हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। अब आप प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

16  जून 2023 को सुबह जल्दी उठकर बैग में सामान लेकर एक टोटो से गंतव्य गंगा के सागर से मिलन स्थल गंगासागर पहुँचे। समुद्र हमेशा की तरह बेचैन होकर मचल रहा था। थोड़ी देर उसे खड़े होकर निहारा। मनुष्य के दिमाग़ में महत्वाकांक्षा के ऊँचे पर्वत होते हैं। उसके दिल की अतल गहराइयों में जीवन की कलात्मक अभिव्यक्तियाँ हाथ-पैर मारती हैं। महत्वाकांक्षी पर्वत तक की यात्रा सफल हो या असफल, जीवन के अंतिम पड़ाव पर मनुष्य दोनों स्थितियों में लद्दाख के उदास और वीरान पहाड़ों से जड़ हो जाते हैं। सागर की तरह गहराइयों में सुप्त बेचैन कामनाएँ लहरें बनकर उदास पहाड़ों से मिलने दौड़ती हैं, लेकिन किनारों से टकरा कर छिन्न भिन्न हो बिखर जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य की जन्म से मृत्यु के द्वार तक पहुँचने की यही कहानी है।

महान दार्शनिक ज्याँ पॉ सार्त्र ने Being and Nothingness” पुस्तक में लिखा है, “जब मनुष्य का अंत निराशा और अवसाद में होने लगता है तब उसकी आत्मा में मितली उठती है कि यही बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु पूरे जीवन की कमाई है क्या ?” उन्होंने इस पर एक उपन्यास “नौसिया” लिखा था। 

 यहीं हिंदू दर्शन के पुनर्जन्म सिद्धांत की सार्थकता सिद्ध होती है। मनुष्य इस आशा के साथ बिदा होता है कि उसे फिर लौट कर आना है, लेकिन किसी दूसरे अस्तित्व में। मृत्यु के बाद इस जीवन की सच्चाई बताने वापस आना सम्भव नहीं है। इसी उधेड़बुन में ग़ालिब ने फ़रमाया था-

हम को  मालूम  है जन्नत  की  हक़ीक़त  लेकिन,

दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।

ग़ालिब से छै सौ साल पहले ख़ुसरो मियाँ भी प्रेम के दरिया बहा गए हैं।

खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार,

जो उतरे  सो डूब  गए, जो डूबे सो पार।

ईश्वर के प्रेम में उतरना, डूबना, पार लगना एकमेव उपाय है। बचपन में देखी करनी-भरनी दृश्यावली के हिसाब से अपने लिए स्वर्ग में आरक्षित सीट होने से तो रही। नरक में तो परेशानी ही परेशानी है। अभी पिछले महीने ग़ालिब पर उपन्यास लिख कर फ़ुरसत हुए। तब ग़ालिब के कलाम पर सोचते-सोचते एक शेर हम पर भी नाज़िल हुआ था-

मैं ग़ाफ़िल हूँ तो ग़ाफ़िल ही रहने दे होश में लाकर क्यों परेशान करता है।

मुझे मालूम है मरने के बाद तू लोगों को उस जहाँ में भी परेशान करता है।

हम सोचते खड़े थे, तभी एक आदमी बीस रुपये कुर्सी के हिसाब से दो कुर्सियाँ ले आया। हमने एक पर सामान रखा और दूसरे पर बैठ गए। पवन भाई से कहा- आप स्नान कर लीजिए। वे जब तक नहा कर के आए तब तक एक पुरोहित महाशय पधार कर बोले- पूजन करवा लीजिए। जो इच्छा हो वह दक्षिणा देना। हमने स्पष्ट किया एक सौ रुपया देंगे। वह चुप रहा। हमने उससे कहा- सौ रुपया स्वीकार हो तो बोलो। उससे स्वीकृति लेकर पूजन शुरू करवाया। बीच में एक शांत सी महिला शिव और गंगा को चढ़ाने हेतु डुबलिया में दूध ले आई। उससे दस रुपया तय किया। एक पवन भाई को नहलवाने चली आई। पवन भाई को तैरना नहीं आता इसलिए उन्हें उसने किनारे पर ही बाल्टी लोटे से पानी डालकर पचास रुपये से धो दिया।

समुद्र में नहाना आसान नहीं होता है। उस समय तो और भी कठिन है जब ज्वार उठ रहे हों। सभी तीर्थ यात्री किनारे से दूर लोटे से पानी डाल कर नहा रहे थे। जिनको तैराना नहीं आता उन्हें तो दूर रहने में ही समझदारी है। समुद्र में उतरने की तकनीक है। लहरों की तरफ़ पीठ कर दो। यदि ऊँची लहर आये तो बैठ कर डुबकी लगा दो। लहर का सामना करने पर यदि बड़ी लहर आई तो मुँह और नाक में पानी भर जाएगा। जैसे ही आप घबराए तो पैर भी उखड़ जाएँगे। वहीं ख़तरा है। समुद्र भीतर खींच लेगा। फिर फुलाकर किनारे फेंकेगा। अपन तो सोहागपुर की बाढ़ग्रस्त पलकमती नदी में लकड़ियों के बड़े लट्ठ पकड़ते थे। इसलिए गंगा सागर में बहुत अधिक नहीं थोड़े अंदर जाकर आनंद लिया। सोचा गंगा स्नान पर कहा जाता है-

“पार जाए तो पार है, डूब जाए तो पार है।”

ज़िंदगी तो पार लग ही चुकी है, डूब भी गए तो क्या है, आख़िर अस्थियों को यहीं तो आना है। हिट विकेट आउट भी आउट ही होता है और आउट तो हर किसी को होना है। हमेशा क्रीज़ पर खड़े नहीं रह सकते।

जहाँ गंगा जी का पूजन कर रहे थे वह स्थल सागर से क़रीब एक सौ मीटर दूर था परंतु शिवलिंग पर गंगा जल अर्पण के समय गंगा लहर पूजा स्थल पर चली आई। हमें शिवलिंग उठाना पड़ा। साथ वाले कह रहे थे यह चमत्कार है। हमने कहा- यह कोई चमत्कार नहीं ज्वार-भाटा का कमाल है। हमने शिवलिंग तो उठा लिया अब देखते हैं शिव हमें कब उठाते हैं। वैसे हम तैयार हैं। साहित्य के उछाल भरी पिच पर वेटिंग चल रही है। मृत्यु से मुक्त कोई नहीं हो सकता। इसका कोई विधान नहीं है। परंतु मृत्यु का भय समाप्त हो जाय। यही मृत्योर्मुक्षीय है।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्, उर्वारुकमिव   बन्धनान्   मृत्योर्मुक्षीय  मामृतात्।

 पंडित जी ने पूजन आरम्भ किया। उन्होंने मंगलाचरण उच्चारित करना शुरू ही किया था। हमने कहा- पंडित जी, दीप प्रज्वलित कर लें अन्यथा पूजा शास्त्रोक्त नहीं होगी।

 उन्होंने प्रश्नवाचक निगाह से देखा। हमने आगे कहा- पंडित जी, दीपक पंचभूत है। उसमें पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि प्रतिनिधि रूप में उपलब्ध होते हैं।

 वे बोले- महाशय, पृथ्वी पर विराजमान हैं, जल लोटे में है, पवन प्रवाहित है, ऊपर खुला आकाश है। अग्नि भर की कमी है।

 पंडित जी अग्नि न होने से एक और कमी है ?

 क्या ?

 ज्योति स्वरूप प्रदीप्त आत्मा नहीं है। दीपक प्रज्वलित होने से पंचभूत+आत्मा अर्थात् जीव अस्तित्वमान हो जाएगा। शिवांश प्रदीप्त होगा।

उन्होंने थैले में कुछ ढूँढा, मिला नहीं।

हमने कहा- पंडित जी, अगरबत्ती है तो जला लीजिए वह भी अग्नि है। 

उन्होंने अगरबत्ती जलाकर रेत में खोंस दी।

मंगलाचरण और गंगा अवतरण सूक्त पढ़ने के बाद उन्होंने कहा- वैतरणी पार करने हेतु गाय दान का संकल्प लीजिए।

हमने कहा – क्या करना होगा।

पंडित जी – सिर्फ़ ग्यारह हज़ार दक्षिणा देनी होगी। बाक़ी हम कर देंगे।   

हमने मना कर दिया।

पंडित जी – ग्यारह ब्राह्मण भोज संकल्प लीजिएगा?

हमने ना की मुद्रा में सिर वाम दिशा दे दक्षिण दिशा घुमा दिया।

इस तरह पूजन से फ़ुरसत हुए ही थे, तभी एक दुकानदार प्लास्टिक थैली में चावल लेकर आया और बोला ये बेचारे भिखारी बैठे हैं, इनको दान कर दीजिए। पचास ग्राम प्लास्टिक थैली की क़ीमत पंद्रह रुपये थी। हमने ध्यान से देखा तो बीस भिखारी एक क़तार में बैठे थे। यानी बीस थैली तीन सौ रुपयों की होगीं। लेकिन थोड़ी दूर पर बीस-पच्चीस और खड़े थे। हमारे द्वारा चावल थैली ख़रीदारी करते ही, वे भी झूम पड़ते। पवन भाई ने एक भिखारी से पूछा- इन्हें आप लेकर क्या करोगे ?

वह बोला- साहब, दुकानदार पंद्रह रुपये में आपको बेचेगा फिर पाँच रुपये हमको देकर पैकेट हमसे वापिस ले लेगा। हमने उसी खबरी भिखारी को दस रुपये देकर हाथ जोड़ लिए।

पिताजी जी की अस्थि को गंगा सागर में प्रवाहित करने के बाद एक और कलाम ख़ुराफ़ाती दिमाग़ की पोरों से निकल बरास्ते ज़ुबान साहिल पर मचलती लहरों पर सवार हो गया।

प्रभु मेरी ये फरियाद आकर तेरी चौखट पर नहीं नजायज़ है,

तसल्ली जब तलक दिल में ना हो तेरा हुक्मे कूच नाजायज़ है।

 *

लेकर तेरा नाम हम पी चुके भरकर जाम ए ज़म ज़िंदगी का,

हुक्मे हुज़ूरी अब चल भी दिए हुज़ुर के ज़ानिब जायज़ है।

 हमने गंगा सागर तीर्थ का तय उद्देश्य प्राप्त कर लिया था। सुबह बहुत जल्दी गंगा सागर किनारे चले गए थे। स्नान-ध्यान पूजा-पाठ दर्शन-प्रदर्शन के बाद खींच कर भूख लगी थी। होटल लौटकर नाश्ता निपटाया, एक हल्की नींद निकाली। उसके बाद वातानुकूलित वातावरण में गंगा की उत्पत्ति, श्राप और मुक्ति से युक्त गंगा के प्रेम आख्यान पर चिंतन मनन करते रहे। गंगा की उत्पत्ति से गंगासागर में विलीन होने तक गंगा का संबंध ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों से रहा है। अद्भुत कथाएँ हैं। संपूर्णता में समझने से सनातन दर्शन की प्रकृति से तार्किक साम्यता बैठते चलती है।

वामन पुराण के अनुसार जब भगवान विष्णु ने वामन रूप में तीनों लोक नापने हेतु अपना एक पैर आकाश की ओर उठाया, तब ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु के चरण धोकर जल को अपने कमंडल में भर लिया। इस जल के तेज से ब्रह्मा जी के कमंडल में गंगा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने गंगा हिमवान को सौंप दी। इस तरह पार्वती और गंगा दोनों में बहनौता हुआ। इसी में एक कथा यह भी है कि वामन के पैर के चोट से आकाश में छेद हो गया और तीन धारा फूटीं। एक धारा पृथ्वी पर, एक स्वर्ग में और एक पाताल में चली गई, इस तरह गंगा त्रिपथगा कहलाईं।

शिव पुराण में ऐसी कथा मिलती है कि गंगा भी पार्वती की तरह भगवान शिव को पति रूप में पाना चाहती थी। पार्वती नहीं चाहती थी कि गंगा उनकी सौतन बने। गंगा ने भगवान शिव की घोर तपस्या की। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इन्हें अपने साथ रखने का वरदान दे दिया। इसी वरदान के कारण जब गंगा धरती पर अपने पूरे वेग के साथ उतरी तो जल वेग थामने के लिए भगवान शिव ने उन्हें अपनी जटाओं में लपेट लिया, इस तरह गंगा को भगवान शिव का साथ मिला। सिरांगी गंगा और वामांगी पार्वती।

महाभारत कथा के अनुसार गंगा सृष्टि निर्माता ब्रह्मा के साथ एक बार देवराज इंद्र की सभा में आईं। यहां पर पृथ्वी के महाप्रतापी राजा महाभिष भी मौजूद थे। महाभिष को देखकर गंगा मोहित हो गईं और महाभिष भी गंगा को देखकर सुध-बुध खो बैठे। इंद्र की सभा में नृत्य चल रहा था तभी उनके इशारे से हवा के झोंके से गंगा का आंचल कंधे से सरक गया। सभा में मौजूद सभी देवी-देवताओं ने शिष्टाचार के तौर पर अपनी आंखें झुका ली लेकिन गंगा में खोए महाभिष उन्हें एकटक निहारते रहे और गंगा भी सुधबुध खोकर उन्हें देखती रही। क्रोधित होकर ब्रह्मा जी ने शाप दिया कि आप दोनों लोक-लाज और मर्यादा को भूल गए हैं इसलिए आपको धरती पर जाना होगा। आप दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं इसलिए वहीं आपका मिलन होगा।

ब्रह्मा जी के शाप के कारण गंगा नदी रूप में धरती पर आईं और दूसरी ओर महाभिष को हस्तिनापुर के राजा शांतनु के रूप में जन्म लेना पड़ा। एक बार शिकार खेलते हुए शांतनु जब गंगा तट पर पहुंचे तो गंगा मानवी रूप धारण कर शांतनु से मिली और दोनों में प्रेम हो गया। शांतनु और गंगा की आठ संतानें हुई। जिनमें सात को गंगा ने अपने हाथों से जल समाधि दी और आठवीं संतान के रूप में शांतनु की हठधर्मिता से देवव्रत भीष्म बच गए। देवव्रत को गंगा जलसमाधि नहीं दे पाईं। कहते हैं कि गंगा के आठों संतान वसु थे जिन्हें शाप मुक्त करने के लिए गंगा ने उन्हें जल समाधि दी। लेकिन आठवीं संतान को शाप मुक्त कराने में गंगा सफल ना रही। वह देवव्रत नाम के राजकुमार के रूप में बड़े हुए। भीष्म प्रतिज्ञा स्वरूप भीष्म पितामह के रूप में अधर्म की तरफ़ अभिशप्त जीवन जीकर कृष्ण के इशारे पर पौत्र अर्जुन के हाथों मुक्ति पाई। इस तरह गंगा विष्णु के पैर से उत्पन्न हुईं और गंगासागर में उन्हीं के कदमों में विलीन हुईं। आदि शंकराचार्य ने भज गोविन्दम स्तोत्र में गंगासागर का उल्लेख किया है।  

कुरुते गंगासागर गमनं व्रत परिपालन मथवा दानम्,

ज्ञान विहीने सर्वमनेन मुक्तिर्न भवति जन्म शतेन।

अर्थात्- मोक्ष की प्राप्ति के लिए मनुष्य गंगासागर जाता है, व्रत रखता है, और दान देता है। लेकिन जब तक उसे सर्वोच्च का ज्ञान प्राप्त नहीं होता, सौ जन्मों में भी उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। इसलिए जब तक ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति न हो गंगासागर तीर्थ यात्रा भी फलदायी नहीं है, तो ब्रह्म ज्ञान अनुभूति के मार्ग पर चलना चाहिए।

नमकीन पानी में नहा धोकर पसीने से और भी नमकीन होकर मुनि कपिल मंदिर दर्शन को पहुँचे।

