हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 69 ☆ मर्डर ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  पति पत्नी के संबंधों पर आधारित  एक विचारणीय एवं संवेदनशील लघुकथा मर्डरडॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 69 ☆

☆ मर्डर ☆

मीता  ने  तेजी से काम निपटाते हुए पति से कहा – रवि! तुम्हारे फोन पर यह किसके मैसेज आते  हैं? कई दिनों से देख रही हूँ  तुम रोज मैसेज  पढकर हटा देते हो ।

मेरे साथ ऑफिस में काम करती है मारिया। बेचारी अकेली है, तलाक हो गया है बच्चे भी नहीं हैं। उसकी मदद करता रहता हूँ बस।

पक्का और कुछ नहीं ना?

नहीं यार, बहुत शक्की औरत हो तुम।

पर उसके  मैसेज  क्यों ह्टा देते हो?

यूँ ही, अपने सुख दुख की बात करती रहती है बेचारी । तुम तो जानती हो मेरा स्वभाव, मदद करता रहता हूँ सबकी।

मेरे ऑफिस में भी हैं एक मि. वर्मा, बेचारे अकेले हैं। मैं भी  उनकी मदद कर दिया करूंगी।

मर्डर हो जाएगा किसी का — ।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ नीले घोड़े वाले सवारों के नाम ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा – कहानी ☆ नीले घोड़े वाले सवारों के नाम ☆ श्री कमलेश भारतीय  

(यह कहानी –  ‘नीले घोड़े वाले सवारों के नाम’ धर्मयुग में जुलाई, 1982 में प्रकाशित हुई थी।  इस कहानी का पंजाबी मे अनुवाद श्री केहर शरीफ ने किया जो पंजाबी ट्रिब्यून में – ‘रुत नवेयां दी आई’ शीर्षक से प्रकशित हुई थी।)  

नगर में कोहराम मच गया था।

और मुझे माला की चिंता सताई थी। बेतरह याद आई थी माला।

वह अपनी ससुराल में खैरियत से हो। यही दुआ मांगी थी। जब जब किसी बहू को दहेज के कारण मिट्टी का तेल छिड़ककर मारे जाने की खबर अखबार में पढ़ता हूं तब तब मेरा ध्यान अपनी इकलौती बहन माला की ओर चला जाता है। अजीब संयोग है कि ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता, जब अखबार के किसी कोने में ऐसी मनहूस खबर न छपती हो और मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरी इकलौती बहन रोज़ मरती हो। रोज़ रोज़ मरने की उसकी खबर पढ़कर मे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। माला की याद के साथ ही याद आता है उसका गुनगुनाना : 

उड़ा बे जावीं कावां

उडदा वे जावीं मेरे पेकड़े,,,,

यह महज गुनगुनाने लायक लोकगीत नहीं है। ससुराल में किसी दुखियारी बेटी द्वारा काजा का सहारा लेकर मायके की याद एव॔ वीरे तक अपना मन खोलकर रख देने का अनोखा साधन है ।

कागा। अरे ओ कागा। उड़ते हुए मे रे मायके जाना,,,,,सचमुच यह लोकगीत भी नहीं, कागा भी नहीं। कागा के कहने के बहाने यह दुखियारी माला का मन है जो ससुराल के दुखों को भुलाने के लिए बार बार मायके की तरफ पंख लगाये उड़ता है और अपनी तकलीफों की कहानी, दर्द के पहाड़ों जैसे बोझ को मां से कहने से इसलिए कतराते है कि मां सब काम काज छोड़कर सहेलियों के गले लग कर रोने लगेगी। मां का कलेजा छलनी छलनी हो जायेगा। बाप से भी भेद खोलते हुए माला का मन भरता है। बाप ने पहले ही अपनी पहुंच से बाहर जाकर दान दहेज दिया था। अब वह दोहरी मार से, लोगों में बैठे हुए भी अपना आपा खो देगा। पर मेरी बेबसी पर आंसू बहाने से बढ़ कर कुछ कर नहीं पायेगा। हां, कागा, तुम सारी कहानी कहना तो कहना मेरे भाई से। कहानी सुनते ही उसकी आंखों में गुस्से की आग मच उठेगी और वह नीले घोड़े पर सवार होकर बहन की खोज खबर लेने निकलेगा।

नगर में यहां वहां, हर चौक, हर गली, हर बाजार, हर घर और हरेक की जुबां पर एक ही चर्चा थी -नवविवाहित की हत्या या आत्महत्या की रहस्यमयी घटना की औल मुझे एक ही चिंता थी बहन माला की।

माला हर समय हंसूं हंसूं करति रहती। जरा जरा सी बात पर उसके दांत खिल उठते और मां उसे टोकती रहती कि तेरी ये आदत अच्छी नहीं। ससुराल में धीर गंभीर रहना पड़ता है बहुओं को। बहुएं ही ही करतीं अच्छी नहीं लगतीं। भले घर की लडकियां बात बेबात पर दांत नहीं निकालतीं ।

,,,,,,,

पिता बीमारी से लड़की रहे होते। मैं, जो माला का बड़ा भाई ही नहीं, बाप भी जगह पिता की भूमिका निभाने को विवश था। मां को टोक देता -हंसने खेलने दे मां। मायके में ही तो लड़कियां मौज मस्ती करती हैं। कौन जाने कैसी ससुराल मिले ? 

-कैसी ससुराल क्या ? मेरी बेटी राज करेगी राज ।

-अभी से उसे ससुराल में सेवा करने की बजाय राज करने का पाठ पढ़ाओगी तो ऐसे लाड प्यार में खिल खिल क्यों न करेगी ?

-किसी के बाप का क्या जाता है जो मेरी बेटी हंसती है ?

-बाप तो इसका और मेरा एक ही है, अम्मा। मगर हम कौन इसके भाग की रेखा लिख सकते हैं ? 

-ऊ,,,,माला इस प्रसंग से चिढ़ जाती और जीभ निकाल कर मुझे चिढ़ाने लगती। मैं भी बड़प्पन भूल कर पर हाथ उठा कर दौड़ पड़ता। मां बीच में आ जाती -मेरे जीते जी कोई हाथ लगा कर दिखाये तो मेरी लाडली को। और वह मां के पीछे छिपी मुझे जीभ दिखा दिखा कर चिढाती रहती ।

लोगों की बातें, अखबार की रपटें, सब सुनता हूं तो घबरा जाता हूं।

-क्या जमाना आ गया है ? लोग किसी की जान को जान ही नहीं समझते ? गाजर मूली की तरह कट। बस। मामला खत्म।

-न मूर्खो। अंधेर साईं का,,,,,तुम्हारी करतूत की खबर लोगों को न लगेगी ? लोगों के सामने बच बी गये पर ऊपर की अदालत कौन भुगतेगा ? वो ऊपर वाला तो सब कुछ देखता है,,,,जानी जान है।

-हाय। हाय। जिंदा जान को कैसे बकरे की तरह मार डाला। कसाई कहीं के। सुनते हैं, रात को खूब मारपीट की। अधमरी तो कर ही दिया था। फिर पिछले कमरे में ले गये थे। मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। कितनी तड़पी होगी। हाय राम। चीखी चिल्ला होगी। हाथ पांव मारे होंगे।

 -मुए टेलीविजन मांग रहे थे। कहां से ला देती ? किस मुंह से मांगती? बहू के मायके में क्या पैसों की खान दबी होती है कि गयी और खोद लाई ? 

