हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -4 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -4 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

पाठशाला से ही मुझे बहुत स्पर्धाओं में पुरस्कार मिलते थे| सबसे अधिक वक्तृत्व स्पर्धा में मिलता था| शुरू-शुरू में हुई वक्तृत्व स्पर्धा में पाठशाला का एक-एक किस्सा मुझे याद है, ध्यान में है| कर्मवीर भाऊराव पाटील इन पर मैने भाषण किया था| मेंरा नंबर भी आया था, कौंन सा था मालूम नही| पुरस्कार देने का कार्यक्रम शुरू होने पर मेंरा नाम पुकारा गया, हम सब ग्राउंड पर बैठे थे| मै खडी हो गयी| मैं सहेलीके के साथ स्टेज पर जाने वाली थी, तो प्रमुख अतिथी स्टेज से नीचे उतरे| मेंरी पीठ थपथपाकर मुझे पुरस्कार दिया| इतने बडे आदमी होकर मेंरे लिये नीचे उतरे, कितने महान आदमी थे, किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं था| यह सब मुझे अभी भी याद है|

ऐसी ही कॉलेज की एक स्मृति है| गॅदरिंग में मेंरा नृत्य करना तय हो गया| में जब F.Y. में थी उस वक्त पुरस्कार देने के समारंभ में माननीय शिवाजीराव भोसले सरजी को कॉलेज ने बुलाया था| उस समारंभ में तीन-चार पुरस्कार मुझे भी मिले थे| मेंरा तय किया हुआ वक्तृत्व, कथाकथन, अंताक्षरी स्पर्धा चलता था| हमारे ग्रुप की प्रमुख मै ही थी| प्रश्नमंजुषा में भी मुझे पुरस्कार मिला था| पुरस्कार लेने के लिए मैं स्टेज पर दो चार बार जाकर पुरस्कार लेकर आई थी, बहुत खुशी से, आनंद से| कितने पुरस्कार लिये है तुमने? मुझे प्यार से कहा| आज भी मुझे उनकी सुंदर आवाज, उन के प्यारे बोल, मुझे दिखाई नही देते, फिर भी मुझे समझ में आया था| उनकी याद से मेंरा दिल अभी भी भर गया है, प्यार की आँखो से| श्री भोसले सरजी ने उनके आधे भाषण में मेरे कृत्य का ही वर्णन किया| इतना प्यार उमड़ आ रहा था कि उन्होंने मुझ पर छोटी सी कविता भी पेश किया| मुझे अभी कुछ याद नहीं, फिर भी उसका अर्थ समझ गया| भगवान मुझे कहते है, तुम्हारी बड़ी-बड़ी सुंदर आँखें मेंरे पास है| फिर भी मेंरा ध्यान तुम्हारे कर्तव्य की ओर है| यह बडा ‘आशयधन’  मेंरी हृदय में अभी भी जागृत है| उसका अंतर्मुख करनेवाला अर्थ, भाव-भावना जिंदगी में मैं कभी भी नही भूलूंगी|

२००७ साल के एप्रिल में, ‘रंगशारदा’ मिरज में मुंबई के क्रियाशील लोगों ने योगा शिविर का आयोजन किया था| उस शिविर में मैंने भी भाग लिया था| शिविर के आखरी दिन बातो-बातो में मैंने कह दिया की, मैं नृत्य सिखाती हूँ| उन सब लोगों को आश्चर्य होने लगा| ‘विशारद’ परीक्षा भी मैं देने वाली हूँ | जुलै में मुझे फोन आया| गुरुपौर्णिमा के दिन उन्होंने पूछा, मुंबई में एक कार्यक्रम में नृत्य करोगी क्या? आने-जाने का खर्चा हम करेंगे| पापा ने हाँ कह दिया| मेंरे मन में डर था, मुंबई जैसे बडे शहर में मेंरा कैसा होगा, यह डर था| मुझे मेंरा ही अंदाजा नही था, लोगों ने मुझे माथे पर चढा दिया| गाना पूरा होने तक नाचना,  हाथों से तालियाँ  बजाना चलता ही रहा था| मेरा मेकअप, मेरा आत्मनिर्भर होना, आत्मविश्वास इतना गाढा था कि, लोगों को मैं अंध हूँ, इस बात का विश्वास ही नहीं होता था| यह तो भगवान की ही कृपा से हुआ था| सभी स्त्रियों ने मेंरे हाथ हाथ में लेकर, मेंरे चेहरे पर, गालों को हाथ लगाकर, प्यार ही प्यार से आँखों को भी हात लगा कर सच का पता लगाया की सच में मैं अंधी हूँ या नही? मुंबई को भी मैंने मिरज जैंसे छोटे शहर की लडकी ने जगा दिया| मैंने मुंबई के लोगों को जीत लिया था| अनेक संस्थाऔं से पुरस्कार मिलते ही रहे, मिलते ही रहे| मुंबई के लोगों के दिल को मैंने जीत लिया था| यह मेरी लडाई मेरे जीने की आशा, प्रेरणा है|

 

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन-यात्रा ☆ डॉ हरीश नवल बजरिये अंतरताना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

डॉ हरीश नवल

Harish Naval
जन्म : 8 जनवरी, 1947 को उनकी ननिहाल नकोदर, जिला जालंधर, पंजाब॒ में।

शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.लिट., पी-एच.डी.।

प्रकाशन : ‘बागपत के खरबूजे’, ‘मादक पदार्थ और पुलिस’, ‘पुलिस मैथड’ आदि के अलावा सात व्यंग्य पुस्तकें, अन्य विधाओं की सात पुस्तकें, 65 पुस्तकों में सहयोगी लेखन और छह संपादित पुस्तकें एवं देश-विदेश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अब तक 1500 से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।

सम्मान-पुरस्कार : युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार, पं. गोविंद बल्लभ पंत पुरस्कार, साहित्य कला परिषद् पुरस्कार सहित अब तक राष्ट्रीय स्तर के 21 सम्मान/पुरस्कार प्राप्त।
‘इंडिया टुडे’ के साहित्य सलाहकार और एन.डी.टी.वी. के हिंदी कार्यक्रम के परामर्शदाता रहे; दिल्ली वि.वि. के वोकेशनल कॉलेज के कार्यकारी प्रधानाचार्य और ‘हिंद वार्त्ता’ के मुख्य संपादक सलाहकार भी रहे। बल्गारिया के सोफिया वि.वि. में ‘विजिटिंग व्याख्याता’ और मॉरीशस वि.वि. में ‘मुख्य परीक्षक’ भी रहे। 30 देशों की यात्रा।

संप्रति : स्वतंत्र लेखन।

☆ डॉ हरीश नवल बजरिये अंतरताना – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

किसी भी व्यक्ति को जानने समझने के लिये अंतरताना यानी इंटरनेट आज वैश्विक सुलभ सबसे बढ़ियां संसाधन है.  एक क्लिक पर गूगल सहित ढ़ेरो सर्च एंजिन व्यक्ति के विषय में अलग अलग लोगों के द्वारा समय समय पर पोस्ट किये गये समाचार, आलेख, चित्र, वीडीयो, किताबें वगैरह वगैरह जानकारियां पल भर में स्क्रीन पर ले आते हैं.  यह स्क्रीनीग बड़ी रोचक होती है.  मैं तो कभी कभी स्वयं अपने आप को ही सर्च कर लेता हूं.  कई बार स्वयं मेरी ही विस्मृत स्मृतियां देखकर प्रसन्नता होती है. अनेक बार तो अपनी ही रचनायें ऐसे अखबारों या पोर्टल पर पढ़ने मिल जाती हैं,  जिनमें कभी मैने वह रचना भेजी ही नही होती.  एक बार तो अपने लेख के अंश वाक्य सर्च किये और वह एक नामी न्यूज चैनल के पेज पर बिना मेरे नामोल्लेख के मिली.  इंटरनेट के सर्च एंजिन्स की इसी क्षमता का उपयोग कर इन दिनो निजी संस्थान नौकरी देने से पहले उम्मीदवारों की जांच परख कर रहे हैं.  मेरे जैसे माता पिता बच्चो की शादी तय करने से पहले भी इंटरनेट का सहारा लेते दिखते हैं. अस्तु.

मैने हिन्दी में हरीश नवल लिखकर इंटरनेट के जरिये उन्हें जानने की छोटी सी कोशिश की.  एक सेकेन्ड से भी कम समय में लगभग बारह लाख परिणाम मेरे सामने थे.  वे फेसबुक,  से लेकर विकीपीडीया तक यू ट्यूब से लेकर ई बुक्स तक,  ब्लाग्स से लेकर समाचारों तक छाये हुये हैं.  अलग अलग मुद्राओ में उनकी युवावस्था से अब तक की ढ़ेरों सौम्य छवियां देखने मिलीं.  उनके इतने सारे व्यंग्य पढ़ने को उपलब्ध हैं कि पूरी रिसर्च संभव है.  इंटरनेट ने आज अमरत्व का तत्व सुलभ कर दिया है.

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

बागपत के खरबूजे लिखकर युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले हरीश जी आज व्यंग्य के परिपक्व मूर्धन्य विद्वान हैं.  उन्हें साहित्य के संस्कार परिवार से विरासत में मिले हैं. उनकी शालीनता व शिष्‍टता उनके साहित्य व व्यक्‍तित्व की विशेषता है. उनसे फोन पर भी बातें कर हृदय प्रफुल्लित हो जाता है.  वे इतनी सहजता और आत्मीयता से बातें करते हैं कि उनके विशाल साहित्यिक कद का अहसास ही नही होता.  अपने लेखन में मुहावरे और लोकोक्‍तियों का रोचक तरीके से प्रयोग कर वे पाठक को बांधे रहते हैं.  वे माफिया जिंदाबाद कहने के मजेदार प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं.  पीली छत पर काला निशान, दिल्ली चढ़ी पहाड़, मादक पदार्थ, आधी छुट्टी की छुट्टी, दीनानाथ का हाथ, वाया पेरिस आया गांधीवाद, वीरगढ़ के वीर,  निराला की गली में जैसे टाइटिल ही उनकी व्यंग्य अभिव्यक्ति के परिचायक हैं.

प्रतिष्ठित हिन्दू कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहते हुये उन्होंने ऐसा अध्यापन किया है कि  उनके छात्र जीवन पर्यंत उन्हें भूल नही पाते.  उन्होने शिक्षा के साथ साथ छात्रो को संस्कार दिये हैं और उनके  व्यक्तित्व का रचनात्मक विकास किया है.  अपने लेखन से उन्होने मेरे जैसे व्यक्तिगत रूप से नितांत अपरिचित पाठको का विशाल वैश्विक संसार रचा है.   डॉ. हरीश नवल बतौर स्तम्भकार इंडिया टुडे, नवभारत टाइम्स, दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ, कल्पांत, राज-सरोकार तथा जनवाणी (मॉरीशस) से जुड़े रहें हैं.  उन्होने इंडिया टुडे, माया, हिंद वार्ता, गगनांचल और सत्ताचक्र के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम किये हैं. वे एन.डी.टी.वी के हिन्दी प्रोग्रामिंग परामर्शदाता, आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम सलाहकार, बालमंच सलाहकार, जागृति मंच के मुख्य परामर्शदाता, विश्व युवा संगठन के अध्यक्ष, तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय सह-संयोजक पुरस्कार समिति तथा हिन्दी वार्ता के सलाहकार संपादक के पद पर सफलता पूर्वक काम कर चुके हैं.  वे अतिथि व्याख्याता के रुप में सोफिया वि.वि. बुल्गारिया तथा मुख्य परीक्षक के रूप में मॉरीशस विश्वविद्यालय (महात्मा गांधी संस्थान) से जुड़े रहे हैं. दुनियां के ५० से ज्यादा देशो की यात्राओ ने उनके अनुभव तथा अभिव्यक्ति को व्यापक बना दिया है.  उनके इसी हिन्दी प्रेम व विशिष्ट व्यक्तित्व को पहचान कर स्व सुषमा स्वराज जी ने उन्हें ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की पांच सदस्यीय आयोजक समिति का संयोजक मनोनीत किया था.

हरीश जी ने आचार्य तुलसी के जीवन को गंभीरता से पढ़ा समझा और अपने उपन्यास रेतीले टीले का राजहंस में उतारा है.  जैन धर्म के अंतर्गत ‘तेरापंथ’ के उन्नायक आचार्य तुलसी भारत के एक ऐसे संत-शिरोमणि हैं, जिनका देश में अपने समय के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों पर गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है. आचार्य तुलसी का दर्शन, उनके जीवन-सूत्र, सामाजिक चेतना, युग-बोध, साहित्यिक अवदान और मार्मिक तथा प्रेरक प्रसंगों को हरीश जी ने इस कृति में प्रतिबिंबित किया है. पाठक पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ते हुये आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व और अवदान से परिचित होते हैं व आत्मोत्थान की राह ढ़ूंढ़ सकते हैं.

