हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 5 – बचपन की सुखद स्मृतियाँ – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  द ग्रेट नानी )

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – बचपन की सुखद स्मृतियाँ ?

मनुष्य को ईश्वर की एक बहुत बड़ी देन है और वह है स्मरण शक्ति। यह बैंक में जमा की गई धन राशि के समान है! इसे जब चाहो खर्च करने का मौका देती है। इन्सान के बचपन की स्मृतियाँ भी कुछ ऐसी ही होती हैं। बाल्यकाल की  घटनाओं को जब बड़े होने पर याद करते हैं तब कुछ और ही रसास्वाद का आनंद मिलता है। एक बार फिर बचपन में लौट जाने की तीव्र इच्छा होती है।

वैसे तो मेरे बचपन की कई सुखद स्मृतियाँ हैं जिन्हें याद कर मैं कभी कविता तो कभी लघु कथाएँ लिखती हूँ और फिर बचपन के सागर में डूबती –  तैरती हूँ। पर आज मैं आप सबके साथ अपना एक अनुभव साझा करती हूँ।

अपने बचपन में मैं टॉम बॉय थी। भाई के दोस्त ही मेरे भी दोस्त हुआ करते थे। उन दिनों हम चतु:शृंगी के पास अंबिका सोसायटी में रहते थे। कॉलोनी बंगलों की कॉलोनी थी। कई हमउम्र लड़कियाँ भी थीं जिनके साथ सागर गोटे, पिट्ठुक, भातुकुली आदि का भी मैं आनंद लेती थी पर लड़कों के साथ खेलना शायद और चैलेंजिंग था।

नियमित रूप से चतुरश्रृंगी पहाड़ के ऊपर चढ़ा भी करते थे। होड़ लगाते थे कि कौन सबसे पहले ऊपर चढ़े।

उन दिनों मोहल्ले के लड़के गुल्ली डंडा, कंचे, गुलैल, पतंग, लट्टू आदि से अधिक खेलते थे।

दुख की बात है कि आज ये खेल गँवारों के खेल समझे जाते हैं।

उन दिनों मेरी उम्र नौ वर्ष रही होगी। लड़कों में अपनी जगह बनाने के लिए मैं अपने दादा के हाफ़ पैंट पहनती थी। घर पर किसी ने टोका नहीं, शायद टॉम बॉय सी थी और छोटी थी यह सोचकर कुछ न बोले होंगे। हमारे वस्त्र हमारे व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। मुझे भी पैंट पहनकर खेलने में आसानी होती थी। लड़कों के साथ भिड़ जाने में और आवश्यकतानुसार उनकी कुटाई करने में भी आसानी होती थी।

शुरू – शुरू में  तो मैं दादा के पीछे – पीछे रही पर धीरे – धीरे सबके साथ घुल-मिल गई फिर खेलने और जूझने की बुद् धि व क्षमता दोनों बढ़ गई। पैंट की जेबों में ढेर सारे कंचे होते, कुछ खेलते समय जीते हुए और कुछ दादा की नज़रें बचाकर उनकी पैंट की जेबों से चुराए हुए! उस वक्त कभी चोरी का अहसास न हुआ न गिल्ट फीलिंग्स ही। जहाँ मौक़ा मिला ज़मीं पर उँगली से गहरे छेद बनाकर  पारंगतता हासिल करने के लिए एकलव्य की तरह अकेले में ही कंचे खेलने का अभ्यास करती  रहती ताकि खूब कंचे बटोर सकूँ। घुटने इतने गंदे, बेढब और छिले से होते मानो खेत में काम करनेवाले किसी मज़दूर के घुटने हों। माँ डाँटती तो हौज के पानी से पैर धो लेती और साफ घर को धूल मिट् टी से भर देती।

मैं बचपन में शरारतों से पटी हुई थी।

कंचे, गिल्ली – डंडा खेलना आ गया तो अब गुलैल चलाने की बारी आई। दादा के मित्र मेरे मित्र थे इनमें कुछ हमउम्र भी थे। अंबिका सोसाइटी में सबके घर में खूब बाग बगीचे थे। आम, जामुन, आँवले, अमरूद आदि के पेड़ लगे थे। सभी वृक्ष खूब फल देते। एक दिन दोपहर के समय दो मित्र आए, कहा चलो आँवले तोड़ते हैं। मैं भी साथ हो ली। अपने घर के पिछवाड़े एक घर में खूब आँवले लगे थे। हम चुपके से वहाँ पहुँचे। उन दोनों ने कहा देखें तेरा निशाना कैसा है। मैं भी तैयार थी। पास के ही दूसरे एक वृक्ष पर चढ़कर गुलैल साधकर आँवले तोड़ने लगी। दो चार टपके भी, हिम्मत बढ़ गई। उन दिनों मैं नौ सीखिए थी, अभी अचूक निशाने मारने में माहिर न थी। बस निशाना चूका और बंगले की खिड़की के शीशे झनाझनाकर कुछ घर के फ़र्श पर और कुछ बगीचे में गिरे।

दोनों साथी मुझे वहीं छोड़ फरार हो गए और मैं अभी भी पेड़ से छलांग लगा कर उतर ही रही थी कि उस घर के दादजी जिन्हें हम सब आजोबा कहते थे, घर से बाहर आ गए। पहले तो कान पकड़कर मरोड़ा, फिर उच्च पदस्थ पिता की बेटी होकर आँवले चुराने पर भर्त्सना मिली फिर लड़की होकर लड़कों के साथ न खेलने की नसीहत मिली। मैं अपना सा मुँह लेकर घर लौट आई। दोनों मित्रों की कुटाई की तीव्र इच्छा लिए।

