हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 271 ⇒ उगते सूरज को प्रणाम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उगते सूरज को प्रणाम।)

?अभी अभी # 271 ⇒ उगते सूरज को प्रणाम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

उगते सूरज को प्रणाम करना तो हमारी सनातन परंपरा है, इसमें ऐसा नया क्या है, जो आप हमें बताने जा रहे हो। नया तो कुछ नहीं, बस हमारा सूरज भी राजनीति का शिकार हो चला है, वो क्या है, हां, मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं, यूं जा रहे हैं, जैसे हमें जानते नहीं।

जब प्रणाम का स्थान दुआ सलाम ले ले, तो लोग उगते सूरज को भी सलाम करने लगते हैं। खुदगर्जी और स्वार्थ तो खैर, इंसान में कूट कूटकर भरा ही है, लेकिन जो इंसान भगवान के सामने भी मत्था बिना स्वार्थ और मतलब के नहीं टेकता, वही इंसान, जब जेठ की दुपहरी में सूरज सर पर चढ़ जाता है, तो छाता तान लेता है और जब ठंड आती है तो उसी सूरज के आगे ठिठुरता हुआ गिड़गिड़ाने लगता है।।

वैसे हमारा विज्ञान तो यह भी कहता है कि सूरज कभी डूबता ही नहीं है, लेकिन हम कुएं के मेंढक उसी को सूरज मानते हैं, जो रोज सुबह खिड़की से हमें नजर आए। हमारे दिमाग की खिड़की जब तक बंद रहेगी, हमारा सूरज कभी खिड़की से हमारे असली घर अर्थात् अंतर्मन में ना तो प्रवेश कर पाएगा और ना ही हमारे जीवन को आलोकित कर पाएगा।

हमारी संस्कृति तो सूर्य और चंद्र में भी भेद नहीं करती। जो ऊष्मा सूरज की रश्मियों में है, वही ठंडक चंद्रमा की कलाओं में है। पूर्ण चंद्र अगर हमारे लिए पूर्णिमा का पावन दिन है तो अर्ध चंद्र तो हमारे आशुतोष भगवान शंकर के मस्तक पर विराजमान है।।

सूरज से अगर हमारा अस्तित्व है, तो चंद्रमा तो हमारे मन में विराजमान है। हमारे मन की चंचलता ही बाहर भी किसी चंद्रमुखी को ही तलाशती रहती है और अगर कोई सूर्यमुखी, ज्वालामुखी निकल गई, तो दूर से ही सलाम बेहतर है।

राजनीति के आकाश में सबके अपने अपने सूरज हैं। यानी उनका सूरज, वह असली शाश्वत सूरज नहीं, राजनीति के आकाश में पतंग की तरह उड़ता हुआ सूरज हुआ। किसी का सूरज पतंग की तरह उड़ रहा है, तो किसी का कट रहा है। अब आप चाहें तो उसे उगता हुआ सूरज कहें, अथवा उड़ता हुआ सूरज। किसी दूसरे सूरज की डोर अगर मजबूत हुई, तो समझो अपना सूरज समंदर में डूबा।।

एक समझदार नेता वही जो अपनी बागडोर उगते हुए और आसमान में उड़ते हुए सूरज के हाथों सौंप दे। मत भूलिए, अगर आप ज्योतिरादित्य हैं तो वह आदित्य है। एक समझदार नेता भी समझ गए, हार से उपहार भला।

जब समोसे में आलू नहीं बचे, तो पकौड़ों की दुकान खोलना ही बेहतर है। वैसे भी एक समझदार नेता डूबते इंडिया के सूरज को भी अर्ध्य देना नहीं भूलते। स्टार्ट अप प्रोग्राम फ्रॉम … । उगते सूरज को सलाम कीजिए, और राजनीति के आकाश में शान से अपनी पतंग उड़ाइए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #217 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 216 ☆

वाणी माधुर्य व मर्यादा... ☆

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ आकाशगंगा… ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे 

?काशगंगा? सुश्री सुनिता गद्रे ?

