English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 109 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 110 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 110) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media# 110 ?

रात क्या होती है

हमसे पूछिए ना

आप तो सोये और…

बस सुबह हो गई…

What is the night,

just ask me,

You just sleep

and it’s morning…

☆☆☆☆☆

तलब करें तो मैं अपनी

आँखें भी उन्हें दे दूँ ,

मगर लोग तो मेरी आँखों

के  ख़्वाब  माँगते  हैं…

If you desire, I’m willing

to give my eyes to them,

but people ask for the

dreams of my eyes…

☆☆☆☆☆

मैं अभी से किस तरह से

उसको  बेवफ़ा  कहूँ,

बात तो मंज़िलों की है

रास्ते में क्या बयां करूं…

How can I just call her

unfaithful now itself,

It’s a matter of destination,

why to comment while enroute…!

☆☆☆☆☆

जलते सूरज ने गुरूर से कहा,

है क्या कोई मेरे जैसा…

तभी एक नन्हा सा दीया बोला,

जब शाम होगी तब देखेंगे…!

The burning sun said proudly,

Is there anyone like me…

Then a small lamp said,

We’ll see when it is evening!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ?

भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। कूटनीति का एक सूत्र कहता है कि किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा और संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की।

असली मुद्दा स्वाधीनता के बाद का है। राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की  प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं।

यूरोपीय भाषा समूह के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक  अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’, ‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो गया है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय, अर्थ का अनर्थ कर रहा है। ‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट खास तौर पर फेसबुक, ट्विटर, वॉट्सएप पर देवनागरी को रोमन में लिखने का चलन भी है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की  पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति संकोच अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके वैचारिक वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

हिंदी पखवाड़ा, सप्ताह या दिवस मना लेने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो जाती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। नयी शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं का प्रवेश हो चुका है,  यह सराहनीय है।

केदारनाथ सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे कहते हैं,

जैसे चींटियाँ लौटती हैं/ बिलों में,

कठफोड़वा लौटता है/ काठ के पास,

वायुयान लौटते हैं/ एक के बाद एक,

लाल आसमान में डैने पसारे हुए/

हवाई-अड्डे की ओर/

ओ मेरी भाषा/ मैं लौटता हूँ तुम में,

जब चुप रहते-रहते/

अकड़ जाती है मेरी जीभ/

दुखने लगती है/ मेरी आत्मा..!

अपनी भाषाओं के अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। नागरिकों से अपेक्षित है कि वे इस अरुण की रश्मियाँ बनें।

 © संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 108 ☆ अभियंता दिवस विशेष : हम अभियंता… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित अभियंता दिवस विशेष : हम अभियंता…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 108 ☆ 

☆ अभियंता दिवस विशेष : हम अभियंता… ☆

(छंद : हरिगीतिका)

*

हम अभियंता!, हम अभियंता!!

मानवता के भाग्य-नियंता…

*

माटी से मूरत गढ़ते हैं,

कंकर को शंकर करते हैं.

वामन से संकल्पित पग धर,

हिमगिरि को बौना करते हैं.

नियति-नटी के शिलालेख पर

अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.

असफलता का फ्रेम बनाकर,

चित्र सफलता का मढ़ते हैं.

श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-

फिर भविष्य की क्यों हो चिंता…

*

अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,

पंचतत्व औजार हमारे.

राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,

तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.

वर्तमान, गत-आगत नत है,

तकनीकों ने रूप निखारे.

निराकार साकार हो रहे,

अपने सपने सतत सँवारे.

साथ हमारे रहना चाहे,

भू पर उतर स्वयं भगवंता…

*

भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,

ऊसर में फसलें उपजाते.

हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.

मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.

प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,

आँखों से हम आँख मिलाते.

हरि सम हर हर आपद-विपदा,

गरल पचा अमृत बरसाते.

‘सलिल’ स्नेह नर्मदा निनादित,

ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता…

*

अभियांत्रिकी:

कण जोड़ती तृण तोड़ती पथ मोड़ती अभियांत्रिकी

बढ़ती चले चढ़ती चले गढ़ती चले अभियांत्रिकी

उगती रहे पलती रहे खिलती रहे अभियांत्रिकी

रचती रहे बसती रहे सजती रहे अभियांत्रिकी।

*

तकनीक:

नवरीत भी, नवगीत भी, संगीत भी तकनीक है 

कुछ प्यार है, कुछ हार है, कुछ जीत भी तकनीक है 

गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी तकनीक है 

श्रम-मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है 

*

भारत :

यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है 

कर दें सभी मिल देश का, निर्माण नव अभियान है 

गुणयुक्त हो अभियांत्रिकी, शर्म-कोशिशों का गान है 

परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखक ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

 

 ☆ कविता ☆ लेखक ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆ 

अनुभवों की पोटली

पीठ पर लादकर

कोई लेखक नहीं बनता

लेखक बनने के लिए

जरूरी नहीं कि तुमने

किसी युद्ध में भाग लिया है।

या की भूकंप की खबरें

देखी पड़ी हो

माना कि नदी के पूर ने

नहीं बहाया तुम्हारा कुछ

ना तो तुम

घड़ा बनाते हो ना बारिश

हां बारिश को

घड़े में भरकर

पानीदार होने का मुगालता

पाल सकते हो।

जरूरी नहीं कि तुम

लकड़हारे या मछुआरे बनो ।

बिना कुछ हुए भी तुम

रच सकते हो कविता

बशर्ते

तुम्हें भावनाएं हो

तो तुम भद्र हो

वरना अभद्र हो

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #141 ☆ प्रेरणा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 141 ☆

☆ ‌ आलेख ☆ ‌प्रेरणा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

वैसे तो प्रेरणा शब्द हिन्दी साहित्य के आम शब्दों जैसा ही है, लेकिन यह है बहुत महत्वपूर्ण,  इसका बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक महत्व है तथा इसका संबंध मानव मन की उर्जा से है, यह मानव के जीवन में उत्साह तथा उमंग का संचार करता है, उत्साहहीन मानव के जीवन से खुशियों के पल रूठ जाते हैं, और जीवन उद्देश्यविहीन हो जाता है। जब कि प्रेरित मानव जीवन में ऐसे-ऐसे काम कर जाता है, जिसकी उससे आप अपेक्षा नहीं किए होंगे।