वहीं बैठ कर पिता पर एक कविता लिखी।

 वो जो तुम्हारा कारण है,

उसे बाक़ी सब अकारण है,

कोमल हृदय उसका,

ऊपर नारियल नट्टी है,

हाथ में मिश्री मलाई लिए

हृदय धधकती भट्टी है,

तुम्हें कुछ पता है,

वह तुम्हारा पिता है।

*

जिसे दीन-दुनिया, मुन्ना-मुनिया,

मिर्ची-धनिया घर-बाहर,

गुंडा-शायर, खिलाई-पिलाई,

अमन-लड़ाई, माँ-बच्चों की अंगड़ाई

सबकी चिंता है,

वह तुम्हारा पिता है। 

*

जिसने कभी ना सराहा,

हाथ उठा तो तेज़ी से पर ना मारा

अपनी इच्छाओं को मारा,

आज भी भाव सहारा है

तुम्हारे अहसासों में

तुम्हारी साँसों में जो जिंदा है

वह तुम्हारा पिता है।

*

जो रोज़ सलीब पर चढ़ता है,

रोज़-रोज़ मरकर भी वह कभी ना मरता है,

तुम्हारी अनंग कामनाओं में,

भाव भंगिमाओं में जो जीता है

वह तुम्हारा पिता है।

*

शाम को छै बजे एक ऑटो करके ओंकार नाथ मंदिर,  भारत सेवा आश्रम, राम कृष्ण मिशन, नाग मंदिर, मुख्य बाज़ार और मच्छी बाज़ार घूमकर कपिल मुनि मंदिर की आरती में सम्मिलित हुए। प्रायः सभी आश्रमों में रुकने की व्यवस्था है। राम कृष्ण मिशन में वातानुकूलित कमरे मिल जाते हैं। लेकिन वहाँ से गंगासागर कपिल मुनि स्थल दस किलोमीटर से अधिक की दूरी पर है। समुद्र तट के आसपास सागर द्वीप लाइट हाउस अर्थात् प्रकाश स्तंभ देखा। शाम को बाज़ार में ठेलों पर ढेरों झींगा बिकते नज़र आये। यहाँ समुद्री झींगा को चिंगड़ी मछली कहते हैं। भोपाल में दो-तीन प्रकार की मछली मिलती हैं। यहाँ बीसों प्रकार के ढेर लगे थे। ईश्वर की बनाई कोई भी चीज एकांगी नहीं होती है। गुलाब की पंखुड़ियों में रेशम सा गुदाज़ अहसास है तो काँटों की चुभन भी है। जीवन में बदबू और ख़ुशबू दोनों से हमारा सामना होता है। समदर्शी भाव लिए मच्छी बाज़ार में घुसे तो देखा कि बीसों प्रकार की मछलियों का अंबार लगा है। एक बेचवाल बोला- साहिब चिंगड़ी लीजिए। हमने अकबर इलाहवादी की लज़्ज़तदार ज़ुबान की बानगी उसे नज़र की और चलते बने।

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,

ज़ार  से  गुज़रा हूँ  ख़रीददार  नहीं हूँ।

 *

ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी,

हर चंद कि हूँ  होश में  होशियार  नहीं हूँ। 

 *

वो गुल हूँ  ख़िज़ां ने जिसे बर्बाद किया है,

उलझूं किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ। 

 *

गंगासागर में आपको ज्यादातर बंगाली खाना मिलेगा, जिसमें मछली करी, चावल, समुद्री भोजन इत्यादि है। कुछ चाइनीज और नॉर्थ-इंडियन फूड का भी स्वाद ले सकते हैं। एक प्रमुख पर्यटक स्थल होने के नाते, इस जगह खाने की पर्याप्त सुविधा है। यहां पर भोजन तो उपलब्ध है, लेकिन जब किस्मों की बात आती है तो आपके पास बहुत अधिक विकल्प नहीं होते हैं। भारत सेवा आश्रम में शाकाहारी खाने की व्यवस्था है। मंदिरों के बाहर छोटी-छोटी दुकानों पर भी आप स्नैक्स का आनंद ले सकते हैं।

अगर नवंबर से फरवरी तक सर्दियों की अवधि के दौरान गंगा सागर तीर्थ आया जाए तो बहुत अच्छा है। मकर सक्रांति के समय जनवरी मध्य अवधि भी द्वीप पर जाने का एक शानदार समय है क्योंकि द्वीप पर भव्य उत्सव होते हैं, जिसमें एक विशाल गंगासागर मेला भी शामिल है। कम नमी और सुहावने मौसम के साथ इस द्वीप का सर्दियों में बेहतर आनंद लिया जा सकता है। मेला के समय भारी भीड़ आती है। लाखों में तीर्थ यात्री पहुँचते हैं।  

आख़िर में नाग मंदिर देखा। नाग मंदिर बहुत बड़ा है। वहाँ नागराज वासुकि और उनकी रानी शतशीर्षा की बड़ी मूर्ति है। वासुकी नाग महर्षि कश्यप के पुत्र थे जो कद्रु के गर्भ से हुए थे। नागधन्वा तीर्थ में देवताओं ने वासुकि को नागराज के पद पर अभिषिक्त किया था। वासुकि शिव का परम भक्त होने के कारण इसका शिव के गले पर निवास है।

 

समुद्रमंथन के समय मंदरांचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया था। त्रिपुर दाह  के समय वह शिव के धनुष की डोर बना था। वासुकी के पाँच फण हैं। वासुकी के बड़े भाई शेषनाग हैं जो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं उन्हें शैय्या के रूप में आराम देते हैं। नागों में शेषनाग सबसे बड़े भाई हैं, दूसरे स्थान पर वासुकी और तीसरे स्थान पर तक्षक हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार, श्रृंगी ऋषि का शाप पूरा करने के लिये राजा परीक्षित को तक्षक ने काटा था। इसी कारण राजा जनमेजय इससे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने संसार भर के नागों का नाश करने के लिये नागयज्ञ आरंभ किया। तक्षक इससे डरकर इंद्र की शरण में चला गया। इसपर जनमेजय ने अपने ऋषियों को आज्ञा दी कि इंद्र यदि तक्षक को न छोड़े, तो उसे भी तक्षक के साथ खींच मँगाओ और भस्म कर दो। ऋत्विकों के मंत्र पढ़ने पर तक्षक के साथ इंद्र भी खिंचने लगे। तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया।

 

शिव को जब ज्ञात हुआ कि नागवंश का नाश होने वाला है। तब उन्होंने अपने नाती आस्तिक ऋषि को सर्प यज्ञ रुकवाने भेजा था। शिव पुराण में कथा है कि आस्तीक जरत्कारु और शिव-पार्वती की पुत्री मनसा के पुत्र थे। उनके मामा गणेशजी, कार्तिकेय जी और भगवान अय्यपा थे। उनकी मौसी देवी अशोकसुन्दरी और देवी ज्योति हैं। इनके मौसाजी राजा नहुष और अश्विनी कुमार नासत्य हैं। भगवान शिव और माता पार्वती इनके नाना-नानी हैं।

 

आस्तीक ने यज्ञ मण्डप में पहुँचकर जनमेजय को अपनी मधुर वाणी से मोह लिया। उधर तक्षक घबराकर इंद्र की शरण गया। ब्राह्मणों के आह्वान पर भी जब तक्षक नहीं आया तब ब्राह्मणों ने राजा से कहा कि इन्द्र से अभय पाने के कारण ही वह नहीं आ रहा है। राजा ने आदेश दिया कि इन्द्र सहित उसका आह्वान किया जाए। जैसे ही ब्राह्मणों ने ‘इंद्राय तक्षकाय स्वाहा’ कहना आरम्भ किया, वैसे ही इंद्र ने उसे छोड़ दिया और वह अकेले यज्ञकुण्ड के ऊपर आकर खड़ा हो गया। उसी समय राजा जनमेजय ने आस्तीक से कहा तुम्हें जो चाहिए मांगो। आस्तीक ने तक्षक को कुंड में गिरने से रोककर राजा से अनुरोध किया कि सर्पयज्ञ रोक दीजिए। वचनबद्ध होने के कारण जनमेजय ने खिन्न मन से आस्तीक की बात मानकर तक्षक को मंत्रप्रभाव से मुक्ति दी और नागयज्ञ बन्द करा दिया। सर्पों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वचन दिया कि जो तुम्हारा आख्यान श्रद्धासहित पढ़ेंगे उन्हें हम कष्ट नहीं देंगे। जिस दिन सर्पयज्ञ रुका उस दिन पंचमी थी। वर्तमान समय में भी उक्त तिथि को नागपंचमी के रूप में मनाते हैं।

कुछ बुद्धिजीवी कहते हैं कि पुराण कोरी कल्पनाएँ हैं, तो ये कितनी सुंदर कल्पना है कि हिंदू प्रकृति के प्रत्येक चर-अचर की रक्षा को धर्म समझते हैं। यही भारतीय संस्कृति है।

 

यह समुद्री इलाका है, इसलिए यहां सांप बहुत होते हैं। नाग मंदिर बहुत सघन हरियाली वाले क्षेत्र में स्थित है। स्थानीय लोगों से साँप की बारे में पूछा,  क्या साँप कोई नुक़सान पहुँचाते हैं। उन्होंने बताया कि हम लोग साँप को नहीं छेड़ते तो वे भी समझदार हैं, हम लोगों को नहीं छेड़ते। मिलजुल कर रहते हैं। यहां पर बिजली की आपूर्ति अस्थिर थी लेकिन अब पूरे समय मिलती है। अपने साथ एक इमरजेंसी लाइट या टॉर्च साथ लेकर आएं। सर्पों से भरे गंगासागर में रात को यात्रा करना सुरक्षित नहीं है। 

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-४ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। अब आप प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – गंगा सागर – भाग-४ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

गंगा सागर द्वीप पर बत्तीस किलोमीटर लंबाई में और तीन से सात किलोमीटर चौड़ाई में 12.26 वर्ग किलोमीटर चौबीस गावों की सवा दो लाख आबादी बसी है। काचुबेरिया जेटी पर नाव से उतरते ही टैक्सी वाले हम पर मधुमक्खियों की तरह झूम पड़ते हैं। पश्चिम बंगाल टूरिज्म प्रॉपर्टी में हमारी कॉटेज बुक है। टैक्सी चालक वहाँ तक का 1600/- माँगने लगे। हम उनसे बातें करते आगे बढ़ते गए। अंदाज़न पाँच सौ मीटर चलने पर ऑटो और टोटो दिखे। हल्के फुलके नये इलेक्ट्रिक वाहन को यहाँ टोटो बुलाने लगे हैं। बत्तीस किलोमीटर की लंबाई के हिसाब से टोटो थोड़े कमजोर लगे। भोपाल की भारी सवारी और वाहन में कुछ तो तालमेल होना चाहिए। ऑटो वाले पाँच-छै सौ रुपयों का अड़ियल राग छेड़े थे। हमने हिसाब लगाया कि ऑटो पचास रुपये प्रति सवारी लेकर आठ सवारी बस स्टैंड तक ले जा रहे हैं। उसके हिसाब से पूरे ऑटो के चार सौ ठीक है। हमने चार सौ की विलंबित धुन पकड़ ली। आख़िर चार सौ रुपयों में सौदा तय हुआ। हमारी शर्त थी कि वह हमें होटल तक छोड़ेगा। यह सुनकर वह पसरने लगा। उसके तीन-चार साथियों ने उसे होटल का पता समझाया, तब वह माना।

गंगा सागर द्वीप पर उत्तर से दक्षिण सीधी सड़क है। दोनों तरफ़ क़तार से कच्चे मकान बने हैं। कमोबेश पूरा बंगाली समाज मांसाहारी है। हर मकान के सामने या बाजू में एक सरोवर है जिसमें मछलियाँ पली हैं। ताजी मछलियाँ पकड़ते और खाते हैं। प्रत्येक घर के सामने बकरियाँ चर रही और देशी मुर्गियाँ फुदक रही हैं। एक बंगाली बुद्धिजीवी से मांसाहार पर बात हुई। उनका कहना था कि मनुष्य यदि सीफ़ूड (समुद्री भोजन) न खाएँ तो समुद्री जीव की प्रजनन क्षमता इतनी अधिक है, सप्त समुद्र उनकी हड्डियों से नमक के ढेर में बदल जाएँगे। तब बारिश के बादल नहीं बनेंगे और कहीं भी बारिश नहीं होगी। पृथ्वी चटकने लगेगी। जल भूमिपिंड को साधे है जल की न्यूनता में वह पिंड खंड-खंड हो जाएगा। ज़रा सोचिए कितनी बड़ी समस्या होगी। शाकाहार या मांसाहार जीव मात्र की स्वाभाविक भोजन प्रणाली है। हमने कहा उत्तर भारत में शाकाहार पर जोर दिया जाता है। उन्होंने कहा- वहाँ वैष्णव जीवन पद्धति है। शाक्तों में मांसाहार चतुर्वर्ण्य प्रमुख भोजन है। कोई परहेज़ नहीं है। पूजा में मछली रखी जाती है।

गंगा सागर में पश्चिम बंगाल टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की बेहतरीन पक्की कांक्रीट हट उपलब्ध हैं। जिनका आरक्षण भोपाल से करवा कर चले थे। तक़रीबन चार सौ वर्ग फ़िट में एक बड़ा शयन कक्ष और एक बड़ा सिटआउट वरांडा, दोनों में एसी और दोनों में पश्चिमी गुसलखाना हैं। तीन दिन रुके, एसी बंद नहीं हुए। कमरे से बाहर भट्टी धधक रही है। सागर द्वीप के चारों तरफ़ सूर्य की तीखी किरण समुंदर में भाप से मानसूनी बादल बनाने में लगी हैं। इस तरह समझ लीजिए कि एक महा भगोने में तेज आँच पर पानी उबल रहा है और आप ढक्कन पर धरे पसीना बहा रहे हैं। सुबह बंगाली अख़बार कमरे में आ गया। तीन चार हेडिंग्स ही समझ आईं। लिपि देवनागरी है। शब्दों के हाथ, पैर, सिर, धड़ और मात्राओं में हिंदी से कुछ थोड़ा भेद है। कुछ महीने रुक गए तो बंगाली अख़बार पढ़ने लायक़ हो जाएँगे। लेकिन फिर काले जादू का क्या होगा। उससे बचना होगा। ग़ालिब तो नहीं बच पाये थे।

पश्चिम बंगाल के दक्षिण चौबीस परगना जिले में स्थित गंगा सागर धार्मिक महत्व का स्थान है। पवित्र जल धाराओं के मिलन स्थान को प्रयाग कहा जाता है। हर साल गंगा सागर मेला इस सागर द्वीप के दक्षिणी छोर पर भरता है जहाँ से गंगा नदी बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती है। इसी प्रयाग को गंगा सागर का नाम दिया गया है।

प्रयाग कुम्भ मेले के बाद गंगा सागर सबसे बड़ा तीर्थ है। गंगासागर का मिथक जीवन और मृत्यु के चक्र और मोक्ष के आकर्षण के बीच की कड़ी है। इस भक्तिपूर्ण नियति का हृदय प्रतिष्ठित कपिल मुनि मंदिर है। भागवत पुराण में विष्णु के कुल 24 अवतार बताए गए हैं। जिनमें से 23 हो चुके हैं। एक कल्कि अवतार होने को है। कपिल मुनि पाँचवें अवतार माने जाते हैं। जिन्होंने सांख्य सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि आत्मा अनादि अनंत है। आत्मा पूर्व निर्धारित नियति के बंधन में है। जीव के कर्म उसका प्रारब्ध निर्धारित करते हैं। भागवत पुराण के अनुसार, महर्षि कपिल मुनि का जन्म स्वयंभू मनु की पुत्री ऋषि कर्दम और देवहुति से हुआ था। कर्दम मुनि ने अपने पिता भगवान ब्रह्मा के वचनों का पालन करते हुए समर्पणपूर्वक घोर तपस्या की। उनके समर्पण से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु अपने दिव्य रूप में प्रकट हुए। भगवान ने उन्हें देवहुति से विवाह करने के लिए कहा और आश्वस्त किया कि वह एक अवतार के रूप में जन्म लेंगे और दुनिया को सांख्य दर्शन देंगे।

