डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 13 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

बेटी का घर   

झूम के मकान के सामने यानी सड़क के उस पार एक मकान की छत की मरम्मत हो रही है। यहाँ यही रिवाज है कि पतझड़ के पहले ऐसे काम करवा लो। ताकि बर्फबारी होने पर कोई दिक्कत न हो। यहाँ तो नवंबर से ही बर्फबारी शुरू हो जाती है। फरवरी तक तो ठोस बर्फ। सॉलिड। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह पानी की भी तीन अवस्थाएँ हैं – ठोस, द्रव और गैस। बर्फ, पानी और भाप। क्यों, ठीक कहा है न ?

चार आदमी छत पर काम कर रहे हैं। लकड़ी के शीट के ऊपर कुछ प्लास्टिक मेटिरियल के आयताकार ट्रेनुमा लगा है। एक आदमी मशीन से उन्हें काट रहा है। दो तीन किसिम के ब्रशनुमा झाड़ू है। हेलमेट पहने एक आदमी कचड़ों को इकठ्ठा कर रहा है। नीचे उनकी गाड़ी खड़ी है। उसके पीछे कबाड़ ढोने की ट्राली में सब फेंका जा रहा है। वाह! सड़क को बपौती समझ कर गंदा करने का कोई कार्यक्रम नहीं। हमारी काशी में तो जब लोग अपना मकान बनाते हैं, तो राहगीरों की कोई परवाह नहीं। छत से ईंट पत्थर गिरे तो तुम जानो। आखिर खोपड़ी तो तुम्हारी ही न है, बबुआ?

और ऐसे प्राइवेट काम में हेलमेट का प्रयोग ? जनाब, वहाँ शिव की नगरी में आजकल डी.एल.डब्ल्यू. के पास जाने कौन सा हवाई पुल का निर्माण हो रहा है। किसी भी मजदूर के माथे पर हेलमेट नहीं। कुछ ऐसा ही दृश्य तो कॉमनवेल्थ गेम्स के समय राजधानी में रहा। अगर कोई इंसान खंभे गिरने से दब कर मर जाता है तो पैसा है न मुआवजा देने के लिए। पब्लिक मनी है पैतृक खजाना, भले मौत का आए परवाना। फिर फिकर नट।

झूम के बरामदे से सामने ऑन्टारिओ लेक के किनारे अद्भुत बिहंगम दृश्य दीखता है। सामने है केवाईसी – नो योर कस्टमर नहीं- किंग्सटन याक्ट क्लब। उसके सामने झील के किनारे कतार से कई झंडे ऊँचे आसमान में लहर रहे हैं। ये कनाडा एवं उसके स्टेटस के पताका हैं – न्यू फाउंडलैंड, न्यू ब्रुनस्विक, नोवा स्कोटिया और प्रिंस एडवार्ड आइलैंड आदि। मानस के हंस की तरह सैकड़ों की तादाद में सफेद नाव। सारे प्राइवेट। दो चार मोटर बोट भी। पानी से घिरा उनका ऑफिस – एक सुंदर सफेद कॉटेजनुमा मकान। उसके सामने चेन्ज रूम या बाथरूम वगैरह भी हैं। इधर घास के गलीचे पर मँडराती तितलिओं की तरह बच्चे खेल रहे हैं। आजकल यहाँ के स्कूलों में छुट्टी जो चल रही है। दो चार की टोली में दिनभर युवक युवतियां आते रहते हैं। वे अपने नाव पर पाल फहरा कर झील में निकल जाते हैं। पतवार से खेने वाली छोटी छोटी कैनो नौका भी चलती रहती हैं। हजार द्वीपों के सफर में ले जाने वाले क्रुजर जहाज भी दूर से दीखते हैं। 

वहीं दूर लहरों के बीच सैकड़ों सफेद नाव सफेद पाल लगाकर तैर रही हैं। मानो सारे सफेद राजहंस तैर कर ही मानसरोवर पहुँच जायेंगे।

केवल नदी में ही नहीं, क्लब के यार्ड में भी पचासों नाव खड़ी हैं। तीन पहिये की ट्राली में लादकर उन्हें पानी में छलकाया जाता है। यहाँ की जिन्दगी बहती धारा की तरह है। छल छल बहती जाये रे!

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में लिखते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा है कि आचार्य जब कश्मीर गये हुए थे, तो वहाँ की ललनाओं को देख कर उन्हें कुमारसंभव की पार्वती याद आ गयीं। अगर यहाँ की इन नौकाओं को खेती अप्सराओं के वे देखते तो क्या कहते ? – अरे भाई, ये मत्स्यगंधाये किन पराशरों को अपने जाल में फाँसने के लिए ऑन्टारिओ झील की लहरों पर ऐसे निकल आयी हैं?

हमलोग तो रूप के उपासक हैं ही। उधौ मन नाहीं दस बीस, एक हु तो सो गयो स्याम संग, को आराधै ईश? क्या इसीलिए बुतपरस्ती का विरोध करने पैगंबर मुहम्मद साहब ने काबा के कुएँ में वहाँ की प्राचीन अरबी मूर्तियों को फेंक दिया था ? हम लोग तो साकार सगुन देवता के चक्कर में कृष्ण की बांसुरी और रासलीला में ही मस्त हुए रहते हैं। गीता की वाणी को तो भूल ही जाते हैं। वैसे और लोग भी नबी की बातों को कहाँ याद रखते हैं? वरना इतना मार काट क्यों होता ?