घटना वैसे पुरानी ही… मतलब सन उन्नीस सौ पैंसठ की! मैं तब ग्यारहवीं में पढ़ती थी।… उस जमाने में उसे मैट्रिक कहते थे। उसके  बाद डिग्री के लिए चार साल की कॉलेज की पढ़ाई… !तो ग्यारहवीं में हमारे साइंस पढ़ाने वाले सर जी ने एक बार हमारे क्लास के सब छात्रों को हमारे गाॅंव की सबसे ऊंची बिल्डिंग के (तीन मंजिला बिल्डिंग के) छत पर रात के वक्त बुलाया था। वह अमावस की रात थी। अमावस की काली  रात  …. नहीं, डरने की  कोई बात नहीं ।…. खगोल शास्त्र के ‘आकाशगंगा’ टॉपिक पर हमें वह प्रत्यक्ष आकाशगंगा और ग्रह तारे नक्षत्र दिखाने वाले थे।

हमारे साइंस के टीचर जैसा डेडीकेटेड शिक्षक मैं ने आज तक नहीं देखा। अपने सब्जेक्ट का पूरा-पूरा ज्ञान उनके पास था और उसको छात्रों तक ले जाने की तीव्र इच्छा भी उनके अंदर थी। फिजिक्स, केमिस्ट्री के बहुत सारे  एक्सपेरिमेंट जो हमारे पढ़ाई का हिस्सा भी नहीं थे, उन्होंने हमसे करवा लिए थे।

उस रात सर जी ने हमें उत्तर से दक्षिण तक, या कहो दक्षिण से उत्तर तक फैला हुआ अनगिनत सितारों से भरा हुआ आकाशगंगा का( मिल्की वे) पट्टा दिखाया था। उसके बारे में बहुत सारी जानकारी भी दी।  इस वजह से हमें खगोल शास्त्र की अलग से पढ़ाई भी नहीं करनी पड़ी।

शादी के बाद मेरा वास्तव्य दिल्ली में ही रहा। बहुत बार हमारे चार मंजिला अपार्टमेंट के छत पर जाकर मैं आकाशगंगा ढूंढने का प्रयास करती थी, अमावस की रात को।….लेकिन बिजली की लाइट के चकाचौंध में वह आकाशगंगा मुझे कभी भी नजर नहीं आयी। अब तो छोटे-छोटे गांवों, कस्बों में भी बिजली पहुॅंच गई है। इसलिए आकाशगंगा वहाॅं भी, कितनी भी ऊंचाई पर जाओ दिखाई देगी ही नहीं।

गर्मी के दिनों में हम लोग छत पर सोया करते थे। अब ए.सी. की वजह से वह बात भी नहीं रही। और छत की ताजा हवा में सोने का सौभाग्य भी हमसे बहुत दूर चला गया।  छत पर बिस्तर पर बैठे-बैठे मैं बच्चों को बचपन में पढ़ा हुआ खगोल शास्त्र का ज्ञान जो थोड़ा-थोड़ा मुझे याद था, बताया- दिखाया करती थी। मृग नक्षत्र… हिरन… उसके पेट में घुसे हुए बाण के तीन चमकीले तारे…. व्याध, और उसी तरह सप्तर्षि का पतंग.. उसकी डोर पकड़े हुए , उत्तर की दिशा में ही दिखने वाला ध्रुव तारा…जो ज्यादा चमकता नहीं,… सप्तर्षि में, वशिष्ठ ऋषि साथ में ही एक छोटे से चमकीले के तारे के रूप में उनकी पत्नी अरुंधति… सब कुछ उनको दिखाती थी। सच में वह उतना साफ नहीं दिखता था जो मैंने बचपन में देखा था।  शर्मिष्ठा ,देवयानी, ययाति का वह एम् आकार वाला तारा समूह… जो एक अलग आकाशगंगा का हिस्सा है… (शायद) जो सर जी ने हमें दिखाया था, वह तो बिल्कुल ही नहीं दिखाई देता था। चमकीला शुक्र, लाल रंग का मंगल ग्रह भी कभी-कभी दिखाई देते थे, अगर आसमान साफ हो तो!… आगे चलकर बच्चे जब बड़े हो गए मैं उनको प्लेनेटोरियम ले गई थी। वहां मॉडर्न तकनीक से दिखाई हुई आकाशगंगा बच्चों के साथ मैंने भी देखी। लेकिन बचपन में देखी हुई आकाशगंगा मुझे वहाॅं भी नहीं मिली ,वह कहीं खो ही गई थी।