शाम को बाबा दफ़्तर से  घर लौटे तो चेहरा तमतमाया हुआ था। मैं समझ गई आजोबा ने शिकायत की थी। बाबा खूब नाराज़ हुए। मार पड़ी सो  अलग। गाल पर तड़ा तड़ थप्पड़ पड़े़ और पैर की पिंडलियाँ बेंत खाकर ऐसे काले हुए मानो कोयले की खान में काम करनेवाले किसी मज़दूर के पैर हों। पर जो सज़ा मिली वह भयंकर थी। बाबा ने हुक्म दिया कि मैं आजोबा के घर के बाहर पड़े काँच के टुकड़े चुनकर सब साफ़ करूँ वह भी रात होने से पहले।

स्वभाव से मैं बहुत ज़िद् दी थी। बाबा के हुक्म का पालन किया और उसके बाद भीष्म  प्रतिज्ञा भी ली कि आजोबा के बगीचे के सारे आंवले नोच दूँगी। कुछ दिनों तक घर से बाहर न निकली पर दिमाग़ में योजना चलती रही।

फिर प्रारंभ हुआ अभ्यास!! घर में जितने हैंडल टूटी प्यालियाँ थीं उन्हें हौज पर रखकर गुलैल मारकर उन्हें फोड़ने का अभ्यास शुरू कर दिया। माँ ने कुछ एल्यूमीनियम के बर्तन रख छोड़े थे, बर्तनवाले को देने के लिए। मैंने गुलैल मारकर उनका हुलिया बदल डाला। उनके पैंदे कैसे थे पहचान से बाहर हो गए!! थोड़े ही समय में आँवला तो क्या आम, अमरूद इमली  तोड़ना भी सीख गई वह भी सबकी नज़रें बचाकर।

शायद इस निशानेबाजी की आदत ने मेरे भीतर साहस का संचार किया और फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाई के साथ NCC  में मैं भर्ती हो गई। इसी आदत ने मुझे रायफल शूटिंग का मौका दिया और 1976 में महाराष्ट्र के बेस्ट केडेट का गौरव मिला!!!

आज पलटकर जब सोचती हूँ तो फिर एक बार बचपन में लौट जाने को जी चाहता है। आज न आँवले के पेड़ हैं न गुलैल अगर कुछ बचा है तो वह है सुखद स्मृतियों का विशाल जाल जिसमें एक मकड़ी की तरह हम इस उम्र में फँसे हुए हैं। अब तो यही कहने को दिल करता है कि कोई लौटा  दे मेरे बीते हुए दिन…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 271 ☆ कविता – लंदन से 7 – उस तरह का धन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता लंदन से 7 – उस तरह का धन। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 271 ☆

? कविता – उस तरह का धन ?

मेरे पास उस तरह का धन

शून्य है

पर मेरे

बड़ी मेहनत से कमाए ,इस तरह के धन को

तो मेरे पास रहने दो सरकार

कितना प्रगट, परोक्ष, टैक्स लगाओगी सरकार

टैक्स लोगों को मजबूर करता है

इस तरह के धन को उस तरह के धन में बदलने के लिए

अग्रिम टैक्स ले लेती हो

कभी अग्रिम वेतन भी दे सकती हो?

अपना ही इस तरह का धन

बेटी को विदेश भेजना हो तो

ढेर सा अग्रिम टैक्स कट जाता है

बिना किसी देयता के

तभी तो हवाला बंद नहीं होता

और

इस तरह का धन उस तरह के धन में

बदलता रहता है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 186 – तपिश – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा तपिश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 186 ☆

☆ लघुकथा 🌻 तपिश 🌻

एक सुंदर सी कालोनी। आज होली का दिन बहुत ही सुंदर सा वातावरण चारों तरफ होली के गाने और बच्चों की टोली।

साफ-सुथरे धूलें प्रेस के चमकते कपड़े पहन अनिल नहा धोकर तैयार हुआ। स्वभाव से गंभीर ओहदे के ताने- बाने में जकड़ा अपने आप को हमेशा अकेला महसूस करता था।

अनिल इस संसार को सिर्फ माया बाजार समझता था। यूँ तो कहने को भरा पूरा परिवार, सदस्यों की कमी नहीं थी। परन्तु फिर भी उसका परिवार अकेला। अंर्तमुखी व्यवहार जो सदा, उसे सबसे अलग किये देता था। दुख- सुख हो वह सिर्फ एक फॉर्मेलिटी पूरी करता दिखता।

अनजाने ही वह कब सभी चीजों से विरक्त हो गया, पता ही नहीं चला। नीरस सी जिंदगी हो चली थी। घर में दोनों बिटिया और धर्मपत्नी हमेशा से ही पापा को अकेले या कोई आ गया तो एक अजनबी की तरह व्यवहार करते देखा करते थे। बिटिया भी उसी माहौल को स्वीकार कर चुकी थी। क्योंकि मम्मी ने साफ-साफ कह दिया था… “जब ससुराल चली जाओगी तब सब शौक पूरा कर लेना। अभी आपके पापा के पास उनकी मर्जी के साथ रहना सीखो।”

