श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख  – “बढ़ती का नाम…।)

?अभी अभी # 240 ⇒ बढ़ती का नाम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, चलती का नाम, बढ़ती का नाम और साड़ी का दाम ! लेकिन कबीर की तरह हम सिर्फ गाड़ी से ही नहीं, हमारी बढ़ती दाढ़ी और बढ़ते नाखून से भी परेशान हैं। साड़ी पर तो कबीर भी मौन रहे, इसलिए हम भी मुंह नहीं खोलेंगे।

बाल और नाखून तो खैर हमारे बचपन से ही बढ़ रहे थे। इनके विकास में हमारा कभी कोई योगदान नहीं रहा। सुना है, हम जब छोटे थे, तो जिसकी गोद में जाते थे, उसका चश्मा, टोपी, जेब का पेन, अथवा उनके चेहरे से ही खेलने लग जाते थे। अगर हमारे नाखून थोड़े भी बढ़े हुए होते, तो उनकी खैर नहीं।।

नाखून और बालों को काटो तो दर्द नहीं होता, लेकिन जब हम मां की गोद में खेलते खेलते, उनके बालों से खेलने लग जाते थे, तो मां को दर्द भी होता था। हमने कई दाढ़ी वालों के बाल, अच्छे बच्चे बनकर बहुत नोंचे हैं। लेकिन अब वह सुख कहां। आज भी अगर नंगे पांव चलते वक्त, थोड़ी सी ठोकर लग जाए, तो नाखून से भी खून बहने लगता है।

महिलाओं के बाल बढ़ते हैं, लंबे होते हैं, (जिन्हें शायर ज़ुल्फ कहते हैं), नाखून भी बढ़ते हैं, लेकिन ईश्वर ने उनकी कमनीय काया को दाढ़ी मुक्त रखा है। पुरुष तो उन्मुक्त प्राणी है, वह चाहे तो लिपटन टाइगर जैसी मूंछें रखे, अथवा टैगोर और बिग बी जैसी दाढ़ी। आजकल तो लगता है, हर युवक दाढ़ी वाले ही पैदा हो रहे हैं। कितना विराट व्यक्तित्व लगता है न, आजकल के युवाओं का, दाढ़ी में। कभी कभी तो हमारा मन भी मोदी मोदी करने लगता है, किसी की खूबसूरत दाढ़ी देखकर।।

बाल और नाखून काटना हिंसा में नहीं आता, क्योंकि इन्हें काटने से मर्द अथवा औरत, किसी को दर्द नहीं होता। लेकिन द्रौपदी की तरह अगर किसी के केश खींचे जाएं अथवा केश लोचन किया जाए, तो भाई साहब, दर्द तो होता है।

नाखून और बाल हमारे शरीर रूपी खेत की वह फसल है, जो लाइफ टाइम उगा करती है। बाल बढ़ाएं, नाखून बढ़ाएं आपकी मर्जी, काटें ना काटें, आपकी मर्जी।।

सुना है, भगवान गंजे को नाखून नहीं देता। लेकिन हमने तो कई गंजों को इस आस से नाखून घिसते देखा है, कि उनके सर पर फिर से खेत लहलहा उठे। वैसे अगर बंजर जमीन में खेती हो सकती है तो गंजे सिर में बाल ट्रांसप्लांट क्यों नहीं हो सकते। पूछता है भारत।

हमने दाढ़ी मूंछ के बारे में ना तो कभी मुंहजोरी की और ना कभी मूंछ पर ताव ही दिया। जिस तरह आज आप बिग बी, विराट और मोदीजी की बिना दाढ़ी के कल्पना ही नहीं कर सकते, ठीक उसी तरह हम अपनी दाढ़ी के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकते। अगर जिंदगी एक नाटक होती तो जरूर कभी नकली दाढ़ी लगाकर एक तस्वीर जरूर खिंचवा लेते, दाढ़ी में। लेकिन यकीन मानिए, हम तो क्या हमारी पत्नी भी हमें नहीं पहचान पाती और शायद आइना भी हमसे हमारी पहली सी सूरत ही मांगता।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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