हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ ‘हत्थ खिच्च के रखीं पुतर’…. स्व. शांतिरानी पॉल ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज  श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत है ई-अभिव्यक्ति के जीवन-यात्रा स्तम्भ के अंतर्गत श्रद्धांजलि स्वरुप एक प्रेरक प्रसंग –  ‘’हत्थ खिच्च के रखीं पुतर’…. स्व. शांतिरानी पॉल’। हम आपकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय-समय पर साझा करते रहेंगे।)

श्रद्धांजलि
☆ जीवन यात्रा ☆ ‘हत्थ खिच्च के रखीं पुतर’…. स्व. शांतिरानी पॉल ☆

वे चली गईं यह कहकर…. “हत्थ खिच्च के रखीं पुतर”!

शांतिरानी पॉल का आशीर्वचन  हमेशा एक ही होता था, “हत्थ खिच्च के रखीं पुतर” यानि खर्चा संभल के करना।

जीवन में भारी उतार चढ़ाव देख चुकी वे अक्सर कहती थीं, “मुसीबतों को ज़्यादा याद नहीं करना चाहिए, नेमतों को याद रखो, और सबसे बड़ी बात यह कि किफायत से जीवन जीओ। बुरे वक़्त में सबसे पहले रुपया पैसा ही काम आता है। वक़्त कभी भी बदल सकता है”।

अपने पीछे एक भरा पूरा खुशहाल परिवार छोड़ 94-वर्ष  की आयु में वे गत दिवस अनन्त में विलीन हो गईं।  उम्र के हिसाब से वे अच्छी सेहत की मालिक थीं और  खानपान, टेलीविजन और क्रिकेट का मज़ा लेते हुए चिंतामुक्त मस्ती भरा जीवन बिता रही थीं पर 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद उन्होंने बड़ा ही कष्टदायक जीवन देखा था।

विभाजन के वक़्त 6 महीने के पुत्र को लेकर लायलपुर से परिवार के साथ निकली शांतिरानी शिमला, हांसी और लुधियाना होते हुए आखिर हिसार में आकर बसी थी।

“पाकिस्तान से परिवार तो सही सलामत भारत आ गया था क्योंकि हम जुलाई 1947 में दंगे शुरू होने के तुरंत बाद ही निकल आए थे। सामान भी ट्रेन में बुक कराया था पर जब वो भारत पहुंचा तो ट्रकों और बोरियों में ईंट और पत्थर भरे मिले। कुछ गहने साथ ला सके थे, वहीं काम आए । शिमला में ननद के परिवार ने बड़ी मदद की, उन्हीं के कपड़े पहन कर 6 महीने गुजारे, फिर हांसी आ गए”।

“पति डॉ पाल की नौकरी कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना में लगी तो वहां चले गए। हरियाणा बनने पर उनकी बदली हिसार हुई तो यहां आ गए और बस यहीं के हो कर रह गए। इस शहर और यहां के लोगों ने हमें बहुत कुछ दिया”।

हेलो हैलो’ और ‘आई लव यू’

शांतिरानी छोटे बेटे डॉ विनोद पॉल के साथ रहती थीं पर कई देशों में काम कर रहे पोते-पोतियों के पास भी घूम फिर आई थीं।

“विदेशों में अंग्रेज़ी बोलने की कुछ समस्या रहती है पर ‘हेलो हैलो’ और ‘आई लव यू’ से काम चल जाता है। फिर बेटा, बेटी या बहू मेरे ट्रांसलेटर बनकर साथ चलते थे। इंडिया में मेलजोल बड़ा है। अपने बंदों में रहने की बात ही अलग होती है”।

शांतिरानी की बहू कविता  कहती हैं कि आखिर तक वे अपना कमरा खुद ठीक करती थीं । “मेरी शादी ग्रेजुएशन के बाद ही हो गई थी। फिर बेटा पैदा हुआ और बेटे की देखभाल और घर-गृहस्थी में मुझे लगा कि अब मेरी आगे की पढ़ाई नहीं हो सकेगी। अम्मा ने मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए भेजा और 6 महीने के मेरे बेटे की ऐसी देखभाल की कि वह कई साल तक अपनी दादी को ही मम्मी कहता रहा”।

सुख लेने में नहीं, देने में है

शांतिरानी को साढ़े तेरह हजार रूपए महीना फैमिली पेंशन मिलती थी। इसका वह पूरा हिसाब रखती थी। घर वालों को फिजूलखर्ची से रोकती थी।

“जब अम्मा को लगता  कि उसके खाते में चार लाख से ज़्यादा रुपए हो गए हैं तो वे  परिवार को इकट्ठा कर सब बेटे बेटियों में बराबर बांट देती थीं।

पर हमेशा इस नसीहत के साथ कि ‘हत्थ खिच्च के रखीं पुतर’, शांतिदेवी के पुत्र डॉ विनोद पॉल बताते हैं।

वानप्रस्थ संस्था में अपने सम्मान समारोह में पहुंची तो वहां भी 11 हजार की राशि दे आई और साथ में अपनी वही नसीहत भी, ‘हत्थ खिच्च के रखीं पुतर’।

अन्तिम समय तक अम्मा दिमागी तौर पर पूरी तरह अलर्ट थीं। चलने फिरने में तकलीफ होती थी। वे सादा भोजन करती थीं पर मिठाई और पकोड़े भी खाती थीं। नज़र भी सही थी। टेलीविजन स्क्रीन पर लिखे शब्द पढ़ लेती थीं।

लेडी-शो का मज़ा

अम्मा को सिनेमा का भी बड़ा शौक रहा। “पहले सिनेमा घरों में लेडी शो हुआ करते थे। बड़ी औरतें देखने जाती थी। राजेन्द्र कुमार मेरे प्रिय हीरो थे। ‘ससुराल’ और ‘आरज़ू’ फिल्में देखी थीं पर ‘मेरे महबूब’ नहीं देख सकी”, अम्मा ने पुरानी यादें खोजते हुए कहा था।

शांति रानी बाद में फिल्में कम और टेलीविजन सीरियल ज़्यादा देखती थीं, रोज़ाना करीबन 6 घंटे। क्रिकेट की भी बड़ी शौकीन थी। कोई खिलाड़ी ठीक न खेल रहा हो तो वे डांट लगाती थीं, “डुड्डा जेहा ना होवे ते”!

दिल बड़ा रखना चाहिए

बढ़ते पारिवारिक झगड़ों के बारे में सुन कर शांति रानी बड़ी हैरान होती थीं। “मुझे तो समझ ही नहीं आता कि लोग झगड़ते क्यूं हैं। चलो, छोटों ने कोई गलती करदी तो बड़ों को माफ कर देना चाहिए। बड़ों को हमेशा बड़ा दिल रखना चाहिए”।

उनकी यही सोच थी जिसने पूरे परिवार को बांधे रखा। सृजनात्मक सोच ही उनकी दीर्घ आयु का राज़ था।

नमन उनकी प्रेरणादायक स्मृति को।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी एम.ए. की पढ़ाई ज़ोरों से चल रही थी। लेकिन मुझे प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हुए बिना एम.ए. में प्रवेश नहीं मिलने वाला था। दीदी ने मुझसे पूरी तैयारी करवा ली और मैं प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हो गई। मेरे मन में मिश्रित भावनाएं थी। एक तरफ जिज्ञासा और खुशी, तो दूसरी तरफ पढ़ाई की जिम्मेदारी। एक तरफ मम्मी पापा के सेहत की बहुत चिंता थी। वैसे देखा जाए तो मुझे और दीदी को यह जिम्मेदारी उठानी थी और हमने वह सफलता से उठाई भी।

नृत्य के पहले दिन की और अभी की पढ़ाई, रियाज में जमीन-आसमान का अंतर था। अब शारीरिक और मानसिक गतिविधि के माध्यम से दर्शकों तक भावनाएं पहुंचानी थी। शारीरिक हलचल मतलब अंग, प्रत्यंग और उपंग। मतलब हाथ, पैर, सिर यह शरीर के अंग; हाथों की उंगलियां, कोहनी, कंधा यह प्रत्यंग और आंख, आंख की पलक, होंठ, नाक, ठोड़ी यह उपांगे। इनके गतिविधि से और मन के भावों से अभिनय को आसान माध्यम से मुझे दर्शकों तक पहुंचाना था। निश्चित रूप से यह मेरे लिए बहुत कठीन था और इसमें बहुत एकाग्रता की जरूरत थी।