-अब शमशान घाट का बाबा सच्चा बनता है कि मुझे नोट दे गये। हरामजादे। नोट दे गये या तूने ले लिए ? तुझे पता नहीं चला, जिस लाश को मुंह अंधेरे जलाने लिए हैं, शहर के चार आदमी साथ नहीं हैं, कुछ तो काली करतूत होगी ही। और वह चिल्लाने की बजाय मुंह में नोट दबा कर कोठरी में घुस गया ? कुत्ता कहीं का। अब नगर भर में घूम रहा है अपने आपको धर्मात्मा साबित करने के लिए। पाखंडी। निकाल बाहर करो इसे शहर से या जिंदा गाड़ दो ।

जितने मुंह, उतनी बातें।

नगर में एक तनावपूर्ण शांति।

लोग-जो दहेज न लेने, न देने की कसमें खाते नहीं थकते थे। लोग-जो दहेज न मिलने पर जान लेने से भी नहीं चूकते थे। लोग-अबूझ पहेली की तरह समझ में नहीं आते थे। लोग-जो जुलूस की शक्ल में नारे भी लगाते थे। लोग-जो समय आने पर बिखर भी जाते थे। लोग-जो गालियां देते नहीं थकते थे। वही लोग महज शोक प्रकट करने आते थे।

-च् च्, बहुत बुरा हुआ। महज मातमपुर्सी, महज नाटक। जैसे एकाएक धुंध उतर आई हो, सन्नाटा व्याप गया हो। कहीं कोई विरोध नहीं। विरोध की आवाज़ तक नहीं। शहर में जैसे एक नवविवाहिता सामान्य ढंग से सब्जी-भाजी बनाने रसोई घर में गयी हो और असावधानी में उसकी साड़ी का पल्लू आग पकड़ कर उसे जला गया हो। अखबार के किसी कोने को भरने के लिए एक छोटी सी खबर, जिसे सुबह रजाई में दुबके, चाय की चुस्कियों भरते, ताज़ा अखबार में सबने पढ़ा और शाम तक अखबार को रद्दी में फेंक दिया। घटना को भूल भुला दिया। रोज़ ऐसा होता है। कहीं न कहीं, किसी न किसी शहर में। क्यों होता है ऐसा ? कौन सिर खपाये,,,,भाड़ में जाये।

क्या माला के साथ भी,,,,,?

किसी शिकारी की बंदूक से निकली गोली की तरह यह सवाल मुझे छलनी कर जाता है। माला के बारे मः ऐसा सोचते ही सिहरन सी दौड़ने लगती है सारे जिस्म में। सि, से लेकर पांव तक करंट की लहर गुजर जाती है और मैं सुन्न हो जाता हूं। अखबार के किसी कोने में छपी छोटी सी खबर भी मुझे माला के प्रति दुश्चिंताओं से भर देती है ।

-मेरी बेटी राज करेगी, राज।

हर मां बाप, भाई बहन यही चाहते हैं कि ससुराल में उनकी लाडो राज करे। बीमार बाप बिस्तर से लगा, चाय, निगाहों से शादी की सारी रस्में देखता रहा था और उसकी जगह माला का कन्यादान मुझे ही करना पड़ा था। उसका धर्म पिता बन कर। राखी की लाज के साथ साथ उसके मान सम्मान का भार भी मे रे ही कंधों पर आ गया था। कन्या दान करके मैंने यही मांगा- मेरी बहन राज करे, राज।

क दो बार ससुराल के चक्कर लगाने के बाद देखा कि माला की हंसी कहीं खो गयी थी।

तीज त्योहारों पर सब कुछ ले जाते भी डरी सही रहती। तानों की कल्पना मात्र से उसकी कंपकंपी छूट जाती। मिली हुई सौगातों पर ससुराल में होने वाली छींटाकशी याद करते उसका मन डूबने लगता। न चाहते भी उपहारोअऔ से लदी फदी जाती। अगली बार फिर वही उतरा हुआ चेहरा और मांगों का सिलसिला होता।

एक बड़ा भाई, जिसके अपने सपने झर चुके हों, अपनी बहन को सिवाय शुभकामनाओं के दे हो क्या सकता था ? एक मां भगवान् की मूरत के आगे माता रगड़कर बेटी का सुहाग बना रहे की दुआ ही कर सकती है। और कुछ नहीं। एक बीमार बाप सिवाय आशीर्वाद के और क्या सम्पत्ति दे सकता है ? 

ये सब नाकाफी थे दुनिया के बाज़ार में, माला की ससुराल में।

इनका कोई मोल न था। कौड़ी थे, एकदम कौड़ी। माला के खत उसके दुख दर्दों का संकेत लिए रहते। खतों की लिखाई बेढंगी -बेतरतीब रहती। जिससे लिखने वाली के मन में व्याप्त भय, आशंका, चिंता, अस्थिरता आदि की सूचनाएं छिपाई हुई होने पर भी मिल हो जाती थीं।

फिर उसके खत जैसे सेंसर किए जाने लगे। किसी किसी खत में बनावटी खुशियां भरी होतीं तो कोई कोई खत टूटे फूटे अक्षरों में  कभी पेंसिल तो कभी कोयले से लिखा मिलता। और इस हिदायत के साथ कि चोरी से लिख रही हूं, इस खत का जिक्र न करें। बस। मिलने आ जाएं। दर्द की एक एक परत जम कर दर्द का पहाड़ बन जाती थी। जिसका बोझ बांटने के लिए वह कभी खत का तो कभी कागा का सहारा लेती थी।

बात बरसों से बढ़कर हाथापाई तक आ पहुंची थी। पीठ पर नीले नीले निशान जब जख्म बन जाते, तब मरहम के लिए मायके की हंसी ठिठोली याद आती। बात,तानों से बढ़कर इल्जामों तक पहुंच गयी थी और यहां तक कि घर से अपना हिस्सा बेचकर पैसा ला दो ।

कई काली रातें गिद्ध की तरह डैने फैलाये शहर पर मंडरा कर निकल गयी थीं और लोग बेखबर सोच रहे थे या आंखें मूंदे सोने का बहाना कर रहे थे।

रपट तक दर्ज नहीं हुई थी। मामला ठप्प लग रहा था। हत्यारे मज़े में काम धंधों में लग गये थे। एकाएक शहर में हलचल मच गयी थी। नवविवाहिता के मायके से, आसपास के कई गांवों की पंचायतें इकट्ठी होकर आई थीं। ठसाठस लोग, भीड़ के बीच सिसकते भाई। थाने का घेराव ही हो गया लगता था। पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही न करने की निंदा की जा रही थी। पुलिस मुर्दाबाद। हाय,,,हाय,,,,खा गये।

थानेदार ने रपट दर्ज न करने की बजाय भाषण झाड़ा था-एक सप्ताह हो गया इस कांड को । । अब तक आप लोग कहां सो रहे थे ? मैं मोहल्ले में गया था और ललकार कर पूछा था-है कोई माई का लाल जो गवाही दे कि हत्या की गयी है ? है कोई भलामानस जो छाती ठोककर कहे कि मैंने देखा है ? क्या उसकी चीखें किसी ने नहीं सुनीं ? क्या आग का धुआं निकलते भी किसी ने नहीं देखा ? क्या एक ही दिन में मार डाला गया? रोज़ खटपट होती थी। मारपीट होती थी। गवाही दो। गवाही के बिना केस कैसा ?

