूबने लगता है। अब वक्त आ गया है कि आप इस टोंटी को बन्द करें। ‘

परमू भाई के चेहरे पर दुख उभर आया। बोले, ‘भाई, आप मछली से कहते हो कि पानी से बाहर आ जाए और पंछी से कहते हो कि उड़ना बन्द कर दे। कैसी बातें करते हो भाई?’

फिर मेरी तरफ देखकर बोले, ‘फिर भी आपकी बात पर विचार करूँगा। वैसे भी पहले जैसी भूख नहीं रही। अघा गया हूँ। ‘

दूसरे दिन वे मुझसे मिलते ही बोले, ‘मैंने कल उस बारे में तुम्हारी भाभी की राय ली थी। बताने लगीं कि उन्हें तीन चार दिन से सपने में यमराज का भैंसा दिखता है। उनकी भी राय है कि आपकी बात मान ली जाए। ‘

मैंने प्रसन्नता ज़ाहिर की। वे बोले, ‘तो ठीक है। कल गुरुवार का ‘सुभ’ दिन है। कल से ‘रिसवत’ लेना पाप है। ‘

शाम को घर जाने से पहले वे मेरी कुर्सी के पास आकर जेब बजाते हुए बोले, ‘कल से बन्द करना है इसलिए आज जितना खींचते बना,खींच लिया। पिछले उधार भी वसूल कर लिए। अब बन्द करने में कोई अफसोस नहीं होगा।

दूसरे दिन दफ्तर पहुँचा तो बरामदे में भीड़ देखकर उधर झाँका। देखा, भीड़ का केन्द्र परमू भाई थे। वे कह रहे थे, ‘बस, आज से छोड़ दिया। आदमी ठान ले तो क्या नहीं कर सकता!आज से हाथ भी नहीं लगाना है। आज से परलोक का इंतजाम ‘सुरू’। ‘

लोग मुँह बाए सुन रहे थे और एक दूसरे के मुँह की तरफ देख रहे थे। यह रातोंरात हृदय-परिवर्तन का मामला था। शेर माँस खाना छोड़कर शाकाहारी होने जा रहा था। पूरे जंगल में यह खबर आग की तरह फैल गयी।

उस दिन से परमू भाई ने रिश्वत लेना सचमुच बन्द कर दिया। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने काम करना भी बन्द कर दिया। काम में उनकी दिलचस्पी जाती रही। दिन भर मल्लू के ढाबे में बैठे रहते। कहते, ‘जब काम से कुछ मिलना ही नहीं तो काम किस लिए करें?अब कलम उठाने का मन नहीं होता। ‘अपनी फाइल दूसरे बाबुओं को दे देते और चक्कर लगाने वालों से कह देते, ‘जाओ भैया, उधर पूजा-दच्छिना चढ़ाकर काम करा लो। अब यहाँ मत्था मत टेको।

परमू भाई ने लेना और काम करना बन्द कर दिया तो उनके आसपास दिन भर मंडराती मधुमक्खियाँ भी ग़ायब हो गयीं। लोग परमू भाई से कन्नी काटने लगे। चाय के पैसे परमू भाई की जेब से ही जाने लगे।

परमू भाई ने रिश्वत लेना बन्द ज़रूर कर दिया, लेकिन रिश्वत उनके दिल, दिमाग़ और ज़बान पर बैठ गयी। जो भी मिलता उससे एक ही राग अलापते–‘भैया, अपन ने तो बिलकुल छोड़ दिया। जिन्दगी भर यही थोड़इ करते रहेंगे। बहुत हो गया। अब ‘निस्चिंतता’ से रहेंगे और चैन की नींद सोएंगे। ‘ सुनने वाला एक ही रिकार्ड सुनते सुनते भाग खड़ा होता।

अपनी कुर्सी पर बैठते तो सामने वालों से पुकार कर पूछते, ‘कहो, आज कितने बने?वो जो सेठ आया था, कितने दे गया?लिये जाओ, लिये जाओ। अपन तो भैया, इस सब से छुटकारा पा गये। ‘

जहाँ भी बैठते, यही किस्सा छेड़ देते, ‘भैया, बड़ी ‘सान्ती’ मिल रही है। पहले यही लगा रहता था कि इतने मिले उतने मिले,इसने दिये उसने नहीं दिये। अब इस सब टुच्चई से ऊपर उठ गये। ‘

