हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दो लघुकथाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लेखन : दो लघुकथाएँ ??

एक 

न दिन का भान, न रात का ठिकाना। न खाने की सुध, न पहनने का शऊर।…किस चीज़ में डूबे हो ? ऐसा क्या कर रहे हो कि खुद को खुद का भी पता नहीं।

…कुछ नहीं कर रहा इन दिनों, लिखने के सिवा।

दो  

सुनो, बहुत हो गया यह लिखना-लिखाना। मन उचट-सा गया है। यों भी पढ़ता कौन है आजकल?….अब कुछ दिनों के लिए विराम। इस दौरान कलम को छूऊँगा भी नहीं।

फिर…?

कुछ अलग करते हैं। कहीं लाँग ड्राइव पर निकलते हैं। जी भरके प्रकृति को निहारेंगे। शाम को पंडित जी का सुगम संगीत का कार्यक्रम है। लौटते हुए उसे भी सुनने चलेंगे।

उस रात उसने प्रकृति के वर्णन और सुगम संगीत के श्रवण पर दो संस्मरण लिखे।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 132 – लघुकथा ☆ खुशियों का मोल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी  एवं विचारणीय लघुकथा खुशियों का मोल”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 132 ☆

☆ लघुकथा ☆ खुशियों का मोल 🌨️🌿

चंद्रशेखर एक छोटे से गाँव में पला बढ़ा। पढ़ – लिख कर अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई। विदेश जाने का मौका मिला और फिर लौटकर गाँव आने की उम्मीद भी कम हो गई।

गाँव में बूढ़े माँ बाप अपने एकमात्र संतान की खुशियों के आगे चुपचाप रह गए। वही की लड़की से शादी कर चंद्रशेखर विदेश का ही होकर रह गया।

कभी दो-तीन महीने में एक बार माँ-पिताजी को फोन कर हाल-चाल पूछ लिया करता था। पार्ट टाईम जॉब के लिए दोनों वहाँ वरिष्ठ आश्रम एन. जी. ओ. चला रहे थे।

जहाँ पर उम्र दराज महिला और पुरुष समय व्यतीत करने आते थे।और अपने समान सभी को देख खुश होते थे।

आज चंद्रशेखर को एक रजिस्टर्ड पत्र मिला। जिसमें लिखा था…. “बेटा बहुत मेहरबानी होगी मुझे और तेरी माँ को भी किसी वृद्धा आश्रम में यहाँ डाल दे। कम से कम उसमें अपना दुख – सुख तो बाँट लेंगे।

जब भी तुम आओगे हमें  भी सभी के साथ वहां पाओगे। और हमारा समय भी कट जायेगा। तुम्हें आने जाने के लिए हम लोग कभी भी नहीं कहेंगे।

तुम अपना एन. जी. ओ. अच्छे से चलाना। हमें भी खुशी होगी।”

चंद्रशेखर पत्र को पढ़कर आवाक था… क्या माँ पिताजी की खुशियों का मोल यही था!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 99 – क्रोध पर नियंत्रण… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #99 🌻 क्रोध पर नियंत्रण… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है, जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिलता। प्यास से उसका गला सूखा जा रहा था तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।

वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग बहुत समय लगने पर वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को मुँह के पास ऊचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टेटे की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।

राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है। ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है।

काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर गया और राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिराके वापस सामने बैठ गया।

अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं इसे नही छोड़ूंगा। अब ये जब वापस आएगा तो इसे खत्म कर दूंगा।

इस प्रकार वह राजा अपने हाथ में चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है। काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता है तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारता है और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।

तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो पीछा छूंट गया लेकिन ऐसे बून्द -बून्द से कब वापस दोना भरूँगा और कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए जहाँ से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा देखता है तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।

क्योकि उस डाली पर एक भयंकर अजगर सोया हुआ था और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।

राजा के मन में पश्चाताप का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु! मैने यह क्या कर दिया? जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया।

काश मैने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता। अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती। हे भगवान मैने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया? हाय ये मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पाश्चाताप से प्रेरित हो वह राजा दुखी हो उठता है।

इसीलिये कहते हैं कि..