उनके लेखन में विविधता है. समीक्षात्मक लेख, पटकथा लेखन, संपादन, निबंध लेखन, लघुकथा, व्यंग्य के हाफ लाइनर, जैसे प्रचुर प्रयोग,  और हर विधा में श्रेष्ठ प्रदर्शन उन्हें विशिष्ट बनाता है. अपनी कला प्रेमी चित्रकार पत्नी व बेटियों के प्रति उनका प्यार उनकी फेसबुक में सहज ही पढ़ा जा सकता है.  उन्हें यू ट्यूब के उनके साक्षात्कारो की श्रंखलाओ व प्रस्तुतियो में जीवंत देख सुन कर कोई भी कभी भी आनंदित हो सकता है.  लेख की शब्द सीमा मुझे संकुचित कर रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि “हरीश नवल बजरिये अंतरताना” पूरा एक रिसर्च पेपर बनाया जा सकता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -3 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -3 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरा कॉलेज में जाना मेरे लिए एक उपहार ही था| मैं अकेली कॉलेज नहीं जा सकती थी| एक सहेली साथ हो, तो ही रोज कॉलेज जा सकती थी| समझ लीजिये कोई सहेली नहीं आयी, तो राह देखने के अलावा मैं कुछ भी नहीं  कर सकती थी| मेरे पापा ने मेरी तकलीफ जान ली| मुझे देर होती है, यह ध्यान में आने के बाद हमारी प्यारी लूना से कॉलेज तक छोडने को आते थे| पापा मुझे क्लासरूम तक छोडकर जा सकते थे, पर मुझे देखते ही कॉलेज की कई सी भी एक सहेली, चाहे वह पहचान वाली हो या ना हो, मुझे हाथ देने के लिए तैयार रहती  थी| सभी मेरी सहेलियाँ बन गयी थी|

कॉलेज में मेरे पापा का हाथ मुझ पर था| सभी लोग सर की लडकी, समझकर ही पहचानते थे| फिर भी कॉलेज में आने के बाद सभी नयी सहेलियाॅं, नये अध्यापक, माहौल भी नया था| शुरू शुरू में, मैं थोडा थोडा घबराती थी| थोडे दिन के बाद मैंने ॲडजस्ट किया| अध्यापक जो बोलते है, सिखाते है, सभी ध्यान से सुनती थी| अध्यापक जैसे कहते है, वैसे करने का मैंने तय किया था|

बारहवी बोर्ड की परीक्षा में थोडा टेन्शन तो था ही| रायटर की मदद लेना, यह तो पक्का था| मेरे लिए एक क्लासरूम खाली रखा था| मैं ओर मेरी रायटर एक डेस्क पर और सुपरवायझर दुसरी डेस्क पर बैठते थे| उन्होंने अपना काम नेकी से निभाया था| रायटर के पास कोई पुस्तक, कागज नहीं है ना, यह जान लिया था| उस वक्त बहुत टेन्शन होती थी| फिर भी मेरी पढाई की तैयारी अच्छी तरह से हुई थी| एक नया अनुभव मुझे मिला| मुझे बारहवी आर्ट्स में ६१% गुण मिले थे|

B.A. का पहला साल अच्छी तरह से चला| लेकिन द्वितीय वर्ष में, मेरी दोनों बहनों की शादी हुई, उस वक्त मुझे कोई भी पढकर नहीं सिखाता था| परिणाम स्वरूप मुझे A.T.K.T. मिली| मेरा इंग्लिश विषय रह गया| मुझे बहुत बुरा लगा| फिर पापा ने मुझे समझाया, आधार दिया| अरे तुम इतनी चिंता क्यों करती हो? ऑक्टोबर परीक्षा में पास होगी ही तू| पापा ने मुझसे अच्छी तरह से पढाई करवाई| फिर रायटर ढूंढना था | मेरे क्लास में ‘अमीना सारा खान’ नाम की लडकी थी| उसके हाथ को पोलिओ हुआ था| दोनों की वेदना, दुख एक ही था| मुझे रायटर चाहिये, यह समझने के बाद उसने अपनी छोटी बहन के साथ मेरी मुलाकात करवा दी| समीना बारहवी कक्षा में थी| रोज शाम को ६ बजे दोनों मिलकर प्रॅक्टीस के दौरान पुराने पेपर्स का उपयोग करके उसे छुडाते थे| समीना ने तो बहुतही अच्छा काम किया था| पेपर में एक भी स्पेलिंग मिस्टेक न करते हुए मैंने जैसे बताया वैसे ही लिखा, और आश्चर्य की बात है कि मुझे ८०% मार्क्स मिले गये|

पढाई के साथ-साथ मैं कॉलेज की वक्तृत्व स्पर्धा में और गॅदरिंग में भाग लेती थी| ११वी कक्षा में प्रतिमा ने मुझसे ‘सायोनारा’ डान्स की तैयारी करवा ली थी| डान्स की सभी ड्रेपरी, सफेद मॅक्सी,  ओढनी, पंखा सभी सांगली शहर से लाया था| सब सहेलियों ने मुझे माथे पर बिठाया और नाचने लगी| मेरा डान्स खत्म होने के बाद ‘यही है राइट चॉईस बेबी’ ऐसा ताल लगाया| नारे भी लगा रहे थे| यह सभी मुझे याद है| मेरी वक्तृत्व कला अच्छी होने के कारण सहेलिया मुझसे गाईडन्स लेती थी| मैंने भी मुझे जो-जो आता है, सभी खुले मन से सिखाया| हम सब में मित्रतापूर्ण स्वस्थ प्रतियोगिता थी|

मुझे कॉलेज की आदत हो गयी थी| बहुत सहेलियां मिल गई थी| अध्यापकों की पहचान हो गई थी| किसी भी कठिनाई का सामना नहीं करना पडा| मैंने भी अपनी तरफ से सबको संभालकर रखा|

 

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -2 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।

ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में आपकी कविता स्पंदन शीर्षक से प्रकाशित की गई थी जिसे पाठकों का भरपूर प्रतिसाद मिला। आपके जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद जो सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकेंगे। )  

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -2 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

माँ और पिताजी को तूफानी संकटों का सामना करना पडेगा। इसका मुझे पूरा पता चल गया था। उन्होने संकटों को पूरी तरह से समझ लिया था। मेंरे सामने उन तूफानी संकटों के बारे में कुछ भी, कोई भी चर्चा नहीं  करते थे। मेंरे भाई बहन के समान ही मुझे समझते थे।

पाठशाला में भी रहन सहन बातें करने में बहुत ही मर्यादा का पालन करना पडता था। पाठशाला में जब मैं जाती थी बहुत छोटी थी। ऐसा आज मैं बता सकती हूँ। इतनी समझ उस वक्त मुझे नहीं  आई थी। यह सब कमियाँ लिख नहीं सकती। सहेलियों को मैं नहीं  देख सकती थी। उनका मुँह देख नहीं  सकती थी, टीचर को भी नहीं  देख सकती थी। ग्राउंड पर भी नहीं  जा सकती थी। मालूम नहीं होता था सुंदर कलाकृति का डिझाईन उसका रंग भी कभी नहीं  देख सकती थी। बहुत सी मर्यादाओं का सामना करना पडता था। इतना सब होते हुए भी मेंरे पिताजी ने पाठशाला में भाषण करने के लिए वक्तृत्व स्पर्धा में भाग लेने की मुझे सलाह दी। बहुत सी स्पर्धाओं में मैंने बक्षीस लिया| मेंरे गाल खिल जाते थे | चेहरे पर बहुत बडी मुस्कान आती थी। यह खुशियाँ मुझे बहुत दूर तक ले गई थी। पापा के चेहरे पर चांद की मुस्कान आती है, हम खुशी मनाते थे , फिर भी पापा ने बताया था की कौन सी भी स्पर्धा में हार जीत तो होगी ही, बक्षीस के लिए अगर तुम पात्र नहीं होती तो भी रोना धोना नहीं करना, नाराज नहीं  होना| मेंरे व्यक्तित्व की खाली जगह वक्तृत्व ने भर दी। आज भी मुझे नया सुनने का, ध्यान में रखने का, लोगों के सामने सादर करने का बहुत शौक है।

साधारण तौर पर मैं तीसरी चौथी कक्षा में थी पापा के प्रोजेक्ट और स्लाईडस बक्षीस के तौर पर मिले थे| उस वक्त मुझे थोडा धुंधला सा दिखाई देता था। पर्दे के उपर की आकृती, थोडे थोडे रंग, मेंरे मन पर अच्छी तरह से उमड़ते थे। भारत में अनेकानेक नृत्य प्रकार की पहचान थी| वहीं नृत्यांगना अच्छे-अच्छे पहनावे, सुंदर सुंदर अलंकार, लाल लाल रंग के हाथ, सभी मेंरे आखो के सामने और मन के सामने अच्छी तरह से दिखाई देते थे। यह सभी नृत्य देख देख कर गानों की धुन सुनकर अपने आप ही नृत्य करने लगी| खुद ही गुलमोहर के फूल जैसी सुंदर मुझे ही मैं देखती थी। मिरज शहर की सुप्रसिद्ध विद्या गद्रे की कन्या प्रतिमा मुझे मिली| उसने मुझे गाने की धुन सुनकर नृत्य सिखाया| कठपुतली का नृत्य प्रतिमा ने मुझसे करवा लिया। सौभाग्य से ये नृत्य मुझे पाठशाला के स्टेज पर करने को मिला और सबको बहुत अच्छा लगा। लोगों ने तालियाँ बजा बजा कर मुझे प्रोत्साहन दिया| फिर भी उस वक्त मेंरे पापा ने बहुत गुस्सा किया क्योंकि नाचने से पहले उन्होने मेंरी पहचान नृत्यांगना शिल्पा कहकर कर दी थी। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा| मैंने दो तीन दिन तक पापा के साथ बोलना छोड दिया था। उनको सब बातों को पता चला। पापा के साथ बाते भी नहीं  की,  उनको इन  बातों का बाद में पता चला|

कहने की बात यह है कि, मुझे किस बात का डर नहीं लगता था| यह सब पापा को बाद में समझ आया| घर में भाई बहन जैसे करते थे, वैसा करना|  यह मैंने तय किया था| मुझे जो करना है वह मैं करके ही रहती थी| मेंरा हठ था,  मैंने भगवान के सामने में दिया जलाया था| सब हाथ से समझकर| मेंरे चाचा मेंरा ये दिया जलाना कैसा किया देख रहे थे| घर में मॅगी बनाकर करने का मैंने तो तय किया था| मुझे खुशी भी लगती थी| एक बार माँ घर में नहीं  थी| तब मैंने एक बर्तन में पानी लेकर के गॅस पर उबालने के लिए रख दिया| मॅगी का पॅकेट फोडा| तुरंत माँ आ गई| मुझे बहुत पीटा और खुद रोने लगी, प्यार के ही कारण|

मेरी किताबे, मेरा कंपास, सब जगह पर रखने की मेरी आदत थी| मेंरे भाई और बहन को ये सब मालूम था| उनका कुछ भी सामान नहीं मिला तो चुपके से मेरे कंपास से लेकर जाते थे| मेरे ध्यान में आने के बाद मैं गुस्सा करूंगी, ये समझकर मैं डटूँगी, ये सब मस्ती में ही चलता था|

सांगली शहर के गांधी लायब्ररी की वक्तृत्व स्पर्धा मुझे अभी भी याद है| पाँचवी दसवी कक्षा तक प्रतिवर्ष मैं स्पर्धा की सदस्य रहती थी| लगभग पचास-सत्तर लडके लड़कियां स्पर्धा में भाग लेते थे| दसवी कक्षा तक मुझे नंबर नहीं मिला| फिर भी मेंरा भाषण इतना सुंदर हुआ कि परीक्षकों को मुझे नंबर देना पडा, ऐसा तो नहीं, उन्हे मेंरी आवाज, मेंरे शब्द बहुत अच्छे लगे|

पाठशाला से ही मुझे राईटर लेकर परीक्षा देने की आदत लग गई| दसवी कक्षा में वनिता वडेर, मेंरी प्यारी सहेली बन गई| पढाई में तो मुझे बहुत बहुत मदद करती थी| मुझे सब पढा कर दिखाती थी मैं सभी को ध्यान में रखती थी| अस्सी पर्सेंट मार्क्स मिल गये| वनिता को गणित में मुझसे सात मार्क्स जादा थे|

ग्यारवी कक्षा में मैंने कन्या महाविद्यालय में प्रवेश लिया| सच तो मेंरे लिये आर्ट साइड ही ठीक थी| मैंने बहुत स्पर्धाओं में भाग लिया था| सभी अध्यापकों की भी लाडली थी| सभी सहेलिया मुझे बहुत बहुत मदद करती थी| एक दिन कॉलेज को जाते वक्त मुस्लिम सहेली ने अपने ड्रेस की ओढणी मेंरे माथे पर डालने के लिए दे दी| कितना प्यारा लगा था,  उसमें मुझे यही मानवता दिखाई दी|

उस दिन से मुझे पता चला, मीठी मीठी बातें करने से समाज के सब लोग आप की मदद करते हैं| मुझे भी माँ के काम में मदद करने की खूब इच्छा थी| जैसे सब्जी काटना, रोटी बनाना, मेंरा ऐसा काम देख कर पड़ोसियों का दृष्टिकोण बदल गया| मुझे काम करते हुए देखकर आश्चर्य से देखने लगे| हमें खुद को चुंबकीय शक्ति निर्माण करनी चाहिये| ऐसा ही मैंने तय कर लिया, कॉलेज में मैंने जो अच्छी बातें और विचार हैं, मन में लिख कर रखे थे| सब पीरियड्स का मैं लाभ उठाती थी| अध्यापक मुझ पर ध्यान रखते थे| लोगों, अध्यापकों, सहेलियों और माता पिता जी के अच्छे विचार सुनकर मेंरा हर दिन, हर पल, बहुत अच्छा चल रहा है| आगे भी मैं चलूंगी अच्छी तरह| यही मेरी उम्मीद है| मयूरी जैसी नाचूंगी, गाऊंगी, हसूंगी| बड़ी बनकर अच्छा काम करूंगी| अपना नाम जग में फैलाऊंगी|

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मनोगत – शिल्पा की आँखों की प्रेरणा !!! ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।

ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में आपकी कविता स्पंदन शीर्षक से प्रकाशित की गई थी जिसे पाठकों का भरपूर प्रतिसाद मिला। आपके जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद जो सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं।

ऐसी अद्भुत प्रतिभा को प्रकाश में लाने के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से सौ. अंजली दिलीप गोखले जी एवं सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी  को साधुवाद एवं हृदय से आभार।)  

☆ जीवन यात्रा ☆ मनोगत – शिल्पा की आँखों की प्रेरणा !!! ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

मै शिल्पा! ‘शिल्पा मैंदर्गी’। ई-अभिव्यक्ति के साहित्यकारों में मुझे शामिल किया गया है‌‌। इसलिये पहले मैं हेमन्त बावनकर सर, सुहास पंडित सर और उज्वला दीदी जी के प्रति अंतःकरण से आभार प्रकट करती हूँ!