” मैंने सारी जिंदगी निकाली है। मैं नहीं चाहती घर में किसी प्रकार का क्लेश बढ़े।” बच्चों में खुशी का तो कोई ठौर नहीं था परंतु मायूसी ने घर कर लिया था।

पढ़ने में दोनों तेज और समझदार थी। भाग्य से समझौता कर चुकी थी।

” क्या? हम इस वर्ष भी होली में बाहर नहीं निकालेंगे दीदी? “….. छोटी वाली ने सवाल किया।

कमरे में बुदबुदाहट की आवाज सुनकर अनिल खिड़की के पास खड़े हो गए। बड़ी बहन समझा रही थी…… “देख छोटी चल आईने के सामने हम दोनों एक दूसरे को गुलाल लगा लेते है दिखेंगे चार और फोटो गैलरी से फोटो बनाकर हैप्पी होली शेयर कर लेंगे।”

“मुझे नहीं करना…. हमेशा ऐसा ही होता है।” यह कहकर वह पलंग पर सिर ढांप कर सोने का नाटक करने लगी।

पापा ने दरवाजा खटखटाया।

दोनों बाहर आए। मम्मी दौड़कर सहमी सी खड़ी ताक रही थी। पापा एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले…..” छोटी तेरे पास जो गुलाल है। जरा मेरे बालों में, गालों में, माथे में, कपड़ों पर फैला दे, मैं बाहर होली खेलने जा रहा हूँ । कोई यह ना कहे कि मेरे में रंग नहीं लगा है।”

“क्योंकि हमेशा बाहर निकलता था तो मेरे व्यक्तिगत व्यवहार के कारण कोई भी मुझे गुलाल या रंग नहीं लगाते।”

” मैं रंग गुलाल से लिपा – पूता रहूंगा। तो सभी पड़ोसी भी पास आकर रंग लगाएंगे और बोलेंगे वाह कमाल हो गया।”

दोनों आँखे निकाल पापा को देख रही थी। मम्मी की आँखे तो गंगा जमुना बहा रही थी।

दीदी ने भरी गुलाल की पुड़िया तुरंत निकाल पापा को सर से पांव तक लगा दिया। पापा भी अपने पॉकेट से रंगीन गुलाल उड़ाते हुए बच्चों को गले लगा लिए।

बाहर दलान में निकलते पड़ोसी देखते ही रह गए। सभी पास आ गए। आज जी भरकर अनिल ने रंग गुलाल खेला। मस्ती में झूमने लगे।

उनकी गुलाबी संतुष्टी यह बता रही थी कि बरसों की तपिश, आज होली के रंग में धुलती नजर आ रही थीं। और गुलाबी रंग चढ़ता ही जा रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 77 – देश-परदेश – विश्व रंग मंच दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 77 ☆ देश-परदेश – विश्व रंग मंच दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रंग मंच भी समयानुसार अपने रूप बदल बदल कर हमारे जीवन के यथार्थ परोसता रहता हैं।

सदियों पूर्व कलाकार पैदल पैदल घूम घूम कर अपनी कला की सुगंध को बिखेरते थे। पहिए के अविष्कार से ये लोग भी बैलगाड़ी, ऊंट गाड़ी आदि साधनों को उपयोग कर अपनी पहुंच दूर दराज तक करने लगे थे।

समय तेज गति के साधन का हुआ, तो ये लोग भी एक छोटी बस/ ट्रक इत्यादि से काफिला का रूप लेकर प्रगति करते रहें। करीब दो सदी पूर्व सिनेमा के द्वारा मनोरंजन उपलब्ध करना आरंभ किया जिसने  तो मंच कलाकार को बहुत हद तक कमज़ोर कर दिया हैं।

टीवी नामक छोटे पर्दे ने रही कसर निकाल कर रंग मंच की कमर ही तोड़ दी हैं। “दुनिया मुट्ठी” में को सच साबित करने वाला मोबाईल यंत्र ने तो रंग मंच को वेंटिलेटर पर पहुंचा दिया हैं।

रंग मंच के कलाकार भी एक अलग मिट्टी के बने हुए होते हैं। अपनी अंतिम सांस तक लड़ते हुए रंग मंच को जीवित रखे हुए हैं। अपने अस्तित्व की लड़ाई को जारी रखते हुए इन सभी कलाकारों को नमन।

टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियल हो या जंगली जानवरों से भी बदतर तरीके से लड़ते हुए विभिन्न राजनैतिक दल के प्रतिनिधि हो मात्र झूट और फरेब फैलाते हैं।

इसी प्रकार का कार्य हमारा व्हाट्स ऐप भी कर रहा है। ज्ञान की इतनी ओवर डोज दे देता है, कि अपच हो जाती हैं। जिस प्रकार जरूरत से अधिक भोजन शरीर को लाभ के स्थान पर हानि अधिक पहुंचता है, उसी प्रकार से व्हाट्स ऐप का ज्ञान और मनोरंजन हमें मानसिक रूप से क्षति पहुंचा रहा है।

हमारा ये लेख भी तो कहीं आपको मानसिक रूप से अशांति तो नहीं दे रहा है ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंगपंचमी विशेष – रंग माझा कोणता ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

रंगपंचमी विशेष – रंग माझा कोणता ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

रंग तुझ्या आवडीचा तूच मजला देऊनी

तू कसे पुसशी मला रंग माझा कोणता ?

