हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ बेजुबान की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा”.)   

☆ संस्मरण ☆ बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारा जीवन परिवर्तनों के कई दौर से गुजर चुका है। एक समय था घर की बैठक खाना (Drawing Room) में एक बड़ा सा तख्त रहता था, जिस पर हमारे दादाजी विराजमान रहते थे।  क्या मजाल कि कोई उस पर बैठ सके, पिताजी भी नीचे दरी पर आसन लगा कर उनके चरणों की तरफ बैठ कर उर्दू दैनिक “प्रताप” से खबरें सुनाते थे क्योंकि दादाजी की नज़र बहुत कमज़ोर हो गई थी। शायद यही कारण रहा होगा।  मेरी लेखनी में भी कई बार उर्दू के शब्दों का समावेश हो जाता है। घर के वातावरण का प्रभाव तो पड़ता ही है ना।

दादाजी ने साठवे दशक के मध्य में दुनिया से अलविदा कहा और उनके जाने के पश्चात तख्त (तख्ते ताऊस) की भी बैठक खाने से विदाई दे दी गई। क्योंकि वो तीन टांगो के सहारे ही था एक पाए के स्थान पर तो बड़ा सा पत्थर रखा हुआ था।

अब घर में Drawing Room की बाते होने लगी थी, पिताजी ने सब पर विराम लगा दिया कि एक वर्ष तक कुछ भी नया नहीं होगा क्योंकि एक वर्ष शोक का रहता है। हमारी संस्कृति में ये सब मान दंड धर्म के कारण तय थे।

एक वर्ष पश्चात निर्णय हुआ कि कोई सोफा टाइप का जुगाड किया जाय और अब उसको Drawing Room कहा जाय।

इटारसी की MP टीक से 1966 में मात्र 130 में  (2+1+1) का so called sofa set बन गया था।

अभी lock down में जब मैं अधिकतर समय घर पर बिता रहा हूं तो कल दोपहर को जब मोबाइल पर लिख रहा था तो आवाज सी आई कभी हमारे पे भी तवज्जो दे दिया करे बड़े भैया। मैने चारो तरफ देखा कोई नहीं है Mrs भी घोड़े बेच कर सो रही है। फिर आवाज़ आई मैं यहीं हूं जिस पर आप 55 वर्ष से जमे पड़े हो। आपका बचपन, जवानी और अब बुढ़ापे का साथी सोफा बोल रहा हूँ। आपने उस मुए fridge पर तो मनगढ़ंत किस्से लिख कर उसकी market value बढ़ा दी। हमारा क्या ?

वो तो हम चूक गए नहीं तो fevicol के विज्ञापन (एक TV adv में पुराने लकड़ी के सोफे की लंबी यात्रा का जिक्र है @ मिश्राइन का सोफा)  में आप और मैं दोनों छाए रहते रोकड़ा अलग से मिलता!

वो भी क्या दिन थे जब कई बार पड़ोस में जाकर कई रिश्ते तय करवाए थे। लड़के वालो पर impression मारने के लिए मुझे यदा कदा बुलाया जाता था। मोहल्ले में मुझे तो लोग रिश्तों के मामले में lucky भी कहने लग गए थे। ऐसा नहीं, मोहल्ले के लड़को की reception में भी जाता था। स्टेज पर दूल्हा और दुल्हन मेरी सेवाएं ही लेते थे। परंतु वहां मेरे two seater पर पांच पांच लोग फोटो के चक्कर में चढ़ जाते थे। रात को मेरी कमर में दर्द होता था। आपके बाबूजी पॉलिश/ पेंट से तीन साल में मेरे शरीर को नया जीवन दिलवा देते थे। खूब खयाल रखते थे। हर रविवार को कपड़े से मेरे पूरे बदन को आगे पीछे से साफ कर मेरी मालिश हो जाती थी। उनके जाने के बाद आप तो बस अब रहने दो मेरा मुंह मत खुलवाओ कभी सालों में ये सब करते हो।

उस दिन आप मित्र को कह रहे थे इसको भी साठ पर retd कर देंगे भले ही आप तो retirement  के बाद भी लगे हुए हो। कहीं पड़ा रहूंगा। क्योंकि शहरों में अब तो चूल्हे के लिए कोई पुरानी लकड़ी को free में भी नहीं लेते। सरकार की तरफ से LPG का इंतजाम जो कर दिया गया है।

आपकी तीन पीढ़ियों का वजन सहा है, मैं कहीं ना जाऊंगा भले ही दम निकल जाए।

मैने सोचा बोल तो शत प्रतिशत सही रहा है, अपने प्रबुद्ध मित्रो से Group में इस विषय पर  विचार विमर्श करेंगे। 

 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 111 – लघुकथा – संविधान एक नियम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “संविधान एक नियम”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 111 ☆

? लघुकथा – संविधान एक नियम ?

