हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 16 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 16 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

उतरा भूत मेपल की डाल से 

अठारह जुलाई को वहाँ ‘देश’ में ईद और रथ यात्रा दोनों पर्व संपन्न हो गये। अगले दिन सुबह नाश्ते के बाद मैं वाटर कलर और ब्रश वगैरह लेकर निकल पड़ा। आज कनाडियन बत्तख की पेंटिंग बनायेंगे। कल शाम अन्टारिओ झील के किनारे बैठे एक मेपल के पेड़ से प्रार्थना कर रहा था,‘हे महीरूह, हे तरुवर, तुम्हारे रूप का कुछ हिस्सा तो मुझे इस कागज पर उतारने दो।’ दो एक सज्जन मेरा उत्साह वर्धन करने आ गये थे,‘वाह भई! कहाँ से आये है?’ और कोई चुपचाप देखता रहा।

आज भी दो तीन औरतें आ गयीं,‘आप यहाँ बैठे क्या कर रहे हैं, जरा देख सकती हूँ?’

अरे भाई किसने मना किया है? फिर बातचीत। कोई खुद भी आर्टिस्ट है। मगर मैं ने कहा,‘ नहीं भाई, मैं कोई आर्टिस्ट नहीं हूँ। बस रंगों से खेलने का शौक है।’    

एक ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,‘मगर बच्चों की देखभाल के चक्कर में हाथ से ब्रश तो छूट गया है।’ वाह रे माँ का बलिदान! मैं उनसे क्या कहता कि हमारे देश की मधुबनी पेंटिंग को दुनिया में सम्मान दिलाने वाली डा0 गौरी मिश्रा भी तो एक माँ हैं। जिन्होंने इस आंचलिक शिल्प को विश्व कला दरबार के सिंहासन पर बैठाया। लोगों के लिए तो वो ‘मां जी’ ही हैं।  

एक डॉक्टर की कन्या से बात हो रही थी। उसने बताया कि आजकल यहाँ आसानी से काम नहीं मिलते। क्या बेकारी बढ़ रही है ? वैसे यहाँ के नागरिकों को बेकारी भत्ता दिया जाता है।

एकदिन एक आदमी को देखकर लगा कि वे हमारे ही उधर के हैं। दूर से मैं ने आवाज लगायी,‘भाई साहब, नमस्ते। आप इंडियन हैं?’    

एक बूढ़े दम्पति जा रहे थे। साथ में एक नौजवान और दो बच्चे। जाहिर है कि वे दोनों इस नौजवान के वालिद वालिदा हैं। और दोनों बच्चे शायद उस नौजवान के। वह नौजवान आगे आ गया,‘हम पाकिस्तान से हैं।’

‘किस शहर से?’ मैं बार्डर क्रास करना चाहता था।

‘रावलपिंडी से। इस्लामाबाद।’ कहते हुए वे आगे बढ़ गये।

समझौता एक्सप्रेस चली नहीं। वहीं थम गयी। 

पेंटिंग बनाने के लिए साथ में मैं एक फ्लास्क में चाय और रुपाई का दिया हुआ बैग में जैमवाला बिस्किट ले चला था। बीच बीच में चाय की चुसकी ले ही रहा था कि एक बत्तख आकर बगल में खड़ा हो गया,‘ऐ मिस्टर अकेले अकेले ही खाने का इरादा है? मदर मेरी की कसम, हजम नहीं होगा। बतला देता हूँ।’

‘अरे भाई, कुल दो तो बिस्किट हैं। इनमें से अगर तुझे दे दूँ तो मैं क्या खाऊँगा?’ फिर भी यह सोचकर कि उसी के देश में उससे तकल्लुफ तो निभाना चाहिए, मैं ने एक बिस्किट के टुकड़े करके उसकी ओर फेंक दिया कि इतने में एक महिला हाजिर हो गयीं। साथ में पैराम्बुलेटर में उसकी लाडली। वो भी बात करने लगी तो मैं ने पूछा, ‘आपकी बेटी को यह बिस्किट दे सकता हूँ ? बस यही है मेरे पास। वो भी एक…’

‘अरे अभी तो यह घर जाकर लंच करेगी। -’

मगर तब तक उस गुड़िया ने अपना हाथ बढ़ा दिया। सुरीली आवाज में उस नन्ही ने क्या कहा यह तो वही जाने। माँ ने कहा,‘ले लो बेटी। थैंक्स कहो।’

मेरे नसीब में रही, चाय चाय बस चाय/जैम वाले बिसकिट की, फिर याद क्यों सताए ?

मेपल वृक्ष 33 से 148 फीट लंबे हो सकते हैं। पतझड़ के समय इनके रूप की तो छटा ही अनोखी होती है। इनके नीचे चारों ओर बिखरी पड़ी रहती हैं मेपल की सूखी पत्तियाँ। लगता है धरती पर आग की लाल, पीले और नारंगी रंगो की लपटें उठ रही हैं। जरा गुनगुनाइये कवि वीरेन डंगवाल की पंक्तिओं को (मंगरेश डबराल के स्मृतिचारण या अनुस्मरण से) :- पेड़ों के पास यही एक तरीका है/यह बताने का कि वे भी दुनिया से प्यार करते हैं।

शाम को बूँदा बाँदी होने लगी। मैं ने कहा, ‘पैर गाड़ी की सवारी कर आऊँ। इतवार की रौनक देख कर आता हूँ।’

तुरंत रुपाई ने थ्रू प्रॉपर चैनेल मना कर दिया। यानी झूम से बुदबुदाकर कहा, ‘बाबा से कहो आज थंडर स्ट्रॉम होने का पूर्वाभास है।’

यहाँ के लोग घर से बाहर कदम रखने के पहले नेट से वेदर रिपोर्ट पढ़ लेते हैं। लेकिन आज तो सब टाँय टाँय फिस्स् हो गया। पानी भी नहीं बरसा। और मैं कमरे में ही बैठा रह गया। धरा के धरा रह गया वज्रघोष का उद्घोष / रिमझिम में भींगते मनवा न हो सका मदहोश !

किंग्सटन की सड़कों पर चलते हुए या कनफेडरेशन हॉल के सामने फव्वारे के सामने बैठे हुए हमने कितनी बार यहाँ की इजहारे मोहब्बत की रीति को देखा। कितना निःसंकोच प्रेम निवेदन है ! लड़के लड़की या युवक युवतियां रास्ते पर चलते हुए या झील के किनारे बैठे हुए पब्लिक प्लेस में एक दूसरे के करीब आने में तनिक भी नहीं शर्माते। और दादा दादी नाना नानी की जोड़ियां ? चिरजीवी जोड़ी जुड़ै, क्यों न सनेह गंभीर -?

नाराज न हों, याद है ‘राम की शक्ति पूजा’ में कविवर निराला ने क्या लिखा था ? –

देखते हुए निष्पलक याद आया उपवन

विदेह का प्रथम, स्नेह का लतांतराल मिलन

नयनों का नयनों से गोपन, प्रिय सम्भाषण

पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन।

काँपते हुए किसलय, झरते हुए पराग समुदय,

गाते खग नवजीवन परिचय, तरू मलय वलय

ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय, ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,

जानकी- नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

खैर, जहाँ की जो रीति है। यदि राम रोम में करें गमन/ तन मन से बन जायें रोमन !

फिर भी नायाग्रा के ऊपर रेलिंग पर हमने देखा था कितने सारे लव लॉक लगे हुए हैं। यानी मोहब्बत को वे ताला बंद करके रख रहे हैं। अच्छी बात है। हम तुम एक कमरे में बंद हों, और चाबी खो जाए….. बॉबी का गाना याद आया ? उस जमाने में इसे गाने से बुजुर्गों की डाँट सुननी पड़ती थी। समझ में नहीं आता था – अरे बाबा, उन्होंने चाबी खो दी है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है? मुझे आपलोग क्यों डाँट रहे हैं ?

फिर भी समझ में नहीं आता कि इतना सब कुछ होने के बावजूद यहाँ क्यों होती है इतनी छुट्टी छुट्टा की घटनायें ? हमारे देश में भी तो अब ‘हाई सोसाईटी’ में ये सब खूब होने लगी हैं। 2013 में नोबेल पुरस्कार से नवाजी गयीं कनाडियन लेखिका एलिस मुनरो ने भी तीन बच्चे होने के बाद भी अपने पति को तलाक दे कर बाद में दूसरा विवाह किया। नेट में वैसी कोई वजह भी तो लिखी नहीं है। आखिर क्यों ? फ्रेडरिख एंगेल्स ने ‘स्टेट फैमिली एंड प्राइवेट प्रॉपर्टी’ में डाइवोर्स के बारे में लिखा है कि यह बुरी चीज होने के बावजूद नारी मुक्ति के लिए एक आवश्यक कदम है। पता नहीं क्या ठीक है। दिमाग पर कोहरा छा जाता है। यह तो जरूर कहूँगा यह कुछ एम्पुटेशन जैसी बात है। पैर में गैंगरीन होने पर पैर को तो काटना ही पड़ता है। वो लाइलाज है, उसे काट दो। जरूरी, मगर दुखद।

रुपाई पुस्तक भंडार से एक किताब लेकर एलिस मुनरो की एक कहानी पढ़ रहा था। वायसेज। एक छोटी बच्ची माँ के साथ एक डान्स पार्टी में जाती है। वहाँ कई वारांगनायें भी थीं। वह बच्ची उन्हें नहीं पहचानती है। कई एअरफोर्स के अफसर या कैडरों के साथ सीढ़ी पर बैठे उनमें से एक लड़की रोये जा रही थी। एक कैडर उसकी जांघ को सहला रहा था, और उस लड़की को समझा रहा था,‘हो जाता है, ऐसा कभी कभी हो जाता है। बुरा मान कर क्या करोगी?’ मगर बेचारी लड़की के आंसू थम नहीं रहे थे। पर कहानी का दरिया आखिर पहुँचा कहाँ? दिमाग के ऊपर से हर बात निकल गयी। भगवान, तू ने मेरे माथे में सिर्फ गोबर ही भर दिया था, क्या? वो भी कामधेनु या नंदिनी के नहीं, काशी के किसी लँगड़ा अपाहिज और खूसट साँड़ के ? मैं क्या इतना गया गुजरा प्राणी हूँ ?    

खैर मुझे जाने क्यों लगता है कि लेखन जगत में प्रेम, प्यार और दोस्ती का जो आकर्षण है, वो अनूठा है, अप्रतिम है। यशोदा का वात्सल्य या भरत मिलाप से लेकर हीर रांझा, सोहिनी माहिवाल आदि की कहानियां आज भी आम जनता को बांध कर रखने में समर्थ हैं। ओ हेनरी की कहानी ‘गिफ्ट ऑफ मेजाई’ पढ़ी है आपने ? बाबूजी मुझे मेरी जिंदगी का पहला ‘बायोस्कोप’ दिखाने ले गये थे – वो था – डा0 नीहाररंजन गुप्त की कहानी पर आधारित फिल्म ‘दोस्ती’। एक लँगड़ा और एक अंधे की दोस्ती की दास्तान। जैसे बड़े भैया के लिए भरत का प्यार ! तो राम के वनगमन के पहले क्या हुआ सुनिए -‘चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिशतूल। सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।’ भले ही चंद्रमां शीतल किरणों के बदले आग की चिनगारियां बरसाने लगे और अमृत भी चाहे जहर बन जाए, मगर भरतजी तो सपने में भी राम के अहित की बात सोच नहीं सकते। तो यही है भ्रातृप्रेम ! दोस्ती, जुग जुग जीओ ! तो आगे …….

कोई सोच भी सकता है कि कनाडा के किंग्सटन शहर में बैठे हम आम खा रहे हैं ? मगर वही हो रहा है। इसके अलावा चेरी, किवी या हनीड्यू (खरबूजे का मौसेरा भाई) …… मजा आ गया पेटू बंगाली !

कुछ पुरानी बाते याद आ गयीं……

30.6.15 की शाम हम मॉन्ट्रीयल पहुँचे थे। और अगली सुबह किंग्सटन के लिए चल दिये। रास्ते में गैनॉनक के मेट्रो बाजार में ठहरे थे – घर के लिए सब्जी वगैरह लेने।

शीशे का दरवाजा आपको देखते ही खुल जाता है। खुल जा सिमसिम कहने की जरूरत नहीं। अंदर दाखिल हुआ तो झूम सब्जिओं के पास ले गई। अरे बापरे! टमाटर ही देख लीजिए। एक एक गुच्छे में पांच पांच छह छह की संख्या में। और रंग? लाल से लेकर हरे तक। अरुणाचल में बमडीला शहर में भी हमने हरे टमाटर देखे थे। फिर प्याज – क्या साइज है! सफेद, गुलाबी, हिन्दुस्तान की तरह कुछ ललछौहाँ। फिर पीला। सफेद प्याज में उतनी तीक्ष्ण महक नहीं होती। झूम कह रही थी,‘यहाँ रसोई बनाना भी एक टेढ़ी खीर है। ज्यादा भून दिया या तल दिया, या सब्जी में छौंक लगायी, तो तुरन्त फायर अलार्म बजने लगते हैं। यह भी एक मुसीबत है!’ 

उसने कहा,‘हिन्दुस्तानी क्वीजीन के चक्कर में सिंगापुर में कई मकान मालिक अपने घरों में भारतीयों (प्लस पाकिस्तानियों या बांग्लादेशियों) को किराये पर नहीं ठहराते। क्यांकि वे अपनी रंधन पटुता से उनकी नाकों दम करके रख देते हैं। शाब्दिक अर्थो में।          

फिर फलों की सौगात। उन्हें देखने का फल यह मिला कि जामाता की खातिरदारी शुरु हो गई। बार बार क्या नाम गिनाये, जीभ में पानी जो आ जाता है। मगर हाँ, इतना जरूर कहेंगे – यहाँ के केले देखकर समझ में आ गया कि स्वर्ग की एक अप्सरा के नाम पर इसे भी क्यों रंभा कहा जाता है। क्या रंग है। अगली मुलाकात मैक्सिकोवासी आम से। फिर तरह तरह के बिस्किट, पावरोटी, अॅलिव -जिससे अचार वगैरह बनते हैं, और जिसके तेल से खाना भी पकाया जाता है। इटली की दादी नानी तो उससे बड़े लजीज खाना पकाती थीं। हमारे देश के अंग्रेज उससे मालिश करते हैं। हमारे यहाँ के शहद की तरह यहाँ मेपल के रस बिकते हैं। उससे बंगाल के पाटाली गुड़ की तरह गुड़ बनाते हैं। एकबार मार्केट की हाट से हमने उसे खरीदा था। देखने में बिलकुल मेपल की पत्ती जैसा। 

सबकुछ है, मगर आटा नहीं। उसके लिए फिर किंग्सटन का एशियन मार्केट चलिए।

कुछ दिनों के उपरान्त …….

झूम और उसकी जननी के साथ बैठे नाश्ता कर रहा था। मेरे बदन पर थी सिर्फ सैंडो गंजी। माँ बेटी दोनों चौंक उठी,‘अरे बापरे ! आपका यह क्या हाल हुआ है? इतना सनबर्न!’

मैं ने भी शीशे में देखा। चेहरे के ऊपर सनबर्न से त्वचा का रंग भूरा हो गया है। मुझे झूम के नाना की याद आ गयी। जब वे लोग केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा पर गये हुए थे, तो वहाँ से लौटने पर मैं ने देखा कि उनका गोरा रंग मानो बिलकुल जल गया था। वह मई का महीना था। दिवाकर मजे से वहाँ अपना तेज बरसा रहे थे। उत्तरी ध्रुव के नजदीक होने के कारण यहाँ भी अलट्रावायोलेट किरणों का प्रकोप भयंकर है। गुलजार का पहला गीत जो हिट हुआ था, वह था- बंदिनी फिल्म में, एस.डी.बर्मन की धुन पर – मेरा गोरा अंग लइले, तोर श्याम रंग दइदे!’ हे घनश्याम, यहाँ तो बात उल्टी हो गई।

फोन पर साले ने कहा था,‘गोरों के देश में जाकर, आप तो और गोरे हो गये होंगे, क्यों?’

साले पर आज इतना गुस्सा आ रहा था कि क्या कहूँ। लँगड़े से कहना कि ‘तुम तो मैराथन में जरूर फर्स्ट आओगे !’

यहाँ के मौसम का रंग ठंग भी कन्याकुमारी जैसा है। तेज धूप, साथ में ठंडी बयार। पेड़ के नीचे खड़े हो जाओ तो ठंड लग रही है। सड़क पर जाओ तो उफ् उफ् धूप!