*

कोणत्या रंगात नसतो ? तूच मजला सांग ना

मी जसा दिसतो तुला तोच माझा रंग ना ?

*

नीलवर्णी व्योम आहे श्यामवर्णी मेघ आहे

हरित वर्णी पर्ण आहे धुम्रवर्णी सांज आहे

*

पीतवर्णी ऊन आहे श्वेतवर्णी तेज आहे

रक्तवर्णी मी प्रभा  काजळीशी रात्र  आहे

*

इंद्रधनु होऊनिया मीच तुजला मोहवितो

चांदण्याच्या लेपनाने  रात्र  सारी सजवितो

*

माय काळी,कोंब  हिरवे,हे कसे रे साधते

मिश्ररंगातून बघसी रोज संध्या  रंगते

*

रंग सारे  हीच माया जाणूनी घे सत्य  माझे

सुख आणि दुःख  यांनी,रंगते जगणे तुझे

*

रंग कोणता का असेना अंतरंगी मज स्थान  दे

रंग येई जीवनाला सुख अथवा दुःख  असू दे.

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #231 ☆ आॕनलाईन… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 231 ?

☆ आॕनलाईन ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

आॕनलाईन खरेदीचा रोग मला जडला

बँक खात्यामधला होता पैसा खर्ची पडला

*

नव्हती फार हालचाल देह थोडा वाढला

दम लागतो मला आता जर जिना चढला

*

वेळेवरती येई पिज्जा पोटामध्ये ढकला

मनातून धन्यवाद देऊन टाका कुकला

*

स्वयंपाकाचा घरात प्रसंग नाही घडला

भाजीचा मी देठ कधीही नाही होता खुडला

*

एकदा केला प्रयत्न प्रसंग बाका घडला

होता पहिल्या घासाला नवरा माझा रडला

*

बाहेरच्याच खाण्यावर जीव माझा जडला

त्याचसोबत औषधानं जीव थोडा पिडला

*

सुई पासून सारं काही येत होतं घरला

घरामध्ये बॉक्सचाच होता कचरा भरला

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मी एक कानसेन (?) ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

मी एक कानसेन (?) ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

या आधी माझा डोळस पणा सांगितला होता. आज काही गाणी ( माझ्या कानसेन असण्याची ) सांगते. आज ज्यावेळी ती  नीट समजतात त्यावेळी ती गाणी

कोण होतास तू ….

काय ऐकू आलास तू….

अशी अवस्था होते.

असे नुसते सांगू कशाला… काही उदाहरणेच ( थोडीच बरं का ) सांगते ना…

*आदर आणि पूर्वीची ती प्रीत तू मागू नको. ( आज राणी पूर्वीची…. )

*इनीला गोंडे लेलिना दुपट्टा मेरा ( इन्ही लोगोने….)

*माझी रेणू कामावली झाली झाली सावली ( माझी रेणुका माऊली… )

*केसरा केसरा जो भी हो

*कंपास आये यू (तू) मुस्कुराए (तुम पास आये…)

*आदिनाथ गुरू सकाळशी जाता (आदिनाथ गुरू सकळ सिद्धांचा….)

*एक लाजरा साजरा माकडा डुकरा वाणी…

*रात्र काळी घागर काळी याची तर मी पार वाट लावली होती. फार थोडे शब्द बरोबर म्हणत असे.

*आप जैसा कोई मेरे जिंदगी में आये तो बाप बन जाये….

*संधिकाली या आशा

*झाली फुले कल्याणची

*स्वर गंगेच्या कथावर्ती

*देवास तुझे फुल वाहायचे

*आज हृदय मामा विशाल झाले

*चिंधी बांधिते द्रौपदी उजव्या बोटाला

*काळ्या मातीत मातीत

ती पण चालते मी पण चालते

आणि हो, सर्व परिचित ज्यांना आपण अगदी लहानपणापासून मुखोदगत म्हणजे तोंडपाठ म्हणतो आणि मोठमोठ्याने टाळ किंवा टाळ्या वाजवून म्हणतो त्या पारंपरिक आरत्या!  त्यांच्या समजुतीची कमाल राहिलीच आहे.

अगदी आवडती बाप्पाची आरती…

*सुखकर्ता दुःखकर्ता….

त्यातीलच बरेच शब्द

*ओटी शेंदुराची

*फळीवर वंदना

*दसरा माझा वाट पाहे सदना

*संकष्टी पावावे….

*जय देवी महिषासुर मथिनी

*घालीन पटांगण वंदून शरण…

आणि शेवटची मंत्र पुष्पांजली म्हणजे तर सगळ्या चुकीच्या शब्दांचा उच्चांकच…

तर अशी माझ्या कानसेन असण्याची फजिती. यात कोणाच्या भावना दुखवायच्या नव्हत्या बरं का..

फक्त चुकीच्या समजुतीमुळे चुकीचे उच्चार होऊन मूळ अर्थ कसा बदलतो हे सांगायचे होते. आणि हो अशी अजून बरीच गाणी आहेत. यात पूर्वीची काही नाट्यगीते घेतलीच नाहीत. मला तर असे वाटायचे, यातील शब्द कळू नये याची पुरेपूर काळजी घेतली गेली आहे.