एक फूल वाली गरीब अम्मा फूल का टोकना लिए मंदिर के पास बैठी फूल बेच रही थी। तभी अचानक एक नेता का चमचा आया और अम्मा से बोलने लगा… आज हम लोग गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। चलो यह पैसे रखो और पूरा फूल पन्नी पर पलटकर भर दो।

अम्मा ने हाथ जोड़कर कर कहा… बेटा पूरे फूल के ज्यादा पैसे होते हैं। आज अगर इसे मैं दे दूं तो मालिक को पूरा पैसा चुकाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। और आज की मेरी रोजी रोटी कौन चलाएगा।

चमचा बड़े जोर से बोला… जानती हो सारा देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था। तब कहीं भारत में इस दिन 26 जनवरी को एक संविधान बना। जिसके तहत सब कार्य करते हैं आज उसी की खुशहाली के लिए तुम्हारे पास से फूल ले रहे हैं।

फूल वाली अम्मा मजबूरी में सभी फूलों को बटोर कर भरते हुए बोली…. बेटा क्या कोई ऐसा संविधान नहीं बना कि हम गरीब लोग स्वतंत्र हो सकते?

चमचे ने बड़े जोर से कहा… तो स्वतंत्र ही तो हो, स्वतंत्रता का मतलब जानती हो तो स्वतंत्र भारत के नागरिक हो जहां चाहे वहां बैठ सकती हो रोजी रोटी कमा सकती हो।

फूल वाली अम्मा ने बड़े ही शांत भाव से कही… बेटा हमारे लिए तो कल और आज में कोई अंतर नहीं दिख रहा। हम गरीब पहले जैसा ही गुलाम हैं। बस रुप बदल गया है। बात चुभन सी लगी वह चश्मा उतार फूल वाली सयानी अम्मा को देखने लगा और सोचा… क्या सचमुच भारत स्वतंत्र हो गया है और संविधान बना तो मैं क्या कर रहा हूँ?

फूल वाली कह रही थीं… ले जाओ आज भारत माता के लिए मैं भी खुशी मना लूँगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (66-70) ॥ ☆

 

अक्ष बीज कुण्डल सदृश पहन दाहिने कान।

परशुराम थे लग रहे क्षत्रिय-काल समान।।66।।

 

क्षत्रिय द्वारा पितृवध जनित क्रोध को देख।

परशुराम से, समय लख झिझके नृपति विशेष।।67।।

 

हार-सर्प में ‘मणि’ सदृश, पुत्र-शत्रु में राम।

सुनकर दशरथ को हुआ भय औ’ हर्ष ललाम।।68।।

 

‘अर्ध्य’-‘अर्ध्य’-कहते नृपति दशरथ को न निहार।

परशुराम ने राम पर की कुदृष्टि की मार।।69।।

 

परशुराम अति क्रोध से धनुष बाण को तान।

सम्मुख निर्भय राम से बोले शत्रु समान।।70।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २५ जानेवारी – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? २५ जानेवारी –  संपादकीय  ? 

प्राचार्य मधुकर दत्तात्रय हातकणंगलेकर

प्राचार्य मधुकर दत्तात्रय हातकणंगलेकर हे मुळचे हातकणंगल्याचे. हे मराठीतील नावाजलेले समीक्षक होते. त्यांचा जन्म १फेब्रुवारी १९२७ला हातकणंगले येथे झाला. सांगली ही त्यांची कर्मभूमी. त्यांचे अध्यान आणि अध्यापन दोन्हीही सांगलीत झाले. त्यांनी पुढच्या काळात अनेक लेखक घडवले. विश्वास पाटील, राजन गवस, दादासाहेब मोरे , ही त्यातील काही महत्वाची नावे. त्यावेळी नवोदित असणारी, नामदेव माळी, दिलीप शिंदे, चैतन्य माने दयासगर बन्ने अशा अनेक नवोदितांना लिहिते केले.

मराठीतील अक्षर वाङ्मय इंग्रजीत अनुवादीत करून त्यांनी मराठीचे स्थान देशात आणि जागतिक पातळीवर उंचावायचे काम केले. महाराष्ट्राच्या बाहेरच्या भारताला आणि जागतिक विश्वाला मराठीतील कसदार लेखन पोचवण्याची त्यांची कामगिरी मोलाची आहे.

हातकणंगलेकर वास्तविक इंग्रजीचे प्राध्यापक पण त्यांचा मराठी व्यासंग दांडगा. त्यातूनच त्यांच्या ललित लेखनाला प्रारंभ झाला. पुढे ते समीक्षात्मक लेखन करू लागले. नवभारत, वसंत, वीणा, महाद्वार इ. नियतकालिकातून त्यांचे लेखन गाजू लागले. सुप्रसिद्धा लेखक जी. ए. कुलकर्णी यांच्याशी त्यांचा स्नेह जुळला. पुढच्या काळात त्यांच्याशी जी. एंचा झालेला पत्रव्यवहार ४ खंडात  त्यांनी प्रकाशित केला आहे. 