नृत्य की शुरूआत के पल में दीदी मुझे स्पर्श से मुद्रा सिखाती थी। उसकी एक संकेतिक भाषा भी निश्चित थी। स्पर्श से मुद्रा जान लेना यह मैंने बहुत आसानी से सीख लिया था और इसकी मैं अभ्यस्त हो गई थी। लेकिन अब मुझे नृत्य का अभिनय कौशल्य, उसकी उत्कृष्टता दर्शकों के मन में अलंकृत होगी ऐसे प्रस्तुत करनी थी और वह भी संगीत के सहयोग से। क्योंकि नृत्य के शुरुआत के पल में बाजू में खड़े हुए व्यक्ति को भी मैं दोनों हाथों की बगल से, सिर्फ उंगली दिखा कर भी पहचान सकती थी। लेकिन अब इन दोनों के साथ मुद्राएं गर्दन, नजर, और  चेहरे के हाव-भाव के साथ, दर्शकों को दिखानी थी। मेरे मामले में नजर का मुद्दा था ही नहीं। मुझे परीक्षक और दर्शक इनको यह चीज बिल्कुल समझ में नहीं आनी चाहिए, ऐसे मेरा अभिनय, नृत्य पेश करना था।

मुझे इस अभ्यास में सबसे ज्यादा पसंद आयी हुई रचना मतलब अभिनय के आधार पर बनी, ‘कृष्णा नी बेगनी बारू’ (कन्नड़-मतलब-कृष्णा तुम मेरे पास आओ) इस पंक्तियों में मुझे यशोदा मां के मन के भाव, मातृभाव, बाल कृष्ण की लीलाएं अभिनय से पेश करना था। इसमें बाल कृष्ण रूठा हुआ है और उसके मनाने के लिए यशोदा मां कभी मक्खन दिखाती है, तो कभी गेंद खेलने बुलाती है। और बाल कृष्ण उसे अपनी लीलाओं से परेशान करता है। आखिर में उसी के मुंह में अपनी माता को ब्रम्हांड का दर्शन करवाता है। यह दोनों भाव अलग अलग तरीके से पेश करना यह मेरे लिए बहुत मुश्किल था। मैंने वह नृत्य में मग्न होकर, पूरे मन के साथ पेश की और उस अभिनय के लिए सिर्फ परीक्षकों ने हीं नहीं अपितु दर्शकोंने की भी बहुत सराहना मिली।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -11 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 11 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरा भरतनाट्यम नृत्य का एम.ए. का अभ्यास शुरू था। दीदी ने मुझे नृत्य का एक एक अध्याय देना शुरू किया। एम.ए. करते हुए मुझे जो जो परेशानियां आयी वह समझते हुए, उनकों याद करती हूँ। तो बहुत तकलीफ होती है और जीवन में मुझे जो परेशानियाँ आयी वह उनके सामने कुछ भी नहीं लगती। क्योंकि एम.ए जैसी उच्च पदवी हासिल करने के लिए जो कोशिश, मेहनत और मुख्य बात से एकाग्रता इनकी जरूरत होती है। जब मेरा यह कठिन अभ्यास शुरु था तब मेरे मम्मी-पापा के बढ़ती आयु, बुढ़ापे की वजह से उनके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ रहा था, इसलिए मैं बहुत चिंतित थी।

उस वक्त मेरे भाई ने मिरज सांगली के बीच में विजय नगर क्षेत्र में मकान‌ बनाया था। उसी वक्त मेरे माँ की  आंखों का ऑपरेशन हुआ था। इसलिए हम तीनों को वह उधर लेकर गया। लेकिन मेरी क्लास मिरज में था इसलिए मुझे रोज उधर से आना पड़ता था। ज्यादातर मेरा भाई कार से मुझे वहां तक छोड़ता था, लेकिन वह जब काम में व्यस्त रहता था तो मेरे पापा मुझे शेयरिंग ऑटोसे वहां तक छोड़ते थे। उसी वक्त मेरे पापा का पार्किंसन्स की बीमारी बहुत बढ़ गयी। मैंने एम.ए. करना चाहिए यह उनकी प्रबल इच्छा थी। इसीलिए हम कोई भी परेशानी आए उसका सामना करते थे, उस से नहीं डरते थे।

जब हम ऑटो की राह देखते थे तब बहुत बार हमें ट्रैफिक से भरी हुई सड़क पार करनी पड़ती थी। इसलिए हम जान मुठ्ठी में लेकर सड़क पार करते थे। तब मुझे पापा के हाथों की थरथराहट समझती थी, पैदल चलते वक्त

उनको हो रही तकलीफ मैं समझती थी। लेकिन वह कोई भी शिकायत न करते हुए मेरे लिए भरी धूप में आते थे।

उनकी कोशिश, मेहनत थी इसीलिए तो सब संभव हो पाया।

नृत्य के प्रदर्शनों का मार्गदर्शन शुरू हो गया था। लेकिन अब सवाल था थिअरी का। एम.ए. के पढ़ाई में भारतीय नृत्य के अध्ययन के साथ ‘तत्वज्ञान’ जैसा कठिन विषय था।

हर साल ऐसे कुल मिलाकर ४ विषयों की पढ़ाई मुझे करनी थी। अब बड़ा सवाल था वह पढ़ने का। मुझे, मैं अंदमान से आने के बाद जिन्होंने मेरा इंटरव्यू लिया था, वह सौ. अंजली दीदी गोखले इनकी याद आयी और मैंने उनको फोन किया। उन्होंने मुझे पढ़कर बताने के लिए खुशी से हाँ कह दिया। ऐसे मेरी वह भी परेशानी दूर हो गई। दीदी ने उनके एम.ए. के कुछ नोट्स मुझे पढ़ने के लिए दिए थे। इसके अलावा खरे मंदिर पुस्तकालय से कुछ संदर्भ ग्रंथ हमें मिले थे। इस तरह एम.ए. के पढ़ाई का रूटीन अच्छा चल रहा था।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -10 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 10 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

अंदमान के उस रमणीय सफर से मेरी नृत्य के क्षेत्र में और मेरे जिंदगी में भी मैंने बहुत बड़ी सफलता पाई थी| अंदमान से आने के बाद मुझे बहुत जगह से नृत्य के कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया गया| मैंने बहुत छोटे-बड़े जगह पर, गलियों में भी मेरे नृत्य के कार्यक्रम पेश किए और मेरी तरफ से सावरकर जी के विचार सब लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया| मेरा यह प्रयास बहुत छोटा था फिर भी मेरे और मेरे चाहने वाले दर्शकों के मन में आनंद पैदा करने वाला था| मेरा प्रयास, मेरी धैर्यता मिरज के लोगों ने देखी और २०११ दिसंबर माह में मिरज महोत्सव में मिरज भूषण पुरस्कार’ देकर मुझे सम्मानित किया गया|

‘अपंग सेवा केंद्र’ संस्थाने मुझे जीवन गौरव पुरस्कार’ देखकर सन्मानित किया| मैं जहा पढ रही थी उस कन्या महाविद्यालय ने मातोश्री पुरस्कार’ देकर मेरा विशेष सन्मान किया|

मेरे नृत्य का यह सुनहरा पल शुरू था तब मेरी गुरु धनश्री दीदी के मन में कुछ अलग ही खयाल शुरू था| उनको मुझे सिर्फ इतने पर ही संतुष्ट नहीं रखना था| उनकी बात सुनकर मुझे केशवसुतजी की कविता की पंक्तियां याद आ गई,

खादाड असे माझी भूक, चकोराने मला न सुख

कूपातील मी नच मंडूक, मनास माझ्या कुंपण पडणे अगदी न मला हे सहे .”

