श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। अब आप प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा
16 जून 2023 को सुबह जल्दी उठकर बैग में सामान लेकर एक टोटो से गंतव्य गंगा के सागर से मिलन स्थल गंगासागर पहुँचे। समुद्र हमेशा की तरह बेचैन होकर मचल रहा था। थोड़ी देर उसे खड़े होकर निहारा। मनुष्य के दिमाग़ में महत्वाकांक्षा के ऊँचे पर्वत होते हैं। उसके दिल की अतल गहराइयों में जीवन की कलात्मक अभिव्यक्तियाँ हाथ-पैर मारती हैं। महत्वाकांक्षी पर्वत तक की यात्रा सफल हो या असफल, जीवन के अंतिम पड़ाव पर मनुष्य दोनों स्थितियों में लद्दाख के उदास और वीरान पहाड़ों से जड़ हो जाते हैं। सागर की तरह गहराइयों में सुप्त बेचैन कामनाएँ लहरें बनकर उदास पहाड़ों से मिलने दौड़ती हैं, लेकिन किनारों से टकरा कर छिन्न भिन्न हो बिखर जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य की जन्म से मृत्यु के द्वार तक पहुँचने की यही कहानी है।
महान दार्शनिक ज्याँ पॉ सार्त्र ने Being and Nothingness” पुस्तक में लिखा है, “जब मनुष्य का अंत निराशा और अवसाद में होने लगता है तब उसकी आत्मा में मितली उठती है कि यही बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु पूरे जीवन की कमाई है क्या ?” उन्होंने इस पर एक उपन्यास “नौसिया” लिखा था।
यहीं हिंदू दर्शन के पुनर्जन्म सिद्धांत की सार्थकता सिद्ध होती है। मनुष्य इस आशा के साथ बिदा होता है कि उसे फिर लौट कर आना है, लेकिन किसी दूसरे अस्तित्व में। मृत्यु के बाद इस जीवन की सच्चाई बताने वापस आना सम्भव नहीं है। इसी उधेड़बुन में ग़ालिब ने फ़रमाया था-
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।
ग़ालिब से छै सौ साल पहले ख़ुसरो मियाँ भी प्रेम के दरिया बहा गए हैं।
खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार,
जो उतरे सो डूब गए, जो डूबे सो पार।
ईश्वर के प्रेम में उतरना, डूबना, पार लगना एकमेव उपाय है। बचपन में देखी करनी-भरनी दृश्यावली के हिसाब से अपने लिए स्वर्ग में आरक्षित सीट होने से तो रही। नरक में तो परेशानी ही परेशानी है। अभी पिछले महीने ग़ालिब पर उपन्यास लिख कर फ़ुरसत हुए। तब ग़ालिब के कलाम पर सोचते-सोचते एक शेर हम पर भी नाज़िल हुआ था-
मैं ग़ाफ़िल हूँ तो ग़ाफ़िल ही रहने दे होश में लाकर क्यों परेशान करता है।
मुझे मालूम है मरने के बाद तू लोगों को उस जहाँ में भी परेशान करता है।
हम सोचते खड़े थे, तभी एक आदमी बीस रुपये कुर्सी के हिसाब से दो कुर्सियाँ ले आया। हमने एक पर सामान रखा और दूसरे पर बैठ गए। पवन भाई से कहा- आप स्नान कर लीजिए। वे जब तक नहा कर के आए तब तक एक पुरोहित महाशय पधार कर बोले- पूजन करवा लीजिए। जो इच्छा हो वह दक्षिणा देना। हमने स्पष्ट किया एक सौ रुपया देंगे। वह चुप रहा। हमने उससे कहा- सौ रुपया स्वीकार हो तो बोलो। उससे स्वीकृति लेकर पूजन शुरू करवाया। बीच में एक शांत सी महिला शिव और गंगा को चढ़ाने हेतु डुबलिया में दूध ले आई। उससे दस रुपया तय किया। एक पवन भाई को नहलवाने चली आई। पवन भाई को तैरना नहीं आता इसलिए उन्हें उसने किनारे पर ही बाल्टी लोटे से पानी डालकर पचास रुपये से धो दिया।