कहने की बात यह है कि, मैं तो जन्म से ही अंधी नही हूँ!

साधारण तौर पर तीसरी कक्षा तक मुझे थोडा थोडा धुंधला सा दिखाई देता था। जब मैं बहुत छोटी थी, तब से मेरे दादी को शक था। इसलिये उन्होने मेरे मम्मी-पापा को डॉक्टर की सलाह लेने के लिए प्रेरित किया । बहुत से नेत्र-विशेषज्ञों डॉक्टरों को दिखाया गया। सब डॉक्टरों का एक ही मत था,  इसकी दृष्टि जायेगी।

घर में दो बहने, एक भाई,  इनके साथ मैं बड़ी हो रही थी। उनके साथ खेलती थी। सबसे बहुत मस्ती भी करती थी। आँखों को जितना दिखाई देता था, उसके साथ मेरा दिन अच्छी तरह से गुजर जाता था। मुझे कुछ भी भयावह सा नही लगता था।

मुझे कम दिखाई देता है, ऐसा कुछ भी समझ में नही आता था। सब लोगों को ऐसा ही दिखाई देता है, ऐसी मेरी समझ थी। मम्मी का हाथ पकड़कर मैं पाठशाला आती-जाती थी।  मुझे आँखों को देखने की कोई कमजोरी है ऐसा मुझे कभी नहीं लगा।

जब मैं तीसरी कक्षा में थी तब मेरी आँखों के बहुत ऑपरेशन्स हुए। मम्मी पप्पा धीरता से मेरी देखभाल करते थे। लगबग आठ दस ऑपरेशन्स हो गये, फिर भी कुछ फर्क नही पड़ा। मेरे पिताजी विद्या मंदिर स्कूल मे पढ़ाते थे। वे अच्छे अध्यापक थे। मेरा पूरा  ध्यान भी रखते थे। मुझे बहुत अच्छी अच्छी कहानियाँ सुनाते थे। पाँचवी कक्षा में मैंने ‘नाटिका स्पर्धा’  में भाग लिया था। पहिली स्पर्धा में छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने अफ़जल खान का वध कैसे किया? यह नाटिका सादर की। आश्चर्य की बात यह है कि उसमें मुझे पहले नंबर की ढाल यशस्वी के रूप में मिल गई। मेरे जीवन का यह पहला यश मुझे बहुत कुछ जीने का आसरा दे गया।

पढाई, पाठशाला, स्पर्धा, घर मे दंगा-मस्ती और आँखों का इलाज शुरू था। दिखाई देने का आँखों का काम खत्म हो गया। आँखों की दृष्टि ने धीरे धीरे मेरा साथ छोड़ दिया। आँखों से दिखाना बंद हो गया।

मेरी आँखों से पानी आता था। पानी आखों से आने को बंद करने के लिये ऑपरेशन हुआ। मेरे पापा मम्मी ने हमेशा मेरा साथ दिया। दिखाई नहीं देता ऐसा समझकर मेरा ज्यादा लाड़ प्यार भी कोई नहीं करते थे।

ऑपरेशन की वजह से मेरी आँखें सफेद रंग की भयावह लग रही थी। दूसरों को मुझे देखकर भय नही होना चाहिए, इसके लिए भीतर का कुछ भाग बदल दिया गया। वह भी एक ही आँख का। डॉक्टरों के कठोर प्रयास के कारण कृत्रिम आँख बना दी गई। वही आँख मैं निकालती हूँ और फिर उसी जगह पर बैठाती हूँ। फिर भी उसका कुछ फायदा नही हुआ। मूल भावना यह थी कि लोगों को मुझे देख कर भय नही होना चाहिए और कुछ तकलीफ भी नहीं होनी चाहिये ।

संक्षेप मे इतना ही कि कृत्रिम आँखें मेरे लिये नहीं किन्तु, लोगों को दिखाने के लिए आँखें हैं।

जिंदगी कैसे जीनी चाहिए?

यह समझने के लिये ही है, शिल्पा की आँखों की प्रेरणा!!!

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

पुणे

७०२८०२००३१

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ हिंदी साहित्य एवं बैंकिंग ☆ श्री आर के रस्तोगी

श्री आर  के रस्तोगी

(श्री आर के रस्तोगी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री रस्तोगी जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। हमें आपकी जीवन यात्रा अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गर्व का अनुभव हो रहा है। हाल ही में आपका काव्य संग्रह काव्यांजलि प्रकाशित हुआ है जो कि अमेजन एवं फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है।)

अमेजन लिंक – काव्यांजलि

फ्लिपकार्ट लिंक – काव्यांजलि  

 ☆ जीवन यात्रा ☆ हिंदी साहित्य एवं बैंकिंग ☆ श्री आर के रस्तोगी ☆ 

श्री आर  के रस्तोगी जी (श्री राम कृष्ण रस्तोगी) का जन्म २१ जनवरी सन  १९४६ में हिंडन नदी के किनारे बसे ग्राम सुराना जो कि गाज़ियाबाद जिले में है, एक वैश्य परिवार में हुआ था। आपके पिता स्व रघुबर दयाल जी और माता जी का नाम कमला देवी था । आपकी प्रारम्भिक शिक्षा तीसरी कक्षा तक गोंव में ही हुई। बाद में आपके  गाँव में डैकेती पड़ने के कारण आपका सारा परिवार मेरठ आ गया और वही पर आपकी शिक्षा पूरी हुई।

आपका बचपन बड़े कठिन दौर से गुजरा। सन 1962 में आपके पिता का देहांत हो गया तो आप  पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उस समय आप केवल 15 -16 वर्ष के ही थे । घर में कोई कमाने वाला व्यक्ति नहीं था पर आपने  हिम्मत नहीं हारी और अपनी शिक्षा को जारी रखा और जीविका को चलाने के लिए ट्यूशन आदि भी करते  रहे और छोटे बच्चो के घर जाकर उन्हें ट्यूशन पढ़ाते और घर की जीविका चलाते।आपके पिता की मृत्यु के पश्चात आपके लिखने के शौक में कुछ कमी आ गई, क्योंकि आपको समय बिल्कुल नहीं मिलता था। पहले घर की जीविका जो चलानी थी। संयोग से आपको तुरंत चार रुपए प्रतिदिन के हिसाब से जमना इलेक्ट्रिसिटी कंपनी मेरठ में बिजली के बिल बनाने की नौकरी मिल गई। उस समय आप केवल सोलह या सत्रह वर्ष  के ही  थे। नौकरी के पश्चात आप  पांच ट्यूशन भी करते  थे  जिससे आपको तीस पैंतीस रुपए मिल जाते थे।

सन 1960 की बात है जब आप राजकीय इंटर कॉलेज मेरठ में दसवीं के छात्र थे तब आपके कॉलेज में ब्रिटेन से एक डेलिगेशन आया था जो अपने साथ एक टेप रिकॉर्डर भी लाया था। उस समय आपने पहली बार ही टेप रिकॉर्डर देखा था। डेलिगेशन कुछ कविता आदि रिकॉर्ड करना चाहता था तभी कुछ दिन पूर्व लिखी आपकी एक कविता “मिली कहीं तुलसी की माला, लेकर उसे गले में डाला” पहली बार रिकॉर्ड की गई।

श्री रस्तोगी जी प्रारम्भ से ही पढने-लिखने में काफी होशियार और होनहार छात्र रहे हैं।  कविता लिखने का शौक आपको बचपन से ही रहा है तथा समय के साथ आपके लेखन में परिपक्वता आती गई। जीवन में उतार चढ़ाव के कारण कविताओं के लिखने में भी उतार चढ़ाव आने लगा। आप व्यंगात्मक शैली में देश की परिस्थितियों पर कभी भी लिखने से नहीं चूकते। आपने लंदन में भी बैंकिंग सेवाएँ दी हैं और वहाँ पर भी बैंको से सम्बंधित लेख लिखते रहते थे।

आपने दो विषयों (अर्थशास्त्र एवं वाणिज्य) में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की तथा बैंक में सेवा के दौरान सी ए आई आई बी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की जो कि बैंकिंग क्षेत्र में प्रतिष्ठित परीक्षा है।

आपने 28 अप्रैल 1964 को लिपिक के रूप में भारतीय स्टेट बैंक की हापुड़ शाखा में ज्वाइन  किया और 31 जुलाई 2005  शाखा प्रबन्धक पद से रिटायर हुए। आपका बैंक की “बुक ऑफ़ इन्सट्रक्शंस” का हिंदी में अनुवाद करने में विशेष योगदान रहा है जो एक कठिन कार्य था। साथ ही बैंक की इन-हाउस मैगज़ीन में सह संपादक का भी कार्य किया ।

आपकी पहली पोस्टिंग बैंक की तरफ से सिंभावली शुगर में हो गई। वहीं आपने किसान डिग्री कॉलेज से बी ए हिंदी साहित्य से किया चूकि आपकी रुचि हिंदी साहित्य मै थी। इसके पश्चात  आपकी पोस्टिंग सरसावा में हो गई। आपको पढ़ने लिखने का काफी शौक था। इसलिए आपने  जे वी जैन डिग्री कॉलेज सहारनपुर में एडमिशन ले लिया और वहां से एम ए (अर्थशास्त्र) और एम काम किया और बराबर बैंक मै नौकरी भी करते रहे । उस समय आप चार बजे सुबह उठते और सहारनपुर के लिए ट्रेन पकड़ते, रेलवे स्टेशन से सायकिल से कॉलेज जाते और फिर  दुबारा सरसावा जाते।

सन 1970 में आपकी पोस्टिंग हाथरस में हो गई। वहाँ पर पहली बार आपकी भेंट श्रद्धेय काका हाथरसी जी से हुई। काका जी का  स्टेट  बैंक में “संगीत कार्यालय” के नाम से अकाउंट था। वे अक्सर बैंक आते थे और आपके पास बैठ जाते थे। उनका तुरन्त काम कर देने से वे बहुत प्रसन्न रहते थे। वे अक्सर आपको अपने घर भी बुला लेते थे और  आपकी  कविता आदि भी सुनते थे। आपको श्रद्धेय नीरज जी से भी मुलाकात करने का अवसर मिला।

आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक रचना

 ☆ पर्यावरण एवं महामारी  ☆

जब पल पल पेड़ कटते जायेंगे ,

तब सब जंगल मैदान बन जायेंगे।

मानव तब बार बार पछतायेगा ,

जब सारे वे मरुस्थल बन जायेगे।|

 

जब पौधे सिमट गए हो गमलो में ,

प्रकृति सिमट गयी हो बंगलो में।

जब उजाड़ जायेगे घौसले पेड़ो से,

तब बन्द हो जायगे पक्षी पिंजरों में।|

 

जब गांव बस रहे हो नगरों में,

प्रदूषण फ़ैल रह हो नगरों में।

जहरीली हवा होगी चारो तरफ,

दम घुट जायेगा बंद कमरों में।|

 

जब वाहन रेंग रहे हो सड़को पर,

वे धुआँ उडा रहे हो सड़को पर।

तब मानव सांस कैसे ले पायेगा ?

वह दम तोड़ेगा अपना सड़को पर।|

 

तब प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखायेगी,

मानव से हर तरह से बदले चुकायेगी।

वह अपने नए रूप में जल्द आयेगी ,

कोरोना जैसी नई महामारी लायेगी।|

 

© श्री राम कृष्ण रस्तोगी

गुरुग्राम

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆ (30 सितम्बर 2019 -2020 रजत जयंती वर्ष) ☆

श्री संजय भारद्वाज 

 ☆ जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆

(हिंदी आंदोलन परिवार के स्थापना दिवस पर ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं)

हिंदी आंदोलन परिवार के 26वें वर्ष में प्रवेश करते हुए- स्मृतिपटल पर है एक तारीख़, 30 सितम्बर 1995.., हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी। पच्चीस वर्ष बाद आज 30 सितम्बर 2020..। कब सोचा था कि इतनी महत्वपूर्ण तारीख़ बन जायेगी 30 सितम्बर!