इसका महत्व समझने के लिए हमें कुछ पौराणिक घटना क्रम पर विचार मंथन करना होगा।प्रेरक ही कार्य संचालन हेतु हृदय में प्रेरणा पैदा करता है प्रेरणा के गर्भ में उत्साह पलता है इसे हम पौराणिक काल में घटे कुछ घटना क्रम से समझते हैं।

उदाहरण नं १ – जरा उस समय की कल्पना कीजिये जब रामायण कथा लिखी जा रही थी। सीता हरण भी हो चुका था, उनका कुछ भी पता नहीं चल रहा था, सीता का पता लगाने के लिए, वानर राज सुग्रीव ने धमकी भरा चुनौती पूर्ण कार्य समस्त वानर समूहों को सौंपा गया था। और सुग्रीव द्वारा मधुवन में बिना कार्य सिद्धि के फल खाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तथा बिना लक्ष्य पूरा किए असफल हो कर लौटने पर जान गंवाने का भय था।

उस समूह के संरक्षक जामवंत तथा तथा नायक श्री हनुमान जी महाराज को बनाया गया था, सारे वानर समूह भूख प्रयास से थके हारे उत्साह हीन हो समुद्र किनारे बैठ कर पश्चाताप कर रहे थे। उनकी प्रेरणा मर चुकी थी, सीताहरण की ख़बर मिल चुकी थी पता भी चल चुका था कि माता सीता सौ योजन दूर समुद्र के भीतर रावण की स्वर्ण नगरी लंका में कैद है। लेकिन प्रश्न यह था कि आखिर लंका जाएगा कौन। इसी पर सबकी क्षमताओं का आकलन हो रहा था कोई चार कोई छ कोई दस योजन जाने की बात कर रहा था युवराज अंगद ने भी अपनी क्षमता का वर्णन कर दिया था। स्पष्ट बता भी दिया था कि-

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।

जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

अर्थात्- मैं जा तो सकता हूं। लेकिन लौट कर आने में संदेह प्रकट किया था। वहीं समूह के नायक वीर हनुमान मौन हो सिर झुकाए बैठे थे। ऋषि के श्राप के कारण उनका हृदय प्रेरणा हीन था। बल और बुद्धि भूल गए थे। एक किनारे बैठे थे उनकी हालत उस मनुष्य जैसी थी  कि जो धन की गठरी पर बैठा धन  न होने की चिंता में पड़ा हुआ हो। उसे इसका ज्ञान ही नहीं है वह अपार धन-संपदा का मालिक है। आखिर में चिंता ग्रस्त हनुमान जी को उनकी बल बुद्धि की याद जामवंत जी को दिलाना ही पड़ा-

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।

का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

पवन तनय बल पवन समाना।

बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

और उस प्रेरक वचन के सुनते ही हनुमान जी का बल पौरुष जाग उठा था और शक्ति प्रदर्शन का मूल श्रोत बना जय श्री राम का उद्घोष।  फिर क्या था- 

जेहि गिरि चरन देइ हनुमंता|

चलेउ सो गा पाताल तुरंता||

उदाहरण नं २ – उस दृश्य की कल्पना कीजिये जब गांडीवधारी अर्जुन युद्ध क्षेत्र में मोह ग्रस्त खड़ा है, उसे युद्ध क्षेत्र में मृत्यु के पदचाप की आहट सुनाई दे रही है लेकिन प्रेरणा हीन अर्जुन भीख मांग कर खाने की बातें कर रहा है लेकिन, युद्ध करने से भाग रहा है क्यों कि हताशा निराशा ने उसे घेर रखा है जो बार-बार उसे कर्त्तव्य पथ से विमुख कर रहा है लेकिन भगवान श्री कृष्ण के प्रेरक वचनों ने अर्जुन के हृदय में प्रेरणा जगाई, और परिणाम महाभारत युद्ध में उसकी विजय। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सफलता का प्रयास प्रेरणा के गर्भ में पलता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १८ सप्टेंबर – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १८ सप्टेंबर – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर,  ई–अभिव्यक्ती (मराठी) ?

शिवाजी सावंत

शिवाजी गोविंदराव सावंत (31 ऑगस्ट 1940 – 18 सप्टेंबर 2002) हे लेखक व मुख्यत्वे कादंबरीकार होते. त्यांची ‘मृत्युंजय’ ही पौराणिक कादंबरी मराठी कादंबऱ्यांत मानदंड मानली जाते.

शिवाजी सावंतांचा जन्म कोल्हापूर जिल्ह्यातील आजरा गावात, एका शेतकरी कुटुंबात झाला. शालेय शिक्षण तिथेच झाले. नंतर कोल्हापुरात बी. ए. चे प्रथम वर्ष पूर्ण करून त्यांनी G. C.D. ही वाणिज्य शाखेतील पदविका घेतली.

टायपिंग, शॉर्टहँडचा कोर्स करून काही काळ त्यांनी कोर्टात कारकुनाची नोकरी केली. नंतर 1962 ते 1974 या काळात ते कोल्हापुरातील राजाराम प्रशालेत शिक्षक होते.

पुढे 1974ते 1980 या काळात त्यांनी पुण्यात महाराष्ट्र सरकारच्या शिक्षणविभागाच्या ‘लोकशिक्षण’ या मासिकाचे सहसंपादक व नंतर संपादक म्हणून काम केले.1983मध्ये स्वेच्छानिवृत्ती घेऊन त्यांनी  फक्त लेखनावरच लक्ष केंद्रित केले.

प्रदीर्घ संशोधन, चिंतन, मनन यातून त्यांची रससंपन्न अशी ‘मृत्युंजय’ ही वास्तववादी कादंबरी जन्माला आली.

