श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…।)

?अभी अभी # 244 ⇒ पानी में जले… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सुबह हो गई है, लेकिन सूर्योदय नहीं हुआ ! सुना है आसमान में बादलों से उसका शीत युद्ध चल रहा है। बादलों में भले ही पानी ना हो, लेकिन बर्फीली हवाएं उनकी हौंसला अफजाई कर रही हैं और सूरज का कोई बस नहीं चल रहा। इधर इन सब घटनाओं से बेखबर हम बरखुरदार आराम से रजाई में लेटे हैं। केवल चाय की बाहरी ताकत ही हमें रजाई में से मुंह बाहर निकालने के लिए मजबूर कर सकती है। चाय से थोड़ी बहुत गर्मी तो आ सकती है, लेकिन इतनी भी नहीं, कि एक झटके में रजाई फेंककर बिस्तर को अलविदा कह दिया जाए।

रेडियो पर भजनों का दौर निकल चुका है, अब फड़कते गीतों की बारी है। अचानक कानों में बोल पड़ते हैं, पानी में जले, मेरा गोरा बदन, पानी में ! मैं एकदम चौंक पड़ता हूं और हड़बड़ाहट में गर्मागर्म चाय से मेरी जबान जल जाती है। ऐसी ठंड में, बदन गोरा हो या काला, कोई पानी में नहाने की सोच भी कैसे सकता है और एक अज्ञात सुंदर चेहरे के प्रति मेरा चिंता और सहानुभूति का भाव जागृत हो गया।।

इतने में पत्नी की कर्कश आवाज सुनाई दी, घंटे भर से गीजर चल रहा है, जाकर नहाते क्यूं नहीं हो। लगा, किसी ने मेरे सोच पर घड़ों पानी डाल दिया हो। गीज़र के जिक्र ने अनायास ही, हमारी ट्यूबलाइट जला दी। हो सकता है, वह गोरी भी गीजर के गर्म गर्म पानी से नहा रही होगी। पानी कुछ जरूरत से ज्यादा ही गर्म होगा, और उसका गोरा बदल जल गया होगा।

कुछ जिद्दी किस्म के आशिकों का हमने प्यार की आग में तनबदन जलते देखा है, लेकिन पानी में गोरे बदन के जलने की कल्पना तो कोई कवि ही कर सकता है। जांच पड़ताल और तफ्तीश से पता चला कि ये कवि महोदय और कोई नहीं, प्रेम पुजारी में रंगीला रे, छलिया रे, ना बुझे है, किसी जल से ये जलन जैसे गीत लिखने वाले पद्मभूषण गोपालदास सक्सेना उर्फ़ नीरज ही हैं। हमें पहले तो यकीन ही नहीं हुआ, फिर पता चला इसका पूरा श्रेय नीरज जी को नहीं दिया जा सकता, जनाब हसरत जयपुरी भी शब्दों की इस छेड़छाड़ के इस खेल में नीरज जी के साथ हैं।

शायर का क्या, वह पानी में तो क्या, जहां चाहे, वहां आग लगा दे। लेकिन एक कवि और शायर यह भूल जाता है कि उसकी लिखी दो लाइन की पंक्तियां हमारे जैसे मानवतावादी इंसानों को कितना विचलित कर देती है। क्या हसरत होगी नीरज और जनाब हसरत जयपुरी की, ये तो वे ही जानें, क्योंकि गोरा बदन तो जला सो जला।।

हमें अच्छी तरह से पता है, फिल्म मुनीम जी में जब योगिता बाली जी पर यह गीत फिल्माया गया होगा, तब ठंड का नहीं, दोपहर का मौसम होगा। फिर भी ये नाज़ुक बदन और नाज़ुक मिजाज़

अभिनेत्रियों को पानी के नाम से ही जुकाम हो जाता है। कैसे फिल्माते होंगे बेचारे निर्देशक ऐसे गीत ;

पानी में जले,

पानी में जले

मोरा गोरा बदन

पानी में..!!

हमने भैंस का तो बहुत सुना है, जिसका बदन गोरा नहीं काला होता है और वह अधिकतर पानी में ही पड़ी रहती है, लेकिन किसी गोरी की ऐसी क्या मजबूरी कि वह अपने गोरे बदन को पानी में जलाए। चवन्नी छाप दर्शक भले ही ताली बजा लें, काव्य प्रेमी इसमें भी अलंकार ढूंढ लें, लेकिन मेरी मां, तू तो समझदार है, पानी से बाहर क्यों नहीं आ जाती।

अपने गोरे बदन को टॉवेल से पोंछ। अगर पानी से बदन ज्यादा जल गया हो, तो उस पर बरनाॅल लगा और आगे से कसम खा ले, ऐसे पानी में कभी पांव नहीं रखना, जिसमें अपना गोरा बदल जले।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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