हर वर्ष 30 सितम्बर को स्मृतिमंजुषा एक नवीन स्मृति सम्मुख रख देती है। आज किसी स्मृति विशेष की चर्चा नहीं करूँगा।..हाँ इतना अवश्य है कि जब संस्था जन्म ले रही थी और सपने धरती पर उतरना चाह रहे थे तो राय मिलती थी कि अहिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी आंदोलन, रेगिस्तान में मृगतृष्णा सिद्ध होगा। आँख को सपनों की सृष्टि पर भरोसा था और सपनों को आँख की दृष्टि पर। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो अमृता प्रीतम याद आती हैं। अमृता जी ने लिखा था, ‘रेगिस्तान में लोग धूप से चमकती रेत को पानी समझकर दौड़ते हैं। भुलावा खाते हैं, तड़पते हैं। लोग कहते हैं, रेत रेत है, पानी नहीं बन सकती और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करती। वे लोग सयाने होंगे पर मेरा कहना है, जो लोग रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कसर होगी।’

हिंआप की प्यास सच्ची थी, इतनी सच्ची कि जहाँ कहीं हिंआप ने कदम बढ़ाए, पानी के सोते फूट पड़े।

हिंआप की यह यात्रा समर्पित है प्रत्यक्ष, परोक्ष कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों विशेषकर कार्यकारिणी के सदस्यों और हितैषियों को। हर उस व्यक्ति को जो चाहे एक इंच ही साथ चला पर यात्रा की अनवरतता बनाए रखी। यह आप मित्रों की ही शक्ति और विश्वास था कि हिंआप इस क्षेत्र में कार्यरत सर्वाधिक सक्रिय संस्था के रूप में उभर सका।

हिंदी आंदोलन परिवार के रजतजयंती प्रवेश के अवसर पर वरिष्ठ लेखिका वीनु जमुआर जी ने गत वर्ष एक साक्षात्कार लिया था। इसे पढ़ियेगा, हिंआप की तब से अबतक की यात्रा को संक्षेप में जानियेगा और संभव हो तो अपनी बात भी अवश्य कहियेगा।

अंत में एक बात और, दुष्यंत कुमार का एक कालजयी शेर है-

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…!

सिर झुकाकर कहना चाहता हूँ कि पच्चीस वर्ष पहले तबीयत से उछाला गया एक पत्थर, आसमान में छोटा-सा ही सही , छेद तो कर चुका।..

 

उबूंटू! ?✍

संजय भारद्वाज, संस्थापक-अध्यक्ष,

हिंदी आंदोलन परिवार

☆ जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆

(साक्षात्कार लेतीं सुश्री वीनू जमुआर )

(प्रसिद्ध साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था हिंदी आंदोलन परिवार 30 सितम्बर 2020 को छब्बीसवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से इस सफल यात्रा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं .  इस संदर्भ में  संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष संजय भारद्वाज से सुश्री वीनु जमुआर जी की बातचीत)

प्रश्न – सर्वप्रथम हिंदी आंदोलन परिवार को 26वें  वर्ष में कदम रखने के उपलक्ष्य में अशेष बधाइयाँ और अभिनंदन। पच्चीस वर्ष की अनवरत यात्रा में  देश भर में चर्चित नाम बन चुका है हिंआप। हिंआप की स्थापना की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए। इसकी स्थापना का बीज कब और कैसे बोया गया?

उत्तर- हिंआप का बीज इसकी स्थापना के लगभग सोलह वर्ष पूर्व 1979 के आसपास ही बोया गया था। हुआ यूँ कि मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था। बाल कटाने के लिए एक दुकान पर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। प्रतीक्षारत ग्राहकों के लिए कुछ पत्रिकाएँ रखी थीं जिनमें अँग्रेजी की पत्रिका, शायद ‘दी इलस्ट्रेटेड वीकली’ भी थी। अँग्रेजी थोड़ी बहुत समझ भर लेता था। पत्रिका में बिहार की जेलों में बरसों से बंद कच्चे महिला कैदियों की दशा पर एक लेख था। इस लेख में अदालती कार्रवाई पर एक महिला की टिप्पणी उद्वेलित कर गई। रोमन में लिखी इस टिप्पणी का लब्बोलुआब यह था कि ‘साहब, अदालत की कार्रवाई कुछ पता नहीं चलती क्योंकि अदालत में जिस भाषा में काम होता है, वह भाषा हमको नहीं आती।’ यह टिप्पणी किशोरावस्था में ही खंज़र की तरह भीतर उतर गई। लगा लोकतंत्र में लोक की भाषा में तंत्र संचालित न हो तो लोक का, लोक द्वारा, लोक के लिए जैसी परिभाषा बेईमानी है। इसी खंज़र का घाव, हिंआप का बीज बना।

प्रश्न – किशोर अवस्था में पनपा यह बीज संस्थापक की युवावस्था में प्रस्फुटित हुआ। इस काल की मुख्य घटनाएँ कौनसी थीं जो इसके अंकुरण में सहायक बनीं?

उत्तर – संस्थापक की किशोर अवस्था थी तो बीज भी गर्भावस्था में ही था। बचपन से ही हिंदी रंगमंच से जुड़ा। महाविद्यालयीन जीवन में प्रथम वर्ष में मैंने हिंदी मंडल की स्थापना की। बारहवीं के बाद पहला रेडियो रूपक लिखा और फिर चर्चित एकांकी, ‘दलदल’ का लेखन हुआ। आप कह सकती हैं कि बीज ने धरा के भीतर से सतह की यात्रा आरम्भ कर दी। स्नातक होने के बाद प्रारब्ध ने अकस्मात व्यापार में खड़ा कर दिया। नाटकों के मंचन के लिए समय देने के लिए स्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। 1995 में पीलिया हुआ। पारिवारिक डॉक्टर साहब ने आत्मीयता के चलते एक तरह से अस्पताल में नज़रबंद कर दिया। पुणे में केवल दीपावली पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक विशेषांकों की परंपरा है। बिस्तर पर पड़े-पड़े हिंदी में शहर के पहले साहित्यांक ‘अक्षर’ का विचार जन्मा और दो महीने बाद साकार भी हुआ। साहित्यकारों से परिचय तो था पर साहित्यांक के निमित्त वर्ष में केवल एक बार मिलना अटपटा लग रहा था। इस पीड़ा ने धीरे-धीरे  बेचैन करना शुरू किया, बीज धरा तक आ पहुँचा और जन्मा हिंदी आंदोलन परिवार।

प्रश्न – युवावस्था में जब युवा अपने भविष्य की चिंता करता है, आपने भाषा एवं साहित्य के भविष्य की चिंता की। क्या आप रोजी-रोटी को लेकर भयभीत नहीं हुए?

उत्तर – हिंदी मेरे लिए मेरी माँ है क्योंकि इसने मुझे अभिव्यक्ति दी। हिंदी मेरे लिए पिता भी है क्योंकि इसने मुझे स्वाभिमान से सिर उठाना सिखाया। अपने भविष्य की चिंता करनेवाले किसी युवा को क्या अपने माता-पिता की चिंता नहीं करनी चाहिए? रही बात आर्थिक भविष्य की तो विनम्रता से कहना चाहूँगा कि जीवन में कोई भी काम भागनेवाली या भयभीत होनेवाली मनोवृत्ति से नहीं किया। सदा डटने और मुकाबला करने का भाव रहा। रोजाना के लगभग चौदह घंटे व्यापार को देने के बाद हिंआप को एक से डेढ़ घंटा नियमित रूप से देना शुरू किया। यह नियम आज तक चल रहा है।

प्रश्न – आपकी धर्मपत्नी सुधा जी और अन्य सदस्य साहित्य सेवा के आपके इस यज्ञ में हाथ बँटाने को कितना तैयार थे?

उत्तर – पारिवारिक साथ के बिना कोई भी यात्रा मिशन में नहीं बदलती। परिवार में खुला वातावरण था। पिता जी, स्वयं साहित्य, दर्शन और विशेषकर ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। परिवार में वे हरेक के इच्छित को मान देते थे। सो यात्रा में कोई अड़चन नहीं थी। जहाँ तक सुधा जी का प्रश्न है, वे सही मायने में सहयात्री सिद्ध हुईं। हिंआप को दिया जानेवाला समय, उनके हिस्से के समय से ही लिया गया था। उन्होंने इस पर प्रश्न तो उठाया ही नहीं बल्कि मेरा आनंद देखकर स्वयं भी सम्पूर्ण समर्पण से इसीमें जुट गईं। यही कारण है कि हिंआप को हमारी संतान-सा पोषण मिला।

प्रश्न – मराठी का ’माहेरघर’ (पीहर) कहे जानेवाले पुणे में हिंआप की स्थापना कितना कठिन काम थी?

उत्तर – महाराष्ट्र में हिंदी के प्रति प्रेम और सम्मान की एक परंपरा रही है। अनेक संतों ने मराठी के साथ हिंदी में भी सृजन किया। हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा महाराष्ट्र से थेे। देश को आद्य हिंदी प्रचारक महाराष्ट्र विशेषकर पुणे ने दिये। संभाषण के स्तर पर धाराप्रवाह हिंदी न आनेे के बावजूद स्थानीय नागरिकों ने हिंआप को साथ दिया। हाँ संख्या में हम कम थे। किसी हिंदी प्रदेश में एक किलोमीटर चलने पर एक किलोमीटर की दूरी तय होती। यहाँ चूँकि प्राथमिक स्तर से सब करना था, अत: पाँच किलोमीटर चलने के बाद एक किलोमीटर अंकित हुआ। इसे मैं प्रारब्ध और चुनौती का भाग मानता हूँ। अनायास यह यात्रा होती तो इसमें चुनौती का संतोष कहाँ होता?

प्रश्न – हिंआप की यात्रा में संस्था की अखंड मासिक  गोष्ठियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

उत्तर – बहुभाषी मासिक  साहित्यिक गोष्ठियाँ हिंआप की प्राणवायु हैं। संस्था के आरंभ से ही इन गोष्ठियों की निरंतरता बनी हुई है। हमने हिंदी की प्रधानता के साथ मराठी और उर्दू के साहित्यकारों को भी हिंआप की गोष्ठियों से जोड़ा। यों भी हिंदी अलग-थलग करने में नहीं में नहीं अपितु सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है। इन तीन भाषाओं के अतिरिक्त सिंधी के रचनाकार अच्छी तादाद में संस्था से जुड़े। राजस्थानी, गुजराती, कोंकणी, बंगाली, उड़िया और सामान्य रूप से समझ में आनेवाली विभिन्न भाषाओं/ बोलियों के रचनाकार भी हिंआप की गोष्ठी में आते रहे हैं। अनुवाद के साथ काश्मीरी और कन्नड़ की रचनाएँ भी पढ़ी गई हैं। एक सुखद पहलू है कि प्राय: हर गोष्ठी में एक नया रचनाकार जुड़ता है। साहित्य के साथ-साथ इन गोष्ठियों का सामाजिक पहलू भी है। महानगर में लोग महीने में एक बार मिल लेते हैं, यह भी बड़ी उपलब्धि है। हमारी मासिक गोष्ठियाँँ अनेक मायनों में जीवन की पाठशाला सिद्ध हुई हैं। संस्था के लिए गर्व की बात है कि गोष्ठियों की अखंड परंपरा के चलते हिंआप की अब तक 237 से अधिक मासिक गोष्ठियाँ हो चुकी हैं।

प्रश्न – किसी संस्था को जन्म देना तुलनात्मक रूप से सरल है पर उसे निरंतर चलाते रहने में अनेक अड़चनें आती हैं। हिंआप की यात्रा में आई अड़चनों का खुलासा कीजिए।

उत्तर – संभावना की यात्रा में आशंका भी सहयात्री होती है। स्वाभाविक है कि आशंकाएँ हर बार निर्मूल सिद्ध नहीं हुईं। हमारे देश की साहित्यिक संस्थाओं की संगठनात्मक स्थिति कमज़ोर है। दो ही विकल्प हैं कि या तो आप इसे ढीले-ढाले तरीके से चलाते रहें अन्यथा इसे संगठनात्मक रूप दें। जैसे ही इसे संगठनात्मक रूप देंगे, अनुशासन आयेगा। एक अनुशासित संस्थान जिसमें कोई वित्तीय प्रलोभन न हो, चलाना हमेशा एक चुनौती होती है। अनेक बार अपितु अधिकांश बार अपने ही घात करते हैं। साथी कोई दस कदम साथ चला कोई बीस, कोई सौ, कोई चार सौ। यद्यपि उन साथियों से कोई शिकायत नहीं। उनकी सोच के केंद्र में उनका अपना आप था, हमारी सोच के केंद्र में हिंआप था।….व्यक्ति हो या संस्था दोनों को अलग समय अलग समस्या/ओं  से दो हाथ करने पड़ते हैं। आरम्भिक समय में यक्ष प्रश्न होता था कार्यक्रम के लिए जगह उपलब्ध करा सकने का। गोष्ठियों का व्यय भी एक समस्या हो सकता था, जिसे हम लोगों ने समस्या बनने नहीं दिया। विनम्र भाव से कहना चाहता हूँ कि कोई व्यसन के लिए घर फूँकता है, हमने ‘पैेशन’ के लिए फूँका। साथ ही यह भी सच है कि जब-जब हमने घर फूँका, ईश्वर ने नया घर खड़ा कर दिया। उसके बाद तो हाथ जुड़ते गये, साथी बढ़ते गये। आज संस्था के हर छोटे-बड़े आयोजन का सारा खर्च हिंआप के सदस्य-मित्र मिलकर उठाते हैं। …..समयबद्धता का अभाव भी बड़ी समस्या है। साहित्यिक कार्यक्रमों में समय पर न आना एक बड़ी समस्या है। चार बजे का समय दिया गया है तो पौने पाँच, पाँच तो निश्चित बजेगा। कल्पना कीजिए कि 130 करोड़ के देश में रोजाना पचास गोष्ठियाँ भी होती हों, औसत दस आदमी एक घंटा देर से पहुँचते हैं तो पाँच सौ लोगों के चलते 500 मैन ऑवर्स बर्बाद होते हैं। यह मात्रा महीने में पंद्रह हज़ार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की बर्बादी का है। एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की ऊर्जा का क्षय राष्ट्र का बड़ा क्षय है। इसे बचाना चाहिए। हिंआप में हमने इसे बहुत हद तक नियंत्रित किया है।

प्रश्न – उन दिनों सोशल मीडिया नहीं था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बहुत उन्नत नहीं था। ऐसे में लोगों को सूचनाएँ पहुँचाने का क्या माध्यम था?