मैं ने भार्या से कहा,‘जरा सोचो, तुम्हारी सास तुम्हे कैसी चीज दे गयी थी। पर तुम उसे सँभाल कर रख भी न सकी। लँगड़ा और काला बना कर छोड़ दिया।’  

किंग्सटन में इनके एपार्टमेंट में या मॅान्ट्रीयल और नायाग्रा के होटलों में मैं ने देखा कि सभी जगह अग्नि सम्बन्धी चेतावनी खूब लिखी रहती है। लिफ्ट में, तो एंट्रेंस में। अपने जेहन में दिल्ली के उपहार सिनेमा हॉल की दुर्घटना की याद ताजा हो गयी। 1997 का अग्निकांड, जिसमें उनसठ ने जान गँवायी, सौ से अधिक घायल हुए। सुप्रीम कोर्ट ने साठ करोड़ का जुर्माना ठोका। पंद्रह साल बाद। उसी तरह कलकत्ते के आमरी अस्पताल में न जाने कितने मरीज और तीमारदार दम घुट कर मर गये। फिर भी वहाँ कौन इन नियमों का पालन करता है? किसे है परवाह? चाँदी के जूते हैं न हाथ में।

यहाँ प्रत्येक एपार्टमेंट के सामने स्पष्ट अक्षरों में लिखा है – फायर लेन, नो पार्किंग। हमारे यहाँ की तरह नहीं कि गाड़ियों के नम्बर प्लेट भी धुँधली यादों का साकार रूप बनकर रह जाता है। फिर ढेर सारी गाड़ियों में तो वे अदृश्य ही रहते हैं। जान ले ले तो अच्छा, क्योंकि कहानी खतम। मगर अधमरा करके छोड़ गये तो शिकायत किसके खिलाफ होगी? निराकार ब्रह्म के खिलाफ? हेलमेट न पहनने पर बनारस में चालान कटता है।(अमां, खुदकुशी तो अब सुप्रीम कोर्ट की नजर में भी अपराध नहीं।) लेकिन लापरवाह या बेपरवाह ड्राइविंग के लिए, मोबाइल पर बात करते हुए जॉन अब्राहम बनने के लिए या कानफोड़ू हार्न बजाने के लिए उन वाहनचालकां के खिलाफ किस जहाँगीर बादशाह के दरबार में इन्साफ की घंटी टन टनाये ?

कनफेडरेशन हॉल के सामने जेब्रा लाइन तो बनी है, मगर चेतावनी भी है कि यहाँ गाड़ियों के लिए रोकना अनिवार्य नहीं है। यानी नैन लड़ाओ, फिर कदम बढ़ाओ। वैसे हर पेड़ की शाख पर ही शाखामृग रहते हैं। अर्थात हाई स्पीड के कारण यहाँ भी दुर्घटनाएँ होती हैं। हाईवे पर तो कत्तई कार खड़ी न करें। वरना कोई भी आपको उड़ाता हुआ निकल जायेगा। रुपाई कह रहा था,‘सड़क के उस पार पैदल राही का साइन आने पर ही सड़क पार किया करें। आजू बाजू देख भी लें। और हाँ, ध्यान रहे – यहाँ दायें से चलने का कानून है। सारे वेहिक्ल लेफ्ट हैंड ड्राइव हैं।’

हाँ, किंग्सटन के फैशन में एक बात उल्लेखनीय है कि यहाँ भी टैटू का खूब प्रचलन है। मर्द औरत दोनों अपने जिस्म पर तरह तरह के डिजाइन अंकित करवा कर रखते हैं। तंदुरुस्त बॉडीवाले पहलवान अपनी पेशियों पर जाने क्या क्या गुदवा कर रखते हैं। जरा देखिए वो जो चली आ रही है, उसके एक पैर में पैंट है, और दूसरे में नहीं है? यह क्या? पास आने पर दृष्टिभ्रम का समाधान हो गया। वो पहनी हुई है – हाफ पैंट से भी छोटा यानी पावभर का पैंट। एक तरफ गोरी टाँग, दूसरी ओर चितकबरा। पहले तो लगा यह भी कोई पारदर्शी पोशाक है क्या? पर पूरी काया दृष्टिगोचर होने पर सारी माया समझ में आ गयी।

उम्रदराज महिलायें भी इसमें पीछे नहीं रहतीं। ब्यूटी पार्लर के शीशे के दरवाजे के पीछे उनको भी खूब सेवा लेते हम दोनों ने देखा है। का भैल अगर बढ़ी उमरिया, सजनी ओढ़ नइकी चुनरिया।

मेरी दादी की माँ याद आ गयीं। विजया दशमी के बाद जब बाबूजी उनके पास हमें ले जाते थे, तो मुझे लगता था – जब वे पीतल के खरल(खल) पर दस्ते से कूट कूट कर पान खाती रहीं, तो शायद उनके कंठ के बाहर भी लालिमा छिटकती थी। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के कथामुख में आचार्य ने लिखा है न कि-‘बंगला में दादी के साथ मजाक करने का रिवाज है।’ बंगालियों में दादा दादी नाना नानी के साथ नाती पोतों का एक मजाक का सम्पर्क भी रहता है। नतनी के विवाह वासर में रात्रि जागरण करने में दादी नानी का अग्राधिकार सर्वमान्य है। आर डी बर्मन के समानंतर वे हरि कीर्तन सुनाती हैं। उनके आधुनिक संस्करण यानी आधुनिक दादी नानी शायद टॉलीवुड की चिर बंसती जोड़ी उत्तम सुचित्रा की फिल्म के गाने सुनायें! और यह तो मेरी परदादी ठहरीं।

अरुणाचल के जीरो की याद आ गयी। इतिहास कहता है कि वहाँ की सुंदरियाँ दूसरे कबीलेवालों की नजर से बचने के लिए अपना चेहरा गुदवा लेती रहीं। और नाक पर बांस की नथनी लगाकर उसे भी बेढंगा बना डालती थीं। वहाँ अब एक डाक्टर ने इस परंपरा के खिलाफ जेहाद षुरू किया है। क्योंकि इससे इनफेक्शन फैलने का एवं स्कीन कैंसर होने का खतरा रहता है।

कैटारॅकी नदी जहाँ आकर लेक अॅन्आरिओ को कहती है ‘आदाब!’, वहीं साहिल के पास हरे भरे पार्क के बीच फव्वारे चलते रहते हैं। सामने सड़क के उस पार खड़ा है कॅनफेडरेशन हॉल। दिखने में बड़ा टाउनहॉल जैसा। किनारे कॉनफेडरेशन होटल। वहीं बैठा था। अचानक घंटे की ध्वनि …….

टन् टन् टन्……..मैं चौंक उठा। ऊपर देखा तो बात समझ में आयी। कॉनफेडरेशन हॉल के टॉवर क्लॉक में नौ बज रहे हैं। एकदिन घूमते टहलते मैं फव्वारे के पास बैठा था, तो देखा वहाँ लिक्खा है – यहाँ का पानी पीने के लिए नहीं है। नहाने के लिए भी प्रयोग न करें। साथ साथ यह भी बताते चलें कि भारत में जैसे बिसलेरी वॉटर बोतल में बिकते हैं, उसी तरह यहाँ झरने का पानी बोतल में बिकता है। और हमारी गंगा यमुना गोदावरी? राम, तेरी गंगा मैली हो गई, पापिओं के पाप धोते धोते ………..

द हॉन्टेड वाक ऑफ किंग्सटन – यानी किंग्सटन के अंधकाराच्छन्न अतीत का सैर कर लें। इस भुतहा दुनिया की सैर में वे आपको ले चलेंगे सिन्डेनहैम वार्ड की कब्रगाह में। बताते चलेंगे कि कैसे वहाँ कब्रों को खोदकर लाशों से चीजे चुरायी जाती थीं। या ऐसी ही कुछ खट्टी मीठी यादें। तो शिवजी की बारात में पधारे भूतों पर एक सोरठा ही हो जाए :- नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब। देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि। नाचते गाते भूत बड़े ही मनमौजी हैं। देखने में बेढंगे और बड़े ही विचित्र ठंग से बतियाते हैं वे।

दूसरी सैर है फोर्ट हेनरी की। वहाँ नील्स वॉन शूल्ज् को फाँसी दी गई थी। आखिर क्यों? तो सुनिए उनकी दास्तान-ए-बगावत। फिनलैंड में नील्स गुस्ताफ उलरिक नाम से जन्मे(7.10.1807.) षूल्ज सन् 1838 में अपर कनाडा विद्रोह में नेतृत्व कर रहे थे। इसे बैटल ऑफ विन्डमिल कहा जाता है। वे ‘हंटर्स लॉजेस’ नामक गुप्त संस्था के सदस्य थे। उनकी सोच थी कि ब्रिटिश वहाँ कनाडावासिओं पर जुल्म ढा रहे हैं। न्यूयार्क से समुद्री रास्ते से ऑन्टारियो पहुँच कर उनलोगों ने न्यूपोर्ट में एक मजबूत गढ़ भी बना लिया था। मगर पाँच दिनों के युद्ध के बाद अंततः उन्हे हथियार डालना पड़ा। उन्हे एवं उनके साथियों को गिरफ्तार कर एक नौका से किंग्सटन भेजा गया। यह भी देखिए, उन्होंने अपने बचाव में भविष्य में कनाडा का प्रधान मंत्री बननेवाले उसी जॉन अलेक्जांडर मैक्डोनाल्ड को नियुक्त भी कर लिया था। पर फौजी अदालत ने इंकार कर दिया,‘मगर मिस्टर शूल्ज, कानून के मुताबिक आपको अपना बचाव खुद करना होगा। आप अपने लिए किसी वकील को नियुक्त नहीं कर सकते।’

कहा तो यही जाता है कि नील्स वॉन ने अदालत में बहुत ही शराफत एवं विनम्रता से कहा था,‘मुझे गलत सूचना ही मिली थी। मैं वस्तु स्थिति का सही आँकलन कर नहीं सका। सचमुच मुझसे गलती हो गई।’ यह भी कहा जाता है कि कनाडा के ढेर सारे प्रतिष्ठित लोग उनकी मुक्ति के लिए आवेदन करते रहे। मगर हुआ कुछ नहीं। सभी उनकी शराफत के कायल थे। आखिर आठ दिसंबर सन 1838 में फोर्ट हेनरी में उन्हें फांसी से लटका दिया गया।

पुस्तिका में छपी लोअर फोर्ट स्थित रॉयल आर्टिलरी की एक तस्वीर (सन्.1867) में एक कोने पर एक भूतनी की छाया भी दिखती है। वाह रे कमाल! काया नहीं पर छाया तो है।

यह भी एक गजब का सफर है। किंग्सटन और ऑन्टारिओ में प्रेतलोक की सैर। टिकट16.75डा., विद्यार्थियों के लिए सिर्फ14.75डा.। यानी सिनेमा सर्कस देखने की तरह भूत देखने के लिए भी स्टूडेंट्स् कनसेशन !

ज़रा एक दफे सोचिए मियां, (शब्द निर्माण के लिए माफीनामा पेश करते हुए) कोई गोरा ‘गोरनी’ भूत भूतनी अगर, वहाँ मुझसे कहते आकर,‘हैल्लो मिस्टर, आइये अपनी मिसेज के साथ हमारे साथ कॉफी पीजिए न।’

तो मेरी हालत क्या होती? मैं न कहता?-‘मिस्टर श्वेत प्रेत, मेरे पास फिलहाल एक ही पैंट है। कहीं वो आगे से गीला, पीछे से पीला हो जाये तो घर पहुँचूँगा कैसे ?’  

इस पर वो अगर कहता ?-‘यही तो मुश्किल है, भाया। तुम्हारी ही गीता में नहीं है? – वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ? यानी तुम्हारे पास जो है, वो तो फटा वस्त्र मात्र है ? उसका इतना गरूर? अरे असली चीज तो मेरे पास है। यानी रुह, वही भाया – जिसे तुम लोग आत्मा कहते हो। पर काले बबुआ, (अब भूत की उमर का तो कोई आर पार होता नहीं। मैं सिक्सटी का हुआ तो क्या हुआ ? वो मुझे बबुआ तो कह ही सकता है।) चूँकि तुम्हारे हियाँ आत्मा स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग इस पर पंडितों में घमासान मचा रहता है, तो इस झगड़े के चक्कर में मुझे ही भूतनी मत बना देना। बिरहा बिरहा मत कहो बिरहा है शमशान! जीते जी तो विरह में भले ही कट गया हो, मगर अब मुझसे मेरी भूतनी को जुदा मत करो। मुझे मर्द ही बने रहने दो।’

मुझे याद आया सच हमारे यहाँ के संस्कृत के विद्वान आत्मा को तो पुल्लिंग ही मानते हैं। कवि त्रिलोचन शास्त्री ने ‘शब्द’ में लिखा है – ‘अपनी अपनी चमक दिखा कर , कहाँ गया वह आत्मा/जिसकी सब तलाश करते हैं, जिस की रेखा/ नहीं बनी लेकिन सत्ता का शोर हो गया/ सारे जग में, आत्मा ही तो है परमात्मा.’

‘बनारसी बबुआ, यह तो बताओ – अगर आत्मा स्त्रीलिंग है, तो फिर परमात्मा पुल्लिंग कैसे ? फूलगोभी में फूल पुल्लिंग और गोभी नारीलिंग। कुल मिला कर फूलगोभी ने भी साड़ी पहन ली। उसी तरह…….’

सोचते सुनते, सुनते सोचते मेरा तो, बिलीव मी, सर चकराने लगा मैं हो गया बेहोश। ष्वेत प्रेत के मुँह से गीतोपदेश से लेकर हिन्दी के शब्द विचार – अरे बप्पा! मेरे लिए तो गीता का बस इतना ही मतलब है कि रंगीन कैलेंडर पर बने पाँच घोड़ेवाले रथ में बैठे श्रीकृष्ण मुसकिया रहे हैं। पीछे मुड़कर दोस्त को कुछ बतिया रहे हैं, और उ धनुर्धारी अर्जुन हथियार डाल के मुँह लटका के पीछे बैठा है। हाय, हाय!

धड़ाम् …..मैं गिरा……। जागा तो स्वयम् को बिटिया के घर में ही पाया। अपने बिस्तर पर ……। इतने में हों….ओं…..हों…..ओं…..झिर झिर घिर घिर….. हों… ओं….          

अरे बापरे! यह कैसा शब्द राग है? क्या मेपल के पेड़ से कोई श्वेत प्रेत नीचे उतर आया है ? पहली रात को तो मैं सचमुच चौंक गया था। झूम की माँ भी डर गयी थी। ऊँ…..ऊँ….मानो सौ बिलार एकसाथ एक दूसरे को गरिया रहे हैं। भूत बंगले की आवाज। अभी शायद कहीं दूर से कई सियार हुआँ हुआँ करके प्रेताराधना करेंगे।

अरे भाई, यह तो बताओ – यह है क्या? खिड़की का शीशा बंद कर दो, तो आवाज में खड़ी पाई। जरा फिर से खोलो हे, ससुर नंदिनी। तो फिर वही हूँ ……ऊँ….। मानो किसी की रूह दस्तक दे रही है। अरे मालिक, इ गजब का डरावना माहौल बाय!

एक और आवाज यहाँ जब तब सुनाई पड़ती है। एम्बुलेंस की अभियान-वार्ता – हुँओं…हुँओं….। और झूम बता रही थी फायर ब्रिगेडवाले भी खूब दौड़ते रहते हैं। बस फायर अलार्म बजने की देर है ….

मुआमला यह है कि ऑन्टारियो झील के बिलकुल किनारे होने के कारण ऐसे भी यहाँ पवन को पूरी छूट है। सम्पूर्ण स्वाधीनता। वो बड़े बड़ों को हिलाकर रख दे। तो….फिर से खिड़की को स्लाइड करके खोलो तो….

बाणभट्ट को जब वज्रतीर्थ श्मशान में खींच कर ले जाया गया तो…..‘जलती चिताओं के पास थोड़ा प्रकाश दिखाई दे जाता था, परंतु उनके आगे अंधकार और भी ठोस हो जाता था। रह-रहकर उलूकों के घूत्कार और शिवाओं के चीत्कार से श्मशान का वातावरण प्रकंपित हो उठता था।(बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’- दशम उच्छ्वास)

कुछ याद आया ?

 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 15 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 15 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

कैटारॅकी नदी और कैटारॅकी मार्केट

आदिवासी इरोक्वैश भाषा में कैटाराक्ने का अर्थ है वह स्थान जहाँ नदी आकर झील से मिलती है। तो कैटारॅकी नदी और सेंट लारेंस नदी यहाँ आकर अॅन्टारिओ लेक में समा जाती हैं। कैटारॅकी रि ड्यू कैनाल से निकल कर किंग्सटन में आकर लेक अंटारिओ में मिल जाती है। एक भरत मिलाप और फिर संगम !