एक साल पहले की बात है। मुझे कर्नाटक के एक बहुत छोटे देहात में किसी काम के लिए जाना पड़ा। हम तीन लोग थे ।एक छोटे से बस स्टैंड पर बस रुकी, उतरकर हम हमारे गंतव्य की ओर जाने के लिए निकले। लगभग दो ढाई मैल का फासला चलकर तय करना था। वह भी अमावस की रात थी। ( हो सकता है एकाध दिन आगे- पीछे )चलते चलते मेरी नजर आसमान की तरफ गई…. और मैं सब कुछ भूल कर आसमान में उत्तर- दक्षिण फैली हुई आकाशगंगा को मुग्ध होकर देखती ही रह गई। वह दक्षिण उत्तर फैला हुआ आकाशगंगा का पट्टा (मिल्की वे) मुझे बचपन में ले गया। संपूर्ण गोलाकार क्षितिज… काला स्याह आसमान ..वह भी गहरी कटोरी समान.. और उसके अंदर चमकता हुआ आकाशगंगा का पट्टा! वह तो इतना नजदीक लग रहा था की सीडीपर चढ़कर कोई भी उसे हाथ  लगा सके। और हे भगवान, यह क्या?… मृग नक्षत्र के चौकोर में अनगिनत तारे चमक रहे थे।  फिर मैं अपने जाने पहचाने सितारे खोजने का प्रयास करने लगी। सच में अभी सर जी यहां होते तो कितना अच्छा होता, मन में विचार आया। पंद्रह-बीस मिनट के बाद, “काकी रुको मत,.. जल्दी-जल्दी आ जाओ।” इस भतीजे की आवाज से में खगोल छोड़कर भूगोल पर आ गई। बिना चंद्रमा के चमकने वाली ज्यादा से ज्यादा चाॅंदनियों को अपने मन में भरकर मैं आगे चल पड़ी।

बचपन में देखी हुई और बाद में खोयी हुई मेरी आकाशगंगा मुझे वहाॅं मिल गई थी।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 270 ⇒ घोड़े की नाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घोड़े की नाल।)

?अभी अभी # 270 ⇒ चांदी जैसे बाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Horse Shoe

मुझे नहीं पता, जंगल के राजा शेर का महल और सिंहासन कैसा होता है और उसकी पोशाक और जूते कैसे होते हैं, लेकिन पवन वेग से उड़ने वाले महाराणा प्रताप के महान चेतक की शक्ति, बहादुरी और स्वामिभक्ति से दुनिया परिचित थी। महारानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी महाराज और रामदेवरा के बाबा रामदेव की आप उनके घोड़े के बिना कल्पना ही नहीं कर सकते।

सदियों से घोड़ा इंसान का एक वफादार साथी रहा है। अश्वारोही कहें, अथवा घुड़सवार, वीर बहादुरों और जांबाज़ की जान होते हैं उनके घोड़े, जिनकी टाप उनके आगमन की सूचना देती है। हमारे सभी आधुनिक इंजन से चलने वाले वाहनों की तुलना अश्व शक्ति अथवा हॉर्स पॉवर से ही की जाती है।

सदियों से इंसान का सच्चा साथी और उपयोगी वाहन रहा है एक घोड़ा।।

इसके चार पांव किसी तेज गति से चलने वाले वाहन के पहियों से कम नहीं। जिस तरह एक फौजी के, चलते वक्त उसके जूतों की आवाज आती है, ठीक उसी प्रकार जब एक घोड़ा दौड़ता है, तो उसके टापों की आवाज आसानी से सुनी जा सकती है। यह घोड़े के पांव में लगी लोहे की नाल का कमाल है, जिसे अंग्रेजी में horse shoe कहते हैं। क्या होता है यह हॉर्स शू अथवा घोड़े की नाल ;

A horseshoe is a piece of metal shaped like a U which is fixed to a horse’s hoof.

इसे और अच्छी तरह से यूं भी समझा जा सकता है ;

पशु के पैरों के तलवे में लोहे का एक यू आकार का सोल लगाया जाता है, जिससे घोड़े को चलने और दौड़ने में दिक्कत नहीं होती है। अंग्रेजी के यू के आकर के इस सोल में जहां-जहां कील ठोकी जाती है, वहां-वहां छेद होते हैं। लोहे के इस सोल को नाल कहते हैं। आमतौर पर घोड़े की एक नाल हफ़्ता-10 दिन तक चलती है और इस दौरान घोड़ा सौ से 200 किलोमीटर तक चल लेता है।।

घोड़ा एक समझदार, लेकिन बेजुबां जानवर है। केवल युद्ध में ही नहीं इंसान उसको सवारी के रूप में भी उपयोग करता है। महाभारत के युद्ध में द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण जिस अर्जुन के रथ के सारथी बने थे, उसमें भी ये ही अश्व मौजूद थे।

कभी तांगा, टमटम और बग्घी हमारे प्रिय यातायात के साधन हुआ करते थे।

सेना में भी कैवेलरी रेजिमेंट होती है ;

The 61st Cavalry Regiment is a horse-mounted cavalry regiment of the Indian Army. It is notable for being one of the largest, and also one of the last, operational non mechanised horse-mounted cavalry units in the world.