यानंतर त्यांनी ‘छावा’ व ‘युगंधर’ या कादंबऱ्या, ‘कवडसे’, ‘कांचनकण’ हे ललित निबंधसंग्रह, ‘अशी मने,असे नमुने’, ‘मोरावळा’ इत्यादी व्यक्तिचित्रे, ‘ लढत’  व  ‘संघर्ष’ ही चरित्रे लिहिली. त्यांनी ‘छावा’ व ‘मृत्युंजय’चं नाट्यरूपांतरही केलं.

त्यांची काही पुस्तके इंग्रजी भाषेत अनुवादित झाली आहेत.

‘मृत्युंजय’ या कादंबरीवर आधारलेली काही मराठी, हिंदी नाटकेही रंगभूमीवर आली आहेत.

1995 पासून काही वर्षे ते महाराष्ट्र साहित्य परिषदेचे उपाध्यक्ष होते.

1983 मध्ये बडोदा येथे भरलेल्या बडोदे मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

‘मृत्युंजय’साठी त्यांना महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार, न. चिं. केळकर पुरस्कार, ललित मासिकाचा पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपिठाचा ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’, ‘फाय फाउंडेशन पुरस्कार’ व इतरही अनेक पुरस्कार मिळाले.

प्रतिमा दवे यांनी केलेल्या ‘मृत्युंजय’च्या गुजराती भाषांतराला गुजरात सरकारचा व केंद्रीय असे दोन साहित्य अकॅडमी पुरस्कार मिळाले.

‘छावा’साठीही शिवाजी सावंतांना महाराष्ट्र शासनाचा पुरस्कार मिळाला.

सावंतांना पुणे विद्यापीठाचा व महाराष्ट्र सरकारचा जीवन गौरव पुरस्कार, तसेच ‘कोल्हापूर भूषण’ पुरस्कार मिळाला.

भारत सरकारच्या मानव संसाधन व सांस्कृतिक कार्यालयाकडून त्यांना ज्येष्ठ साहित्यिक शिष्यवृत्ती देण्यात आली होती.

पुणे येथील ‘मृत्युंजय प्रतिष्ठान’तर्फे दर वर्षी मृत्युंजयकार शिवाजीराव सावंत स्मृती साहित्य आणि स्मृती समाजकार्य या नावाचे दोन पुरस्कार देण्यात येतात.

त्यांच्या जन्मगावातील श्रीमंत गंगामाई वाचन मंदिराच्या वतीने दर वर्षी मृत्युंजयकार शिवाजी सावंत कादंबरी पुरस्कार देण्यात येतो.

भालचंद्र फडके

भालचंद्र दिनकर फडके (13 मे 1925 ते 18 सप्टेंबर 2004) हे मान्यवर समीक्षक होते.

त्यांचा जन्म धारवाड येथे झाला. सोलापूरला शालेय व महाविद्यालयीन शिक्षण झालं. पुणे विद्यापीठातून मराठी घेऊन एम. ए. केल्यानंतर त्यांनी मराठी कथा या विषयावर विद्यावाचस्पती (पी एच. डी.) ही पदवी मिळवली.

सुरुवातीला फडकेंनी भारतीय युद्ध खात्यात नोकरी केली. नंतर निवृत्तीपर्यंत ते अध्यापन करत होते. प्रथम माध्यमिक शिक्षक, नंतर महाविद्यालयात 14 वर्षे अध्यापन केल्यानंतर ते पुणे विद्यापीठात अधिव्याख्याता, मग प्रपाठक व शेवटी निरंतर प्रौढ शिक्षण संचालक म्हणून निवृत्त झाले.

त्यांची समीक्षा मर्मग्राही, सामाजिक भान जागे करणारी, साक्षेपी व प्रेरणा देणारी होती.

‘सहा कथाकार’ हे संकलन, ‘कथाकार खानोलकर’, तसेच ‘मराठी लेखिका : चिंता आणि चिंतन’, ‘दलित साहित्य -वेदना आणि विद्रोह’ या समीक्षा आणि ‘समुद्रकाठची रात्र’ ही त्यांची काही पुस्तके. डॉ. आंबेडकरांवर त्यांनी चरित्रपर लेखन केले.

1973 ते 1976 या काळात ‘मराठी साहित्य पत्रिका’चे (पुणे)ते संपादक होते. त्यांची संपादकीय व समीक्षकीय दृष्टी चिकित्सक होती.

आज शिवाजी सावंत व भालचंद्र फडके यांचा स्मृतिदिन. त्यानिमित्त त्यांना भावपूर्ण आदरांजली.🙏🏻

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकीपीडिया, विवेक महाराष्ट्र नायक.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ क्लेषवृक्ष… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ क्लेषवृक्ष… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

शोधतो आजन्म, दिसेच ना मूळ

शोधूनही कूळ.. सापडेना

 

तोडाव्यात फांद्या, तितके अंकूर

फोफावे भेसूर..क्लेषवृक्ष

 

भक्कम हे खोड, फांद्यांचा विस्तार

छाया सर्पगार…साहवेना

 

पाखरांचा टाहो, पानांपानातून

फांदीसही जून…फुटे कोंभ

 

रात्रंदिन चाले, आर्त सळसळ

भोगतो मी छळ..अंतर्यामी

 

जन्मांचीया खोल, मातीमध्ये मूळ

जणू की अटळ… नियती ही

 

आता मज नाही, कुठलीच खंत

मन हे दिगंत…होऊ पाहे

 

सोसण्याचे तप, होईल सफळ

क्लेषवृक्षा फळ… आनंदाचे

 

अन्य जन्माठायी, नको याचे मूळ

व्हावया व्याकूळ… क्षीण.. दीन

 

हीच एक माझी, पुरी व्हावी आस

मुळांचा प्रवास…. संपवी बा

© श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

संपर्क : ओंकार अपार्टमेंट, डी बिल्डिंग, शनिवार पेठ, आशा  टाकिज जवळ, मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मंदिर… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆

श्रीमती अनुराधा फाटक

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जीवन… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆

    जगी या जन्मा यावे

      मन पाखराचे घ्यावे

    पंख गरुडाचे असावे

   मुंगी होऊनी जगावे !