उत्तर – मासिक गोष्ठियों की सूचना देना उन दिनों अधिक समय लेनेवाला और अधिक श्रमसाध्य था। तब हर व्यक्ति के घर में फोन नहीं था। हमने लोगों के पते की एक सूची बनाई। सुबह जल्दी घर छोड़ने के बाद रात को लौटने में देर होती थी। हम पति-पत्नी रात को बैठकर पोस्टकार्ड लिखते। सुबह व्यापार के लिए निकलते समय मैं उन्हें पोस्ट करता। अधिकांश समय ये पोस्टकार्ड लिखने की जिम्मेदारी सुधा जी ने उठाई। लोगों का पता बदलने पर सूची में संशोधन होता रहता। फिर अधिकांश सूचनाएँ लैंडलाइन पर दी जाने लगीं। इससे सूचना देने का समय तो बढ़ा, साथ ही फोन का बिल भी ज़बरदस्त आने लगा। मैं 1997-98 में लैंडलाइन का मासिक बिल औसत रुपये 1500/- भरता था। फिर मोबाइल आए। आरंभ में मोेबाइल लक्ज़री थे और इनकमिंग के लिए भी शुल्क लगता था। शनै:-शनै: मोबाइल का चलन बढ़ा। फिर लोगों को एस.एम.एस. द्वारा सूचनाएँ देने लगे। फिर चुनिंदा लोगों को ईमेल जाने लगे। वॉट्सएप क्राँति के बाद तो संस्था का पटल बन गया और एक क्लिक पर हर सूचना जाने लगी।

(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज) 

प्रश्न – हिंआप की गोष्ठियों की एक विशेषता है कि महिलाएँ बहुतायत से उपस्थित रहती हैं। स्त्रियों की दृष्टि से देखें तो गोष्ठियों का वातावरण बेहद ऊर्जावान, सुंदर, पारिवारिक और उत्साहवर्धक होता है। अपनीे तरह की इस विशिष्ट उपलब्धि पर कैसा अनुभव करते हैं आप?

उत्तर – महिलाएँ मनुष्य जीवन की धुरी हैं। स्त्री है तो सृष्टि है। स्त्री अपने आप में एक सृष्टि है। भारतीय परिवेश में पुरुष का करिअर, उसका व्यक्तित्व, विवाह के पहले जहाँ तक पहुँचा होता है, उसे अपने  विवाह के बाद वह वहीं से आगे बढ़ाता है। स्त्रियों के साथ उल्टा होता है। खानपान, पहरावे से लेकर हर क्षेत्र में उनके जीवन में आमूल परिवर्तन हो जाता है। अधिकांश को अपने व्यक्तित्व, अपनी रुचियों का कत्ल करना पड़ता है और परिवार की सारी ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं। हमारे साथ ऐसी महिलाएँ जुड़ीं जो विवाह से पहले लिखती-छपती थीं। विवाह के बाद उनकी प्रतिभा सामाजिक सोच के संदूक में घरेलू ज़िम्मेदारियों का ताला लगाकर बंद कर दी गई थीं। हिंआप से जुड़ने के बाद उन्हें मानसिक विरेचन का मंच मिला। मेलजोल, हँसी-मज़ाक, प्रतिभा प्रदर्शन और व्यक्तित्व विकास के अवसर मिले। हिंआप में उनकी प्रतिभा को प्रशंसा मिली और मिले परिजनों जैसे मित्र। कुल मिलाकर सारी महिला सदस्यों को मानो ‘मायका’ मिला। आपने स्वयं देखा और अनुभव किया होगा। वैसे भी स्त्री के लिए मायके से अधिक आनंददायी और क्या होगा! वे आनंदित हैं तो सृष्टि आनंदित है। हिंआप के बैनर तले सृष्टि को आनंदित देखकर हिंआप के प्रमुख के नाते सृष्टि के एक जीव याने मुझे तो हर्ष होगा ही न। अपने जैविक मायके से परे महिलाओं को एक आत्मिक मायका उपलब्ध करा पाना मैं हिंआप की बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।

 प्रश्न – साहित्यिक क्षेत्र में हिंआप की  चर्चा प्राय: होती है। आपकी  गोष्ठियाँ अब पुणे से बाहर मुंबई और अन्य शहरों में भी होने लगी हैं। इस विस्तार को कैसे देखते हैं आप?

उत्तर – मेरी मान्यता है कि सफलता का कोई छोटा रास्ता या शॉर्टकट नहीं होता। आप बिना रुके, बिना ठहरे, आलोचना-प्रशंसा के चक्रव्यूह में उलझे बिना निरंतर अपना काम करते रहिए। यात्रा तो चलने से ही होगी। ठहरा हुआ व्यक्ति चर्चाएँँ कितनी ही कर ले, यात्रा नहीं कर सकता। कहा भी गया है, ‘य: क्रियावान स पंडित:।’ क्रियावान ही विद्वान है। हिंदी आंदोलन क्रियावान है। क्रियाशीलता की चर्चा समाज में होना प्राकृतिक प्रक्रिया है। जहाँ तक शहर से बाहर गोष्ठियों का प्रश्न है, यह हिंआप के प्रति साहित्यकार मित्रों के विश्वास और नेह का प्रतीक है। भविष्य में हम अन्य नगरों में भी हिंआप की गोष्ठियाँ आरंभ करने का प्रयास करेंगे। दुआ कीजिए कि अधिकाधिक शहरों में हिंआप पहुँचे।

प्रश्न – अनुशासित साहित्यिक संस्था के रूप में हिंआप की विशिष्ट पहचान है। इस अनुशासन और प्रबंधन के लिए आप मज़बूत दूसरी और तीसरी पंक्ति की आवश्यकता पर सदा बल देते हैं। इस सोच को कृपया विस्तार से बताएँ।

उत्तर – किसी भी संस्था का विकास और विस्तार उसके कार्यकर्ताओं की निष्ठा, उनके परिश्रम और लक्ष्यबेधी यात्रा से होता है। कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को पहचान कर अवसर देने से बनता है संगठन। हिंआप में हमने प्रतिभाओं को निरंतर अवसर दिया। इससे हमारी दूसरी और तीसरी पंक्ति भी दृढ़ता से खड़ी हो गई। उदाहरण के लिए आरम्भ में मैं गोष्ठियों का संचालन करता रहा। कुछ स्थिर हो जाने के बाद संचालन के लिए गोष्ठियों में अनेक लोगों को अवसर दिया गया। हमने वार्षिक उत्सव का संचालन हर बार अलग व्यक्ति को दिया। संचालन महत्वपूर्ण कला है। आज हिंआप में आपको कई सधे हुए संचालक हैं। प्रक्रिया यहाँ ठहरी नहीं अपितु निरंतर है। वार्षिक उत्सव में संस्था का पक्ष, गतिविधियाँ और अन्य जानकारी अधिकांशत: कार्यकारिणी के सदस्य रखते हैं। इससे उनका वक्तृत्व कौशल विकसित हुआ। सक्रिय सदस्यता या दायित्व को 75 वर्ष तक सीमित रखने का काम आज सरकार और सत्तारूढ़ दल के स्तर पर किया जा रहा है। बहुत छोटा मुँह और बहुत बड़ी बात यह है कि किसी साहित्यिक या ऐच्छिक किस्म की गैर लाभदायक संस्था, स्थूल रूप से किसी भी गैरसरकारी संस्था के स्तर पर  देश में इस नियम को आरम्भ करने का  श्रेय हिंआप को है। हमने वर्ष 2012 से ही 75 की आयु में सेवा से निवृत्ति को हमारी नियमावली में स्थान दिया। नये लोग आयेंगे तो नये विचार आयेंगे। नई तकनीक आयेगी। यदि यह विचार नहीं होता तो आज तक हम पोस्टकार्ड ही लिख रहे होते। विभिन्न तरह के कार्यक्रम करते हुए अनेक बार अनेक तरह की स्थितियाँ आती हैं। इनकी बदौलत आप एक टीम की तरह काम करना सीखते हैं। टीम में काम करते हुए अनुभव समृद्ध होता है और आवश्यकता पड़ने पर कब दूसरी और तीसरी पंक्ति एक सोपान आगे आ जायेंगी, पता भी नहीं चलेगा। इससे संस्था के सामने शून्य कभी नहीं आयेगा।

प्रश्न – हिंआप के सदस्य अभिवादन के लिए ‘उबूंटू’ का प्रयोग करते हैं। यह ‘उबूंटू’ क्या है?

उत्तर – ‘उबूंटू’ को समझने के लिए एक घटना समझनी होगी। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भरकर पेड़ के नीचे रख दीं। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा सबसे दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरी के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह क्या है तो बच्चों ने उत्तर दिया, ‘उबूंटू।’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू का अर्थ है, ‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ। सामूहिकता का यह अनन्य दर्शन ही हिंआप का दर्शन है।

प्रश्न – वाचन संस्कृति के ह्रास आज सबकी चिंता का विषय है। हिंआप की गोष्ठियों में वाचन को बढ़ावा देने के लिए आपने एक सूत्र दिया है। क्या है वह सूत्र?

उत्तर – डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था, “सौ पृष्ठ पढ़ो, तब एक पंक्ति लिखो।” समस्या है कि हममें से अधिकांश का वाचन बहुत कम है। अत: एक सूत्र देने का विचार मन में उठा। विचार केवल उठा ही नहीं बल्कि उसने वाचन और सृजन के अंतर्सम्बंध को भी परिभाषित किया। सूत्र यों है-‘जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा।’ हम हमारी गोष्ठियों में रचनाकारों से कहते हैं कि आपने जो नया रचा, वह तो सुना जायेगा ही पर उससे पहले बतायें कि नया क्या पढ़ा?

प्रश्न – ढाई दशक की लम्बी यात्रा में ‘क्या खोया, क्या पाया’ का आकलन कैसे करते हैं आप?

उत्तर –पाने के स्तर पर कहूँ तो हिंआप से पाया ही पाया है। अनेक बार देश के विभिन्न हिस्सों में रहनेवाले अपरिचित लोगों से बात होती है। …“आप संजय भारद्वाज बोल रहे हैं?…जी.., ..हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज..?.. जी..”, इसके बाद आगे संवाद होता है। इससे अधिक क्या पाया जा सकता है कि व्यक्ति की पहचान संस्था के नाम से होती है। ‘उबूंटू’ का यह सजीव उदाहरण हैं। खोने के स्तर पर सोचूँ तो हिंआप ने दिया बहुत कुछ,  साथ ही हिंआप ने लिया सब कुछ। संग आने से संघ बनता है, संघ से संगठन। इकाई के तौर पर मेरे निजी सम्बंधों का अनेक लोगों के साथ विकास और विस्तार हुआ। इन निजी सम्बंधों को संगठन से जोड़ा। संगठन के विस्तार से कुछ लोगों की व्यक्तिगत आकांक्षाएँ बलवती हुईं। निर्णय लिए तो मित्र खोये। ये दुख सदा रहेगा पर संस्था व्यक्तिगत आकांक्षा के लिए नहीं अपितु सामूहिक महत्वाकांक्षा के लिए होती है। संस्था के विकास के लिए अध्यक्ष कोे समुचित निर्णय लेने होते हैं। अध्यक्ष होने के नाते  निर्णय लेना अनिवार्य होता है तो मित्र के नाते सम्बंधों की टूटन की वेदना भोगना भी अनिवार्य होता है। मैं दोनों भूमिकाओं का ईमानदारी से वहन करने का प्रयास करता हूँ।

प्रश्न –नये प्रतिमान स्थापित करना हिंदी आदोलन परिवार की विशेषता है। यह विशेषता संस्था की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ और ‘हिंदीभूषण और हिंदीश्री सम्मान’ में भी उभरकर सामने आती है। इसकी भी थोड़ी जानकारी दीजिए।