समय बीतने के साथ मिथक किंवदंतियों में, किंवदंतियाँ क़िस्सों में और क़िस्से आस्था में बदल गए। वही आस्था कर्मकाण्डी धर्म का प्राण है। राजा भागीरथ के नाम पर गंगा को भागीरथी नाम दिया गया और राजा सागर के नाम पर समुद्र को “सागर” नाम दिया गया और गंगा के सागर में मिलन को गंगा सागर।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार गंगा को लोक कल्याण हेतु 2525 किलोमीटर प्रवाहित होकर ग्रहण करने हेतु भगवान विष्णु कपिल मुनि के रूप में आए थे। उन्होंने इस स्थान पर अपना आश्रम बनाया और ध्यानस्थ हो गए। इसी दौरान पृथ्वीलोक पर प्रतापी इक्ष्वाकु वंशीय राजा सागर काफी पुण्य कमा रहे थे। इंद्र को अपनी गद्दी हिलती दिखने लगी। इंद्र ने एक चाल चली। राजा सागर का यज्ञ अश्व चुरा कर कपिल मुनि के आश्रम के पास बांध दिया। राजा सागर ने अपने  पुत्रों को उस अश्व को ढूँढ लाने के लिए भेजा। जब राजा सागर के पुत्रों को अश्व कपिल मुनि के आश्रम के पास मिला, उन्होंने कपिल मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। इंद्र की चाल से अनजान कपिल मुनि इस झूठे आरोप से क्रोधित हो गए और उन्होंने राजा सागर के सभी पुत्रों को भस्म कर दिया। जब कपिल मुनि को असल बात पता चली तो वे अपना श्राप वापस तो ले नहीं सकते थे पर उन्होंने राजा सागर के पुत्रों को मोक्ष दिलाने का उपाय बताया। अगर गंगा धरती पर जल के रूप में अवतरित हो राजा सागर के पुत्रों की अस्थियों को स्पर्श कर लेती हैं तो हिन्दू मान्यताओं के अनुसार उनकी अंतिम क्रिया पूरी हो जाएगी और वो मोक्ष प्राप्त कर स्वर्गलोक को चले जाएँगे। राजा सागर के पुत्रों को मोक्ष दिलाने के लिए उनके कुल में जन्मे राजा भगीरथ ने घोर तपस्या की ताकि माता पार्वती धरती पर आ जाएँ।  अंततः पार्वती देवी गंगा के रूप में पृथ्वी पर उतरीं और उनके स्पर्श से राजा सागर के पुत्रों को मोक्ष प्राप्त हुआ। हिन्दू पंचांग के अनुसार गंगा के धरती पर आकर सागर में समाने की तिथि उत्तरायण या मकर संक्रांति पर होती है। इसलिए लाखों लोग इस दिन गंगासागर में स्नान करते हैं ताकि वे स्वर्ग प्राप्त कर सकें।

इस पौराणिक कथा में आस्था रखते हुए दुनिया भर से मोक्ष की तलाश में लाखों हिंदू तीर्थयात्री मकर संक्रांति पर गंगासागर मेले में आते हैं। माना जाता है कि पवित्र जल में डुबकी लगाने से सभी दुख और पाप धुल जाते हैं। इस विश्वास के साथ लाखों लोग कपिल मुनि के आश्रम में “सब तीर्थ बार बार गंगा सागर एकबार” का जाप करते पुण्य कमाते हैं।

गंगा सागर एक अद्भुत द्वीप है जो बंगाल तट से कुछ ही दूर स्थित है। गंगा सागर गंगा नदी और बंगाल की खाड़ी का मिलन बिंदु है। बताया जाता है कि काफी समय पहले गंगा नदी की धारा सागर में यहीं मिलती थी, लेकिन नदियों के तलछट ने किनारों को पूर दिया है। अब इस द्वीप के पास गंगा की बहुत छोटी सी धारा सागर से मिलती है।

यह द्वीप लार्ड क्लाइव को इसलिए पसंद था कि ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज सिराजुद्दौला से शिकस्त खाकर इसी स्थान पर डेरा डाले पड़ी थी। क्लाइव ने प्लासी की लड़ाई की तैयारी इसी द्वीप पर की थी, और गंगा के मुहाने से ही गहरे समुद्र तक पहुँच जहाँ लंगर डाला, वह स्थान बाद में डायमंड हार्बर नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसकी फ़ौज  इसी रास्ते से हुगली अर्थात् गंगा पर जहाज़ चलाकर 11 जून 1757 की रात को प्लासी के मैदान तक पहुँचा था। 13 जून 1757 को उसने भारत के भाल पर “ग़ुलाम” लिख दिया था।

संत कपिल मुनि को समर्पित मंदिर सागरद्वीप का प्रमुख आकर्षण है। तीर्थयात्री पानी में एक डुबकी के बाद मंदिर जाते हैं। मुख्य मंदिर 1960 के तूफान में नष्ट हो गया था। गंगासागर में 1973 में कपिल ऋषि का मंदिर फिर से बनवाया गया। कपिल मुनि की मूर्ति के एक तरफ राजा भगीरथ को गोद में लिए हुए गंगा जी की मूर्ति स्थापित है वहीं दूसरी तरफ राजा सगर और हनुमानजी की मूर्ति है।

यहां आना हर किसी के भाग्य में नहीं होता, जो यहां तक पहुंच जाता है उसे भाग्यशाली माना जाता है। यहां का गंगा सागर मेला पूरे भारत वर्ष में प्रसिद्ध है। हर साल इस मेले में लाखों श्रद्धालु पुण्यस्नान के लिए आते हैं। यहां तीर्थयात्री संगम में स्नान कर सूर्य को अर्घ देते हैं। कपिल मुनि के साथ ही यहां श्रद्धालु सूर्य देव की भी पूजा करते हैं। यहां श्रद्धालुओं द्वारा तिल और चावल का दान दिया जाता है। यहां इस दौरान नागा साधुओं के साथ महिला सन्यासी भी नजर आती हैं। ये नजारा पूरी तरह कुंभ जैसा लगता है। यहां श्रद्धालु समुद्र देवता को नारियल अर्पित करते हैं, वहीं गौदान भी किया जाता है। इसके बाद बाबा कपिल मुनि के दर्शन किए जाते हैं।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – गंगासागर की ओर – भाग-३ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। अब आप प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – गंगासागर की ओर भाग-३ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

ख़ैर, यात्रा आरंभ हुई। दाहिनी तरफ़ नया कलकत्ता और बायें तरफ़ साल्ट लेक की घेराबंदी करके बसी बस्तियाँ और साथ में चलता मेट्रो ट्रैक। तक़रीबन बीस किलोमीटर चलने के बाद आख़िरी मेट्रो स्टेशन गढ़िया आया। वहाँ पर मेट्रो स्टेशन पर ड्राइव-इन करके थोड़ा सामान ख़रीदा। रास्ते पर चारों तरफ़ तृणमूल कांग्रेस के झंडे लहरा रहे हैं। पंचायत चुनाव का प्रचार पूरे शबाब पर है। कोलकाता से चलकर साल्ट लेक तक शहरी आबादी के बाद ग्रामीण आबादी मुस्लिम बहुल है। मुस्लिम लीग द्वारा 16 अगस्त 1946 को “डायरेक्ट एक्शन डे” घोषित करने के बाद कोलकाता से मुस्लिम आबादी दक्षिण बंगाल तरफ़ पलायन करने लगी तो दक्षिण में बसी हिंदू आबादी कोलकाता की तरफ़ शरण लेने भागी। इस तरह अगस्त 1947 तक इस प्रक्रिया में दक्षिण बंगाल के कॉक द्वीप तक मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र बस गया। उनकी जीविका का साधन हिंदुओं की गंगासागर यात्रा है। वर्तमान में सभी बंगाली नज़र आते हैं। इक्का दुक्का मुस्लिम परिधान में दिखते हैं।

अब हम डेल्टा के बीच में गंगा की धारा को देख रहे हैं। सुंदरवन डेल्टा में भूमि का ढाल अत्यंत कम होने के कारण यहाँ गंगा अत्यंत धीमी गति से प्रवाहित है। अपने साथ लाई मिट्टी को मुहाने पर जमा कर देती है, जिससे डेल्टा का आकार बढ़ता जाता है और नदी की कई धाराएँ तथा उपधाराएँ बन जाती हैं। समुद्र सिकुड़ता जा रहा है। इस प्रकार बनी हुई गंगा की प्रमुख शाखा नदियाँ जालंगी, इच्छामती, भैरव, विद्याधरी और कालिन्दी हैं। इन नदियों की धाराओं को पार करते चल रहे हैं। नदियों के वक्र गति से बहने के कारण दक्षिणी भाग में कई धनुषाकार झीलें बन गई हैं। ढाल उत्तर से दक्षिण है, अतः अधिकांश नदियाँ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं। ज्वार के समय इन नदियों में ज्वार का पानी भर जाने के कारण इन्हें ज्वारीय नदियाँ भी कहते हैं। डेल्टा के सुदूर दक्षिणी भाग में समुद्र का खारा पानी पहुँचने से यह भाग नमकीन एवं दलदली है। यहाँ आसानी से पनपने वाले मैंग्रोव जाति के पेड़ों की बहुतायत  है। मैंग्रोव वनों का पारिस्थिक महत्व है, क्योंकि यह तटों को स्थिरता प्रदान करते हैं और विभिन्न मछली और पक्षी जातियों को निवास व सुरक्षा प्रदान करते हैं। मैंग्रोव वन झुरमुट विश्व के उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में मिलते हैं। मैंग्रोव शब्द दक्षिण अमेरिका की गुआरानी भाषा से व्युत्पन्न है। इन्ही मैंग्रोव वनों में फैली हरियाली से गुज़र रहे हैं। मेहनतकश अर्धनग्न बंगाली स्त्री-पुरुष बारिश के इंतज़ार में खेतों को तैयार करते हुए रवींद्र संगीत धुनों पर गुनगुना रहे हैं। हमने मोबाइल यूट्यूब फिल्मी गीत सेट किया है। हम बाहर से तप रही, पर अंदर से मुलायम ठंडी कार में बैठे, रोशन की धुन पर इंदीवर रचित मुकेश की आवाज़ में संजीव कुमार, मुकरी, ज़ाहिदा पर फ़िल्माया गीत सुन रहे हैं।

ओह रे ताल मिले नदी के जल में,

नदी मिले सागर में,

सागर मिले कौन से जल में,

कोई जाने ना …

 

सूरज को धरती तरसे, धरती को चंद्रमा,

पानी में सीप जैसे, प्यासी हर आत्मा,

ओ मितवा रे… ऐ… ऐ… ऐ…,

बुंद छुपी किस बादल में,

कोई जाने ना …

बंगाल की खाड़ी में हुगली नदी के मुहाने से मेघना नदी के मुहाने (बांग्लादेश) तक 260 किमी विस्तृत व्यापक जंगली एवं लवणीय दलदली क्षेत्र गंगा डेल्टा का निचला हिस्सा है। यह 100-130 किमी में फैला अंतर्राष्ट्रीय सीमा इलाक़ा है। मुहानों के साथ बहती लहरों वाली नदियों और अनेक नहरों द्वारा कटी हुई खाड़ियों के साथ इस भूक्षेत्र में घने जंगलों से ढके दलदली द्वीप समूह हैं।

समुद्र तट मैंग्रोव वाले दलदलों में परिवर्तित होते है; दक्षिणी क्षेत्र विभिन्न जंगली जानवरों और घड़ियालों से भरा हुआ है और वस्तुतः निर्जन है। यह बंगाल के शेर का आख़िरी संरेक्षित क्षेत्र और बाघ संरक्षण परियोजना का स्थल है। कृषि योग्य उत्तरी क्षेत्र में चावल, गन्ना, लकड़ी और सुपारी की खेती होती है। सुंदरबन रॉयल बंगाल टाइगर के लिए विश्व प्रसिद्ध है। सुंदरबन, विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा, 10,200 वर्ग किमी में है जो भारत और बांग्लादेश में फैला है। भारतीय सीमा के भीतर आने वाले वन का हिस्सा सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान कहलाता है। यह पश्चिम बंगाल के दक्षिणी हिस्से में है। वहीं से हम गुज़र रहे हैं।

गंगा का डेल्टा चावल की खेती के लिए विख्यात है। यहाँ विश्व में सबसे अधिक कच्चे जूट का उत्पादन होता है। कटका अभयारण्य सुंदरवन के उन इलाकों में से है जहाँ का रास्ता छोटी-छोटी नहरों से होकर गुज़रता है। उन्हीं के एक हिस्से से होकर निकल रहे हैं। यहाँ बड़ी तादाद में सुंदरी पेड़ हैं जिनके नाम पर ही इन वनों का नाम सुंदरवन पड़ा है। इसके अलावा यहाँ पर देवा, केवड़ा, तर्मजा, आमलोपी और गोरान वृक्षों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। यहाँ के वनों की एक ख़ास बात यह है कि यहाँ वही पेड़ पनपते या बच सकते हैं, जो मीठे और खारे पानी के मिश्रण में जीवित रह सकते हों।

क़रीब चालीस किलोमीटर के बाद बारूईपुर से दाहिनी तरफ़ मुड़कर डेढ़ बजे कॉक द्वीप जेट्टी पर पहुँचे। कार के वातानुकूलित वातावरण में बैठे सघन हरियाली का आनंद लेते रहे। बाहर निकलते ही गर्मी के रौद्र रूप का सामना हुआ। पूरे कपड़े पसीने से तर हो गए। सर्वोच्च सिरे से निम्नतर अंगों तक झरनों के रूप में बहते पसीने को पोंछकर रूमाल निचोड़ लिया। एक बार, दो बार, तीन बार रूमाल निचोड़ कर उसे धोकर गीले रूमाल दे चेहरा पोंछा तब कुछ राहत मिली। कॉक द्वीप जेट्टी पर मालूम हुआ कि तीन बजे एक जेट्टी साढ़े तीन किलोमीटर दूरी तय करके सागर द्वीप ले जाएगी। चालीस मिनट का सफ़र होगा। फिर सागर जेट्टी से होटल तक तीस किलोमीटर जाना होगा। इंतज़ार में पसीना बहाते बैठे हैं। यदि नल-नील सी शक्ति होती तो रामेश्वरम का सा पुल बना देते। पता चला है कि भारत सरकार और बंगाल सरकार मिलकर पुल बनाने की योजना बना रहे हैं। योजना दीदी और फेंकू की तकरार में उलझी है।

बंगाल धरा पर घूम रहे हों और बंगाली कवि चण्डीदास की याद ना आए। अमीर मीनाई की लिखी और जगजीत सिंह द्वारा गाई यह मशहूर गजल में रामी धोबन और चंडीदास का जिक्र है वे भारत की एक कम चर्चित ऐतिहासिक प्रेम कहानी के पात्र हैं।

गई जब रामी धोबन एक दिन दरिया नहाने को,

वहाँ  बैठा  था  चंडीदास  अफ़साना सुनाने को।

 

बसाना है अगर उल्फ़त का घर आहिस्ता आहिस्ता

कहा  उसने  के रामी  छोड़ दे  सारे ज़माने को।

बंगाली वैष्णव समाज में मान प्राप्त मध्ययुगीन चंडीदास राधाकृष्ण लीला साहित्य के बंगाली भाषा के आदि कवि हैं। बंगाल की धरती पर पैदा चैतन्य महाप्रभु से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महाकवि चंडीदास की मार्मिक गाथा से प्रेरित रहे हैं। चंडीदास ने अपनी आत्मा को प्रेम के अनंत सागर में विलीन कर दिया था। प्रेम ही उनके जीवन का सारतत्व, तपस्या और सिद्धि था। चंडीदास की पदावलियों में सर्वत्र ‘पिरीति’ अर्थात प्रीति की धुन सुनाई पड़ती है। चण्डीदास पर 1934 में बनी कुंदन लाल सहगल अभिनीत हिंदी फ़िल्म भी खूब चली थी। महान प्रेमी और बंगला महाकवि चंडीदास बहुत पहले समय में भी मानवता को जाति-धर्म से ऊपर मानने के हिमायती थे, उन्हीं के शब्दों में—

शुनो रे मानुष भाई

सबार उपरे मानुष सत्य

ताहार उपरे नाई।

हे मनुष्य भाई सुनो, सबके ऊपर मनुष्य सत्य है, इस सत्य से परे कोई नहीं।

सुंदरबन में पतझड़ नहीं होता। ज्येठ-वैशाख की गर्मी में भी सघन हरियाली। पानी के पोखर वर्ष के बारह महीने भरे रहते हैं। पानी पाँच फुट पर भरपूर निकल आता है। नारियल, केले और कटहल भरपूर निकलते रहते हैं। आम नीम पीपल के पेड़ नहीं होते।

चाय पीकर एक होटल में अड्डा जमाया है। होटल की मालकिन सीधे पल्लू की परम्परा गत बंगाली परिधान में काम में लगी थी। उसने लड़की को दुकान सौंपी और ज़मीन पर एक लेट गई। ऊपर पंखा पूरी गति से चल रहा था। उससे थोड़ी दूर पर बेंच पर बैग सिरहाने रख हम भी लेट गए । मोबाइल चार्जिंग पर लगाया। उस पर नज़र रखे लेटे रहे। ऊपर छत पर नज़र डाली तो जीवन में पहली बार साड़ियों की फ़ाल्स सीलिंग दिखी। बेलबूटेदार मनमोहक रंगों की साड़ियाँ टीन की छत से गर्मी को छनकर आने से थोड़ा रोक रही थीं। नौ ग़ज़ा बंगाली साड़ियों के बेलबूटों को गिनते दो घंटे गुज़ारे। चार बजे फेरी की टिकट मिलनी शुरू हुई। पवन भाई दो टिकट ख़रीद लाए।

कुछ मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली के तीर्थयात्री भी आ गए। एक तरफ़ बंगाली महिलाएँ सपरिवार बैठी हैं। एक अधेड़ हरियाणवी बोला- जे बंगाल का काड़ा जादू क्या होवे है। कहीं देखने को मिलेगा क्या ?