पण मंडळी वाचताना गंमत वाटली ना? आणि थोडे फार हसूही आले असेल. म्हणजे माझा उद्देश सफल झाला म्हणायचा. आणि हो, आता आपली पण विचारचक्रे चालू झाली असतील आणि असे शब्द धुंडाळायला सुरुवात झाली असेल. हो ना? असे शब्द सापडले की नक्की कळवा वाट बघत आहे.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बॅलन्सशीट – भाग – २ ☆ डॉ. शैलजा करोडे ☆

डॉ. शैलजा करोडे

🌸 जीवनरंग 🌸

☆ बॅलन्सशीट – भाग – २ ☆ डॉ. शैलजा करोडे

(तसेच कपनीच्या काही ठेवींवरील व्याज, कर्मचार्‍यांना व इतर उपकंपन्यांन्या दिलेल्या कर्जावरील व्याज पाहाता रिझर्व्ह व सरप्लस रेशो समाधानकारक वाटला. चला हे ही काम झाले हातावेगळे. मला खरंच खूप मोकळं वाटलं.) – इथून पुढे –

“माई , खूप काम आहे काय गं तुझ्याकडे. चेहरा बघ किती कोमेजलाय तुझा.” 

“काही नाही गं आई. आहेत नेहमीची कामं. बाकी काही नाही.” 

“माझीही खूप सेवा करावी लागते तुला.” 

“अगं तुझ्या सेवेचा त्रास नाही होत मला. तू कशाला काळजी करतेस. बघ कशी ठणठणीत आहे मी. तू झोप आता.” मी आईच्या अंगावर पांघरुण घातले.

चला आता रात्रीच्या प्रशांतवेळी प्रसन्ना सिल्क मीलच्या बॅलन्सशीटचं काम उरकविण्यासाठी मी लॅपटाॅप हाती घेतला. यांच्या बॅलन्सशीटमध्ये मला कॅपिटल वर्क इन प्रोसेस, इन्व्हेन्टरी आणि व्यापारप्राप्तीचा दिलासा वाटला. मीलच्या इमारतीचे वाढीव बांधकाम होत होते, तसेच साठवलेला कच्चा माल, अर्धवट प्रक्रिया झालेला कच्चा माल, पूर्ण झालेला पण विक्री बाकी असलेला माल, यातून बराच फायदा होणार होता. कंपनीने काही दीर्घकालीन तरतूदीही केलेल्या होत्या. मी माझे विश्लेषण पूर्ण केले आणि निद्रेच्या कुशीत शिरले.

प्रथमेश रि रोलिंगचा बॅलन्सशीट अहवाल मात्र मी चांगला नाही देऊ शकले. कंपनीने वेळोवेळी अल्पकालीन व दीर्घकालीन तरतूदी वापरल्या होत्या. व्यापारी देयकेही भरपूर होती आणि इतर बर्‍याच लायबिलीटीझमुळे मी ते नाकारलं.

“निलीमा, अभिनंदन. आज विभागीय कार्यालयातून तुमच्यासाठी अभिनंदनपर लेटर आलं आहे. तुमच्या कामाचा गौरव करण्यात आलाय. लेटस् सेलिब्रेट. आज एक छोटीशी पार्टी आपल्या स्टाफलाही देऊया.”

आजपर्यंत मी अनेक बॅलन्सशीटचं काम केलं होतं, टॅली केलं होतं, पण आयुष्याचं बॅलन्सशीट, ते मात्र मी नाही टॅली करू शकले. आयुष्यभर मी प्रत्येकाला देतच राहिले, खूप देयके भरली. पण ॲसेटस् नाही मिळवू शकले. मी खूप चांगले जीवन जगण्याचा प्रयत्न केला म्हणून माझ्या वाटेला चांगलं येईलच हा विश्वास फोल ठरला होता. कारण इतर घटक परिणाम करणारे होते. कधी घर, कधी समाज, आपले म्हणणारा मित्र गोतावळाही, कधी रूढी, कधी परंपराचा गुंता, हा चक्रव्यूह तोडणे जमलेच नाही.

जीवनाच्या ताळेबंदात आर्थिक स्थितीला फारसे महत्व नसते, कारण पैसा सर्वस्व नाही, तर माणूस किती आनंदी आहे आणि किती उपयुक्त आहे हे महत्वाचे. जीवनात नाव, यश, किर्ती बरोबरच आपल्या व्यक्तीची सोबत, घर, कुटुंब व त्यातून मुलाबाळांच्या रूपातून होणारी गुंतवणूक, भावनिक आस्था, त्यातून निर्माण होणारं प्रेम व्यक्तीला समृद्ध करत असतं. प्रत्येकाच्याच वाटेला हे सुख येत नाही व जीवनाचा ताळेबंद संतुलित होत नाही.

काय दोष होता माझा ? माझं शिक्षण ? माझी बुद्धीमत्ता ? माझं सौदर्य ? कि माझं सुख पाहू न शकणारे नात्यांचे बंध, मी नेस्तनाबूत कशी होईल हे पाहणारे माझे शुभचिंतक ? हितचिंतक ? 

पण जाऊ देत. त्या त्या घटकांनी आपापली कामे केली. माझा जीवनाचा ताळेबंद असंतुलित केला. पण हे संतुलन मी का साधू नये. स्वतःला या कष्टातून मलाच बाहेर यावं लागेल. माझ्याकडे चांगलं नाव आहे आणि प्रतिभाही आहे. शब्दांची संपत्ती आहे. ही अविनाशी संपत्तीच माझ्या जीवनाचा ताळेबंद मजबूत करणारी ठरणार आहे.

