डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दस्तूर-ए-दुनिया…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 213 ☆

☆ दस्तूर-ए-दुनिया

‘ता-उम्र किसी ने जीने की वजह न पूछी/ अंतिम दिन पूरा मोहल्ला पूछता है/ मरा कैसे?’ जी हां! यही है दस्तूर-ए-दुनिया और जीवन का कटु सत्य, क्योंकि संसार में सभी संबंध स्वार्थ के हैं। वैसे भी इंसान अपनी खुशी किसी से सांझी नहीं करना चाहता। वह अपने द्वीप में कैद रह कर उन खूबसूरत लम्हों को जी लेना चाहता है। सो! वह आत्मकेंद्रित हो जाता है। परंतु वह अपने दुख दूसरों से बांटना चाहता है, ताकि शह उनकी सहानुभूति बटोर सके। वैसे भी दु:ख बांटने से हल्का हो जाता है। अक्सर लोग गरीब व दुखी लोगों के निकट जाने से कतराते हैं, कहीं उनकी आफत उनके गले का फंदा न बन जाए। वे भयभीत रहते हैं कि कहीं उनकी खुशियों में खलल न पड़ जाए अर्थात् विक्षेप न पड़ जाए। परंतु वे लोग जिन्होंने आजीवन उनका हालचाल नहीं पूछा था, मृत्यु के पश्चात् अर्थात् अंतिम वेला में  वे लोग दुनियादारी के कारण उसका हाल जानना चाहते है।

जीवन एक रंगमंच है, जहाँ इंसान अपना-अपना क़िरदार निभाकर चल देता है। विलियम शेक्सपीयर ने ‘Seven Stages Of Man’ में  मानव की बचपन से लेकर वृद्धावस्था की सातों अवस्थाओं का बखूबी बयान किया है। ‘क्या बताएं लौट कर नौकरी से क्या लाए हैं/ गए थे घर से जवानी लेकर/ लौटकर बुढ़ापा लाए हैं’ में भी उक्त भाव प्रकट होता है। युवावस्था में इंसान आत्म-निर्भर होने के निमित्त नौकरी की तलाश में निकल पड़ता है, ताकि वह अपने परिवार का सहारा बन सके और विवाह-बंधन में बंध सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपना दायित्व वहन कर सके। सो! वह अपनी संतान की परवरिश में स्वयं को झोंक कर अपने अरमानों का खून कर देता है। उसके आत्मज भी अपनी गृहस्थी बसाते हैं और उससे दूर चले जाते हैं। दो से उन्होंने अपनी जीवन यात्रा प्रारंभ की थी और दो पर आकर यह समाप्त हो जाती है और सृष्टि चक्र निरंतर चलता रहता है।

अक्सर बच्चे माता-पिता के साथ रहना पसंद ही नहीं करते और रहते भी हैं, तो उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी रहता है कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। वैसे तो आजकल मोबाइल ने सबका साथी बन कर दिलों में दरारें नहीं, दीवारें उत्पन्न कर दी हैं। सो! एक छत के नीचे रहते हुए भी वे एकां त की त्रासदी झेलने को विवश रहते हैं और उनमें संवाद का सिलसिला प्रारंभ ही नहीं हो पाता।  घर के सभी प्राणी मोबाइल में इस प्रकार लिप्त रहते हैं कि वे सब अपना अधिकांश समय मोबाइल के साथ गुज़ारते हैं, क्योंकि गूगल बाबा के पास सभी प्रश्नों के उत्तर व सभी समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। आजकल तो लोग प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी मोबाइल से करते हैं।

इस प्रकार इंसान आजीवन इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु बुढ़ापा एक समस्या है, क्योंकि इस अंतराल में मानव दुनिया के मायाजाल में उलझा रहता है। उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु वृद्धावस्था एक समस्या है, क्योंकि इस काल में असंख्य रोग व चिंताएं इंसान को जकड़ लेती हैं और अंत काल में उसे प्रभु को दिए गये अपने वचन की याद आती है कि कब होता है कि मां के गर्भ में उल्टा लटके हुए उसने प्रार्थना की थी कि वह उसका नाम स्मरण करेगा। परंतु जीवन का प्रयोजन कैवल्य प्राप्ति को भूल जाता है। ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक ठहरेगा। खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ जाएगा।’ अंतकाल में न संतान साथ देती है, न ही शरीर व मनोमस्तिष्क ही कार्य करते है। वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है कि वह उसके सब अवगुण  माफ कर दे और उससे थोड़ी सी मोहलत दे दे। परंतु परिस्थितियों के अनुकूल होते ही वह दुनिया की रंगीनियों व बच्चों की संगति में अपनी सुधबुध खो बैठता है। इसलिए कहा जाता है कि इंसान युवावस्था में नौकरी के लिए निकलता है और वृद्धावस्था में सेवानिवृत्त होकर लौट आता है और शेष जीवन प्रायश्चित करता है कि उसने सारा जीवन व्यर्थ क्यों गंवा दिया है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित  पंक्तियां ‘यह जीवन बड़ा अनमोल बंदे/ राम राम तू बोल’ यही है जीवन का सत्य। लोग बाह्य आंकड़ों में लिप्त रहते हैं तथा दिखावे के लिए परिवारजन भी चार दिन आंसू बहाते हैं, फिर वही ढाक के तीन पात। किसी ने बहुत सुंदर कहा है कि ‘इंसान बिना नहाए दुनिया में आता है और नहा कर चल देता है। लोग श्मशान तक कांधा देते हैं और अग्निदाह कर लौट आते हैं। सो। आगे का सफ़र उसे अकेले ही तय करना पड़ता है।  ‘जप ले हरि का नाम फिर पछताएगा/ जब छूटने लगेंगे प्राण फिर पछताएगा’ तथा ‘एक साचा तेरा नाम’ से भु यही स्पष्ट होता है कि केवल प्रभु नाम ही सत्य हैं और सत्य सदैव मंगलकारी होता है। इसलिए उसका सुंदर होना तो स्वाभाविक है तथा उसे जीवन में धारण करें, क्योंकि वही अंत तक साथ निभाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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