हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 251 ☆ आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-2 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेखों की शृंखला – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 251 ☆

? आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-2 ?

लंका :-

अयोध्या, जनकपुर के बाद जो एक बड़ी नगरी मानस में वर्णित है, वह हे रावण की सोने की लंका। लंका में एक स्वतंत्र भव्य प्राचीन बाटिका है, “अशोक वटिका” जहाँ रावण ने अपहरण के बाद माँ सीता को रखा था। लंका का वर्णन एक किले के रूप में है –

गिरि पर चढ़ी लंका तह देखी ।

कहि न जाइ अति दुर्ग विशेषी ।।

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदराय तना घना ।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीशीं, चारूपुर बहु बिधि बना ।।

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गने ।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहीं बनें ॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापी सोहहिं ।

नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहिं ।।

सुन्दर काण्ड 5/3 लंका सोने की है। वहां सुन्दर-सुन्दर घर है। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियां है। नगर बहुत तरह से सजा हुआ है। नगर की रक्षा हेतु चारों ओर सैनिक तैनात है। नगर में एक प्रवेश द्वार है। लंका में विभीषण के महल का वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि –

 रामायुध अंकित गृह शोभा वरनि न जाय । नव तुलसिका वृंद तहं देखि हरषि कपिराय ।।

रावण के सभागृह का वर्णन, लंकादहन एवं श्रीराम दूत अंगद के प्रस्ताव के संदर्भ में मिलता है। इसी तरह समुद्र पर तैरता हुआ सेतु बनाने का प्रसंग वर्णित है जिसमें समुद्र स्वयं सेतु निर्माण की प्रक्रिया श्रीराम को बताता है।

 भी “नाथ नील” नल कपि दो भाई। लरकाई ऋषि आसिष पाई ।

तिन्ह के परस किए गिरि भारे। तरहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ।।

‘एडम्स ब्रिज’ के रूप में आज भी भौगोलिक नक्शे पर इसके अवशेष विद्यमान है। यांत्रिकीय उन्नति के उदाहरण स्वरूप पुष्पक विमान, आयुध उन्नति के अनेक उदाहरण युद्धों में प्रयुक्त उपकरणों के मिलते हैं। स्थापत्य जो आधारभूत अभियांत्रिकी है, के अनेक उदाहरण विभिन्न नगरों के वर्णन में मिलते है। ये उदाहरण गोस्वामी तुलसीदास के परिवेश एवं अनुभव जनित एवं भगवान राम के प्रति उनके प्रेम स्वरूप काव्य कल्पना से अतिरंजित भी हो सकते है, किन्तु यह सुस्पष्ट है कि मानस के अनुसार राम के युग में स्थापत्य कला सुविकसित थी। अंत में यह आध्यत्मिक उल्लेख आवश्ययक जान पड़ता है कि सारे सुविकसित वास्तु और स्थापत्य के बाद भी श्रीराम बसते है मन मंदिर में।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 241 ⇒ एक लोटा जल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…।)

?अभी अभी # 241 ⇒ एक लोटा जल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सन् १९७१ में के. ए.अब्बास की एक फिल्म आई थी, दो बूंद पानी, जिसमें परवीन सुल्ताना और मीनू पुरुषोत्तम का एक बड़ा प्यारा सा गीत था ;

पीतल की मोरी गागरी,

दिल्ली से है मोल मंगाई !

यहां विरोधाभास देखिए, कहां दो बूंद पानी और कहां पीतल की गागरी, यानी वही ऊंट के मुंह में जीरा।

एक लोटा जल, हमारा आदर्श सनातन माप है, एक लोटे जल में प्यासे की प्यास भी बुझ जाती है, और रसोई के भी कई काम निपट जाते हैं। लाठी में गुण की तो बहुत बात कर गए गिरधर कविराय, लेकिन कभी किसी भले आदमी ने एक लोटा जल के महत्व पर प्रकाश नहीं डाला।।

लोटा और बाल्टी किस घर में नहीं होते। बचपन में सुबह नहाते वक्त ठंडा गरम, जैसा भी जल उपलब्ध हो, जब लोटे से स्नान किया जाता था, तो मुंह से ॐ नमः शिवाय निकल ही जाता था। एक पंथ दो काज, खुद का स्नान और शिव जी का अभिषेक भी। आत्म लिंग शिव तो सर्वत्र व्याप्त और विराजमान है, मुझमें भी और तुझ में भी।

शिव जी ने गंगा को अपनी जटा में स्थान दिया और जटाशंकर कहलाए। नर्मदा नदी का हर कंकर एक शंकर है, जिसका हर पल नर्मदा मैया की लहरों द्वारा अभिषेक होता है। महाकाल उज्जैन में रोज प्रातः भस्म आरती होती है, और तत्पश्चात् शिव जी का अभिषेक होता है। जिसका लाइव दर्शन व्हाट्सएप पर करोड़ों श्रद्धालु नियमित रूप से करते हैं।।