उत्तर – हिंआप की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ संभवत: पहली पत्रिका है जिसमें प्रतिवर्ष औसत 101 रचनाकारों को स्थान दिया जाता है। इसमें लब्ध प्रतिष्ठित और नवोदित दोनों रचनाकार होते हैं। इस वर्ष से पत्रिका का ई-संस्करण आने की संभावना है। जहाँ तक पुरस्कारों का प्रश्न है, विसंगति यह है कि हर योग्य पुरस्कृत नहीं होता और हर पुरस्कृत योग्य नहीं होता। हमने इसे सुसंगत करने का प्रयास किया। हिंआप द्वारा दिये जानेवाले सम्मानों के माध्यम से हमने योग्यता और पुरस्कार के बीच प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है।

प्रश्न – हिंआप ने सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को भी साहित्य के अंग के रूप में स्वीकार किया है। इस पर रोशनी डालिए।

उत्तर – मैं मानता हूँ कि साहित्य अर्थात ‘स’ हितसमाज का हित ही साहित्य है। सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकल्पों द्वारा हम समाज के वंचित वर्ग के साथ जुड़ते हैं। अनुभव का विस्तार होता है। एक घटना साझा करता हूँ। हमने दिव्यांग बच्चों का एक कार्यक्रम रखा। इसमें दृष्टि, मति और वाचा दिव्यांग बच्चे थे। दृष्टि दिव्यांग (नेत्रहीन) बच्चे जब नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे तो हमने लोगों से निरंतर तालियाँ बजाने को कहा क्योंकि वे तालियों की आवाज़ सुनकर ही उनको मिल रहे समर्थन का अनुमान लगा सकते हैं। जब वाचा दिव्यांग ( मूक-बधिर) बच्चे आए तो तालियों के बजाय दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्थन का आह्वान किया क्योंकि ये बच्चे देख सकते थे पर सुन नहीं सकते थे। कितना बड़ा अनुभव! हरेक के रोंगटे खड़े हो गये, हर आँख में पानी आ गया।…हिंआप के सदस्य रिमांड होम के बच्चों के बीच हों या वेश्याओं के बच्चों के साथ, फुटपाथ पर समय से पहले वयस्क होते मासूमों से मिलते हों या चोर का लेबल चस्पा कर दिये गये प्लेटफॉर्म पर रहनेवाले बच्चों से, महिलाश्रम में निवासियों से कुशल-मंगल पूछी हो या वृद्धाश्रम में बुजुर्गों को सिर नवाया हो, कैदियों को अभिव्यक्ति के लिए  मंच प्रदान कर रहे हों या भूकम्प पीड़ितों के लिए राहत कोष में यथासंभव सहयोग कर रहे हों, वसंत पंचमी पर पीतवस्त्रों में माँ सरस्वती का पूजन कर रहे हों या भारतमाता के संरक्षण के लिए दिन-रात सेवा देनेवाले सैनिकों के लिए आयोजन कर रहे हों, पैदल तीर्थयात्रा करनेवालों की सेवा में रत हों या श्रीरामचरितमानस के अखंड पाठ द्वारा वाचन संस्कृति के प्रसार में व्यस्त, हर बार एक नया अनुभव ग्रहण करते हैं, हर बार जीवन की संवेदना से रूबरू होते हैं। साहित्यकार धरती से जुड़ेगा तभी उसका लेखन हरा रहेगा।

प्रश्न – हिंआप के भविष्य की योजनाओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर – भविष्य की आँख से तत्कालीन वर्तमान देखने के लिए समकालीन वर्तमान दृढ़ करना होगा। वर्तमान में पश्चिमी शिक्षा के आयातित मॉडेल के चलते हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में रुचि रखनेवाले युवा तुलनात्मक रूप से कम हैं। हम हिंआप मेें युवाओं को विशेष प्रधानता देना चाहते हैं। हम वर्ष में एक आयोजन नवोदितों के लिए करते आये हैं। इसकी संख्या बढ़ाने और कुछ अन्य युवा उपयोगी साहित्यिक गतिविधियों का विचार है। गत पाँच वर्ष से हम हमारे पटल पर ई-गोष्ठी कर रहे हैं। अब तक लगभग 45 ई-गोष्ठियाँ हो चुकीं। हम स्काइप आधारित गोष्ठियों का भी विचार रखते हैं। पुस्तकालय और वाचनालय का प्रकल्प तो है ही। हम दानदाता की तलाश में हैं जो हिंदी पुस्तकों के पुस्तकालय और वाचनालय के लिए स्थान उपलब्ध करा दे।

प्रश्न –अंत में एक व्यक्तिगत प्रश्न। हिंदी आंदोलन के संस्थापक-अध्यक्ष की पहचान  कवि, कहानीकार, लेखक, संपादक, समीक्षक, पत्रकार, सूत्र-संचालक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक और समाजसेवी के रूप में भी है। इस बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्वहन में आपको अपना कौनसा रूप सबसे प्रिय है?

उत्तर – मैं सृजनधर्मी हूँ। उपरोक्त सभी विधाएँ या ललितकलाएँ  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सृजन से जु़ड़ी हैं। ये सब अभिव्यक्ति के भिन्न-भिन्न आयाम हैं। मैं योजना बनाकर इनमें से किसी क्षेत्र में विशेषकर सृजन में प्रवेश नहीं कर सकता। अनुभूति अपनी विधा स्वयं चुनती है। वह जब जिस विधा में अभिव्यक्त होना चाहती है, हो लेती है और मेरी कलम उसका माध्यम बन जाती है। हाँ यह कह सकता हूँ कि मेरे लिए मेरा लेखन दंतकथाओं के उस तोते की तरह है जिसमें जादूगर के प्राण बसते थे। इसीलिए मेरा सीधा, सरल परिचय है, ‘लिखता हूँ, सो जीता हूँ।’

 

सम्पर्क- संजय भारद्वाज 

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिंदी भाषाविद डॉ विजय कुमार मल्होत्रा

डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा

( ई-अभिव्यक्ति में  डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी का हार्दिक स्वागत है। आप राजभाषा विभाग, रेल मंत्रालय, भारत सरकार के पूर्व निदेशक हैं।  आपको हिंदी के विकास और भाषा विज्ञानं के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए 5 वर्षों तक लगातार माइक्रोसॉफ़्ट का सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार MVP (Microsoft Valuable Professional) प्राप्त हुआ है। 

भारतीय रेल मंत्रालय में राजभाषा निदेशक के रूप में  आपने भारतीय रेल के दैनंदिन कार्यों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के दायित्व को बखूबी निभाया।  इस दायित्व के कारण आपको यह अवसर मिला कि आप देश-भर में विभिन्न स्तरों पर हिंदी को कार्यान्वित करने के लिए नए-नए उपायों की खोज करे।

अध्यापन, अनुवाद एवं सलाहकार की भूमिका का निर्वाह करते हुए आपने पाया कि हमारे राष्ट्र को जितनी हिंदी की आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता हमें हमारे साहित्य, संस्कृति, अनुसंधान एवं तकनीकी ज्ञान को विश्व से साझा करने के लिए अंग्रेजी की है। इस सन्दर्भ में मैं आपके यू के की शैक्षणिक यात्रा के दौरान आपके ईमेल के अंश को साभार उद्धृत करना चाहूंगा जो आपने सी डेक के आर्टिफिशल इंटेलिजेंस विभाग के सलाहकार कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को भेजा था- “कल ही हमने गुरुदेव रबींद्र नाथ टैगोर की जयंती पर उन्हें शत-शत नमन करते हुए सूचित किया था कि गुरुदेव टैगोर की अमर कृति गीतांजलि की रचना मूलतः बंगला में की गई थी, लेकिन गुरुदेव ने स्वयं 1912 में इंग्लैंड की यात्रा से पहले इसकी कुछ कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद कर लिया था. अंग्रेज़ी में उपलब्ध सामग्री के कारण ही गीतांजलि पश्चिम में बेहद लोकप्रिय हो गई थी और 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले टैगोर पहले गैर-यूरोपीय लेखक बन गए थे.”  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ही शब्दों में -” डॉ विजय कुमार मल्होत्रा जी अपने आप में ही एक व्यक्ति की सेना है।”

आपकी जीवन यात्रा ही हमारी प्रेरणा है और हम आशा करते हैं कि हमें समय-समय पर आपसे मार्गदर्शन एवं परामर्श मिलता रहेगा।

? राजभाषा दिवस के अवसर पर हिंदी के विकास और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अभिनंदन एवं सादर नमन ?

☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिंदी भाषाविद डॉ विजय कुमार मल्होत्रा ☆ 

जन्मतिथि: 28 अगस्त, 1946

कार्यानुभव:

  • 2009- 2014 सीडैक, पुणे में भाषा सलाहकार (हिंदी)
  • 2002-2009 माइक्रोसॉफ्‍ट इंडिया में भाषा सलाहकार (हिंदी)
  • 1978-2002 निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
  • 1970-1978 भारतीय रिज़र्व बैंक और यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया, मुंबई में हिंदी अधिकारी

शैक्षणिक योग्यता :

  • 1996 गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार से कंप्यूटर-साधित अंग्रेज़ी-हिंदी अनुवाद पर डॉक्टरेट
  • 1988 उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद से अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
  • 1968 दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.
  • 1966 गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार से हिंदी, संस्कृत और अंग्रेज़ी के  साथ विद्यालंकार (बी.ए.)

यू.के और अमरीका में अध्यापन और शोध-कार्य:

  • 1984 में यॉर्क विश्वविद्यालय,यू.के. में हिंदी अध्यापन
  • 1996 पेन्सिल्वानिया विश्वविद्यालय,अमरीका में हिंदी पार्सर के विकास में सहयोग

लेखन / अनूदित कार्य: 

  • 1979 डॉ. एस. राधाकृष्णन् द्वारा लिखित ‘हमारी विरासत’ और ‘रचनात्मक  जीवन’ का हिंदी अनुवाद
  • 1982 ‘राजभाषा के नये आयाम’
  • 1996 हिंदी में कंप्यूटर के भाषिक आयाम
  • 2015 पं. अजय भाम्बी द्वारा लिखित Planetary Meditation  का हिंदी अनुवाद
  • 2003 से अब तक अमरीका स्थित Centre of Advanced Study of India, पैन्सिल्वेनिया विवि के लिए  विभिन्न विषयों से संबंधित लेखों का हिंदी अनुवाद
  • 2018 अमेरिकन विवि, वाशिंगटन डी.सी. के लिए स्वास्थ्य संबंधी लेखों का हिंदी अनुवाद

पुरस्कार

  • 5 वर्षों तक लगातार माइक्रोसॉफ़्ट का सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार MVP (Microsoft Valuable Professional) से सम्मानित।
  • महामहिम राष्ट्रपति द्वारा उत्कृष्ट वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन के लिए आत्माराम पुरस्कार से सम्मानित.
  • सन् 1984 में, यॉर्क विश्वविद्यालय, यू.के. में एक सिमेस्टर में हिंदी पढ़ाने के लिए इन्हें नफ़ील्ड फ़ैलोशिप मिली। अध्यापन के साथ-साथ इन्हें  हिंदी थिसॉरस का प्रोटोटाइप बनाने के लिए भी कहा गया था।
  • सन् 1996 में, पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय के कंप्यूटर विज्ञान विभाग ने इन्हें हिंदी पार्सर के विकास के लिए अपने NLP ग्रुप को सहयोग करने के लिए निमंत्रित किया गया। विजय कुमार मल्होत्रा के लिए यह अत्यंत गौरव का विषय था, क्योंकि इन्हें ये निमंत्रण एक ऐसे विश्वविद्यालय से मिला था, जिसने ENIAC नामक विश्व के पहले कंप्यूटर का विकास किया था।

संपर्क –

डॉ विजय कुमार मल्होत्रा 

WW-67-SF, मालिबु टाउन, सोहना रोड, गुरुग्राम- 122018

लैंडलाइनः 01244367079

मोबाइलः +91 9910029919 / 8368068365 / WhatsApp: 9910029918

ईमेल ID: [email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ डॉ मधुसूदन पाटिल : आलोचना कौन बर्दाश्त करता है? ☆ श्री कमलेश भारतीय और डॉ मनोज छाबड़ा

डॉ मधुसूदन पाटिल

( इस ऐतिहासिक साक्षात्कार के माध्यम से हम हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का हार्दिक स्वागत करते हैं। श्री कमलेश भारतीय (वरिष्ठ साहित्यकार) एवं डॉ मनोज छाबडा  (वरिष्ठ  साहित्यकार, व्यंग्यचित्रकार, रंगकर्मी) का हार्दिक स्वागत एवं हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ व्यंग्य विधा के वरिष्ठतम पीढ़ी के व्यंग्यकार डॉ मधुसूदन पाटिल जी का यह बेबाक साक्षात्कार साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। कुछ समय पूर्व हमने संस्कारधानी जबलपुर मध्यप्रदेश से जनवरी 1977 में प्रकाशित व्यंग्य की प्रथम पत्रिका “व्यंग्यम” की चर्चा की थी जो इतिहास बन चुकी है। उसी कड़ी में डॉ मधुसूदन पाटिल जी द्वारा प्रकाशित “व्यंग्य विविधा” ने 1989 से लेकर 1999 तक के कालखंड में व्यंग्य विधा को न केवल अपने चरम तक पहुँचाया अपितु एक नया इतिहास बनाया। सम्पूर्ण राष्ट्र में और भी व्यंग्य पर आधारित पत्रिकाएं प्रकाशित होती रहीं और कुछ अब भी प्रकाशित हो रही हैं।  किन्तु, कुछ पत्रिकाओं ने इतिहास रचा है जिन्हें हम भूलते जा रहे हैं। आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया उस संघर्ष की कहानी को एवं बेबाक विचारधारा को डॉ मधुसूदन पाटिल जी की वाणी में ही आत्मसात करें। हम शीघ्र ही डॉ मधुसूदन पाटिल जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आपसे साझा करने  का प्रयास करेंगे। )   

डॉ मधुसूदन पाटिल : आलोचना कौन बर्दाश्त करता है?