रिश्वतखोर हाय हाय,,,,

नारे शहर भर में गूंजे थे। अखबारों को बिक्री का मसाला मिला था। मामला अधिकारियों के ध्यान में लाया गया था। अमन चैन कायम करना जरूरी हो गया था। जुलूस पर लाठी बरसाने से मामला शहर दर शहर फैल जाता। इसलिए जनता का गुस्सा शांत करने के लिए थानेदार की ही पेटी उतार दी गयी यानी सस्पेंड। हत्यारों को गिरफ्तार किया गया और फिर जैसे ठंडी राख में से हवा झोंका लगते ही चिंगारियां फूट पड़ती हैं -दबी हुई चर्चा छिड़ गयी।

-स्सालों को फांसी लगा देनी चाहिए ।

-नहीं। चौक में कौड़े मारने चाहिएं।

-पूछो, तुम्हारी क्या बेटी नहीं है ? 

-हाय। सुनते हैं उस दिन बेचारी ने ब्रत  रखा था।

-देवी देवता भी कैसे निष्ठुर हैं। एकदम पत्थर।

-कैसे कैसे राक्षस हैं दुनिया में ।

-पता चलेगा जब जेल में चक्की पीसेंगे। गले में फांसी का बंदा कसेगा,,,,

-सब फसाद की जड़ छोटी ननद है।

-उसे क्या दूसरा घर नहीं बसाना ?

-क्या गारंटी है कि जहां वह जायेगी वहां उसे जलाया नहीं जायेगा ? 

-नारी ही नारी की दुश्मन है ।

इस चर्चा के बीच मैं एक बार फिर अलग थलग पड़ जाता हूं। ज़मीन के हिस्से की मांग जैसे किसी आरे की तरह माला को चीर कर रख गयी थी।  टुकड़े टुकड़े हो गयी थी वह। होंठ बंद और आंखों से फूट पड़ा झरना आंसुओं का। काश, ज़मीन न होती। बाप ने शराब की लत में उड़ा दी होती। या भाई ने जुए में हार दी होती। यह ज़मीन न होती तो उसकी हड्डी हड्डी न टूटती।

निकलते निकलते बात मुझ तक पहुंची थी और सहज ही मुझे इस पर विश्वास नहीं आया था। पढ़ा लिखा वर्ग जो आर्थिक क्षमता का, आर्थिक अव्यवस्था का शिखर देख रहा है अपनी नजरों के सामने। वही,,,,वही हां जो देख रहा है अपनी बहनों को भी शादी ब्याह की उमर लायक। वही ननदें जिन्हें दूसरे घर बसाने हैं,,,कहां से ले आती हैं इतना बड़ा जिगरा,,,इतना बड़ा कलेजा ? 

मैंने तैयारी की थी और मां ने रोक लिया था -न, न, पुत्तर। हम लड़की वाले हैं। फिर भी जंवाई है। हमारा दामाद। हम बेटी वाले हैं। हमें झुकना ही पड़ेगा।

-जंवाई है तो जंवाई बन कर रहे। नहीं तो,,,,

मां ने मुझे जाने नहीं दिया था। कहीं माला की ससुराल जाकर कुछ ऐसा वैसा न कर दूं।

जुलूस नगर के हिस्सों में गुजर रहा है। थानेदार जो बहाल हो गया है । लोगों ने उसे पुलिस स्टेशन में कुर्सी पर बैठे देखा तो ऐसे हैरान हुए जैसे उसका भूत देख लिया हो। वह जिंदा जागता थानेदार था। आंखों में वही चीते सी चुस्ती, चेहरे पर रिश्वत की रौनक, मूंछों पर रौब झाड़ने वाली नौकरी का ताव और सबसे ऊपर वही चमचमाती वर्दी, बायीं ओर लटकता पिस्तौल, कंधों पर जगमगाते सितारे, न जाने कौन सी बहादुरी दिखाने पर। जब। वह सरकारी बूटों तले सड़क को रौंदता, पूरी ऐंठ के साथ शहर में गश्त लगाने लगा तब सबको सरकार की मर्जी के बारे में कोई शक नहीं रह गया था।

यही क्यों, सारे हत्यारे बड़े मज़े में जमानतों पर छूट आए थे और हंस हंस कर बता रहे थे कि जिसने पायजामा बनाया है, उसने नाड़ा भी।  कानून के इतने बड़े बड़े पोथे हैं कि कानून से बचने के लिए रास्ता निकल ही आता है।

जुलूस गुजर रहा है। नारे गूंजते जा रहे हैं -नाटक बंद करो। हत्यारों को सज़ा दो। नहीं तो हम सज़ा देंगे।

मां और मैं दरवाजे से बाहर निकल उमड़ आए लोगों,,,,लोगों के जोश और गुस्से को देखकर कांपने लगते हैं। डर कर बिल्कुल नहीं, हम डरे हुए नहीं हैं। उनका जोश और गुस्सा मुझमें आ गया है और मैं भी उन लोगों के साथ हो लेता हूं। मां मुझे रोकती नहीं। वह जानती है कि माला मेरा इंतज़ार कर रही है। मैं जैसे नीले घोड़े पर सवार हूं। जल्दी पहुंचने के लिए उतावला। खोज खबर लेने। माला तेरे भाई जिंदा हैं,,,,हजारों भाई,,,,

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #54 – संघर्ष से बनती है जिंदगी बेहतर ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #54 ? संघर्ष से बनती है जिंदगी बेहतर ?  श्री आशीष कुमार☆

हर किसी के जीवन में कभी ना कभी ऐसा समय आता है जब हम मुश्किलों में घिर जाते हैं और हमारे सामने अनेकों समस्यायें एक साथ आ जाती हैं। ऐसी स्थिति में ज्यादातर लोग घबरा जाते हैं और हमें खुद पर भरोसा नहीं रहता और हम अपना आत्मविश्वास खो देते हैं। और खुद प्रयास करने के बजाय दूसरों से उम्मीद लगाने लग जाते हैं जिससे हमें और ज्यादा नुकसान होता है तथा और ज्यादा तनाव होता है और हम नकारात्मकता के शिकार हो जाते हैं और संघर्ष करना छोड़ देते हैं।