सब एक लोटा जल की महिमा है। सभी मंदिरों में आपको शिवजी और नंदी महाराज भी प्रतिष्ठित मिलेंगे। श्रद्धालु जाते हैं, एक लोटा जल से शिवजी का अभिषेक करते हैं, और नंदी के कान में भी कुछ कहने से नहीं चूकते।

कर्पूरगौरं करूणावतारं

संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।

सदा वसन्तं हृदयारविन्दे

भवं भवानि सहितं नमामि।।

पूजा आरती कहां इस मंत्र के बिना संपन्न होती है।

संत महात्मा जगत के कल्याण का बीड़ा उठाते हैं, कथा, सत्संग, प्रवचन, निरंतर चला ही करते हैं। कुछ लोग सुबह एक लोटा जल सूर्यनारायण को भी नियमित रूप से अर्पित करते हैं। जल ही जीवन है, एक लोटा जल के साथ यह जीवन भी आपको समर्पित है। तेरा तुझको अर्पण। ईश्वर और प्रकृति में कहां भेद है।।

सीहोर के संत ने तो एक लोटा जल की मानो अलख ही जगा दी है। चमत्कार को नमस्कार तो हम करते ही हैं। शिवजी को समर्पित एक लोटा जल का चमत्कार देखिए, उनके प्रवचन में लाखों भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। साधारण सी बात असाधारण तरीके से समझाए वही तो होते हैं, संत ही नहीं राष्ट्रीय संत।

आप इनकी महिमा और करुणा तो देखिए, लाखों भक्तों को मुफ्त में रुद्राक्ष वितरित कर रहे हैं। श्रद्धालुओं की भीड़ संभाले नहीं संभल रही है। बेचारे शिक्षकों को भी स्वयंसेवक बन अपनी सेवा देनी पड़ रही है।।

आप भी शिव जी को एक लोटा जल तो चढ़ाते ही होगे। उनकी कथाएं शिव पुराण पर ही आधारित होती हैं। संसार में अगर दुख दर्द ना होता, तो कौन ईश्वर और इन संतों की शरण में जाता। भक्ति, विवेक और वैराग्य अगर साथ हो, तो शायद इंसान इतना हर जगह ना भटके। आखिर किसी की शरण में तो जाना ही पड़ेगा इस इंसान को ;

लाख दुखों की एक दवा

सिर्फ एक लोटा जल ….

पहले किसी प्यासे को एक लोटा जल पिलाइए, उसका दुख दर्द मिटाइए, फिर प्रेम से शिवजी को भी जल चढ़ाइए।।

कितने भोले होते हैं ये भोले भंडारी के कथित देवदूत, इतनी यश, कीर्ति और प्रचार के बावजूद बस इतना ही विनम्र भाव से गाते रहते हैं ;

मेरा आपकी कृपा से

सब काम हो रहा है।

करते हो तुम भोले,

मेरा नाम हो रहा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 240 ⇒ घड़ी और समय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घड़ी और समय।)

?अभी अभी # 240 ⇒ घड़ी और समय… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमें समय दिखाई नहीं देता, फिर भी हर घड़ी, हर पल, समय बदलता रहता है। समय को देखने के लिए हमारे पास घड़ी है। समय कभी नहीं बजता, फिर भी हमें तसल्ली नहीं होती, घड़ी देखते रहते हैं, कितना बजा ! घंटे की आवाज सुनकर, अलार्म लगाकर हमें पता चलता है, कितना बजा, कितनी बजी।

घड़ी की टिक टिक और हमारे दिल की धड़कन में भी बड़ी समानता है। अगर उधर टिक टिक, तो इधर धक धक। उधर इंतजार की घड़ियां और इधर दिल की धड़कन। इंतजार और अभी, और अभी, और अभी।।

समय देखने के लिए अगर हमारे पास घड़ी है, तो तारीख और तिथि देखने के लिए कैलेंडर और पंचांग।

वेतन के लिए हम तारीख देखते हैं और शुभ मुहूर्त के लिए तिथि और वार। शुभ समय के निर्धारण के लिए घड़ी नहीं, चौघड़िया देखा जाता है। हमारे अच्छे बुरे समय का निर्णय घड़ी से नहीं, काल निर्णय से होता है। सिर्फ अपनी ही नहीं, ग्रहों की दशा भी देखी जाती है।

दिन रात बदलते हैं,

हालात बदलते हैं।

साथ साथ मौसम के

फूल और पात बदलते हैं:

और कैलेंडर भी हर साल बदलते हैं।।

नए कपड़ों की ही तरह लोग नए वर्ष की भी खुशी मनाते हैं। कोई जीन्स पहन रहा है तो कोई धोती कुर्ता ! यह साल मेरा नहीं। हिंदू तिथि और पंचांग वाला साल मेरा है। खुशी तो खुशी है, वक्त क्या तेरा मेरा। जन्म मरण कहां चौघड़िया और कैलेंडर देखते हैं। हां, जन्म तो फिर भी तारीख, तिथि और मुहूर्त से होने लग गया है। सिजेरियन जिंदाबाद। जो भविष्य दृष्टा होते हैं, उनकी बात और है, आम आदमी के लिए तो आज भी जिंदगी एक पहेली ही है और मौत अंतिम सत्य।