  • क्षमा औऱ दया धारण करने वाला सच्चा वीर होता है।
  • क्रोध में व्यक्ति दुसरो के साथ साथ अपने खुद का ही बहुत नुकसान कर देता है।
  • क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पश्चाताप से होता है। इसलिए हमेशा क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – सपना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – सपना ??

बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।

उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।

अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके साथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।

अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।

तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।

आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।

सुनते हैं, इसके बाद उसका हर सपना सच हुआ।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – रिक्शा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रिक्शा।)

☆ लघुकथा – रिक्शा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

गिरधारी हर शाम जब रिक्शा चला कर घर लौटता तो रिक्शा को घर के सामने खड़ा करता, हाथ मुँह धोता और शराब के ठेके की तरफ़ चल पड़ता। आज भी वह घर से ठेके की ओर कुछ ही दूर चला था कि उसे याद आया – हाथ मुँह धोने के बाद उसने कुर्ता बदला था और पुराने कुर्ते से पैसे निकालना भूल गया था। पैसे लाने के लिए वह वापस लौटा तो देखा – रिक्शा की गद्दी पर सात वर्षीय बेटा विक्रांत – जिसे घर में विक्की बुलाते थे – बैठा था। बच्चों के लिए हर चीज़ कौतुक होती है – उसने सोचा। वह विक्की की तरफ़ देखकर मुस्कुराया और भीतर चला गया। कुर्ते से पैसे निकाल वह बाहर निकला तो गद्दी पर बैठे विक्की ने कहा, “आओ पापा, आज हम आपको रिक्शा की सवारी कराते हैं।”

“तू नहीं चला पाएगा बेटा, यह इतना आसान नहीं है।”

“आप बैठो तो सही।” हँसता हुआ गिरधारी सीट पर जा बैठा। विक्की ने रिक्शा खींचना शुरू किया तो गिरधारी हैरान रह गया। विक्की ऐसे रिक्शा चला रहा था जैसे जन्मों से रिक्शा ही चलाता आ रहा हो। उसने पूछा, “तूने रिक्शा चलाना कब सीखा?”

“जब आप ठेके पर जाते हो तब। सही चलाता हूँ न!”

“बहुत बढ़िया।” गिरधारी के होठों से जब ये शब्द निकले, ठीक उसी वक्त दहशत में डूबा दिल चीखा – तुम्हारे बेटे का भविष्य भी तय हो गया गिरधारी…! गिरधारी जैसे किसी समुद्र में डूबता जा रहा था।

“आया मज़ा?” समुद्र में डूब रहे गिरधारी के अचेतन ने सुना तो उसकी आँखें खुलीं। उसने देखा – रिक्शा ठेके के सामने खड़ा था और बेटा पूछ रहा था – आया मज़ा?

“हूँ… हँ…!” इतना भर बोलते हुए गिरधारी की जैसे सारी ताक़त निचुड़ गई।

“जाओ पापा, अपना काम कर आओ, फिर आपको वापस ले चलूँगा।” विक्की की यह बात सुन बौराया-सा गिरधारी कुछ क़दम ठेके की तरफ़ चला, फिर लौट आया। आते ही विक्की से बोला, “चल तू पीछे बैठ, मैं चलाता हूँ।”

“आप अपना काम तो कर लो पापा! पीने के बाद आपसे नहीं चलेगा, मैं ही चलाऊँगा।”

विक्की की बाजू पकड़ उसे गद्दी से खींचता गिरधारी बोला, “चुपचाप बैठ पीछे, अब से न मैं कभी इधर आऊँगा और न तू रिक्शा चलायेगा।”

अब विक्की सीट पर बैठा था और गिरधारी रिक्शा चला रहा था। सूरज कब का अस्त हो चुका था, पर अँधेरा कहीं नहीं था। गिरधारी कुछ गुनगुना रहा था। अचानक उसकी गुनगुनाहट में व्यवधान पड़ा। विक्की कुछ कह रहा था। उसने सुना- पापा, आपके रिक्शा पर पहले भी कई बार बैठा हूँ, पर आज जैसा मज़ा कभी नहीं आया।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 131 – लघुकथा ☆ बारिश ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी  एवं विचारणीय लघुकथा बारिश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 131 ☆

