श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वांतः सुखाय।)

?अभी अभी # 269 ⇒ स्वांतः सुखाय… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे ढाई अक्षर प्रेम के आते हैं, और एक दो शब्द संस्कृत के भी आते हैं। पंडित बनने के लिए बस इतना ही काफी है। कुछ शब्द पूरे वाक्य का भी काम कर जाते हैं,  जब कि होते वे केवल दो शब्द ही हैं। जय हो। नमो नमो और वन्दे मातरम्।

संस्कृत के दो शब्द जो मुझे संस्कृत का प्रकांड पंडित बनाते हैं,  वे हैं स्वांतः सुखाय और वसुधैव कुटुंबकम् ! वैसे इन शब्दों का हिंदी संस्करण भी उपलब्ध है,  लेकिन वह प्रचलन के बाहर है। जो अपने कपड़े स्वयं धोकर सुखाए,  वह स्वावलंबी कहलाता है और जो जगत को कृष्णमय देखता है,  उसके लिए वासुदेव कुटुंबकम् है।।

कौन सुख के लिए नहीं जीता ! सुख की खोज ही मनुष्य का गंतव्य है। वह कर्म कैसे भी करे,  वह जीता भी स्वर्गिक सुख के लिए है और मरने के बाद भी स्वर्ग की ही इच्छा रखता है। केवल सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। राही मनवा दुख की चिंता क्यूं सताती है,   दुख तो अपना साथी है।

पंडित भीमसेन जोशी तो कह गए हैं,   जो भजे हरि को सदा,   वो ही परम पद पाएगा ! हां अगर वे यह कहते,  जो भजे हरि को सदा,  वो ही प्रधानमंत्री का पद पाएगा,  तो सभी राजनीतिज्ञ छलकपट,  राग द्वेष और उठापटक छोड़ हरि का भजन करने लग जाते। वे यह अच्छी तरह से जानते हैं,   प्रधानमंत्री का पद,  परम पद से बहुत बड़ा है।।

जो अपने सुख की चिंता नहीं करते,   वे सभी कार्य सर्व जन हिताय करते हैं ! उनका जीना,   मरना,  उठना बैठना,   सब देश की अमानत होता है। वे अपने सुख की कभी परवाह नहीं करते। अपना पूरा जीवन चुनावी दौरों,  विदशी दौरों,  और सूखा और बाढ़ग्रस्त इलाकों के दौरों में गुजार देते हैं। न उनका कोई परिवार होता है,  न सगा संबंधी।

अपने लिए,   जीये तो क्या जीये,  तू जी ऐ दिल ज़माने के लिए। होते हैं कुछ सहित्यानुरागी,  जिनका सृजन समाज को अर्पित होता है। वे अपने सुख के लिए नहीं लिखते,  उनके लेखन में आम आदमी का दर्द झलकता है।

यही दर्द इन्हें विदेशों में हो रही साहित्यिक गोष्ठियों की ओर ले जाता है।जहां केवल आम आदमी की चर्चा होती है। वे किसी पुरस्कार के लिए नहीं लिखते। लेकिन अगर उन्हें पुरस्कृत किया जाए,  तो वे पुरस्कार का तिरस्कार भी नहीं करते।।

पसंद अपनी अपनी,  खयाल अपना अपना ! आप अपने सुख के लिए ज़िन्दगी जीयें,  अथवा समाज के लिए,  सृजन आपका स्वयं के सुख के लिए हो या जन कल्याण के,  आप अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। बस इतना जान लें,   स्वांतः सुखाय में कोई प्रसिद्धि नहीं है,  कोई पुरस्कार नहीं है,  तालियां और हार सम्मान नहीं है …!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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