समुद्र में नहाना आसान नहीं होता है। उस समय तो और भी कठिन है जब ज्वार उठ रहे हों। सभी तीर्थ यात्री किनारे से दूर लोटे से पानी डाल कर नहा रहे थे। जिनको तैराना नहीं आता उन्हें तो दूर रहने में ही समझदारी है। समुद्र में उतरने की तकनीक है। लहरों की तरफ़ पीठ कर दो। यदि ऊँची लहर आये तो बैठ कर डुबकी लगा दो। लहर का सामना करने पर यदि बड़ी लहर आई तो मुँह और नाक में पानी भर जाएगा। जैसे ही आप घबराए तो पैर भी उखड़ जाएँगे। वहीं ख़तरा है। समुद्र भीतर खींच लेगा। फिर फुलाकर किनारे फेंकेगा। अपन तो सोहागपुर की बाढ़ग्रस्त पलकमती नदी में लकड़ियों के बड़े लट्ठ पकड़ते थे। इसलिए गंगा सागर में बहुत अधिक नहीं थोड़े अंदर जाकर आनंद लिया। सोचा गंगा स्नान पर कहा जाता है-
“पार जाए तो पार है, डूब जाए तो पार है।”
ज़िंदगी तो पार लग ही चुकी है, डूब भी गए तो क्या है, आख़िर अस्थियों को यहीं तो आना है। हिट विकेट आउट भी आउट ही होता है और आउट तो हर किसी को होना है। हमेशा क्रीज़ पर खड़े नहीं रह सकते।
जहाँ गंगा जी का पूजन कर रहे थे वह स्थल सागर से क़रीब एक सौ मीटर दूर था परंतु शिवलिंग पर गंगा जल अर्पण के समय गंगा लहर पूजा स्थल पर चली आई। हमें शिवलिंग उठाना पड़ा। साथ वाले कह रहे थे यह चमत्कार है। हमने कहा- यह कोई चमत्कार नहीं ज्वार-भाटा का कमाल है। हमने शिवलिंग तो उठा लिया अब देखते हैं शिव हमें कब उठाते हैं। वैसे हम तैयार हैं। साहित्य के उछाल भरी पिच पर वेटिंग चल रही है। मृत्यु से मुक्त कोई नहीं हो सकता। इसका कोई विधान नहीं है। परंतु मृत्यु का भय समाप्त हो जाय। यही मृत्योर्मुक्षीय है।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्, उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
पंडित जी ने पूजन आरम्भ किया। उन्होंने मंगलाचरण उच्चारित करना शुरू ही किया था। हमने कहा- पंडित जी, दीप प्रज्वलित कर लें अन्यथा पूजा शास्त्रोक्त नहीं होगी।
उन्होंने प्रश्नवाचक निगाह से देखा। हमने आगे कहा- पंडित जी, दीपक पंचभूत है। उसमें पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि प्रतिनिधि रूप में उपलब्ध होते हैं।
वे बोले- महाशय, पृथ्वी पर विराजमान हैं, जल लोटे में है, पवन प्रवाहित है, ऊपर खुला आकाश है। अग्नि भर की कमी है।
पंडित जी अग्नि न होने से एक और कमी है ?
क्या ?
ज्योति स्वरूप प्रदीप्त आत्मा नहीं है। दीपक प्रज्वलित होने से पंचभूत+आत्मा अर्थात् जीव अस्तित्वमान हो जाएगा। शिवांश प्रदीप्त होगा।
उन्होंने थैले में कुछ ढूँढा, मिला नहीं।
हमने कहा- पंडित जी, अगरबत्ती है तो जला लीजिए वह भी अग्नि है।
उन्होंने अगरबत्ती जलाकर रेत में खोंस दी।
मंगलाचरण और गंगा अवतरण सूक्त पढ़ने के बाद उन्होंने कहा- वैतरणी पार करने हेतु गाय दान का संकल्प लीजिए।
हमने कहा – क्या करना होगा।
पंडित जी – सिर्फ़ ग्यारह हज़ार दक्षिणा देनी होगी। बाक़ी हम कर देंगे।
हमने मना कर दिया।
पंडित जी – ग्यारह ब्राह्मण भोज संकल्प लीजिएगा?
