हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पेड़ और तिनके… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता ☆ पेड़ और तिनके… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

आत्मकथ्य: कोरोना के खाली दिनों में पुरानी डायरी से मिली यह कविता:पेड़ और तिनके। 6 जून, 1981 की। कभी प्रकाशित भी नहीं करवाई। आज आपकी अदालत में
एक मजेदार बात और बता दूं । यह मेरी डायरी पर मेरे बोलने पर लिखावट तरसेम गुजराल की है। यानी मैं बोलता रहा और वे लिखते रहे जुगलबंदी

बहुत बाद में

मालूम हुआ कि

पेड़ कहीं नहीं भागते, न आगे, न पीछे

पेड़ तो रहते हैं जड़

एक स्थान पर

फलते फूलते बसाते हैं घर ।

भागते तो हम हैं

यहां से वहां

फिर वहां से यहां

रोज़ी रोटी की तलाश में

प्रवासी मजदूरों की तरह ।

जी जनाब

यह आज की नहीं है बात

युगों युगों से यही है इतिहास

तिनके जब तक रहेंगे अकेले

तिनके जब तक नहीं देंगे

एक दूजे का साथ

तब तक यही होगा हाल ।

हालांकि तिनके अगर मिल जायें तो

वो तिनके नहीं

रस्सा कहलायेंगे और हर किसी के

गले का फंदा बन सकेंगे ।

जी का जंजाल बन सकेंगे

बस भेद की

इतनी सी है बात ।

पर पेड़ के सामने हमारी क्या बिसात ?

पेड़ इकट्ठे रहते हैं

और बाग बन जाते हैं ।

हर सुरक्षा के हकदार हो जाते हैं

उनकी सुरक्षा बढ़ जाती है

आंख तन जाती है

जो कोई बाग के फल फूल देखे ।

और जगह जगह बिखरे रहने से

हम सिर्फ तिनके कहलाते हैं

हर किसी के पांव तले कुचले जाते हैं ।

पेड़ और पेड़ों के पहरेदार

हमारा तमाशा देखते हैं

हमारा साथ कभी नहीं देते

इसलिए कि हम हमेशा

हवा में उड़ते

तिनके जैसे होते हैं

और आप अच्छी तरह जानते हैं कि

तिनकों के पैर तले कोई ज़मीन नहीं होती

हमारी भी कोई जड़ नहीं

और वे पेड़?

क्या बात करते हैं आप ?

युगों युगों से

जमीन में कहीं भीतर तक

अपनी जड़ें जमाये

किसी विजेता की तरह

बांहें फैलाये रहते हैं

आप ही कहिए

हमारी क्या बिसात ?

 

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – सूत्र  ??

बित्ता भर करता हूँ

गज भर बताता हूँ

नगण्य का अनगिन करता हूँ

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

 

सूत्र उलट देता हूँ

बेशुमार हथियाता हूँ

कमी का रोना रोता हूँ

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

 

धर्म, नैतिकता, सदाचार

सारा कुछ दुय्यम बना रहा

आदमी का मुखौटा जड़े पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

 © संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 108 ☆ गज़ल – इंसान तो वही है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 108 ☆

☆ गज़ल – इंसान तो वही है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

पूरी उम्र लग गई आशियाँ बनाने में।

पल भर नहीं लगता उसको ढहाने में।

 

ये लोगो मत दो दुख एक – दूसरे को यहाँ,

चुटकियां लगती हैं आदमी को जाने में।।

 

इंसान तो वही है, जो दूसरों के काम आए।

आदमी ही क्या, जो खपा खुद के कमाने में।।

 

जीवन गुजर गया , न सुधर पाए आलसी,

उम्र ही बीती उनकी,  कर – कर बहाने में।।

 

कहाँ ये देश जगा, भाषा, जाति झगड़े में,

अनगिन हवन हो गए , इसको जगाने में।।

 

वक्त थोड़ा खुद समझ, ये नासमझ आदमी,

न मिलेगा जन्म, धरा को फिर से पाने में।।

 

मत बढ़ा समस्याएँ, खुद सुलझा भी ले मनुज,

मत बर्बाद कर समय, ताने व उलाहने में।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #114 – बालगीत – पानी चला सैर को ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बाल गीत  – “पानी चला सैर को।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 114 ☆

☆ बालगीत – पानी चला सैर को ☆ 

पानी चला सैर को 

संगी-साथी से मिल आऊ.