और दीदी ने मुझे भरतनाट्यम लेकर एम.ए. करने का खयाल मेरे सामने रखा, जिसको मैंने बड़ी आसानी से हा कह दिया| क्योंकि दीदी को प्राथमिक तौर पर और शौक के लिए नृत्य करने वाली लड़की नहीं चाहिए थी, बल्कि उनको मुझसे एक परिपक्व और विकसित हुई नर्तकी चाहिए थी जिसके माध्यम से भारतीय शास्त्रीय नृत्य ‘भरतनाट्यम’ इस प्रकार का प्रसार सही तरह से सब जगह किया जाए|

दीदी ने केवल दर्शकों की प्रतिक्रिया और खुद पर निर्भर न रहते हुए उन्होंने मेरा नृत्य उनकी गुरु सुचेता चाफेकर और नृत्य में उनके सहयोगियों के सामने पेश करके उनसे सकारात्मक प्रतिक्रिया हासिल की और मुझे एम.ए. के लिए हरी झंडी मिली|

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -9 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 9 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

अंडमान जाने को मिलना मेरे लिए बहुत ही सौभाग्य की बात थी। यह सब यादें मैंने  अपने मन में अभी भी संभाल कर रखी है।

अंडमान जाने के लिए मैंने पूरी तरह से तैयारी की थी। मेरे पापा की मदद़ से सावरकर जी की ‘जन्मठेप’ किताब का प्र.के. अत्रेजी द्वारा किया हुआ संक्षिप्त रूप मैने सुना। इसलिये मेरी मन की तैयारी हो गई। हम सिर्फ सफर पर नहीं जा रहे हैं बल्कि एक महान क्रांतिकारक के स्पर्श से पावन हुई भूमि को प्रणाम करने जा रहे हैं, यह मैंने मन में ठान लिया और वैसा अनुभव भी किया। लगभग १२८ सावरकर प्रेमी, सावरकर जीं के लिए आदर रखने वाले वहां गए थे। महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली ऐसे प्रांतों से प्रेमी इकट्ठे हुए थे। ऐसा लग रहा था कि सब लोगों की एकता जागृत हो गई है। हम सब लोग हरिप्रिया एक्सप्रेस से पहली बार तिरुपति गए। बेलगाम स्टेशन पर सब का भव्य स्वागत हुआ। सावरकर जी के तस्वीर को फूलों की माला चढ़ाई। छोटा सा भाषण भी हुआ। नारेबाजी से बेलगाम स्टेशन हिल गया, आवाज गूंजने लगी। वह अनुभव बहुत रोमांचक था। हम चेन्नई पहुंच गए। चेन्नई से अंडमान हमारा ‘किंगफिशर’ का हवाई जहाज था। मेरे साथ मेरी बहन तो थी ही लेकिन बाकी लोगों ने भी मुझे संभाल लिया।

एयर होस्टेस ने भी बहुत मदद की। वह मेरे साथ हिंदी में बोल रहे थे। उन्होंने हवाई जहाज का बेल्ट कसने के लिए मेरी मदद की। इस सफर के कारण मैंने अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी ऊंचाई को छू लिया। हवाई जहाज का सफर अच्छी तरह से हो गया और सावरकर जी जिस कमरे में कैद थे वहां उनको प्रणाम करने का अवसर मिला।

अंडमान में उतरने के बाद हम सब सावरकर प्रेमियों को फिर एक बार सावरकर युग का अवतार हुआ है ऐसा लगा। हम सब सावरकर प्रेमियों ने तीन दिन के कार्यक्रम की तैयारी की थी। अंडमान में ‘चिन्मय मिशन’ का एक बहुत बड़ा सभागार है।वहाँ बाकी सब लोगों के कार्यक्रम हो गए। पहले दिन बेलगाम का विवेक नाम का लड़का था। उसका कद सावरकरजी की तरह ही था, वैसा ही दुबला पतला। उसके हाथ पैर में फूलों की माला डालकर जेल तक हमने जुलूस निकाला। सावरकर जी को जैसा ध्वज अपेक्षित था, वैसा ही केसरी ध्वज और उस पर कुंडलिनी शक्ति लेकर गए थे। वही ध्वज लेकर सब लोगों ने बड़े आदर के साथ प्यार से सावरकर जी के उस कमरे तक जाकर उनको प्रणाम किया। वह जेल बहुत ही भयावह लग रही था। वह बड़ी जेल, बड़ी जगह, फांसी का फंदा, जहां कैदियों को मारते थे वह जगह, सब सुनकर मैं हैरान हो गई। सावरकर जी जो पहनते थे उस कोल्हू को मैंने हाथ लगा कर देखा तो मैं हैरान हो गई। कोल्हू याने कि जिसे बैल को बांधकर जिससे तेल निकाला जाता है, उसी कोल्हू को बैल की जगह सावरकर जी को बांधकर ३० पौंड तेल निकाला जाता था। अपनी भारत माता के लिए उन्होंने कितने कष्ट उठाए, अत्याचार सहे, कितनी चोटें खाई उसकी याद आयी तो मेरे शरीर पर रोमांच उठ गए। आंखों से आंसू आते थे। उनके त्याग की कीमत हम लोगों ने क्या की? ऐसा ही लगता था, अफसोस होता है।

हमारे साथ दिल्ली के श्रीवास्तव जी थे। वे ७५ साल के थे। आश्चर्य की बात यह है कि उनके ५२ साल तक उनको सावरकर जी कौन थे यह मालूम ही नहीं था। उनका कार्य क्या है यह भी मालूम नहीं था। लेकिन एक बार उनके कार्य की महानता, उनका बड़प्पन मालूम पड़ा तो वह इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने सावरकर जी के कार्यों पर पी.एच.डी. हासिल की।

श्रीवास्तव दादाजी नें हमें जेल के उस जगह पर सावरकर जी की खूब यादें बताई। उस में से एक बताती हूं, अपने एक युवा क्रांतिकारी को दूसरे दिन फांसी देना था, तो जल्लाद ने उनको पूछा “तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है?”, उस पर वह बोले, “मुझे उगता हुआ सूरज दिखाओ”। तो जल्लाद ने हँसकर कहा, “तुम लोगों के लिए मैं ही सूरज हूँ।”  उस पर वह क्रांतिकारक ने तुरंत उत्तर दिया “तुम डूबता हुआ सूरज हो,  मुझे उगता हुआ सूरज दिखाओ, मुझे सावरकर जी को देखना है”, धन्य है वह क्रांतिकारी ।

वहाँ के हॉल में कोल्हापुर के पूजा जोशी ने, ‘सागरा प्राण तळमळला’ यह गीत पेश किया। रत्नागिरी के लोगों ने सावरकर और येसु भाभी में जो वार्तालाप था वह पेश किया। इसलिए मैंने कहा कि उधर सावरकर युग छा गया था।

अपनी मातृभूमि को परतंत्रता के जंजीरों से मुक्त करने के लिए सावरकर जी ने कितने कष्ट उठाए, अत्याचार सहे; यह सब आज की युवा पीढ़ी को समझना ही चाहिए। इसीलिए हमारे सांगली के ‘सावरकर प्रतिष्ठान’ के लोग आज भी नए-नए कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे हैं।

सब लोगों ने सावरकर जी की ‘माझी जन्मठेप’ यह किताब पढ़नी चाहिए, ऐसी मैं सबसे विनम्र प्रार्थना करती हूँ।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मासिक स्तम्भ ☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #1 – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆ आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हम माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ कर रहे हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार. 

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #1 – खुद से खुद का साक्षात्कार बतर्ज हम को हमीं से चुरा लो…..  श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

लेखक परिचय  

नाम :   प्रभाशंकर उपाध्याय

जन्म : 01.09.1954

जन्म स्थान : गंगापुर सिटी (राज0)

शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि।

व्यवसाय : स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर से सेवानिवृत अधिकारी।

सम्पर्क :  193,महाराणा प्रताप कॅालोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन-322001

मोबाइल सं. :  9414045857, 8178295268

कृतियां/रचनाएं : चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान : कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।

 

खुद से खुद का साक्षात्कार बतर्ज हम को हमीं से चुरा लो…..  श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

ब्रज भाषा के महाकवि देव ने एक बार मन को तड़ी दी थी- नासपीटे, तेरी शरारतों का जरा सा भी अनुमान होता तो तेरे हाथ-पांव तोड़ देता।

अतएव, उसी भय से मैं शैतान  मन को अपना साक्षात्कार नहीं दे रहा बल्कि अपने हम को यह सुनहरा अवसर प्रदान कर रहा हूं। लिहाजा, हम को हमीं से चुरा लो गीत की तर्ज पर हमारे हम (जिसे मैंने  ‘प्रतिच्छाया हम’ लिखा है) के द्वारा ‘हम’ से लिया इंटरव्यू प्रस्तुत किए दे रहा हूं।  लिहाजा, दोनों में जो तीखी तकरार हुई, उसका लुत्फ़ लीजिए है-

हम(प्रतिच्छाया)- तुम लेखक ही क्यों भए…और कुछ क्यों न?