 – कमलेश भारतीय /डॉ मनोज छाबडा

मराठा वीर डॉ. मधुसूदन पाटिल। हरियाणा के हिसार में। मैं भी पंजाब – चंडीगढ से पिछले बाइस वर्षों से हिसार में। संयोग कहिए या दुर्योग हम दोनों परदेसी एक ही गली में अर्बन एस्टेट में रहते हैं। बस। दो-चार घरों का फासला है बीच में। पत्रकार और आलोचक व व्यंग्यकार दोनों बीच राह आते-जाते टकराते नहीं, अक्सर मिल जाते हैं और सरेराह ही देश और समाज की चीरफाड़ कर लेते हैं। कभी हिसार के साहित्यकार भी हमारी आलोचना के केंद्र में होते हैं। कभी हरियाणा की साहित्यिक अकादमियां भी हमारे राडार पर आ जाती हैं। हालांकि, मैं भी एक अकादमी को चला कर देख आया। डॉ मनोज छाबड़ा भी चंडीगढ़ दैनिक ट्रिब्यून के समय से ही परिचित रहे और हिसार आकर मिजाज इन्हीं से मिला। जब  हमारे जयपुर संधि वाले डॉ प्रेम जनमेजय को डॉ. मधुसूदन पाटिल के साक्षात्कार और त्रिकोणीय श्रृंखला की याद आई तो मेरे जैसा बदनाम शख्स ही याद आया। मैंने सोचा अकेला मैं ही क्यों यह सारी बदनामी मोल लूं तो डॉ मनोज छाबड़ा को बुला लिया कि त्रिकोण का एक कोण वह भी बन जाये। कई दिन तक वह बचता रहा। आखिर हम दोनों जुटे और डॉ मधुसूदन पाटिल का स्टिंग कर डाला।

❃ ❃  ❃  ❃  ❃

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

डॉ मनोज छाबड़ा

(जन्म- 10 फ़र. 1973 शिक्षा- एम. ए. , पी-एच. डी. प्रकाशन- ‘अभी शेष हैं इन्द्रधनुष’ (कविता संग्रह) 2008, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ काव्य-पुस्तक  सम्मान 2009-10, ‘तंग दिनों की ख़ातिर ‘ (कविता संग्रह), 2013, बोधि प्रकाशन, जयपुर ‘हिंदी डायरी साहित्य’  (आलोचना),2019, बोधि प्रकाशन, जयपुर विकल्पों के बावजूद (प्रतिनिधि कविताएं) 2020 सम्पादन – वरक़-दर-वरक़ (प्रदीप सिंह की डायरी) का सम्पादन (2020) सम्प्रति – व्यंग्यचित्रकार, चित्रकार, रंगकर्मी))

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हरियाणा का पानीपत तीन लड़ाइयों के लिए इतिहास में जाना जाता है। पानीपत में कभी मराठे लड़ाई लडऩे आए और यहीं बस गये। पानीपत करनाल में आज भी मराठों के वंशज हैं। हिसार में भी एक मराठा वीर रहता है जिसका परिवार किसी लड़ाई के लिए नहीं आया। यह कह सकते हैं कि रोजी-रोटी की लड़ाई में अकेले डॉ पाटिल ही आए और लड़ते-लड़ते यहीं बस गये। कई शहरों में अस्थायी प्राध्यापकी करने के बाद आखिर हिसार के जाट कॉलेज में हिंदी विभाग के स्थायी अध्यक्ष हो गये। फिर तो कहां जाना था? डेरा और पड़ाव यहीं डाल दिया।

इस मराठा वीर ने एक और लड़ाई लड़ी-वह थी व्यंग्य लेखन में जगह बनाने की। दस वर्ष तक यानी सन् 1989 से 1999 तक व्यंग्य विविधा पत्रिका और अमन प्रकाशन चलाने की। वैसे मेरी पहली मुलाकात अचानक कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के स्टूडेंट सेंटर में किसी ने करवाई थी। डॉ. पाटिल तब भी ज्यादा चुप रहते थे और आज भी लेकिन उनके व्यंग्य के तीर तब भी दूर तक मार करते थे और आज भी। उनके तरकश में व्यंग्य के तीर कम नहीं हुए कभी। न तब न अब। शुरूआत का सवाल बहुत सीधा :

कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्यकार की भूमिका क्या है समाज में? कहते हैं कि व्यंग्यकार या आलोचक विपक्ष की भूमिका निभाता है। यह कितना सच है? आबिद सुरती ने तो यहां तक कहा कि अब कोई कॉर्टून बर्दाश्त ही नहीं करता तो बनाऊं किसलिए?

डॉ. पाटिल : आलोचना को कौन बर्दाश्त करता है? आज आलोचना ही तो बर्दाश्त नहीं होती किसी से तो कॉर्टून का प्रहार कौन बर्दाश्त करे? सही कह रहे हैं आबिद सुरती?

कमलेश भारतीय : आपने भी हिसार के सांध्य दैनिक नभछोर में कुछ समय व्यंग्य का कॉलम चलाया लेकिन जल्द ही बंद कर देना पड़ा, क्या कारण रहे ?

डॉ. पाटिल : मैं हरिशंकर परसाई की गति को प्राप्त होते होते रह गया। समाजसेवी पंडित जगतसरुप ने मेरे कॉलम का सुझाव दिया था और एक बार लिखने का सौ रुपया मिलता लेकिन जैसे ही चर्चित ग्रीन ब्रिगेड पर व्यंग्य लिखा तो मैं पिटते-पिटते यानी परसाई की गति को प्राप्त होते होते बचा। राजनेता प्रो. सम्पत सिंह के दखल और कोशिशों से सब शांत हो पाया। वैसे व्यंग्य के तेवरों से शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा था। मैं क्या चीज था?

मनोज छाबड़ा : अपनी सृजन प्रक्रिया से गुजरते हुए एक स्थान पर आपने कहा है आज स्थितियां विसंगतिपूर्ण हैं। ये विसंगति साहित्य-जगत की है, समाज की है, बाहरी है या भीतर की?

डॉ पाटिल : सबसे अधिक विसंगति समाज की है। वही सबसे अधिक प्रभावित करती है, आक्रोश पैदा करती है। इसके अतिरिक्त घरेलू स्थितियां हैं, जो असहज करती हैं। इन सबका परिणाम है कि इसकी प्रतिक्रिया सबसे पहले कहीं भीतर उथल-पुथल मचाती है, व्यंग्य के रूप में अभिव्यक्त होती है।

कमलेश भारतीय : ऐसा क्या लिखा कि…?

डॉ पाटिल : आर्य समाज में राष्ट्रीय कवि सम्मेलन और वही ग्रीन ब्रिगेड पर एपीसोड मेरे इस कॉलम पर ग्रहण बन गये। आलोचना और व्यंग्य में ठकुरसुहाती नहीं चल सकती। पूजा भाव का क्या काम? आरती थोड़े करनी है? मूल्यांकन करना है?

कमलेश भारतीय : व्यंग्य विविधा एक समय देश में व्यंग्य का परचम फहरा रही थी। दस वर्ष तक चला कर बंद क्यों कर दी?

डॉ. पाटिल : मेरा पूरा परिवार जुटा रहता था पत्रिका को डाक में भेजने के लिए। बेटे तक लिफाफों में पत्रिका पैक करते लेकिन कोई विज्ञापन नहीं। विज्ञापन दे भी कोई क्यों? इसी समाज की तो हम आलोचना करते थे। फिर नियमित नहीं रह पाई तो यहां उपमंडलाधिकारी मोहम्मद शाइन ने नोटिस दे दिया कि नियमित क्यों नहीं निकालते? ऊपर से प्रकाशन और कागज के खर्च बढ़ गये। इस तरह व्यंग्य विविधा इतिहास बन गयी।

मनोज छाबड़ा : हम धीरे-धीरे सूक्ष्मता की ओर बढ़ रहे हैं। लघुकथाएं, छोटी कविताएं पाठकों को खूब रुचती हैं। लम्बे-लम्बे व्यंग्य-लेखों की मांग कुछ कम नहीं हुई?

डॉ. पाटिल : अखबरों में जगह कम है। वे अब छोटे-छोटे आलेख मांगने लगे हैं। पाठकों में भी धैर्य की कमी है। बड़े लेख धैर्य मांगते हैं। पाठक से शिकायत बाद में,  इधर लेखक भी प्रकाशित होने की जल्दी में हैं। ऐसी और भी अनेक वजहें हैं जिनके कारण व्यंग्य-लेखों का आकार छोटा हुआ है। आजकल तो दो पंक्तियों, चार पंक्तियों की पंचलाइन का समय आ गया है। चुटकुलेनुमा रचनाएं आने लगी हैं।

कमलेश भारतीय : हरिशंकर परसाई ने कभी कहा था कि व्यंग्य तो शूद्र की स्थिति में है। आज किस स्थिति तक पहुंचा है? क्या ब्राह्म्ण हो गया?

डॉ. पाटिल : नहीं। यह सर्वजातीय हो गया। सभी लोग इसे अपनाना चाहते हैं। यहां तक कि वे शिखर नेता भी जो कॉर्टून बर्दाश्त नहीं करते वे भी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां करते हैं विरोधियों पर। व्यंग्य का जादू अब सिर चढ कर बोलने लगा है।

कमलेश भारतीय :  इन दिनों कौन सही रूप से व्यंग्य लिख रहे हैं?

डॉ. पाटिल :  इसमें संदेह नहीं कि व्यंग्य लेखन में डॉ प्रेम जनमेजय बड़ा काम कर रहे हैं। व्यंग्य यात्रा के माध्यम से व्यंग्य को केंद्र में लाने में भूमिका निभा रहे हैं। हरीश नवल हैं। सहीराम और आलोक पुराणिक हैं। काफी लोग लिख रहे हैं।

कमलेश भारतीय :  पुरस्कारों व सम्मानों पर क्या कहेंगे?

डॉ. पाटिल : पुरस्कार सम्मान तो मांगन मरण समान हो गये हैं। मुझे नजीबाबाद में माता कुसुमकुमारी सम्मान मिला था और आजकल नया ज्ञानोदय के संपादक मधुसूदन आनंद और विद्यानिवास मिश्र भी थे।

मनोज छाबड़ा : लघुकथा के नाम पर भी लोग घिसे-पिटे चुटकुले चिपका रहे हैं?

डॉ. पाटिल : हां, सब जल्दी में जो हैं।

मनोज छाबड़ा : परसाई-शरद-त्यागी की त्रयी के बाद के लेखकों से उस तरह पाठक-वर्ग नहीं जुड़ा, अब भी किसी भी बातचीत में  संदर्भ के लिए वे तीनों ही हैं।  मामला लेखकों की धार के कुंद होने का है या कुछ और?

डॉ. पाटिल : सामाजिक स्थितियां-परिस्थितयां तो जिम्मेवार हैं ही, धार का कुंद होना भी एक कारण है। लेखक गुणा-भाग की जटिलता में फंसा है। गुणा-भाग से निश्चित रूप से धार पर असर पड़ता ही है। धार है भी, पर सही लक्ष्य पर नहीं है, इधर-उधर है।

कमलेश भारतीय : हरियाणा में आपकी उपस्थिति कांग्रेस की सोनिया गांधी की तरह विदेशी मूल जैसी तो नहीं?

डॉ. पाटिल : बिल्कुल। मैं महाराष्ट्र से था यही मेरी उपेक्षा का कारण रहा। फिर ऊपर से पंजाबन से शादी। यह मेरा दूसरा बड़ा कसूर। महाविद्यालय में कहा जाता कि यह हिंदी भी कोई पढ़ाने की चीज है?  हिंदी का कोई प्रोफैसर होता है भला?  ईमानदारी और मेहनत तो बाद में आती। किसी ने बर्दाश्त ही नहीं किया। निकल गये बरसों ।

कमलेश भारतीय : हरियाणा में हिंदी शिक्षण का स्तर कैसा है?

डॉ. पाटिल : बहुत दयनीय। तुर्रा यह कि शान समझते हैं अपनी कमजोरी को।

कमलेश भारतीय : लघुकथा में व्यंग्य का उपयोग ऐसा कि किसी मित्र ने एक बार कहा कि व्यंग्य की पूंछ जरूरी है लघुकथा के लिए। आपकी राय क्या है ?

डॉ. पाटिल : व्यंग्य का तडक़ा जरूरी है। एक समय बालेंदु शेखर तिवारी ने व्यंग्य लघुकथाएं संकलन भी प्रकाशित किया था। यदि इसमें संवेदना का पुट कम रह जाये तो यह लघु व्यंग्य बन कर ही तो रह जाती है। कथातत्व के आधार पर कम और व्यंग्य के आधार पर लघुकथा लेखन अधिक हो रहा है। यानी व्यंग्य का तडक़ा लगाते हैं ।

मनोज छाबड़ा : कुछ डर का माहौल भी है?