एक आदमी हर रोज सुबह बगीचे में टहलने जाता था। एक बार उसने बगीचे में एक पेड़ की टहनी पर एक तितली का कोकून (छत्ता) देखा। अब वह रोजाना उसे देखने लगा। एक दिन उसने देखा कि उस कोकून में एक छोटा सा छेद हो गया है। उत्सुकतावश वह उसके पास जाकर बड़े ध्यान से उसे देखने लगा। थोड़ी देर बाद उसने देखा कि एक छोटी तितली उस छेद में से बाहर आने की कोशिश कर रही है लेकिन बहुत कोशिशो के बाद भी उसे बाहर निकलने में तकलीफ हो रही है। उस आदमी को उस पर दया आ गयी। उसने उस कोकून का छेद इतना बड़ा कर दिया कि तितली आसानी से बाहर निकल जाये | कुछ समय बाद तितली कोकून से बाहर आ गयी लेकिन उसका शरीर सूजा हुआ था और पंख भी सूखे पड़े थे। आदमी ने सोचा कि तितली अब उड़ेगी लेकिन सूजन के कारण तितली उड़ नहीं सकी और कुछ देर बाद मर गयी।

दरअसल भगवान ने ही तितली के कोकून से बाहर आने की प्रक्रिया को इतना कठिन बनाया है जिससे की संघर्ष करने के दौरान तितली के शरीर पर मौजूद तरल उसके पंखो तक पहुँच सके और उसके पंख मजबूत होकर उड़ने लायक बन सकें और तितली खुले आसमान में उडान भर सके। यह संघर्ष ही उस तितली को उसकी क्षमताओं का एहसास कराता है।

यही बात हम पर भी लागू होती है। मुश्किलें, समस्यायें हमें कमजोर करने के लिए नहीं बल्कि हमें हमारी क्षमताओं का एहसास कराकर अपने आप को बेहतर बनाने के लिए हैं अपने आप को मजबूत बनाने के लिए हैं।

इसलिए जब भी कभी आपके जीवन में मुश्किलें या समस्यायें आयें तो उनसे घबरायें नहीं बल्कि डट कर उनका सामना करें। संघर्ष करते रहें तथा नकारात्मक विचार त्याग कर सकारात्मकता के साथ प्रयास करते रहें। एक दिन आप अपने मुश्किल रूपी कोकून से बाहर आयेंगे और खुले आसमान में उडान भरेंगे अर्थात आप जीत जायेंगे।

आप सभी मुश्किलों, समस्यायों पर विजय पा लेंगे।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 68 ☆ चुनाव ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  एक विचारणीय एवं प्रेरक लघुकथा चुनाव।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 68 ☆

☆ चुनाव ☆

शिक्षा क्षेत्र का चुनाव हो रहा था। वह अपने को सब तरह से उसके योग्य समझ  रहा था। क्यों ना समझे ? हमेशा मेहनत से काम जो  किया है। लोगों ने समझाया कि चुनाव कैसा भी हो उसमें राजनीति होती ही है, बडी गंदी चीज है यह। कुछ ने तो खुलकर कहा – इस पचड़े में मत पडो भाई, तुम्हारे जैसे सीधे – सादे आदमी के बस की बात नहीं है यह। पर वह नहीं माना। वह बडे भरोसे से अपने उसूलों पर चुनाव लड रहा था। मतदाता  कहते – आपके जैसे  निष्ठावान और मेहनती शिक्षक को तो जीतकर आना ही चाहिए। शिक्षा के स्तर की ही नहीं विद्यार्थियों के भविष्य की भी बात है। उसका उत्साह दुगुना हो जाता।

चुनाव परिणाम घोषित हुए, उसका नाम कहीं नहीं था। मुँह पर तारीफ करनेवाले कुछ बिक गए थे और कुछ जाति के आधार पर बँट गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 85 – लघुकथा – काहे की चिंता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – काहे की चिंता।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 85 ☆

☆ लघुकथा – काहे की चिंता ☆ 

पति सुबह 5:00 बजे उठा। पानी भरा। कमरा साफ किया। पानी गर्म किया। चाय बनाई। पत्नी को उठाया।बिस्तर व्यवस्थित रखा। झाड़ू निकाल कर कंप्यूटर पर कहानी संशोधन करने बैठ गया।

तभी पत्नी ने आवाज दी, ” हरी मिर्ची नहीं है।”

“अभी मंगाता हूं,” कहकर पति ने किसी को फोन किया, ” अब प्लीज 30-35 मिनट मुझे डिस्टर्ब मत करना।”

“जी,” कहकर पत्नी काम करने लगी। उसने मोबाइल पर गाना लगा दिया था, ” बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूं।”

“इसकी आवाज थोड़ी कम कर दो।”

“जी”, पत्नी तुनक कर आवाज कम करते हुए बोली, ” इस सौतन के पीछे मुझे कुछ करने और सुनने भी नहीं देते हैं । फिर 10 बजते ही कहेंगे- भूख लग रही है।”

” क्या कहा भाग्यवान?”

” कुछ नहीं, ” पत्नी बड़बड़ाई, ” मैं घरबाहर दोनों जगह खटती रहती हूं। यूं नहीं कि घर के काम में मेरी सहायता कर दें। बस इस बैरी कंप्यूटर से चिपके रहेंगे।”

यह सुनकर पति का हाथ कंप्यूटर के कीबोर्ड से उठकर माथे पर चला गया।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

25-12-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – सैनिटाइजर ☆ श्री अशोक वाधवाणी

 ? लघुकथा – सैनिटाइजर ☆ श्री अशोक वाधवाणी?

अस्पताल में हर आने वाले को, रिसेप्शनिस्ट हाथों पर सैनिटाइजर लगाने की सख्त हिदायत दे रही थी।  सोशल डिस्टंस के तहत सभी मरीजों को थोड़ा दूर-दूर बिठाया जा रहा था। जिन्होंने मास्क नहीं पहना था, उनको लौटाते हुए, आग्रहपूर्वक मास्क पहनकर आने की बिनती की जा रही थी। 