हम- हमरा जनम गणेश चतुर्थी के दिन हुआ था, चित्रा नक्षत्र में। सो मामाश्री ने नामकरण किया, गजानन। शास्त्रों में कहा गया है – ‘सा एशा गणेश विद्या’ (वह विद्या (लिपि) है जिसे गणेश जानते हैं) महाभारत के लेखन के लिए व्यासजी, गणेश जी का स्मरण करते हुए लिखते हैं- ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक’। हे गणनायक! आप भारत ग्रंथ के लेखक हों।

गणनायक अर्थात् गणपति … जिन्होंने वैदिक ऋषियों के अनुनय पर वायु में विलीन हो रहे स्वरों और व्यंजनों को सर्वप्रथम आकृति प्रदान की और विश्व के प्रथम लेखक बने।

अत: उसी परंपरा का अनुशीलन करते हुए यह अकिंचन गजानन भी लेखकीय कर्म में अनुरत हुआ।

तुम्हारे प्रश्न का दूसरा गजब उत्तर और देता हूं कि मामू ने गजानन नामकरण क्यों किया? हमारे थोबड़े पर पोंगड़ा सी नासिका तथा सूप सरीखे कर्ण भी गजमुखी होने का आभास कराते थे, सो ‘गज-आनन’ रखा।

हम(प्रतिच्छाया)- मगर, व्यंग्यकार ही क्यों हुए, कथाकार भी तो हो सकते थे?

हम- अय…मेरे हमसाए! अब, इसका उत्तर भी सुन। पंडितजी ने जब जन्मकुंडली हेतु मत्था मारा तो नाम निकला- प्रेमचंद। हमें लगता है कि पिताजी उस नाम पर बिचक गए थे। कदाचित उन्होंने प्रेमचंदजी की फटे जूते वाली तस्वीर देख ली होगी सो घबरा कर, कन्या राशिषन्तर्गत वैकल्पिक नाम रखा-प्रभाशंकर। इस प्रकार हम कहानीकार होते होते रह गए।

हम(प्रतिच्छाया)- वाह गुरू! प्रेमचंद नाम होने से ही हर कोई कथाकार हो जाता है और प्रभाशंकर होने से व्यंग्यकार? बात हजम नहीं हुई।

हम- तुमने गुरू ही बोल दिया है तो तर्क-ए-हाजमा भी हम ही देते हैं। ध्यान देकर सुनो। हम हैं, प्रभाशंकर। संधि विच्छेद हुआ प्रभा+शंकर। भगवान शंकर के पास तीन नेत्र हैं बोलो…हैं कि नहीं? और जब जगत में भय, विद्रुपताएं, अनाचार आदि बढ जाते हैं तो उनका तीसरा नेत्र खुल जाता है।  अत: हम भी शंकर की वही ‘प्रभा’ हैं। सांसारिक दो नेत्रों से विसंगतियों, विषमताओं, अत्याचारों और टुच्चेपन को निरखते हैं तथा अपनी ‘प्रभा’  रूपी तीसरी आंख यानी कलम से उन पर प्रहार करते हैं। बोलो सांचे दरबार की जय…। तुम्हारे ज्ञानवर्धन के लिए एक बात और बता दें कि डॉ. हरिश्चंद्र वर्मा के अनुसार – व्यंग्य व्यवहार में महादेव की भांति रुद्र है और परिणाम में शिव। जरा सोचो बरखुरदरी कि हरिश्चंद्रजी तो असत्य लिखने से रहे।

एक पते की बात और कि पिता ने प्रभाशंकर नाम ही रखा गर, हरिशंकर रखा होता तो हम परसाई भी हो जाते और अगर गजानन ही हुआ रहता तो कविश्रेष्ठ ‘मुक्तिबोध’ हो रहते फिर आते हमारे अच्छे दिन और पुरोधाओं के बिगड़ जाते..हा…हा…।

हम(प्रतिच्छाया)- तुम कुतर्क कर रहे हो प्यारे!और बेशर्मी से दांत भी फाड़ रहे हो पर हमारे पास तुम्हारे इस कुतर्क को मानने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं। खैर, यह बताओ कि व्यंग्य लेखन में तुमने कोई बड़ा तीर मारा  या अभी तक सिर्फ भांजी ही मार रहे हो?

हम- चारा तो अब बचा भी नहीं है क्योंकि उसे तो बरसों पूर्व बिहार का एक पूर्व मुख्यमंत्री खा गया था और अब ‘बे – चारा’ हुए कारावास भुगत रहा है। सो तुम भी चारे के चक्कर ना पड़ो तो ही अच्छा है। चुनांचे, अपने सवाल का जवाब सुनो- भांजी मारना सबसे आसान काम है। आजकल, अधिकांश व्यंग्य लेखक यही कर रहे हैं और हम भी। देखो डियर, हम इस मुगालते में कतई नहीं हैं कि परसाई, शरद, त्यागी या शुक्ल बन जाएंगे। अरे, हम तो ज्ञान और प्रेम भी नहीं बन सके। अलबत्ता, दुर्वासा अवश्य बन सकते थे लेकिन हमारे पास श्राप-पॉवर नहीं था सो कलमकार होकर अपना क्रोध कागजों पर उतारने लगे। कुछ संपादक दया के सागर होकर छाप देते हैं सो अपनी दुकान चल निकली है।

हम(प्रतिच्छाया)- यूं ही यत्र-तत्र छपते रहे या कोई किताब-शिताब भी लिखी?

हम- अब तुमने हमारी दुखती रग पर दोहत्थड़ मार दिया है, यार! कहने को तीन पुस्तकें हैं किन्तु कोई पढता नहीं उन्हें। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने सूपड़ा साफ कर दिया है। किताबें जो हैं, मरी मरी सी जी रही हैं सोचती होंगी कि यह जीना भी कोई जीना है लल्लू?

हम(प्रतिच्छाया)- जैसी भी हैं, उनके नाम तो बता दीजिए?

हम- ए..लो..तुमसे भी कोई बात छिपी है, ब्रदर! यूं भी हिन्दी लेखक के पास छिपाने को अपना कुछ होता नहीं है। कुछ अरसा पहले लेखकों की चाहने वालियां हुआ करती थीं। उनके खतो-खतूत की खुश्बू में लेखक महीनों डूबता-उतराता रहता था पर अब तो वह तरावट भी नहीं। अब, मामला खुली किताब सा है। फिर भी तुमने नाम पूछे हैं तो बताए देते हैं- ‘नाश्ता मंत्री का गरीब के घर’(1997), ‘काग के भाग बड़े’(2009), ‘बेहतरीन व्यंग्य’(2019)

हम(प्रतिच्छाया)- मान गए गुरू, तीसरे संकलन का टाइटल ही बेहतरीन व्यंग्य है। इसमें सब बेहतर ही बेहतर होगा?

हम- मां बदौलत, सिर्फ किताब का टाइटल ही बेहतर है, वह भी प्रकाशक की बदौलत बाकी सब खैर सल्ला…।

हम(प्रतिच्छाया)- तुम्हें व्यंग्य में तलवार भांजते हुए तीन दशक से ऊपर हो गए और महज तीन किताबें। तीसरी में भी अधिसंख्य पूर्व के दो संग्रहों से छांटे हुए हैं। बहुत बेइंसाफी है, यह। लोग तो एक साल में ही 25-25 निकाले दे रहे हैं। अब, तुम चुक गए हो उस्ताद!

हम- तुमने उस्ताद कहा है तो यह भी सुन लो कि उस्ताद चुक कर भी नहीं चुकता। वह इंटरव्यू देता है जैसे हम तुम्हें दे रहे हैं। उस्ताद पुरस्कार हथियाता है। उस्ताद मठ बनाता है।

हम(प्रतिच्छाया)- वाह! भाईजान! इंशाअल्ला, तुमने भी पुरस्कार हड़पे और मठ बनाए होंगे….बोलो हां।

हम- नो कमेंट।

हम(प्रतिच्छाया)- चलो, कोई चेले-वेले भी बनाए या कि यूं ही एकला चलो रे का राग अलापते रहे हो?