सद् भावना ही एक आणखी माझी संपत्ती, आणि ती मिळवायला मला आयुष्य वेचावे लागले आहे. माझ्या समवेतचा भोवताल, त्यातील दुःख, वेदना तसेच प्रसंगी आनंदालाही मी चढवलेला शब्दांचा साज, लेखणीची धार माझ्या सोबतीला आहे.

मोबाईलच्या रिंगटोनने माझी तंद्री भंग पावली. सु का देवधर कला, विज्ञान, वाणिज्य महाविद्यालयातून फोन होता. “नमस्कार मॅडम, मी प्रिन्सिपाॅल अनिल महाजन बोलतोय. पुढच्या आठवड्यात वासंतिक व्याख्यानमाला आम्ही आयोजित करीत आहोत. त्यातील “जीवनाचा ताळेबंद” यावर आपण मार्गदर्शन करावं अशी विनंती करतोय. आपण येणार ना मॅडम.” 

“होय सर, मी अवश्य येईन.”

“धन्यवाद मॅडम, मी ईमेल वर निमंत्रण पत्र पाठवतोय मॅडम, पुनश्च धन्यवाद.” सरांनी फोन ठेवला.

“माझ्या विद्यार्थी मित्रांनो, ॲसेटस् आणि लायबिलिटीझच संतुलन म्हणजे बॅलन्सशीट आपण शिकलात. लायबिलीटीझ जितक्या कमी तितके चांगले मानले जाते. पण जीवनाचे बॅलन्सशीट फार वेगळे असते मित्रांनो. जीवनाचा ताळेबंद म्हणजे व्यक्तीचं आत्मचरित्रचं म्हणता येईल. घर, कुटुंब, मित्र गोतावळा, नात्यांचे बंध, आपला भोवताल, सगळेच घटक महत्वपूर्ण ठरतात. फार खोलात न शिरता काही महत्वाचे मुद्दे मी मांडणार आहे. तुम्ही या देशाचे भावी सूज्ञ नागरीक आहात. तुम्हांला मी काय शिकवावं.

तर जीवनाच्या ताळेबंदात आमचा जन्म हा ओपनिंग बॅलन्स, मृत्यू हा क्लोजिंग बॅलन्स, आमच्या सर्जनशील कल्पना, सद्भावना संपत्ती, पुर्वग्रहदूषित विचार, द्वेष, ईर्शा, मत्सर, क्रोध हे आमचे दायित्व, ह्रदय ही वर्तमान संपत्ती, आत्मा ही स्थिर संपत्ती, ‌नाव, यश, किर्ती हे आमचं खेळतं भांडवल, शिक्षण, ज्ञान, अनुभव हे सर्व आमचे जमा खाते, लोभ, स्वार्थ हे आमचे दायित्व.

शिक्षण, ज्ञान, आणि आत्मसात केलेल्या कौशल्यामुळे तुमच्याकडील सगळी संपत्ती जरी कोणी काढून घेतली तरी तुम्हांला पुन्हा श्रीमंत होण्यात कोणतीही अडचण येणार नाही कारण तुमच्याकडील आयुष्याचा ताळेबंद हा मजबूत असणार आहे.

बस एवढंच माझ्या विद्यार्थी मित्रांनो, आपण मला इथे बोलावलंत, तुमच्याशी सुसंवाद साधण्याची संधी दिली. ऋणी आहे मी आपली. नमस्कार आज मलाही आंतरिक समाधान वाटले.”

– समाप्त – 

© डॉ. शैलजा करोडे

नेरुळ नवी मुंबई मो. 9764808391

ईमेल – [email protected] 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈
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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मी मतदार — भाग – २ ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? मनमंजुषेतून ?

☆ मी मतदार — भाग – २ ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

मी गोंधळलेला.

मी ठरवलं नोटाचा काही उपयोग नाही. आपण असं करावं का? जे काही उमेदवार उभे आहेत त्यापैकी त्यातल्या त्यात जो बरा उमेदवार असेल त्याला मत द्यावं ? दगडापेक्षा वीट मऊ !

क्र. एक – उमेदवार ज्या पक्षाचा आहे तो पक्ष कधीच सत्तेवर येऊ शकणार नाही. पण सत्तेसाठी अथवा पैशासाठी तो पक्ष दुसऱ्या पक्षाशी संगणमत करू शकेल. मग कशाला मत द्यावं ? आणि का ?

क्र. दोन – हा चांगला असला तरी तो निष्क्रिय आहे कधीच काही काम करत नाही. फक्त निवडून येतो. किंबहुना तो काही काम करत नाही म्हणूनच तो बरा आहे असं वाटतं का ? याला मत देण्यात काय अर्थ आहे ?

क्र तीन – समजा हा चांगला म्हणजे त्यातल्या त्यात बरा आहे. (कारण जो खरंच चांगला असतो तो निवडणुकीचा उमेदवार होईपर्यंत मोठा होतच नाही. किंवा राजकारणात सुद्धा येत नाही) पण त्याच्या पक्षाची धोरणं ही चुकीची आणि देशाला अयोग्य दिशेने नेणारी आहेत, असं माझं मत असेल तर, याला मी का मत द्यावं ?

क्र चार – हा उमेदवार वाईट आहे परंतु त्याचा पक्ष चांगला आहे त्या पक्षाची धोरणे चांगली आहेत मला ती योग्य वाटतात पण या माणसाला मी मत का द्यावं ?

मी गोंधळलेला.