☆ लघुकथा ☆ बारिश 🌨️🌿

शरद अपने बाग बगीचे को बच्चों की तरह देखभाल करते थे। एक बेटा था जो संगति के कारण बहुत ही अलग किस्म का निकला।

शरद पिछली बातों को भुला ना पा रहे थे… क्या कमी रह गई थी बेटे की परवरिश में? यही कि वह सख्ती से उसे जीवन में आगे बढ़ने और अपने जीवन में नित प्रति उन्नति करते रहने की शिक्षा देते थे।

शायद इसे अनुशासन और पाबंदी कहा करता था बेटा। घर का माहौल बेटे को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया। 15 वर्ष की आयु के आते ही उसने अपना निर्णय स्वयं लेने लगा। माता- पिता के बातों की अवहेलना करने लगा। सब अपने मन से करने लगा।

आज शरद ने पूछ लिया…. “क्या वजह है कि तुम मेरी कोई बात का उत्तर नहीं देते? क्या अब मैं इतना भी नहीं पूछ सकता कि… कहां और किस से तुम्हारे पास पैसा आता है खर्च के लिए और तुम क्या काम करते हो?”

बेटे ने पिता जी की बात का जवाब दिए बिना ही बाहर निकल जाना उचित समझा। माँ यह सदमा बर्दाश्त न कर सकी और दिमागी संतुलन खो बैठी।

अब पूरी तरह शरद अकेले अपनी पत्नी के साथ जीवन संभाल रहे थे।

आज कई वर्षों बाद झुकी कमर और थरथराती हाथों से छाता लिए बगीचे में खड़े, बारिश में ताक रहे थे।

उन्होंने देखा सफेद साड़ी में लिपटी एक सुंदर महिला 5 वर्ष के बच्चे के साथ अंदर आई और पिता जी के चरणों पर सर रख दिया।

बच्चा कुछ सहमा हुआ था परंतु शरद की बूढ़ी आंखों ने तुरंत ही पहचान लिया और कहा…. “छोड़ गया तुम्हें मेरे हवाले।”

महिला ने नीचे सिर कर एक पत्र थमा दिया। बेटे की हाथ की चिट्ठी थी। शरद ने आगे पत्र खोलकर पढ़ा… ‘पिताजी शायद जब यह चिट्ठी आपको मिलेगी तब मैं नहीं रहूंगा। अपने बगीचे में एक पौधा लगा लेना। मुझे मेरे किए की सजा मिल चुकी परंतु इसे आप अपने जैसा इंसान बना देना।’

आज सावन की बारिश शरद को रुला रही थी, या हंसा रही थी कोई समझ ना सका। परंतु बारिश में बच्चे का हाथ लिए शरद सावन की बारिश में भींगने लगे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #149 ☆ कहानी – जेबकतरे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कहानी  ‘जेबकतरे ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 149 ☆

☆ कहानी – जेबकतरे 

उस दिन मुझे जबलपुर से सतना तक ट्रेन से सफर करना था। ट्रेन में रिज़र्वेशन की सुविधा नहीं थी। बस, टिकट खरीद लो और जहाँ जगह मिले, बैठ जाओ। प्लेटफॉर्म पर लहराती हुई भीड़ को देखकर मुझे लगा आज का सफर बहुत मुश्किल होगा।

ट्रेन आयी और चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की शुरू हो गयी। मुझे डिब्बे में प्रवेश करना बहुत कठिन लग रहा था, लेकिन तभी एक परिचित डिब्बे के अंदर दिख गये और उनकी मदद से डिब्बे में प्रवेश मिल गया।