हम- दो चार जने हैं जो हमें एकांत में गुरू का दर्जा देते हैं किन्तु खुलकर सामने आने से कतराते हैं। अपनी रचनाओं में सुधार करवा ले जाते हैं लेकिन संकलनों में उस बात का उल्लेख नहीं करते। कुछ चेलों ने अपनी किताबों के लिए भूमिका और प्राक्कथन भी लिखवाए। हमने बड़ी मेहनत से उन्हें लिखा मगर वे भूमिकाएं उनकी किताबों में किसी और के नाम से छपीं। पूछा तो मासूमियत से बोले, यह प्रकाशक की बदमाशी है। उस मुए ने आपका नाम हटा कर दूसरे का डाल दिया। हमने भी नेकी कर और कुएं डाल वाली उक्ति का स्मरण करते हुए खुद को दिलासा दे लिया। दरअसल, चेले भी कुछ ही रोज में शक्कर हो जाते हैं।

हम(प्रतिच्छाया)- निराश न होओ गुरूवर क्योंकि तुमने गुरूदेव बनने का यत्न किया। गुरूघंटाल बन जाते तो ऐसा न होता। खैर, तुम्हारी एक रचना- ‘आह! दराज, वाह! दराज’ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हुई और सीनियर सैकेंडरी के लाखों विद्यार्थियों तक ले गयी। तुमने गुरुदेव की भांति छात्रों को पाठ पढाया है, गुरु!

हम- हां, भाई! उस तुक्के को तीर बना देख अपन भी चकित हुए थे। दरअसल, कादम्बिनी में 2002 में प्रकाशित वह रचना पाठ्यक्रम समिति के एक सदस्य को इतनी भायी कि उसे उन्होंने कोर्स में घुसवा दिया। बाद में बोर्ड ने सहमति मांगी तो मैंने पूछा कि इसमें ऐसा कौन सुर्खाब का पर लगा है कि आपने इसे कोर्स में फिट कर दिया। तो उत्तर मिला कि यह भाषा विज्ञान पर अच्छा व्यंग्य है। सन् 2006 में एक मास्साब ने दूरभाष पर सूचित किया था कि म्यां! तुमने शिक्षा विभाग में भी अपनी घुसपैठ कर ली है। लाहौलविला कुव्वत!

हम(प्रतिच्छाया)- तुमने संस्मरणों पर आधारित एक किताब ‘यादों के दरीचे’ भी लिख मारी थी लेकिन बैंकवाला उपन्यास ‘कागज से कोर’ अभी तक कोरा क्यों है?

हम- दरअसल,  बढ़ती कलम नामक एक अखबार में साप्ताहिक स्तंभ लेखन के तहत संस्मरणों की एक लेखमाला अठारह महीनों तक लिखी थी। फिर, किताबगंज वाले डॉ. प्रमोद सागर मेहरबां हो गए तो ‘यादों के दरीचे’ डायरी के रूप में आ गयी। बैंकवाला उपन्यास ‘कागज से कोर’ सरकारी प्रोजेक्ट की भांति रेंग रहा है। त्रिवर्षी योजना थी जो कालांतर से पंचवर्षीय हुई। बीच बीच में अनेक स्टे आते रहे सो वर्क ऑर्डर पूरा न हो सका। अब, उम्मीद से हूं कि सप्तवर्षीय प्लानिंग के अंतर्गत काम पूरा हो जाएगा। आगे अल्लाह मालिक…।

हम(प्रतिच्छाया)- अब, एक अंतिम प्रश्न। आप व्यंग्य मूल्यों के लिए लिखते हैं कि मूल्यांकन के लिए?

हम- निश्चित तौर पर दोनों के लिए। जो मूल्य देता है, उसके लिए तो तुरंत। यूं भी आजकल पत्रम्-पुष्पम देनेवाली पत्र-पत्रिकाएं बेहद कम बची हैं।

हम(प्रतिच्छाया)- अरे…नहीं… हम जीवन-मूल्यों की बात कर रहे हैं।

हम- ओहो…जीवन मूल्य। जीवन बड़ा मूल्यवान है, भिया! वह बचेगा तो ही हम लिखेंगे ना…।

हम(प्रतिच्छाया)- इतने नादान और कमसिन ना बनो यार! तुम खेले खिलाड़ी हो। मैं नैतिक मूल्यों से संबंधित सवाल कर रहा हूं।

हम- कौन से मूल्य? कुछ सुनाई नहीं दे रहा। ऊंचा सुनने लगा हूं ना…।

हम(प्रतिच्छाया)- तो…हम तुम्हारे सिर पर खड़े होकर बोल देते हैं।

हम- लो..अब, तुम सिर पर भी चढने लगे।

हम(प्रतिच्छाया)- चलो, कान पास लाओ…उसमें बोल देते हैं।

हम- नहीं, तुम्हारा भरोसा नहीं, कान काट दोगे…फिर हम जमाने को मुंह कैसे दिखाएंगे।

हम(प्रतिच्छाया)- कमाल है, हम पर भी यकीन नहीं?

हम- विश्वास तो बाप का भी नहीं किया जाता आजकल और माई-बाप यानी सरकार से तो कतई उठ गया है, लोगों का।

हम(प्रतिच्छाया)- यही तो हम भी पूछ रहे हैं, नैतिक मूल्य इस कदर गिर गए हैं कि बाप और माई-बाप से भी विश्वास उठ गया।

हम- अच्छा तो तुम उन नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हो जो सियासत, समाज और साहित्य से तेल लेने चले गए थे और अब तक लापता हैं। तुम्हारे मुताबिक हमें उनकी पुनर्स्थापना के लिए कुछ करना चाहिए। क्यों, पगलैट समझ रखा है, हमें? जब, सरकार ही विस्थापितों की पुनर्स्थापना के लिए कुछ नहीं करती तो हम व्यंग्यकारों ने ठेका लिया हुआ है कि लापता और उखड़े हुए मूल्यों को प्रस्थापित करने के लिए दुबले हुए जाएं। हमरा तो क्लियर-कट एक ही फंडा है, ढिंढोरा खूब पीटो और करो कुछ मत। यथा राजा तथा प्रजा। आमीन।

इतना सुनते ही हमारी प्रेतछाया विलीन होकर अपने ठौर पर जा टिकी।

 

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -8 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -8 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी नृत्य की यात्रा का परमोच्च बिंदू और अविस्मरणीय पल अंडमान मे स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी को जिस कमरे मे बंद किया था, वहा लिखे हुए गीत पर मेरे गुरु के साथ नृत्य करने का मुझे आया हुआ अनमोल क्षण| यह परमभाग्य का क्षण हमे मिला और हमारे जन्म का कल्याण हुआ|

२०११ वर्ष स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी के धैर्य से दौड़ने का शतक साल| इस महान साहस को उच्च कोटी का प्रणाम करने के लिए सावरकर प्रेमियों ने ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर अंडमान पदस्पर्श शताब्दी उत्सव’ चार जुलै से बारह जुलै तक इस काल में आयोजित किया था। अंडमान के उस जेल में जाकर सावरकर जी के उस कमरे को नमन करने का भाग्य जिन चुनें हुए भाग्यवान लोगों को मिला, उस में हम तीन, याने मैं, मेरी गुरु सौ. धनश्री आपटे और मेरी सहेली नेहा गुजराती थे|

मै खुद को खुशनसीब समझती हूँ कि मुझे अंडमान जाने को मिला| उसके लिये सावरकर जी के आशीर्वाद, मेरे माता पिता जी का आधार, धनश्री दीदी की मेहनत और मेरी बहन सौ. वर्षा और उसके पति श्री. विनायक देशपांडे इन सबकी मदद का लाभ मुझे मिला|