झूम कैटारॅकी मॉल में कोई सामान ‘फेरने’ आयी है। यहाँ का यह सिस्टेम भी अनोखा ही है। इतने दिनों के अंदर खरीदा गया सामान लौटा कर आप कैश भी वापस ले जा सकते हैं। हाँ, रसीद होनी चाहिए, और एक दो महीने का कुछ निर्धारित समय है। यहाँ जैसे मैक्डोनाल्ड और टिम हार्टन आदि के रेस्तोराँ हैं, उसी तरह वालमार्ट और कैटारॅकी मॉल और मेट्रो या लो ब्लॉस में खाद्य पदार्थ मिलते हैं, तो फ्रेशको में ताजी सब्जियाँ।  

झूम रुपाई के साथ दूसरी मंजिल पर गयी हुई है। हम दोनों इधर उधर चक्कर लगाते हुए नैनों से केवल वातायन – खरीदारी यानी विंडोशॉपिंग करते हुए एक खुले आँगननुमा जगह में रखे सोफे पर बैठ गये। दोनों ओर बड़ी बड़ी दुकानें। कपड़ों की, जूतों की, गिफ्ट आइटेमों की, सामने क्राकरीज और गृहसज्जा के सामान। अचानक आँख गयी सामने के एक सफेद बोर्ड पर। उस पर एक कहानी के साथ एक अपील छपी थी – कनाडा के निराश्रय अनाथ किशोरां के लिए ……..

कनाडा का कोई अनाथ लड़का है। बेघर, बेसहारा। उसका बाप नशा करके आता था और उसकी माँ को आये दिन पीटता था। फिर अचानक एक दिन वह लापता हो गया। किसी को बिना कुछ बताये। धीरे धीरे उसकी माँ को भी नशे की लत लग गयी। और एकदिन वह भी चल बसी वहाँ, जहाँ के बारे में धार्मिक ग्रंथों में तो भूरि भूरि लिखा रहता है, मगर जिसका पता ठिकाना किसी को मालूम नहीं। किसी ने वहाँ से वापस लौट कर वहाँ का आँखों देखा हाल जो आजतक नहीं सुनाया। अब? उस लड़के का घर छिन गया। वह पब्लिक पार्क में ही सोने लगा। मगर वहाँ भी आये दिन पुलिस आकर उसे भगा देती, ‘क्यों बे, इस पार्क को तू ने अपना ननिहाल समझ लिया है? चल, भाग हियाँ से।’

पेट में भूख। वह क्या खायेगा और कैसे भोजन जुटायेगा? एक इंग्लिश मॅफिन के नाश्ते में ही तो साढ़े सात डॉलर लग जाते हैं।

ऐसे निराश्रय अनाथ बच्चों के लिए है वह अपील। मगर अंदाज निराला। हमारे यहॉँ चंदे के लिए ऐसी अपील के साइनबोर्ड नहीं लगाये जाते। वो भी सुपर मार्केट में। चार्लस डिकेन्स ने न जाने कब लंदन के किसी ऐसे अभागे की कहानी लिखी थी ‘ऑलिवर ट्विस्ट’ में। उस समय इंग्लैंड में पूँजी की हुकूमत के आरंभ का युग रहा। नये नये कल कारखाने बन रहे थे। किसान खेत छोड़ भाग रहे थे शहर की ओर,‘क्यों ब्रदर, वहॉँ कोई काम मिलेगा?’

निःसन्देह विश्व ने काफी आर्थिक प्रगति की है। मगर आखिर वह कौन सी दुनिया होगी जहॉँ ऐसे ऑलिवर ट्विस्ट दर दर की ठोकर नहीं खायेंगे? और उस नयी दुनिया का निर्माण करेगा कौन? जहाँ हर कन्हैया को कम से कम माता यशोदा का प्यार तो जरूर मिलेगा …….!

वैसे कहा जाए तो यहाँ कहीं कोई भिखारी वगैरह दिखता नहीं है। मुझे सिलिगुड़ी और हैदराबाद की घटनायें याद आ रही हैं। हमलोग हैदराबाद घूमने गये हुए थे। चार मीनार के पीछे किसी होटल से लाजवाब बिरियानी खाकर हम चारों नीचे उतरे कि हम और हमारे दो घेर लिये गये,‘साहब, हमें भी कुछ देते जाओ।’

अरे बापरे! चार चार पाँच पाँच के झुंड में बच्चे। बेटे बेटी को लेकर हम दोनों दौड़ते रहे, भागते रहे। कौन कहता है कि केवल अभिमन्यु ही चक्रव्यूह में फँसा था ? जरा वे यहाँ आकर इस चक्रव्यूह को भेद कर, इससे निकल कर तो दिखाये।

फिर उसी तरह …….

दार्जिलिंग जाते समय दोपहर बाद सिलिगुड़ी में उतरकर स्टेशन परिसर में टैक्सी स्टैंड के सामने बचा खुचा भोजन उदरस्थ कर रहे थे, क्योंकि दार्जिलिंग पहुँचने में तो शाम हो जायेगी। मगर एक कौर मुँह में डालने का मौका भी नहीं मिला –

‘ए माई, ए बाबूजी -!’ कई फैले हुए हाथ। किस किस हाथ में और क्या क्या डालते? यः पलयति स जीवेति …….। भागने में ही भलाई है, जहाँ जान पर बन आई है !

एकदिन यहीं कहीं जब रुपाई अगल बगल नहीं था, हम दोनों मॉल के अंदर बेटी के साथ एक ट्रॉली लेकर गृहस्थी के सामान बटोर रहे थे। दोनों ओर चावल, दाल, तेल, साबुन वगैरह के रैक। तो एक सँकरे पैसेज से आती हुई एक महिला के बिलकुल सामने झूम जा पहुँची। यह बात कहीं भी हो सकती है। कोई भयंकर दुर्घटना की बात भी नहीं। मगर उस महोदया ने कहा क्या,‘अंधी हो क्या? देख कर चल नहीं सकती?’अब दोष उसका या झूम का, यह कौन कहे? कोई टक्कर भी नहीं हुई थी। फिर भी ऐसा वाक्य वाण! झूम चुप रही। पीछे कहती है,‘बाबा, कुछ लोग ऐसे ही होते हैं। हम कलर्ड हैं, इसीलिए वे इसतरह बात करते हैं। चूँकि हमे अभी पर्मानेंट रेसिडेंसी मिली नहीं है, तो चुप रहना ही बुद्धिमानी है।’

मैं ने अपना सर पीट लिया। अरे मेरी मुनिया, किसने कहा है तुम दोनों को यहाँ पड़े रहने को? मगर हाय रे लाचारी ! 

जहाँ मैं बैठा हूँ, वहाँ मेरे दाहिने बाजू की ओर ब्लू नोट्स की एक बड़ी दुकान है। शोरूम में एक लड़की के मॉडल पर पैंट और शर्ट जैसा पहनावा। जीन्स पैंट के धागे को कुरेद कुरेद कर उसे दारिद्र्य का गहना पहनाया गया है। टी शर्ट में भी कई छेद। वाह भई! फैशन के भी क्या कहने। जिनके पास तन ढकने के कपड़े भी नहीं होंगे, वे भी शायद इस फैशन को देख कर ठठा कर हँस पड़े ! तो आगे …….

हाँ, यहाँ की लड़कियों या महिलाओं में भी नथनी पहनने का फैशन खूब चल पड़ा है। कान में दो दो छेद। यहाँ तक कि होंठ के ऊपर या नीचे भी। हे भगवान! कितने छेद करवाना चाहती हो? खुदा का दिया हुआ हुस्न से संतुष्टि  नहीं ?

अब इन्हें कौन समझाये? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में और एक प्राचीन आचार्य वराहमिहिर (उज्जयिनी निवासी, सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक, ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान) का उद्धरण (बृहत्संहिता) देते हुए लिखा है – स्त्रियाँ ही रत्नों को भूषित करती हैं, रत्न स्त्रियों को क्या भूषित करेंगे ! (रत्नानि विभूषयन्ति योशा भूषयन्ते वनिता न रत्नकान्त्या।) हे आचार्य आपने तो कह दिया – ‘धर्म-कर्म, भक्ति-ज्ञान, शांति-सौमनस्य कुछ भी नारी का संस्पर्श पाए बिना मनोहर नहीं होते – नारी-देह वह स्पर्श मणि है, जो प्रत्येक ईंट-पत्थर को सोना बना देती है।’,मगर ‘आपुन देश’ की नारिओं को भी कौन समझाये? वहाँ भी तो आजकल कान छिदवाने की होड़ लगी हुई है। कान एक, मगर छेद तीन। खैर, महिलायें नाराज न हों! आखिर आपही तो हमारी अन्नदात्री हैं!

इस मॉल की विशाल इमारत की बनावट इतनी अच्छी है कि क्या बतायें? हमारी सड़क जितने चौड़े बरामदे के दोनों ओर दुकानें और बीच में आँगन जैसी खुली जगह। छत से दिन का पर्याप्त प्रकाश आ रहा है। यही चीज आप साँई बाबा की शिरडी के गेस्ट हाउस में भी देख सकते हैं।

वाशरूम में गया तो वही चमाचम व्यवस्था। सफाई, पानी का इंतजाम। हाथ धोने के बाद – घर्रर्…..तेज आवाज के साथ हैंड ड्रायर चल रहा है – सूखा लो हाथ! छोटे से बक्से में मानो अंधड़ चल रहा है।

एक पीली ट्रॉली लेकर सफाई कर्मचारी आ रहा है। क्या गजब का ड्रेस है, भाई! हमारे यहाँ के ऑफिसर वैसी पोशाक में रहते होंगे। और इंतजाम ? वाह! यह ब्रश, वो ब्रश……..

अरे मेरी नन्ही गुड़िया! देखा एक पैराम्बुलेटर को धकियाती हुई एक बच्ची चली आ रही है। पैराम्बुलेटर में उसकी डॉल लेटी हुई है। वाह भई! नन्ही जसोदा अपने डॉल कान्हा को घुमाने ले जा रही है। पीछे पीछे उस लड़की की माँ और उसके डैडी भी चले आ रहे हैं। खुद ही है छोटी एक परी, घूँघट डाले बनी है बड़ी।

आवागमन की व्यवस्था भी चमत्कार है। कार पार्किंग एरिया से आप सीधे पहली मंजिल में तो पहुँचते ही हैं, दूसरी मंजिल से भी आप शकट तक सीधे पहुँच सकते हैं। आर्किटेक्ट यानी वास्तु शिल्पकारों के क्या डिजाइन हैं!

उसदिन आकर हमने देखा था – घुसते ही सर्वप्रथम एरिया में तरह तरह के क्राकरीज सजा कर रखे हुए हैं। कितनी खूबसूरत प्लेट, बोल वगैरह, तरह तरह के कलछुल आदि। हिम्मत करके दाम पूछा तो बेहोश होते होते बच गया। बाथरूम टावेल की कीमत 15.99 डॉलर, यानी करीब 800रुपये। फिर वही हिसाब लेकर बैठ गया? धत्, का भैया हियाँ के रुमाल के दाम में हम हुआँ बनारसी साड़ी खरीद सकीला का ?

इन पाक-यंत्रों की बगल से आगे चले जाइये, तो उधर है नारी परिधान कार्नर। एक जगह तो चक्कर आ गया। माँ बिटिया मिलकर मुस्किया रही थीं – देख, बुढ़वा का हाल देख ! लाल, हरे, सफेद, काले – तरह तरह की कंचुकी हैंगर से लटक रही हैं। हे ईश्वर! ये किन उर्वशी, रंभा या मेनकाओं के लिए हैं? ये साइज तो शायद अजन्ता की मूर्तिआें को ही फिट बैठेगी। सुना था चोली के भीतर किसी का दिल धड़कता है। यहाँ तो उस व्याप्ति के नजारे को देखकर बाहर खड़े मेरा ही दिल धड़कने लगा। कबिरा खड़ा बाजार में, चोली देख घबड़ाय। हिंद की ग्राम वधुओं के इनमें चोला समाय!

कैटारॅकी से बाहर निकला तो खिलखिलाती धूप। कनाडा के मौसम के मिजाज का भी जबाब नहीं। अभी पूनमासी, तो अभी अमावस। अभी मारे गरमी के उफ उफ कर रहे हैं, तो अभी बदरी और फिर रिमझिम। मई जून में तो दो तीन दिन की गर्मी के बाद ही पानी बरसने की भविष्यवाणी हो जाती है। तो चलिए कैटारॅकी मॉल में बैठे कुमार विनोद के ‘सजदे में आकाश’ से सुनिए –

मौसम बदमाशी पे उतरा लगता है/ बारिश के संग धूप रवाना करता है।

प्यार में ऊँचे-नीचे का फिर भेद कहाँ/ सजदे में आकाश जमीं पे झुकता है।

ऐसे तो यहाँ हमने कम्प्यूटर आदि की दुकानों के अलावा इलेक्ट्रिकल गुडस में और कुछ खास देखा नहीं, फिर भी एकाध बार लग रहा था – काश, एक सीलिंग फैन ही लग जाता!

इसीलिए तो यहाँ राह चलते समय सन ग्लास और कैप लगाना मानो अनिवार्य है। वरना त्वचा सन टैन्ड होकर रह जायेगी। उसकी भी एक आपबीती कहानी है। वो बाद में………

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 14 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 14 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

क्वीनस् यूनिवर्सिटी और किंग्सटन

नायाग्रा जाने के पहले ही एक दिन रुपाई अपना डिपार्टमेंट दिखाने ले चला। रात के नौ बज गये थे। फिर भी ‘दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला’ (हरिऔध)। सुनसान सड़क पर कार पार्क करके हम चारों मेन गेट से अंदर पहुँचे। एक महिला सुरक्षा कर्मी ने स्वागत किया। फिर प्रोफेसर्स कार्नर में जाने के लिए रुपाई को अपनी चाबी लगानी पड़ी। शीशे का दरवाजा खुल गया। उसकी सास तो गदगद हो उठीं। उसके केबिन में रैक पर किताबें, रिसर्च पेपर्स, दो मेज पर दो कम्प्यूटर। गाइड एवं शोध छात्र अपने अपने काम में लगे रह सकते हैं। एक राइटिंग बोर्ड लटक रहा है। लिखो और मिटाओ। व्हाइट बोर्ड और मार्कर पेन। क्या पोर्टिको है, क्या पैसेज है! यहाँ प्रोफेसर के कमरे के अंदर कोई साफ करने नहीं आता है। वहाँ अपना हाथ जगन्नाथ। सफाई स्टाफ केवल बरामदे तक ही अपने हाथ का जादू दिखाते हैं।

क्वीनस् यूनिवर्सिटी की पुरानी इमारत की स्थापना 16 अक्टूबर 1841 को हुई थी। पुरानी इमारत को बनाये रखते हुए ही नयी बिल्डिंग बनाये गये। हमारे बीएचयू की तरह ही यह विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है। बिल्डिंग के अंदर घुसते ही एक अहाते नुमा जगह में ऊपर से कई झंडे लटक रहे हैं। जिन देशों के विद्यार्थी यहाँ पढ़ने आते हैं, उन देशों के झंडे हैं ये। इनमें हमारा तिरंगा भी है। गौरव! आत्म गरिमा से गदगद हो उठे हमारे हृदय युगल!

एक रात खूब बारिश होने लगी। झम झम झमा झम। ताज्जुब की बात – इतना पानी बरसने के बावजूद यहाँ न बिजली जाती है, न और कुछ। काशी में तो इंद्रदेव नाक भी छिड़के तो बिजली मैया मुँह छुपा लेती हैं। मैं बरामदे में बैठा था। झूम की माँ भी वरूणदेव के साथ साथ बरस रही थी,‘अरे भींग जाइयेगा। अंदर आकर बैठिये न।’

झूम जानती है उसके इस पागल पापा को। वह हँस रही थी। रुपाई ठहरा भद्रमहोदय। बेचारा किससे क्या कहे ? ससुरा पागल हमें जो मिला / शिकवा किससे करें या गिला ?

अंटारियो लेक के ऊपर आकाश में काले से लेकर सफेद या राख-रंग के बादल मदमस्त जंगली हाथियों के झुंड की तरह मँडरा रहे थे। जैसे हस्ती यूथ के बीच से निकल कर कोई छोटा छौना इधर से उधर दौड़ने लगता है और उसकी मां सूँड़ उठा कर उसे मना करती है, बुलाती है,‘अरे छोटुआ, वहाँ मत जा। लौट आ, मेरे लाल।’उसी तरह विशाल आकार के मेघों के बीच से निकल कर कोई बादल का टुकड़ा गगन के सैर पर निकल पड़ता है। ‘अरे वो क्या है जो चाँदी की तरह चमक रहा है?’ बादल के किनारे की उज्ज्वल प्रभा को देखकर शायद वह छोटू बादल यही सोचता होगा। आकाश अगर स्त्रीलिंग शब्द होता तो कविगण आराम से मेघमाला को उसके कुंतल सोच सकते थे। वैसे बताते चलें कि बंगला में – खासकर भाटियाली गानों में ( जैसे बंदिनी में एस.डी.बर्मन का गीत – ओ मोरे माझि, ले चलो पार!) कुँच बरन(वर्ण यानी रंग) कन्या तेरा मेघबरन चुल(बाल) एक सार्वभौम उपमा है। जरा कवि कुल शिरोमणि कालिदास के मेघदूत के पूर्वमेघ से सुनिए, साथ में अपटु अनुवाद –

तस्य स्थित्वा कथमपिपुरः कौतुकाधानहेतो रन्तर्वाश्पचिरमनुचरो राज राजस्य दध्यौ।

देख काले बादलों के यूथ / मन में यक्ष ने सोचा कि हाय

उमड़ घुमड़ इन मेघों को देख / क्यों न प्रिया-छवि हृदय में समाय ?