आपको आपका नव वर्ष मुबारक चाहे वह अब वाला हो या आगामी ९ अप्रैल २०२४ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि। गया दिसंबर आई जनवरी। हो सकता है सभी हिंदू उत्सव इस बार २२ जनवरी को ही धावा बोल दें। असली काउंट डाउन तो यही है। जब वक्त ठहर जाएगा, इतिहास बदल जाएगा और इस देश में फिर से रामराज्य की स्थापना हो जाएगी। शायद अच्छे समय और अच्छी घड़ी की यह जुगलबंदी हो। नेपथ्य में कहीं से तथास्तु की ध्वनि कानों में पड़ रही है।

Be it so ! शुभ शुभ सोचें स्वागत नव वर्ष २०२४ …..

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 250 ☆ आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख की शृंखला – “रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन” का पहला भाग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 250 ☆

? आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-1 ?

रामचरित मानस विश्व का ऐसा महान ग्रंथ है, जिसे शोध कीजिस दृष्टि से देखा जावे, तो अध्येता इतना कुछ पाता है, कि वह उसे चमत्कृत कर देने को पर्याप्त होता है। रामचरित मानस की मूल कथा में अयोध्या, जनकपुर, लंका, चित्रकूट, नन्दीग्राम, श्रंगवेरपुर, किष्किंधा, कैकेय, कौशल आदि नगरों, राज्यों का वर्णन मिलता है। रामजन्म भूमि प्रकरण की राष्ट्रीय ज्वलंत समस्या के निराकरण हेतु न्यायालय के आदेश पर, इन दिनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के विशेषज्ञ, अयोध्या के विवादित स्थल पर उत्खनन कार्य कर रहे है। सारा देश इस उत्खनन के परिणामों की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस अवधपुरी का वर्णन करते हुए लिखा है:-

 अयोध्या

बंदऊ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कालि कलुष नसावनि ॥ (प्रसंग : वन्दना)

बालकाण्ड 1/16

 अवधपुरी सोइहि एहि भाँती । प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥ (प्रसंग : रामजन्म)

 बालकाण्ड 2/195

 इसी तरह रामविवाह के प्रसंग में भी अयोध्या का वर्णन मिलता है –

 जद्यपि अवध सदैव सुहावनि । रामपुरी मंगलमय पावनि ॥ तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई ॥

 बालकाण्ड 3/296

इसी प्रसंग में गोस्वामी जी लिखते है कि रामविवाह की प्रसन्नता में, माँ सीता के नववधू के रूप में स्वागत हेतु अयोध्यावासियों ने अपने घर सजा कर अपनी भावनायें इसी तरह अभिव्यक्त की।

मंगलमय निज-निज भवन, लोगव्ह रचे बनाई । बीथी सींची चतुर सम, चौके चारू पुराई ।।

बालकाण्ड 296 राजा दशरथ के देहान्त एवं राम वन गमन के प्रसंग में भी अयोध्या के राजमहल का वर्णन मिलता है :-

गए सुमंत तब राउर माही। देखि भयावन जातं डेराहीं ॥ (राउर अर्थात राजमहल)

 अयोध्या काण्ड 2/38

अयोध्या का नगर एवं प्रासाद वर्णन पुनः उत्तर काण्ड में मिलता है, जब श्रीर। म वनवास से लौटते है।

बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन विमान । देखि मधुर सुर हरषित करहि सुमंगल गान ॥

उत्तरकाण्ड /3 ख

जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना । वेद पुरान विदितजग जाना । अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ । यह प्रसंग जानड़ कोऊ कोऊ ॥

उत्तरकाण्ड 2/4

 जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ।

उत्तरकाण्ड 3/4

रामराज्य के वर्णन के प्रसंग के अंतर्गत भी अवधपुरी के भवनों, सडकों, बाजारों का विवरण मिलता है।

जातरूप मनि रचित अटारी । नाना रंग रूचिर गच ढारी ॥

पुर चहुं पास कोट अति सुन्दर । रचे कंगूरा रंग-रंग वर ।।

स्वर्ण और रत्नों से बनी हुई अटारियां है। उनमें मणि, रत्नों की अनेक रंगों की फर्श ढली है। नगर के चारों ओर सुन्दर परकोटा है। जिस पर सुन्दर कंगूरे बने है।

नवग्रह निकर अनीक बनाई । जनु घेरी अमरावति आई ।।

मानों नवग्रहों ने अमरावति को घेर रखा हो।

धवल धाम ऊपर नग चुंबत । कलस मनहुं रवि ससि दुति निंदत ॥ उज्जवल महल ऊपर आकाश को छू रहें है, महलों के कलश मानो सूर्य-चंद्र की निंदा कर रहे है, अर्थात उनसे ज्यादा शोभायमान है।