 

   नको मारणे टोचींचे

  दंतव्रण जिव्हारीचे

  पोळयामधून मधाचे

 थेंब थेंब निथळावे !

 

 जीवनाची अर्धी भाकरी

 कोर त्याची चंद्र चकोरी

 वाढत वाढत जाणारी

 जीवनाची ही शिदोरी !

 

 नको होवो चंद्र पूर्ण

 कलंक तो मागे लागे

 चंद्रकोरीसम निखळ

जीवन मम असावे !

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ १५  सप्टेंबर अभियंता दिन / १७ सप्टेंबर विश्वकर्मा दिन ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ १५  सप्टेंबर अभियंता दिन / १७ सप्टेंबर विश्वकर्मा दिन ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

15 सप्टेंबर. ! अभियंतादिन. तमाम इंजिनिअर्सनां शुभेच्छा. अभियंतादिन ज्या व्यक्तीच्या अफाट, अचाट कर्तृत्वामुळे अस्तित्वात आला त्या व्यक्तीला आपण विसरुच शकणार नाही.

हे आदर्श अभियंता म्हणजे सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैय्या, ज्यांना”‘नाईट कमांडर” म्हणून ओळखल्या जातं. त्यांचा जन्म 15 सप्टेंबर 1861 चा.

त्यांचे वडिल हे एक संस्कृत विद्वान होते व हिंदू ग्रंथांचे भाष्यकार असून आयुर्वेदिक वैद्य होते. मात्र हे पंधरा वर्षांचे असतानांच वडीलांचे निधन झाल्याने ह्यांच्यावर संकटाचा डोंगरच कोसळला होता. वडील खूप हुषार होते परंतु तेव्हाचा काळ हा सरस्वती व लक्ष्मी एकत्र नांदत नसते ह्या पध्दतीचा होता. त्यामुळे त्यांचे वडील बुध्दीमान असूनही पैसा गाठीशी न जोडून ठेवल्याने त्यांच्या पश्चात ह्यांच्या कुटूंबाला परिस्थीतीचे चटके खूप सोसावे लागले.

त्यांचे प्राथमिक शिक्षण चिकबळ्ळापूर येथे तर उच्चमाध्यमिक शिक्षण बंगलोर येथे झाले. ते १८८१ साली मद्रास येथुन बी. ए. ची परीक्षा उच्च श्रेणीत उत्तीर्ण झाले. स्थापत्य अभियांत्रीकीचे पुढील शिक्षण त्यांनी कॉलेज ऑफ इंजिनीयरींग, पुणे मध्ये पुणे येथे घेतले. १८८३ मध्ये ते इंजिनिअरिंगच्या पदवी परीक्षा प्रथम श्रेणीने उत्तीर्ण झाले.

अभियांत्रिकीमध्ये स्नातक झाल्यावर, त्यांनी मुंबई येथे सार्वजनिक बांधकाम विभागात नोकरी केली. नंतर त्यांना भारतीय पाटबंधारे महामंडळ येथून एका कामगिरीचा श्रीगणेशा करण्यासाठी निमंत्रित करण्यात आले त्यांनी, दख्खन क्षेत्रात पाटबंधाऱ्यांची एक अतिशय क्लिष्ट योजना राबविली. त्यांनी ‘सांडव्याची स्वयंचलीत पूरनियंत्रण द्वार प्रणाली’ विकसीत केली व त्याचे पेटेंट घेतले जी सन १९०३ मध्ये पहिल्यांदा पुण्याजवळील  खडकवासला धरणास लावण्यात आली. ही द्वारे, धरणातील साठ्याची पूरपातळी, पूर आल्यावर धरणास कोणताही धोका न होता, उच्चतम स्थितीस वाढविण्यास वापरण्यात आलीत. या द्वारांच्या कामात मिळालेल्या यशामुळे, ती दारं ग्वाल्हेर व म्हैसूर येथील धरणांवर बसविण्यात आली.

सर विश्वेश्वरैया ह्यांनी हैदराबाद शहराचे पूरापासुन संरक्षण करण्यासाठी जी प्रणाली विकसित केली त्याने त्यांना सत्कार मुर्ती च्या रांगेत बसविण्यात आले. विशाखापट्टणम  बंदरास समुद्री पाण्यापासुन गंजरोधक करण्याची प्रणाली तयार करण्यातही त्यांनी पुढाकार घेतला. सर मो. विश्वेश्वरैया ह्यांनी कावेरी नदीवर कृष्णराजसागर धरण बांधण्याच्या प्रस्तावापासुन ते उदघाटनापर्यंत सर्व कामांची संपूर्ण जबाबदारी स्विकारुन देखरेख केली. या धरणाचे बांधकामाने तेव्हाच्या काळातील हे आशियातील सर्वात मोठे सरोवर ठरले. ह्यामुळेच ते  ‘म्हैसूर राज्याचे पिता’ म्हणून ओळखले जावू लागले.

त्यांचे म्हैसूर राज्याचे नोकरीदरम्यान, त्यांनी सरकारच्या नियंत्रणा खालील म्हैसूर सोप फॅक्टरी, , किटकनाशक प्रयोगशाळा, भद्रावती आयर्न व स्टील वर्कस्, श्री जयचमाराजेन्द्र पॉलीटेक्निक इंस्टीट्युट, बंगलोर ऍग्रीकल्चरल युनिव्हर्सिटी, स्टेट बॅंक ऑफ मैसुर, सेंचुरी क्लब, मैसुर चेंबर ऑफ कॉमर्स असे अनेक औद्योगीक प्रकल्प सुरु केलेत. त्यांनी उद्योगात खाजगी गुंतवणुकीवर भर दिला. त्यांचे वेळेचे नियोजन, प्रामाणिकपणा आणि झोकून देऊन समोरील काम यशस्वीरीत्या पूर्णत्वास नेणे हीच त्यांची शेवटपर्यंत ओळख बनली. तिरुमला-  तिरुपती दरम्यानच्या रस्तेबांधणीत त्यांनी मोलाचे योगदान दिले.