पूर्णपणे कनफ्यूज्ड.

© श्री सुनील देशपांडे

नाशिक मो – 9657709640 ईमेल  : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बस, छोरी समझके ना लढियो…!  ☆ कर्नल आनंद बापट (सेवानिवृत्त) ☆

कर्नल आनंद बापट (सेवानिवृत्त)

परिचय :

कर्नल आनंद बापट (सेवानिवृत्त)

(बी एससी, बी टेक, एलएलबी, एमपीएम, एमबीए)

  • एनडीए आणि आयएमए मध्ये प्रशिक्षणानंतर १९८१-२००७ सैन्यदलात इंजिनियर. 
  • SSB मधील सेनाधिकारी निवडप्रक्रियेत चार वर्षे सहभाग. 
  • २००७ ते आजपर्यंत खाजगी कंपन्यांचे अधिकारी-कर्मचारी आणि केंद्र व राज्य सरकारी अधिकाऱ्यांना विविध विषयांमध्ये प्रशिक्षण देण्याचा व्यवसाय.
  • छंद – लेखन, वाचन, संगीतश्रवण, प्रवास.

? मनमंजुषेतून ?

बस, छोरी समझके ना लढियो…!  ☆ कर्नल आनंद बापट (सेवानिवृत्त) ☆

१९९७ साली, पुण्याच्या एका सिग्नल युनिटमध्ये मी काम करीत होतो. राजस्थान बॉर्डरवरची टेलिफोन एक्सचेंजेस बारा महिने चालू अवस्थेत ठेवण्यासाठी, आमच्या काही छोट्या तुकड्या तेथेच वास्तव्याला असत. कंपनी कमांडर या नात्याने, त्यांच्या कामाच्या देखरेखीसाठी अधून-मधून मला पुण्याहून तेथे जावे लागे. 

माझ्या कंपनीत, मी आणि लेफ्टनंट गीता असे दोनच अधिकारी होतो. मी पुण्याबाहेर असल्यास आमच्या कंपनीचा दैनंदिन कारभार गीता उत्तम प्रकारे सांभाळत असे. 

वार्षिक युद्धसरावासाठी वर्षातून किमान एकदा, संपूर्ण युनिटला बॉर्डरवर हलवावे लागे. त्या काळात, पुण्याहून बॉर्डरपर्यंतच्या प्रवासाचे नियोजन, सर्व उपकरणे, व इतर सामानाच्या बांधाबांधीवर देखरेख, CO साहेबांसोबत चर्चा, मीटिंग्स अश्या उपद्व्यापात माझी खूपच धावपळ चालू असे. 

एकदा, मी अश्याच गडबडीत होतो आणि दुपारच्या जेवणाची वेळ होत आली होती. माझ्या लक्षात आले की तो जवानांच्या पगाराचा दिवस होता. मीटिंगला जाता-जाता मी गीताला सांगितले की पगाराची सर्व रक्कम मुख्य ऑफिसातून आणवून जवानांना पगार वाटण्याचे काम तिने पूर्ण करावे. ते काम सहजच तास-दीड तासाचे होते. 

गीताला आदेश देऊन मी पुढच्या कामासाठी बाहेर पडणार तेवढ्यात तिच्या चेहऱ्याकडे माझे लक्ष गेले. ती जरा अस्वस्थ आणि विचारमग्न दिसली. मी मागे वळलो आणि तिला विचारले, “काही प्रॉब्लेम आहे का गीता?”

ती गडबडीने उठून मला म्हणाली, “नाही नाही सर, काही प्रॉब्लेम नाही. मी लगेच कामाला लागते.” 

पण, माझे समाधान झाले नाही. कोणतेही काम केंव्हाही चालून आले तरी नाराज होणे हा गीताचा स्वभाव नव्हता.

मी पुन्हा खोदून विचारल्यावर ती म्हणाली, “सर, मी पगाराचे काम संपवूनच घरी जाईन. पण, एक विनंती आहे. आज संध्याकाळी गेम्स परेडसाठी मी नाही आले तर चालेल का? 

सर, चार महिन्यांपूर्वी लग्न झाल्यानंतर, काल प्रथमच माझे सासू-सासरे माझ्याकडे काही दिवसांसाठी आलेले आहेत. अजून पक्के घर न मिळाल्याने आम्ही दीड खोलीच्या टेम्पररी घरातच राहत आहोत. किचनच्या नावाने, गॅस ठेवण्यापुरते एक टेबल फक्त आहे. जगदीप [गीताचा आर्मी ऑफिसर नवरा, जो त्यावेळी पुण्यातच कॉलेज ऑफ मिलिटरी इंजिनियरिंग (CME) मध्ये पुढील शिक्षण घेत होता] परीक्षेच्या अभ्यासासाठी दिवसभर CME मध्येच असतो. घरी गेल्यावर गरम रोट्या बनवून सासू-सासऱ्यांना जेवू घालेपर्यंत उशीर होईल. म्हणून मी थोडी सवलत मागितली, इतकेच.”

एक अधिकारी, आणि नवीन लग्न झालेली सून, अश्या दुहेरी भूमिकेत असलेल्या गीताचा प्रॉब्लेम माझ्या लक्षात आला. मी तिला सांगितले, की तिने वेळेवर घरी निघून जावे आणि संध्याकाळच्या परेडसाठीही येऊ नये. पगारवाटपाचे काम मी स्वतः करेन, कारण माझ्या घरी स्वयंपाक करण्याची जबाबदारी माझ्यावर नव्हती.