हमने ना की मुद्रा में सिर वाम दिशा दे दक्षिण दिशा घुमा दिया।
इस तरह पूजन से फ़ुरसत हुए ही थे, तभी एक दुकानदार प्लास्टिक थैली में चावल लेकर आया और बोला ये बेचारे भिखारी बैठे हैं, इनको दान कर दीजिए। पचास ग्राम प्लास्टिक थैली की क़ीमत पंद्रह रुपये थी। हमने ध्यान से देखा तो बीस भिखारी एक क़तार में बैठे थे। यानी बीस थैली तीन सौ रुपयों की होगीं। लेकिन थोड़ी दूर पर बीस-पच्चीस और खड़े थे। हमारे द्वारा चावल थैली ख़रीदारी करते ही, वे भी झूम पड़ते। पवन भाई ने एक भिखारी से पूछा- इन्हें आप लेकर क्या करोगे ?
वह बोला- साहब, दुकानदार पंद्रह रुपये में आपको बेचेगा फिर पाँच रुपये हमको देकर पैकेट हमसे वापिस ले लेगा। हमने उसी खबरी भिखारी को दस रुपये देकर हाथ जोड़ लिए।
पिताजी जी की अस्थि को गंगा सागर में प्रवाहित करने के बाद एक और कलाम ख़ुराफ़ाती दिमाग़ की पोरों से निकल बरास्ते ज़ुबान साहिल पर मचलती लहरों पर सवार हो गया।
प्रभु मेरी ये फरियाद आकर तेरी चौखट पर नहीं नजायज़ है,
तसल्ली जब तलक दिल में ना हो तेरा हुक्मे कूच नाजायज़ है।
*
लेकर तेरा नाम हम पी चुके भरकर जाम ए ज़म ज़िंदगी का,
हुक्मे हुज़ूरी अब चल भी दिए हुज़ुर के ज़ानिब जायज़ है।
हमने गंगा सागर तीर्थ का तय उद्देश्य प्राप्त कर लिया था। सुबह बहुत जल्दी गंगा सागर किनारे चले गए थे। स्नान-ध्यान पूजा-पाठ दर्शन-प्रदर्शन के बाद खींच कर भूख लगी थी। होटल लौटकर नाश्ता निपटाया, एक हल्की नींद निकाली। उसके बाद वातानुकूलित वातावरण में गंगा की उत्पत्ति, श्राप और मुक्ति से युक्त गंगा के प्रेम आख्यान पर चिंतन मनन करते रहे। गंगा की उत्पत्ति से गंगासागर में विलीन होने तक गंगा का संबंध ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों से रहा है। अद्भुत कथाएँ हैं। संपूर्णता में समझने से सनातन दर्शन की प्रकृति से तार्किक साम्यता बैठते चलती है।
वामन पुराण के अनुसार जब भगवान विष्णु ने वामन रूप में तीनों लोक नापने हेतु अपना एक पैर आकाश की ओर उठाया, तब ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु के चरण धोकर जल को अपने कमंडल में भर लिया। इस जल के तेज से ब्रह्मा जी के कमंडल में गंगा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने गंगा हिमवान को सौंप दी। इस तरह पार्वती और गंगा दोनों में बहनौता हुआ। इसी में एक कथा यह भी है कि वामन के पैर के चोट से आकाश में छेद हो गया और तीन धारा फूटीं। एक धारा पृथ्वी पर, एक स्वर्ग में और एक पाताल में चली गई, इस तरह गंगा त्रिपथगा कहलाईं।
शिव पुराण में ऐसी कथा मिलती है कि गंगा भी पार्वती की तरह भगवान शिव को पति रूप में पाना चाहती थी। पार्वती नहीं चाहती थी कि गंगा उनकी सौतन बने। गंगा ने भगवान शिव की घोर तपस्या की। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इन्हें अपने साथ रखने का वरदान दे दिया। इसी वरदान के कारण जब गंगा धरती पर अपने पूरे वेग के साथ उतरी तो जल वेग थामने के लिए भगवान शिव ने उन्हें अपनी जटाओं में लपेट लिया, इस तरह गंगा को भगवान शिव का साथ मिला। सिरांगी गंगा और वामांगी पार्वती।