ढाबे में बैठते तो सब को सुनाकर कहते, ‘भैया, अच्छी चाय बनाना। अब जेब से पैसा जाता है। ‘

दफ्तर के लोग यह भविष्यवाणी करने लगे कि परमू भाई कुछ दिन में सन्यास लेकर हिमालय की तरफ प्रस्थान कर जाएंगे और दफ्तर मणिहीन हो जाएगा।

अब परमू भाई दिन भर इस उम्मीद में घूमते रहते थे कि दफ्तर में सब तरफ उनकी ईमानदारी की चर्चा हो और सारा दफ्तर उनकी जयजयकार से गूँजे। लेकिन हो उल्टा रहा था। लोग उनकी उपस्थिति में भी मंहगाई-भत्ते, ट्रांसफरों और साहब के द्वारा अकेले रिश्वत हड़पने की बातें करते थे और उनकी ईमानदारी की पैदाइश के तीन चार दिन बाद ही लोगों ने उसे कचरे के ढेर में फेंक दिया था। अब परमू भाई बैठे कुढ़ते रहते और लोग टीवी पर चल रहे सीरियलों की बातें करके खी-खी हँसते रहते। धीरे धीरे परमू भाई का धीरज चुकने लगा और उन्हें बोध होने लगा कि वे इतना बड़ा त्याग करके बेवकूफ बन गये। वे उदास रहने लगे।

एक दिन मेरे पास आकर बैठ गये, बोले, ‘बंधू, मामला कुछ जम नहीं रहा है। ‘

मैंने पूछा, ‘क्या हुआ, परमू भाई?’

वे दुखी भाव से बोले, ‘भाई, ऐसा लग रहा है कि हमारा इतना बड़ा त्याग बेकार चला गया। हमने आपकी बात मानकर अपना चालू धंधा बन्द किया, और यहाँ लोगों को दो बोल बोलने की भी फुरसत नहीं है। लोगों का यही रवैया रहा तो फिर ईमानदार होना कौन पसन्द करेगा?’

मैंने कहा, ‘कैसी बातें करते हैं, परमू भाई!अच्छे काम का इनाम तो मन की सुख-शान्ति होती है। विद्वानों ने कहा है कि सन्तोष से बड़ा कोई धन नहीं होता। ‘

परमू भाई असहमति में सिर हिलाकर बोले, ‘आजकल ‘सन्तोस वन्तोस’ कौन पूछता है भाई? इतना बड़ा त्याग करने के बाद न कहीं तारीफ, न इनाम, न सम्मान, न अभिनन्दन। मेरा तो सारा बलिदान पानी में चला गया। ऐसी सूखी ईमानदारी से तो अपनी पुरानी बेईमानी लाख गुना अच्छी। चार लोग आगे पीछे तो लगे रहते थे। ‘

मैं संकट में पड़ गया। परमू भाई को ईमानदारी के अदृश्य और अप्रत्यक्ष लाभों के बारे में समझा पाना बड़ा कठिन लग रहा था। उन्होंने हमेशा ठोस प्रतिफल प्राप्त किये थे, इसलिए अदृश्य लाभ उनके दिमाग़ में नहीं बैठ रहे थे। उस दिन वे असंतुष्ट चले गये।

दूसरे दिन वे फिर आकर बैठ गये। बोले, ‘बंधू, मैंने काफी सोच लिया है। ऐसी मुफ्त की ईमानदारी से कोई फायदा नहीं है। वैसे भी हमारे ‘देस’ में औसत उम्र काफी बढ़ गयी है। अभी मेरे दफ्तर छोड़कर यमलोक जाने की कोई संभावना नहीं है। जब वक्त आएगा तो कोई रास्ता निकाल लेंगे। ‘

वे जाकर अपनी मेज़ पर फाइलें सजाने लगे और दोपहर तक खबर फैल गयी कि जहाज का पंछी पुनि जहाज पर लौट आया है। शाम तक लोग परमू भाई को ढाबे चलने का निमंत्रण देने लगे।

इस तरह परमू भाई अपनी पुरानी दुनिया में लौट गये और मेरे एक नेक काम की भ्रूणहत्या हो गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 35 ☆ निष्ठा की प्रतिष्ठा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “निष्ठा की प्रतिष्ठा”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

( 27 सितम्बर 2020 बेटी दिवस के अवसर पर प्राप्त कल्पना चावला सम्मान 2020 के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से हार्दिक बधाई )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 35 – निष्ठा की प्रतिष्ठा ☆