चर्चा चल पड़ी। हम बहुत देर तक सुनते रहे। फिर कहा- देखो इस महिला दुकानदार का बच्चा अभी स्कूल से आया है। उसकी माँ ने उसके कपड़े बदल मुँह हाथ धुलवा कर उसे बड़ी थाली में मांस-भात परस दिया है। वह योगी की मुद्रा में बैठा ख़ाना खा रहा है। छोटी मछलियों के झोल में भात मींड कर गोला बना मुँह में भरता जा रहा हैं। यही इनका तीनों पहर रोज़ का ख़ाना है। मछली सरसों या राइस ब्रान तेल में पकाई जाती है। अब इसके और इसकी बहन के बाल देखो कितने सघन घने और निसंग काले हैं। इनकी देह से मादक मत्स्यगंध निकलती है। अब इनके चेहरे की बनावट देखिए, थोड़े छोटे से गोल चेहरे पर कोनों पर हल्की मुड़ी छोटी सी नाक और छोटे सुघड़ कान के पास से गहरी काली घटाएँ और जीभ को गोलाकार करके मिठास ज़ुबान, यही है काला जादू।

इस दुनिया में इंसानों ही नहीं बल्कि जीव मात्र पर काम का जादू सिर पर चढ़ कर बोलता है। शाक्तों में एक पंच-मकार पद्धति है। जो मांस अर्थात् मछली, मदिरा, मैथुन, मधु अर्थात् मिष्ठू और मुद्राएँ के रासरंग पर आधारित है। पूरा बंगाल वर्ष के बारह महीने मछली और मीठा खूब खाते हैं। मदिरा खुलेआम पीते हैं। नाच गाने की मुद्राओं में पारंगत हैं। महिलाओं की लंबी काली घटाएँ और इनके बदन सत्यवती की तरफ़ मत्स्यगंधा मादक ख़ुशबू बिखेरती हैं, उनकी बोली में एक मिठास है, यही काला जादू है। इसी काले जादू से लबरेज़ लघु उरोजनी सुपुष्ट नितंबिनी धीवर कन्या सत्यवती ने ऋषि पाराशर और राजा शान्तनु को बावला बना दिया और महाभारत युद्ध की नींव रख दी थी। और तो और सत्यवती ने ऋषि पाराशर से तीन शर्तें तक मनवा ली थीं कि उसका कौमार्य भंग नहीं होना चाहिए, उसकी गंध सुगंध में बदल जानी चाहिए, और वह व्यास जी को पैदा करने हेतु नौ महीने गर्भ धारण नहीं करेगी तुरंत बच्चा होना चाहिए। तब नदी के बीच द्वीप पर पाराशर-सत्यवती के समागम से द्वैपायन व्यास का त्वरित जन्म हुआ। महाभारत में शान्तनु-गंगा से भीष्म पितामह की उत्पत्ति भी जुड़ी है। उसके धर्मपिता निषाद ने भी राजा शान्तनु से मनमाफ़िक शर्तें मनवाई थीं। सत्यवती महाभारत की एक महत्वपूर्ण पात्र है। वह उपरिचर वसु द्वारा इंद्र की “अद्रिका” नाम की अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। वह ब्रह्मा के शाप से मत्स्यभाव को प्राप्त हुई। उसका नाम बाद में सत्यवती हुआ। यह बातें चल रही थीं तभी नौका तक जाने की लाईन लगने लगी।

टिकट लेकर भीड़ में खड़े होना त्रासदाई है। सामने समुंदर पर वाष्पीकरण होने से हवा थमी है, वातावरण में बहुत उमस है। सिर पर धूप और देह में पसीने की धार बह रही है। एकाध घंटा खड़ा रहने पर आरसी गेट खुला लेकिन उसके आगे बढ़ने पर एक और गेट बंद था। पता चला कि गंगा सागर द्वीप से फेरी आने पर उसकी सवारियों उतरेंगी तब दूसरा गेट खुलेगा। एक घंटा और धूप में तपाई होती रही। पानी पीते और पसीना बहाते खड़े रहे। जब गेट खुला तो आगे खड़ी जनता ने भागकर नाव में कुर्सियाँ घेर लीं। जब तक हम पहुँचे तब तक नाव में घुसने की धक्का मुक्की हो रही थी। कुछ अनुनय से कुछ धकिया कर नाव में चढ़ तो गए लेकिन पैर रखने तक की जगह नहीं थी। नाव के चालक की डेक पर चढ़ गए। हमको चढ़ते देख एक हरियाणवी परिवार भी चढ़ आया। लंबे चौड़े हरियाणावासियों ने डेक पर जगह घेर ली। उनके परिवार का मुखिया डेक की सीढ़ियों पर आसन जमा कर विराजमान हो गया। उसके बगल में थोड़ी सी जगह थी। हम उड़ी जगह पर धंसकर बैठ गए। नाव चालीस मिनट में साढ़े तीन किलोमीटर की यात्रा करके गंगा सागर टापू पर पहुँची।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-२ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। अब आप प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-२ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

14 जून 2023 को ठीक बारह बजे सहयात्री पवन राय ने टैक्सी लेकर दरवाज़े पर दस्तक दी। हम कपिल मुनि के रूप में गंगा सागर में विराजमान विष्णु भगवान का नाम लेकर चौपहिया में सवार हो गए कि यार अनिश्चितताओं से भरी जीवन यात्रा में मुश्किलों भरी जीवंत यात्राओं से क्या परहेज़ करना। जीवन में यदि सब कुछ निश्चित हो जाये तो जीवन का रस ही समाप्त  हो जाएगा। आस्थावान और यथार्थवादी दोनों कहते हैं कि सारी सावधानियों के बावजूद जो होना है सो तो होना ही है।

राजाभोज हवाई अड्डा पहुँच विमानतल पर प्रवेश लिया। सुरक्षा संबंधी जाँच हेतु आगे बढ़े। हमारे सामने कुछ व्हीआईपी क़िस्म की सवारियाँ थीं। संभवतः सीआईएसएफ़ से संबंधित अधिकारी थे। एक अफ़सर उनकी अगवानी कर रहा था। हम जब आगे बढ़े तो हमसे बेल्ट निकालने को कहा गया। जबकि व्हीआईपी क़िस्म के जीव बिना किसी जाँच के निकल गए। सीआईएसएफ़ वाले अपने अधिकारियों की बेल्ट निकलवाने से तो रहे। यदि अफ़सर की बेल्ट निकली तो रंगरूटों की खैर नहीं। औपचारिकता पूरी करके विमान में सवार होने प्रतीक्षा लॉबी में पहुँचे। वहाँ पता चला कि भोपाल से हैदराबाद की उड़ान दस मिनट देरी से रवाना होगी। अंततः विमान में सवार हो गए। हवाई यात्रा के दौरान पृथ्वी को आसमान से देखकर हवाई ख़्याल आने लगे। पृथ्वी सूर्य के गैस वलय से निकली एक गैस पिंड के रूप में अलग होकर ब्रह्मांड में घूमने लगी। उससे एक गैस वलय घूमता हुआ निकला। वह भी अपनी धुरी पर घूमता हुआ पृथ्वी की परिक्रमा करने लगा- वही हम सबका चन्दामामा हो गया। अब ये तीनों एक दूसरे ने अलग होकर भी गुरुत्वाकर्षण से जुड़े हैं जैसे पति पत्नी आचार विचार व्यवहार में अलग होकर भी एक दूसरे के आकर्षण से जुड़े रहते हैं। एक दूसरे की परिक्रमा करते रहते हैं। कभी उलझते हैं- कभी सुलझते हैं। एक दूसरे की गर्मी ठंड बरसात सहते हुए साथ चलते रहते हैं। सूर्य, पृथ्वी, चंद्रमा की तरह सभी घूम रहे हैं। कहीं किसी को चैन नहीं है। 

पृथ्वी सूर्य से विलग होकर ठंडी होने लगी। इतनी ठंडी हो गई कि उसके ध्रुवीय प्रदेशों पर बर्फ जमने लगी। पूरी सफ़ेद हो गई। फिर पृथ्वी सूर्य के नज़दीक आने लगी तो बर्फ पिघल कर बादल बने। बादल से बारिश आई। उत्तरी क्षेत्रों में पोखर में जल इकट्ठा हुआ। उसी जल में सबसे पहले जलचर जीव की उत्पत्ति हुई। इसीलिए हिंदू शास्त्रों में विष्णु का पहला अवतार मत्स्य-अवतार है। कुछ जलचर जीवों में इस तरह के फेंफड़े विकसित हुए जो जल और थल दोनों में जीवित रह सकते थे। तभी दूसरा अवतार कच्छप-अवतार हुआ। तीसरा अवतार सूकर अवतार पशु रूप में हुआ जो थल पर ही जीवित रह सकता है। चौथा अवतार नरसिंह-अवतार हुआ जो यह सिद्ध करता है कि मनुष्य का विकास पशु से हुआ है। यही डारविन का क्रमागत विकास का सिद्धांत भी कहता है।

पृथ्वी के उसी उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में आर्यों के पूर्वज निवास करते थे। जब पृथ्वी पुनः सूर्य से दूर घूमने लगी। तब एक और शीत काल आया। जीवों का जीवन दूभर होने लगा। उन्होंने उत्तर से दक्षिण दिशा की यात्रा शुरू कर दी। समुंदरों और नदियों के किनारे बसने लगे। वे कहीं से आने की कारण आर्य कहलाये। उन्होंने यूरोप और एशिया को बसाना आरम्भ किया।

विमान उड़ने के बाद आसमान में चिलचिलाती धूप का नज़ारा दिखने लगा। ऐसा लगा जैसे ज़मीन सुलग रही है। आधा घंटे उड़ने के बाद नीचे नर्मदा नदी के दर्शन हुए। विमान धरातल पर बहती नर्मदा नदी को पार करके पुराने समय में प्रसिद्ध खानदेश अर्थात् बुरहानपुर जलगाँव अहमदनगर के ऊपर से उड़ान भरता हुआ जाएगा।

जब भारत में आर्यों की पहली खेप आई तब कुछ शांति प्रिय द्रविड़ जातियाँ उत्तर में सिंध नदी के आसपास बसती थीं। आर्यों ने उन्हें खदेड़ा तो वे निचले हिस्से में समुद्र तक खिसक गईं। आर्यों को गंगा का इलाक़ा गंगासागर तक मिल गया। आर्यों की पहली खेप बंग गंगासागर तक खिसक गई। दूसरी खेप गुर्जर पश्चिम की तरफ़ आधुनिक द्वारिका तक गई। तीसरी खेप मरहट्ट द्रविड लोगों से जा टकराए। फिर जाट मालव क्षुद्रक का आगमन हुआ जो उत्तर प्रदेश राजस्थान में बस गए। उन्हीं से राजपूत विकसित हुए। इन सबने सब तरफ़ से घुसपैठ कर मध्य प्रदेश को आबाद किया। जिसकी राजधानी भोपाल से हवाई जहाज़ में सवार होकर हैदराबाद पहुँचने वाली उड़ान में सवार हैं। हम किनारे की सीट होने से धरती के नज़ारे दिखने लगे। पायलट द्वारा दो घंटे की उड़ान बताई गई। विमान में ए.सी. की तो बात ही ना करें, पंखा तक नहीं चल रहे थे। सवारियों ने चिल्लाना शुरू किया। उन्हें बताया गया कि विमान के इंजन से वातानुकूलन सिस्टम जुड़ा हुआ है। विमान उड़ान भरते समय ए.सी. चालू होगा। विमान में दो उड़न परी खाने पीने की सामग्री बेंच रही थीं। एक थोड़े कम उम्र की सुंदर चेहरा और आकर्षक व्यक्तित्व की थी। दूसरी थुलथुल देह की थी और उसके चेहरे पर सौंदर्य प्रसाधन के बावजूद ताज़े बखर चले खेत की तरह हल्के गड्ढे साफ़ दिख रहे थे। विमान में 200/- रुपये के पचास ग्राम काजू मिल रहे थे लेकिन हमें कुछ भी ख़रीदने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। पवन भाई डी-मार्ट से 200/- में 250  ग्राम सिके मिक्स्ड ड्राई फ्रूट के पैकेट साथ में लाए थे। ड्राई फ्रूट्स चबाते और बातें करते उड़ान यात्रा का आनंद लेते रहे। अब बाहर गोदावरी नदी दिख रही है जिसका उद्गम तो नासिक से है परंतु छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाक़े से आने वाली नदियाँ गोदावरी को पानीदार बनाती हैं। वही इलाक़ा नीचे दिखता चल रहा है। अब सफ़ेद बादलों के झुरमुट ने ज़मीन का दिखना रोक दिया है। पवन भाई लंदन में पहली बार स्कूल जाते नाती के वीडियो देख कर खूब खुश हो रहे हैं। बच्चा घर से पापा के साथ निकलते हुए खुश है कि तैयार होकर पापा के साथ घूमने जा रहे हैं। लेकिन स्कूल में छूटते समय उदास और खिन्न दिखता है। पापा पर थोड़ा नाराज़ भी नज़र आता है। पापा भी द्रवित तो होते हैं। उसे बार-बार गले लगाते हैं परंतु पिता को बच्चों के भले के लिए कुछ काम उनकी नाखुशी झेलकर भी करने पड़ते हैं। जिसकी क़ीमत बच्चों को बहुत बाद में समझ आती है।

तक़रीबन एक घंटे बाद ताप्ती नदी दिखी। मुंबई से उड़कर आते मानसूनी बादलों के दर्शन हुए। सफ़ेद बादलों की माया ज़मीन पर छाया बिखेर रही थी। नीचे एक खूब लंबी सड़क दिखती चल रही है वह निश्चित रूप से काशी से कन्या कुमारी अंतरीप तक पहुँचने वाली राष्ट्रीय राजमार्ग सड़क है। उसका नागपुर से हैदराबाद पहुँचने वाला 500 किलोमीटर हिस्सा विमान यात्रा के साथ चल रहा है। महाराष्ट्र के कॉटन उत्पादन क्षेत्रों को पार करके आंध्रप्रदेश-कर्नाटक सीमा से गुज़र कर गंतव्य की तरफ़ बढ़ने लगा।