सर विश्वेश्वरय्या ह्यांची सुरत येथून  पुण्याच्या सेन्ट्रल डिव्हिजनमध्ये असिस्टन्ट  चीफ इंजिनिअर या पदावर बदली झाली. पुणे विभाग हा मुंबई प्रेसिडेन्सीमध्ये मोडत असे. या पुणे विभागातच मुंबई प्रेसिडेन्सीमधील सर्वात मोठे असे दोन साठवण जलाशय होते. खडकी क्यानटोन्मेंट विभागाला गाळलेल्या पाण्याचा पुरवठा केला जात असे. मुळा नदीच्या एका कालव्यातून हे पाणी फिफे जलाशयात येत असे. मुळा नदी उन्हाळ्यात कोरडी पडायची तर पावसाळ्यात पूर येउन दगडी बंधाऱ्यावरून पाणी वाहून फुकट जात असे. अस्तित्वात असलेले दगडी धरण उंच करायचे तर पायाच्या भिंतीना अधिक  जलस्तंभामुळे धोका संभवला असत. मग अधिक पाणी साठवण्यासाठी काय मार्ग काढावयाचा ?हा सगळ्यांसमोर यक्ष प्रश्न पडला. श्री विश्वेश्वरय्या यांच्यावर मोठीच जबाबदारी पडलेली होती. परंतु अशा स्थितीत न डगमगता खंबीरपणे त्यांनी या सांडव्यावर ७ ते ८ फूट अधिक पाणी साठवू शकतील असे दरवाजे बनवण्याचे ठरवले आणि स्वतःच्या तल्लख बुद्धीने त्यांनी स्वयंचलित दरवाज्यांचे डिझाईन तयार केले. धरणाच्या  सांडव्यावर आणखी ८ फूट जलस्तंभ अडवतील असे ऑटोमाटिक दरवाजे त्यांनी बनवले. पावसाळ्यात या दरवाज्यांमुळे ८ फूट पाणी अडल्यानंतर जर आणखी अधिक पाणी वाढू लागले तर हे दरवाजे ऑटोमॅटिकली उघडत आणि जादाचे पाणी वाहून जात असे. एकदा का जादा पाणी येण्याचे थांबले की ते दरवाजे बंद होत. हा एक महान आणि क्रांतिकारी शोध त्यांनी लावला. सरकारने त्यांच्या नावाने ह्या  ऑटोमाटिक दरवाजांचे पेटंट त्यांना करून दिले. हे दरवाजे ग्वाल्हेरच्या   आणि कृष्णाराज सागर या धरणांवर बसवले गेले. तसे पाहता  ते  पूर्ण संशोधन श्री  विश्वेश्वरय्या यांचे होते. त्यामुळे त्याच्या पेटंट पोटी  सरकारने त्यांना पेटंट मनी देऊ केला परंतु अतिशय नम्रपणे त्यांनी ते नाकारले. मी ब्रिटीश सरकारच्या नोकरीत असताना हे डिझाईन केले आहे त्यामुळे  त्या पेटंटचे पैसे  घेणे माझ्या नीतिमत्तेला धरून नाही असे त्यांनी सरकारला सांगितले. स्वयंचलित दरवाज्यांचे हे डिझाईन इतके चांगले होते  की हे जलाशयावर बसवलेले हे दरवाजे पाहण्यास ते पन्नास वर्षांनी स्वतः गेले तरी ते दरवाजे उत्तम रीतीने काम करीत होते. पुण्याचा जलसिंचन विभाग पाण्याच्या मोठ्या साठ्यांमुळे आणि धरणांमुळे सन १९०० च्या सुमारास प्रसिद्ध होता. परंतु ज्या भागाला कालव्यांद्वारे पाणी पुरवठा होतो ते प्रांत सुबत्ता प्राप्त करत आणि धरणांच्या खालील भागांना किंवा कालव्याच्या उप शाखांना कमी पाणी पोचत असल्यामुळे तिथे पाणी कमी पडत असे. मोठे व धनवान शेतकरी मुख्य कालव्यातून जास्त पाणी घेत आणि दूरवर वसलेल्या कालव्याबाजूच्या शेतकऱ्यांना शेतीसाठी पाणी अपुरे पडत असे. ही विषमता दूर करण्यासाठी श्री विश्वेश्वरय्या यांनी पाळीपाळीने किंवा चक्राकार पद्धतीने पिकांना पाणी देण्याची विशेष योजना आखली. कालव्याच्या वरील भागातील श्रीमंत शेतकऱ्यांना या योजनेमुळे मन मानेल तसे पाणी घेता येणार नव्हतेह त्यामुळे त्यांनी आपले म्हणणे केसरीचे तत्कालीन संपादक लोकमान्य टिळक यांच्याकडे मांडले आणि केसरीतून दर आठवड्याला  या चक्राकार पद्धती विरुद्ध लिखाण छापून येऊ  लागले. विश्वेश्वरय्यानी आपली ही योजना सरकारला विशद केली आणि विरोध करणाऱ्या जमीनदार शेतकऱ्यांशी प्रत्यक्ष चर्चा करून ही योजना प्रत्यक्ष कार्यवाहीत आणली. ब्लॉक सिस्टीम या नावाने  ही योजना प्रसिद्ध आहे आणि अजूनही भारतभर हीच पद्धत अवलंबिली जाते.

सर विश्वेश्वरय्या ह्यांच्या बुद्धीमत्तेचे  भारतीयांबरोबरच इंग्रज लोकसुद्धा कौतुक करू लागले. ब्लॉक पद्धतीनुसार वर्षातून तीन पिके वर्तुळाकार क्रमाने घ्यायची आणि उपलब्ध पाणी वापरूनच अधिक लाभ क्षेत्रात पिके काढायची अशी पद्धत आहे. तीन पिकातील एक भात किंवा उस हे सर्वाधिक पाणी लागणारे पीक असावे आणि आणि दुसरे मध्यम पाण्यावर तयार होईल असे असावे तर तिसरे पीक कमीतकमी पाणी लागेल असे असावे असे विश्वेश्वरय्या यांनी निश्चित केले.  एकाच जमिनीत वेगवेगळी पिके पाळीपाळीने घेतल्यास मातीचा कस कमी होत नाही. सगळया  रयतेला हे पटण्यासाठी त्यांनी मोठ्या जमीनदारांना असा प्रयोग निदान एकदा तरी करून पाहण्याची सूचना केली. मोठ्या जमीनदारांनी ते मानले आणि हा प्रयोग कल्पनातीत यशस्वी झाला. सामान्य शेतकरीसुद्धा ब्लॉक सिस्टीमच्या जलसिंचनासाठी तयार झाला. मुंबई सरकारचे ज्येष्ठ सदस्य सर जोन  मूर माकेंझी यांनी या पद्धतीसाठी श्री.  विश्वेश्वरय्या यांचे तोंड भरून कौतुक केले. पाण्याच्या संयमित वापरामुळे डासांचा प्रादुर्भाव कमी प्रमाणात होउन मलेरिया सारख्या  रोगालाही आळा  बसला.