जल्दी ही खिड़की के सामने प्लेटफॉर्म पर एक नाटक हुआ। कुछ लोग दस बारह साल के दो छोकरों को कहीं से पकड़ कर लाये और उनके साथ मारपीट करने लगे। उन लोगों का कहना था कि छोकरे जेबकतरे हैं। मारपीट के साथ वे उनसे कुछ पूछताछ भी कर रहे थे। इतने में ही कहीं से दो आदमी प्रकट हुए। उन्होंने दोनों छोकरों को उन लोगों के हाथों से छुड़ाकर उन्हें एक एक लात लगायी। छोकरे छूटते ही एक दिशा में भाग गये। उनके पीछे वे दोनों आदमी भी चले गये और छोकरों को पकड़ने वाले देखते रह गये। इसके बाद डिब्बे के भीतर और बाहर टिप्पणियाँ हुईं कि दोनों आदमी छोकरों से मिले हुए थे और उन्होंने जानबूझकर उन्हें भगाया था।

ट्रेन चलने के बाद डिब्बे में जेबकतरों के किस्से शुरू हो गये। एक साहब ने बताया कि अब जेबकतरे पकड़े जाने पर ब्लेड से पकड़ने वाले का हाथ भी चीर देते हैं और भाग जाते हैं। एक सज्जन ने लखनऊ का किस्सा सुनाया कि वहाँ के जेबकतरों की प्रसिद्धि सुनकर कैसे एक साहब अपनी जेब में नकली सोने के सिक्कों को लेकर घूमते रहे और शाम को डींग मारने लगे, और कैसे वहाँ के जेबकतरे ने उन्हें बताया कि उनकी जेब से नकली सिक्के निकालकर और परख कर वापस उनकी जेब में रख दिये गये थे।

फिर तो किस्से में किस्से जुड़ते गये और ‘जेबकतरा-पुराण’ बनता गया। लोगों ने मुग़ल बादशाहों के ज़माने से लेकर वर्तमान जेबकतरों तक का यशोगान किया। हम सब तन्मय होकर सुनते रहे और रोमांचित होते रहे।

एकाएक डिब्बे के दरवाजे़ की तरफ शोर हुआ और सब का ध्यान उस तरफ बँट गया। पता चला कोई जेबकतरा जेब काटने की कोशिश करता पकड़ा गया है। खड़े हुए लोगों की जु़बान पर चढ़कर बातें हम तक आने लगीं। पता लगा कि उसने किसी की जेब में हाथ डाला था कि पकड़ में आ गया।

बड़ी देर तक गर्मा-गर्मी की आवाज़ें  आती रहीं। तेज़ बातों के साथ आघातों की आवाजे़ं में भी आ रही थीं, जिन से ज़ाहिर होता था कि जेबकतरे की पूजा घूँसों से की जा रही है।

जब बहुत देर हो गयी तो मेरी उत्सुकता जागी। किसी तरह लोगों के बीच से जगह बनाता मैं उस हिस्से में पहुँचा जहाँ लोगों की एक मोटी गाँठ इकट्ठी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने लोगों के बीच से झाँका। उस गाँठ के बीच में एक साँवला युवक था, कमीज़ पतलून पहने। उसके सिर के बाल बहुत सस्ते ढँग से सँवारे हुए थे और वह सामान्य परिवार का दिखता था। क्या वह जेबकतरे सा लगता था? हाँ, वह शत-प्रतिशत जेबकतरा लगता था क्योंकि यदि किसी महात्मा  को भी एक बार जेबकतरे का लेबिल लगाकर आपके सामने खड़ा कर दें तो वे हर तरफ से जेबकतरे लगने लगेंगे।

ख़ास बात यह थी कि युवक की नाक से ख़ून बह रहा था और उसकी कमीज़ पर ख़ून के दाग ही दाग थे। वह बार-बार अपनी हथेली से अपनी नाक पोंछता था, जिस कारण उसकी हथेली भी लाल हो गयी थी।

सहसा युवक ने अपने सामने खड़े लोगों की तरफ हाथ बढ़ाये और चीखा, ‘मेरे पैसे लौटा दो। वे चोरी के नहीं, मेरे खुद के पैसे थे।’

जवाब में वहाँ खड़े एक आदमी ने एक घूँसा उसकी नाक पर मारा और वह आँख मींच कर चुप हो गया। उसने अपनी कमीज़ उतार कर नाक पर लगा ली।  