छंद-

मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरी विदुम रची ।

मनि खंब भीति, विरचि विरचि कनक मनि मरकत खची । 

सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे ।

प्रति द्वार-द्वार कपाट पुरट बनाई बहु बजहिं खचे ॥

घरों में मणियों के दीपक हैं। मूंगों की देहरी है। मणियों के खम्बे है।

पन्नों से जड़ित दीवारें ऐसी है, मानों उन्हें स्वयं ब्रम्हा जी ने बनाया हो। महल मनोहर और विशाल है। उनके आगंन संगमरमर के है। दरवाजे सोने के हीरे लगे हुये है।

चारू चित्रसाला गृह-गृह प्रति लिखे बनाई । राम चरित जे निरख मुनि, ते मन लेहि चौटाई ॥

सुमन बाटिका सबहि लगाई । विविध शाति करि जतन वनाई ।।

घर-घर में सुन्दर चित्रांकन कर राम कथा वर्णित है। सभी नगरवासियों ने घरों में पुष्प वाटिकायें भी लगा रखी है।

छंद-

बाजार रूचिर न बनई बटनत वस्तु बिनु गश्च पाइये । जहं भूप रमानिवास तहं की संपदा किमि गाइये ।

बैठे बजाज, सराफ बनिक, अनेक मनहुं कुबेर ते । सब सुखी, सब सच्चरित सुंदर, नारि नर सिसुजख ते ॥

सुन्दर बाजारों में कपड़े के व्यापारी, सोने के व्यापारी, वणिक आदि इस तरह से लगते है, मानो कुबेर बैठे हों। सभी सदाचारी और सुखी है। इसी तरह सरयू नदी के तट पर स्नान एवं जल भरने हेतु महिलाओं के लिए अलग पक्के घाट की भी व्यवस्था अयोध्या में थी –

दूरि फराक रूचिर सो घाटा, जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ।

पनिघट परम् मनोहर नाना, तहाँ न पुरूष करहि स्नाना ॥

उत्तरकाण्ड 1/29 जल व्यवस्था हेतु बावड़ी एवं तालाब भी अयोध्या में थे । सार्वजनिक बगीचे भी वहाँ थे।

पुट शोभा कछु बरनि न जाई । बाहेर नगर परम् रूचिराई ।

देखत पुरी अखिल अध भागा । बन उपबन बाटिका तड़ागा ।।

उत्तरकाण्ड 4/29 इस प्रकार स्थापत्य की दृष्टि से अयोध्या एक सुविचारित दृष्टि से बसाई गई नगरी थी। जहाँ राजमहल बहुमंजिले थे। रनिवास अलग से निर्मित थे। रथ, घोड़े, और हाथियों के रखने हेतु अलग भवन थे। आश्रम और यज्ञशाला अलग निर्मित थी। पाकशाला अलग बनी थी। शहर में पक्की सड़कें थी। आम नागरिकों के घरों में भी छोटी सी वाटिका होती थी। घर साफ सुथरे थे, जिनकी दीवारों पर चित्रांकन होता था। शहर में सार्वजनिक बगीचे थे। जल स्रोत के रूप में बावड़ी, तालाब, स्त्री एवं पुरुषों हेतु अलग-अलग पक्के घाट एवं कुंए थे। ऐसा वर्णन तुलसीदास जी ने किया है।

 जनकपुरी :-

मानस में वर्णित दूसरा बड़ा नगर मिथिला अर्थात जनकपुरी है। जिसका वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि –

बनई न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाई मन तहंड लाभाई ॥

 उत्तरकाण्ड 1/213

जनकपुर का वर्णन धनुष यज्ञ एवं श्रीराम सीता विवाह के प्रसंग में सविस्तार मिलता है।

जनकपुर में बाजार का वर्णन :-

धनिक बनिक वर धनद समाना । बैठे सकल वस्तु लै नाना ।

चौहर सुंदर गली सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥

अर्थात यहाँ चौराहे, सड़के सुंदर है, जिनमें सुगंध बिखरी है। सुव्यवस्थित बाजारों में वणिक विभिन्न वस्तुयें विक्रय हेतु लिये बैठे है।

मंगलमय मंदिर सब केरे । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरे ।

अर्थात, सभी घरों पर सुंदर चित्रांकन होता था।

भवनों के दरवाजों पर परदे होते थे। किवाड़ों पर सुन्दर नक्काशी और रत्न जड़े होते थे –

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ।

सेनापति, मंत्रिगण आदि के घर भी महल की ही तरह सुन्दर और बड़े थे। घुड़साल, गजशाला, अलग बनी थीं। धनुष यज्ञ हेतु एक सुन्दर यज्ञशाला नगर के पूर्व में बनाई गई थी। जहां लंबा चौड़ा आंगन एवं बीच में बेदी बनाई गई थी। चारों ओर बड़े-बडे मंच बने थे। उनके पीछे दूसरे मकानों का घेरा था। पुष्पवाटिका जहां पहली बार श्रीराम का सीताजी से साक्षात्कार हुआ था, का वर्णन भी गोस्वामी जी रचित मानस में मिलता है। वटिका में मंदिर भी है। बाग के बीचों बीच एक सरोवर है। सरोवर में पक्की सीढ़ियां भी बनी है। इस प्रकार हम पाते है कि स्वयं श्रीराम जिनको चौदहों लोकों का प्रणेता कहा जाता है, जब अपने मानव अवतार में संसारी व्यवहारों से गुजरते है, तो