सन १९०८ मध्ये स्वेच्छानिवृत्ती नंतर म्हैसूर या भारतातील मोठ्या व महत्त्वाच्या राज्याचे दिवाण म्हणून त्यांना नियुक्त केले गेले. कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ या म्हैसूरच्या महाराजांच्या पाठिंब्यामुळे सर विश्वेश्वरया यांनी राज्याच्या सर्वांगीण विकासासाठी मोठे योगदान दिले. इतर अनेक कामांसोबत, सन १९१७ मध्ये बंगळूर येथील शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालयाची त्यांनी स्थापना केली. ही भारतातील पहिली अभियांत्रिकी संस्था होती, जी अद्यापही कर्नाटकातील एक प्रतिष्ठित संस्था आहे.

म्हैसूर येथे असतांना त्यांनी जनतेसाठी केलेल्या कामांमुळे, त्यांना’नाईट कमांडर ऑफ दी ऑर्डर ऑफ दी इंडीयन एंपायर’ या सन्मानाने गौरविले गेले. भारताला स्वातंत्र्य मिळाल्यावर, त्यांना सन १९५५ मध्ये ‘भारतरत्न’ या देशाच्या सर्वोच्च पुरस्काराने सन्मानित केल्या गेल.

सर मो. विश्वेश्वरैया यांना आंतरराष्ट्रीय इंस्टीट्युट ऑफ सिव्हिल इंजिनिअर्स ह्या लंडन स्थित संस्थेने सन्माननिय सदस्यत्व तर इंडियन इंस्टीट्युट ऑफ सायन्स च्या बंगलोर शाखेने फेलोशिप देऊन त्यांचा सन्मान केला. देशातील अनेक विद्यापिठांनी त्यांना ‘डॉक्टर’ ही अनेक विद्याशाखातली पदवी देऊन गौरविले. ते सन १९२३ च्या इंडियन सायन्स कॉंग्रेसचे अध्यक्ष होते.

अशी अद्वितीय, असामान्य माणसं आपल्या देशाची खरी संपत्ती असतात. वयाच्या 101 व्या वर्षी दिनांक 14 एप्रिल 1962 रोजी ह्यांनी अखेरचा श्वास घेतला. सरांना जयंतीनिमित्त विनम्र अभिवादन आणि जगातील तमाम इंजिनिअर्स ना ह्या अभियंता दिनाच्या शुभेच्छा.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘आनंदाचे ठसे…’ – भाग – १ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ❤️

☆ ‘आनंदाचे ठसे…’ – भाग – १ ☆ श्री अरविंद लिमये

अनुभूति म्हणजे अनुभवच पण अलौकिक वाटावा  असा अनुभव. सुखद आश्चर्याचा स्पर्श जाणवणारा आणि असह्य दु:खावर अनपेक्षितपणे फुंकर घालावी तशी वेदना शमवणारा ! अनुभूतीचे असे स्पर्श त्या अनुभवात लपलेल्या अनुभूतीच्या चैतन्यदायी प्रकाशाचेच स्पर्श असतात. असा अनपेक्षित स्पर्श जाणवताच मनोमन होणारे विश्लेषण अनुभूतीची साक्ष पटवणारे असते.

क्वचितच कधीतरी अकल्पितपणे एखादा क्षण जणू आपली परीक्षा पहायला आल्यासारखा समोर येऊन जेव्हा उभा रहातो तेव्हा त्या नेमक्या क्षणी आपल्या नैसर्गिक प्रतिक्रियेला आणि कृतीला  अनन्यसाधारण महत्त्व असते. हे असे प्रसंग मोजकेच असले तरी ते आपला कस पहाणारे असतात. त्या कसोटीला उतरणारे अर्थातच अनुभूतीत लपलेल्या अलौकिक आनंदाचे धनी होतात!

मी स्वतःला असा भाग्यवान समजतो कारण अशा अलौकिक आनंदाचे दान अनेक प्रसंगात माझ्या वाट्यास आलेले आहे. त्या अनुभूतीच्या आनंदाचे ठसे मी मनोमन जपून ठेवलेले आहेत!

मी युनियन बँकेच्या सोलापूर (कॅंप) ब्रॅंचचा मॅनेजर म्हणून नुकताच चार्ज घेतला होता तो १९८८ मधला हा प्रसंग. मला अतिशय गूढ, अकल्पित,अतर्क्य अशी अनुभूती देणारा !

त्याचीच ही अनुभव कथा!

‘आनंदाचे ठसे…’ – भाग – १

रहिवासी क्षेत्रातली ती ब्रॅंच. त्यामुळे ग्राहकांच्या सोयीसाठी कामांची सकाळी ८.३० ते १२ आणि दुपारी २ ते ६ अशी डबलशिफ्ट होती. ब्रॅंचमधे चालत पाच मिनिटात पोचता येईल इतक्या जवळच्या कृषीनगर कॉलनीत माझ्या क्वाॅर्टर्स. त्यामुळे जाण्यायेण्याचा त्रास काहीच नव्हता.या एका अनुकूल गोष्टीच्या तुलनेत तिथली आव्हाने मात्र दडपण वाढवणारीच होती. ते रहिवासी क्षेत्र असल्यामुळे कर्ज वितरण आणि ठेवी संकलन या दोन्ही आघाड्यांवर यश मिळवणे ब्रॅंच मॅनेजर म्हणून माझ्यासाठी खूप अवघड आणि आव्हानात्मक होते.मी चार्ज घेऊन चार-सहा दिवसच झाले असतील आणि एक वेगळंच नाट्य आकार घेऊ लागलं !