महाभारत कथा के अनुसार गंगा सृष्टि निर्माता ब्रह्मा के साथ एक बार देवराज इंद्र की सभा में आईं। यहां पर पृथ्वी के महाप्रतापी राजा महाभिष भी मौजूद थे। महाभिष को देखकर गंगा मोहित हो गईं और महाभिष भी गंगा को देखकर सुध-बुध खो बैठे। इंद्र की सभा में नृत्य चल रहा था तभी उनके इशारे से हवा के झोंके से गंगा का आंचल कंधे से सरक गया। सभा में मौजूद सभी देवी-देवताओं ने शिष्टाचार के तौर पर अपनी आंखें झुका ली लेकिन गंगा में खोए महाभिष उन्हें एकटक निहारते रहे और गंगा भी सुधबुध खोकर उन्हें देखती रही। क्रोधित होकर ब्रह्मा जी ने शाप दिया कि आप दोनों लोक-लाज और मर्यादा को भूल गए हैं इसलिए आपको धरती पर जाना होगा। आप दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं इसलिए वहीं आपका मिलन होगा।
ब्रह्मा जी के शाप के कारण गंगा नदी रूप में धरती पर आईं और दूसरी ओर महाभिष को हस्तिनापुर के राजा शांतनु के रूप में जन्म लेना पड़ा। एक बार शिकार खेलते हुए शांतनु जब गंगा तट पर पहुंचे तो गंगा मानवी रूप धारण कर शांतनु से मिली और दोनों में प्रेम हो गया। शांतनु और गंगा की आठ संतानें हुई। जिनमें सात को गंगा ने अपने हाथों से जल समाधि दी और आठवीं संतान के रूप में शांतनु की हठधर्मिता से देवव्रत भीष्म बच गए। देवव्रत को गंगा जलसमाधि नहीं दे पाईं। कहते हैं कि गंगा के आठों संतान वसु थे जिन्हें शाप मुक्त करने के लिए गंगा ने उन्हें जल समाधि दी। लेकिन आठवीं संतान को शाप मुक्त कराने में गंगा सफल ना रही। वह देवव्रत नाम के राजकुमार के रूप में बड़े हुए। भीष्म प्रतिज्ञा स्वरूप भीष्म पितामह के रूप में अधर्म की तरफ़ अभिशप्त जीवन जीकर कृष्ण के इशारे पर पौत्र अर्जुन के हाथों मुक्ति पाई। इस तरह गंगा विष्णु के पैर से उत्पन्न हुईं और गंगासागर में उन्हीं के कदमों में विलीन हुईं। आदि शंकराचार्य ने भज गोविन्दम स्तोत्र में गंगासागर का उल्लेख किया है।
कुरुते गंगासागर गमनं व्रत परिपालन मथवा दानम्,
ज्ञान विहीने सर्वमनेन मुक्तिर्न भवति जन्म शतेन।
अर्थात्- मोक्ष की प्राप्ति के लिए मनुष्य गंगासागर जाता है, व्रत रखता है, और दान देता है। लेकिन जब तक उसे सर्वोच्च का ज्ञान प्राप्त नहीं होता, सौ जन्मों में भी उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। इसलिए जब तक ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति न हो गंगासागर तीर्थ यात्रा भी फलदायी नहीं है, तो ब्रह्म ज्ञान अनुभूति के मार्ग पर चलना चाहिए।
नमकीन पानी में नहा धोकर पसीने से और भी नमकीन होकर मुनि कपिल मंदिर दर्शन को पहुँचे।
वहीं बैठ कर पिता पर एक कविता लिखी।
वो जो तुम्हारा कारण है,
उसे बाक़ी सब अकारण है,
कोमल हृदय उसका,
ऊपर नारियल नट्टी है,
हाथ में मिश्री मलाई लिए
हृदय धधकती भट्टी है,
तुम्हें कुछ पता है,
वह तुम्हारा पिता है।
*
जिसे दीन-दुनिया, मुन्ना-मुनिया,
मिर्ची-धनिया घर-बाहर,
गुंडा-शायर, खिलाई-पिलाई,
अमन-लड़ाई, माँ-बच्चों की अंगड़ाई
सबकी चिंता है,
वह तुम्हारा पिता है।
*
जिसने कभी ना सराहा,
हाथ उठा तो तेज़ी से पर ना मारा
अपनी इच्छाओं को मारा,
आज भी भाव सहारा है
तुम्हारे अहसासों में
तुम्हारी साँसों में जो जिंदा है
वह तुम्हारा पिता है।
*
जो रोज़ सलीब पर चढ़ता है,
रोज़-रोज़ मरकर भी वह कभी ना मरता है,
तुम्हारी अनंग कामनाओं में,
भाव भंगिमाओं में जो जीता है