एक घोड़े की नाल उसके लिए आवश्यक ही नहीं, वरदान भी है। वैसे तो जानवरों के खुर ही उनके जूते होते हैं, लेकिन उनका दर्द एक इंसान महसूस नहीं कर सकता। हम तो अगर नंगे पांव चलें तो पांव में छाले पड़ जाएं। सुना नहीं आपने फिल्म पाकीजा का वह राजकुमार का डायलॉग ;

आपके पांव बड़े नाजुक हैं, इन्हें जमीन पर मत रखिए, मैले हो जाएंगे।।

जब आदमी ही मशीन बनता चला जा रहा है तो फिर असली हॉर्स पॉवर की भी कद्र कौन करेगा। बेचारे घोड़े की सभी शक्ति आजकल मशीनों के इंजन में बदलती जा रही है।

लेकिन याद रहे, हजारों मशीनें एक चेतक पैदा नहीं कर सकती। शुक्र है, जब तक महालक्ष्मी की हॉर्स रेस है, हमारी सेना की ६१वीं अश्वारोही बटालियन मौजूद है, यह प्राणी किसी ना किसी बहाने से, हमारे बीच मौजूद रहेगा।

घोड़ी चढ़ना कोई घुड़सवारी नहीं। असली घुड़सवारी करें, फिर घोड़े की टाप का आनंद लें।

घोड़ा कहां आपसे अपना दर्द बयां करने वाला है। वह भले ही घास से यारी ना करे, लेकिन नाल उसके पांव का सुरक्षा कवच है।

नाल ठोंकने के लिए, पहले घोड़े के पांव बांधने पड़ते हैं, और बाकायदा पांवों में कीलें ठोंकी जाती है, क्योंकि घोड़े का जन्म, सिर्फ चलने के लिए हुआ है। स्वस्थ घोड़ा कभी नहीं बैठता। अगर एक बार बैठा, तो फिर कभी खड़ा नहीं होता।।

घोड़े की नाल के साथ कई टोटके जुड़े हैं और कुछ अंध विश्वास भी। कुछ लोग घर के मुख्य द्वार पर घोड़े की नाल लगाते हैं।

हम ऐसे टोटकों को तूल नहीं देते। वैसे जो घोड़े की नाल है, उसे भाग्यशाली तो होना ही चाहिए, वह एक घोड़े की हमसफर जो है ..horse ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 269 ⇒ स्वांतः सुखाय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वांतः सुखाय।)

?अभी अभी # 269 ⇒ स्वांतः सुखाय… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे ढाई अक्षर प्रेम के आते हैं, और एक दो शब्द संस्कृत के भी आते हैं। पंडित बनने के लिए बस इतना ही काफी है। कुछ शब्द पूरे वाक्य का भी काम कर जाते हैं,  जब कि होते वे केवल दो शब्द ही हैं। जय हो। नमो नमो और वन्दे मातरम्।

संस्कृत के दो शब्द जो मुझे संस्कृत का प्रकांड पंडित बनाते हैं,  वे हैं स्वांतः सुखाय और वसुधैव कुटुंबकम् ! वैसे इन शब्दों का हिंदी संस्करण भी उपलब्ध है,  लेकिन वह प्रचलन के बाहर है। जो अपने कपड़े स्वयं धोकर सुखाए,  वह स्वावलंबी कहलाता है और जो जगत को कृष्णमय देखता है,  उसके लिए वासुदेव कुटुंबकम् है।।

कौन सुख के लिए नहीं जीता ! सुख की खोज ही मनुष्य का गंतव्य है। वह कर्म कैसे भी करे,  वह जीता भी स्वर्गिक सुख के लिए है और मरने के बाद भी स्वर्ग की ही इच्छा रखता है। केवल सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। राही मनवा दुख की चिंता क्यूं सताती है,   दुख तो अपना साथी है।

पंडित भीमसेन जोशी तो कह गए हैं,   जो भजे हरि को सदा,   वो ही परम पद पाएगा ! हां अगर वे यह कहते,  जो भजे हरि को सदा,  वो ही प्रधानमंत्री का पद पाएगा,  तो सभी राजनीतिज्ञ छलकपट,  राग द्वेष और उठापटक छोड़ हरि का भजन करने लग जाते। वे यह अच्छी तरह से जानते हैं,   प्रधानमंत्री का पद,  परम पद से बहुत बड़ा है।।

जो अपने सुख की चिंता नहीं करते,   वे सभी कार्य सर्व जन हिताय करते हैं ! उनका जीना,   मरना,  उठना बैठना,   सब देश की अमानत होता है। वे अपने सुख की कभी परवाह नहीं करते। अपना पूरा जीवन चुनावी दौरों,  विदशी दौरों,  और सूखा और बाढ़ग्रस्त इलाकों के दौरों में गुजार देते हैं। न उनका कोई परिवार होता है,  न सगा संबंधी।