अस्पताल में पूरी तरह शांति पसरी हुई थी। इतने में बाहर से मास्क पहने एक बुजुर्ग व्यक्ति अकेले ही अंदर दाखिल हुए। अपनी वेशभूषा से वे गांव वाले लग रहे थे। उनसे भी सैनिटाइजर लगाने को कहा गया । ऐसा प्रतीत होता था कि वे कोरोना काल में पहली बार किसी अस्पताल में आए हों। उन्होंने अपने हाथों के साथ-साथ, पांवों को भी सैनिटाइजर करना शुरु किया। उसके बाद मास्क को बाहर और अंदर से भी सैनिटाइजर लगाया। वहां उपस्थित सभी लोग एक दूसरे को ईशारा करके उन बुजुर्ग को देखने के लिए कह रहे थे। कुछ लोग मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे तो कुछ अपनी हंसी को बड़ी मुश्किल से रोक रहे थे। रिसेप्शनिस्ट उन बुजुर्ग को समझाने, रोकने की बजाय मूक दर्शक बनी बैठी थी। उन बुजुर्ग को इस तरह सैनिटाइजर लगाते देखकर कई लोगों ने उनका वीडियो बनाना शुरू किया । उनके हावभावों से ऐसा लग रहा था कि मानो उनके हाथों में कोई नई, जबरदस्त चीज हाथ लग गई है जिसे वे सोशल मीडिया पर शेयर करके वाह-वाही लूटेंगे। एक युवक से यह दृश्य देखा नहीं गया। वो लंबे-लंबे डग भरता हुआ उस बुजुर्ग के पास पहुंचा। उनको रोका। 

वहाँ बैठी एक महिला ने उस युवक की प्रशंसा करते हुए युवक से कहा, “यहां मौजूद कई लोगों की तरह तुम्हारे हाथ में भी मोबाइल था। तुम भी तो विडियो बना सकते थे।”

“यहां उपस्थित सभी शहरी लोग शायद पढ़े-लिखे और समझदार होंगे, जबकि मैं गांव का रहने वाला कम पढ़ा-लिखा हूँ, इसलिए।” युवक का करारा जवाब सुनकर, महिला ने उसकी पीठ थपथपाई। महिला ने लोगों पर दृष्टि दौड़ाई, वे उनसे नज़रें मिलाने से कतरा रहे थे।

© श्री अशोक वाधवाणी

गांधी नगर, कोल्हापुर, महाराष्ट्र,
संपर्क–9421216288.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा – कहानी ☆ स्वतन्त्रता दिवस विशेष – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय  

पुष्प की अभिलाषा शीर्षक से लिखी कविता से आप भी चिरपरिचित हैं न ? आपने भी मेरी तरह यह कविता पढ़ी या सुनी जरूर होगी । कई बार स्वतंत्रता दिवस समारोह में किसी बच्चे को पुरस्कार लेते देख तालियां भी बजाई होंगी । मन में आया कि एक बार दादा चतुर्वेदी के जमाने और आज के जमाने के फूल में शायद कोई भारी तब्दीली आ गयी हो । स्वतंत्रता के बाद के फूल की इच्छा उसी से कयों न जानी जाए ? उसी के मुख से । फूल बाजार गया खासतौर पर ।

-कहो भाई , क्या हाल है ?

– देख नहीं रहे , माला बनाने के लिए मुझे सुई की चुभन सहनी पड रही है ।

– अगर ज्यादा दुख न हो रहा हो तो बताओगे कि तुम्हारे चाहने वाले कब कब बाजार में आते हैं ?

– धार्मिक आयोजनों व ब्याह शादियों में ।

– पर तुम्हारे विचार में तो देवाशीष पर चढ़ना या प्रेमी माला में गुंथना कोई खुशी की बात नहीं ।

-बिल्कुल सही कहते हो । मेरी इच्छा तो आज भी नहीं पर मुझे वह पथ भी तो दिखाई नहीं देता, जिस पर बिछ कर मैं सौभाग्यशाली महसूस कर सकूँ।

– क्यों? आज भी तो नगर में एक बड़े नेता आ रहे हैं ।

– फिर कल क्या करूँ ?

– क्यों ? नेता जी का स्वागत् नहीं करोगे ?

– आपके इस सवाल की चुभन भी मुझे सुई से ज्यादा चुभ रही है । माला में बिंध कर वहीं जाना है । मैं जाना नहीं चाहता पर मेरी सुनता कौन है ?

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा –  निश्चय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा –  निश्चय ?

उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।

जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं दर्शक यहीं पर मैदान मानो निष्प्राण है।

एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने‌ लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग‌ वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।

दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बच्चे ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “बच्चे)

☆ लघुकथा – बच्चे ☆

ऑफिस के सामने खाली पड़े प्लाट में एक कुतिया ने बच्चे दिए हुए थे। अब कॉलोनी का कोई भी व्यक्ति वहां से गुजरता तो वह उस पर भौंकने लगती और काटने को दौड़ती थी। यहाँ तक कि गली से गुजरने वाले कई बाहरी व्यक्तियों को तो वह घायल भी कर चुकी थी। इसीलिए उस गली से लोगों का गुजरना भी कम हो गया था।

एक दिन मैं सुबह ऑफिस पहुंचा तो देखा कि वह कुतिया ऑफिस के सामने खड़ी थी। ऑफिस के सामने वाली नाली को ऊपर से सीमेंट की शेल्फ बना कर कवर किया हुआ था और वह कुतिया वहीं ताक रही थी। मैंने गौर किया तो पाया कि उसके नीचे से उसके बच्चों की आवाजें आ रही थीं। मैं समझ गया कि इसके बच्चे उस कवर किए हुए हिस्से में चले गए थे और अब कीचड़ होने की वजह से निकल नहीं पा रहे थे।

मैंने ऑफिस के अपने एक सहायक को साथ लिया और उन बच्चों को बचाने में लग गया। कीचड़ ज्यादा होने की वजह से उन बच्चों को निकालना मुश्किल हो रहा था। हम उस कुतिया पर भी नज़र रखे हुए थे कि कहीं वह हमें काट न ले, परन्तु वह बिलकुल शांत हमें बच्चों को निकालते हुए देख रही थी। जब काफी देर तक बच्चे नहीं निकले तो हमने खूब सारा पानी डालना शुरू किया और कुछ कीचड़ कम होने पर पुन: डंडे से बच्चों को निकालना शुरू कर दिया। अब एक एक करके बच्चों का निकलना शुरू हो गया था। जैसे जैसे हम बच्चों को निकाल रहे थे, उनकी मां उन्हें वैसे वैसे ही एक एक करके सुरक्षित जगह पर पहुंचाती जा रही थी। काफी मशक्कत के बाद उसके सारे बच्चों को हम सही सलामत बाहर निकालने में सफल हो गए।

मैंने देखा कि जो कुतिया किसी को अपने आसपास भी फटकने नहीं देती थी, आज उसने हमें एक बार भी कुछ नहीं कहा था, बल्कि हमारी तरफ याचना भरी नज़रों से देख रही थी। अब उसकी आँखों में एक अनोखी चमक और हमारे लिए कृतज्ञता का भाव था। मैं सोच रहा था, “इंसान हो या जानवर, बच्चे सभी को एक समान ही प्यारे और अमूल्य होते हैं…।”

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पुरस्कृत कथा – काठ की हांडी ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय 

जन्म – मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश)