डॉ. पाटिल : हाँ, अस्तित्व की रक्षा तो पहले है। जाहिर है डर है। फिर, आलोचना कौन बर्दाश्त करता है?  व्यंग्य-लेख में उन्हीं मुद्दों को सामने लाया जाता है जो शक्तिशाली की कमजोरी है। प्रहार कौन सहन करेगा जब आलोचना ही बर्दाश्त नहीं हो रही।

मनोज छाबड़ा : आपके लेखन के शुरूआती दिनों में भी यही स्थिति थी?

डॉ. पाटिल : उस समय आज की तुलना में सहनशक्ति अधिक थी। वह ‘ शंकर्स वीकली’ का दौर था। नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी उदार थे, हालांकि तब भी शरद जोशी को भी भोपाल छोडऩा पड़ा, बाद में इंदौर में रहे।

मनोज छाबड़ा :  एक दौर था, आप खूब सक्रिय थे लेकिन अब?

डॉ. पाटिल : शारीरिक, सामाजिक व पारिवारिक समस्याएं हैं। अब उम्र भी आड़े आने लगी है। पत्नी का स्वास्थ्य भी चिंता में डालता है।

कमलेश भारतीय : आखिर व्यंग्य लेखन बहुत कम क्यों कर दिया? ज्यादा सक्रिय क्यों नहीं?

डॉ. पाटिल : कुछ शारीरिक तो कुछ मानसिक और कुछ पारिवारिक कारणों के चलते। वकीलों के चक्कर काट रहा हूं। वे वकील जो संतों के मुकद्दमे लडते हैं और गांधीवादी और समाजसेवी भी कहलाते हैं। यह दोगलापन सहा नहीं जाता। अपराध को बढावा देने में इनका बडा हाथ है ।मैं तो कहता हूं -वकील, हकीम और नाजनीनों से भगवान बचाये।

मनोज छाबड़ा : एक समय था जब आपकी पत्रिका ‘व्यंग्य विविधा’ देश की अग्रणी व्यंग्य पत्रिकाओं में थी। 30-35 अंक निकले भी, अचानक बंद हो गयी ऐसी नौबत क्यों आई?

डॉ. पाटिल : पत्रिका 1989 से 1999 तक छपी। लघु पत्रिकाओं का खर्चा बहुत है, स्वयं ही वहन करना पड़ता है, हिसार में अच्छी प्रेस भी नहीं थी तब। दिल्ली न सिर्फ जाना पड़ता था बल्कि तीन-तीन चार-चार दिन रुकना भी पड़ता था। पत्नी लिफाफों में पत्रिका डालने में व्यस्त रहती। बच्चे कितने ही दिन टिकट चिपकाते रहते। ऐसा कितने दिन चलता। आर्थिक बोझ भी था और मैन-पॉवर तो  कम थी ही। जिनके खिलाफ लिखते थे वही विज्ञापन दे सकते थे, पर क्यों देते? दोस्त लोग कब तक मदद करते। वे पेट और जेब से खाली थे।

मनोज छाबड़ा : कविता मन की मौज से उतरती है। व्यंग्य के साथ भी ऐसा ही है या ये कवियों की रुमानियत ही है?

डॉ. पाटिल : कविता में मन की सिर्फ मौज है। व्यंग्य में तूफान है, झंझावात है, मन के भीतर उठा चक्रवात है।

मनोज छाबड़ा : आज जब चुप्पियाँ बढ़ रही हैं, संवेदनहीनता का स्वर्णकाल है, अब व्यंग्यलेखक की भूमिका क्या होनी चाहिए?

डॉ. पाटिल : देखिये,  इस समय भी सहीराम, आलोक पुराणिक सटीक और सार्थक लिख रहे हैं। चुप्पियां डर की होंगी कहीं, पर बहुत से लेखक आज भी मुखर हैं, ताकत से अपनी बात कह रहे हैं। यही एक लेखक की भूमिका है कि वे इस चुप समय में मुखर रहे।

©  श्री कमलेश भारतीय/डॉ. मनोज छाबड़ा

सपर्क –

श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी, 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

डॉ  मनोज छाबड़ा,  ‘हिमशिखर’, 356, सुंदर नगर,हिसार – 125001 (हरियाणा) मो. 70152-03433 (मनोज छाबड़ा)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साहित्यिक विमर्श – साहित्य सदैव दीर्घजीवी रचा जावे – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ☆ सौजन्य – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने मेरे गुरुवर एवं संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय-1,जबलपुर एवं उनके पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी से साहित्यिक विमर्श हेतु सहायता प्रदान की।  गुरुवर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी उस  भाग्यशाली पीढ़ी के हैं जिन्होंने कम से कम छह पीढ़ियों  ( स्वयं को मिलकर पिछली तीन पीढ़ियां और अगली तीन  पीढ़ियां ) को  ही नहीं देखा अपितु , भारत को स्वतंत्र होते देखा है । एक शिक्षाविद एवं वरिष्ठतम साहित्यकार के रूप में हमने उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रकाशित किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं  :

☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

☆ साहित्यिक विमर्श – साहित्य सदैव दीर्घ जीवी रचा जावे – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव

प्रश्न:  सर, सर्वप्रथम प्रणाम एवं अभिनन्दन।  ई- अभिव्यक्ति के लिए आपका परिचय आपके शब्दों में जानना चाहेंगे ।

उत्तर :  संस्कृत में आत्म प्रवंचना अच्छी नही मानी गयी है. यही कारण है कि महाकवि कालिदास का भी कोई वास्तविक परिचय उपलब्ध नहीं है. जहां तक मेरे संक्षिप्त परिचय की बात है, मेरा जन्म १९२७ में हुआ. मैने आजादी से पहले का भारत देखा है, स्वाधीनता आंदोलन में किसी न किसी तरह भागीदारी की है. मण्डला के अमर शहीद स्व उदय चंद जैन न केवल मेरे सहपाठी थे वरन स्कूल में मेरे साथ एक ही बैंच पर बैठा करते थे. आजादी के बाद मैने देखा है कि जिस भारत में एक सुई भी मेड इन इंगलैंड आती थी वहां से आज चंद्रमा तक राकेट जा रहे हैं. मैने लालटेन युग जिया है, और आज मेरे नाती, पोते दुनिया में न्यूयार्क, दुबई, हांगकांग में हैं, मैं उनके साथ विदेशों में अनेक जगह हो आया हूं. शिक्षा जगत ने मुझे यह सुअवसर दिये कि मैने पीढ़ियो का निर्माण किया है. साहित्य जगत ने मुझे सेवानिवृति के बाद भी आज तक लगातार कुछ न कुछ नया रचने, लिखने अध्ययन करने की प्रेरणा दी है.

प्रश्न:  साहित्य के प्रतिआपकी रुचि कैसे जागृत हुई?

उत्तर :  बाल्यकाल में ही हम मित्रों ने नवयुग पुस्तकालय की स्थापना की थी.  मण्डला के पढ़े लिखे परिवार होने के कारण मेरे पिताजी के पास लोग जिले में स्वातंत्र्य साहित्य के लिये संपर्क करते थे. मुझे अध्ययन के प्रति बचपन से ही लगाव था . संस्कृत साहित्य में मुझे आनन्द आता था. बस इस तरह साहित्य से लगाव बढ़ता गया .

प्रश्न:   साहित्य के अतिरिक्त आपकी अन्य अभिरुचियाँ ?

उत्तर :  स्कूल के दिनो में मैं हाकी बहुत अच्छी खेला करता था. नये नये स्थान घूमना, किताबें पढ़ना, गार्डनिंग मेरी साहित्येतर रुचियां रही हैं.

प्रश्न:  आपकी प्रिय विधा एवं प्रिय कवि?

उत्तर :  छंद बद्ध काव्य मेरी सबसे पसंदीदा विधा है. चांद व सरस्वती में १९४६ में मेरी कवितायें छपी थीं. आज भी कविता लिख कर मुझे नई उर्जा मिलती है. संस्कृत नई पीढ़ी नही पढ़ रही हे, जबकि गीता जैसे वैश्विक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं, इसलिये मैंने हिन्दी में प्रायः प्रमुख संस्कृत ग्रंथो के  अनुवाद करने की ठानी, और इस तरह काव्य अनुवाद मेरी विधा बन गई. महाकवि कालिदास का मेघदूतम विश्व का अप्रतिम श्रंगार रस का काव्य है, इसमें विरह की वेदना और श्रंगार का अद्भुत सौंदर्य भी है, मैंने इसका श्लोकशः हिन्दी काव्य अनुवाद किया है.

प्रश्न:  ऐसा विशेष क्या कारण है जिसने आप को हिन्दी साहित्य सेवा और निःशुल्क प्रकाशन के लिए आकर्षित किया?

उत्तर :  मुझे साहित्य से सुकून मिला. आत्म केंद्रित रहकर मैं  साहित्य सेवा में आजीवन लगा रहा हूं. सेवानिवृति के बाद मेरी पाण्डुलिपियों को मेरे पुत्र विवेक रंजन ने पुस्तको के रूप में छपवाया है.

प्रश्न:   सहिया  सेवा की भावना का प्रेरणा स्रोत आप किसे मानते हैं ?

उत्तर :  मेरा विवाह लखनऊ में हुआ, मेरी पत्नी श्रीमती दयावती श्रीवास्तव की रुचियां भी लिखने पढ़ने की थीं. हम दोनो ने साथ साथ पढ़कर एम ए किया. साथ ही शिक्षा जगत में नौकरी की. उनकी भी पुस्तकें छपी. वे मुझे बराबर नया लिखने के लिये उत्साहित करती थीं.

प्रश्न:  आपके जीवन में कोई ऐसी विशेष घटना घटित हुई हो जिसे आप सबसे सगर्व साझा करना चाहेंगे?

उत्तर :  मेरी यह इच्छाशक्ति कि मुझे आगे पढ़ना है, मेरी उन्नति में हमेशा सहायक रही. सामान्यतः विवाह के बाद मेरी पीढ़ी के लोग अपनी नौकरी से संतुष्ट हो जाते थे, पर हम निरंतर आगे बढ़ने के यत्न करते रहे. यही कारण है कि हम समाज को सुशिक्षित संस्कारी बच्चे दे पाये, और स्वयं अपनी शिक्षा से साहित्य व समाज में अपना स्थान बनाते बढ़ते गये.

प्रश्न:   आपकी दृष्टि  में स्वान्तः सुखाय लेखन उचित है अथवा साहित्य एवं समाज के कल्याण हेतु लेखन  उचित है ?

उत्तर : स्वान्तः सुखाय तो हर कवि लिखता ही है. रचना प्रक्रिया प्रसव वेदना होती है, जिसमें विचारो की परिपक्वता, और उसकी समुचित विधा में अभिव्यक्ति शमिल होती है, किन्तु रचना का  अंतिम उद्देश्य जनहित ही होता है.

प्रश्न:  साहित्य सेवा के प्रत्युत्तर में आप मित्रों और परिवार से क्या पाते हैं ?

उत्तर :  समाज में मेरी पहचान शिक्षाविद व साहित्यकार के रूप में ही है. बिना व्यक्तिगत रूप से मिले भी दुनिया के अनेक हिस्सो के पाठक मेरी रचनाओ के जरिये मुझे पसंद करते हैं, तथा दूरभाष, पत्र आदि से संपर्क व प्रशंसा करते हैं.

प्रश्न:  आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रति आप क्या दृष्टिकोण  हैं?

 उत्तर :  साहित्य ने अभिव्यक्ति के माध्यम बदले हैं. आज डेली सोप, फिल्म, टेलीविजन, आ गये हैं पर प्रकाशित पुस्तको का महत्व यथावत निर्विवाद बना हुआ है. मुझे तो बिना किताब पढ़े नींद नही आती. पुस्तकालय संस्कृति की पुनर्स्थापना मुझे आवश्यक लगती है. पाश्चात्य देशो में बुक रीडिंग हाबी के रूप में बनी हुई है, जैसे जैसे हमारे देश की संपन्नता बढ़ेगी हमारे यहां भी पुस्तक संस्कृती फिर से लोकप्रिय होगी ऐसा मेरा विश्वास है.

प्रश्न:  नवोदित लेखकों के प्रति आपका दृष्टिकोण और  उनके लिए कोई सन्देश देना चाहेंगे ?

उत्तर :  नये माध्यमो जैसे फेसबुक आदि ने नई पीढ़ी को विचार आते ही लिख डालने की आजादी दी है पर संपादन का महत्व होता है. युवा रचनाकारो को अपना लिखा बारम्बार पढ़कर सुधारकर तब रचना रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता समझ आती है. यह देखकर मुझे प्रसन्नता होती है कि साहित्य अब केवल हिन्दी के शोधार्थियो की बपौती नही रह गया है. कितने ही इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफेशनल्स अच्छे साहित्यकार बनकर उभर रहे हैं. स्पष्ट है कि साहित्य मनोभावों की अभिव्यक्ति का संसाधन है. और यह मनोवृत्ति प्रकृति दत्त होती है. भाषाई ज्ञान उसे संप्रेषण की शक्ति देता है. नये कवियो से मेरा यही आग्रह है कि साहित्य के सौंदर्य शास्त्र की समझ विकसित करें और परिपक्व लेखन करें तो वह दीर्घ जीवी साहित्य रच सकेंगे.

सौजन्य – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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