सम्मान रूपी सागर में समाहित होकर अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए, अपमान रूपी नाव पर सवार होना ही होगा। ये कथन एक मोटिवेशनल स्पीकर ने बड़े जोर- शोर से कहे।

हॉल में बैठे लोगों ने जोरदार तालियों से इस विचार का समर्थन किया। अब चर्चा आगे बढ़ चली। लोगों को प्रश्न पूछने का मौका भी दिया गया।

एक सज्जन ने भावुक होते हुए पूछा ” निष्ठावान लोग हमेशा अकेले क्यों रह जाते हैं। जो लोग लड़ – झगड़ कर अलग होते हैं , वे लोग अपना अस्तित्व तलाश कर कुछ न कुछ हासिल कर लेते हैं। पर निष्ठावान अंत में बेचारा बन कर, लुढ़कती हुई गेंद के समान हो जाता है। जिसे कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया जाता है।”

मुस्कुराते हुए स्पीकर महोदय ने कहा ” सर मैं आपकी पीड़ा को बहुत अच्छे से समझ सकता हूँ। सच कहूँ तो ये मुझे अपनी ही व्यथा दिखायी दे रही है। मैं आज यहाँ पर इसी समस्या से लड़ते हुए ही आ पहुँचा हूँ। ये तो शुभ संकेत है, कि आप अपने दर्द के साथ खड़े होकर उससे निपटने का उपाय ढूँढ़ रहे हैं। जो भी कुछ करता है ,उसे बहुत कुछ मिलता है। बस निष्ठावान बनें  रहिए, कर्म से विमुख व्यक्ति को सिर्फ अपयश ही मिलता है , जबकि कर्मयोगी, वो भी निष्ठावान ; अवश्य ही इतिहास रचता है।

सभी ने तालियाँ बजा कर स्पीकर महोदय की बात का समर्थन किया।

समय के साथ बदलाव तो होता ही है। आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है। किसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु दुश्मन को दोस्त भी बनाना, कोई नई बात नहीं होती। बस प्रतिष्ठा बची रहे, भले ही निष्ठा से कर्तव्य निष्ठा की अपेक्षा करते- करते, हम उसकी उपेक्षा क्यों न कर बैठे, स्पीकर महोदय ने समझाते हुए कहा।

सबने पुनः तालियों के साथ उनका उत्साहवर्द्धन  किया।

पिछलग्गू व्यक्ति का जीवन केवल फिलर के रूप में होता है, उसका स्वयं का कोई वजूद नहीं रहता। अपने सपनों को आप पूरा नहीं करेंगे , तो दूसरों के सपने पूरे करने में ही आपका ये जीवन व्यतीत होगा। जो चलेगा वही बढ़ेगा, निष्ठावान बनने हेतु सतत प्रथम आना होगा। उपयोगी बनें, नया सीखें, समय के अनुसार बदलाव करें।

इसी कथन के साथ स्पीकर महोदय ने अपनी बात पूर्ण की।

सभी लोग एक दूसरे की ओर देखते हुए, आँखों ही आँखों में आज की चर्चा पर सहमति दर्शाते हुए नजर आ रहे थे।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 63 ☆ परिचर्चा – व्यंग्य कोई गणित नहीं है – श्री आलोक पुराणिक ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की  परिचर्चा – व्यंग्य कोई गणित नहीं है – श्री आलोक पुराणिक। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 63

☆ परिचर्चा – व्यंग्य कोई गणित नहीं है – श्री आलोक पुराणिक ☆ 

देश के जाने-माने व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से महत्वपूर्ण बातचीत –

जय प्रकाश पाण्डेय – 

किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?

आलोक पुराणिक –

साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है  ?

आलोक पुराणिक –

सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है।  अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना  ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान “सब धान बाईस पसेरी” बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई  भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?

आलोक पुराणिक –

व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों” व्यंग्य की जुगलबंदी ” ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या  ?

आलोक पुराणिक –

अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार  इंटरनेट के युग में आसान हो गया।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधन सम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?

आलोक पुराणिक –

नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?