दो घंटों से ड्राई फ्रूट्स खाकर पानी पीते चल रहे हैं। शरीर के वाटर टैंक ने ख़तरे की घंटी बजाई। विमान में एक ही टॉयलेट पीछे की तरफ़ है। जिसमें कोई सवारी बहुत देर से व्यस्त है। विमान परिचारिका ने रुकने को कहा। उससे बातें होने लगीं। बात ही बात में वेतन पैकेज के बारे में पूछा तो वह बोली- इट्स गुड ? हमने कहा रिज़नेबल या गुड ? वह बोली- रिज़नेबल। लेकिन उसने पैकेज के बारे में यह नहीं बताया कि कितना मिलता है। भद्रता का तक़ाज़ा है कि पुरुषों से वेतन और महिलाओं से उम्र नहीं पूछना चाहिए। यह तब की बात है जब महिलाएँ नौकरियों कम करती थीं। अब इसे बदल देना चाहिए। अब कामकाजी महिलाओं से उम्र और वेतन दोनों नहीं पूछना चाहिए। उड़नपरी यही सीख दे गई। 

दो घंटे हैदराबाद विमानपत्तन पर गुज़ारना है। कहने को तो यहाँ अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है, परंतु हमारी घरेलू उड़ान होने से देशी स्तर की असुविधाओं से निपटना था। मोबाईल चार्जिंग पॉइंट चार्ज नहीं थे। ख़ाली छेदों में एडॉप्टर घुसाया लेकिन नतीजा सिफ़र रहा। मजबूरी में एक दुकानदार को पटाया। कामचलाऊ चार्जिंग हो गई।

नियत समय पर हैदराबाद से कोलकाता उड़ान उड़ी। अब विमान में बैठकर यात्रा वृतांत लिख पा रहे हैं। विमान में 180 कुर्सियाँ  हैं और एक भी कुर्सी ख़ाली नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब एयरपोर्ट और विमानों में रेल्वे स्टेशन जैसी भीड़ नज़र आने लगेगी। विमान दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा की यात्रा कर रहा है। आकाश में बादलों की बारात है। सफ़ेद बादलों पर अस्ताचल गामी मार्तण्ड की तिरछी तीक्ष्ण किरणें नभ को रोशन कर रही हैं। अब फिर नीचे गोदावरी बह रही है। लेकिन विशाखापत्तनम तक उसका नाम विशाखा हो चुका होगा। विमान अब तेलंगाना राज्य की सीमा से निकल छत्तीसगढ़-उड़ीसा के आसमान पर उड़ रहा है। नीचे महानदी इठलाती चली जा रही है। जो बंगाल की खाड़ी में मिलेगी। विमान झारखंड के शुक्तिमान पर्वतों के ऊपर से उड़ रहा है। इसे अभी गंगा नदी के ऊपर से भी यात्रा करनी है। लीजिए नीचे पटना के पास सोन और गंगा नदियों का संगम हो रहा है। हम पश्चिम बंगाल की सीमा में दाखिल हो रहे हैं। यहाँ से विमान द्वारा कलकत्ता आधे घंटे का सफ़र है। गंगा का नाम मुर्शिदाबाद पहुँचते-पहुँचते हुगली हो जाता है। हमारी उड़ान रात आठ बजे कलकत्ता पहुँच गई। जहाँ हमें रात गुज़ारनी है। सुबह सुंदरबन की यात्रा करते हुए गंगा सागर पहुँचेंगे। 

पहले सोचा था कि एयरपोर्ट पर लाउंज में रात गुज़ार सुबह जल्दी टैक्सी करके गंगासागर के लिए निकल लेंगे। एयरपोर्ट पर पता चला कि लाउंज की सुविधा सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर उपलब्ध है। हमने मेक माय ट्रिप के माध्यम से एक रात के लिए फैब होटल 2000.00 रुपयों में बुक किया। एयरपोर्ट से निकल कर टैक्सी खोजने लगे। यहाँ टैक्सी की बड़ी भारी समस्या है। प्री-पैड पर लम्बी क़तार थी। वहाँ से रसीद कटवा कर फिर टैक्सी के इंतज़ार की क़तार में लगना पड़ेगा। मतलब एक घंटा कोलकाता की गर्मी में पसीने से नहाना होगा। मन को पानी से नहाने योग्य बना ही रहे थे। एक निजी टैक्सी बुकिंग काउंटर पर एक सुंदर बंगाली बाला लैपटॉप पर कुछ काम कर रही थी। पवन भाई ने उससे फैब होटल तक जाने के लिए टैक्सी बाबत पूछा। उसने झट से मना कर दिया। हमने भी प्रयास नहीं छोड़ा। उसने थोड़ी देर बाद कहा कि वह हमारे लिए टैक्सी का इंतज़ाम कर देगी। उसने बीस मिनट में एक टैक्सी की जुगाड़ कर दी। टैक्सी का किराया 275/- रुपये निर्धारित हुआ। उसके बाद नई समस्या इंतज़ार कर रही थी। फैब होटल दमदम इलाक़े में स्थित है। ड्राइवर इस इलाक़े में पहुँच एक घंटा घूमता रहा। उसे फैब होटल नहीं मिली। उसने गूगल का सहारा लिया। गूगल हमको घुमा फिरा कर एक जगह ले जाकर खड़ा कर देता कि आपका गंतव्य आ गया है। बहुत परेशान होने के बाद हमने गूगल पर फैब होटल का नाम डाल सर्च किया तो उस पर फैब का नंबर मिला। उस पर नंबर घुमाया तो पता चला कि वह कोई फैब ग्रुप है। जो होटल कमरा बुकिंग करते हैं। फैब ग्रुप प्रतिनिधि ने हमसे बुकिंग आईडी पूछा। तब बताया कि होटल कहाँ है। ड्राइवर ने होटल का पता समझ लिया। पता गूगल पर डाला। गूगल ने घुमा फिरा कर फिर उसी जगह खड़ा कर दिया जहाँ से टैक्सी दो बार निकल चुकी थी। वहाँ एक एजी होटल दिखा। उससे फैब होटल का पता पूछा तो उसने कहा- यही फैब एजी होटल है। वास्तविकता पता चली कि होटल का नाम एजी था जो फैब ग्रुप से संबद्ध था। हमने माथा फोड़ लिया और सामान उठा कर चलने को हुए तो टैक्सी ड्राइवर बोला- सर, 475/- रुपये किराया हुआ। उसे 500/- का नोट दिया तो वह, साहब छुट्टा नहीं है, कहकर चलता बना। हम कलकत्ता के दमदम इलाक़े में हैं। पुरानी बस्ती है। सड़क किनारे खुलेआम शराब का सेवन पूरे शबाब पर है। कोई रोकटोक नहीं दिख रही। ग्यारह बजे रात तक, जहाँ चाहो जैसे चाहो पिओ।      

होटल के कमरे में पहुँचे तो फिर माथा पीट लिया।   किसी औसत धर्मशाला जैसा कमरा दूसरी मंज़िल पर था। सोचा एसी चालू करवाकर कमर सीधी करके नहाना-धोना करेंगे। रात के खाने के लिए दही चावल और दाल का ऑर्डर दिया। कमरे में कोई टेलीफोन नहीं था। कॉल बेल भी नहीं बजती। नीचे रिसेप्शन पहुँच दरयाफ़्त करने पर ज्ञात हुआ कि एक मोबाइल नंबर है। उसी पर संपर्क साधा जा सकता है। कमरे में वापस आये तो पता चला कि एसी का रिमोट ख़राब है। जैसा चल रहा है, वैसा ही चलेगा। फिर माथा पीटा। कपड़े उतार हाथ पैर सीधे किए ही थे। तभी लाइट चली गई, एसी बंद हो गया। कोलकाता में अक्सर लाइट जाती है और दो-तीन घंटे में आती है। होटल  व्हीआईपी इलाक़ा में होने से एक घंटा में आने की संभावना है। बहुत मुश्किलों के बाद जनरेटर भाई की मेहरबानी से उजाले लायक़ लाइट मिल गई, परंतु एसी साहब की तरफ़ देखा तो वे हमारी नादानी पर मुस्कुरा रहे थे। ख़ैर साहब, ख़ाना निपटाया। अगले दिन की योजना बनाकर बारह बजे के आसपास सो गए ।            

अंग्रेजों के ज़माने से कोलकाता एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई है। जो वर्तमान में उत्तरी चौबीस परगना, दक्षिण चौबीस परगना और हावड़ा ज़िलों से घिरा है। इस जिले में पहले 24 छोटे-छोटे खंड थे, जिस कारण इस स्थान का नाम 24 परगना रखा गया था। 1956 ई. में इस जिले का गठन किया गया था। 1992 ई. में इस जिले को उत्तर तथा दक्षिण भागों में विभाजित कर दिया गया था। कोलकाता के बसने की भी एक कहानी है। गंगा सागर दक्षिणी 24 परगना ज़िले में स्थित है।

टूरिस्ट गाईड के हिसाब से कोलकाता का दमदम स्थित सुभाष चंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा गंगासागर से निकटतम हवाई अड्डा है। वहाँ से काकद्वीप जाने के लिए टैक्सी मिल जाएँगी। ट्रेन से जाने वालों के लिए सियालदाह से काकद्वीप क़रीब है। काकद्वीप से आपको काचुबेरिया के लिए फ़ेरी मिल जाएँगी।   काचुबेरिया से बत्तीस किलोमीटर बस, टैक्सी, ऑटो द्वारा सागर द्वीप के उस किनारे पहुँचा जा सकता है, जहाँ गंगा सागर तीर्थ स्थित है।

हम् कोलकाता पहुँच गए हैं और गंगासागर पहुँचना है तो कोलकाता से गंगासागर तक की सवारी काफी रोमांचक है। इस तरफ़ काकद्वीप है, उस तरफ़ काचुबेरिया है, बीच में बंगाल की खाड़ी का लहराता समुद्र है। हम टैक्सी बुक कर रहे हैं, जो हमें होटल से काकद्वीप तक ले जाएगी। टैक्सी से काकद्वीप तक जाएँगे, जो हुगली नदी के पूर्वी तट पर एक बड़ा तालुका है। वहाँ से नाव द्वारा मुरीगंगा नदी पार कर काचुबेरिया पहुँचेंगे। कचुबेरिया पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना जिले में स्थित है। इसमें डायमंड हार्बर और काकद्वीप के बीच चलने वाली मुख्य सड़क के दोनों ओर बिखरे हुए गांवों की एक श्रृंखला शामिल है। कुलपी गांव इस क्षेत्र का केंद्र है। पश्चिम में केवल एक मील की दूरी पर हुगली नदी है जो इस बिंदु पर चौड़ी हो रही है क्योंकि यह बंगाल की खाड़ी में बहने की तैयारी कर रही है। यहां की ज़मीन नीची और समतल है इसलिए मानसून के मौसम और चक्रवात के दौरान बाढ़ का पानी आने से  अतिसंवेदनशील है। काचुबेरिया से बस एक घंटे में गंगासागर ले जाती है।

*

15 जून 2023 को सबसे कठिन यात्रा पर जाना है। उबर टैक्सी बुक की। ड्राइवर का नाम मनोज साहा है। बंगाली साहा शब्द वही पुराना फ़ारसी शाह है। शाह शब्द की उत्पत्ति ईरान में हुई। वहाँ का आख़िरी राजा  शाह रज़ा पहलवी था। मुग़लों ने जब हिंदुस्तान में राजत्व ग्रहण किया तब उन्होंने ईरानी भाषा में राजा का पर्यायवाची “शाह” पदवी धारण की। कालांतर में उन्होंने कई राजपूत राजाओं को अधीन करके बादशाह अर्थात् महाराजा उपाधि धारण की जैसे अकबर बादशाह । मुग़ल काल के पतन के साथ कई महाजनों ने गुजरात में शाह उपनाम धारण करना आरम्भ किया, जैसे अमित शाह। अंग्रेजों के समय में कारोबारी पलायन पश्चिमी भारत से पूर्वी भारत की तरफ़ हुआ तो वे शाह ही अंग्रज़ों की राजधानी कलकत्ता में साहा हो गए। ड्राइवर के व्यक्तित्व में कोई भी गुजराती चिन्ह नहीं दिखते। वह हावभाव ख़ान पीन से पूरी तरह बंगाली हो चुका है। वह बहुत बातूनी है।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-१ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्येक शनिवार आप आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-१ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

(यात्रा जीवन की एकरसता से निजात दिलाकर कुछ रोमांच के क्षण के अवसर उपलब्ध कराती हैं, इसलिए हर किसी को सुहाती हैं। हरेक यात्रा पर्यटन नहीं होती। यात्रा ज़रूरी होती है लेकिन पर्यटन आवश्यक नहीं होता, एक शौक होता है। पहाड़ों और सागरों के पर्यटन के अलावा तीर्थाटन भी पर्यटन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। जिसमें आस्था का पुट भी शामिल होता है। हम पिताजी को चारों धाम यात्रा कराने के पूर्व एकाधिक बार तीर्थ यात्रा कर चुके थे। इस तरह प्रायः सभी प्रमुख तीर्थ स्थान देख चुके थे। अब उन तीर्थ स्थानों को पहुंचना था, जहाँ अब तक जाना न हुआ था।

तीर्थयात्रा में अक्सर आध्यात्मिक महत्व की खोज शामिल होती है। आम तौर पर, यह किसी व्यक्ति की मान्यताओं और आस्था के लिए किसी धार्मिक स्थान की यात्रा होती है, हालांकि कभी-कभी यह किसी व्यक्ति की अपनी मान्यताओं की कुतूहल पूर्वक एक प्रतीकात्मक यात्रा भी हो सकती है। हमारी यात्राएं इसी प्रकार की थीं।)

हमारे पिताजी दोस्तों के साथ 1965 में गंगा सागर तीर्थ भ्रमण करने गए थे। उस समय हमारा मस्ती भरा बचपन चल रहा था। हम जवानी की रौ में रहते थे। वे गंगा सागर घूम कर क्या आए। मन के सितार पर दिन के सारे पहर गंगा सागर राग छेड़े रहते। वे भी हमारे बाप थे, साथियों से डींग मारते बड़ी शान से कहा करते थे- सब तीरथ बार-बार गंगा सागर एक बार।

उनसे जब इसका अर्थ पूछते तो वे कहते थे कि गंगा सागर यात्रा बहुत कठिन है। जब उनको उत्तराखंड चार धाम ले गए तब बोले यार सुरेश ये तो गंगा सागर से भी कठिन है। टैक्सी यात्रा के दौरान वहाँ उनको बार-बार हिल सिकनेस होता था जिससे मितली आती थी। मितली आने से घबराहट भी होती थी। जब हम उनको साथ लेकर अमरनाथ यात्रा करने गए तब बोले यह तो चार धाम से भी कठिन है-

सब तीरथ बार-बार गंगा सागर एक बार,

गंगा सागर दस बार अमरनाथ एक बार।

एक बार बात-बात में पिताजी ने कहा था कि मेरी अस्थि प्रयाग के अलावा गंगा सागर भी ले जाना। यह उनकी भावनात्मक आस्था थी कि उनकी कुछ अस्थियाँ गंगा सागर में तिरोहित की जाएँ। पिताजी का स्वर्गारोहण हुए पाँच साल हो गए। हम अब तक गंगा सागर नहीं जा पाए थे। बात यह नहीं है कि उनकी आस्था का तार्किक आधार क्या है। असल बात है कि उन्हें औलाद से यह अपेक्षा थी। हमने उनके दाह संस्कार के दौरान उनका एक अस्थि अंश सुरक्षित कर रखा था। मन में एक टीस थी। क्या पिताजी की एक आस्थागत इच्छा पूरी नहीं की जा सकती है। गंगा सागर जाने के बारे में एक दो बार सोचा, परंतु कुछ बात बनी नहीं। हमारे मन में वहाँ जाने की बड़ी उत्कंठा थी।