वह तुम्हारा पिता है।
*
शाम को छै बजे एक ऑटो करके ओंकार नाथ मंदिर, भारत सेवा आश्रम, राम कृष्ण मिशन, नाग मंदिर, मुख्य बाज़ार और मच्छी बाज़ार घूमकर कपिल मुनि मंदिर की आरती में सम्मिलित हुए। प्रायः सभी आश्रमों में रुकने की व्यवस्था है। राम कृष्ण मिशन में वातानुकूलित कमरे मिल जाते हैं। लेकिन वहाँ से गंगासागर कपिल मुनि स्थल दस किलोमीटर से अधिक की दूरी पर है। समुद्र तट के आसपास सागर द्वीप लाइट हाउस अर्थात् प्रकाश स्तंभ देखा। शाम को बाज़ार में ठेलों पर ढेरों झींगा बिकते नज़र आये। यहाँ समुद्री झींगा को चिंगड़ी मछली कहते हैं। भोपाल में दो-तीन प्रकार की मछली मिलती हैं। यहाँ बीसों प्रकार के ढेर लगे थे। ईश्वर की बनाई कोई भी चीज एकांगी नहीं होती है। गुलाब की पंखुड़ियों में रेशम सा गुदाज़ अहसास है तो काँटों की चुभन भी है। जीवन में बदबू और ख़ुशबू दोनों से हमारा सामना होता है। समदर्शी भाव लिए मच्छी बाज़ार में घुसे तो देखा कि बीसों प्रकार की मछलियों का अंबार लगा है। एक बेचवाल बोला- साहिब चिंगड़ी लीजिए। हमने अकबर इलाहवादी की लज़्ज़तदार ज़ुबान की बानगी उसे नज़र की और चलते बने।
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
ज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीददार नहीं हूँ।
*
ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी,
हर चंद कि हूँ होश में होशियार नहीं हूँ।
*
वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बर्बाद किया है,
उलझूं किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ।
*
गंगासागर में आपको ज्यादातर बंगाली खाना मिलेगा, जिसमें मछली करी, चावल, समुद्री भोजन इत्यादि है। कुछ चाइनीज और नॉर्थ-इंडियन फूड का भी स्वाद ले सकते हैं। एक प्रमुख पर्यटक स्थल होने के नाते, इस जगह खाने की पर्याप्त सुविधा है। यहां पर भोजन तो उपलब्ध है, लेकिन जब किस्मों की बात आती है तो आपके पास बहुत अधिक विकल्प नहीं होते हैं। भारत सेवा आश्रम में शाकाहारी खाने की व्यवस्था है। मंदिरों के बाहर छोटी-छोटी दुकानों पर भी आप स्नैक्स का आनंद ले सकते हैं।
अगर नवंबर से फरवरी तक सर्दियों की अवधि के दौरान गंगा सागर तीर्थ आया जाए तो बहुत अच्छा है। मकर सक्रांति के समय जनवरी मध्य अवधि भी द्वीप पर जाने का एक शानदार समय है क्योंकि द्वीप पर भव्य उत्सव होते हैं, जिसमें एक विशाल गंगासागर मेला भी शामिल है। कम नमी और सुहावने मौसम के साथ इस द्वीप का सर्दियों में बेहतर आनंद लिया जा सकता है। मेला के समय भारी भीड़ आती है। लाखों में तीर्थ यात्री पहुँचते हैं।
आख़िर में नाग मंदिर देखा। नाग मंदिर बहुत बड़ा है। वहाँ नागराज वासुकि और उनकी रानी शतशीर्षा की बड़ी मूर्ति है। वासुकी नाग महर्षि कश्यप के पुत्र थे जो कद्रु के गर्भ से हुए थे। नागधन्वा तीर्थ में देवताओं ने वासुकि को नागराज के पद पर अभिषिक्त किया था। वासुकि शिव का परम भक्त होने के कारण इसका शिव के गले पर निवास है।