अपने लिए,   जीये तो क्या जीये,  तू जी ऐ दिल ज़माने के लिए। होते हैं कुछ सहित्यानुरागी,  जिनका सृजन समाज को अर्पित होता है। वे अपने सुख के लिए नहीं लिखते,  उनके लेखन में आम आदमी का दर्द झलकता है।

यही दर्द इन्हें विदेशों में हो रही साहित्यिक गोष्ठियों की ओर ले जाता है।जहां केवल आम आदमी की चर्चा होती है। वे किसी पुरस्कार के लिए नहीं लिखते। लेकिन अगर उन्हें पुरस्कृत किया जाए,  तो वे पुरस्कार का तिरस्कार भी नहीं करते।।

पसंद अपनी अपनी,  खयाल अपना अपना ! आप अपने सुख के लिए ज़िन्दगी जीयें,  अथवा समाज के लिए,  सृजन आपका स्वयं के सुख के लिए हो या जन कल्याण के,  आप अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। बस इतना जान लें,   स्वांतः सुखाय में कोई प्रसिद्धि नहीं है,  कोई पुरस्कार नहीं है,  तालियां और हार सम्मान नहीं है …!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 268 ⇒ || सेवक || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| सेवक ||।)

?अभी अभी # 268 ⇒ || सेवक || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बिना सेवा और समर्पण के कोई सेवक नहीं बन सकता। जिसमें दास का भाव होता है, वह भी सेवक ही कहलाता है। अंग्रेजी में serve क्रिया से ही सर्वेंट बना है। उनका सर्वेंट ही हमारा हिन्दी का नौकर बन गया और सर्विस, नौकरी हो गई। कुछ शासकीय सेवक बन गए, और कुछ सिविल सर्वेंट। इसी तरह नौकरशाही का जन्म हुआ, जिसमें बाबू, साहब, क्लर्क और चपरासी जैसे ओहदे अस्तित्व में आए।

सेवा का विस्तार होता चला गया, शासन, प्रशासन और शासक प्रशासक बन बैठा।

जो कभी ईश्वरदास और भगवानदास था, समय ने उसे परिस्थिति का दास बना दिया। नौकरशाही की तरह ही शायद कभी दास प्रथा का भी जन्म हुआ हो। ताश के पत्तों के साहब, बीवी और गुलाम तो प्रतीक मात्र हैं। मालिक, हम तो हैं आपके गुलाम।।

जो कर्म को सेवा समझते हैं, वे भी सेवक ही कहलाते हैं। जो देश की सेवा करता है, वह देशसेवक कहलाता है और जो समाज की सेवा करता है, वह समाज सेवक। कहीं सेवक को परिश्रमिक मिलता है, तो वह कहीं का कर्मचारी कहलाने लगता है। दूध, अखबार, किराना, बिजली, पानी, तो छोड़िए, हमारे सर की छत भी किसी की सेवा का ही नतीजा है।

ईश्वर की कृपा और मनुष्य मात्र के आपसी सहयोग से ही यह संसार चल रहा है।

कहीं किसी नौकर को साहब की नौकरी के साथ उनकी चाकरी भी करनी पड़ रही है तो कुछ ऐसे भी सेवक हैं जो केवल प्रभु की चाकरी करते हैं, और अपनी सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों को कुशलतापूर्वक निभाते हुए भी अपनी स्वेच्छा से समाज की सेवा करते हैं, ऐसे लोग स्वयंसेवक कहलाते हैं, क्योंकि ये अपनी सेवाओं के बदले में कोई मूल्य नहीं लेते। उन्हें सेवा के बदले में मेवे की इच्छा भी नहीं रहती। वे ही देश, समाज और प्रभु के असली सेवक होते हैं।।

गुरुद्वारे में ग्रंथी भी होते हैं और सेवक भी। निष्काम सेवक के लिए कोई काम बड़ा छोटा नहीं होता। अपने जूतों के साथ वे अपना अहंकार और अस्मिता भी बाहर छोड़कर आते हैं, और जो सेवा उन्हें सौंपी जाती है, उसका निष्ठा से निष्पादन करते हैं, ऐसी सेवा कार सेवा कहलाती है।

हाल ही में २२ जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर में संपन्न प्राण प्रतिष्ठा भी किसी कारसेवा का ही परिणाम है। ६ दिसंबर १९९२ वही ऐतिहासिक दिन था, जब कारसेवकों के बलिदान ने कार सेवा को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। सब कुछ ईश्वर की प्रेरणा से ही होता है।

अगर हमारे मन माफिक होता है, तो हम खुश होते हैं, और जब हमारी मर्जी के अनुसार उसका परिणाम नहीं निकलता तो हम दुखी होते हैं।।