सुबह की सैर पर बहुत से जान पहचान के लोग मिलते रहते हैं। मई 2023 की 07 तारीख़ को सुबह की सैर पर सरकारी प्रशासकीय सेवा से निवृत्त पवन राय मिले। उन्होंने कहा- कहीं घूमने चलते हैं आपके साथ। पहले बात चली कि काशी चलते हैं। लेकिन गर्मी में काशी घूमने का मज़ा नहीं है। वहाँ सावन के महीने में बहार का मौसम होता है, तब वहाँ चलना उपयुक्त होगा। अभी तुरंत चलना है तो कहीं समुद्र के किनारे पर लहरों से खेलने का कार्यक्रम बनाया जाय। हमारी बातचीत की सुई गोवा के समुद्री तटों से होते हुए बंगाल की खाड़ी में गंगा के मुहाने पर आबाद गंगा सागर पर टिक गई। घर पहुँच कर परिवार से चर्चा में यह तय हो गया कि गंगा सागर भ्रमण को जाना चाहिए। पवन भाई को फ़ोन घुमा कर कहा कि भोपाल से कोलकाता का सेकंड एसी का किराया 5,000/- और हवाई उड़ान का 6,000/- है। बातचीत के बाद हवाई जहाज़ पर टिकट की जानकारी लेकर मात्र 6,000/- रुपये प्रति व्यक्ति खर्चे कर भोपाल से कोलकाता वाया हैदराबाद हवाई टिकट बुक कर दीं। इसी दर से वापसी टिकट भी वाया दिल्ली मिल गई।

अब बारी थी, गंगा सागर में तीन दिन रुकने के लिए उपयुक्त होटल। वेस्ट बंगाल टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन की होटल सर्च करके मैनेजर से संपर्क साधने पर पता चला कि कमरा एडवांस बुकिंग पर ही मिलता है। दो दिन का एडवांस किराया 6,000/- रुपये गूगल-पे से भुगतान करके एक वातानुकूलित कमरा बुक कर लिया। अगली बारी कोलकाता एयरपोर्ट से गंगासागर तक तीन दिन के पैकेज पर एक बढ़िया टैक्सी बुक करनी थी। पता चला कि 3,000/- प्रतिदिन के हिसाब से तीन दिन के 9,000/- लगेंगे। यह तय हुआ कि जिस रात नौ बजे कोलकाता एयरपोर्ट पहुँच रहे हैं। वहीं लाउंज पर क्रेडिट कार्ड पर प्राप्त मुफ़्त लाउंज और भोजन की सुविधा का लाभ उठाया जाये। टैक्सी बुकिंग वहीं पहुँच कर देखेंगे। 

एक सहज कौतूहल ने दिमाग़ में खलबली सी मचानी शुरू कर दी कि भैया पिताजी गंगा सागर के इतने दीवाने क्यों थे ? खोजबीन आरम्भ की तो पता चला कि गंगा सागर कोलकाता से 140-150 कि.मी. दूरी पर हिन्दुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल बंगाल की खाड़ी में सुंदरबन डेल्टा पर स्थित एक द्वीप है। यह अपनी भौगोलिक विशेषता से ज़्यादा अपनी धार्मिक विशेषता के लिए जाना जाता है। अब यह सुंदरबन डेल्टा क्या बला है ?

सुंदरबन भारत तथा बांग्लादेश में स्थित विश्व का सबसे बड़ा नदी डेल्टा है। भारत और बांग्लादेश में फैले बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर स्थित कई द्वीपों के समूह से सुंदरबन बनता है। यह गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों के समुद्र मिलन पर स्थित है। इसके अलावा यहाँ पर देवा, केवड़ा, तर्मजा, आमलोपी और गोरान वृक्षों की ऐसी प्रजातियाँ हैं, जो सिर्फ़  सुंदरबन में पाई जाती हैं। यहाँ के वनों की एक ख़ास बात यह है कि यहाँ वही पेड़ पनपते या बच सकते हैं, जो मीठे और खारे पानी के मिश्रण में रह सकते हों। यह डेल्टा धीरे-धीरे सागर की ओर बढ़ रहा है। कुछ समय पहले कोलकाता सागर तट पर ही स्थित था और सागर का विस्तार राजमहल तथा सिलहट तक था, परन्तु अब यह तट से 24-32 किलोमीटर दूर स्थित लगभग 1,80,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यहाँ बड़ी तादाद में सुंदरी पेड़ मिलते हैं जिनके नाम पर ही इन वनों का नाम सुंदरवन पड़ा परंतु वन को बंगाली में बन कहते हैं इसलिए सुंदरवन हो गया सुंदरबन।

मन सुंदरबन की सुंदरता को लालायित हो उठा। गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदी से मिलकर दुनिया का सबसे बड़ा मुहाना अर्थात् डेल्टा बनाता है। जिसके आधे हिस्से पर बांग्लादेश और आधे पर भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के परगने बसे हैं। सघन वन और सतत बारिश की बूँदों से सिंचित दलदली ज़मीन का हरीतिमा से ढँका हिस्सा सुंदरबन है। यहाँ कोबरा बहुतायत से पाए हैं।

हवाई जहाज़ की टिकट और गंगा सागर में होटल कमरा बुक हो गया। और तो और सौम्या ने भोपाल-हैदराबाद-कोलकाता उड़ान हेतु वेब चेक-इन भी कर दिया। लेकिन एक दिन पहले एक नई दिक़्क़त सामने आ खड़ी हुई। यात्रा की पूर्व संध्या को डॉक्टर मीनू पांडेय “नयन” की पहल पर श्री अर्जुन प्रसाद तिवारी अस्मी जी पुस्तक “मुस्कान के प्रतिबंध” के लोकार्पण कार्यक्रम का संचालन दायित्व लिया हुआ था। कार्यक्रम स्थल दुष्यंत सभागार जाते समय लू लग गई। एक मन हुआ कि भाई आयोजकों से अनुमति लेकर घर पहुँच आराम किया जाय। परंतु फिर विचार आया कि इस कार्यक्रम का क्या होगा ? लिहाज़ा ठंडे पानी की बोतल बुलवाईं और पानी पी-पीकर तीन घंटे का कार्यक्रम संचालित किया। उसके बाद स्थिति ख़राब होना शुरू हुई। कार से घर पहुँचे। तब तक अच्छा ख़ासा एक सौ एक डिग्री बुख़ार चढ़ चुका था। दही-चावल का भोजन किया एक गोली काम्बीफ़्लेम की ली और सोने का उपक्रम करने लगे। घर वाले हमारे कल कोलकाता यात्रा को लेकर बहुत परेशान होने लगे। उन्होंने दबाव बनाना आरंभ किया कि टिकट निरस्त करवा ली जाय। हमने किसी तरह उन्हें समझाया कि हमारी स्थिति ठीक नहीं होगी तो हम कदापि नहीं जाएँगे। लेकिन गंगा सागर के इशारे अरमानों को हवा दे रहे थे। यात्रा के दिन सुबह हमारे डॉक्टर अभिषेक मिश्रा और डॉक्टर संजय पाटकार से सलाह मशविरा किया। उन्होंने कहा कि दिन में दो बार काम्बीफ़्लेम टेबलेट लेते जाओ। सौम्या ने एक बड़ी बोतल में शक्कर-नमक का घोल भर कर रख दिया। चार केले बैग में रख लिए और यात्रा पर निकल लिए। आप यदि घुमंतू तबियत के हैं तो आपकी यात्रा में इस तरह की दिक़्क़तें पेश होतीही  हैं। आपका शरीर साथ दे रहा है तो डॉक्टर की सलाह से यात्रा में आते व्यवधान से मुक्त हुआ जा सकता है। इस तरह की स्थितियों से निपटने के लिए एक और चीज महत्वपूर्ण है, आपकी इच्छाशक्ति।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२७ (अंतिम किश्त) ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है  इस यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा की अंतिम कड़ी। अगले सप्ताह से आप श्री गंगा सागर यात्रा के संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। )

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२७ (अंतिम किश्त) ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बादामी गुफा मन्दिर बागलकोट ज़िले के बादामी ऐतिहासिक नगर में स्थित एक हिन्दू और जैन गुफा मन्दिरों का एक परिसर है। मालप्रभा घाटी में चालुक्यों के शासन काल में बने हिंदू और जैन मंदिर वास्तुकला स्कूलों का उद्गम स्थल कला के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में बादामी उभरा। द्रविड़ और नागर दोनों शैलियों के मंदिर बादामी के साथ-साथ ऐहोल, पट्टदकल और महाकुटा में हैं। बादामी में कई मंदिर, जैसे पूर्वी भूतनाथ समूह और जम्बुलिंगेश्वर मंदिर, 6वीं और 8वीं शताब्दी के बीच बनाए गए थे। वे मंदिर वास्तुकला और कला के विकास के साथ-साथ पहली सहस्राब्दी ईस्वी के मध्य में कला की कर्नाटक परंपरा को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

बादामी और मालप्रभा क्षेत्र के अन्य स्थलों पर विजयनगर साम्राज्य के हिंदू राजाओं और दक्कन क्षेत्र के इस्लामी सुल्तानों के बीच लड़ाई हुई थी। विजयनगर काल के बाद आए मुस्लिम शासन ने इस विरासत को और समृद्ध किया। इसकी पुष्टि यहां के दो स्मारकों से होती है। एक गुफा मंदिरों और संरचनात्मक मंदिरों के प्रवेश द्वार के पास मरकज जुम्मा है। इसमें अब्दुल मलिक अजीज की 18वीं सदी की कब्र है। उसी के बगल से होकर निकले।

बादामी में अठारह शिलालेख हैं, जिनमें महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी है। एक पहाड़ी पर पुरानी कन्नड़ लिपि में पहला संस्कृत शिलालेख पुलकेशिन प्रथम (वल्लभेश्वर) के काल का 543 ई.पू. का है, दूसरा कन्नड़ भाषा और लिपि में मंगलेश का 578 ई.पू. का गुफा शिलालेख है और तीसरा कप्पे अरभट्ट है। अभिलेख, त्रिपदी (तीन पंक्ति) मीटर में सबसे प्रारंभिक उपलब्ध कन्नड़ कविता। भूतनाथ मंदिर के पास एक शिलालेख में तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित जैन रॉक-कट मंदिर में 12 वीं शताब्दी के शिलालेख भी हैं।

बादामी गुफा मंदिरों को संभवतः 6वीं शताब्दी के अंत तक पूरी तरह से अंदर से चित्रित किया गया था। गुफा 3 (वैष्णव, हिंदू) और गुफा 4 (जैन) में पाए गए भित्तिचित्र टुकड़े, बैंड और फीके खंडों को छोड़कर, इनमें से अधिकांश पेंटिंग अब खो गई हैं। मूल भित्तिचित्र सबसे स्पष्ट रूप से गुफा 3 में पाए जाते हैं, जहां विष्णु मंदिर के अंदर, धर्मनिरपेक्ष कला के चित्रों के साथ-साथ भित्तिचित्र भी हैं जो छत पर और प्राकृतिक तत्वों के कम संपर्क वाले हिस्सों में शिव और पार्वती की किंवदंतियों को दर्शाते हैं। ये भारत में हिंदू किंवदंतियों की सबसे पुरानी ज्ञात पेंटिंगों में से हैं, जिन्हें दिनांकित किया जा सकता है।

यह भारतीय शैलकर्तित वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें विशेषकर बादामी चालुक्य वास्तुकला देखी जा सकती है। इस परिसर का निर्माण छठी शताब्दी में आरम्भ हुआ था। बादामी नगर का प्राचीन नाम “वातापी” था, और यह आरम्भिक चालुक्य राजवंश की राजधानी था, जिसने 6ठी से 8वीं शताब्दी तक कर्नाटक के अधिकांश भागों पर राज्य किया। बादामी गुफा मन्दिर दक्कन पठार के प्राचीनतम मन्दिरों में से हैं। इनके और एहोल के मन्दिरों के निर्माण से मलप्रभा नदी के घाटी क्षेत्र में मन्दिर वास्तुकला तेज़ी से विकसित होने लगी, और इसने आगे जाकर भारत-भर के हिन्दू मन्दिर निर्माण को प्रभावित किया।

यह नगर अगस्त्य झील के पश्चिमी तट पर स्थित है, जो एक मानवकृत जलाशय है। झील एक मिट्टी की दीवार से घिरी है, जिस से पत्थर की सीढ़ीयाँ जल तक जाती हैं। झील उत्तर और दक्षिण में बाद के काल में बने दुर्गों से घिरी हुई है। शहर के दक्षिण-पूर्व में नरम बादामी बलुआ पत्थर से बनी गुफाओं की संख्या 1 से 4 तक है।

  • गुफा न. 1 में, हिंदू देवी-देवताओं और प्रसंगों की विभिन्न मूर्तियों के बीच, नटराज के रूप में तांडव-नृत्य करने वाले शिव की एक प्रमुख नक्काशी है।
  • गुफा न. 2 ज्यादातर अपने अभिन्यास और आयामों के संदर्भ में गुफा न. 1 के समान है, जिसमें हिंदू प्रसंगों की विशेषता है, जिसमें विष्णु की त्रिविक्रम के रूप में उभड़ी हुई नक्काशी सबसे बड़ी है।
  • गुफा न. 3 सबसे बड़ी है, जिसमें विष्णु से संबंधित पौराणिक कथाएं बनाई गई हैं, और यह परिसर में सबसे जटिल नक्काशीदार गुफा भी है।
  • गुफा न. 4 जैन धर्म के प्रतिष्ठित लोगों को समर्पित है। झील के चारों ओर, बादामी में अतिरिक्त गुफाएँ हैं जिनमें से एक बौद्ध गुफा हो सकती है। 2015 में चार मुख्य गुफाओं में 27 नक्काशियों के साथ एक अन्य गुफा की खोज हुई है।

पट्टदकल्लु (Pattadakal), जिसे रक्तपुर कहा जाता था, बागलकोट ज़िले में मलप्रभा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक गाँव है, जो अपने यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ चालुक्य राजवंश द्वारा 7वीं और 8वीं शताब्दी में बने नौ हिन्दू और एक जैन मन्दिर हैं, जिनमें द्रविड़ (दक्षिण भारतीय) तथा नागर (उत्तर भारतीय ) दोनों शैलियाँ विकसित हुई थीं। पट्टदकल्लु बादामी से 23 किमी और एहोल से 11 किमी दूर है।

यदी बादामी को महाविद्यालय तो पट्टदकल्लु को मन्दिर निर्माण का विश्वविद्यालय कहा जाता है। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन 24 किमी बादामी है। इस शहर को कभी किसुवोलल या रक्तपुर कहा जाता था, क्योंकि यहाँ का बलुआ पत्थर लाल आभा लिए हुए है।

चालुक्य शैली का उद्भव 450 ई. में एहोल में हुआ था। यहाँ वास्तुकारों ने नागर एवं द्रविड़ समेत विभिन्न शैलियों के प्रयोग किए थे। इन शैलियों के संगम से एक अभिन्न शैली का उद्भव हुआ। सातवीं शताब्दी के मध्य में यहां चालुक्य राजाओं के राजतिलक होते थे। कालांतर में मंदिर निर्माण का स्थल बादामी से पट्टदकल्लु आ गया। यहाँ कुल दस मंदिर हैं, जिनमें एक जैन धर्मशाला भी शामिल है। इन्हें घेरे हुए ढेरों चैत्य, पूजा स्थल एवं कई अपूर्ण आधारशिलाएं हैं। यहाँ चार मंदिर द्रविड़ शैली के हैं, चार नागर शैली के हैं एवं पापनाथ मंदिर मिश्रित शैली का है। पट्टदकल्लु को 1987 में युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।

यहां के बहुत से शिल्प अवशेष यहां बने संग्रहालय तथा शिल्प दीर्घा में सुरक्षित रखे हैं। इन संग्रहालयों का अनुरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। ये भूतनाथ मंदिर मार्ग पर स्थित हैं। इनके अलावा अन्य महत्वपूर्ण स्मारकों में, अखण्ड एकाश्म स्तंभ, नागनाथ मंदिर, चंद्रशेखर मंदिर एवं महाकुटेश्वर मंदिर भी हैं, जिनमें अनेकों शिलालेख हैं। वर्ष के आरंभिक त्रैमास में यहां का वार्षिक नृत्योत्सव आयोजन होता है, जिसे चालुक्य उत्सव कहते हैं। इस उत्सव का आयोजन पट्टदकल्लु के अलावा बादामी एवं ऐहोल में भी होता है। यह त्रिदिवसीय संगीत एवं नृत्य का संगम कलाप्रेमियों की भीड़ जुटाता है। उत्सव के मंच की पृष्ठभूमि में मंदिर के दृश्य एवं जाने माने कलाकार इन दिनों यहां के इतिहास को जीवंत कर देते हैं।