सांगली जिले में ‘बाबाराव स्मारक’ समिती है| उधर बहुत सावरकर प्रेमी लोग काम करते है| उस में से एक थे श्री बालासाहेब देशपांडे| २०११ साल स्वातंत्र्य स्वातंत्र्यवीर जी के धैर्य, साहस का सौवां साल था| अपनी भारत माता पारतंत्र्य में जकड़ी हुई थी| यह वे सह नहीं पाते थे| इस एक ध्येय के कारण ही उन्होंने एक उच्चतम पराक्रम किया| उसके कारण ही हम सब भारतीय स्वातंत्र्य का आनंद उठा रहे है, खुली सांस ले रहे है| उनकी थोडी तो याद हमें रखनी चाहिये ना? उनको अंडमान जाकर प्रणाम करना चाहिए, ऐसा इन सब लोगों ने तय किया| स्वातंत्रवीरों के गीत गाकर नृत्याविष्कार करके प्रणाम करने का तय किया था| उसके लिये मैं, धनश्री दीदी और नेहा ने नृत्य की तैयारी की थी|

लगभग दो-तीन महीने हम नृत्य की तैयारी कर रहे थे| जेल के उस कमरे में सावरकर जी ने काटों से, कीलों  से लिखी हुई कविता पेश करना तय किया| उस गीत को विकास जोशी जी ने सुर लगाकर सांगली की स्वरदा गोखले मैडम से कविता सादर की| धनश्री दीदी के कठिन प्रयास से और मार्गदर्शन से नृत्य अविष्कार पेश किया गया|

मैं खुद को बहुत खुशनसीब समझती हूँ।  हम तीनों ने सावरकर जी के उस कमरे में, जहां उनको बंद करके रखा था, उधर नृत्य पेश किया| उस कमरे का नंबर १२३ था| आश्चर्य की बात यह है कि, लोगों को, पर्यटकों को देखने के लिए वह कमरा जैसा था वैसा ही रखा हैं| हम जिस दिन उस कमरे में गए थे, वह दिन सावरकर जी ने धैर्यता से जो छलांग मारी थी, वह वही दिन था | उस दिन सावरकर जी की तस्वीर उधर रखी थी| सब कमरा फूलों से सजाया था| जिस दीवारों को सावरकर जी का आसरा मिला था उस दीवारों के ही सामने हमने सावरकर जी का अमर काव्य, अमर गान पेश किये| वह कमरा सिर्फ १०x१० इतना छोटा था| जैसे-तैसे तीन चार आदमी खड़े रह सकते हैं इतना ही था|लेकिन हमें उन्ही दीवारों को दिखाना था कि उनके ऊपर सावरकर जी ने लिखे हुए अमर, अनुपम कविताएं नृत्य के साथ उन्हें बहाल कर रहे हैं| धनश्री दीदी ने बहुत अच्छी तरह से सायं घंटा नाम का नृत्य पेश किया| उस कविता का मतलब समझ लेने जैसा है| जेल में बंदी होते थे उस समय सावरकर जी के हाथों में जंजीर डालकर बैल की तरह घुमा-घुमा कर तेल निकालना पड़ता था| बहुत ही कठिन और परेशानियों का काम था वह| उस वक्त का जेलर बहुत क्रूरता से पेश आता था| परिश्रम के सब काम खत्म होने के बाद शाम को कब घंटी बजाता है इस पर कैदियों की नजर होती थी| शाम की घंटी बज गई तो हाय! यह दिन खत्म हो गया ऐसा लगता था| वह काव्य जिस कमरे में लिखा था उसी कमरे में धनश्री दीदी ने नृत्य पेश किया| वह जेलर कैसे परेशान करता था वह उन्होंने दिखाया| उसी के साथ सावरकर जी की संवेदना अच्छी तरह से पेश की गई|

मैं और नेहा गुजराती हम दोनों ने सावरकर जी मातृभूमि की मंगल कविता मतलब “जयोस्तुते” पेश किया| बहुत बुद्धिमान ऐसे सावरकरजी ने जो महाकाव्य लिखा और मंगेशकर भाई-बहन ने बहुत ही आत्मीयता से वह भावनाएं हम तक पहुंचाई, अपने मन में बिठाई, उस नृत्य को पेश करने का भाग्य हमें मिला|

‘जयोस्तुते’ पेश करते समय मैं शिल्पा ‘भारत माता’ बनी थी|नेहा ने नकारात्मक चरित्र पेश किया था| याने वह   नकारात्मक चरित्र और भारत माता की लड़ाई हमने दिखाइ थी| तुमको बताती हूं, ‘हे अधम रक्त रंजिते’ इस पर नृत्य करते समय, मुझमें जोश आ गया था| वह नकारात्मक शक्ति लड़ते वक्त जब पैरों पर गिर गई थी, तब मुझे भी बहुत खुशी हुई थी| इस प्रकार जयोस्तुते इस जगह पर पेश करने को मिला, इसे मैं अपनी किस्मत समझती हूँ|

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -7 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -7 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

सुबह सुबह जल्दी, सूरज निकलने से पहले एक कली धीरे-धीरे खिल गई। आपकी प्रस्तुति कह गई। रात कब की चली गई है। जल्दी-जल्दी सुबह होने लगी। याने मेरे मन के नृत्य सीखने के विचारों का नया जन्म हुआ। इस कली के हलके से हवा में खिलने लगे, धनश्री दीदी के विचारों जैसे ।

सच तो यह है कि भरतनाट्यम नृत्यप्रकार सीखना सिर्फ और सिर्फ आँखो से देख कर सीखना यही कला है। इसलिये मुझे और दीदी को बहुत परेशानियों का सामना करना पडा। फिर भी दीदी ने मेरे मन के तार जगाने शुरू किए। हम दोनों के ध्यान में एक बात आ गई, शरीर एक केवल माध्यम हैं, आकृति है। शरीर के पीछे याने आंतरिक शक्ति के आधार से, हम बहुत कुछ सीख सकते है। दीदी के बाद मैंने स्पर्श, बुद्धि, और मन की आंतरिक प्रेरणा, प्रेमभाव के माध्यम से नृत्य सीखना शुरू कर दिया। सीखते समय हस्तमुद्रा के लिये हमारे सुर कैसे मिल गये पता भी नही चला।

नृत्य सीखने के अनेक तरीके होते है। उसमे अनेक कठिनाइयाँ और संयोजन रहते हैं, जैसे कि दायाँ हाथ माथे पर रहता है तब बायाँ पैर लंबा करना, बयान हाथ कमर पर होता है तो, दायें पैर का मण्डल करके भ्रमरी लेते वक्त दायाँ हाथ माथे पर रखकर बयान हाथ घुमाकर बैन ओर से आगे बढ़न और गोल-गोल घूमना। गाने के अर्थ के अनुरूप चेहरे के हाव-भाव होने चाहिये। ऐसे अनेक कठिनाइयों का सामना कैसे करना चाहिए यह सब दीदी ने बडे कौशल्य के साथ सिखाया है। सच में अंध व्यक्ति के सामने रखा हुआ पानी का लोटा लेलो कहने को दूसरों का मन हिचकताहै, फिर भी इधर तो अच्छा नृत्य सिखाना है।

नृत्य की शिक्षा जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, वैसे-वैसे अनेक   कठीनाईयोंका सामना करना पडता है। आठ-नौ बरस सीखने के बाद अभिनय सीखने का वक्त आ गया। उधर भी दीदी ने अपने बुद्धिकौशल्य से छोटे बच्चों को जैसे कहानियाँ सुनाते है, उनके मन में भाव पैदा करते है और उसका इस्तेमाल करते है, वैसा ही सिखाया।

मेरी सब परेशानियों मे बहुत बडी कठिनाई थी, मेरी आवाज की। नृत्य में घूमकर मुझे लोगों के सामने आने के लिए मेरा चेहरा लोगों के सामने हैं या नहीं, सामनेवाले देख सकते है या नहीं, यह मुझे समझ में नही आता था। फिर भी दीदी ने इन कठिनाइयों का सामना भी आसानी से किया। आवाज की दिशा हमेशा मेरे सामने ही रहना चाहिए, उसके आधार से फिर दो बार घुमकर सामने ही आती थी।

दीदी के कठिन परिश्रम, अच्छे मार्गदर्शन, मेरे मेहनत रियाज और साधना का मिलाप होने के बाद मैं गांधर्व महाविद्यालय की ‘नृत्य विशारद’  पदवी, ‘कलावाहिनी’ का ५ साल का कोर्स, टिळक महाराष्ट्र विद्यापीठ की नृत्य की एम.ए. की पदवी सफलता से प्राप्त की। जिसकी वजह से मैं विविध क्षेत्र में, मेरे अकेली का स्टेज प्रोग्राम कर सकती हूँ। ऐसे मेरी यश और कुशलता बहुत वृत्तपत्र और दूरदर्शन तथा अन्य प्रसार माध्यमों ने सविस्तार प्रस्तुत किए हैं।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