प्रकाशन 

  • उपन्यास – “बंदमुट्ठी”,  “कुबेर” व “केसरिया बालम”। उपन्यास “बंदमुट्ठी” गुजराती भाषा में अनूदित।
  • कहानी संग्रह : “चष्मे अपने अपने ”, “प्रवास में आसपास”, “शत प्रतिशत”, “उम्र के शिखर पर खड़ेलोग।” सातसाझा कहानी संग्रह। कहानियाँ मराठी, पंजाबी व अंग्रेजी में अनूदित।  
  • संपादन – कथा पाठ में आज ऑडियो पत्रिका का संपादन एवं कथा पाठ।  
  • पंजाबी में अनुवादित कहानी संग्रह – पूरनविराम तों पहिलां
  • भारत में आकाशवाणी से कई कहानियों व नाटकों का प्रसारण।
  • कई अंग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए हिन्दी में सब-टाइटल्स का अनुवाद।
  • कैनेडियन विश्वविद्यालयों में हिन्दी छात्रों के लिए अंग्रेज़ी-हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित।
  • सुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।

सम्प्रति – यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो (कैनेडा) में लेक्चरार के पद पर कार्यरत।

न्यूयॉर्क, अमेरिका की कुछ संस्थाओं में हिन्दी शिक्षण, यॉर्क विश्वविद्यालय टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर। भारत में भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक।

 ? पुरस्कृत कथा – काठ की हांडी ☆ डॉ. हंसा दीप  ?

? डॉ हंसा दीप जी को  “कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020”  के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनायें ?

(आज  प्रस्तुत है डॉ हंसा दीप जी की समसामयिक विषय पर आधारित एक अति संवेदनशील कहानी ‘काठ की हांडी’डॉ हंसा दीप जी की इस कहानी को हाल ही में ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा आयोजित “कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020” से पुरस्कृत किया गया है। यह एक संयोग है कि ई-अभिव्यक्ति में इस कथा का मराठी भावानुवाद को क्रमशः चार भागों में ‘समर्पण’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया था। यह भावानुवाद मराठी की सुप्रसिध्द साहित्यकार श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी सम्पादिका (ई-अभिव्यक्ति (मराठी) द्वारा किया गया था। आप मराठी भावानुवाद निम्न लिंक के विभिन्न भागों पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।) 

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ समर्पण (अनुवादीत कथा) – ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर  >>   ☆ भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4 

अफरा-तफरी मची हुई थी। शहर के हर कोने से भय और घबराहट की गूँज सुनायी दे रही थी। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक पहुँचते कोरोना वायरस अब एलेग्ज़ेंडर नर्सिंग होम की दहलीज पर कदम रख चुका था जहाँ कई उम्रदराज़ पहले से ही बिस्तर पर थे। सीनियर सिटीज़न के इस केयर होम में अधिकांश रहवासी पचहत्तर वर्ष से अधिक की उम्र के थे। कई लोग आराम से घूम-फिर सकते थे तो कई बिस्तर पर ही रहते। कई को अपनी दिनचर्या निपटाने में किसी की मदद की आवश्यकता नहीं होती तो कई पूरी तरह से मदद पर निर्भर थे। कई शारीरिक व मानसिक दोनों रूप से अस्वस्थ थे, तो कई सिर्फ मानसिक रूप से अस्वस्थ थे। वे चलते-फिरते तो थे पर ऐसे जैसे कि कोई जान नहीं हो उनमें। उन्हें देखकर लगता था कि जिंदगी टूट-फूट गयी है, जैसे-तैसे उसे समेट कर चल तो रहे हैं पर किसी भी क्षण बिखर सकती है।     

कोरोना के प्रहार को सहने की ताकत इन सीनियर सिटीज़न में बहुत कम थी इसीलिये यह वायरस इसका फायदा उठाकर शहर के अधिकांश ऐसे नर्सिंग होम को निशाना बना रहा था। अब तक सुरक्षित रहा यह केयर होम अब इसके शिकंजे में फँस चुका था। एक के बाद एक कई लोगों की रिपोर्ट पॉज़िटिव आ रही थी और उन्हें अस्पताल भेजा जा रहा था। चौबीस घंटे खत्म होते-होते दस लोगों की मौत की खबर उनके साथियों में निराशा और दहशत फैलाते हुए दीवारों से टकराकर साँय-साँय कर रही थी। मौत का मंजर आँखों के करीब आकर दस्तक दे रहा था।

खौफ़ और खतरों से जूझते यहाँ के कर्मी अपनी जान की चिंता लिये जैसे-तैसे इस खतरे से निपट रहे थे। कुछ पॉज़िटिव होने से घर पर एकांतवास में थे, कुछ इसकी आशंका में घर रुकना चाहते थे पर मजबूरी में काम कर रहे थे। एक के बाद एक आती इन खबरों ने रोज़ा को विचलित किया था। बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थी कि अपने पड़ोसी स्टीव की कोई खबर मिल जाए उसे।  

जीवन के छियासी बसंत पार कर चुकी रोज़ा पर मौत की खबरों का आतंक इस तरह छाया था कि नज़रें टीवी स्क्रीन से हट नहीं रही थीं। गत दस वर्षों से यही नर्सिंग होम उसका घर था। पिछले कुछ दिनों से सारे कर्मी इस तरह डरे हुए अपना काम कर रहे थे मानो बिस्तर पर लेटे ये रहवासी मौत का पैगाम लिये खड़े हों उनके लिये। सबने अपने आपको पूरी तरह कवर किया हुआ था, पता ही नहीं चलता कि “यह है कौन”। आज तक कभी ऐसी स्थिति नहीं आयी थी कि काम करने वाले उन सबके इर्द-गिर्द किसी रोबाट की तरह आएँ। हल्के नीले रंग के प्लास्टिक के कवर से ढँके या यों कहें कि प्लास्टिक का गाउन पहने हुए, हाथों में दास्ताने, मुँह पर मास्क, पारदर्शी चश्मे में छिपी आँखों के सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता था।

सूज़न, नर्सिंग होम की रिसेप्शनिस्ट ने आकर आज दिवंगत हुए सदस्यों के नाम बताये। स्टीव का नाम भी था उनमें। रोज़ा की आँखें जैसे झपकना ही भूल गयी हों। कई साथियों के साथ उसका खास दोस्त स्टीव उसे छोड़ कर चला गया था। अक्सर वे दोनों आपस में बातें करते रहते थे। दोनों ने यहाँ के जीवन को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया था। किसी को अब परिवार, बच्चों की प्रतीक्षा नहीं होती क्योंकि वे दोनों एक दूसरे के अच्छे साथी बन गये थे। उस बड़े कमरे में जहाँ चार लोगों के पलंग थे। एक ओर से दूसरी ओर सिर्फ कपड़े का परदा था जो उनके अपने कमरे की सीमा था, उनका अपना घर था। कोई किसी की चारदीवारी में नहीं झाँकता था। बैठे-बैठे, सोए-सोए बातें कर लेते थे, ठहाके लगा लेते थे, लंच-डिनर की टेबल पर साथ निभाते और टहलने साथ में चले जाते थे।