आलोक पुराणिक –

फेसबुक या असली  की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 66 ☆ व्यंग्य – कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य ‘कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान समय में  यह सिद्ध कर दिया कि  कोरोना काल में रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 66 ☆

☆ व्यंग्य – कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु 

कोरोना-काल में मरना भी आसान नहीं रहा। हालत यह हो गयी है कि कोई किसी भी रोग से मरे, कोरोना के शक का कीड़ा दिमाग़ में कुलबुलाने लगता है। लोगों को भरोसा ही नहीं होता कि कोई किसी दूसरे रोग से भी मर सकता है। अब फसली बुख़ार से कोई नहीं मरता,सब को कोरोना के खाते में डाला जाता है।  नाते-रिश्तेदार पास फटकने के लिए तैयार नहीं होते। सोचते हैं, ‘इन्हें अभी मरना था। कोरोना खतम होने तक रुक नहीं सकते थे?अब कैसे पता चले कि इनकी मौत में कोरोना का योगदान था या नहीं।’

कोरोना-काल में मृतक को उठाने के लिए चार आदमियों का इन्तज़ाम भी मुश्किल हो रहा है। परिवार में माताएं पुत्र को शव के पास जाने से बरजती हैं और पत्नियाँ पति को। सबको अपनी अपनी जान की पड़ी है। मध्यप्रदेश के एक कस्बे में  तहसीलदार साहब को ही शव को अग्नि देनी पड़ी क्योंकि मृतक की पत्नी ने पुत्र को शव के पास जाने से रोक दिया। कोरोना सब रिश्तों को छिन्न भिन्न कर रहा है। रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। जिन लोगों ने पुत्र के हाथों दाह-संस्कार के लोभ में पुत्र पैदा किये वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी सद्गति पुत्र के हाथों होगी या नगर निगम के किसी कर्मचारी के हाथों। सब तरफ अफरातफरी का आलम है। अब रिश्तेदारों के बजाय लोग उनकी तरफ देख रहे हैं जो कुछ पैसे लेकर, अपनी जान को दाँव पर लगाकर, मृतक को स्वर्ग या नरक की तरफ ढकेल सकते हैं। यह अच्छा है कि हमारे देश में पैसे वालों का कोई काम रुकता नहीं,अन्यथा बड़ी समस्या खड़ी हो जाती।

दो दिन पहले नन्दू के दादाजी का इन्तकाल हो गया। दोस्त महिपाल को फोन लगाया। कहा कि आ जाए तो कुछ राहत मिलेगी। थोड़ी बात हुई कि फोन उसके डैडी ने झपट लिया।

‘हाँ जी, बोलो बेटा।’

‘अंकल, दादाजी की डेथ हो गयी है। महिपाल आ जाता तो कुछ मदद मिल जाती।’

‘ओहो, बुरा हुआ। क्या हुआ था उनको?’

‘कुछ नहीं। दो तीन दिन से थोड़ा बुखार था। अचानक ही हो गया।’

‘कोरोना टैस्ट कराया था?’

‘नहीं अंकल, कुछ ज़रूरी नहीं लगा।’

‘कराना था बेटा। चलो, कोई बात नहीं। ऐसा है कि महिपाल के घुटने में कल से दर्द है। थोड़ा ठीक हो जाएगा तो आ जाएगा। अभी तो मुश्किल है।’

सबेरे कुछ मित्र-रिश्तेदार झिझकते हुए आते हैं। कुर्सी खींचकर नाक पर ढक्कन लगाये दूर बैठ जाते हैं। बार बार सवाल आता है, ‘टैस्ट कराया क्या? करा लेते तो अच्छा रहता। शंका हो जाती है।’

दादाजी के काम में हाथ लगाने के लिए कोई आगे नहीं आता। उन्हें वाहन में रखते ही आधे लोग फूट लेते हैं। बीस से ज़्यादा लोगों के शामिल न होने के नियम का बहाना है। जो बचते हैं वे वाहन में बैठने को तैयार नहीं होते। कहते हैं, ‘आप लोग चलिए। हम अपने वाहन से आते हैं।’

प्रभुजी, हम पचहत्तर पार वाले हैं और इस नाते संसार से रुख़्सत होने के लिए पूरी तरह ‘क्वालिफाइड’ हैं, लेकिन हालात देखकर आपसे गुज़ारिश है कि हमारी रुख़्सती को कोरोना-काल तक मुल्तवी रखा जाए। हमें फजीहत से बचाने के लिए यह ज़रूरी है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 11 ☆ व्यंग्य ☆ विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

(आज शाम 7 बजे उपरोक्त कार्यक्रम में वरिष्ठ व्यंग्यकार आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी की पुस्तक ‘वे रचनाकुमारी को नहीं जानते’ का ऑनलाइन लोकार्पण एवं रचनापाठ आयोजित है जिसे आप zoom meeting के उपरोक्त लिंक पर देख/सुन सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 11 ☆

☆ व्यंग्य – विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन 

लंकेश खुश हैं. इसलिये नहीं कि इस दशहरे वे मारे नहीं जायेंगे बल्कि इसलिये कि वे इस बार भी प्रभु के तीर से ही मरेंगे, कोरोना से नहीं. मैंने कहा – ‘आप इतने कांफिडेंस से कैसे कह सकते हो ? कोरोना आपको भी हो सकता है.’