 

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -6 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -6 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

कॉलेज में मजा-मस्ती करते करते साल कैसे गुजर गया मालूम ही नही पड़ा  कुछ दिन के बाद रिझल्ट आ गया और मैं मराठी विषय लेकर बी.ए. अच्छे मार्क्स लेकर पास हो गई। सबको बहुत खुशी हो गई। सब लोगो ने मुझे बधाई दी। प्यार से मिठाई खिलाई।

अब आगे क्या करना है, मन में सवाल उठने लगे। कोई लोग बोले, मराठी में इतने अच्छे मार्क्स मिले है, एम.ए. करो। कोई बोलने लगे, तुम्हारी आवाज इतनी मधुर है, तो गाना सिखो।

बचपन से ही मुझे नाचने का बहुत शौक था। मुझे चौथी कक्षा तक अच्छा दिखाई देता था। जन्म से ही मोतियाबिंद था, तो भी ऑपरेशन के बाद थोडा-थोडा दिखाई देने लगा था। बहुत छोटी थी तब से मोतियाबिंद था इसके लिए कांचबिन्दु बढ़ गया। चौथी कक्षा के बाद से दृष्टि कम होने लगी थी।

बी.ए. होने के बाद २१ साल में मैंने भरतनाट्यम सीखना शुरू किया। भरतनाट्यम ही क्यूँ? मुझे अभी भी याद आता है। मेरे पिताजी विद्या मंदिर प्रशाला, मिरज, पाठशाला में अध्यापक थे। उस वक्त दिल्ली में एक कोर्स में उनको नया प्रोजेक्टर स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिला था।  उसमें भारत के प्राचीन मंदिरों के स्लाइड्स पुरस्कार के रूप मे मिले थे। भारतीय नृत्य की सब पहचान, नृत्य की अदाकारी मिली थी। भगवान की कृपा से मुझे जब अच्छी तरह से दिखाई देता था, तब ही नृत्यमुद्रा, सुंदर पहनावा, अच्छे-अच्छे अलंकार मेरे मन को छू गए।  मेरी नजर तो चली गई, फिर भी मन में दृश्य अभी भी आइने के सामने वैसे ही है, जो मैने उस वक्त देखा था। उसका बुलावा मुझे हमेशा साथ देता आ रहा है। अच्छा पेड़ लगाया तो, अच्छी हवा में अच्छी तरह से फैलते है, और बडे होते है, ऐसा बोलते है ना? मेरा मन भी उसी प्रकार ही है। सच में यह सब मेरी नृत्य गुरु के कारण ही हुआ है। मेरी नृत्य गुरु मिरज की सौ. धनश्री आपटे मॅडम। मेरे नृत्य के, मेरे विचारधारा के प्रगति के फूल खिलनेवाली कलियाँ, मेरे आयु का आनंद और एक तरह से मेरे जीवन में बहार देने वाली मेरी दीदी सौ. धनश्री ताई यही मेरी गुरु, मेरी  मॅडम।

 

ऐसे गुरु मुझे सिर्फ नसीब से मिले। मेरी माँ और पिताजी की कृपादृष्टी, भगवान का आशीर्वाद और दीदी का बडप्पन इन सब लोगों की सहायता से प्राप्त हुआ।

बी.ए. पास होने के बाद, मेरी नृत्य सीखने की इच्छा माँ और पिताजी को बतायी। मेरे पिताजी ने सोच समझ कर निर्णय लिया। मुझे कोई तो नृत्य सीखने के लिए गुरु ढूँढने लगे।

धनश्री दीदी के बारे मे मालूम होने के बाद पापाजी मुझे दीदी के पास लेकर गये। पहिला दिन मुझे अभी भी याद है। पापा ने मेरी पहचान दीदी से कर दी। मेरे लडकी को आपके पास नृत्य सीखना है, आपकी अनुमति हो तो ही। मेरा चलना, इधर-उधर घूमना, देखकर मुझे पुरा ही दिखाई नहीं देता, ऐसा उनको नहीं लगा। जब उनके ध्यान में आ गया, तब एक अंध लडकी को सिखाने की चुनौती स्वीकार ली। थोडी देर के लिये तो मैं स्तब्ध ही हो गई। बाद में दीदी ने सोच लिया कि मुझे यह चुनौती स्वीकारनी है तो सोचकर दो दिन के बाद बताऊंगी, ऐसा बोला। बादमें उन्होने हाँ कह दिया। उनका ‘ हाँ ‘ कहना मेरे लिये बहुत ही अहम था। मेरे जिंदगी में उजाला छा गया।

मुझे अकेले को सिखाने के लिए दीदी ने मेरे लिए बुधवार और शुक्रवार का दिन चुना था। एक दिन उनको सिखाने के लिए समय नहीं था। इसके लिये मुझे घर आकर बता कर गई। कोई तो मुझे छोडने के लिए आयेंगे और दीदी नहीं हैं, ऐसा नहीं होना चाहिये, इसके लिये दीदी खुद आकर बता कर गई। उनका स्पष्ट तरह से सोचना, उनकी सच्चाई, इतने साल हो गये तो भी वैसी ही है।

दीदी ने मुझे नृत्य के लिए हाथ पाँव की मुद्रा, नेक चलना, देखना, हँसना, चेहरे के हाव-भाव कैसे चाहिये, यह सिखाया। हाथ की मुद्रा कैसे चाहिये, यह भी सिखाया। पहली उॅंगली और आखरी उॅंगली जोडकर बाकी की तीन उँगलियाँ वैसे ही रखने को बोलती थी। पैरों की हलचल करते वक्त नीचे बैठ कर मेरे हाथ- पाँव कैसे चलना चाहिए, सिखाती थी। मेरे समझ में आने के बाद प्रॅक्टिस कर लेती थी। मेरी एम.ए. की पढाई ही बताती हूँ। गंभीर रूप से नृत्य करना, दशावतार का प्रस्तुतीकरण करना था। सच में मुझे ऐसा लगा कि मैं घोडे पर सवार होकर नृत्य कर रही हूँ। मुझे ये सब कर के प्रसन्नता मिली।

गाने के विशेष बोल, उसका अर्थ, यह सब प्रॅक्टिस से जमने लगा। पहले-पहले मैं शरीर से नाच रही थी। घर में आने के बाद प्रॅक्टिस करती थी। एक बार दीदी को ध्यान में आया की नाच-नाच कर मेरे पाँव में सूजन सी आ रही है। तब दीदी बोली नृत्य सिर्फ शरीर सें नहीं करना चाहिये। बल्की मन से, दिमाग से सोच कर, होशियारी सें मने में उतरना चाहिए। उन्होंने मुझे सौ बाते बतायी, मुझे उसमे से पचास की समझ आयी। दीदी ने मुझे नृत्य में इतना उत्तम बनाया कि आज मैं सो जाऊंगी तो भी कभी भूल नही पाऊंगी। नृत्य की सबसे टेढी चाल सीधी करके सिखाई। मन से नृत्य कैसे करना चाहिए, उसकी ट्रिक भी सिखाई। मुझे अलग सा, मन को प्रसन्न लगने लगा। अब मैं कुछ तो नया बडा नाम कर दूँगी, ऐसा लगने लगा। नृत्य करने का बहुत बड़ा आनंद मुझे मिल गया। मैं भरतनाट्यम की लडकी हूँ। पुरा मैंने सीख लिया है, ऐसा तो मैं नही मानूँगी। फिर भी गांधर्व महाविद्यालय मे सात साल परीक्षाऍं देती रही। आखिर परीक्षा में ‘नृत्य विशारद’ पदवी संपादन कर ली।

जो मैं कर नही सकती, वह आसानी से कैसे करे, यह मैंने मेरी बहन से सीख लिया था। मेरे माँ और पिताजी के बाद, मेरे लिये दीदी का स्थान बडा है। मेरे लिये इन लोगों का स्थान महान है। गुरु कैसे मिलते है, उसके उपर शिष्य की प्रगती निर्भर होती है। मेरे गुरुवर उच्च विचारधारा वाले,  अध्यात्मज्ञान से परिपूर्ण हैं, बड़ा प्यार है। धनश्री दीदी जैसे गुरु ने बीस साल मुझे नृत्य की साधना सिखाई। जो-जो अच्छा मैने सीख लिया है, मेरे लिये अबोध और अद्भुत बात है। यही मेरा अनुभव हैं। यह सब मैं बता रही हूँ लगन से।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -5 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -5 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