त्या नाट्यातला मीही एक महत्त्वाचा भाग असणार होतो आणि माझी कसोटी पहायला निमित्त होणार होते ते माझेच स्टाफ-मेंबर्स आणि ग्राहक याची  मला त्यावेळी कल्पनाही नव्हती.     

नेमकं सांगायचं तर एका अलिखित नाटकाचं आमच्याकरवी ते जणूकांही नकळत घडणारं उत्स्फुर्त सादरीकरण असणार होतं जसंकाही!

ब्रँचमधे स्टाफ तसा पुरेसा होता. जवळजवळ सगळेच अनुभवी. अपवाद फक्त रिसिव्हिंग कॅश काऊंटरवरची  सुजाता बोबडे. नुकतीच जॉईन झालेली. त्यामुळे कामाची फारशी माहिती नाही आणि त्यामुळे आत्मविश्वासाचाही अभाव. अर्थात हेडकॅशिअर श्री सुहास गर्दे नियमांवर बोट ठेवून काम न करता तिला स्वतःचे काम सांभाळून मदत करायचे म्हणून रोजचं रुटीन व्यवस्थित सुरू होतं एवढंच. एरवी सुजाताच्या वर्क-कॉलिटी बद्दल मी फारसा समाधानी नव्हतो. खरं तर कुठल्याच व्यक्तीबद्दलचे पूर्वग्रह मी जाणीवपूर्वक नेहमीच तपासून पहात असे.गप्पांच्या ओघात मला मिळालेली माहिती सुदैवाने माझे तिच्याबद्दलचे पूर्वग्रह बदलणारी ठरली होती. रिझर्व्हड् कॅटेगरीतून निवड होऊन एक वर्षापूर्वी ती ब्रॅंचला जॉईन झाली होती.लगेचच नात्यातल्या एका मुलाशी तिचं लग्नही ठरलं होतं. तो एमबीबीएस करत होता. त्याचं शिक्षण पूर्ण होईपर्यंत लग्न करायला त्याच्या घरचे तयार नव्हते आणि तोवर थांबायला हिच्या घरचे. यातून मध्यममार्ग निघतच नाहीय असं पाहून त्या दोघांनीही एक धाडस केलं. घरच्या विरोधाला न जुमानता लग्न करायचं ठरवलं. त्याच्या घरच्यांना हे अर्थातच मान्य नव्हतं. खूप विचार करून त्यांनी मग परस्पर रजिस्टर लग्न केलं. त्याच्या शिक्षणाची आणि घर खर्चाची सगळी जबाबदारी सुजाताने स्वीकारली आणि वेगळं बि-हाड केलं. नवऱ्याचं शिक्षण आणि तिची तारेवरची कसरत सुरू झाली.नवऱ्याचं एमबीबीएसचं शेवटचं वर्ष होतं. मी जॉईन झालो त्याच दिवशी तिचा मॅटर्निटी-लिव्हचा अर्ज माझ्या टेबलवर आला होता! मी ज्या नाट्यपूर्ण प्रसंगाची आठवण सांगणार आहे त्यामध्ये हीच सुजाता बोबडे अतिशय महत्त्वाची भूमिका बजावणार होती हे मात्र तेव्हा मला माहिती नव्हतं!

ब्रॅंचचा चार्ज घेऊन झाल्यावर मी महत्त्वपूर्ण ग्राहकांना भेटून त्यांच्याशी संवाद साधायला सुरुवात केली. माझ्या घरापासून ब्रॅंचपर्यंतच्या रस्त्यावरच असणाऱ्या ‘लिटिल फ्लॉवर कॉन्व्हेंट स्कूल’ चा नंबर मी मनोमन तयार केलेल्या महत्त्वपूर्ण ग्राहकांच्या यादीत सर्वात वरचा होता. या संस्थेच्या बचत खात्यात बरीच मोठी रक्कम शिल्लक असे. शिवाय आठवड्यातून दोनतीनदा तरी थोड्याफार रकमांचा भरणा त्यात नियमितपणे होत असायचा.

आमच्या लहान ब्रॅंचसाठी तर अशा ग्राहकांना सांभाळणे गरजेचेच होते. त्या दिवशी सकाळी थोडं लवकर निघून मी  मिस् डिसोझांना भेटण्यासाठी प्रथमच त्या संस्थेत गेलो. मिस् डिसोझा या तेथील प्रिन्सिपल कम् व्यवस्थापक. अतिशय शांत आणि हसतमुख. प्रसन्न चेहरा आणि आदबशीर वागणं. कॉन्व्हेट मधील स्टाफ नन्सची कार्यतत्पर लगबग आणि लक्षात यावी, रहावी अशी काटेकोर शिस्त मी प्रथमच अनुभवत होतो. प्रकर्षाने जाणवणारी प्रसन्न शांतता आणि मेणबत्तीच्या प्रकाशात अधिकच तेजोमय भासणारी येशूची मूर्ती माझ्या मनावर गारुड करतेय  असं मला वाटू लागलं!

मी स्वतःची ओळख करून दिली. मिस् डिसोझांनी माझं हसतमुखाने स्वागत केलं. गप्पांच्या ओघात मी चांगल्या सहकार्य आणि सेवेबद्दल त्यांना आश्वस्त करून त्यांच्याकडूनही सहकार्याची अपेक्षा व्यक्त केली तेव्हा मात्र त्या थोड्या गंभीर झाल्या. त्यांच्या चेहऱ्यावरचा प्रसन्नपणा लोपला. नजरेतलं हास्यही अलगद विरून गेलं. पण हे सगळं क्षणभरच. लगेचच त्यांनी स्वतःला सावरलं आणि….

“सी.. मिस्टर लिमये…” त्या बोलू लागल्या.