रात भर धरती मैया ने दिव्य स्नान कर लिया। सुबह से ही बदरी है। हम चारों चल रहे हैं रुपाई की गाड़ी से गैनानॉक शहर की ओर। किंग्सटन से बस कुछ दूर । दोनों तरफ हरे हरे पेड़ – चीड़ वगैरह। इधर मेपल उतने नहीं हैं। अब तो मेपल कनाडा का प्रतीक ही बन गया है। झंडे से लेकर मिलिट्री के पदक एवं कनाडियन डॉलर पर आप इन पत्तियों को देख सकते हैं। एक मैक्डोनल्ड के सामने गाड़ी थमी।

‘चलिए, नाश्ता कर लिया जाए।’

वहाँ काउंटर की बगल में लिखा था यहाँ की हर बिक्री का दस सेंट निराश्रय लोगों के ठौर ठिकाना बनाने के लिए दिया जाता है।

पेड़ों के उस पार जंगल। दाहिने बीच बीच में सेंट लॉरेन्स नदी दीख जाती है। उसके बीच थाउजैंड आइलैंड के द्वीप समूह। विशाल झील में बिखरे छोटे छोटे द्वीप। कहीं कहीं तो एक टापू पर बस एक ही मकान है।

सामने एक सुंदर से मोहल्ले के बाहर लिखा था आईवीली। रुपाई ने रथ को वहीं एक किनारे लगा दिया,‘लीजिए उतर कर देखिए। कितने सुंदर सुंदर बंगलानुमा मकान हैं। सब एकतल्ले।’

मकानों के सामने हरा गालीचा बिछा हुआ है। उस पर रंग बिरंगी चिड़ियां दाना चुग रही हैं। हम बगल की घासों के ऊपर से नदी की ओर रुख करते हैं। मगर अई ओ मईया! घासों के बीच सब्जी के मंगरैले की तरह ये क्या बिखरे पड़े हैं? श्वान मल?

‘अरे नहीं। ये तो सारे बत्तख यानी कनाडियन गीस पेट पूजा करते करते प्रसाद वितरण करते गये हैं। वाह प्यारे परिंदे, तेरा जवाब नहीं।’   

रुपाई ने सावधान किया,‘ज्यादा आगे मत जाइये। यहाँ के बाशिंदे बुरा मानते हैं। उन्हें लगता है उनके अमन चैन में टूरिस्ट खलल डालने आ पहुँचते हैं। असल में इतने एकांत में रहते रहते उनकी सहनशीलता शायद काफी कम हो गई है। यहाँ तो ऐसे केस भी हुए हैं कि पड़ोसी ने अपने बरामदे में कपड़ा पसारा है, तो लोग म्युनिसिपल्टी में शिकायत दर्ज कराने पहुँच गये हैं कि मोहल्ले की शोभा का सत्यानाश हो रहा है।’

बाहर मुख्य सड़क पर निकल आया। हरियाली के बीच एक सेमिट्री। कब्रिस्तान। सचमुच बड़ी ही शांति से सब आखिरी नींद में सो रहे हैं। कमसे कम इस समय तो सब चैन की नींद सो रहे हैं। जरा हमारे मणिकर्णिका को याद कीजिए। मरने के बाद भी गंदगी और झंझटों से मुक्ति नहीं। ‘का भैया, लकड़ी आजकल क रुपैया मन चल थौ?’ का मोलभाव। चारों ओर गंदगी का आलम। हड्डी और काँच के टुकड़े बिखरे पड़े हैं। उसीमें नंगे पैर भी चलना है। कुत्ते आपस में झीना झपटी कर रहे हैं। उसीके बीच पितरों को पिंडदान करो। किसी की आँख के आँसू सूखे भी नहीं है, तो कहीं इस बात की पंचायत हो रही है कि जो मृत को दागेगा वही संपत्ति का अधिकारी बनेगा आदि। साथ साथ,‘ए पप्पुआ, एहर चाय नांही देहले? कुछ्छो कह, मणिकर्णिका की चाय के स्वादे निराला हौ !’

रुपाई बोला,‘जाड़े में ये सारी सड़क, समूची झील सब बर्फ से ढक जाती हैं। पेड़ो की पत्तियां गायब हो जाती हैं। दूर तक जंगल दिखने लगता है।’

‘तो ये लोग करते क्या हैं? कहीं जाना आना हो तो कैसे जाते है?’

‘सुबह से ही कार्पोरेशन की गाड़ी आकर बर्फ की सफाई में लग जाती है।’

सड़क के किनारे किनारे सफेद लकीर खींच कर साईकिल के लिए रास्ता बना है। इक्के दुक्के साईकिल वहाँ चल रही है।

एक ब्रिज जिसके दोनों ओर फूल लगे हैं, उसे पार कर हम गैनानॉक पहुँचे। यहाँ के लोग इसे गांव ही कहते हैं। आगे यहॉँ के टाउन हॉल के सामने यहाँ की लाइब्रेरी है। मुख्य द्वार बंद था। बांये से अंदर दाखिल हुआ। वाह! करीने से किताबें रक्खी हुई हैं। बेंच पर एक लड़का अधलेटा कोई किताब पढ़ रहा है। रैक पर रखी किताबों में से एक मैं उठा लेता हूँ। किताब का शीर्षक है – ‘मैं माँ को प्यार करता हूँ!’। हर पृष्ठ पर किसी एक जीव के मां-बेटे की तस्वीर है, और उसके नीचे कुछ लिखा है। जैसे – वह मुझे कहानी सुनाती है (पृष्ठ पर इंसान के मां बेटे बने हैं।), वह मुझसे बात करती है (बिल्ली के मां-बेटे), वह बहुत विशाल है (हाथी), वह मुझे खिलाती है(भेंड़)। उसी तरह भालू, पांडा और सारे…….

एक तरफ कम्प्यूटर, लोग इंटरनेट कर रहे हैं।

लाइब्रेरी के सामने टाउन हॉल के मैदान में एक पिआनो रखा है। उसीके आगे एक उन्नीस साल के लड़के की स्मृति में एक सैनिक की मूर्ति। 1917 में उसने सेना में योगदान किया। जंग के दौरान एक सूचना लाने में वह जख्मी हो गया। उस सूचना से उसके कॉमरेड लोग तो बच गये। परंतु अगले दिन ही वह अभागा सारे जख्मों के ,सारे दर्दों के पार चला गया ……..। ऐ जंग की दुन्दभि बजाने वाले, जरा सोचो – यही है युद्ध!

सड़क चली जा रही है। रास्ते में हर घर का लेटर बॉक्स सड़क किनारे खड़ा है। ताकि ऊँचाई पर स्थित या जंगल के भीतर के घरों तक किसी को जाना न पड़े।

कई मकानों के आगे बोर्ड पर लिखा है – बिक्री के लिए। इसी सम्पत्ति के लिए भाई भाई का दुश्मन बन जाता है। अदालत का चक्कर काटते काटते पैर थक जाते हैं। मन में आया…….ईंट की दीवारों के लिए, उठा बड़ों पर हाथ ! पंछी जब उड़ जायेगा, क्या ले जायेगा साथ ? 

रास्ते में एक जगह कई काले काले घोड़े घास चर रहे थे। क्या तंदुरुस्ती है इनकी! काले बदन पर धूप मानो फिसलती जा रही है। फिर एक जगह कई गायें भी घास चर रही थीं। गोरे गोरे बदन पर काले या भूरे धब्बे। इनके नथुने भी गुलाबी। हम काले लोगों के यहाँ तो गाय के नथुने भी काले। और इनका आकार? माफ करना गोपाल, नजर न लग जाए।

उधर चर रहे हैं भेड़ों के रेवड़। हमने कश्मीर, हिमाचल या उत्तराखंड में चरवाहों के पास ऐसे रेवड़ देखे हैं। फिर भी यहाँ की बात ही अलग है। और काशी के आस पास घास के मैदान है ही कहाँ ? चारों ओर तो खेती की जमीन बेच खरीद कर फ्लैट बनाये जा रहे हैं। तो हाल-ए-बनारस पर अशोक ‘अंजुम’ की दो पंक्तियाँ – आरी ने घायल किए, हरियाली के पांव। कंकरीट में दब गया, होरीवाला गांव।   

यहाँ किसी रास्ते पर चलते हुए बिलकुल अपरिचित पुरुष या महिला भी आपको हैल्लो या हाई कहेंगे। निःसंकोच। रास्ते में एक दो बार बाईकर गैंग से भी हमारा पाला पड़ा। यह फैशन खूब चल पड़ा है। सात आठ युवक युवतिओं की टोली काले कपड़े पहन कर, काले हेलमेट वगैरह लगाकर फुल स्पीड से हाईवे पर बाईक दौड़ाते हैं।

कहीं भी जाइये बूढ़े या असमर्थ लोगों के लिए अलग व्यवस्था है। वाशरूम अलग, एअरपोर्ट में उनके लिए अलग से बैठने की जगह। दूसरा कोई नहीं बैठ सकता। नायाग्रा के पार्किंग में उनके लिए बनी जगह में आपने कार पार्क की तो भरिए जुर्माना। पार्किंग लॉट पर सफेद लकीर करीने से खींच कर एक एक कार पार्क करने की जगह को निर्धारित किया गया है।

किंग्सटन के मार्केट स्क्वेअर में शनि और रविवार को बाजार लगता है। वहाँ तरह तरह के फूल भी खूब बिकते हैं। वहीं एक शाम को एक गोरा मदारी टाइप आदमी अलाउद्दीन की तरह नागड़ा पहन कर खेल दिखा रहा था। उसके सिर पर बाकायदा पगड़ी भी थी। पूरा अलाउद्दीन।

आज जहाँ कनफेडरेशन हॉल है, ठीक उसके पीछे ही है मार्केट स्क्वैअर। उसे जमाने में इसका रूप ही कुछ अलग था। वहाँ जहाजों से उतारे गये मालों को रक्खा जाता था। 18.4.1840.की सुबह अचानक तेज आँधी चलने लगी थी। डॉक के पास करीब 70 से 100 केग गन पाउडर रखे हुए थे। जाने कहाँ से उसमें आग लग गयी। फिर क्या था? देखते देखते अग्निकांड में पुराना शहर ही ध्वस्त हो गया। आगे चूने पत्थरों से नवीन नगरी का पुनर्निमाण हुआ। इसीलिए तो इसे लाइमस्टोन सिटी कहा जाता है।

किंग्सटन अपनी मिलिट्री अकादेमी के लिए भी मशहूर है।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २० – भाग ३ – कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २० – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ✈️

सियाम रीपहून आम्ही कंबोडियाची राजधानी नामपेन्ह इथे आलो. तिथले ‘रॉयल पॅलेस’ एका स्वच्छ, भव्य बागेत आहे. हरतऱ्हेची झाडे व अनेक रंगांची फुले फुलली होती. नागचाफा ( कैलासपती ) म्हणजे कॅननबॉलचा महाप्रचंड वृक्ष होता. त्याला बुंध्यापासून गोल फळे लगडली होती. कमळासारख्या गुलाबी मोठ्या पाकळ्या असलेल्या या फुलात मधोमध छोटी शंकराची पिंडी व त्यावर पिवळट केसरांचा नागाचा फणा असतो. एक मंद मादक सुवास सगळीकडे दरवळत होता. राजवाड्याचे भव्य खांब अप्सरांच्या शिल्पांनी तोललेले  आहेत. राजवाड्याची उतरती छपरे हिरव्या, निळ्या, सोनेरी रंगाची आहेत. आवारात वेगवेगळे स्तूप आहेत. हे स्तूप म्हणजे राजघराण्यातील व्यक्तींचा मृत्यू झाल्यावर त्यांचे दागिने, कपडे, रक्षा ठेवण्याची जागा आहे. राजाची रक्षा सोन्याच्या कमलपात्रात ठेवली आहे.

सिल्व्हर पॅगोडा पाहिला. पॅगोडाच्या आतील संपूर्ण जमीन  चांदीची आहे. एक किलो १२५ ग्रॅम वजनाची एक लादी अशा ५३२९ चांदीच्या लाद्या इथे बसविण्यात आल्या आहेत. या साऱ्या लाद्या फ्रान्समध्ये बनविल्या आहेत. प्रवाशांना त्यातील एक लादी काढून दाखविण्याची सोय केली आहे. या पॅगोडामध्ये सोने, रत्ने वापरून केलेला बुद्धाचा घडीव पुतळा आहे. त्याच्या कपाळावर आठ कॅरेटचा हिरा जडविलेला आहे. त्याच्या मुकुटावर व अंगावर मिळून २०८६ रत्ने बसविलेली आहेत अशी माहिती गाईडने दिली. या रत्नजडित बुद्धाच्या मागे थोड्या उंचीवर संपूर्ण एमरेल्डचा (Emerald ) पोपटासारख्या रंगाचा पण पारदर्शक असा बुद्धाचा पुतळा आहे. त्याच्या मागे जाऊन पाहिले की आरपार पोपटी उजेड दिसतो.

म्युझियममध्ये होडीच्या आकाराचे मोठे तंतुवाद्य होते. कंबोडियामध्ये उत्तम प्रतीचा पांढरा व हिरवट मार्बल मिळतो. तो वापरून हत्तीचे, बुद्धाचे पुतळे बनविले आहेत. सॅण्डस्टोन मधील स्कंद म्हणजे कार्तिकेयाची मूर्ती आहे. सहाव्या शतकातील शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी श्री विष्णूची मूर्ती आहे. ब्रह्मा-विष्णू-महेश, शिवलिंग, सिंह, गरुड, वाली-सुग्रीव यांच्या मूर्ती आहेत. अर्धनारीनटेश्वराची ब्रांझमधील मूर्ती आहे. नागाच्या वेटोळ्यावर बसलेल्या बुद्धाला काही लोकं काडीला लावलेला मोगरा व लाल फूल वाहत होते.उदबत्यांचे जुडगे लावीत होते. तीन-चार हजार वर्षांपूर्वीची शस्त्रास्त्रे, वाद्ये, दागिने,सिल्कची वस्त्रे विणण्याचे माग, राजाचा व धर्मोपदेशकाचा ब्राँझचा पुतळा अशा असंख्य गोष्टी तिथे आहेत.

मानवतेला काळीमा फासणारा एक काळाकुट्ट काळ कंबोडियाने अनुभवला आहे. क्रूरकर्मा पॉल पॉट या हुकूमशहाने त्याच्या चार वर्षांच्या कारकिर्दीत ( १९७६ ते १९७९) वीस लाख लोकांना यमसदनास पाठविले. हे सर्व लोक त्याच्याच धर्म- वंशाचे होते. बुद्धीवादी सामान्य नागरिक म्हणजे शिक्षक, प्राध्यापक, लेखक, पत्रकार, संपादक, डॉक्टर, वकील अशा लोकांचा पहिला बळी गेला. पॉल पॉटने हिटलरसारखे कॉन्संस्ट्रेशन कॅ॑पस् उभारले होते. महाविद्यालये , शाळा बंद होत्या. निरपराध लोकांना तिथे आणून हालहाल करुन मारण्यात आले. आम्हाला एका शाळेतील असा कॅम्प दाखविण्यात आला. गाईड बरोबर फिरताना, तिथले फोटो, कवट्या बघताना अश्रू आवरत नाहीत. गाईडचे नातेवाईकही या छळाला बळी पडले होते. एखादा माणूस असा राक्षसासारखा क्रूरकर्मा होऊ शकतो यावर विश्वास बसत नव्हता. पण हा चाळीस -बेचाळीस वर्षांपूर्वीचा सत्य इतिहास आहे. क्रूरतेची परिसीमा गाठलेला, माणुसकी हरवलेला!

कंबोडियन लोक साधे, गरीब व कष्टाळू आहेत. आपल्या परंपरा, धर्म आणि रूढी जपणारे आहेत. एप्रिल महिन्यात त्यांचे नवीन वर्ष सुरू होते. नोव्हेंबर मधील पौर्णिमेला बोन ओम थोक नावाचा सण साजरा करण्याची प्रथा बाराव्या शतकापासून आहे. त्यावेळी नद्यांमध्ये बोटीच्या स्पर्धा होतात. फटाके वाजविले जातात.  केळीच्या पानातून अन्नाचा भोग (नैवेद्य ) दाखविला जातो. आता कंबोडियातील बहुतांश लोकांनी बुद्ध धर्म स्वीकारलेला आहे. त्यामुळे बुद्ध पौर्णिमा ही विशेष प्रकारे साजरी होते. मे ते ऑक्टोबर हा तिथला पावसाळ्याचा ऋतू आहे. त्यामुळे नोव्हेंबर ते साधारण फेब्रुवारी मध्यापर्यंत कंबोडियाला जाण्यासाठी योग्य काळ आहे. त्यानंतर मात्र चांगलाच उन्हाळा असतो.

कंबोडियात परंपरेप्रमाणे क्रामा म्हणजे एक प्रकारचे छोटे उपरणे वापरण्याची पद्धत आहे. आम्हालाही एकेक क्रामा भेट म्हणून देण्यात आला. उन्हापासून संरक्षण करायला, लहान बाळाला गुंडाळून घ्यायला, झाडावर चढण्यासाठी अशा अनेक प्रकारे त्याचा वापर केला जातो.