“मकान” की मानवीय आवश्यकता के अनेक वर्णन उनकी लीला में मिलते है। भगवान विश्वकर्मा, जो देवताओं के स्थापत्य प्रभारी के रूप में पूजित है, जो क्षण भर में मायावी सृष्टि की संरचना करने में सक्षम है, जैसे उन्होनें ही माँ सीता की नगरी बसाई हो, इतनी सुव्यवस्थित नगरी वर्णित है जनकपुर।

क्रमशः… 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

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ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 64 – देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 64 ☆ देश-परदेश – नया सवेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जीवन के छै दशक से भी अधिक का काल बीत गया,कान सुन सुन कर पक गए,अब नया सवेरा आयेगा।

जीवन में खुशियां और सुख की बाढ़ आयेगी।

आज फिर एक और अंग्रेज़ी नव वर्ष आरंभ हो रहा हैं।हम प्रतिदिन की भांति तैयार होकर प्रातः भ्रमण के लिए निकल पड़े। मौसम समाचार और व्हाट्स ऐप के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं के मद्दे नज़र बंदर टोपी के ऊपर मफलर लपेट लिया,ऊनी मोजे , हाथ में चमड़े के दस्ताने,ओवर कोट के ऊपर लाल इमली,कानपुर वाली पुरष शाल लपेट कर अपनी दिनचर्या का पहला कदम मंजिल की तरफ बढ़ा दिया।

घर के बाहर कोहरे की घनी चादर , खड़े हुए वाहनों पर  ओस की परत देखकर मन में अंतरद्वंद चल रहा था,की लोट चले रजाई में वापिस,कल देखेंगे।

व्हाट्स ऐप के ज्ञान ने हमे हिम्मत और सबल दिया,घर की दहलीज पार कर ली।प्रतिदिन की भांति कुछ लोग कान में यंत्र डाल कर भ्रमण करते हुए दृष्टिगोचर हुए।कुछ नए बरसाती मेंढक भी दिखे, हर नव वर्ष पर दो चार दिन ऐसा ही होता हैं।

एक स्थान पर प्लास्टिक के ग्लास ठंडी हवा मे तांडव करते हुए अवश्य दिखें।एक समाज सुधारक ठेकेदार ने विगत रात्रि मुफ्त गर्म दुग्ध वितरण करवाया था।उनको आगामी लोक सभा में पार्टी के टिकट जो प्राप्त करना हैं।

अगले नुक्कड़ पर कुछ अधिक अंधेरा था,लेकिन दस बारह वर्ष के कुछ बच्चे अंधेरे में कुछ खोज रहे थे।वहां कांच की टूटी बोतलें पड़ी थी।बच्चे साबूत बोतलों को डूंड कर   अपनी पेट की क्षुधा को शांत करने की मुहिम में जीजान से लगें हुए थे।

नए सवेरे की इंतजार में रात्रि के अंधेरे में अवश्य मद्यपान वालों की महफिल सजी होगी।नया सवेरा तो कहीं दिख नहीं रहा था।प्रतिदिन की भांति दो दूध वाले सरकारी नल के पास पानी का इंतजार कर रहे थे।उनके मोबाइल से अवश्य आवाज़ आ रही थी,दूध में कितना पानी मिलाएं ?

भ्रमण से वापसी में घर के पास सफाई कर्मचारी सड़क पर फैले हुए जले हुए पटाखे के कचरे को एकत्र करते हुए,परेशान से दिख रहे थे।

कुछ युवा जो क्षेत्र में कार सफाई का कार्य करते है,आपस में बातचीत करते हुए कह रहे थे,आज पहली तारीख है,गाड़ी अच्छे से साफ करनी पड़ेगी।

ये सब तो प्रतिदिन होता है,वो व्हाट्स ऐप पर हजारों संदेश जो कह रहे थे, कि आज नया सवेरा होगा,आशा की किरण होगी,सब तरफ खुशहाली होगी,खुशियों का समुद्र होगा,कहां हैं,कब होगा ? नया सवेरा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगलियों का अंकगणित।)

?अभी अभी # 239 ⇒ उंगलियों का अंकगणित… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं जब सुबह सोकर उठता हूं, तो अपने ही हाथों का दर्शन कर, दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ता हूं, और अपने गर्म हाथों से अपने चेहरे को कोमल स्पर्श द्वारा, एक मां की तरह सहेजता हूं, दुलारता हूं, और ईश्वर का स्मरण करता हूं ;

कराग्रे वसते लक्ष्मी:

करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्द:

प्रभाते करदर्शनम्।।

ये हाथ अपनी दौलत है, ये हाथ अपनी किस्मत है।

हाथों की चंद लकीरों का

बस खेल है सब तकदीरों का।

जिसे हम हस्त कहते हैं, वही अंग्रेजी का palm है, और हस्तरेखा अथवा Palmistry एक विज्ञान भी है। हमारे जगजीतसिंह तो फरमाते हैं ;