पण, गीता माझी धावपळ देखील पाहत होती. संध्याकाळी तिला परत यायचे नसल्याने पगारवाटपाचे काम केल्याशिवाय ती घरी जाणार नाही, असे तिने स्पष्टपणे सांगितले. तिच्या चेहऱ्यावर स्वाभिमान, कृतज्ञता आणि माझ्याप्रति असलेली आस्था असे तीनही भाव मला स्पष्ट दिसले आणि तिच्याबद्दल माझ्या मनात असलेला आदर वाढला. 

पुढे आम्ही वार्षिक युद्धसरावासाठी राजस्थानात जोधपूर, बाडमेर, जैसलमेर भागात गेलो. नवीन टेलीफोन केबल्स टाकणे आणि ठिकठिकाणी खांब रोवून त्या केबल्स सुरक्षित करण्याचे काम गेल्या-गेल्या सुरु झाले. जवानांकडून ते काम करून घेण्याची जबाबदारी गीतावर होती. दूरदूर पसरलेल्या रेडिओ तुकड्यांवर देखरेख करण्यासाठी मी दिवसभर जीपमधून हिंडत होतो. केबल्सचे काम कसे झाले आहे ते पाहायला मला रात्रीपर्यंत वेळच मिळाला नव्हता. रात्री जेवण झाल्यावर, टॉर्च घेऊन एकटाच माझ्या तंबूमधून बाहेर पडलो आणि केबल्सच्या इन्स्पेक्शनसाठी निघालो. 

अचानकच गीता तिच्या तंबूमधून बाहेर आली आणि म्हणाली, “सर, दिवसभर तुम्ही बाहेर-बाहेरच असल्याने केबल्सच्या कामाचा रिपोर्ट मी तुम्हाला देऊ शकले नाही. आता तुम्ही तिकडेच चाललेले दिसताय, तर मीही तुमच्यासोबत येते.”  

मी तिला सांगितले की जेवणानंतरचा फेरफटका आणि इन्स्पेक्शन अश्या दुहेरी हेतूने मी बाहेर पडलो होतो. तिने दिवसभर उभे राहून काम करून घेतले असल्याने, तिने विश्रांती घ्यावी. काम पाहून आल्यावर काही सूचना असल्यास त्या मी तिला दुसऱ्या दिवशी सकाळी देईन. 

“सर, काही चुका झाल्या असतील किंवा तुमच्या आणखी काही सूचना असतील तर त्या जागच्याजागी मला समजतील आणि उद्या काम करणे सोपे जाईल.” असे म्हणत गीताही माझ्यासोबत निघाली. 

मी केबल रूटचे निरीक्षण करण्यात गर्क होतो. गीताला वेळोवेळी काही सूचना देत असलो तरी तिच्याकडे माझे लक्षही जात नव्हते. आमच्या तंबूच्या जवळ आल्यावर माझी परवानगी घेऊन आणि सॅल्यूट करून ती तिच्या तंबूकडे निघाली. 

ती जात असताना प्रथमच माझ्या लक्षात आले की ती जरा लंगडल्यासारखी, पाय वेळावून टाकत होती. मी तिला त्याबद्दल विचारताच ती हसू लागली. मला काहीच कळेना. उत्तरादाखल तिने पाय वर करून मला तिचा बूट दाखवला. तिच्या बुटाच्या तळव्याचा अर्धा भाग टाचेकडून उकलला जाऊन लोंबत होता. 

“सर, आपण निघालो आणि थोड्याच वेळात एका ठिकाणी वाळूत माझा पाय रुतला. मी पाय जोराने खेचला आणि बुटाची ही अवस्था झाली. नशीब, मी आणखी एक बुटांची जोडी आणलीय, नाहीतर उद्या प्रॉब्लेमच आला असता.”

मला आश्चर्यच वाटले, “गीता, माझं लक्ष तर नव्हतंच, पण तू तरी मला तेंव्हाच सांगायचं होतंस.”   

“ठीक आहे सर, एवढा काही मोठा प्रॉब्लेम नव्हता.” असे म्हणून ती  हसत-हसतच निघून गेली. 

मी विचारात पडलो. तिच्या जागी कोणीही, अगदी मी जरी असतो तरी कदाचित, अचानक उद्भवलेली अडचण वरिष्ठांना दाखवून आपल्या तंबूकडे परत वळलो असतो. केबल रूटच्या इन्स्पेक्शनकरिता जाणे म्हणजे काही युद्धजन्य परिस्थिती नव्हती. पण, गीताला ते मान्य नसावे. एक स्त्री असल्याचा गैरफायदा घेऊन, आपण अवाजवी सवलत मागितल्याची शंका चुकूनही आपल्याबद्दल कोणाच्या मनात येऊ नये याकरिता ती अतिशय जागरूक होती.

गीतासारखेच कर्तव्यनिष्ठ आणि समर्पित वृत्तीचे पुरुष अधिकारीही वेळोवेळी माझ्या हाताखाली होते.  आजही त्यांची आठवण येते तेंव्हा मला त्या सर्वांचे गुणच आठवतात.

स्त्री-पुरुष समानता किंवा विषमता याबद्दलचे विचार माझ्या मनाला शिवतदेखील नाहीत.

लेखक : कर्नल आनंद बापट (सेवानिवृत्त)

मो  9422870294

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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