दोपहर बाद फिर निकल पड़ा था। बैग में तूलि, वाटर कलर आदि और हाथ में वाटर कलर पेपर। एक मेपल के पेड़ को बना रहा था। ढलती दोपहर में उसकी पत्तियों की छाया किस तरह जमीं पर फैलती रहती है। कई गिलहरियाँ यहाँँ से वहाँ फुदक रही थीं। उधर एक गार्बेज कैन है, पेड़ के तने पर चढ़ कर वे सब उसमें भी ताक झॉक कर रही हैं,‘किचम किच्। कुछ मिला बंधु ?’ यहाँ की गिलहरियाँ सब काली होती हैं। हमारे यहाँ की तरह धारीदार नहीं। क्यों न हो ? आखिर यहाँ तो राम लक्ष्मण आये नहीं न थे। कहा तो यही जाता है कि लंका जाने के लिए सेतु बंधन करते समय जब वहाँ रामेश्वरम् की गिलहरियाँ भी कूद कूद कर छोटे मोटे कंकड़ या टहनियों को पुल के पत्थरों के बीच लगा रहे थे, तो श्रीराम ने अपने हाथों से उनकी पीठों को सहला दिया था। तो तब से उनकी पीठ पर वे धारियाँ या रघुवर की उँगलिओं के निशान बन गये हैं। पर हैं सब तन्दुरुस्त। झबड़ेदार पूँछ की शोभा ही कुछ अलग है। बिलकुल चामर या चँवर की तरह।

 मैं सीटी पार्क में बैठ कर चित्रकारी कर रहा था तो एक बगल में आकर पिछले पैरों पर खड़ी हो गयी। किच किच। शायद पूछ रही थी,‘क्यों विदेशी, कुछ खाना वाना लाये हो साथ में?’

यहाँ के खरगोश उस हिसाब से कुछ छोटे और भूरे हैं। वे भी इन मैदानों में दौड़ते रहते हैं।

और एक जीव के बारे में न बताना उनकी प्रतिष्ठा के खिलाफ होगा। वो हैं फ्लैट के बरामदे से लटकती मकड़ियाँ। आप सुबह उनके जाल को साफ कीजिए और देखिए शाम तक उनका पुनराविर्भाव। रुपाई वैक्यूम क्लीनर लेकर उनके पीछे पीछे दौड़ता रहता है। अगर कोई सीलिंग से लटकती नजर आ जाये तो उसका खैर नहीं। ‘अरे देखो देखो कहाँ लैंड कर रही है।’ बस शिकारी दौड़ा शिकार के पीछे,‘झूम, वो कुर्सी यहाँ लाओ। उस पर चढ़ कर मैं उसकी खबर लेता हूँ।’ आखेट।

एपार्टमेंट के मेन गेट के पास एक स्टैंड पर साप्ताहिक अखबार रखे होते हैं। चाहिए तो ले जाइये। किंग्सटन हेरिटेज (23.7.15) में निकला था कि आसपास के इलाके में खतरनाक पार्सनिप घास जैसी वनस्पति पैदा हो रही हैं। खास कर पूर्वी ऑन्टारियो में। उसको छूने से त्वचा में जलन और खुजली होती है। अतः उससे बचकर रहें।

अंग्रेजी के स्टे (ठहरना) और वैकेशन(छुट्टी) को मिलाकर आजकल (सन 2008 से) एक नये शब्द की ईजाद हुई है – स्टेकेशन। यानी कहीं रहते हुए छुट्टी के दिन गुजारो। हमारे यहाँ की टूरिज्म इंडस्ट्री में शायद इसी को होम स्टे का नाम दिया गया है। जो भी हो। अखबारों में तरह तरह की खबरें …..

झूम के लॉन्ड्री रूम में या यहाँ के मॉल में ऐसी पत्रिकायें पड़ी रहती हैं…क्लोजर, हैल्लो, इन टच, यू एस विकली, पिपुल आदि। लॉन्ड्री रूम में तो रैक पर किताबें भी करीने से रक्खी हुई हैं।

ऐसे बाहर खाने पर यहाँ एक आदमी के दो मील और एक नाश्ता यानी ढाई वक्त के भोजन और दो एक कॉफी या चाय पर करीब तीस डॉलर खर्च होते हैं। पति पत्नी हैं तो कमसे कम साठ। यानी हमारे देश के हिसाब से सिर्फ पेट पूजन में नित्य तीन हजार ! बाकी नहाना, धोना (झूम एपार्टमेंट की वाशिंग मशीन चलाने बेसमेंट में जाती है तो धुलाई के दो एवं सुखाई यानी ड्रायर के दो – उसे कुल चार डॉलर खर्च करना पड़ता है।),ओढ़ना, रहना, सोना…… तो उनके लिए ?

अब कुछ वहाँ के मिष्ठान्न के बारे में। मिष्ठान्न मितरे जना। मिठाई तो भाई मिल बाँट के ही खानी चाहिए। पहले तो यहाँ पर हमारे यहाँ की मिठाई मिलती ही न थीं। मगर अब किंग्सटन में भी आप उनके स्वाद से महरूम नहीं रहते। रुपाई ने दूसरे दिन ही किसी सुपर मार्केट से रसमलाई और गुलाब जामुन ले आया था। भाई, सच कबूल कर लेना चाहिए। रसमलाई सचमुच मजेदार थी। बनारस में अच्छी अच्छी दुकानों की रसमलाई भी चीनी डालकर खानी पड़ती है। मानो सभी केवल डायबेटीज के मरीजों के लिए ही बनाई गई हों। फिर एक दिन बेटी ने किसी दुकान का मिल्क केक भी खिलाया। बखान कैसे मैं करूँ, मन में हर्ष अपार/ खाकर मिठाई ऐसी मस्त हुआ संसार !

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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