रेखाओं का खेल है मुकद्दर

रेखाओं से मात खा रहे हो।

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है जिसको छुपा रहे हो।।

रेखा को ही लकीर भी कहते हैं। हम आज हाथों की नहीं, उंगलियों की लकीरों की बात करेंगे। अगर हमारी पांच उंगलियां नहीं होती, तो क्या हमारा हाथ पंजा कहलाता, क्या हम मुट्ठी बांध और खोल पाते। हमारे हाथ में पांच उंगलियां हैं, जिनमें अंगूठा भी शामिल है।

ज्योतिष का क्या है, हाथों की चंद लकीरें पढ़, शुभ अशुभ के तालमेल के लिए सारे नग उंगलियों की अंगूठी में ही तो आते हैं।

उधर अंगूठे का ठाठ देखो, और thumb impression देखो। नृत्य की मुद्रा, और योग में भी मुद्रा का महत्व उंगलियों की उपयोगिता को सिद्ध करता ही है, इन्हीं उंगलियों पर लोग नाचते और नचाते भी हैं।।

क्या कभी आपने आपकी उंगली पर गौर किया है। हमारी उंगलियों का भी अजीब ही गणित है। हर उंगली में तीन आड़ी लकीरें हैं। यानी ये लकीरें एक उंगली को तीन बराबर हिस्सों में बांटती है। आप चाहें तो इन्हें खाने भी कह सकते हैं। लेकिन मेरे दाहिने हाथ का अंगूठा यहां भी सबसे अलग है, उसमें तीन नहीं चार खाने हैं।

आपने कभी उंगलियों पर हिसाब किया है ! अवश्य किया होगा। लोग तो छुट्टियाँ भी उंगलियों पर ही गिन लेते हैं। सप्ताह में सात दिन हमने उंगलियों पर ही याद किए थे और दस तक की गिनती भी।

बहुत काम आती हैं ये उंगलियां जब कागज कलम नहीं होता।।

जब आज की तरह मोबाइल और कैलकुलेटर नहीं था, तब सब्जी का हिसाब उंगलियों पर ही किया जाता था। दूध के हिसाब के लिए तो कैलेंडर जिंदाबाद।

इन उंगलियों का उपयोग मंत्र जपने के लिए भी किया जा सकता है। आपके एक हाथ की उंगलियों में देखा जाए तो पंद्रह मनके हैं, यानी दो हाथ में तीस। याद है बच्चों को एक से सौ तक की गिनती भी इसी तरह सिखाई जाती थी। रंग बिरंगे प्लास्टिक के मोती एक स्लेटरूपी तार के बोर्ड में पिरो दिए जाते थे।

क्या क्या याद नहीं किया जा सकता इन उंगलियों पर, मत पूछिए। अभी कितने बजे हैं, रात के सिर्फ दो। यानी सुबह होने में, और उंगलियों पर गिनती शुरू, तीन, चार, पांच, छः, यानी बाप रे, चार घंटे कैसे कटेंगे। फिर कोशिश करते हैं, शायद आंख लग जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 218 ☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक चिंतनीय आलेख – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार”)

☆ चिंतन – “विपक्ष की भूमिका में व्यंग्यकार☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हमें ऐसा लगता है कि व्यंग्य कभी भी कहीं भी हो सकता है बातचीत में, सम्पादक के नाम पत्र में, कविता और कहानी आदि में भी। व्यंग्य लिखने में सबसे बड़ी सहूलियत ये है कि “जैसे तू देख रहा है वैसे तू लिख”।

समसामयिक जीवन की व्याख्या उसका विश्लेषण  उसकी सही भर्त्सना एवं विडम्बना के लिए व्यंग्य से बड़ा कारगर हथियार और कोई नहीं। समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन आदि सहन नहीं होता तो व्यंग्य लिखा जाता है। जो गलत या बुरा लगता है उस पर मूंधी चोट करने व्यंग्य बाण छोड़े जाते हैं और कहीं न कहीं से लगता है कि व्यंग्यकार की कलम ईमानदार, नैतिक और रुढ़ि विरोधी को नैतिक समर्थन दे रही है। इसलिए हम कह सकते हैं कि व्यंग्य साहित्य की ही एक विधा है।

साहित्य में व्यंग्य की पहले शूद्र जैसी स्थिति थी, कहानीकार, कवि आदि व्यंग्य को तिरस्कृत नजरों से देखते थे, पत्रिकाएं व्यंग्य से परहेज़ करतीं थीं, पर अब व्यंग्य का दबदबा हो चला है परसाई ने लठ्ठ पटककर व्यंग्य को ऊपर बैठा दिया है, व्यंग्य की लोकप्रियता को देखकर आज कहानीकार, कवि जो व्यंग्य से चिढ़ते थे ऐसे अधिकांश लोग व्यंग्य की शरण में आकर अपना कैरियर बनाने की ओर मुड़ गए हैं।