लेकिन आधे मिनट की चुप्पी के बाद ही वह हाथ उठाकर पागलों की तरह फिर चीखा, ‘अरे मेरे पैसे दे दो रे। मैंने चोरी नहीं की। वे मेरे पैसे थे। मेरे पैसे लौटा दो।’

फिर एक घूँसा उसकी नाक पर पड़ा और वह फिर शांत हो गया।

कुछ क्षण रुकने के बाद वह एक आदमी का कॉलर पकड़कर आँखें फाड़े बिलकुल विक्षिप्त की तरह चिल्लाने लगा, ‘मेरे पैसे दे दे नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा। मैं तुझे खा जाऊँगा।’

सब तरफ से घूँसों की बारिश शुरू हो गयी और युवक अपना चेहरा बाँहों में छिपा कर पीछे दीवार से टिक गया।

स्थिति मेरे बर्दाश्त से बाहर थी, अतः मैं अपनी सीट की तरफ वापस लौटा। तभी मैंने सुना कोई कह रहा था, ‘साले की घड़ी भी चोरी की होगी। उतार लो।’

इसके थोड़ी देर बाद ही उस तरफ इकट्ठी भीड़ छँटनी शुरु हो गयी और लोग हमारी तरफ को आने लगे। मैंने देखा उधर से आये दो आदमियों ने अपनी मुट्ठी में दबे नोट गिने और अपनी जेब में रख लिये। उन्हीं में से एक के हाथ में वह घड़ी थी जो थोड़ी देर पहले उस युवक की कलाई पर थी। वह आसपास बैठे लोगों को वह घड़ी दिखा रहा था।

गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। युवक से चीज़ें छीनने वाले मेरी खिड़की पर इकट्ठे होकर सावधानी से झाँकने लगे।  

उनमें से एक झाँकता हुआ बोला, ‘उतर गया।’

दूसरा पीछे से बोला, ‘देखो कहाँ जाता है। स्टेशन मास्टर के दफ्तर में जाता है क्या?’

पहला झाँकता हुआ बोला, ‘नहीं दिख रहा है। लगता है किसी दूसरे डिब्बे में चला गया।’

यह सुनकर उन सब ने लंबी साँस छोड़ी। एक बोला, ‘उसकी क्या हिम्मत है शिकायत करने की।’

इसके बाद उन सब ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘साला, जेबकतरा कहीं का।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 98 – सरप्राइज़ टेस्ट… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #98 🌻 सरप्राइज़ टेस्ट… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक दिन एक प्रोफ़ेसर अपनी क्लास में आते ही बोला, “चलिए, surprise test के लिए तैयार हो जाइये। सभी स्टूडेंट्स घबरा गए… कुछ किताबों के पन्ने पलटने लगे तो कुछ सर के दिए नोट्स जल्दी-जल्दी पढने लगे। “ये सब कुछ काम नहीं आएगा….”, प्रोफेसर मुस्कुराते हुए बोले, “मैं Question paper आप सबके सामने रख रहा हूँ, जब सारे पेपर बट जाएं तभी आप उसे पलट कर देखिएगा” पेपर बाँट दिए गए।

“ठीक है ! अब आप पेपर देख सकते हैं, प्रोफेसर ने निर्देश दिया। अगले ही क्षण सभी Question paper को निहार रहे थे, पर ये क्या? इसमें तो कोई प्रश्न ही नहीं था! था तो सिर्फ वाइट पेपर पर एक ब्लैक स्पॉट! ये क्या सर? इसमें तो कोई question ही नहीं है, एक छात्र खड़ा होकर बोला।

प्रोफ़ेसर बोले, “जो कुछ भी है आपके सामने है। आपको बस इसी को एक्सप्लेन करना है… और इस काम के लिए आपके पास सिर्फ 10 मिनट हैं…चलिए शुरू हो जाइए…”