 

बादल से बरसा झमझम 

धरती पर आया था.

पेड़ मिले न पौधे 

देख, मगर यह चकराया था.

कहाँ गए सब संगी-साथी 

उन को गले लगाऊं.

 

नाला देखा उथलाउथला 

नाली बन कर बहता.

गाद भरी थी उस में 

बदबू भी वह सहता .

उसे देख कर रोया 

कैसे उस को समझाऊ.

 

नदियाँ सब रीत गई 

जंगल में न था मंगल.

पत्थर में बह कर वह 

पत्थर से करती दंगल.

वही पुराणी हरियाली की चादर 

उस को कैसे ओढाऊ.

 

पहले सब से मिलता था 

सभी मुझे गले लगते थे.

अपने दुःख-दर्द कहते थे 

अपना मुझे सुनते थे.

वे पेड़ गए कहाँ पर 

कैस- किस को समझाऊ. 

 

जल ही तो जीवन है 

इस से जीव, जंतु, वन है.

इन्हें बचा लो मिल कर 

ये अनमोल हमारे धन है.

ये बात बता कर मैं भी 

जा कर सागर से मिल जाऊ. 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/05/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (6 -10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (6 – 10) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

चन्द्र-ज्योत्सना कुमुदपति में ज्यों होती लीन।

त्यों कुश के संग हो सती कुमुद भी हुई विलीन।।6।।

 

कुश ने पाया स्वर्ग में अर्द्ध इन्द्रासन भाग।

इन्द्राणी की सखी हुई कुमुद भी पा पारिजात।।7।।

 

कुश के अंतिम वचन का रख मन मे अनुदेश।

बुद्ध मंत्रियों ने किया ‘‘अतिथि’’ का राजभिषेक।।8।।

 

बुला मिस्त्रियों को कहा करने नव निर्माण।

चौखम्भों पर वेदिका अभिषेक हित आसान।।9।।

 

भद्रपीठ पर बिठा तब अतिथि को सह सम्मान।

तीर्थ जलों से कराया सचिवों ने स्नान।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#130 ☆ गीतिका – जिसमें जितना गहरा जल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय गीतिका  जिसमें जितना गहरा जल है…)

☆  तन्मय साहित्य # 130 ☆

☆ गीतिका – जिसमें जितना गहरा जल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जिसमें जितना गहरा जल है

वही नदी उतनी निर्मल है।

 

खण्ड-खण्ड हो गए घरौंदे

दीवारों के मन में छल है।

 

संवादों में अब विवाद है

डरा हुआ आगामी कल है।

 

उछल रहे कुछ प्रश्न हवा में

जिनका कहीं न कोई हल है।

 

इधर कुआँ उत गहरी खाई

बीच राह गहरा दलदल है।

 

प्यास बुझाने को बस्ती में

थका हुआ सरकारी नल है।

 

कस्तूरी की मोहक भटकन

नाप रहे असीम मरुथल है।

 

आँखों से कुछ नहीं सूझता

कानों सुनी गूँज उज्ज्वल है।

 

अपना आँगन कीच भरा है

उनके आँगन खिले कमल है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 25 ☆ कविता – छोटी बहन ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “छोटी बहन”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 25 ✒️

?  कविता – छोटी बहन — डॉ. सलमा जमाल ?