पाठक अब कहानी के पहले व्यंग्य पढ़ना चाहता हैं, क्योंकि आम आदमी समाज में फैली विषमता, राजनीति में व्याप्त ढकोसला, भ्रष्टाचार, दोगलापन, पाखण्ड और केंचुए की प्रकृति के लोगों के चरित्र को देखकर हैरान हैं,जो पाठक व्यक्त नहीं कर पाता है वह व्यंग्य पढ़कर महसूस कर लेता है। व्यंग्य समाज को बेहतर से बेहतर बनाने की सोच के साथ काम करता है। इसीलिए माना जाता है कि समाज और साहित्य में  व्यंग्य की भूमिका बहुत महत्व रखती है।जब लोकतंत्र को खत्म करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले लगाए जाते हैं, प्रेस और मीडिया बिक जाते हैं तो व्यंग्य और व्यंग्यकार की भूमिका अहम हो जाती है।  व्यंग्यकार अपने व्यंग्य से जनता के बीच चेतना जगाने का काम करता है,समाज में जाग्रति फैलाता है और विपक्ष की भूमिका में नजर आता है, पर इन दिनों नेपथ्य में चुपचाप कुछ यश लोलुप, सम्मान के जुगाड़ू लोग शौकिया व्यंग्यकारों की भीड़ इकट्ठी कर चरवाहा बनकर भेड़ें हांक रहे हैं और व्यंग्य को फिर शूद्र बनाने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, उन्हें समाज और सामाजिक सरोकारों से मतलब नहीं है वे पहले अपने नाम और फोटो से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में तुले हैं,समाज और साहित्य के लिए ये स्थितियां घातक हो सकतीं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 221 – आलेख – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 221 ☆ आलेख – भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’ 

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का संबंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ होनेवाला यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 240 ⇒ बढ़ती का नाम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख  – “बढ़ती का नाम…।)

?अभी अभी # 240 ⇒ बढ़ती का नाम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, चलती का नाम, बढ़ती का नाम और साड़ी का दाम ! लेकिन कबीर की तरह हम सिर्फ गाड़ी से ही नहीं, हमारी बढ़ती दाढ़ी और बढ़ते नाखून से भी परेशान हैं। साड़ी पर तो कबीर भी मौन रहे, इसलिए हम भी मुंह नहीं खोलेंगे।

बाल और नाखून तो खैर हमारे बचपन से ही बढ़ रहे थे। इनके विकास में हमारा कभी कोई योगदान नहीं रहा। सुना है, हम जब छोटे थे, तो जिसकी गोद में जाते थे, उसका चश्मा, टोपी, जेब का पेन, अथवा उनके चेहरे से ही खेलने लग जाते थे। अगर हमारे नाखून थोड़े भी बढ़े हुए होते, तो उनकी खैर नहीं।।

नाखून और बालों को काटो तो दर्द नहीं होता, लेकिन जब हम मां की गोद में खेलते खेलते, उनके बालों से खेलने लग जाते थे, तो मां को दर्द भी होता था। हमने कई दाढ़ी वालों के बाल, अच्छे बच्चे बनकर बहुत नोंचे हैं। लेकिन अब वह सुख कहां। आज भी अगर नंगे पांव चलते वक्त, थोड़ी सी ठोकर लग जाए, तो नाखून से भी खून बहने लगता है।

महिलाओं के बाल बढ़ते हैं, लंबे होते हैं, (जिन्हें शायर ज़ुल्फ कहते हैं), नाखून भी बढ़ते हैं, लेकिन ईश्वर ने उनकी कमनीय काया को दाढ़ी मुक्त रखा है। पुरुष तो उन्मुक्त प्राणी है, वह चाहे तो लिपटन टाइगर जैसी मूंछें रखे, अथवा टैगोर और बिग बी जैसी दाढ़ी। आजकल तो लगता है, हर युवक दाढ़ी वाले ही पैदा हो रहे हैं। कितना विराट व्यक्तित्व लगता है न, आजकल के युवाओं का, दाढ़ी में। कभी कभी तो हमारा मन भी मोदी मोदी करने लगता है, किसी की खूबसूरत दाढ़ी देखकर।।

बाल और नाखून काटना हिंसा में नहीं आता, क्योंकि इन्हें काटने से मर्द अथवा औरत, किसी को दर्द नहीं होता। लेकिन द्रौपदी की तरह अगर किसी के केश खींचे जाएं अथवा केश लोचन किया जाए, तो भाई साहब, दर्द तो होता है।

नाखून और बाल हमारे शरीर रूपी खेत की वह फसल है, जो लाइफ टाइम उगा करती है। बाल बढ़ाएं, नाखून बढ़ाएं आपकी मर्जी, काटें ना काटें, आपकी मर्जी।।

सुना है, भगवान गंजे को नाखून नहीं देता। लेकिन हमने तो कई गंजों को इस आस से नाखून घिसते देखा है, कि उनके सर पर फिर से खेत लहलहा उठे। वैसे अगर बंजर जमीन में खेती हो सकती है तो गंजे सिर में बाल ट्रांसप्लांट क्यों नहीं हो सकते। पूछता है भारत।