जब मेरे घर मेरे माता पिता को मालूम पडा कि, मैं अब से कुछ भी नही देख पाऊॅंगी, सचमें मैं कुछ भी नही कर पाऊॅंगी, क्या बीती होगी उन पर। अब मेरी लडकी क्या करेगी? ऐसा सोचना ही बहुत कठिन था।  फिर भी यह एव्हरेस्ट पर चढाई करने जैसा था और यह उन्होंने तय किया। उन्होंने मुझे इतना समझा दिया कि मुझे लगा जैसे मैं आनंद के सागर डूब रही हूँ ।

घर में हमेंशा मां के पीछे-पीछे भागती थी। रसोई घर में इधर-उधर घूमती थी। मां को हमेंशा मेरी तरफ ध्यान देना पडता था। एक दिन मां फुलों की टोकरी मेरे पास लेकर आयी। उसमें से लाल रंग के फूल बाये हाथ में और पीले रंग का फूल दाहिने हाथ में रखा। मेरा हाथ-हाथ में रख कर मुझे स्पर्श ज्ञान से दिखाया। मैंने सीखा भी जल्दी से। सुई में धागा डालकर फुलों की माला बनाना सिखाया। जल्दी ही बाये हाथ से और दाहिने हाथ से, लाल-पीला फूल डालकर दो-दो रंग की माला तैयार होने लगी। बहुत खूबसूरत माला तैयार हो गई। मां का प्रयोग यशस्वी हो गया। मुझे ये करने के लिए बंधन नही किया। जम गया तो जम गया, हम जीत जायेंगे ऐसा ही सोचा। सब्जी साफ करके, उसे काटना भी सिखाया। गाजर, नारियल के छोटे-छोटे टुकडे करना भी सिखाया। मै आज भी अपने आँसू पोछती रहती तो, आज मैं अपना काम आपको दिखा नही सकती थी। घर के काम की ट्रेनिंग मां ने दिया था, अच्छी तरह से। बाहर स्कूल, पढाई के अलावा, वक्तृत्व के पाठ पिताजी ने पढा-पढाकर तैयार किया था। सच में माता और पिताजी का बहुत बडा योगदान है, मेरे व्यक्तित्व विकास में। दोनो ही मेरे लिये बहुत कीमती है। मैं रसोई नही बना सकती यह मुझे मालूम है, पर मैं मां को बहुत कामो में मदद कर सकती हूँ । आज भी मैं मां को मदद कर सकती हूँ।

मैं साधारण तौर पर सातवी कक्षा मैं थी, तबसे ही टेप-रेकॉर्डर, टेलीफोन आ गया था। गाना सुनने के बाद बंद कैसे करना, यह मैंने हाथ के स्पर्श से सीख लिया था। मेरे भाई-बहन ने मेरा बटन बंद करना, चालू करना देखकर, मुझे प्ले, स्टाॅप, रेकॉर्ड बटनों की पहचान कर दी थी। रिवाइंडिंग कैसे करना, यह भी सिखाया। यह सब इस्तेमाल कैसे करना, ये मैं आसानी से सीख गई। M.A. की पढाई करते समय, अध्यापकों ने जो-जो सिखाया, वो सब में रेकॉर्ड करती थी। जब में पढना चाहूँ, तब मैं पढती थी और बार-बार सुनकर ध्यान में रखती थी। ऐसा ही नया आया हुआ फोन देखकर, उत्सुकता से मैं उसकी पहचान कर सकती थी। मेरे भाई ने ‘ how to operate phone?’ मुझे सिखाया था। रिसिव्हर हाथ में देने के बाद १ से ९ अंको तक की पहचान कर दी थी। कैसे दबाना यह भी आसानी से सिखाया था। २२ अंक हो तो दो वाला बटन दो बार दबाना ऐसा सिखाया। मैं वैसा ही करती थी। मुझे अपने आप नंबर ध्यान में आने लगे। बार-बार ध्यान में रखने की जरूरत नही पड़ी।

रेडिओ लगाना आज भी मुझे आसान लगने लगा और मुझे खूब अच्छा लगने लगा। कुछ साल पहले मेंरी आवाज मैं रेडिओ से सुनूंगी, ऐसी मुझे बिलकुल भी कल्पना नहीं थी। सांगली आकाशवाणी और कोल्हापूर आकाशवाणी से मेंरी आवाज प्रसारित भी हो गई,  है ना जादू!

सच में मुझे सब आता है, ऐसा नहीं है। बाहर जाने के लिये मैं आज भी किसी की मदद के बिना नहीं जा सकती। पहले पापा मुझे कहते थे, तुम्ही सफेद रंग की लकडी की काठी ला कर देता हुॅं। उसकी आदत हो जायेगी और तुम आसानी से चल पाओगी। मेरे जैसे हठ करने वाली लडकी सुनेगी तो ना!

हर रोज मैं पाठशाला जाती थी। इसलिये मुझे मॅडम का सिखाया हुआ सब समझ में आता था। इसलिये ब्रेल  लिपि सीखने की मुझे जरूरत नहीं पडी। इस में कुछ महानता भी नहीं लगी। एक-दो बार मैंने समझने की कोशिश की थी। लेकिन उधर मेंरा मन नहीं लगा। मैने सुनकर सीखने का, ध्यान में रखने का, ऐसी ही घोडी की चाल चलने का तय किया। मां कहती थी, जब मैं छोटी थी तब बहुत भाग-दौड करती थी। सीढ़ियाँ भी सहजता से जल्दी-जल्दी उतरती थी। देखने वाले को डर लगता था। दूसरों को, लोगों को मेंरी चिंता लगती थी।

मेरी कंपास, पेन्सिल, पेन सब जगह पर रखती थी। फिर भी मेरे भाई-बहन को मेंरा सामान उठाकर ले जाने की आदत थी। मेरे डांटने के बाद, गुस्सा करते थे। फिर थोडी देर के बाद सब खेलते थे।

मेरे चाची के मम्मी ने स्वेटर बनाना सिखाया था। मैंने रुमाल भी बनाया था। मैने वह रूमाल आज भी संभाल कर रखा है। मैं आज भी लॉकर का इस्तेमाल करती हूॅं।  खुशी मिलती है इसके लिए आज भी रुमाल बनाती हूॅं।

घर में मेंहमान आने के बाद पानी लेकर आती थी। मां कि बनाई हुई चाय भी देकर आती थी। सब लोगों को बहुत आश्चर्य लगता था। मां को मेंरी थोडी मदद होनी चाहिये, उसका थोडा काम हलका होना चाहिए, उसे थोडा ज्यादा आराम मिलना चाहिए, इसके लिये ही मैने सब काम सीख लिया था।

पिछले साल मेरे पिताजी को अस्पताल में लेकर जाना था। पहले मैं डॉक्टर चाचा की फोन  पर अपॉइंटमेंट लेती थी। पापा को रिक्षा में बिठाकर लेकर जाती थी।  लोगोंको कमाल सा लगता था।  उनका प्यार उमड आता था।

लोगों की आवाज सुनकर बराबर जान लेती थी। आज भी लोगों को आवाज से पहचान लेती हूं। अब क्या कहें, मिलने वाले सब लोग मुझसे प्यार ही प्यार करने लगते है, बडी लगन से। मैंने दिमाग में इतना सोच कर रखा  था कि, मैं सब ध्यान में रख सकती हूं। हमारे घर में नया वाॅशिंग मशीन आने पर उसको कैसे चलना चाहिए, यह भी सीख लिया था। आज भी मैं ही वॉशिंग मशीन ऑपरेट करती हुॅं, मां को मदद करने के लिए। उसे थोडा आराम भी मिले। इस बात से मुझे खुशी मिलती है।

कॉलेज की पढाई, वक्तृत्व स्पर्धा, गॅदरिंग, सहेलियों के साथ रहना, मस्ती करना और मां के सिखाये हुए सब काम करते-करते मैने B.A. की पदवी कैसे हासिल की, यह मेरे समझ में भी नहीं आया।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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