अनेक शतके पिचत पडलेल्या कंबोडियाच्या राजवटीने गेली दहा वर्षे आपली दारे जगासाठी उघडली आहेत. या दहा वर्षात पर्यटनाच्या दृष्टीने अनेक सुधारणा करण्यात आल्या आहेत. भारतीय प्रवासी कमी असले तरी युरोप व इतर प्रवाशांचा चांगला ओघ असतो. आम्ही राजधानी नामपेन्ह  इथे भारतीय उच्चायुक्तांची त्यांच्या कार्यालयात जाऊन भेट घेतली. त्यांच्या राहण्याची व कार्यालयाची जागा एकाच छोट्या बंगल्यात होती. त्यांनी कंबोडियाबद्दल थोडी माहिती दिली.रबर,टिंबर, तयार कपडे यामध्ये कंबोडियाची निर्यात वाढत आहे तर औषधे, प्रक्रिया केलेले अन्न, पेट्रोल व पेट्रोलियम उत्पादने चीन, तैवान, थायलंड, सिंगापूर येथून आयात केली जातात. व्यापार व इतर व्यवहार अमेरिकन डॉलरमध्ये होतात. कंबोडिया भारताकडून औषधे, वाहनांचे सुटे भाग, मशिनरी, कॉस्मेटिक्स आयात करतो. पण अजूनही गुंतवणुकीला भरपूर वाव आहे. सिंगापूर, चीन, कुवेत, कोरिया,कतार यांनी बांधकाम व्यवसायात व शेतकी उत्पन्नात चांगली गुंतवणूक केली आहे. खाण उद्योग, वीज निर्मिती, रस्तेबांधणी तेल व गॅस संशोधन यामध्ये गुंतवणुकीला भरपूर वाव आहे.चीनने नेहेमीप्रमाणे मुसंडी मारली आहे. दोन मोठ्या सरकारी इमारती ‘फुकट’ बांधून देऊन उत्तरेकडील सोन्याच्या खाणीचे कंत्राट मिळविले आहे. उदासीनता झटकून भारतानेसुद्धा येथील संधीचा फायदा घेतला पाहिजे.

सांस्कृतिक आणि अध्यात्मिक समृद्धी असलेल्या या देशाला आपले पूर्ववैभव प्राप्त करता येईल अशी आशा करुया.

भाग – ३ व कंबोडिया समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 13 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 13 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

बेटी का घर   

झूम के मकान के सामने यानी सड़क के उस पार एक मकान की छत की मरम्मत हो रही है। यहाँ यही रिवाज है कि पतझड़ के पहले ऐसे काम करवा लो। ताकि बर्फबारी होने पर कोई दिक्कत न हो। यहाँ तो नवंबर से ही बर्फबारी शुरू हो जाती है। फरवरी तक तो ठोस बर्फ। सॉलिड। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह पानी की भी तीन अवस्थाएँ हैं – ठोस, द्रव और गैस। बर्फ, पानी और भाप। क्यों, ठीक कहा है न ?

चार आदमी छत पर काम कर रहे हैं। लकड़ी के शीट के ऊपर कुछ प्लास्टिक मेटिरियल के आयताकार ट्रेनुमा लगा है। एक आदमी मशीन से उन्हें काट रहा है। दो तीन किसिम के ब्रशनुमा झाड़ू है। हेलमेट पहने एक आदमी कचड़ों को इकठ्ठा कर रहा है। नीचे उनकी गाड़ी खड़ी है। उसके पीछे कबाड़ ढोने की ट्राली में सब फेंका जा रहा है। वाह! सड़क को बपौती समझ कर गंदा करने का कोई कार्यक्रम नहीं। हमारी काशी में तो जब लोग अपना मकान बनाते हैं, तो राहगीरों की कोई परवाह नहीं। छत से ईंट पत्थर गिरे तो तुम जानो। आखिर खोपड़ी तो तुम्हारी ही न है, बबुआ?

और ऐसे प्राइवेट काम में हेलमेट का प्रयोग ? जनाब, वहाँ शिव की नगरी में आजकल डी.एल.डब्ल्यू. के पास जाने कौन सा हवाई पुल का निर्माण हो रहा है। किसी भी मजदूर के माथे पर हेलमेट नहीं। कुछ ऐसा ही दृश्य तो कॉमनवेल्थ गेम्स के समय राजधानी में रहा। अगर कोई इंसान खंभे गिरने से दब कर मर जाता है तो पैसा है न मुआवजा देने के लिए। पब्लिक मनी है पैतृक खजाना, भले मौत का आए परवाना। फिर फिकर नट।

झूम के बरामदे से सामने ऑन्टारिओ लेक के किनारे अद्भुत बिहंगम दृश्य दीखता है। सामने है केवाईसी – नो योर कस्टमर नहीं- किंग्सटन याक्ट क्लब। उसके सामने झील के किनारे कतार से कई झंडे ऊँचे आसमान में लहर रहे हैं। ये कनाडा एवं उसके स्टेटस के पताका हैं – न्यू फाउंडलैंड, न्यू ब्रुनस्विक, नोवा स्कोटिया और प्रिंस एडवार्ड आइलैंड आदि। मानस के हंस की तरह सैकड़ों की तादाद में सफेद नाव। सारे प्राइवेट। दो चार मोटर बोट भी। पानी से घिरा उनका ऑफिस – एक सुंदर सफेद कॉटेजनुमा मकान। उसके सामने चेन्ज रूम या बाथरूम वगैरह भी हैं। इधर घास के गलीचे पर मँडराती तितलिओं की तरह बच्चे खेल रहे हैं। आजकल यहाँ के स्कूलों में छुट्टी जो चल रही है। दो चार की टोली में दिनभर युवक युवतियां आते रहते हैं। वे अपने नाव पर पाल फहरा कर झील में निकल जाते हैं। पतवार से खेने वाली छोटी छोटी कैनो नौका भी चलती रहती हैं। हजार द्वीपों के सफर में ले जाने वाले क्रुजर जहाज भी दूर से दीखते हैं। 

वहीं दूर लहरों के बीच सैकड़ों सफेद नाव सफेद पाल लगाकर तैर रही हैं। मानो सारे सफेद राजहंस तैर कर ही मानसरोवर पहुँच जायेंगे।

केवल नदी में ही नहीं, क्लब के यार्ड में भी पचासों नाव खड़ी हैं। तीन पहिये की ट्राली में लादकर उन्हें पानी में छलकाया जाता है। यहाँ की जिन्दगी बहती धारा की तरह है। छल छल बहती जाये रे!

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में लिखते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा है कि आचार्य जब कश्मीर गये हुए थे, तो वहाँ की ललनाओं को देख कर उन्हें कुमारसंभव की पार्वती याद आ गयीं। अगर यहाँ की इन नौकाओं को खेती अप्सराओं के वे देखते तो क्या कहते ? – अरे भाई, ये मत्स्यगंधाये किन पराशरों को अपने जाल में फाँसने के लिए ऑन्टारिओ झील की लहरों पर ऐसे निकल आयी हैं?

हमलोग तो रूप के उपासक हैं ही। उधौ मन नाहीं दस बीस, एक हु तो सो गयो स्याम संग, को आराधै ईश? क्या इसीलिए बुतपरस्ती का विरोध करने पैगंबर मुहम्मद साहब ने काबा के कुएँ में वहाँ की प्राचीन अरबी मूर्तियों को फेंक दिया था ? हम लोग तो साकार सगुन देवता के चक्कर में कृष्ण की बांसुरी और रासलीला में ही मस्त हुए रहते हैं। गीता की वाणी को तो भूल ही जाते हैं। वैसे और लोग भी नबी की बातों को कहाँ याद रखते हैं? वरना इतना मार काट क्यों होता ?

दोपहर बाद फिर निकल पड़ा था। बैग में तूलि, वाटर कलर आदि और हाथ में वाटर कलर पेपर। एक मेपल के पेड़ को बना रहा था। ढलती दोपहर में उसकी पत्तियों की छाया किस तरह जमीं पर फैलती रहती है। कई गिलहरियाँ यहाँँ से वहाँ फुदक रही थीं। उधर एक गार्बेज कैन है, पेड़ के तने पर चढ़ कर वे सब उसमें भी ताक झॉक कर रही हैं,‘किचम किच्। कुछ मिला बंधु ?’ यहाँ की गिलहरियाँ सब काली होती हैं। हमारे यहाँ की तरह धारीदार नहीं। क्यों न हो ? आखिर यहाँ तो राम लक्ष्मण आये नहीं न थे। कहा तो यही जाता है कि लंका जाने के लिए सेतु बंधन करते समय जब वहाँ रामेश्वरम् की गिलहरियाँ भी कूद कूद कर छोटे मोटे कंकड़ या टहनियों को पुल के पत्थरों के बीच लगा रहे थे, तो श्रीराम ने अपने हाथों से उनकी पीठों को सहला दिया था। तो तब से उनकी पीठ पर वे धारियाँ या रघुवर की उँगलिओं के निशान बन गये हैं। पर हैं सब तन्दुरुस्त। झबड़ेदार पूँछ की शोभा ही कुछ अलग है। बिलकुल चामर या चँवर की तरह।

 मैं सीटी पार्क में बैठ कर चित्रकारी कर रहा था तो एक बगल में आकर पिछले पैरों पर खड़ी हो गयी। किच किच। शायद पूछ रही थी,‘क्यों विदेशी, कुछ खाना वाना लाये हो साथ में?’

यहाँ के खरगोश उस हिसाब से कुछ छोटे और भूरे हैं। वे भी इन मैदानों में दौड़ते रहते हैं।

और एक जीव के बारे में न बताना उनकी प्रतिष्ठा के खिलाफ होगा। वो हैं फ्लैट के बरामदे से लटकती मकड़ियाँ। आप सुबह उनके जाल को साफ कीजिए और देखिए शाम तक उनका पुनराविर्भाव। रुपाई वैक्यूम क्लीनर लेकर उनके पीछे पीछे दौड़ता रहता है। अगर कोई सीलिंग से लटकती नजर आ जाये तो उसका खैर नहीं। ‘अरे देखो देखो कहाँ लैंड कर रही है।’ बस शिकारी दौड़ा शिकार के पीछे,‘झूम, वो कुर्सी यहाँ लाओ। उस पर चढ़ कर मैं उसकी खबर लेता हूँ।’ आखेट।

एपार्टमेंट के मेन गेट के पास एक स्टैंड पर साप्ताहिक अखबार रखे होते हैं। चाहिए तो ले जाइये। किंग्सटन हेरिटेज (23.7.15) में निकला था कि आसपास के इलाके में खतरनाक पार्सनिप घास जैसी वनस्पति पैदा हो रही हैं। खास कर पूर्वी ऑन्टारियो में। उसको छूने से त्वचा में जलन और खुजली होती है। अतः उससे बचकर रहें।

अंग्रेजी के स्टे (ठहरना) और वैकेशन(छुट्टी) को मिलाकर आजकल (सन 2008 से) एक नये शब्द की ईजाद हुई है – स्टेकेशन। यानी कहीं रहते हुए छुट्टी के दिन गुजारो। हमारे यहाँ की टूरिज्म इंडस्ट्री में शायद इसी को होम स्टे का नाम दिया गया है। जो भी हो। अखबारों में तरह तरह की खबरें …..

झूम के लॉन्ड्री रूम में या यहाँ के मॉल में ऐसी पत्रिकायें पड़ी रहती हैं…क्लोजर, हैल्लो, इन टच, यू एस विकली, पिपुल आदि। लॉन्ड्री रूम में तो रैक पर किताबें भी करीने से रक्खी हुई हैं।

ऐसे बाहर खाने पर यहाँ एक आदमी के दो मील और एक नाश्ता यानी ढाई वक्त के भोजन और दो एक कॉफी या चाय पर करीब तीस डॉलर खर्च होते हैं। पति पत्नी हैं तो कमसे कम साठ। यानी हमारे देश के हिसाब से सिर्फ पेट पूजन में नित्य तीन हजार ! बाकी नहाना, धोना (झूम एपार्टमेंट की वाशिंग मशीन चलाने बेसमेंट में जाती है तो धुलाई के दो एवं सुखाई यानी ड्रायर के दो – उसे कुल चार डॉलर खर्च करना पड़ता है।),ओढ़ना, रहना, सोना…… तो उनके लिए ?

अब कुछ वहाँ के मिष्ठान्न के बारे में। मिष्ठान्न मितरे जना। मिठाई तो भाई मिल बाँट के ही खानी चाहिए। पहले तो यहाँ पर हमारे यहाँ की मिठाई मिलती ही न थीं। मगर अब किंग्सटन में भी आप उनके स्वाद से महरूम नहीं रहते। रुपाई ने दूसरे दिन ही किसी सुपर मार्केट से रसमलाई और गुलाब जामुन ले आया था। भाई, सच कबूल कर लेना चाहिए। रसमलाई सचमुच मजेदार थी। बनारस में अच्छी अच्छी दुकानों की रसमलाई भी चीनी डालकर खानी पड़ती है। मानो सभी केवल डायबेटीज के मरीजों के लिए ही बनाई गई हों। फिर एक दिन बेटी ने किसी दुकान का मिल्क केक भी खिलाया। बखान कैसे मैं करूँ, मन में हर्ष अपार/ खाकर मिठाई ऐसी मस्त हुआ संसार !

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 12 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 12 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

चल घर राही आपुनो

कार हाईवे पर अपनी गति से चल रही है। स्मृति कानों में वशीर बद्र  के शेर को लगी गुनगुनानेःः ‘न जी भर के देखा, न कुछ बात की। बड़ी आरजू थी मुलाकात की।’ तो नायाग्रा, अलविदा।

कार में चलते चलते यह भी बता दें कि नायाग्रा की चुनौती भी अजीब है। उसे देखकर लोग केवल उसके दीवाने ही नहीं हो जाते, बल्कि कइयों ने उस पर छलाँग लगाने की कोशिश की या रस्सी पर चलकर उसे पार करने का प्रयास किया। वही शमा-परवाने की दास्तां। सबसे पहले मिचिगन की एक स्कूल टीचर एन्नी एडसन टेलर ने 63 साल की उम्र में एक बैरेल में खुद को बंद करके नायाग्रा के ऊपर से नीचे छलाँग लगायी थी। दिन था 24 अक्टूबर, 1901। यह तो यीशु की किरपा समझिए कि उन्हें कुछ खरौंच और हल्की चोट से अधिक कुछ न हुआ। वह मर्दानी बच गयी। उनके पहले 19 अक्टूबर को एक बेचारी बिल्ली इयागारा को इसी तरह बक्से में बंद करके ऊपर से नीचे झरने में फेंका गया। वह भी बच गयी या शहीद हो गयी – यह बात विवादास्पद है। सरफिरे इंसानों की करामात तो जरा देखिए।

बिना किसी सहायता के छलाँग लगा कर जिन्दा बच जाने वाला पहला इन्सान था वही मिचिगन का किर्क जोन्स कैन्टॉन। 20.10.2003 को हार्स शू फॉल से झरने की धारा में वह कूद गया था।

अब यह हाईवे वैसे तो छह लेन का है ही। मगर डिवाइडर की ओर सबसे बायें है एच् ओ वी यानी हाई अॅक्युपेन्सि लेन। अर्थात दो से अधिक यात्री लेकर जो कार जा रही है, केवल वही इस लेन से जायें। टोरंटो में पैन अमेरिकन गेम्स चलने के कारण टोरंटो के पास यह सूचना जारी हो गई। उद्देश्य है कि सब कार पुल करके चलायें। एक ही कार में कई सवारी, रहे सलामत दोस्ती हमारी !  

दोनों तरफ पेड़, लंबी लंबी घास – हरे रंग का समारोह। बीच से दौड़ती चमकती काली सड़क। उस पर लेन को बाँटने वाले सफेद दाग भी महावर की तरह चमक रहे हैं। कहीं कहीं सड़क पर इस छोर से उस छोर तक ब्रिज। वैसे तो टोरंटो डाउन टाउन बीस तीस कि.मी. दूर है यहाँ से। मगर कितनी सारी बहुमंजिली इमारतें। चालीस पचास तल्ले या उससे अधिक भी। सांय सांय भागती कारें। दिन में भी सबकी हेड लाइट जल रही हैं। काँहे भाई ? पूछने पर रुपाई फरमाते हैं, ‘गाड़ी स्टार्ट करते ही हेड लाइट जल उठती है।’

रास्ते में जंगलों के पास बाड़े की शक्ल में ऊँची साउंडप्रुफ दीवार खड़ी है। ताकि वाहनों की पों पों से वनवासियों की शांति में कोई व्याघात न पहुँचे। जंगल के चैन में कोई खलल न पड़े। वाह रे संवेदना!