बादामी से हुबली एयरपोर्ट 125 किलोमीटर है। 02 अक्टूबर 2023 को दोपहर तीन बजे फ्लाइट है। सुबह नाश्ता निपटा कर नौ बजे निकलना है। होटल के गेट के सामने रंगीन फूलों से गजरों की दुकानें थीं। हमारे दल की महिलाओं ने गजरे ख़रीद धारण कर लिए। बस में बैठ चल दिए। बारह बजे तक हुबली हवाई अड्डा पहुंच गए। हमारी फ्लाइट दिल्ली होकर भोपाल थी। फ्लाइट हुबली से 03:45 दोपहर को चलकर 06:15 शाम को दिल्ली एयरपोर्ट पहुंची। दिल्ली में हवाई अड्डा बदलना पड़ा। करीब दो किलोमीटर पैदल चलकर एक निशुल्क बस में बैठकर घरेलू हवाई अड्डा पहुंचे। भोपाल की फ्लाइट शाम साढ़े सात बजे थे। नौ बजे भोपाल में थे। इस प्रकार डॉक्टर राजेश श्रीवास्तव जी के नेतृत्व और उनकी टीम के सानिध्य में बिना किसी दुर्घटना के सभी यात्रियों की सकुशल घर वापसी हुई।

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२६ —- अंतिम किश्त ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है इस यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा की अंतिम कड़ी)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२६ —- अंतिम किश्त ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बादामी गुफा मन्दिर बागलकोट ज़िले के बादामी ऐतिहासिक नगर में स्थित एक हिन्दू और जैन गुफा मन्दिरों का एक परिसर है। मालप्रभा घाटी में चालुक्यों के शासन काल में बने हिंदू और जैन मंदिर वास्तुकला स्कूलों का उद्गम स्थल कला के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में बादामी उभरा। द्रविड़ और नागर दोनों शैलियों के मंदिर बादामी के साथ-साथ ऐहोल, पट्टदकल और महाकुटा में हैं। बादामी में कई मंदिर, जैसे पूर्वी भूतनाथ समूह और जम्बुलिंगेश्वर मंदिर, 6वीं और 8वीं शताब्दी के बीच बनाए गए थे। वे मंदिर वास्तुकला और कला के विकास के साथ-साथ पहली सहस्राब्दी ईस्वी के मध्य में कला की कर्नाटक परंपरा को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

बादामी और मालप्रभा क्षेत्र के अन्य स्थलों पर विजयनगर साम्राज्य के हिंदू राजाओं और दक्कन क्षेत्र के इस्लामी सुल्तानों के बीच लड़ाई हुई थी। विजयनगर काल के बाद आए मुस्लिम शासन ने इस विरासत को और समृद्ध किया। इसकी पुष्टि यहां के दो स्मारकों से होती है। एक गुफा मंदिरों और संरचनात्मक मंदिरों के प्रवेश द्वार के पास मरकज जुम्मा है। इसमें अब्दुल मलिक अजीज की 18वीं सदी की कब्र है। उसी के बगल से होकर निकले।

बादामी में अठारह शिलालेख हैं, जिनमें महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी है। एक पहाड़ी पर पुरानी कन्नड़ लिपि में पहला संस्कृत शिलालेख पुलकेशिन प्रथम (वल्लभेश्वर) के काल का 543 ई.पू. का है, दूसरा कन्नड़ भाषा और लिपि में मंगलेश का 578 ई.पू. का गुफा शिलालेख है और तीसरा कप्पे अरभट्ट है। अभिलेख, त्रिपदी (तीन पंक्ति) मीटर में सबसे प्रारंभिक उपलब्ध कन्नड़ कविता। भूतनाथ मंदिर के पास एक शिलालेख में तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित जैन रॉक-कट मंदिर में 12 वीं शताब्दी के शिलालेख भी हैं।

बादामी गुफा मंदिरों को संभवतः 6वीं शताब्दी के अंत तक पूरी तरह से अंदर से चित्रित किया गया था। गुफा 3 (वैष्णव, हिंदू) और गुफा 4 (जैन) में पाए गए भित्तिचित्र टुकड़े, बैंड और फीके खंडों को छोड़कर, इनमें से अधिकांश पेंटिंग अब खो गई हैं। मूल भित्तिचित्र सबसे स्पष्ट रूप से गुफा 3 में पाए जाते हैं, जहां विष्णु मंदिर के अंदर, धर्मनिरपेक्ष कला के चित्रों के साथ-साथ भित्तिचित्र भी हैं जो छत पर और प्राकृतिक तत्वों के कम संपर्क वाले हिस्सों में शिव और पार्वती की किंवदंतियों को दर्शाते हैं। ये भारत में हिंदू किंवदंतियों की सबसे पुरानी ज्ञात पेंटिंगों में से हैं, जिन्हें दिनांकित किया जा सकता है।

यह भारतीय शैलकर्तित वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें विशेषकर बादामी चालुक्य वास्तुकला देखी जा सकती है। इस परिसर का निर्माण छठी शताब्दी में आरम्भ हुआ था। बादामी नगर का प्राचीन नाम “वातापी” था, और यह आरम्भिक चालुक्य राजवंश की राजधानी था, जिसने 6ठी से 8वीं शताब्दी तक कर्नाटक के अधिकांश भागों पर राज्य किया। बादामी गुफा मन्दिर दक्कन पठार के प्राचीनतम मन्दिरों में से हैं। इनके और एहोल के मन्दिरों के निर्माण से मलप्रभा नदी के घाटी क्षेत्र में मन्दिर वास्तुकला तेज़ी से विकसित होने लगी, और इसने आगे जाकर भारत-भर के हिन्दू मन्दिर निर्माण को प्रभावित किया।

यह नगर अगस्त्य झील के पश्चिमी तट पर स्थित है, जो एक मानवकृत जलाशय है। झील एक मिट्टी की दीवार से घिरी है, जिस से पत्थर की सीढ़ीयाँ जल तक जाती हैं। झील उत्तर और दक्षिण में बाद के काल में बने दुर्गों से घिरी हुई है। शहर के दक्षिण-पूर्व में नरम बादामी बलुआ पत्थर से बनी गुफाओं की संख्या 1 से 4 तक है।

  • गुफा न. 1 में, हिंदू देवी-देवताओं और प्रसंगों की विभिन्न मूर्तियों के बीच, नटराज के रूप में तांडव-नृत्य करने वाले शिव की एक प्रमुख नक्काशी है।
  • गुफा न. 2 ज्यादातर अपने अभिन्यास और आयामों के संदर्भ में गुफा न. 1 के समान है, जिसमें हिंदू प्रसंगों की विशेषता है, जिसमें विष्णु की त्रिविक्रम के रूप में उभड़ी हुई नक्काशी सबसे बड़ी है।
  • गुफा न. 3 सबसे बड़ी है, जिसमें विष्णु से संबंधित पौराणिक कथाएं बनाई गई हैं, और यह परिसर में सबसे जटिल नक्काशीदार गुफा भी है।
  • गुफा न. 4 जैन धर्म के प्रतिष्ठित लोगों को समर्पित है। झील के चारों ओर, बादामी में अतिरिक्त गुफाएँ हैं जिनमें से एक बौद्ध गुफा हो सकती है। 2015 में चार मुख्य गुफाओं में 27 नक्काशियों के साथ एक अन्य गुफा की खोज हुई है।

पट्टदकल्लु (Pattadakal), जिसे रक्तपुर कहा जाता था, बागलकोट ज़िले में मलप्रभा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक गाँव है, जो अपने यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ चालुक्य राजवंश द्वारा 7वीं और 8वीं शताब्दी में बने नौ हिन्दू और एक जैन मन्दिर हैं, जिनमें द्रविड़ (दक्षिण भारतीय) तथा नागर (उत्तर भारतीय ) दोनों शैलियाँ विकसित हुई थीं। पट्टदकल्लु बादामी से 23 किमी और एहोल से 11 किमी दूर है।

यदी बादामी को महाविद्यालय तो पट्टदकल्लु को मन्दिर निर्माण का विश्वविद्यालय कहा जाता है। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन 24 किमी बादामी है। इस शहर को कभी किसुवोलल या रक्तपुर कहा जाता था, क्योंकि यहाँ का बलुआ पत्थर लाल आभा लिए हुए है।

चालुक्य शैली का उद्भव 450 ई. में एहोल में हुआ था। यहाँ वास्तुकारों ने नागर एवं द्रविड़ समेत विभिन्न शैलियों के प्रयोग किए थे। इन शैलियों के संगम से एक अभिन्न शैली का उद्भव हुआ। सातवीं शताब्दी के मध्य में यहां चालुक्य राजाओं के राजतिलक होते थे। कालांतर में मंदिर निर्माण का स्थल बादामी से पट्टदकल्लु आ गया। यहाँ कुल दस मंदिर हैं, जिनमें एक जैन धर्मशाला भी शामिल है। इन्हें घेरे हुए ढेरों चैत्य, पूजा स्थल एवं कई अपूर्ण आधारशिलाएं हैं। यहाँ चार मंदिर द्रविड़ शैली के हैं, चार नागर शैली के हैं एवं पापनाथ मंदिर मिश्रित शैली का है। पट्टदकल्लु को 1987 में युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।

यहां के बहुत से शिल्प अवशेष यहां बने संग्रहालय तथा शिल्प दीर्घा में सुरक्षित रखे हैं। इन संग्रहालयों का अनुरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। ये भूतनाथ मंदिर मार्ग पर स्थित हैं। इनके अलावा अन्य महत्वपूर्ण स्मारकों में, अखण्ड एकाश्म स्तंभ, नागनाथ मंदिर, चंद्रशेखर मंदिर एवं महाकुटेश्वर मंदिर भी हैं, जिनमें अनेकों शिलालेख हैं। वर्ष के आरंभिक त्रैमास में यहां का वार्षिक नृत्योत्सव आयोजन होता है, जिसे चालुक्य उत्सव कहते हैं। इस उत्सव का आयोजन पट्टदकल्लु के अलावा बादामी एवं ऐहोल में भी होता है। यह त्रिदिवसीय संगीत एवं नृत्य का संगम कलाप्रेमियों की भीड़ जुटाता है। उत्सव के मंच की पृष्ठभूमि में मंदिर के दृश्य एवं जाने माने कलाकार इन दिनों यहां के इतिहास को जीवंत कर देते हैं।

बादामी से हुबली एयरपोर्ट 125 किलोमीटर है। 02 अक्टूबर 2023 को दोपहर तीन बजे फ्लाइट है। सुबह नाश्ता निपटा कर नौ बजे निकलना है। होटल के गेट के सामने रंगीन फूलों से गजरों की दुकानें थीं। हमारे दल की महिलाओं ने गजरे ख़रीद धारण कर लिए। बस में बैठ चल दिए। बारह बजे तक हुबली हवाई अड्डा पहुंच गए। हमारी फ्लाइट दिल्ली होकर भोपाल थी। फ्लाइट हुबली से 03:45 दोपहर को चलकर 06:15 शाम को दिल्ली एयरपोर्ट पहुंची। दिल्ली में हवाई अड्डा बदलना पड़ा। करीब दो किलोमीटर पैदल चलकर एक निशुल्क बस में बैठकर घरेलू हवाई अड्डा पहुंचे। भोपाल की फ्लाइट शाम साढ़े सात बजे थे। नौ बजे भोपाल में थे। इस प्रकार डॉक्टर राजेश श्रीवास्तव जी के नेतृत्व और उनकी टीम के सानिध्य में बिना किसी दुर्घटना के सभी यात्रियों की सकुशल घर वापसी हुई।

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© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – मी प्रवासीनी ☆ सुखद सफर अंदमानची…नैसर्गिक पूल – भाग – ७ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

? मी प्रवासीनी ?

☆ सुखद सफर अंदमानची… नैसर्गिक पूल –  भाग – ७ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

मानवनिर्मित अनेक पूल आपण पाहतो. ते स्थापत्य शास्र बघून अचंबित होतो. कोकणात किंवा काही खेड्यात ओढ्यावर, लहान नद्यांवर गावकऱ्यांनी बांधलेले साकव आपल्याला चकीत करतात. असाच एक अनोखा पूल आपल्या पावलांना खिळवून ठेवतो.

हा नैसर्गिकरीत्या तयार झालेला पूल आहे, नील बेटावर. अर्थात शहीद द्वीप येथे. भरतपूर किनाऱ्यावर प्रवाळ खडकांचा बनला आहे. किनाऱ्यावर केवड्याच्या झाडांसारख्या वनस्पतींची दाट बने आहेत. काही पायऱ्या चढून जावं लागतं. नंतर पुन्हा काही पायऱ्या आणि काही वेडीवाकडी, खडकाळ पायवाट उतरून जावं लागतं. पण एवढे श्रम सार्थकी लागतात असं दृश्य समोर असतं. निळा, शांत समुद्र. खडकाळ किनारा. किनाऱ्यावर दाट हिरवी बेटं. आणखी थोडंसं खडकाळ किनाऱ्यावरुन, तोल सावरत, उड्या मारत गेलं की हा नैसर्गिक पूल आपलं स्वागत करतो. पाणी जाऊन जाऊन खडकाची झीज होऊन खडकात पोकळी तयार झाली आहे. या कमानीतले काही महाकाय खडकांचे अवशेष हा पूर्वी एक मोठा विशाल खडक असल्याचा पुरावा देतात. या कमानीच्या खालून मात्र आपण सहज जाऊ शकत नाही. या उरलेल्या खडकांवर चढून वर जायचं, आणि पुन्हा उतरायचं. मगच या पुलापलिकडील दुनिया नजरेत भरते. पाण्यामुळं शेवाळ झालंय. निसरडं आहे. पण हे धाडस केले तर समाधान आहे. तुम्हाला शक्य नसल्यास पुलाच्या पलिकडून जो खडकाळ किनारा आहे त्यावरून ही तुम्ही पलिकडे जाऊ शकता. या कमानीत फोटोप्रेमींची गर्दी होते.

एकूणच या खडकाळ किनाऱ्यावर चालणं हे एक आव्हान आहे. आमच्या सोबत काही पंचाहत्तरीचे तरुण तरुणी होते. ते देखील या किनाऱ्यावर आले. त्यांच्याकडं बघून मी मध्येच कधीतरी माझ्या नवरोजीचा आधार घेत होते याची लाज वाटत होती.

या दगडांत अध्ये मध्ये पाणी साठलं आहे. या पाण्यात अनेक सागरी प्राणी दर्शन देतात. नेहमीप्रमाणे शंख शिंपले तर आहेतच. अनेक प्रकारचे मासे, शेवाळ, खेकडे यांची रेलचेल आहे इथं. हिरव्या पाठीची समुद्र कासवं इथं बघायला मिळतात. या खडकाळ किनाऱ्यावर असणाऱ्या डबक्यांपाशी थांबून कितीतरी मजेशीर गोष्टींचं निरीक्षण करता येतं. फोटोग्राफी करणाऱ्यांना वेगळे फोटो मिळतात. आमच्या टूर गाईडनं सांगितलं की या खडकांभोवती विळखे घालून मोठमोठाले साप सुद्धा असतात. हे विषारी असतात. आम्हाला दिसले तरी नाहीत. विश्वास ठेवायलाच हवा होता कारण, त्याच्याच मोबाईलवर त्यानं स्वतः घेतलेला फोटो दाखवला. असेलही. त्या शांत, खडकांमध्ये समुद्रसाप वस्तीला येतही असतील. खडकांची झीज होऊन तयार झालेला हा पूल पूर्वी हावडा पूल म्हणून ओळखला जाई. येथे बंगाली लोकांची वस्ती आहे. म्हणून असेल. याला रविंद्रनाथ सेतू असेही नाव कुणी दिलंय असं कळलं.