स्टूडेंट्स के पास कोई चारा नहीं था…वे अपने-अपने answer लिखने लगे।

समय ख़त्म हुआ, प्रोफेसर ने answer sheets collect की और बारी-बारी से उन्हें पढने लगे। लगभग सभी ने ब्लैक स्पॉट को अपनी-अपनी तरह से समझाने की कोशिश की थी, लेकिन किसी ने भी उस स्पॉट के चारों ओर मौजूद white space के बारे में बात नहीं की थी।

प्रोफ़ेसर गंभीर होते हुए बोले, “इस टेस्ट का आपके academics से कोई लेना-देना नहीं है और ना ही मैं इसके कोई मार्क्स देने वाला हूँ…. इस टेस्ट के पीछे मेरा एक ही मकसद है। मैं आपको जीवन की एक अद्भुत सच्चाई बताना चाहता हूँ…

देखिये… इस पूरे पेपर का 99% हिस्सा सफ़ेद है… लेकिन आप में से किसी ने भी इसके बारे में नहीं लिखा और अपना 100% answer सिर्फ उस एक चीज को explain करने में लगा दिया जो मात्र 1% है… और यही बात हमारे life में भी देखने को मिलती है…

समस्याएं हमारे जीवन का एक छोटा सा हिस्सा होती हैं, लेकिन हम अपना पूरा ध्यान इन्ही पर लगा देते हैं… कोई दिन रात अपने looks को लेकर परेशान रहता है तो कोई अपने करियर को लेकर चिंता में डूबा रहता है, तो कोई और बस पैसों का रोना रोता रहता है।

क्यों नहीं हम अपनी blessings को count करके खुश होते हैं… क्यों नहीं हम पेट भर खाने के लिए भगवान को थैंक्स कहते हैं… क्यों नहीं हम अपनी प्यारी सी फैमिली के लिए शुक्रगुजार होते हैं…. क्यों नहीं हम लाइफ की उन 99% चीजों की तरफ ध्यान देते हैं जो सचमुच हमारे जीवन को अच्छा बनाती हैं।

तो चलिए आज से हम life की problems को ज़रुरत से ज्यादा seriously लेना छोडें और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को ENJOY करना सीखें ….

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – निर्वासन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – निर्वासन।)

☆ लघुकथा – निर्वासन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

शहर से एक पक्षी अपने पुराने कुनबे से मिलने जंगल पहुँचा। जंगल ने बाँहें फैलाकर उसका स्वागत किया। सब पक्षी शहर और शहर में बीत रही उसकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहते थे। वे तरह-तरह के प्रश्न पूछ रहे थे। शहर के पक्षी को कुछ प्रश्न समझ में आए, कुछ नहीं। उसने कहा, “तुम सब इतना धीरे क्यों बोल रहे हो, कोई ख़तरा है क्या?”

“हम सब तो वैसे ही बोल रहे हैं, जैसे हमेशा से बोलते आए हैं। तुम काफ़ी ऊँचा बोल रहे हो, आवाज़ भी कर्कश हो गई है, शायद सुनने भी ऊँचा लगे हो।” एक पक्षी ने कहा।

“शायद तुम ही सही हो। शहर में इतना शोर है कि ऊँचा बोलना ही पड़ता है। मुझे लगता है कि ऊँचा बोलते-बोलते ऊँचा बोलना मेरा स्वभाव हो गया और मुझे पता ही नहीं चला। हो सकता है, ऊँचा सुनने भी लगा होऊँ। और मेरी आवाज़ की कर्कशता तो मैंने भी महसूस की है।”

“बच्चे कैसे हैं तुम्हारे, क्या करते हैं?” दूसरे पक्षी ने पूछा।

“मुझे नहीं मालूम क्या करते हैं। सुबह होते ही पता नहीं कहाँ उड़ जाते हैं और देर रात तक लौटते हैं। मैं तो जब भी उन्हें देखता-सुनता हूँ, हमेशा उड़ान की बातें करते पाता हूँ। पता है क्या कहते हैं वे? जंगल का आसमान बहुत नीचा है और शहर का बहुत ऊँचा। हमें बहुत ऊँची उड़ान भरनी है।”

“ऐसा? चलो अच्छा है, अपने मन का कर रहे हैं। और तो सब ठीक है न! कोई जोखिम वगैरह तो नहीं है?”