‘नहीं होगा. तुमने ही हमें सौ फीट से ऊंचा बनाया है, कोरोना की हिम्मत नहीं कि हमारी नाक तक पहुँच जाये.’

‘नाक कितनी ही ऊपर क्यों न हो महाराज, कोरोना की जद से बाहर नहीं है. आर्यावर्त में कितने हैं ज़िन्दगीभर ऊंची नाक लिये घूमते रहे – कोरोना ने उनकी भी काट दी. पता है जब वे गरीबों की बस्ती से गुजरते थे तो नाक पर रुमाल रख लिया करते थे, अब खुद के घर में नाक पर रुमाल बाँधकर घूमना पड़ता है. इस मामले में कोरोना ने समाजवाद ला दिया है.’

लंकापति थोड़ा रुके, हँसे और बोले – ‘दशहरे तक जिलाये रखने की जिम्मेदारी तो दशहरा कमिटी की है. मैं उस दिन तक क्यों डरूं ?’

‘बात तो सही कह रहे हो महाराज, लेकिन ओवरकांफिडेंस में कहीं पहले ही निपट गये तो त्यौहार का मजा किरकिरा हो जायेगा.’

‘मजा तो वैसे भी नहीं ले पाओगे तुम. मुझे मरता देखने आ नहीं सकोगे.  बीस से ज्यादा की परमिशन है नहीं, इत्ते तो कमिटी के मेम्बरान ही होते हैं.’

‘तब भी, कम से कम मास्क तो लगा लेते दशानन.’

‘आर्यावर्त के नागरिक एक नहीं लगा रहे, तुम हमें दस की सलाह दे रहे हो. बीस रूपये का एक पड़ता है डिस्पोजेबल मास्क, दो सौ रूपये रोज़ का टेंशन है शांतिभैया. जीएसटी कलेक्शन कम होता जा रहा है. कलयुग में कमायें-खायें कि मास्क जैसी आईटम पर खर्चा करें ? और फिर हमारी नियति में तो प्रभु श्रीराम के हाथों नाभि में तीर से मरना लिखा है. सुख बस ये कि मरने के पहले चौदह दिन के क्वारंटीन से गुजरना नहीं पड़ेगा. हाsssहाsssहाsss’

लंकेश इस बात पर बेहद खुश नज़र आये कि उन्हें क्वारंटीन सेंटर में नहीं जाना पड़ेगा. उन्होंने आर्यावर्त में अपने गुप्तचर भेजकर कुछेक ग्रामीण और अर्धशहरी सेंटर्स के बाबत पता लगा लिया था. बोले – ‘शांतिभैया अगर घर से भोजन और पानी की व्यवस्था न हो तो आदमी कोरोना से पहले भूख से मर जाये. बिजली है नहीं, रात होते ही घुप अंधेरा छा जाता है. मच्छर एक मिनट चैन से बैठने नहीं देते. कहीं वक्त दो वक्त का भोजन दिया जा रहा है तो वहां पीने के पानी की समस्या है. शौचालय में गंदगी है. पंखा है नहीं, हैंडपंप भी सूखा है बाल्टी, मग, साबुन की व्यवस्था तो विलासिता समझो. जेल से बदतर हैं कस्बे के क्वारंटीन सेंटर.’

‘क्षमा करें महाराज, आजकल होम क्वारंटीन की सुविधा भी है.’