आमच्या ब्रॅंचमधील सेवेबद्दल त्या फारशा समाधानी नव्हत्या.कोणताही आक्रस्ताळेपणा किंवा आदळआपट न करता त्यांच्या मनातली नाराजी त्यांनी अतिशय सौम्य पण स्पष्ट शब्दात आणि तेवढ्याच डिसेंटली व्यक्त केली.

हाकेच्या अंतरावर असणाऱ्या आमच्या ब्रॅंचमधे आठवड्यातून दोन दिवस, हातातली कामं बाजूला ठेवून त्यांची स्टाफ-नन् पैसे भरायला बँकेत येई.साधारण २५-३० हजार रुपयांचा भरणा करून परत जायला तिला पंधरा-वीस मिनिटांऐवजी किमान दोन तास तरी लागत. घाईगडबडीच्या कामांमधला एवढा अनावश्यक दीर्घकाळ एका स्टाफला स्पेअर करणं मिस् डिसोझाना शक्यच नव्हतं. तत्पर सेवेची, सरळ-साधी अपेक्षा होती त्यांची आणि त्यात मी लक्ष घालावं अशी त्यांनी विनंती केली. बँकेतला एखादा कॅशियर पाठवून आठवड्यातले दोन दिवस इथून कॅश कलेक्ट करणं शक्य होईल कां असंही त्यांनी विचारलं. यातून मार्ग काढायचं आश्वासन देऊन मी त्यांच्या निरोप घेतला.

हा प्रसंग मॅनेजर म्हणून माझ्या दृष्टीने तसा साधा,नेहमीच घडणारा..पण यावेळी मात्र अचानक मिळालेल्या वेगळ्याच कलाटणीमुळे माझी कसोटी पहाणारं नाट्य निर्माण होणार होतं आणि त्यात सुजाता बोबडे इतकाच या मिस् डिसोझांचाही सहभाग असणार होता याची मला कल्पनाच नव्हती.

दोन कॅश काउंटर्सपैकी एक थोडा वेळ बंद ठेवून तो कॅशिअर स्पेअर करणं मला प्रॅक्टिकल वाटत नव्हतं.कारण तसं करायचं म्हटलं तरी इथे पाठवणार कुणाला तर त्या सुजाता बोबडेला.तेही तिच्या अशा अवस्थेत.मला ते रास्त वाटेना.त्यांची कॅश घ्यायला दोन दोन तास कां लागतात हे जाणून घ्यावे या उद्देशाने मी सुजाताला केबिनमधे बोलावलं.’लिटिल् फ्लॉवर’ चा विषय काढताच ती बावरली.

“त्यांची कॅश मी नाही सर सुहास गर्दे घेतात”

“कां?”

ती गप्प बसली. तिचे डोळे भरून आले.

“ठीक आहे.तू जा.सुहासला पाठव.मी त्याच्याशी बोलेन”

ती उठली. खाल मानेनं केबिनबाहेर गेली. त्या क्षणी मला तिचा भयंकर राग आला आणि तिची कींवही वाटली.

सुहास गर्देंकडून जे समजलं ते ऐकून मला आश्चर्यच वाटलं. प्रश्न मी समजत होतो तेवढा गंभीर नव्हताच. एरवी स्ट्रिक्ट डिसिप्लिन असणाऱ्या मिशनरी सिस्टीममधल्या ‘लिटिल फ्लॉवर’ मधील स्टाफ नन्स आणि मिस् डिसोझांनाही बँकिंग व्यवहारातल्या मूलभूत नियमांची प्राथमिक जाणही फारशी नव्हती. रोख भरणा करण्यासाठी आणलेल्या नोटा उलट सुलट कशाही लावलेल्या असायच्या. शिवाय पैसे भरायच्या स्लिपमधे नोटांचे विवरणही बिनचूकपणे भरलेले नसायचे. त्यामुळे या सगळ्या दुरुस्त्या स्वतः करून त्या स्टाफ ननसमोर पैसे मोजून घेताना तिला थांबायला तर लागायचंच शिवाय त्या कामात गुंतून पडल्यामुळे सुजाताच्या काऊंटरसमोर ग्राहकांची हीs गर्दी व्हायची आणि सुजाता भांबावून जायची. म्हणून मग ते काम सुहास गर्देने स्वतःकडे घेऊन सुजाताचा प्रश्न सोडवला आणि त्या स्टाफ ननला हे प्रोसेस वेळोवेळी समजावून सांगूनही काही उपयोग न झाल्यामुळे ‘लिटिल फ्लावर’ चा प्रश्न मात्र लटकूनच राहिला होता. तो आता मलाच पुढाकार घेऊन सोडवणं भाग होतं.

पूर्व नियोजित वेळ ठरवून मी पुन्हा मिस् डिसोझांची भेट घेतली. त्यांना या सर्व नियम व त्रुटी समजावून सांगितल्या. त्याचं महत्त्व विशद केलं. त्या दिवशीची भरणा करायची रोख रक्कम व स्लिप मागवून घेतली. त्यांनी स्टाफ ननलाही समोर बसवून सगळं समजून घ्यायला सांगितलं. नोटा कशा अरेंज करायच्या,कशा मोजायच्या व त्यांचं विवरण स्लिपमधे कसं भरायचं हे मी स्वतः करून दाखवलं.

“ही  कॅश आणि स्लिप मी आता घेऊन जातो. वेळ मिळेल तेव्हा स्टाफ ननला पावती घेण्यासाठी पाठवून द्या” असं सांगून मी त्यांचा निरोप घेतला. कॅश व स्लिप बॅंकेत जाताच सुजाताच्या ताब्यात दिली. थोड्या वेळाने स्टाफ नन येऊन काऊंटर स्लिप घेऊन दोन मिनिटात परतही गेली. एका गंभीर बनू पहाणाऱ्या प्रश्नाचं सहजसोपं उत्तर सर्वांसाठीच सोईचं होतं हे लक्षात आलं आणि मग आठवड्यातून दोन दिवस बँकेत येताना त्यांच्याकडे जाऊन कॅश व्यवस्थित मोजून घेऊन मीच ती बँकेत आणू लागलो.

क्रमश:.. 

©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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