“क़दम-क़दम पर जोखिम हैं। बिजली के तारों का डर, किसी गाड़ी के नीचे कुचले जाने का डर, किसी बिल्ली, कुत्ते का भोजन बन जाने का डर! हर पल ख़तरे में गुज़रता है।”

“फिर तो अपना जंगल ही ठीक।” उस पक्षी ने लंबी साँस ली।

“जंगल भी अब कहाँ सुरक्षित हैं? आँधी-बारिश और बहेलियों का डर तो हमेशा रहता था। अब जिस तेज़ी से जंगल कट रहे हैं, रहने के लिए सुरक्षित जगहें लगातार कम होती जा रही हैं। खाने का भी संकट पैदा होने लगा है।” एक पक्षी ने उस पक्षी की बात का विरोध करते हुए कहा।

“अब हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन बस एक तसल्ली है कि कितनी ही बड़ी मुसीबत आए, हम मिलकर मुक़ाबला करते हैं। एक साथ मिलकर उड़ते हैं, एक साथ मिलकर गाते हैं, एक साथ तारों भरा आसमान देखते हैं।” एक और पक्षी ने कहा।

“एक साथ मिलकर रहना, एक साथ मुसीबत का सामना करना, एक दूसरे के दर्द को महसूस करना, एक साथ उड़ना और गाना- ये छोटी बातें नहीं हैं दोस्तो! यही तो असली जीवन है। शहर में यही सब तो नहीं है, हर कोई अकेला है वहाँ – दुख में भी, सुख में भी।” शहरी पक्षी ने जब यह कहा तो उसके स्वर की नमी से सारे पक्षी संजीदा हो आए। थोड़ी देर एक स्तब्ध चुप्पी पसरी रही, फिर एक पक्षी ने उससे कहा, “तुम अपने जंगल में वापस क्यों नहीं आ जाते?”

“जो अपना निर्वासन ख़ुद चुनते हैं, उनका लौट पाना संभव नहीं होता।” शहरी पक्षी के इस कथन के बाद पसरी चुप्पी फिर नहीं टूटी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 95 ☆ वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय लघुकथा वाह रे इंसान !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 95 ☆

☆ लघुकथा – वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

शाम छ: बजे से रात दस बजे तक लक्ष्मी जी को समय ही नहीं मिला पृथ्वीलोक जाने का। दीवाली पूजा  का मुहूर्त ही समाप्त नहीं हो रहा था। मनुष्य का मानना है कि दीवाली की रात  घर में लक्ष्मी जी आती हैं। गरीब-अमीर सभी घर के दरवाजे खोलकर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खैर, फुरसत मिलते ही लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं।

एक झोपड़ी के अंधकार को चौखट पर रखा नन्हा – सा दीपक चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा कि झोपड़ी में एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था, चित्र पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील–बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।     

लक्ष्मी जी को याद आई – ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री। जिसने उसकी झोपड़ी पर जबरन अधिकार करनेवाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपड़ी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा। जमींदार ऐसा नहीं कर पाया तो बूढ़ी स्त्री ने कहा कि एक टोकरी मिट्टी का बोझ नहीं उठा पा रहे हो तो यहाँ की हजारों टोकरी मिट्टी का बोझ कैसे उठाओगे? जमींदार ने लज्जित होकर बूढ़ी स्त्री को उसकी झोपड़ी वापस कर दी। लक्ष्मी जी को पूरी कहानी याद आ गई, सोचा – बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।

जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह-जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान-पान का वैभव भरपूर था। उन्होंने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से बोला – ‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से मेरे नाम की जय- जयकार हो गई, बस यही तो चाहिए था मुझे। धन से सब हो जाता है, चाहूँ तो कितनी टोकरी मिट्टी भरकर बाहर फिकवा दूँ मैं। गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो जमींदार कैसे कहलाऊँगा। यह वैभव कहाँ से आएगा, वह गर्व से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला – यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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