हमने दाढ़ी मूंछ के बारे में ना तो कभी मुंहजोरी की और ना कभी मूंछ पर ताव ही दिया। जिस तरह आज आप बिग बी, विराट और मोदीजी की बिना दाढ़ी के कल्पना ही नहीं कर सकते, ठीक उसी तरह हम अपनी दाढ़ी के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकते। अगर जिंदगी एक नाटक होती तो जरूर कभी नकली दाढ़ी लगाकर एक तस्वीर जरूर खिंचवा लेते, दाढ़ी में। लेकिन यकीन मानिए, हम तो क्या हमारी पत्नी भी हमें नहीं पहचान पाती और शायद आइना भी हमसे हमारी पहली सी सूरत ही मांगता।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 238 ⇒ दाल रोटी खाओ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दाल रोटी खाओ ।)

?अभी अभी # 238 ⇒ दाल रोटी खाओ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिनको प्रभु का गुणगान करना है, उन्हें और चाहिए भी क्या ! ईश्वर हमारे देश के सत्तर करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन यूं ही नहीं प्रदान कर रहा, २२ जनवरी को प्रभु श्री राम के गुणगान का यह स्वर्णिम पल है। ओ भाभी आना, जरा दीपक जलाना, आज घर घर अयोध्या के प्रभु श्री राम विराजेंगे।

दाल रोटी तो मैं भी खाता हूं, लेकिन मुझ अज्ञानी का ध्यान प्रभु के गुणगान की ओर तो कम रहता है और भोजन की गुणवत्ता और स्वाद और खुशबू की ओर अधिक रहता है। गेहूं कौन से हैं, अरहर की दाल तीन इक्का है कि नहीं, चावल कौन सा है, काली मूॅंछ, अथवा बासमती।।

ईश्वर सगुण हो अथवा निर्गुण, इंसान में तो, प्रकृति की तरह तीन गुण ही होते हैं, सत, रज और तम। यानी जैसा हम अन्न खाते हैं, वैसा हमारा मन बनता है, यानी सात्विक, राजसी अथवा तामसी। हम ज्यादा झमेले में नहीं पड़ते, बस दाल रोटी शाकाहार है, सात्विक आहार है, मस्त दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ।

लेकिन यह चंचल, प्रपंची मन कितने किंतु, परंतु और तर्क वितर्क लगाता है। मालूम है, दाल का क्या भाव है। हम तो दाल में देसी घी का तड़का लगाते हैं, और वह भी हींग जीरे के साथ। अब हम प्रभु को याद करें या बढ़ती महंगाई को।।

जिस तरह राम दरबार में, राम लक्ष्मण जानकी और जय हनुमान जी की बोली जाती है, उसी तरह हमारी रसोई के तड़के में असली घी के साथ हींग जीरा और राई का होना भी जरूरी है। मंदिर में धूप बत्ती की महक की ही तरह रसोई में हींग जीरे के बघार की खुशबू फैल जाती है। बस राम का गुणगान और धन्यवाद करने का मन करता है ;

राम का गुणगान करिए

राम प्रभु की भद्रता का

सभ्यता का ध्यान धरिए…

एक सुहागन के लिए जितना एक चुटकी भर सिन्दूर का महत्व है, उतना ही महत्व चुटकी भर हींग का घर गृहस्थी में है। लेकिन यह चुटकी आजकल बड़ी महंगी पड़ रही है। कभी सौ दो सौ रुपए किलो वाला जीरा आज चार अंकों को छूने की कोशिश कर रहा है, तो पूरी दुनिया में हींग तो ग्राम और तोला में बिक रही है। पहले इसे तौलने के लिए पीतल की छोटी सी तराजू आती थी, और छोटे छोटे ग्राम वाले पीतल के ही बांट। सोने की तरह तुलती थी यह हींग।।

हमें रंग चोखा लाने के लिए नहीं चाहिए फिटकरी, लेकिन बिना हींग के हम नहीं रह सकते। कल पुष्प ब्रांड की बांधनी हींग, पाउडर वाली, ५० ग्राम का भाव पूछा तो ₹३७५ !लेकिन यह हींग भी कहां असली होती है। डले वाली शुद्ध, खुशबूदार हींग के तो अलग ही ठाठ हैं, दस ग्राम शुद्ध हींग तीन चार सौ रुपए से कम नहीं।

अब इतनी महंगी हींग और जीरा खाकर भी अगर कोई महंगाई का रोना ना रोकर प्रभु का गुणगान करे, तो बस समझ लीजिए, उसके अच्छे दिन आ गए।।

नया वर्ष दस्तक दे रहा है, और उधर अयोध्या में इतिहास रचा जा रहा है। घर घर घी के चिराग जलें, हर मंदर और प्रत्येक मन मंदिर में भी प्रभु श्रीराम का वास हो, रामराज्य फिर से आए। नहीं चाहिए हमें घी और दूध दही की नदियां, बस सब की दाल में हींग जीरे का तड़का हो, सब प्रेम से दाल रोटी खाएं और प्रभु श्रीराम के गुण गाएं। जय रामजी तो बोलना ही पड़ेगा ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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