एक सच्चा सेवक कभी अपना धैर्य नहीं खोता। उसका कार्य कभी खत्म ही नहीं होता। गीता के अनुसार फल की चिंता न पालते हुए निष्काम कर्म ही उसकी नियति है।

सेवक वही जो कभी भ्रमित ना हो। राजनीतिक स्वार्थ और महत्वाकांक्षा अच्छे अच्छे सेवकों को पथभ्रष्ट कर देती है। तब ही बाबा रामदेव जैसे योगी पूरे देश में स्वाभिमान यात्रा की अलख जगाते हैं और सत्ता पलट डालते हैं। कोई सेवक इसका श्रेय ले लेता है तो कई सेवक गुमनामी के साये में पड़े रहते हैं।

लेकिन एक सच्चे सेवक के लिए यश, कीर्ति और लोकेषणा कोई मायने नहीं रखती, क्योंकि वह तो केवल ईश्वर का दास है, एक सच्चा सेवक है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 267 ⇒ भारत रत्न… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भारत रत्न।)

?अभी अभी # 267 ⇒ भारत रत्न… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भारत रत्नों की खान है।

हम यहां उन दरबारी नवरत्नों की बात नहीं कर रहे, जिनका जिक्र अक्सर गूगल सम्राट करते हैं। हम उन रत्नों की बात कर रहे हैं, जो करोड़ों भारतीयों के हृदय सम्राट हैं। रत्नों की अपनी गरिमा होती है, चमक दमक होती है, वे जिसका नमक खाते हैं, उनका ही गुणगान नहीं करते। यह माटी उनकी ऋणी होती है, पूरा देश उनका गुणगान करता है।

होंगे मियां तानसेन, संगीत सम्राट l लेकिन उनके गुरु भी तो हरि के ही दास थे।

जो असली रत्न होते हैं, वे महलों में शोभायमान नहीं होते, उनकी प्रतिभा के आगे तो अच्छे अच्छे सम्राट भी नतमस्तक होते हैं। सूर सूर, तुलसी शशि और मीराबाई जैसे असंख्य रत्नों से भरा पड़ा है, हमारा भारत रत्नों का भंडार।।

भारत रत्न भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है। इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा और खेल शामिल है। इस सम्मान की स्थापना २ जनवरी १९५४ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद द्वारा की गई थी। पहला भारत रत्न 1954 में सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सर सीवी रमन और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को प्रदान किया गया।

जब भारत कुमार मनोज कुमार यह गीत गाते हैं, कि मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले मोती, तो यह कहीं से कहीं तक अतिशयोक्ति नहीं। कुछ माटी के लालों का जिक्र तो उसने भी बड़े जोशो खरोश के साथ किया है, लेकिन यह एक ऐसी सतत प्रक्रिया है जिसके कारण ही इस पुण्य भूमि पर देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं।।

वैसे तो माटी माटी में भेद नहीं होता, रत्न रत्न होता है। हमारे देश में तो बच्चे बच्चे की जबान पर आज भी रतन टाटा का नाम है।

क्या आप जानते हैं, जब अंग्रेजों ने कोलकाता की हुबली नदी पर हावड़ा ब्रिज बनाया था, तो उसमें लगा पूरा स्टील भी टाटा का ही था।

वैसे तो रत्नों की पहचान इतनी आसान नहीं होती, फिर भी इंसान अपने गुण से आसानी से पहचाना जा सकता है। अगर देश के प्रमुख भारत रत्नों का जिक्र करें, तो पहले भारत रत्न बिहार से हमारे प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्रप्रसाद ही थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि इस वर्ष भी भारत रत्न और कोई नहीं, बिहार के गौरव कर्पूरी ठाकुर ही हैं।।

मरणोपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर से पहले बिहार के पांच भारत रत्न हैं ;

१.विधान चंद्र राय

२. डा राजेंद्र प्रसाद

३. जय प्रकाश नारायण

४. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

५. कर्पूरी ठाकुर

पांच महिला भारत रत्नों में

इंदिरा गांधी, अरुणा आसफ अली, मदर टेरेसा, सुब्बा लक्ष्मी और लता मंगेशकर शामिल हैं। सर्व श्री सीवी रमन, सचिन तेंदुलकर, नेल्सन मंडेला, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, अटलबिहारी बाजपेई और अमर्त्य सेन के बिना यह सूची अधूरी है।

यों तो भारत रत्न अनगिनत हैं, फिर भी इनकी संख्या शतक पार तो कर ही चुकी है। ईश्वर भले ही सबके साथ न्याय ना करे, देश उन सभी रत्नों का भी ऋणी है, जिन पर किसी पारखी की भले ही नजर ना पड़ी हो।