इस पर वे उदास हो गये. बोले – ‘महारानी मंदोदरी माने तब ना – वाट्सअप में क्या क्या पढ़ रखा है उसने. अभी तो कुछ हुआ ही नहीं है तब भी सुबह सुबह खाली पेट गरम पानी पिओ, फिर उबलता काढ़ा. भोजन नली झार झार हो उठती है. जलन कम हुई नहीं कि कटोरीभर के अदरक का रस ले आती है. फिर शुरू होता है सिलसिला सिकी अजवाइन चबाने का, निपटे तो भुनी अलसी, कुटा जीरा, पिसा धनिया. तेजपान का अर्क, कच्चे करेले का सलाद, लोंग का पानी, हल्दी का जूस, काली-मिर्ची का सत, हरी मिर्ची का शेक, लाल मिर्ची का धुँआ, और नासिकानली में खौलता कड़वा तेल. और वो नाम से ही उल्टी करने का मन करता है – वो क्या कहते हैं गिलोय के पत्ते चबाना. पेनाल्टी में बाबा रामदेव के तीन आसन भी करो. ये सब करने से बेहतर है प्रभु श्रीराम के तीर खाकर मर जाना.’

‘ये सब करते रहें महाराज, विजयादशमी में अभी महीना भर बाकी है, इन्फेक्शन कभी भी लग सकता है.’

इग्नोर मारा उन्होंने. हँसते रहे. कांफिडेंट लगे कि कोरोना भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. मरने से वे वैसे भी नहीं डरते. हर साल मरते ही हैं, अगले बरस फिर जी उठेंगे. लंकेश हमेशा जीवित रहेंगे.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर,

उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 34 ☆ नाले पर ताला ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “नाले पर ताला”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 34 – नाले पर ताला ☆

बरसाती उफान आते ही नालों की पूछ परख बढ़ जाती है। तेज बारिश में सड़कें  अपना अस्तित्व मिटा नाले में समाहित होकर, नाले के पानी को घर  तक पहुँचा देतीं हैं। सच कहूँ तो अच्छी बारिश होने का मतलब है, शहर का जलमग्न होना। जितना बड़ा शहर उतनी ही बड़ी उसके जलमग्न होने की खबर।

पहली बारिश में ही जन जीवन अस्त- व्यस्त हो, नगर निगम द्वारा किये गए; सफाई के कार्यों की पोल खोल कर रख देता है। सड़क पर चल रहे वाहन वहीं थम जाते हैं। और तो और सड़कों पर नाव चलने की खबरें भी टीवी पर दिखाई जाती है। इतने खर्चे से नालों का निर्माण होता है। सफाई होती है, शहर का विकास व  सारे घर नगर निगम की अनुमति से ही बनते हैं, फिर भी जल निकासी की सुचारू व्यवस्था नहीं दिखती।

कारण साफ है कि सबको अपनी – अपनी जेब भरने से फुर्सत मिले तब तो सारे कार्यों को करें। नालों की चौड़ाई अतिक्रमण का शिकार हो रही है,और गहराई कचरे का। बहुत से लोग इसे डस्टबीन की तरह प्रयोग कर सारा कचरा इसमें ही फेंकते हैं।

जब हल्ला मचता है, तो नेता जी सहित नगर निगम के कर्मचारी आकर सर्वे करते हैं, और मुआवजा देने की बात कह कर आगे बढ़ जाते हैं। आनन- फानन में सभी लोग अपने नुकसान की पूर्ति हेतु, आधार कार्ड व बैंक पासबुक की फ़ोटो कापी जमा कर देते हैं।

वर्ष में तीन- चार बार तो बाढ़ पीड़ितों की चर्चा; अखबारों की सुर्खियाँ बनतीं हैं। सचित्र,लोगों के दुख दर्द, का व्योरा प्रकाशित होता है। नालों पर बनें हुए घर, दुकान व अन्य अतिक्रमण की भी फोटो छपती है। लोगों को जमीन की इतनी भूख होती है, कि वे जल निकासी कैसे होगी इसका भी ध्यान नहीं देते। जहाँ जी चाहा वैसा बदलाव अपने आशियानें में कर देते हैं। नाला तो मानो सबकी बपौती है, इस पर  कोई दुकान, कोई अपनी बाउंडरी बाल या कुछ नहीं तो सब्जियाँ ही उगाने लगता है। ऐसा लगता है, कि सारे कार्य इसी जमीन पर होने हैं।

सारे लोग जागते ही तभी हैं, जब आपदा सिर पर सवार हो जाती है, कुछ दिन रोना- धोना करके, पुनः अपने ढर्रे पा आ जाते हैं।

खैर डूबने – उतराने  का खेल तो इसी तरह चलता ही रहेगा, आखिरकार यही तो सबसे बड़ा गवाह बनता है, कि इस शहर में, प्रदेश में,  सूखा नहीं रहा है। जम कर बारिश हुई है, जिससे फसल भरपूर होगी। और हर किसान मुस्कायेगा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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