श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

(आज शाम 7 बजे उपरोक्त कार्यक्रम में वरिष्ठ व्यंग्यकार आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी की पुस्तक ‘वे रचनाकुमारी को नहीं जानते’ का ऑनलाइन लोकार्पण एवं रचनापाठ आयोजित है जिसे आप zoom meeting के उपरोक्त लिंक पर देख/सुन सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 11 ☆

☆ व्यंग्य – विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन 

लंकेश खुश हैं. इसलिये नहीं कि इस दशहरे वे मारे नहीं जायेंगे बल्कि इसलिये कि वे इस बार भी प्रभु के तीर से ही मरेंगे, कोरोना से नहीं. मैंने कहा – ‘आप इतने कांफिडेंस से कैसे कह सकते हो ? कोरोना आपको भी हो सकता है.’

‘नहीं होगा. तुमने ही हमें सौ फीट से ऊंचा बनाया है, कोरोना की हिम्मत नहीं कि हमारी नाक तक पहुँच जाये.’

‘नाक कितनी ही ऊपर क्यों न हो महाराज, कोरोना की जद से बाहर नहीं है. आर्यावर्त में कितने हैं ज़िन्दगीभर ऊंची नाक लिये घूमते रहे – कोरोना ने उनकी भी काट दी. पता है जब वे गरीबों की बस्ती से गुजरते थे तो नाक पर रुमाल रख लिया करते थे, अब खुद के घर में नाक पर रुमाल बाँधकर घूमना पड़ता है. इस मामले में कोरोना ने समाजवाद ला दिया है.’

लंकापति थोड़ा रुके, हँसे और बोले – ‘दशहरे तक जिलाये रखने की जिम्मेदारी तो दशहरा कमिटी की है. मैं उस दिन तक क्यों डरूं ?’

‘बात तो सही कह रहे हो महाराज, लेकिन ओवरकांफिडेंस में कहीं पहले ही निपट गये तो त्यौहार का मजा किरकिरा हो जायेगा.’

‘मजा तो वैसे भी नहीं ले पाओगे तुम. मुझे मरता देखने आ नहीं सकोगे.  बीस से ज्यादा की परमिशन है नहीं, इत्ते तो कमिटी के मेम्बरान ही होते हैं.’

‘तब भी, कम से कम मास्क तो लगा लेते दशानन.’

‘आर्यावर्त के नागरिक एक नहीं लगा रहे, तुम हमें दस की सलाह दे रहे हो. बीस रूपये का एक पड़ता है डिस्पोजेबल मास्क, दो सौ रूपये रोज़ का टेंशन है शांतिभैया. जीएसटी कलेक्शन कम होता जा रहा है. कलयुग में कमायें-खायें कि मास्क जैसी आईटम पर खर्चा करें ? और फिर हमारी नियति में तो प्रभु श्रीराम के हाथों नाभि में तीर से मरना लिखा है. सुख बस ये कि मरने के पहले चौदह दिन के क्वारंटीन से गुजरना नहीं पड़ेगा. हाsssहाsssहाsss’

लंकेश इस बात पर बेहद खुश नज़र आये कि उन्हें क्वारंटीन सेंटर में नहीं जाना पड़ेगा. उन्होंने आर्यावर्त में अपने गुप्तचर भेजकर कुछेक ग्रामीण और अर्धशहरी सेंटर्स के बाबत पता लगा लिया था. बोले – ‘शांतिभैया अगर घर से भोजन और पानी की व्यवस्था न हो तो आदमी कोरोना से पहले भूख से मर जाये. बिजली है नहीं, रात होते ही घुप अंधेरा छा जाता है. मच्छर एक मिनट चैन से बैठने नहीं देते. कहीं वक्त दो वक्त का भोजन दिया जा रहा है तो वहां पीने के पानी की समस्या है. शौचालय में गंदगी है. पंखा है नहीं, हैंडपंप भी सूखा है बाल्टी, मग, साबुन की व्यवस्था तो विलासिता समझो. जेल से बदतर हैं कस्बे के क्वारंटीन सेंटर.’

‘क्षमा करें महाराज, आजकल होम क्वारंटीन की सुविधा भी है.’

इस पर वे उदास हो गये. बोले – ‘महारानी मंदोदरी माने तब ना – वाट्सअप में क्या क्या पढ़ रखा है उसने. अभी तो कुछ हुआ ही नहीं है तब भी सुबह सुबह खाली पेट गरम पानी पिओ, फिर उबलता काढ़ा. भोजन नली झार झार हो उठती है. जलन कम हुई नहीं कि कटोरीभर के अदरक का रस ले आती है. फिर शुरू होता है सिलसिला सिकी अजवाइन चबाने का, निपटे तो भुनी अलसी, कुटा जीरा, पिसा धनिया. तेजपान का अर्क, कच्चे करेले का सलाद, लोंग का पानी, हल्दी का जूस, काली-मिर्ची का सत, हरी मिर्ची का शेक, लाल मिर्ची का धुँआ, और नासिकानली में खौलता कड़वा तेल. और वो नाम से ही उल्टी करने का मन करता है – वो क्या कहते हैं गिलोय के पत्ते चबाना. पेनाल्टी में बाबा रामदेव के तीन आसन भी करो. ये सब करने से बेहतर है प्रभु श्रीराम के तीर खाकर मर जाना.’

‘ये सब करते रहें महाराज, विजयादशमी में अभी महीना भर बाकी है, इन्फेक्शन कभी भी लग सकता है.’

इग्नोर मारा उन्होंने. हँसते रहे. कांफिडेंट लगे कि कोरोना भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. मरने से वे वैसे भी नहीं डरते. हर साल मरते ही हैं, अगले बरस फिर जी उठेंगे. लंकेश हमेशा जीवित रहेंगे.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर,

उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Shantilal Jain

Thank you Bawankar Ji