हर भारतीय अपने आपमें एक रत्न है, क्योंकि वह भारत माता का लाल है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 68 – देश-परदेश – सामूहिक भोजन वितरण ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 68 ☆ देश-परदेश – सामूहिक भोजन वितरण ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हम सब समय समय पर सामूहिक भोजन का लुत्फ लेते आ रहे हैं। पंगत प्राणली से गिद्ध प्रणाली तक कई सैंकड़ो बार इसका रसवादन कर अपने स्वास्थ्य के पाये को खोखला कर चुके हैं।  

आज भी जब कभी मौका मिलता है, तो चूकते नहीं हैं, विगत दिनों मुफ्त का माल़ तोड़ने के अवसर मिले, तो और अधिक मज़े आए।  

गणतंत्र दिवस पर वरिष्ठ नागरिक केंद्र पर फुरसतियों के देश प्रेम गीत और कविता पाठ सुन कर हमारे मन भी देश के प्रति जज़्बा उड़ान भरने लगा। नाश्ते की प्लेट में बूंदी का लड्डू, गर्म कचोरी और प्लेट में बचे हुए रिक्त स्थान को भरने के लिए आलू के तले हुए चिप्स सब के स्थान पर उपलब्ध करवाए गए थे।

वहां उपस्थित करीब चालीस व्यक्तियों की औसत आयु पचहत्तर से भी अधिक थी। क्या इस प्रकार का भोजन उनके स्वास्थ्य की लिए उचित है?

इसके स्थान पर भुने चने, गजक या केला इत्यादि भी दिया जाना बेहतर होता, क्योंकि वहां उपस्थित सभी वयोवृद्ध श्रेणी से थे।

कुछ लोगों ने कचौरी नहीं खाई तो कुछ ने शक्कर रोग के कारण लड्डू प्लेट में त्याग दिया। इससे अच्छा होता खाली प्लेट भी रख दी जाती और सब को बता दिया जाता कि, जिससे किसी को कुछ सेवन नहीं करना है, तो उसको खाली प्लेट में रख देवें। अतिरिक्त आइटम हमारे जैसे पेटू लोगों को भी दिया जा सकता था।  

विगत दिन एक अन्य “स्वास्थ्य कार्यशाला” में भी बंद डिब्बों में करीब छः सौ लोगों को भोजन दिया गया। आयोजन कर्ता लोगों के लिए अत्यंत कठिन कार्य होता है, यदि “गिद्ध प्रणाली” के अंतर्गत भोजन परोसा जाये तो हमारे जैसे मुफ्त की मलाई खाने वाले नकली पनीर की सब्ज़ी का डोंगा ही उठा लेते हैं । गर्म पूरी/ रोटी के लिए अपने ही लोगों को कुचल कर पूरियों से प्लेट में रखे हुए हलवे के पहाड़ तक तो ढांक देते हैं।  

यदि सदियों पुरानी पंगत व्यवस्था के अंतर्गत आयोजन किया जाए तो बैठने के स्थान की उपलब्धता आड़े आती हैं। वैसे जहां बैठने का स्थान उपलब्ध है, तो जरूरत से अधिक भोजन कर चुके मेहमान को उठाने के लिए अलग से दो मज़दूर लगाने पड़ते हैं। कुछ आयोजन कर्ता चेन-पुली यंत्र से भी पंगत में बैठे मेहमान को उठवाने की व्यवस्था करवाते हैं।  

बाज़ार से डिब्बा बंद भोजन प्रणाली में बहुत सारे आइटम सभी को दे दिए जाते हैं, नापसंद और जरूरत से अधिक खाद्य पदार्थ कचरे में चले जाते हैं।  

मिठाई प्रेमी तो एक टुकड़े मिठाई के लिए अतिरिक्त डिब्बा लेकर अपनी जुबां की मांग पूर्ति तो कर देते हैं, लेकिन जानते हुए भी डिब्बे का अन्य खाद्य व्यर्थ कचरा पात्र में डाल कर अपने आप को सफाई का ब्रांड एंबेसडर मान लेते हैं।

अब विराम देता हूं, फोन की घंटी बज रही, अवश्य ही भोजन के आमंत्रण के लिए होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 267 ⇒ मैं ई -रिक्शा वाला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मैं ई -रिक्शा वाला।)

?अभी अभी # 267 ⇒ मैं ई -रिक्शा वाला… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रिक्शे से ई – रिक्शे तक के सफर में,आज अनायास ही फिल्म छोटी बहन (१९५९) का यह गीत मेरे होठों पर आ गया ;