कहीं कहीं पेड़ों के पीछे से झाँकते कॉटेज। यहाँ किसी मकान में छत नहीं होती। ऊपर सिर्फ ढलान होती है।

धरती पर भी नाव चलती है क्या? जी हाँ। किसी कार के ऊपर, तो किसी कार के पीछे ट्रॉली पर सवार है नौका। किंग्सटन में तो लोग कैनो या छोटी नाव कार के ऊपर चढ़ा कर खूब चलते हैं। वहाँ तो घर के सामने भी कार की तरह नाव रखी होती है।

इतने में भुर्र भुर्र …..बगल में श्रीमतीजी की नाक सुर साधना करने लगी है। रुपाई ने गाड़ी रोकने के लिए कहा,‘ जरा माँ से पूछ लो।’

मैं ने कहा,‘फिलहाल तो वो कुंभकर्ण की मौसी बनी बैठी हैं।’

‘नहीं। मैं कहाँ सो रही हूँ ?’तुरंत नारी शक्ति का प्रतिवाद।

‘बिलकुल नहीं।’मेरा उवाच,‘वो कहाँ सो रही हैं? उनकी नाक तो कीर्तन कर रही है, बस। हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे!’   

रास्ते में पोर्ट होप ऑनरूट में गाड़ी थमी। रास्ते में जामाता बार बार पूछ रहा था, ‘पापा को वॉश रूम तो नहीं जाना है ? तो कहीं रुक जाऊँ ?’

कहीं का मतलब रास्ते के किनारे नहीं, भाई। क्या मुझे जेल भिजवाना है? रुपाई किसी अॅानरूट पर रोकने की बात कर रहा है।

मैं रास्ते भर ना ना करता रहा। कोई जरूरत नहीं है। अगला ऑनरूट कितनी दूर है? वगैरह। मगर उसने जब सचमुच एक ऑनरूट रेस्तोराँ पर रोका तो लगा सीट बेल्ट तोड़ कर निकल भागूँ। चरमोत्कर्ष पर थी मेरी व्याकुलता। भार्या उबलती रही,‘बेचारा तो बार बार पूछ रहा था। तब बहुत शरीफ बन रहे थे। छिः। बाहर निकल कर कोई ऐसा करता है भला ?’

अरे ससुर सुता, तुम क्या जानो मर्दों को किस तरह ‘पौरूष-कर’ यानी प्रोस्टेट का टैक्स चुकाना पड़ता है ? हाँ, तो सीट बेल्ट लगाना यहाँ जरूरी है (शहरे बनारस में उसे कउन माई का लाल लगाता है?), मगर ऐसी आपात स्थिति उत्पन्न होने पर बड़ी मुसीबत होती है। लगता है सारे जंजीरों को तोड़ कर बाहर निकल पड़ूँ ……..

 पता नहीं क्यों पहले से उतनी ताकीद महसूस नहीं कर रहा था। मगर कार पार्क करते करते मुझे लगा मैं दरवाजा खोलकर छलाँग लगा लूँ। उतरते ही मैं दौड़ा वाशरूम की तरफ। भार्या लगी डाँटने,‘ तब से रुपाई पूछ रहा है कि बीच में कहीं रोक लूँ, तब नहीं कह सकते थे? यह क्या बात है ?’

रास्ते के और कुछ दृश्यों का अवलोकन करें –

हम लोग करीब तीन सौ कि.मी. से अधिक हाईवे पर चल चुके हैं। न जाते समय, न आते समय एक भी दुर्घटनाग्रस्त वाहन नजर आया। ऐसे तो यहाँ वैसे एक्सिडेंट्स होते नहीं हैं, पर ज्यों होता है, तुरंत लोग उसकी पूरी व्यवस्था कर लेते हैं। घायलों को कराहने के लिए भगवान भरोसे छोड़ नहीं दिया जाता। बाकी लोगों को डराने के लिए कार की अस्थि को वहीं छोड़ नहीं दी जाती। और बनारस से इलाहाबाद या रेनुसागर ही चले जाइये न, रास्ते में ऐसे ऐसे रोंगटे खड़े करनेवाले दृश्य होंगे कि लगता है कार वार छोड़ कर भाग कर वापस घर पहुँच जाऊँ।

चलते चलते जरा सर्वाधिक प्रधान मंत्रिओं को चुन कर भेजने वाले ऊँचे प्रदेश की बदहाल सड़कों के बारे में अमर उजाला(18.9.15.) की सूचना देखिए :-यातायात नियमों की अवहेलना से नहीं, बल्कि सड़कों की खराब बनावट और गड्ढे के कारण पिछले वर्ष देश में 11.398 से ज्यादा लोगों की मौतें हुईं। इनमें सर्वाधिक हमारे प्रदेश की ‘मौत की राहों‘ पर – 4.455।

बगल से एक भारी भरकम गाड़ी में प्लेन का पंख लाद कर ले जा रहे हैं। उसके आगे पीछे दो एसकर्ट गाड़ी भी चल रही हैं,‘साहबजान, मेहरबान, होशियार सावधान! इस लेन में कत्तई न आयें। वरना -!’

हमरी न मानो सईयां, सिपहिया से पूछो ……….

किंग्सटन लौटते ही हम तीनों को ऊपर पहुँचा कर रुपाई बिन चाय पिये दौड़ा कार वापस करने, वरना एक और दिन की दक्षिणा लग जायेगी। लिफ्ट की दीवार पर मैं ने पहले भी ख्याल किया था कि लिखा है – भार वाहन की अधिकतम क्षमता 907 के.जी. या दस आदमियों के लिए। यानी यहाँ सरकारी हिसाब से लोगों के औसत वजन नब्बे के.जी. होता होगा। फिर भी राह चलते यहाँ कोई किसी की ओर तिरछी निगाह से देखता तक नहीं,‘कौने चक्की का आटा खाला?’ वजनदार महोदय एवं महोदया तो बहुत दृश्यमान होते हैं। चाहे राजमार्ग पर, चाहे मॉल में।

और एक सत्य कथा सुन लीजिए। (अमर उजाला. 5.9.15. से) एक वजनदार दम्पति की कहानी। दोनों की शादी के समय स्टीव का वजन 203 के.जी. रहा। और दुलहिन का 152। वे ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते थे। शादी के स्टेज से तो स्टीव गिर भी गया था। फिर भी दोनों की कोशिशे रंग लाईं। महीनों वर्जिश के बाद स्टीव का वजन 76 के.जी. कम हुआ, और मिशेल का 63 केजी.। हे वर, हे वधू, तुम दोनों को हमारी शुभ कामनायें ! तहे दिल से। तुम्हारा वजन बेशक कम हो, पर तुम्हारी मोहब्बत वजनदार हो ! मे गॉड हेल्प यू माई फ्रेंडस्!

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 11 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 11 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

अंबुनाथ का दरबार

कल चलेंगे वापस किंग्सटन। आज सुबह सुबह चारों चले मेरिनलैंड घूमने। यहाँ तरह तरह के सामुद्रिक जीव रक्खे गये हैं। साथ में चिम्पांजी वगैरह कुछ स्थल के जंतु भी हैं। यह एक पिकनिक स्पॉट है। बच्चों को लेकर आइये। उनके लिए तरह तरह के राइड्स् और खेल हैं। ऊपर से नीचे गिरो – धड़ाम्। चक्कर चर्खी में घूमते घूमते ऊपर नीचे हो लो। ऐसे ही सब। हिम्मत हो तो आजमाओ। अगर सीने में हो दम, तब यहाँ पर कम !

झूम ने ऑन लाइन टिकट कटवा लिया था। कार पार्क करके हम अंदर दाखिल हो गये। यहाँ टिकट ‘चेकरिन’ से लेकर ‘गार्डिन’ वगैरह सभी जगह स्त्री शक्ति विराजमान हैं। मजे में पानी बरसने लगा था। एक चीज देखकर मेरा मन बारंबार आह्लादित हो उठता है, और वो है कि कार पार्क करते समय रुपाई स्टियरिंग लॉक अवश्य लगाता है। मेरे मन में अपार हर्ष होता है। क्यों? अरे भाई सब बनारसे को बदनाम करते हैं कि वो ठग नगरी है। यहाँ भी तो उनके मौसेरे भाई रहते हैं।

कार पार्किंग से जब तक रुपाई गेट तक आता, मैं ने देखा मेरिनलैंड की दीवार के पास झाड़ियों पर फालसा जैसे छोटे छोटे फल लगे हैं। जरा चख तो लें। एक कड़ुवा निकला, मगर बाकी? अरे वाह! खट्टा मीठा लाल लाल, पानी लेके धौड़ी आवऽ। इंद्रदेव ने दामाद की नजरों से मेरी रक्षा कर ली।

यहाँ आप एक टिकट से एक ही शो को कई बार देख सकते हैं। कोई रोक टोक नहीं। कल वाले रेनकोट पहनते हुए हम सबसे पहले एक्वेरियम में दाखिल हो गये। कई सील मछलियाँ तैर रही हैं। डुबकी लगा रही हैं। इसी सरोवर को नीचे से भी देखा जा सकता है। वहाँ से और कई रंगीन मछलियां दिखाई देती हैं। ऊपर एम्फिथियेटर जैसा दर्शक दीर्घा बना हुआ है। जो बूढ़े सज्जन वहाँ खड़े थे, ताकि कोई बच्चा रेलिंग पर से टैंक में न झुके, उन्होंने बताया,‘ये सब रिटायर्ड सील हैं। एक सील की उमर औसतन पचास की होती है। तो ये सब चालीस पैंतालीस की हो गई हैं।’

जरा सोचिए, अवसर प्राप्त करने के बाद भी बाकायदा उनकी देखभाल हो रही है। और बुद्ध की जन्मभूमि में जहाँ अहिंसा का नारा बुलन्द किया जाता है, वहाँ क्या होता है? अब तो सरकारी नौकरियों में भी पेंशन गायब हो रहे हैं।

पौने बारह बजे दूसरे बड़े ऑडिटोरियम में शुरू हुआ सी-लायन, डॉल्फिन, बेलुगा व्हेल और वालरस का शो। सबकुछ अद्भुत। उनके कारनामों को देख हम तो बस चकित ही रह गये। ये लोग इन जीवों से कितना प्यार करते हैं, जो उनसे ये करतब करवा लेते हैं। वैसे पशु प्रेमी लोग यह इल्जाम लगाते हैं कि ये उन्हें सिखाने के लिए यातना भी देते हैं। मगर ऐसा नहीं लगता। सर्कस में पशुराज को जैसे हंटर का डर दिखाकर उससे सारे करतब करवाये जाते हैं, यहाँ का माहौल तो उसके बिलकुल विपरीत है। कुछ समझ में नहीं आता। डॉलफिन आदि तो ऐसे ही इन्सानों से प्यार करते हैं। कुत्ते और घोड़ों की तरह।

खैर, सबसे पहले सी लायन का खेल शुरू हुआ। वे फर्श पर घसीटते घसीटते मंच पर आ रहे हैं। फिर ट्रेनर के इशारे पर पानी में छलाँग लगा रहे हैं। एक दूसरे को रिंग पहना रहे हैं। कमर हिला कर नाच रहे हैं। ट्रेनर जब हाथ हिला कर बाई कर रहा है या ताली बजा रहा है, वे अपने फिन्स या पंखों से वही कर रहे हैं। प्रशिक्षक के साथ स्विमिंग पुल में चक्कर काट रहे हैं। सामने घाट पर उठ कर उसे चूम रहे हैं। और हाँ, हर आइटेम के बाद उन्हें उनका मेहनताना चाहिए। यानी, भैया, मुझे मछली दो! और वो देनी पड़ती है। हाथों हाथ। हाँ, ध्यान रहे कि मछली को उनके मुँह में डालते समय उसका मुँह नीचे रहे, यानी मछली की पूँछ ऊपर की ओर हो। वरना सी लायन के गले में खरौंच आ सकती है।

अगला आइटेम है बेलुगा व्हेल का। मुँह से पानी का फव्वारा छोड़ते हुए दो सफेद बेलुगा व्हेल का प्रवेश। ये सिर्फ आर्कटिक महासागरीय अंचल में ही पाये जाते हैं। यानी कनाडा, उत्तर अमेरीका और रूस जैसे देशों के समुद्री तटों के पास। अपने ट्रेनर को थूथन पर उठा कर वे तैर रहे हैं। सवारी करवा रहे हैं। फिर मछली – परितोष एवं पुरस्कार। साथ ही साथ ऑडिटोरियम से उल्लास की ध्वनि आकाश में गूँजने लगती है। सारे बच्चे खुश होकर झूम रहे हैं। बार बार मां का चेहरा अपनी ओर खींच कर कह रहे हैं, ‘मम्मी , वो देखो।’  

उसी तरह कई डॉलफिन मिल कर खेल दिखलाने लगे। पानी के ऊपर छलाँग लगाना, चक्कर खा कर वापस पानी में गिरना। और जाने क्या क्या। वाह भई मजा आ गया। और सबसे बड़ी बात यह भी है कि इनके कई शो ये एकसाथ समूह में करते हैं। सिन्क्रोनाइज्ड परफॉर्मेंस! जैसे ओलम्पिक में दो तैराक एकसाथ डाइव देते हैं और दूसरे करतब दिखाते हैं, ठीक वैसे। और हमारी शोबाजी क्या हो रही थी ? हम तो बस दांतों तले उँगलियां दबाते रहे।

शो के अंतिम चरण में आविर्भाव हुआ राजा साहब का। वालरस। विशालकाय, भूरा रंग, दो बड़े बड़े दाँत। रूप तेरा मस्ताना। उतने बड़े शरीर को ट्रेनर के साथ साथ मंच के फर्श पर घसीट कर ले जाना ही तो बड़ी बात है। आखिर ये प्राणी तो आर्कटिक अंचल की बर्फ पर ही न रहते हैं।

अयोध्याकांड में भरत कहते हैं न ? ‘पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना।’ भले ही बंदर आदि पशु नाचे और तोते सीताराम सीताराम करें, मगर उनको ये गुण नचानेवाले और पाठ पढ़ानेवाले ही सीखाते हैं।

दोपहर की उदरारती के लिए रुपाई हमें लेकर वहीं मेरीनलैंड के एक रेस्तोरॉ में पहुँचा। वहाँ देखा कई किशोर सर्विस में लगे हुए हैं। रुपाई ने कहा, ‘ये बच्चे स्वरोजगार के लिए छुट्टी के दिनों यहाँ काम करने के लिए आते हैं।’ बाहर रिमझिम बारिश हो रही है। पेट के साथ साथ नेत्रों से भी रसास्वादन होने लगा।

मेरी लाडो आखिर बनारस की बेटी है,‘माँ, मैं जरा झूले पर चढ़ने जा रही हूँ। तुम दोनों वहीं एक्वारियम के ऑडिटोरियम में बैठे रहना।’

‘झूम, सँभाल के। ज्यादा एडवेंचर करने की जरूरत नहीं। चक्कर आने लगेंगे।’ माँ को तो मना करना ही है। रुपाई गया उसके साथ। उनके बचपन में जब मैं बेटी और बेटे को तैराकी सिखाने के लिए गंगा पार ले जाया करता था तो बीच गंगा में ही चिल्लाता रहता,‘चलो मेरे शेर, कूद जाओ।’

ऑडिटोरियम में काफी देर तक बैठे बैठे हम बोर होने लगे थे। हाँ, रुपाई के कहने पर हम लोगों ने बेलुगा व्हेल आदि का दूसरा शो फिर से देख लिया था। वे मेरिन लैंड का चिड़ियाघर देख कर लौटे। इधर हम दोनों दूसरे दो तल्ले के एक टैंक में जाकर किलर व्हेल और दूसरे बेलुगा व्हेल देख आये। अरे जनाब, बेचारे किलर व्हेल को उसके नाम के कारण बदनाम न करें। वे काफी शरीफ प्राणी होते हैं। शिकारी विकारी नहीं। काले नील शरीर पर सफेद आँखे। हाँ दोस्त, तेरा रूप ही जानलेवा है, तू नहीं!  

ऊपर वाले टैंक के पास वही खट्टे मीठे फल। मन ललचा गया। वहाँ के स्टाफ हँसने लगीं,‘ये चेरी के छोटे भाई हैं।’

अब देखिए झूम की मांई की विश्वासघातकता। खुद तो डाल से बिन बिन कर खा रही थी, ‘लीजिए फोटो खींचिए न।’

मगर मैं ने जब हाथ बढ़ाया तो,‘अरे रुपाई नाराज हो जायेगा। पता नहीं कौन सा फल हैं ये।’

किसने लिखा है – नारी तुम केवल श्रद्धा हो (कामायनी)? अरे शेक्सपीयर ने तो काफी पहले ही हैमलेट में लिख दिया था – ‘फ्रेल्टी दाई नेम इज वुमैन!’ विश्वासघात, ऐ नागिनी, क्या तेरा नाम है कामिनी?’ पवित्र बाईबिल की कहानी याद है ? शैतान सेब के फल में कीड़ा बनकर घुस आया और उसने हौवा को बहकाया। हौवा के कहने पर आदम ने उस सेब को खाया, तो लो बच्चू, बेचारे को स्वर्ग से निष्कासित होना पड़ा। क्यों ?