(एकल परिवार के इकलौते बच्चौं को समर्पित)

अगर मेरी छोटी बहन होती,

बहुत ही लाड़- लड़ाता मैं ।

रक्षाबंधन के त्यौहार पर,

उससे राखी बंधवाता मैं ।।

 

आंगन में वह नन्ही सी गुड़िया,

ठुमक- ठुमक ,छम -छम चलती,

गिरकर उठती, उठकरगिरती,

चलकर बार- बार फिसलती,

नए- नए बहाने से रोती,

गोदी ले बहलाता मैं ।

रक्षाबंधन ————-।।

 

 रोक-टोक उसको नासुहाती,

 सब से नाराज़ हो जाती,

 मम्मी पापा पूछें, क्या है ?

 इशारे से वह बतलाती,

 खेल- खिलौने सब दे-देता,

 घोड़ा बन पीठ बिठाता मैं ।

 रक्षाबंधन—————।।

 

 नई-नई बस्ता बोतल होती,

 सुबह बुआ टिफिन लगाती,

 दादी कहे स्कूल ना जा,

” सलमा”जबरन पहुंचाती,

 जूता, मोजा, ड्रेस, वह टाई,

 पहना शाला ले जाता मैं ।

 रक्षाबंधन—————-।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गज़ल – टूट जाता है रोज रात में… ☆ श्री श्याम संकत ☆

श्री श्याम संकत

(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन।  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है आपकी एक गज़ल –  ‘टूट जाता है रोज रात में…’

☆ कविता ☆ गज़ल –  टूट जाता है रोज रात में…☆ श्री श्याम संकत ☆ 

किसी के पेट में जब आग कहीं जलती है

भूख नागिन सी वहां केचुली बदलती है

 

मिलेगा क्या वहां लज़ीज़ भाषणों के सिवा

भीड़ की जीभ जहां स्वाद को मचलती है

 

किसी के घर में चहकती है उजालों की किरण

किसी के आंगने दर्दों की शाम ढलती है

 

टूट जाता है रोज रात में सपनों का महल

नींद उम्मीद में खुद जब भी उठ के चलती है

 

जिंदगी को न समझ लेना एक भोली बिटिया

चंद बोसे और खिलौनों से जो बहलती है।।

 

© श्री श्याम संकत 

सम्पर्क: 607, DK-24 केरेट, गुजराती कालोनी, बावड़िया कलां भोपाल 462026

मोबाइल 9425113018, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (1 – 5) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

कुश से पाया कुमद ने पुत्र ‘‘अतिथि’’ तब आप्त।

जैसे ब्राह्म मुहूर्त से बुद्धि करे सुख प्राप्त।।1।।

 

जैसे दोनों अयन रवि से होते हैं शुद्ध।

तैसहि दोनों कुल हुये पाके ‘‘अतिथि’’ प्रबुद्ध।।2।।

 

योग्य पिता ने अतिथि को पढ़ा कुलोचित पाठ।

करा दिया परिणय उचित कुमारियों के साथ।।3।।

 

कुश ने पाकर पुत्र को निज सम शूर जितेन्द्रिय।

माना उसका ही है वह युवा रूप एक अन्य।।4।।

 

निज कुल के अनुरूप कर कुश ने इन्द्र-सहाय।

संहारे दुर्जय असुर, पर गये मारे हाय।।5।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 31 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 31 – मनोज के दोहे

(बरजोरी, चूनर, अँगिया, रसिया, गुलाल)

बरजोरी

बरजोरी हैं कर रहे, ग्वाल-बाल प्रिय संग।

श्याम लला भी मल रहे, गालों पर हैं रंग।।

 

चूनर

चूनर भीगी रंग से, कान्हा से तकरार।

राधा भी करने लगीं, रंगों की बौछार।

 

अँगिया

फागुन का सुन आगमन, होती अँगिया तंग।

उठी हिलोरें प्रेम की, चारों ओर उमंग।।

 

रसिया

रसिया ने फिर छेड़ दी, ढपली लेकर तान।

ब्रज में होरी जल गई, गले मिले वृजभान।।

 

गुलाल

रंगों की बरसात हो, माथे लगा गुलाल।

मिले गले फिर हैं सभी, करने लगे धमाल।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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