अंदमान मध्ये शेती फारशी केली जात नाही. बहुतेक सगळं अन्न धान्य, फळं भाज्या कलकत्त्याहून येतात. पण हिंदी महासागरातल्या या शहीद द्वीपवर पालक, टोमॅटो सारख्या काही भाज्या घेतल्या जातात. शहाळी मात्र भरपूर मिळतात. नैसर्गिक पूल बघण्यासाठी केलेले श्रम नारळाच्या थंडगार, मधुर पाण्यानं विसरले जातात.

शहीद बेटावरील लक्ष्मणपूर किनारा सुर्यास्त बघण्यासाठी प्रसिद्ध आहे. हा किनारा मऊ, पांढरी शाल ओढून बसला आहे. शांत किनारा, तितकाच शांत शीतल निळा समुद्र. आणि निळ्या आकाशात लांबवर चाललेली रंगपंचमी. केशरी, पिवळी लाल, गुलाबी, जांभळे रंग धारण करणारा ते नीळाकाश. त्याच्या बदलत्या छटा बघत शांत बसून रहावं. स्वतः बरोबर निळ्या खोलीचाही रंग बदलवणाऱ्या जादुई संध्येला अभिवादन करावं. आणि मग नि:शब्द पायांनी परतावं. हो, पण, पाण्यात बुडणारा सूर्य बघायला मिळेल असं नाही. कारण इथलं अनिश्चित हवामान. दुपारपासून तापलेलं आकाश अचानक कुठुनतरी आलेल्या काळ्या ढगांनी झाकोळतं. मग संध्येला भेटायला केशरी पाण्यात शिरणारं ते बिंब शामल ढगा़आड दडताना बघावं लागतं.

– समाप्त –

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

deepapujari57@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२५ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२५ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

01 अक्टूबर 2023 को हमारे दल की वापिसी यात्रा शुरू हुई। हमको एहोल और बादामी गुफाओं के दर्शन करके बादामी स्थित आनंदनगर की एक होटल में एक रात गुज़ारना थी। ताकि अगले दिन हुबली एयरपोर्ट से सुबह की दिल्ली फ्लाइट पकड़ी जा सके। दिल्ली एयरपोर्ट पर रात्रि विश्राम करके शाम को भोपाल फ्लाइट पकड़नी थी। हम लोग हुबली आते समय सीधे कोप्पल के रास्ते से से हॉस्पेट पहुँचे थे। वापिसी में हंगुण्ड हुए एहोल पहुंचना था। होटल से नाश्ता करके चले।

साथियों को बताया कि कार्बन डेटिंग पद्धति से यह पता चला है कि दक्षिण भारत में ईसा पूर्व 8000 से मानव बस्तियाँ रही हैं। लगभग 1000 ईसा पूर्व से लौह युग का सूत्रपात हुआ। मालाबार और तमिल लोग प्राचीन काल में यूनान और रोम से व्यापार किया करते थे। वे रोम, यूनान, चीन, अरब, यहूदी आदि लोगों के सम्पर्क में थे। प्राचीन दक्षिण भारत में विभिन्न समयों तथा क्षेत्रों में विभिन्न शासकों तथा राजवंशों ने राज किया। सातवाहन, चेर, चोल, पांड्य, चालुक्य, पल्लव, होयसल, राष्ट्रकूट आदि ऐसे ही कुछ राजवंश थे। इनमें से चालुक्य राजाओं के शासन के दौरान भूतनाथ गुफाओं में प्रश्तर मूर्तियों का निर्माण हुआ।

अब यात्रा उत्तर दिशा में कोल्हापुर जाने वाली सड़क पर शुरू होनी है। हॉस्पेट से दस किलोमीटर चले थे और तुंगभद्रा नदी पर बना बांध दिखने लगा। दूर से ही दर्शन करके आगे बढ़ गए। करीब 100 किलोमीटर चलकर हंगुण्ड पहुँचे। तब तक लंच का समय हो  चुका था।

हंगुण्ड के होटल मयूर यात्री निवास रेस्टोरेंट में दोपहर का भोजन निपटा कर प्रसिद्ध ऐहोल शिलालेख देखा।

यह रविकीर्ति का ऐहोल शिलालेख है, जिसे कभी-कभी पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल शिलालेख भी कहा जाता है। यह शिलालेख ऐहोल शहर के दुर्गा मंदिर और पुरातात्विक संग्रहालय से लगभग 600 मीटर दूर एहोल शिलालेख मेगुटी जैन मंदिर की पूर्वी दीवार पर पाया गया है। एहोल – जिसे ऐतिहासिक ग्रंथों में अय्यावोल या आर्यपुरा के रूप में भी जाना जाता है – 540 ईस्वी में स्थापित पश्चिमी चालुक्य वंश की मूल राजधानी थी, उनके बाद 7वीं शताब्दी में वातापी की राजधानी रहा।

शिलालेख में पुरानी चालुक्य लिपि में संस्कृत की 19 पंक्तियाँ हैं। यह मेगुटी मंदिर की पूर्वी बाहरी दीवार पर स्थापित एक पत्थर पर अंकित है, जिसमें लगभग 4.75 फीट x 2 फीट की सतह पर पाठ लिखा हुआ है। अक्षरों की ऊंचाई 0.5 से 0.62 इंच के बीच है। शैलीगत अंतर से पता चलता है कि 18वीं और 19वीं पंक्तियाँ बाद में जोड़े गए अपभ्रंश हैं, और रविकीर्ति की नहीं हैं।

शिलालेख एक प्रशस्ति है। यह पौराणिक कथाएँ बुनता है और अतिशयोक्ति पूर्ण है। लेखक ने अपने संरक्षक पुलकेशिन द्वितीय की तुलना किंवदंतियों से की है, और खुद की तुलना कालिदास और भारवि जैसे कुछ महानतम संस्कृत कवियों से की है – जो हिंदू परंपरा में पूजनीय हैं। फिर भी, यह शिलालेख कालिदास के प्रभावशाली कार्यों से वाक्यांशों को उधार लेता प्रतीत होता है।

ऐहोल के बाद अगला पड़ाव बादामी था। बादामी बागलकोट जिला में पहले वातापी के नाम से जाना जाता था, वर्तमान में एक तालुक मुख्यालय है। यह 540 से 757 तक बादामी चालुक्यों की शाही राजधानी रहा। बादामी गुफा मंदिर चट्टानों को काटकर बनाए गए स्मारकों के साथ-साथ भूतनाथ मंदिर, बादामी शिवालय और जम्बुलिंगेश्वर मंदिर जैसे संरचनात्मक मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। यह अगस्त्य झील के चारों ओर ऊबड़-खाबड़, लाल बलुआ पत्थर की चट्टान के नीचे एक खड्ड में स्थित है।

बादामी शहर महाकाव्यों की अगस्त्य कथा से जुड़ा हुआ है। महाभारत में, असुर वातापी एक बकरी बन जाता था, जिसे उसका भाई इल्वला पकाता था और मेहमान को खिलाता था। इसके बाद, इल्वला उसे पुकारता था, वातापी पीड़ित के अंदर से पेट फाड़ कर बाहर निकलता था। जिससे पीड़ित की मौत हो जाती थी। जब ऋषि अगस्त्य आए, तो इल्वला उन्हें बकरी भोज प्रदान करता है। अगस्त्य भोजन को पचाकर वातापी को मार देते हैं। इस प्रकार अगस्त्य ने  वातापि और इल्वला को मार डाला। ऐसा माना जाता है कि यह किंवदंती बादामी के पास घटित हुई थी, इसलिए इसका नाम वातापी और अगस्त्य झील पड़ा।

चालुक्यों के प्रारंभिक शासक पुलकेशिन प्रथम को आम तौर पर 540 में बादामी चालुक्य राजवंश की स्थापना करने वाला माना जाता है। बादामी में एक शिलाखंड पर उत्कीर्ण इस राजा के एक शिलालेख में 544 में ‘वातापी’ के ऊपर पहाड़ी की किलेबंदी का रिकॉर्ड दर्ज है। क्योंकि बादामी तीन तरफ से ऊबड़-खाबड़ बलुआ पत्थर की चट्टानों से सुरक्षित है। इसीलिए उनकी राजधानी के लिए यह स्थान संभवतः रणनीतिक कारण से पुलकेशिन की पसंद था। उनके पुत्रों कीर्तिवर्मन प्रथम और उनके भाई मंगलेश ने वहां स्थित गुफा मंदिरों का निर्माण कराया।

कीर्तिवर्मन प्रथम ने वातापी को मजबूत किया और उसके तीन बेटे थे, पुलकेशिन द्वितीय, विष्णुवर्धन और बुद्धवारास, जो उसकी मृत्यु के समय नाबालिग थे। कीर्तिवर्मन प्रथम के भाई मंगलेश ने राज्य पर शासन किया, जैसा कि महाकूट स्तंभलेख में उल्लेख किया गया है। 610 में, प्रसिद्ध पुलकेशिन द्वितीय सत्ता में आया और 642 तक शासन किया। वातापी प्रारंभिक चालुक्यों की राजधानी थी, जिन्होंने 6वीं और 8वीं शताब्दी के बीच कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु के कुछ हिस्सों और आंध्र प्रदेश पर शासन किया था।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासीनी ☆ सुखद सफर अंदमानची… प्रवाळांची दुनिया – भाग – ६ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

? मी प्रवासीनी ?

☆ सुखद सफर अंदमानची… प्रवाळांची दुनिया –  भाग – ६ ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

प्रवाळांची दुनिया 

अंदमान मधील बेटं कोरल लिफ्स अर्थात प्रवाळ भिंती साठी प्रसिद्ध आहेत. ही बेटं म्हणजे जणू या भूमीवरील अद्भुत चमत्कार आहे. प्रवाळांचे एकशेएकोण ऐंशी पेक्षा जास्त प्रकार इथं आढळतात. शाळा कॉलेज मध्ये शिकत असताना प्रवाळांचा अभ्यास नेहमी वेगळी ओढ लावत असे. प्रवाळांची रंगीत चित्रे मन आकर्षित करणारी असतात. प्रत्यक्ष प्रवाळ कधी बघायला मिळतील असं वाटलं नव्हतं. पण अंदमानची सहल या करता वैशिष्ट्यपूर्ण आहे. प्रवाळ भिंत ही एक अद्भुत अशी पाण्याखालील बाग आहे. जिवंत, श्वास घेणाऱ्या प्रवाळांच्या बागेत आपण फिरतोय ही कल्पनाच केवढी मोहक आहे, हो ना? 

ते एक चित्तथरारक दृश्य आहे. लाल, गुलाबी, जांभळे, निळे लवलवते प्रवाळ, हात पसरून आपल्या आजूबाजूला पसरलेले दिसतात. जणू काही पाण्याखालील रंगीबेरंगी उद्यानांची शहरेच. अकराशे चौरस किलोमीटर पेक्षा जास्त पसरलेली ही शहरे दोन प्रकारात मोडतात. एक-बॅरियर रीफ आणि दुसरा -फ्रिंगिंग रिफ. भारतातील सर्वात प्राचीन व गतिशील परिसंस्थांपैकी एक. समुद्राच्या उथळ आणि पारदर्शक पाण्यात वाढणारी ही प्रवाळ बेटे म्हणजे सिलेंटेराटा या वर्गातील ऍंथोझोआ गटातील लहान आकाराच्या प्राण्यांची वसाहत होय. हे सजीव चुन्याचे उत्सर्जन करतात. त्यांच्या भोवती या चुन्याचे कवच तयार होते. कालांतराने हे सजीव मृत झाल्यावर, त्यांच्या अवशेषांमध्ये वाढणारे जलशैवाल आणि त्यांनी उत्सर्जित केलेले चुनायुक्त क्षार एकत्र येऊन प्रवाळ खडक तयार होतात. या खडकांना प्रवाळ मंच किंवा प्रवाळ भित्ती (Coral reefs) असे म्हणतात. सामान्य भाषेत आपण यांना पोवळे म्हणतो.

अंदमान येथील नॉर्थ बे, हॅवलॉक बेट (स्वराज द्वीप) आणि नील बेट (शहीद द्वीप) या बेटांवर ही प्रवाळांची भिंत आपल्याला बघायला मिळते. नॉर्थ बे द्वीप या बेटावर मऊशार पांढरी शुभ्र वाळू तुमचं स्वागत करते. या वाळूवर जिकडं तिकडं प्रवाळांचे अवशेष इतस्ततः विखुरलेले दिसतात. स्वच्छ समुद्रकिनारा हे ही अंदमानच्या सर्व सागरकिनाऱ्यांचं वैशिष्ट्य म्हणायला हवं. मऊ रेशमी वाळूचा किनारा आणि निळा समुद्र. दोन्ही किती मोहक. निळी मोरपंखी झालर झालर वाली घेरदार वस्रं ल्यालेली नवतरुण अवनी, जिच्या निळ्या झालरीला शुभ्र मोत्यांच्या लडी अलगद जडवल्यात. तिच्या पदन्यासात निळ्या झालरीची लहर फेसाळत शुभ्र किनाऱ्यावर झेपावत येते. येताना किती चमकते शुभ्र मोती पसरून जाते. का कुणी अवखळ सागरकन्या धीरगंभीर भारदस्त किनाऱ्याच्या ओढीनं मौत्यिकं उधळत खिदळत येते. नजरकैद म्हणजे काय हे उमगावं असं हे फेसाळणारं सौंदर्य बघून.

सबमरीन नावाची लालपरी आपल्याला अलगद समुद्रात पाण्याखाली घेऊन जाते. आठ जणांना बसायची सोय असलेल्या या परीतून आपण समुद्रात काही मीटर खोल जातो. आजूबाजूला पसरलेलं प्रवाळ साम्राज्य बघून स्तिमित होतो. नॉर्थ बे किनाऱ्यावर जास्त करून आपल्याला प्रवाळांचे खडक बघायला मिळतात. यातील प्राणी आता जिवंत सापडत नाहीत. पण यांनी समुद्रातील कितीतरी सजीवांना आसरा दिला आहे. इथं माशांचे खूप प्रकार बघायला मिळाले. टेबल कोरल्स, ब्रेन कोरल्स, फिंगर कोरल्स, फुलकोबी कोरल्स अशी यांची नावं असल्याचं आमच्या नावाडीमित्रानं माहिती दिली.

नील बेटावर आम्हाला काचेचा तळ असलेल्या बोटीतून समुद्र सफर करायला मिळाली. या बोटीच्या तळाशी काच बसवलेली असते. त्यामुळे समुद्रातील प्राणी, मासे, वनस्पती अगदी बसल्या जागेवरून दिसतात. या बोटीतून नावाडी आपल्याला समुद्रात दूरवर घेऊन जातो. मनमोहक निळं पाणी संपून जिथं अधिक गहिरा निळा रंग समुद्रानं धारण केला असतो. या पाण्यात प्रवाळांची संख्या जास्त आहे. शिवाय प्रकार देखील जास्त आहेत. समुद्र वनस्पती प्रवाळांच्या खडकांतून डोकावताना दिसतात. नावाडी त्याला माहित असलेल्या प्रवाळांची माहिती देतो. सबमरीन पेक्षा जास्त प्रकारचे प्रवाळ तर दिसतातच, पण विविध मासेही दिसतात. नशीब बलवत्तर असेल तर डॉल्फिन दर्शन सुद्धा होतं.

या बेटांवर स्कुबा डायव्हिंग, स्नॉर्कलिंग, केयाकिंग, पॅराग्लायडिंग सारखे साहसी खेळ आहेत. आवड असणारे साहसवीर यात सहभागी होऊ शकतात. समुद्र सफारीचा अनोखा आनंद मिळवू शकतात. अर्थात यासाठी वयाची अट आहे. साठी नंतरचे लोक, तसंच रक्तदाब, मधुमेह किंवा आणखी काही शारीरिक व्याधी असेल तर परवानगी मिळत नाही. इथं जाताना आपलं आधार कार्ड, पासपोर्ट गरजेचा आहे. त्याशिवाय हे साहसीखेळ खेळायला परवानगी दिली जात नाही. हा समुद्र प्रवास सुद्धा शक्य नाही. प्रत्येक जेट्टीवर हे तपासलं जातं.

– क्रमशः भाग सहावा

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

deepapujari57@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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