जामाता के सामने मेरी ‘वो’ बिलकुल कौशल्या यशोदा बनी रहती हैं। और मैं ही ठहरा मूढ़ ससुर।

दिन भर बारिश होती रही। मेरिन लैंड में स्कूली बच्चे भी आये हुए थे। उनके मैडम और वे बेचारे भींग रहे थे। नायाग्रा दर्शन वाले रेन कोट भले ही पतले प्लास्टिक के हों, मगर उनसे हम काफी हद तक बचते रहे।   

रात को पहुँचे फिर नायाग्रा से मिलने। वहाँ की आतिशबाजी देखकर तो यही लग रहा था कि रात के अँधेरे को सजाने सितारे आकाश से जमीं पर उतर आ रहे हैं। विद्यापति की एक पंक्ति को रवीन्द्रनाथ ने कहीं लिखा है – जनम अवधि हम रूप निहारल नयन ने तिरपित भेल ……

उनके नूर के दीदार में सारी उम्र्र लगी थी जाने /नजरों की हसरत बुझी न थी, वे चल दी फिर प्यास बुझाने!

अगली सुबह बैक टू किंग्सटन। चलो मन गंगा जमुना तीर …..    

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 10 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 10 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

नीहार- नंदिनी             

आज के भ्रमण का दूसरा परिच्छेद है – मेड ऑफ द मिस्ट यानी दोतल्ले लंच या जहाज जो कह लीजिए, उसमें बैठ कर बहाव की विपरीत दिशा में जाकर झरने की बूँदों के पर्दे को छू आना। कोहरे-कन्या का स्पर्श ! चलो उस दर्शन के लिए टिकट ले लें। माथे पर चमकती धूप। (फोन पर सब पूछते रहते हैं,‘वहाँ तो खूब बर्फ गिर रही होगी। कितना मजा आ रहा होगा!’ बच्चू, यहाँ आकर मजा चखकर देखो।) ऊपर सड़क पर नदी के किनारे किनारे हम तीनों को काफी दूर पैदल चलना पड़ा। मगर रास्ते में ही –

‘अजी वो देखो -।’मैं ने श्रीमती का पुनः पाणिग्रहण किया,‘उस माताजी को देखो। हाथ में लाठी है, और साड़ी पहनी हुई हैं। साथ में जो सज्जन हैं, वे भी तो हमारे उधर के ही लगते हैं। चलो जरा देख लें बिदेसी माटी पर देसी फूल।’

उत्साह, मन में अपार हर्ष। मैं आगे बढ़ गया,‘नमस्ते भाई सा’ब। माताजी, नमस्ते। आपलोग यहाँ घूमने आये हैं? मैं हूँ बनारसी बंगाली।’

पता चला वो महोदय लाल बहादुर शास्त्रीजी के रामनगर के आगे अदलहाट के मूल निवासी हैं। अपनी माँ को नायाग्रा दिखाने ले आये हैं। साथ में उनकी पत्नी भी है। उनका भाई न्यू जर्सी में रहता है। सब इमिग्रेंट हैं। वाह! छोड़ घोंसला पंछी जब उड़ जाये, बोल परिन्दे याद देस की आये ?

‘बनारस में आप कहाँ रहते हैं?’……..बातों सिलसिला चल पड़ा।

‘क्यों माताजी,’ मैं ने पूछा,‘आप झरने के पास नीचे नहीं जाइयेगा ?’

‘अरे नहीं।’पोपले गाल हँसी से फूल गये,‘यहीं हम ठीक हैं। उधर कहीं एक किनारे बैठ जायेंगे।’

मैं भाई साहब की ओर मुखातिब हुआ,‘अरे काशी में गंगा दर्शन को जाकर क्या गुदौलिया में ही बैठे रहियेगा ? दशाश्वमेध नहीं चलियेगा ?’

‘अम्मां कैसे नीचे उतरेंगी ?’

‘कम से कम सड़क के ऊपर से ही नायाग्रा का दर्शन तो कर लीजिए। वहीं कहीं सड़क किनारे बैठ लीजिएगा।’

‘नहीं उतनी दूर अम्मां चल नहीं पायेंगी। इधर ही कहीं बैठ लेंगे।’

‘यहाँ आकर नायाग्रा दर्शन नहीं कीजिएगा, तो गंगा मैया नाराज हो जायेंगी।’ हँसते हँसते मैं अब आगे बढ़ने लगा।

साथ साथ कैमरा बंद स्मृतियां। फिर राम राम भैया, नमस्ते माताजी, अब ले इ बोली नाहीं बोले से कंठ सूखत रहल।

धूप-चाँदनी अपनी पूरी ताकत से तीव्र ‘ज्योत्सना के तीर’ चला रही थी। गला सूख रहा था। फिर लाइन। लेकिन कहीं ठकुरई नहीं, गुंडई नहीं कि – ‘अबे हमई जाब आगे। तू हमार का कर लेबे?’ हमारे देश में भी बंगाल या दक्षिण में कोई कतार तोड़ कर आगे नहीं जाता, तो फिर हमारे इलाके में ही ऐसा क्यों होता है ? दो तीन काउंटर बने हैं। हर एक के सामने लाइन शंबूक गति से आगे बढ़ रही है।

‘बिहाइंड द फॉल’ के लिए पीले रंग का पतला रेनकोट दिया गया था, यहाँ लाल रंग का मिला। प्लेन की तरह टिकट दिखाकर आगे जहाज की ओर बढ़ चले। यहाँ भी दर्शन के अंत में प्लास्टिक रिसाइक्ल करने का अनुरोध। मगर हमने जो रख लिया तो फायदा यह हुआ कि अगले दिन मेरीन लैंड में घूमते समय जब बारिश होने लगी तो वही काम आ गये।

धीरे धीरे सर्पिल गति से लाइन आगे खिसक रही है। टिकट का स्कैनिंग। एक घुमावदार रास्ते से होकर बेटी को लेकर हम जहाज पर चढ़ गये। नीचे जगह नहीं। ऊपर डेक पर चले चलो। सफेद सी गल परिन्दे लॉच के ऊपर उड़ रहे हैं। लहरों की गर्जन के साथ साथ उनकी तेज आवाज लॉच तक हो हिला दे रही है। मानो गब्बर की तरह बोल रहे हैं,‘आओ आओ ठाकुर …..!’

‘मैं गिर नहीं न जाऊँगी?’ झूम की अम्मां मुस्कुरायी।

मैं फिल्मी अंदाज में जवाब दिया,‘मैं भी साथ साथ कूद जाऊँगा।’ आजाद ने तो कुछ अलग ही कहा था, पर मैं ने फिल्मी अंदाज में डायलॉग मारा,‘जब से सुना प्यार का नाम है जिंदगी, सर पर बाँधे कफन उल्फत को ढूँढ़ता हूँ!’

शिवानी ने फिर से शिव को चेतावनी दी,‘आप रेलिंग पकड़ लीजिए।’ हाँ भाई, आखिर मेरी दिवंगत अम्मां तुमरे हाथों ही न मुझे सौंप कर वहाँ ऊपर चली गई हैं। वैसे जहाज तो हाथी के हौदे की तरह हिल रहा था। बेटी ने मेरा हाथ पकड़ लिया।

मेरी साठ साल की जवानी मर्माहत हो गयी,‘मां रे, हम्में कुछछो नहीं होगा। कासी का छोरा हूँ आखिर।’

जहाज या लॉच कनाडा वाले झरने की ओर धीरे धीरे बढ़ रहा हैं। बायीं ओर यूएसए के पर्यटक नील रेनकोट पहन कर अपने लॉच पर सवार हैं। एकबार इधर वाला जहाज जाता है, तो एकबार उस तरफ का। बिहाइंड द फॉल देखने के लिए उनके रेनकोट भी पीले ही हैं।

‘आँव आँव चले आओ -।’उस तरफ पहाड़ की ढलान पर हज्जारों परिन्दे। एक साथ सब स्वागत अभिभाषण कर रहे हैं।

‘हो – हो- हो-!’ भिन्न भिन्न भाषाओं के विस्मयादिबोधक शब्द। पानी की बौछार। बच्चे खिल रहे हैं। मांयें उनको सँभाल रही हैं। ‘मेरे पास खड़े रहो। हाथ छुड़ाकर मत जाना।’

बड़ा नटखट है रे, कृष्ण कन्हैया! क्या करे यशोदा मैया ? (गीतकार : आनन्द बक्शी, फिल्म : अमर प्रेम)

आजकल तो सारे लोग अपने मोबाइल से ही फोटो खींचते रहते हैं। विरला ही कोई होगा जो कैमरा इस्तेमाल करता होगा। अरे भाई, पानी से इनके लेंस खराब नहीं न हो जायेंगे ?

देखते देखते हम पहुँच गये। नीहार-नंदिनी की छुअन। आह! तन स्निग्ध। मन प्रशांत। नायाग्रा आना सार्थक हुआ।

सामने कुछ नहीं दिख रहा है। एक पानी का पर्दा। तन मन भींग गया। कनाडा की ओर श्वेत तरंगों के झाग – जैसे हरे पानी पर किसी ने चावल का घोल बना कर उस सफेद रंग से रंगोली सजायी है। रंगोली आगे बढ़ती जा रही है। उसी के बीच डुबकी लगा रहा है एक बत्तख। फिर वह धारा प्रवाह में बह गया।

नायाग्रा के इसी रूप के आकर्षण से ही तो दुनिया के कोने कोने से लोगे खींचे चले आते हैं। भुवन मोहिनी रूप ! बाबा नागार्जुन के ‘मधुर माटी मिथिला’ के महाकवि विद्यापति ने गंगा वंदना में कहा था – बड सुख सार पाओल तुअ तीरे, छोड़इत निकट नयन बह नीरे ….!

अब हम एक चढ़ाई से आगे बढ़ते हुए ऊपर सड़क की ओर चल रहे हैं। नीहार-नंदिनी से लौटते समय देखा अंग्रेजी में लिखा है – थैंक्यू फॉर विजिटिंग! और फ्रेंच में – मेक्सी (एमईआरसीआई) द्य वोट्रे विजिट्! दर्शन के टिकट यानी बिलेट 19.95 कनाडियन डा …….. यानी रुपये में। अब छोड़ो यार!

वापसी में जो कांड हुआ, वो काफी झमेलादार रहा। धूप की भौंहें काफी टेढ़ी हो गई थीं। उधर रुपाई महाराज नायाग्रा लाइब्रेरी में बैठकर अपने लैपटॉप पर रिसर्च पेपर तैयार कर रहा था। कई बार झूम से फोन पर उसकी बात भी हो गई थी। मोबाइल पर कई बार हालाते मौजूदः यानी ताजा खबर सुनाया जा रहा था – हम अभी बिहाइंड द फॉल देखने जा रहे हैं।…….हम मेड ऑफ द मिस्ट के जहाज में बैठ गये हैं। आदि इत्यादि ……. एवं आखिर में ,‘हमलोग मूरे स्ट्रीट के पास प्रपात वाले साइड के फुटपाथ पर खड़े हैं। कहाँ मिलोगे ?’

‘मैं मेन रोड से नीचे जा रहा हूँ ….’ आदि आदि

यहाँ मुश्किल यह है कि आप जहाँ मर्जी तहाँ गाड़ी खड़ी नहीं कर सकते। अगर उस फुटपाथ पर आपका कोई इंतजार कर रहा है, तो बढ़ जाइये दो तीन कि.मी. और। फिर यू टर्न लेकर वापस आइये। हर जगह यू टर्न भी नहीं ले सकते। रथ चालन के कितने सुंदर अनुशासन।

मगर धूप में यहाँ से वहाँ दौड़ते दौड़ते मेरा ‘पैर भारी’ हो गया था। व्याथातुर। मन में खीझ। एकबार उधर जाओ। फिर मोबाइल पर,‘अरे मैं तो यहाँ हूँ। समझ क्यों नहीं रही हो? वहाँ पुलिस रुकने देगी, तो?’फिर दौड़ो उल्टे पांव। उस पर तुर्रा यह कि जब कुरुक्षेत्र के अठारहवें दिन हम जामाता से मिले तो मेरी बेटी के मत्थे ही सारा दोष मढ़ा जाने लगा। जैसे झूम ही बेवकूफ की तरह यहाँ से वहाँ भटकती रही। वाह रे समधी के पूत। बेटा होता तो मजे में गरिया लेता। मगर यहाँ तो……। तिस पर मैं ठहरा बनारसी लँगड़ा। दगाबाज घुटने के कारण हाल बेहाल।

पत्नी बार बार सावधान करती रही,‘तुम कुछ मत कहना। उन दोनों को आपस में ही मामला सलटाने दो।’

अरे भवानी आखिर मेरी है। हे प्रभु, तारनहारा !   

उसी दिन रात को फिर वापस पहुँचा नायाग्रा के पास। पानी के फुहारे में हम चारों भींगने लगे। अरे बापरे! ठंड भी लग रही है। अगले दिन रात दस बजे हम फिर आये थे। नायाग्रा का आखिरी दीदार करने। बृहस्पति वार होने के कारण उस दिन आतिशबाजी का कार्यक्रम भी था।

मगर कुछ भी कहिए दिन में नायाग्रा के भव्य रूप के आगे रात का शृंगार बनावटी लगता है। चंद्रमौलि अगर पैरों में पाजेब बाँध ले तो क्या नटराज का नृत्य और अच्छा लगेगा?

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 8 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 8 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

नायाग्रा जलप्रपात

शाम की चाय रुम में ही हो गई। फिर चले नियाग्रा का दिव्य दर्शन करने। सारी दुनिया से लोग तो इसे ही देखने आते हैं। नारीग्रा, क्याउगा और गहनावेहटा यानी तीन झरनों को एकसाथ आज नायाग्रा ही कहते हैं। ये सब इनके आदिम आदिवासी नाम हैं। इनमें सबसे बड़ा हार्स शू फॉल कनाडावाले हिस्से में है। और दो, यानी अमेरिकन फॉल्स और ब्राइडल फॉल्स उस पार न्यूयार्क की तरफ। यह प्रपात 2600 फीट चौड़ा है। यहाँ पानी 167 से 173 फीट की ऊँचाई नीचे गिरता है। रुपाई बता रहा था वेनेजुएला का एंजेल वाटरफॉल ही दुनिया का सबसे ऊँचा जल प्रपात है।

बस, कार पार्किंग में जो परेशानी हुई। यहाँ नहीं वहाँ। आगे जाओ। झमेला अपरम्पार। खैर घोड़े को अस्तबल मिल गया। हम दाहिनी ओर आगे बढ़े। आगे सड़क। बायें जाकर दो हिस्सों में बँट गई। दाहिने वाले से सीधे वापस ऊपर सड़क पर चले जाओ। बायें से नायाग्रा के किनारे किनारे – इतनी ऊँचाई से उसे जी भर कर देख लो। विहंगम दृश्य। अमां, क्या रूप है! गंगावतरण के लिए अपनी जटाओं को खोलकर नटराज नृत्य कर रहे हैं! रास्ते पर ठट्ट ठठ्ठ भीड़। कोई बच्चों की  फोटो खींच रहा है, तो कोई प्रिया की, या फिर सेल्फी। वहीं काफी आगे दाहिने लेक ईरी से निकल कर यह झरना पूरब की ओर जा रहा है। मंजिल है लेक अॅन्टारियो। उस पार पूरब की ओर अमेरीका वाला हिस्सा दिख रहा है। हरा पानी नीचे छलाँग लगा रहा है। दाहिने कनाडा वाला भाग घोड़े के नाल की तरह अर्द्धचंद्राकार शक्ल में मुड़ा हुआ है। मानो ऊपर से नीचे हरी हरी जलकन्याओं का झुंड सफेद पंखों को हिलाते हुए अटखेलियां करती हुईं नीचे उतर रही हैं। सी-गल पक्षियां उनसे पूछ रहे हैं, ‘कहो नीरबाला, नीचे पहुँच गयीं?’

उधर से आती हवा से पानी की छींटें यहां सड़क तक आ रही हैं। सब दौड़ रहे हैं – भाई, बचके! मगर यहाँ छत्रधारी है कौन ? सब एक दूसरे से लिपट कर मानो बौछार से बच जायेंगे। बिन बारिश की बरसात।

आगे जहाँ से नायाग्रा झरना नीचे छलाँग लगाता है वहाँ परिन्दों की महफिल जमीं हुई है। ‘क्याओं क्याओं! खाने वाने का कुछ लाये हो?’ अपने हल्के बादामी डैनों को हिलाते हुए झुंड के झुंड सफेद सीगल लगे पूछने। कई बच्चे और दूसरे लोग उन्हे ब्रेड वगैरह कुछ खिला रहे थे। और एक काबिले तवज्जुह यानी ध्यान देने योग्य बात – यहाँ ढेर सारी गौरैया भी उड़ उड़ कर दाना चुग रही थीं। हमारे यहाँ तो ये आँगन में, या खिड़कियों पर दिखती ही नहीं। क्यों? मोबाइल टावर को कोसा जाता है। तो वो तो यहाँ भी है कि नहीं ?राम जाने भैया। विज्ञान का अविज्ञान।

सामने बहती धारा में देखा कि पत्थरों पर मनौती के पैसे गिरे पड़े हैं। यहाँ भी यह खूब चलता है। बनारस के घाटों पर पड़े सिक्कों को उठाने के लिए तो मल्लाह के बच्चे गोते लगाते रहते हैं। यहाँ डुबकी लगाने की हिम्मत किसे होगी ?