कल स्टीव की रिपोर्ट कोरोना पॉज़िटिव आयी और उसे अस्पताल ले जाया गया था, आज वह चल बसा था। बगैर कुछ कहे इस तरह उसका चले जाना मन को स्वीकार ही नहीं हो रहा था। लग रहा था कि अभी कपड़े की दीवार के उस पार से आवाज आएगी – “हे, रोज़, सब ठीक है? चलो, घूमने चलें।”

“पाँच मिनट बाद चलते हैं स्टीव।”

उन पाँच मिनटों में वह अपने बाल ठीक करेगी, रूखे होठों पर चॉपस्टिक लगाएगी और चप्पल पहन कर चल देगी उसके साथ। नीचे बरामदे तक जाएँगे। फिर मौसम अच्छा होगा तो थोड़ा बाहर निकलेंगे, उसके बाद उसकी मजेदार बातों पर हँसते हुए ताश खेलने बैठेंगे। अखबार पढ़ेंगे और फिर से अपने-अपने कमरे में कैद हो जाएँगे। 

इस तरह तो कोई दुनिया छोड़ कर चला नहीं जाता। रोज़ा के लिये यह सिर्फ एकाकीपन ही नहीं था, बहुत कुछ था जो तकलीफ दे रहा था। साथ वाले परदे की हिलती दीवारों को घूरते हुए महसूस हो रहा था कि न जाने कल किसका नंबर है। कितने और लोग अस्पताल के लिये ही नहीं, अपनी आखिरी यात्रा के लिये प्रस्थान कर रहे हों। वही हुआ, अगली सुबह तक लगभग सारे लोग या तो जा चुके थे या बची हुई अपनी चंद साँसें गिन रहे थे।

शायद जीवन का सबसे दुखद दिन था यह, जब आसपास के सारे जाने-पहचाने चेहरे कूच कर गए थे। रोज़ा न खा पायी थी, न सो पायी थी। वह रात काटे नहीं कट रही थी। बहुत अंधेरी थी, इतनी अंधेरी कि लग रहा था आज सूरज नहीं उगेगा। उसे भी महसूस होने लगा था कि कुछ गलत है शरीर में, साँस लेने में तकलीफ होने लगी थी। अजीब किस्म की बेचैनी थी। तमाम सामाजिक दूरियों के बावजूद सूरज निकलने तक रोज़ा के शरीर में कोरोना के सारे लक्षण मौजूद थे। उसे भी अस्पताल भेज दिया गया। कई मित्रों के हँसते हुए चेहरों से भरा वह नर्सिंग होम मौत का अड्डा बन चुका था। वे पलंग जो दिन हो या रात मदद की गुहार लगाते रहते थे, अब मौन थे। एक साथ पैंतीस लोगों की मौत अब छत्तीस का आँकड़ा पूरा करने के इंतज़ार में थी।

इस महामारी में अस्पताल जाना तो बीमार को और बीमार ही करता। वह जो देख रही थी, आँखें उसे कभी देखना नहीं चाहतीं। बाहर की लॉबी में कहीं उल्टी करने की तो कहीं थूकने की आवाजें आ रही थीं। चार-पाँच घंटों का इंतज़ार साइन-इन करने के लिये था। कुछ दीवार का सहारा लेकर खड़े थे, कुछ फर्श पर ही लेट गए थे। अगले चार-पाँच घंटों का इंतज़ार कॉरीडोर में पलंग के लिये था। रूम तो खाली थे नहीं, सारी खाली जगहें, चाहे वह डॉक्टरों के बैठने की हो या नर्सों के बैठने की, मरीजों के वार्ड में तबदील हो गयी थीं।

खत्म होते संसाधनों के साथ अस्पताल प्रशासक एक साथ कई मोर्चों से निपटते मरीजों के क्रोध से भी निपट रहे थे। गुस्से में एक मरीज ने नजदीक से गुजरते एक डॉक्टर का मास्क खींच लिया था; यह कहते हुए कि – “हम बीमार हैं तो तुम भी साथ में बीमार हो जाओ ताकि हम मरेंगे तो साथ में मरेंगे।”

डॉक्टरों, नर्सों की सुरक्षा के साथ, घबराहट व निराशा में धकेले गए इन रोगियों के आक्रोश को मुस्तैदी से रोकना भी एक ज़्यादा जरूरी काम हो गया था। जान बचाने वाले उन फरिश्तों को गालियाँ दी जा रही थीं। एक ओर मानवीयता अपना क्रूरतम रूप दिखा रही थी तो दूसरी ओर उदात्त मानवीयता के चरम की परीक्षा थी, लाशों को उठाने के लिये भी लोग नहीं मिल रहे थे। जीवित लोग इलाज की प्रतीक्षा कर रहे थे व लाशों का ढेर अस्पताल के प्रांगण में पड़ा अपने गंतव्य तक जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। पहले दिन के प्रकोप के बाद अस्पताल के वेन से लाशें जा रही थीं। फिर वेन छोटे पड़ने लगे। बड़े कार्गो ट्रक बुलवाए गए। यह भी बहुत मुश्किल हो रहा था। अस्पताल इमारत की हर मंजिल से ट्रक तक पहुँचती लाशों को अस्पताल के कई दरवाजों से निकलना पड़ रहा था, इससे ले जाने वालों के लिये, रास्ते के मरीजों के लिये, सबके लिये खतरा था। अब खुले कार्गो ट्रक इस तरह खड़े किए गए कि प्लास्टिक में लपेट कर, हर मंजिल की बालकनी से ऊपर से नीचे सीधे लाश को ट्रक में डाला जा सके। यह किसी भी तरह से मानवता का तिरस्कार नहीं था, यह तो ज़िन्दा बचे शेष लोगों को बचाने की कोशिश भर थी, जिंदा लोगों को सम्मान देने का एक प्रयास भर था।    

घंटों इधर से उधर धकेले जाने के बाद रोज़ा को कॉरीडोर में रखा गया था। कमरों की कमी, बिस्तरों की कमी, मास्क की कमी, संसाधनों की कमी, सबसे ज्यादा वेंटिलेटर्स की कमी। अनगिनत आवश्यक वस्तुओं की कमियों के चलते हर चेहरा परेशान था, काम के बोझ से, मौत के खौफ से और मन के शोक से। सर्वसंपन्न इंसान की सारी ताकतें इस वायरस ने झुठला दी थीं। ऐसा लगता जैसे इस बेबसी का मखौल उड़ाता कोरोना वायरस ठहाके लगा रहा हो।

रोज़ा का नंबर आ गया था, पलंग मिलने के साथ ही कॉरीडोर में जगह मिलना इस बात का संकेत था कि अब इलाज जल्द ही चालू हो जाएगा। उसका बिस्तर आरामदेह था। हर बेड के बीच आवश्यक दूरी के बाद दूसरा बेड लगा था। सामने की कॉरीडोर की लाइन भी पूरी भरी थी। रोज़ा के ठीक सामने एक और मरीज अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। बीच के रास्ते से नर्स, डॉक्टर आते-जाते मरीजों को संकेत दे देते कि बहुत कुछ चल रहा है वहाँ।