समुद्रमंथन के समय मंदरांचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया था। त्रिपुर दाह के समय वह शिव के धनुष की डोर बना था। वासुकी के पाँच फण हैं। वासुकी के बड़े भाई शेषनाग हैं जो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं उन्हें शैय्या के रूप में आराम देते हैं। नागों में शेषनाग सबसे बड़े भाई हैं, दूसरे स्थान पर वासुकी और तीसरे स्थान पर तक्षक हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार, श्रृंगी ऋषि का शाप पूरा करने के लिये राजा परीक्षित को तक्षक ने काटा था। इसी कारण राजा जनमेजय इससे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने संसार भर के नागों का नाश करने के लिये नागयज्ञ आरंभ किया। तक्षक इससे डरकर इंद्र की शरण में चला गया। इसपर जनमेजय ने अपने ऋषियों को आज्ञा दी कि इंद्र यदि तक्षक को न छोड़े, तो उसे भी तक्षक के साथ खींच मँगाओ और भस्म कर दो। ऋत्विकों के मंत्र पढ़ने पर तक्षक के साथ इंद्र भी खिंचने लगे। तब इंद्र ने डरकर तक्षक को छोड़ दिया।
शिव को जब ज्ञात हुआ कि नागवंश का नाश होने वाला है। तब उन्होंने अपने नाती आस्तिक ऋषि को सर्प यज्ञ रुकवाने भेजा था। शिव पुराण में कथा है कि आस्तीक जरत्कारु और शिव-पार्वती की पुत्री मनसा के पुत्र थे। उनके मामा गणेशजी, कार्तिकेय जी और भगवान अय्यपा थे। उनकी मौसी देवी अशोकसुन्दरी और देवी ज्योति हैं। इनके मौसाजी राजा नहुष और अश्विनी कुमार नासत्य हैं। भगवान शिव और माता पार्वती इनके नाना-नानी हैं।
आस्तीक ने यज्ञ मण्डप में पहुँचकर जनमेजय को अपनी मधुर वाणी से मोह लिया। उधर तक्षक घबराकर इंद्र की शरण गया। ब्राह्मणों के आह्वान पर भी जब तक्षक नहीं आया तब ब्राह्मणों ने राजा से कहा कि इन्द्र से अभय पाने के कारण ही वह नहीं आ रहा है। राजा ने आदेश दिया कि इन्द्र सहित उसका आह्वान किया जाए। जैसे ही ब्राह्मणों ने ‘इंद्राय तक्षकाय स्वाहा’ कहना आरम्भ किया, वैसे ही इंद्र ने उसे छोड़ दिया और वह अकेले यज्ञकुण्ड के ऊपर आकर खड़ा हो गया। उसी समय राजा जनमेजय ने आस्तीक से कहा तुम्हें जो चाहिए मांगो। आस्तीक ने तक्षक को कुंड में गिरने से रोककर राजा से अनुरोध किया कि सर्पयज्ञ रोक दीजिए। वचनबद्ध होने के कारण जनमेजय ने खिन्न मन से आस्तीक की बात मानकर तक्षक को मंत्रप्रभाव से मुक्ति दी और नागयज्ञ बन्द करा दिया। सर्पों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वचन दिया कि जो तुम्हारा आख्यान श्रद्धासहित पढ़ेंगे उन्हें हम कष्ट नहीं देंगे। जिस दिन सर्पयज्ञ रुका उस दिन पंचमी थी। वर्तमान समय में भी उक्त तिथि को नागपंचमी के रूप में मनाते हैं।
कुछ बुद्धिजीवी कहते हैं कि पुराण कोरी कल्पनाएँ हैं, तो ये कितनी सुंदर कल्पना है कि हिंदू प्रकृति के प्रत्येक चर-अचर की रक्षा को धर्म समझते हैं। यही भारतीय संस्कृति है।
यह समुद्री इलाका है, इसलिए यहां सांप बहुत होते हैं। नाग मंदिर बहुत सघन हरियाली वाले क्षेत्र में स्थित है। स्थानीय लोगों से साँप की बारे में पूछा, क्या साँप कोई नुक़सान पहुँचाते हैं। उन्होंने बताया कि हम लोग साँप को नहीं छेड़ते तो वे भी समझदार हैं, हम लोगों को नहीं छेड़ते। मिलजुल कर रहते हैं। यहां पर बिजली की आपूर्ति अस्थिर थी लेकिन अब पूरे समय मिलती है। अपने साथ एक इमरजेंसी लाइट या टॉर्च साथ लेकर आएं। सर्पों से भरे गंगासागर में रात को यात्रा करना सुरक्षित नहीं है।
क्रमशः…
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