घड़ी की सूई तो चल चल कर थक गई होगी। मगर संध्या अभी अपनी मंजिल से काफी दूर थी। मानो मायके से ससुराल आना ही नहीं चाहती है। कनाडा में तो नौ के बाद ही संध्या संगीत का आलाप आरंभ होता है।

लोहे की रेलिंग के पास खड़े हम मंत्रमुग्ध होकर झरने को देख रहे हैं। यह कैसा दृश्य है! विंदुसर के तटपर जाने कितने वर्ष की घोर तपस्या के पश्चात भगीरथ के आह्वान पर जब गंगा स्वर्ग से धरा पर उतरीं, तो नजारा कुछ ऐसा ही रहा होगा। नीचे गंगावतरण के लिए विश्व बंधु शंकर थे खड़े – अपनी जटाओं को बंधन मुक्त कर,‘आओ, हे देवापगा! तुम्हारी प्रचंड धारा को मैं अपने मस्तक पर बांध लूँगा। आओ सुरसरि, धरा पर उतर आओ।’  

चारों ओर निनाद हो रहा है। महादेव का डमरू बज रहा है। प्यासी है धरती, आओ उसकी प्यास बुझाओ। बूँद बूँद पानी के कतरे – एक कुहासा – सामने नीचे धुँध। उसीमें जा रहे हैं कनाडा और यूएसए के जहाज- यात्रिओं को लेकर। उनको कहा जाता है – मेड ऑफ द मिस्ट, कोहरे की कन्या।

शायद प्रकृति भी कोहासे के घूँघट में इस अनूठे रूप को छुपाना चाहती है। नदी पार करते समय वेदव्यास का पिता पराशर ऋशि ने जब मत्स्यगंधा को बांहों में भर लिया था, तो शायद ऐसे ही कोहरे का पर्दा उन्होंने बना लिया था।  

और इतने ऊपर जहाँ हम सारे टूरिस्ट खड़े हैं वहाँ तक आ रही है पानी की फुहार। सावन की रिम झिम। अरे भाई, अपना कैमरा सँभालो। लेंस में पानी लग गया तो सारा खेल चौपट। कैमरे की बैटरी में चार्ज कितना बचा है? अरे, यह तो बस आखिरी साँस ले रही है। धर्मपत्नी से पूछा,‘किंग्सटन से बैटरी चार्जर ले आयी हो न?’

‘वो तो तुम्हारे (बंगाली वधुयें आप नहीं कहतीं) बैग में ही रह गया।’

साफ जवाब सुनकर मेरा मुखड़ा हो गया मेघमय। मुझे भी क्यों नहीं भूल आयी ? हे प्रभु, एकबार पाणिग्रहण में इतनी पीड़ा! अजपुत्र दशरथ की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि तीन तीन बार बलि का बकरा बन गये।

और अर्जुन! सार्थक तीरन्दाज! उनके तो अनेकों नाम हैं। उनमें से एक है सव्यसाची। दाहिने बायें दोनों हाथों से तीर चलाने में समान रूप से कुशल जो थे। अमिताभ बच्चन तो सिर्फ बायें हाथ से रिवाल्वर चलाते हैं। मगर अर्जुन को नैनों के तीर चलाने में भी महारत हासिल थी। द्रौपदी को तो छोड़िए, वो तो सिर्फ बिसमिल्लाह थीं। फिर कन्हैया को पटाकर सुभद्रा, मणिपुर की चित्रांगदा, सागर कन्या उलूपी और जाने कौन कौन। इतनों का भरण पोषण तो छोड़िये, सिर्फ मोबाइल पर हाल चाल लेने में ही तो अपना सारा बैलेन्स बिगड़ जायेगा। वाह रे धनुर्द्धर! अनंग तीर छोड़ने वाले!

हाँ तो इस समय कनाडा में यामिनी की ड्यूटी काफी कम है। शाम के नौ बजे के बाद ही क्षितिज अपने नैनों में काजल लगाना शुरु करता है। अब अँधेरा होने लगा। साढ़े नौ बज गये। वापस होटल चलो। सुबह पाँच बजे तक दिवाकर अपना प्रकाश सजाकर हाजिर हो जाते हैं। तो चलो, होटल में अब रात गुजारो।

अरे यार, क्या बिस्तर है। देह में गुदगुदी, मन में गुदगुदी। फूलों की सेज भी इसके आगे कमतर। मेरी इतनी औकात कहाँ कि ऐसे होटल में कदम भी धरूँ? यह सब तो केयर ऑफ जामाता है। हाँ, वेताल पंच विंशति की वो कहानी याद आ रही है। सवाल था कई कन्यायों में कौन कितनी कोमलांगी है ? उनमें से एक कन्या को सात परतों के शाही बिस्तर पर लेटकर भी केवल इस लिए नींद नहीं आ रही थी, क्योंकि सातवीं तोशक के नीचे एक बाल था। वाह रे नाजुक बदन !

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 7 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

नायाग्रा 

मंगलवार का दिन था। नायाग्रा शहर के एक आलीशान होटल में जामाता ने पहले से ही तीन दिन के लिए बुक करवा लिया था। अंग्रेजी में लिखते समय तो नियागारा लिखते हैं। शहर का नाम भी नायाग्रा, और उस अनोखे जलप्रपात का नाम भी नायाग्रा। 

नाश्ता करके हम चारों सुबह ही निकल पड़े। रुपाई वहाँ तक जाने आने के लिए कल शाम को ही एक चमाचम फक् सफेद गाड़ी किराये पर ले आया था। क्या नाम है? चार्जर डज् !

हम टोरॉन्टो की ओर चल पड़े। चौड़ी सड़क और उसकी बगल की हरियाली की प्रशंसा कितनी करें? वैसे तो कॉमनवेल्थ नेशन होने के बावजूद कनाडा में दायें से चलने का ही ट्राफिक रूल है। तो जाहिर है ड्राइवर सीट बांयी तरफ होती है। हमारे देश में उल्टा – राइट हैंड ड्राइविंग। यानी कीप लेफ्ट। खैर एक चीज मैं ने देखी – यहाँ हाईवे पर कोई चौराहा नहीं है। बस सीधी सड़क नाक बराबर। अगर कहीं बायें की किसी जगह वापस जाना है, तो पहले दाहिने के मोड़ से आगे जाओ, फिर ब्रिज पार करके इधर आओ।

एक जगह सड़क किनारे ऑनरूट पर गाड़ी थमते ही ……..

‘वो रहीं तीन बुढ़िया। मोटर साईकिल से उतर कर क्या खूब आ रही हैं।’ हम दंग रह गये। वे कॉफी और स्नैक्स वगैरह लेकर और अपनी अपनी बाइक पर सवार हो गयीं। मन में हमारे देश के उम्रदराज मर्द और औरतों के चेहरे उभर आये। बार बार यही सवाल सामने आ खड़ा हो जाता है – हमारे यहाँ हर मायने में यह दुर्दशा क्यों? यहाँ तो जिन्दगी खिलखिलाती है, जबकि वहाँ तो बाल सफेद होने के पहले ही सब कहते हैं,‘अरे अब क्या रक्खा है जिंदगी में ? बस प्रभु जल्द से जल्द उठा लें, तो बड़ी कृपा होगी।’

जबकि हमारे देश का दर्शन तो आनन्द का ही अन्वेषण है। सन्यासियों के सन्यास जीवन के नाम में भी आनन्द शब्द लगे होते हैं – जैसे विवेकानन्द को ही ले लीजिए। फिर गाजीपुर में जन्मे ब्रिटिश जमाने में किसान आंदोलन से जुड़े स्वामी सहजानन्द सरस्वती आदि। वे ऑल इंडिया किसान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे (लखनऊ,11अप्रैल,1936)। भारत सेवाश्रम संघ के प्रतिष्ठाता स्वामी प्रणवानन्दजी के नाम में भी तो आनन्द है।

रोज लाखों नही तो हज्जारों अधिकारी एवं नेता जनता के पैसों से इन देशों में आते होंगे। राम जाने उनमें से कितने तयशुदा कार्यक्रमों में भाग लेते हैं, और कितने कुछ सीखने का प्रयास करते हैं ? मादरे हिन्दुस्तान का चेहरा बदलता क्यों नहीं ? किसी वजीरे आ’ला ने कहा था अपनी रियासत की सड़क को किसी नाजनीं सितारे के गालों जैसा बना देंगे। वो सड़क क्या उनकी बेटर हाफ यानी अर्द्धांगिनी के पीहर में बनी है ? तभी उनका श्यालक अपने जीजा को आये दिन ठेंगा दिखाता रहता है?

हमरे बनारस में एक डी एम आये हैं। हाथ में मोबाइल थामे उनकी फोटू प्रायः अखबार में छपती है। जनता के पैसे से दो इंच सड़क पर सवा इंच का डिवाइडर बना दिये। यानी फिलपांव वाले पैरों में चाँदी की पायल! आदमी चले तो कैसे ? कई मुहल्लों में एक तरफ का रास्ता ही गायब है। है तो राहे-खंडहर। फिर हीरो/नेताओं की दादागिरी। आप बायें से चल रहे हैं, अचानक आपके सामने से दनदनाती हुई बाइक आ गयी। यानी उनका आगमन राइट साइड से – मगर राइट एंट्री नहीं, गलत एंट्री। अब आप ? -‘जान प्यारी हो तो हट जा, वरना -!’

वहाँ आये दिन प्रादेशिक सड़क मंत्री अखबार के पन्नों पर अपनी दाढ़ी को बसंत के सूखे पत्तों की तरह बिखेड़ते हुए आविर्भूत होते रहते हैं। वे एकसाथ दो दो दर्जन शिलान्यास के पत्थरों को उद्घाटित कर देते हैं। मगर सड़क? दृष्टि से परे – अदृश्य! वाह रे सिक्सटी फोर्टी का खेल! कितने दुख से अहमद फराज (पाकिस्तान) ने लिखा होगा -‘यही कहा था मेरी आँख देख सकती है/ तो मुझ पर टूट पड़ा सारा शहर नबीना।’

नव उपनिवेशवाद, बाजारवाद, साम्राज्यवाद, समाजवाद, विकासशील देश या तीसरी दुनिया – आप जैसी मर्जी व्याख्या प्रस्तुत कर लें। कनाडा की राजसत्ता भी कोई दूध से धोये तुलसी के पत्तों के हाथों नहीं है। तो फिर क्यों यहाँ हो सकता है, और हमारे यहाँ नहीं ? ज़िन्दगी में सवाल तो ढेर सारे होते हैं मगर उनके जवाबों को कौन ढूँढ़ेगा? और कैसे?

टोरॅन्टो को बांये रखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। दूर से दिख रहे थे टोरॅन्टो का डाउन टाउन। अचानक सामने से आते एक वैन के पीछे देखा तो दंग रह गया। क्या बात है भाई! एक छोटा सा समूचा कॉटेज गाड़ी के पीछे लदा है। वे इसे कहीं प्रतिस्थापित करेंगे और रहेंगे। अच्छा तो बिजली या सीवर कनेक्शन का क्या होता होगा? यहाँ ऐसी ही घरनुमा गाड़ी भी किराये पर मिलती है। आर वी यानी रिक्रियेशन वेहिक्ल। आनंद यान। स्वदेश फिल्म में शाहरूख जिस पर दिल्ली से रवाना हुआ था। एक जगह ब्रिज पर एक माल गाड़ी पर एक दो-कमरेवाला कॉटेज को भी ले जाते देखा। चलायमान संसार।

करीब दो बजे तक हम नायाग्रा पहुँचे। दाहिने फोर्ट ईरी की सड़क। मन में गुदगुदी हुई यह देखकर कि यूएसए पहुँचने के मार्ग का नम्बर है 420 एक्जिट। दूर से दीख रहा है नायाग्रा अॅबजर्वेशन टावर। शहर में घुसने के पहले एक द्वारनुमा बना है, जिस पर एक कट आउट लगा है। उस पर एक युद्ध की तस्वीर। 25 जुलाई, 1814, लुन्डिस लेन बैटल फील्ड की। 

बेस्ट वेस्टन ग्रुप के कॉयर्न क्रॅफ्ट् होटल में हम ठहरनेवाले हैं। तीन बजे तक हमें रूम मिलेगा। सामने श्वेत डज को पार्क कर दिया गया। रूपाई जाकर काउंटर में बात कर आया, ‘चलिए, तब तक सामने के रेस्तोरॉ से लंच कर लें।’

‘ओ.के.। भूख तो लगी ही है।’ हमने लॉबी में सामान रख दिया।

सामने चालीस पचास फीट चौड़ी सड़क। दोनों किनारे फुटपाथ पर जगह जगह गुलजार। हरी हरी घास चारों तरफ से उनकी आरती उतार रही हैं। होटल के सामने एक खंभे पर फूल का गमला लटक रहा है। ताज्जुब की बात है कि पौधों के नीचे खालिस मिट्टी दिखाई नहीं दे रही है। लकड़ी की खुरचनों से उनके नीचे की जमीन ढकी हुई है। पता नहीं मिट्टी बह ना जाये इसलिए या और कोई वजह है? चारों तरफ एक ही नजारा। इनकी देखभाल करता कौन है ? हाँ, किंग्सटन में राह चलते मैं ने एक महिला को अपने मकान के सामने फूलों की क्यारियों पर पानी छिड़कते देखा था। कहीं कोई ग्रास कटर से ही घास काट रहा है। न कहीं पान की पीक की ललामी, न और कुछ। क्या इनकी सड़कों पर गाय, सांड़ या सारमेय आदि नहीं घूमते ? आप कल्पना कर सकते हैं कि काशी में घर के बाहर या सड़क पर ऐसे फूल खिले हों और कितने मांई के लाल हैं जो अपने हाथों का इस्तेमाल न करके आगे बढ़ जाएँ ?

हाँ, हमारे देश में भी अरुणाचल, गोवा या दार्जिलिंग में मैंने घर के बाहर ऐसे ही फूलों को निर्भय होकर खिलते देखा। कोई रावण उन सीताओं को हाथ तक नहीं लगाता है। बस -‘राह किनारे हैं खिले, सेंक लो यार आँख। घर ले जा क्या करोगे ? शुक्रिया लाख लाख!’ दोहा कैसा रहा ?

बिलकुल सामने सड़क पार वेन्डिज रेस्तोरॉ में जाने के लिए हमें पहले बायें काफी दूर तक चलना पड़ा। फिर जेब्रा लाइन से ही पारापार करना। अब लंच की तालिका – मैदे की रोटी में एक टुकड़ा चिकन मोड़ कर चिकन रैप और लंबे लंबे आलू की फ्रेंच फ्राई यानी पौटीन। पता नहीं वर्तनी या उच्चारण ठीक है कि नहीं। शीशे की दीवार के पास ही रुपाई ने हमारा आसन लगा दिया था। बाहर देखा तो कॉयर्न क्रॅफ्ट् वाले फुटपाथ पर ही आगे मैकडोनाल्ड का आउटलेट है। और उसकी बगल में ‘डॉलोरॉमा’ यानी हर माल बीस आना – एक कनाडियन डलार।

नायग्रा में सभी घूमने आते हैं। कार के पीछे साइकिल स्टैंड पर दो तीन साइकिल लाद कर लोग आ रहे हैं। यहाँ रहकर नायाग्रा तक और आसपास वे उसी पर घूमेंगे। बिन मडगार्ड की साइकिल किंग्सटन में भी मैं ने खूब देखी है। लोग हर समय या तो दौड़ रहे हैं, या साइकिल चला रहे हैं। और साइकिल चलाते समय भी अधिकतर लोग हेडगियर या हेलमेट लगाया करते हैं। और एक बात, चाहे दौड़ रहे हों, चाहे साइकिल चला रहे हों, हाथ में या साइकिल के हैंडिल में कॉफी का मग जरूर रहता है।

आते समय सामने से एक चमचमाती नीली बस चली गई। उसके सामने भी साइकिल रखने के स्टैंड बने हैं। इसका नाम है वी गो। यहाँ आये टूरिस्ट भी इनका इस्तेमाल करते हैं।

कॉयर्न क्रॉफ्ट् वापस आकर होटल के बाथरूम में हाथ मुँह धोने पहुँचा। घुसते ही दायें बेसिन, बायें बाथ टब और सामने तख्ते ताऊस यानी कोमोड। वहीं दीवार पर लिखा है :- प्रिय अतिथि, हर रोज हजारों गैलन पानी टॉवेल धोने में बर्बाद होता है। हैंगर पर टॉवेल रहने का मतलब है आप उसे फिर से इस्तेमाल करेंगे। फर्श पर पड़े रहने का मतलब है, उसे साफ करना है। अब आप ही को तय करना है कि धरती की प्राकृतिक संपदाओं को हम कैसे बचायें। धन्यवाद! 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print