इस महामारी के चलते किसी भी परिवार वाले को साथ रखने की इजाजत तो थी ही नहीं। मरीजों के बीच घिरे स्वास्थ्यकर्मी मानों स्वयं मौत को अपने शरीर में घुसने का न्यौता दे रहे थे। दूरियों को निबाहते भी नजदीकियाँ तो थीं। ब्लड प्रेशर लेना, खून की जाँच करना वेंटिलेटर लगाना, ये सारे काम बगैर छुए तो कर नहीं सकते थे। कहाँ जाते बेचारे, मरते क्या न करते! जीवन-भर के अपने कड़े परिश्रम के बदले उन्हें डॉक्टर का सम्माननीय पेशा मिला था। आज वे उससे भागना चाह रहे थे, अपने उस फैसले पर शायद पछता भी रहे हों। सारी काबिलियत को नकार कर आज उसी पेशे की वजह से मौत उनके पीछे पड़ी थी।

रोज़ा हैरान थी यह देखकर कि उसके ठीक सामने वाले पलंग पर एक नवयुवक था जो गंभीर हालत में था। अभी तक तो वह यही सोच रही थी कि साठ के ऊपर की उम्र के लोग ही इससे परेशान हैं। यह नवयुवक तो अंदाजन पच्चीस-छब्बीस का होगा। रोज़ा को देख रही नर्स उसकी भी देखरेख कर रही थी। उसकी हालत गंभीर थी। वेंटिलेटर्स कहीं खाली नहीं थे। डॉक्टरों की फुसफुसाहट ने तय किया कि इन दोनों मरीजों को बारी-बारी से वेंटिलेटर पर रखा जाए। जरूरत के हिसाब से कभी रोजा को, कभी डिरांग को।

पूरे दिन नर्स यही करती रही। उसकी ड्यूटी बदलते ही दूसरी नर्स आयी। वह कह रही थी कि डिरांग की हालत ज्यादा खराब हो रही है। डॉक्टर को बुलाया गया। दोनों की फुसफुसाहट से सुनायी दे रहा था कि उसे ज्यादा समय के लिये वेंटिलेटर चाहिए वरना हम उसे बचा नहीं पाएँगे। हकीकत तो यह थी कि इस बार-बार के परिवर्तन से किसी को भी फायदा नहीं हो रहा था, रोज़ा और डिरांग दोनों ठीक होते-होते फिर साँस के मोहताज हो जाते। डॉक्टरों की पशोपेश समझ रही थी रोज़ा। अपने बिस्तर से वह डिरांग का चेहरा अच्छी तरह देख पा रही थी। बहुत मनमोहक नवयुवक था। सिर के घने-काले बाल और हल्की-सी दाढ़ी। चेहरा कुम्हलाया होने के बावजूद आकर्षक व्यक्तित्व का धनी होने के सारे प्रमाण दे रहा था।

नर्स परेशान थी। इधर रोज़ा को राहत मिलती उधर डिरांग की बेचैनी बढ़ जाती। उसकी व्याकुलता रोज़ा को बहुत परेशान कर रही थी। दोनों की उम्र का बड़ा अंतर था। एकाएक उसे ख्याल आया कि – “मैं तो वैसे ही छियासी पार करने वाली हूँ, न कोई आगे, न पीछे। और जीकर करना भी क्या है मगर इस लड़के के सामने तो पूरी उम्र पड़ी हुई है।” पास से निकलने वाले एक डॉक्टर से उसने कहा – “सर, सुनिए, एक निवेदन है।”

“मिस रोज़ा हम समझते हैं आपकी तकलीफ, जितना कर सकते हैं उतना कर रहे हैं।” उसे लगा कि शायद शिकायत के स्वर हैं ये।

“जी वही तो मैं भी कह रही हूँ। मुझे वेंटिलेटर की जरूरत अब नहीं है।”

“क्या मतलब?” वह एकाएक पलटा। चश्मे से बाहर आती आँखों ने न समझने का संकेत दिया।

“मैं ठीक हूँ। डिरांग को अधिक जरूरत है वेंटिलेटर की।”

“मिस रोज़ा, आप क्या कह रही हैं!”

“जी, मैं यही चाहती हूँ कि मुझे वेंटिलेटर लगाने के बजाय आप उसे ही लगा रहने दें। देखो, मैं तो वैसे भी अपनी उम्र से ज्यादा जी चुकी हूँ।”

डॉक्टर रोज़ा के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।

उसे दुविधा में देख रोज़ा अपनी हकलाती आवाज पर जोर देकर कहने लगी – “मुझे इतना-सा कर्तव्य पूरा करने दें, उस नौजवान बच्चे को बचाने दें।”  

हतप्रभ-सा डॉक्टर डिरांग को देखने लगा। उसके लिये दोनों की चिंता बराबर थी। उम्र, रंग, धर्म, जाति का भेदभाव किए बगैर जीवन रक्षा करना उन सबकी ड्यूटी थी। लेकिन रोज़ा के प्यार भरे, इंसानियत के आग्रह को स्वीकार करने में उसे कोई झिझक भी नहीं थी।

युवक की तबीयत बिगड़ती जा रही थी।

“जल्दी कीजिए उसकी जान बचाइए”

न पेपर था, न हस्ताक्षर, न नौकरी की चिंता, अगर कोई चिंता थी तो वह थी एक जीवन बचाने की। बगैर किसी देरी के रोज़ा का समय भी डिरांग को दे दिया गया। एक ऐसा काम जिसके बारे में वह स्टीव को जरूर बताती, खैर, ऊपर जाकर बता देगी। वह भी खुश होकर कहेगा – “रोज़, तुम सचमुच रोज़ हो, जीवन की खुशबू फैलाती हो।”

यह सुनकर निश्चित रूप से रोज़ा के गाल लाल हो जाएँगे।

एक घंटे का समय बीत चुका था। आधी जगी, आधी सोयी वह स्टीव से बातें कर रही थी। डिरांग की आँखें धीरे-धीरे खुलने लगी थीं, रोज़ा की बंद होने लगी थीं। किन्तु उसके होठों पर मुस्कान थी क्योंकि सामने स्टीव खड़ा था, उसका हाथ पकड़ने के लिये। जीवन का लेन-देन हो गया था। मौत ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया था। ऊपर वाली छत धुंधलाने लगी थी। पल भर में लिया गया फैसला सुकून की मौत दे गया था।

अपनी मृत्यु वरण करने का सुख हर किसी को नहीं मिलता, रोज़ा को मिला था। काठ की हांडी स्वयं चूल्हे पर चढ़ गयी थी ताकि आग बरकरार रहे। 

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© डॉ. हंसा  दीप 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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