मैं रिक्शा वाला,

मैं रिक्शावाला

है चार के बराबर

ये दो टांग वाला।

कहां चलोगे बाबू

कहां चलोगे लाला।।

यानी इन पैंसठ वर्षों के सफर में मेरे जैसा एक आम आदमी केवल रिक्शे से ई -रिक्शे तक का सफर ही तो तय कर पाया है।

इस गीत के जरिए गीतकार ने कुछ मूलभूत प्रश्न उठाए थे, जिनके उत्तर हम आज भी तलाश रहे हैं। रोटियां कम हैं क्यों, क्यों है अकाल। क्यों दुनिया में ये कमी है, ये चोरी किसने की है, कहां है सारा माल ? और ;

मैं रिश्ते जोडूं दिल के,

मुझे ही मंजिल पे, कोई ना पहुंचाए, कोई ना पहुंचाए।।

रिक्शे के बहाने, शैलेंद्र ऐसे एक नहीं, कई प्रश्न छोड़ गए। फिल्म छोटी बहन में महमूद हाथ रिक्शा चलाते नजर आते हैं। आदमी की तरह रिक्शे ने भी बहुत लंबा सफर तय किया है। बीच में तीन पहिए का साइकिल रिक्शा भी आकर चला गया। उसमें वही रिक्शेवाला दो दो सवारियों को बैठाकर साइकिल चलाता था।

तपती दुपहरी हो अथवा सर्दी या बरसात, भीड़ भरे बाजार में, एक अथवा दो सवारियों के लिए कहीं हाथ गाड़ी तो कहीं साइकिल रिक्शा उपलब्ध हो ही जाता था। कहीं उतार तो कहीं चढ़ाव, आखिर सांस तो फूलती ही होगी रिक्शे वाले की। फिल्म सुबह का तारा में तो भाभी तांगे से आती है, और बीच में तांगे का पहिया भी टूट जाता है।।

महमूद की ही एक और फिल्म कुंवारा बाप (१९७४) में एक और गीत है ;

मैं हूं घोड़ा, ये है गाड़ी

मेरी रिक्शा सबसे निराली।

न गोरी है, न ये काली

घर तक पहुंचा देने वाली।।

तब गीत के ही अनुसार सन् १९७४ में एक रुपया भाड़ा यानी किराया था। रिक्शे और तांगे का यह सफर समय के साथ साथ चलते चलते पहले ऑटो रिक्शा तक आया। तीन पहिए का पहले पेट्रोल से और अब सीएनजी से चलने वाला ऑटो रिक्शा आज भी मुसाफिर और राहगीर, जिनमें वृद्ध पुरुष, स्त्री बच्चे सभी शामिल हैं, का रोजाना का साथी है।

महंगा पेट्रोल कहें, अथवा प्रदूषण की मार, बदलते समय के साथ आम आदमी भी आखिर रिक्शे से ई -रिक्शे तक पहुंच ही गया। एक एक सवारी के लिए गाड़ी रोकना, आवाज लगाना, फिर चाहे वह ई – रिक्शा ही क्यों न हो। आज शैलेंद्र और मजरूह हमारे बीच सवाल करने को मौजूद नहीं हैं, लेकिन अगर होते, तो क्या उनको अपने सवालों का जवाब मिल जाता।।

हमने तो आजकल सवाल करना ही बंद कर दिया है। किसी के लिए जिंदगी अगर आज मेला है तो किसी के लिए उत्सव। ऐसे में भूख, रोटी और रोजगार जैसे प्रश्न करना औचित्यहीन और असंगत है। क्यों न ई -रिक्शे के इस युग में, कभी मुंबई की सड़कों पर, पेट्रोल से चलने वाली एक टैक्सी का सफर किया जाए, जिसका नाम लैला है। रफी साहब का बड़ा प्यारा सा, फिल्म साधु और शैतान का, कम सुना हुआ गीत है ;

कभी आगे, कभी पीछे

कभी ऊपर, कभी नीचे

कभी दाएं मुड़ जाए

कभी बाएं मुड़ जाए।

जाने कहां कहां

मुझे ले के चली

मेरी लैला, मेरी लैला।।

आज अगर महमूद होते, तो शायद वे भी यही कहते ;

मैं ई -रिक्शा वाला

मैं ई – रिक्शा वाला ..

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 225 – देह से हूँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 225 ☆ देह से हूँ ?

समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?

इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का  प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।

मंथन और विवेचन यहीं से आरंभ होते हैं।  स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है।  विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।

मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु (संन्यासी के अर्थ में) होना अपवाद है, असाधु रहना परंपरा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।

एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।

समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।

जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो  स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।

इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।

प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, ‘देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ‘ विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर  स्वयं को  देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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