नंतर त्यांनी अनेक इंग्रजी कथांचा मराठीत अनुवाद केला. तर गो. नि. दांडेकर यांच्या ‘माचीवरील बुधा’ व व्यंकटेश माडगूळकर यांच्या ‘सती’ या कादंबर्यांंचे इंग्रजीत अनुवाद  केले.

त्यांनी समीक्षा केलेल्या अनेक कादंबर्यां आणि साहित्याबद्दल त्यांनी मांडलेली मते ठाम आणि परिपूर्ण असल्यामुळे त्यांच्या समीक्षेला मराठी साहित्यात चांगले वजन प्राप्त झाले.

म. द. हातकणंगलेकर यांनी  साहित्य संस्कृतिक मंडळ तसेच विश्वकोश मंडळावर अनेक वर्षे  काम केले..

म. द. हातकणंगलेकर यांचे   प्रकाशित साहित्य —

समीक्षा – १. साहित्यातील अधोरेखिते  २. मराठी साहित्य प्रेरणा आणि प्रवाह  ३. निवडक मराठी समीक्षा ४. मराठी कथा रूप आणि परिसर  ५. साहित्य विवेक

ललित – १. आठवणीतील माणसं, २. भाषणे आणि परीक्षणे, ३. उघड झाप (आत्मचरित्र ) ४. विष्णु सखाराम खांडेकर

संपादन – १. जी. एंची निवडक पत्रे ( १-४ खंड), २. वाङ्मयीन शैली आणि तंत्र,  ३. निवडक ललित शिफारस

गौरव – अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन -८१ व्या साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष फेब्रुवारी (२००८)

या प्रसगी केलेल्या आपल्या अध्यक्षीय भाषणात ते म्हणाली होते, ‘या साहित्य संमेलनाचे वेळी विद्रोही अगर समांतर संमेलनाचा विषय गाजतो, होणारे संमेलन हे सर्व घटकांना बरोबर घेऊन सर्वसमावेशक असावे. विद्रोही साहित्यिकांनी साहित्य संमेलनाच्या व्यासपीठावर एकत्र यावे असे आवाहन त्यांनी केले. मराठी साहित्यातील अनेक चुकीच्या प्रथांवर व चुकीच्या परंपरांवर त्यांनी प्रहार केला.

२. ‘सांगली भूषण’ पुरस्कार  ( ३१ डिसेंबर २०१४ )

आज म. द. हातकणंगलेकर यांचा स्मृतीदिन. त्या निमित्ताने त्यांच्या विद्त्तेला सादर वंदन

☆☆☆☆☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : शिक्षण मंडळ कर्‍हाड: शताब्दी दैनंदिनी, इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अमृतक्षण सौख्यधन ☆ श्रीशैल चौगुले

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अमृतक्षण सौख्यधन ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

सज्ज झाले गाव

राष्ट्रभक्ती स्वभाव

सोहळ्याचे ते क्षण

अमृतमहोत्सवी.

 

स्वातंत्र्यात भारत

तिरंगा अविरत

फडकतो सतत

सत्य-आहिंसा-शांती.

 

मानवतेचा ध्यास

गांधीजीचा हव्यास

सुखी प्रजेत घास

 गुलाममुक्ती नांदी.

 

संतविचारी चाले

समृध्दीची पाऊले

विरांचा ईतिहास

प्रजासत्ताक राज्य.

 

धन्य-धन्य आहुती

पंचभूतात ख्याती

भारत माता कि जय !

जीवन युगांना देती.

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वंदन करूया भारत भू ला… ☆ श्री गुरुनाथ चंद्रकांत ताम्हणकर

श्री गुरुनाथ चंद्रकांत ताम्हणकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वंदन करूया भारत भू ला… ☆ श्री गुरुनाथ चंद्रकांत ताम्हणकर ☆ 

वंदन करुया भारतभूला

प्रिय अमुच्या या जन्मभूमीला //धृ//

 

प्रणाम अमुचा भुमातेला

रक्षण कर्त्या क्रांतिविरांना

टिळक, नेहरु, गांधी यांना

वंदन करुया नेताजींना //1//

 

नांदती येथे आनंदाने

हिंदू मुस्लिम बंधुत्वाने

राहती सारे एकोप्याने

लढती पहा ते सामर्थ्याने //2//

 

वारसा आम्हा संस्कृतीचा

इतिहास पहा दिव्यत्वाचा

शौर्य, पराक्रम शूर शिवबाचा

मंत्र मिळाला स्वातंत्र्याचा //3//

 

मान आम्हाला हिमालयाचा

तसा जिव्हाळा जलधारांचा

रक्षक आहे सामर्थ्याचा

सुजलाम सुफलाम भारतभूचा //4//

 

डौलत आहे सदा आमूचा

तिरंगी झेंडा सन्मानाचा

सदैव उन्नत माथा अमूचा

मनी असू द्या भाव क्रांतीचा //5//

 

© श्री गुरुनाथ चंद्रकांत ताम्हणकर

सदस्य, अखिल भारतीय साने गुरुजी कथामाला मालवण

पत्ता – मु. बागायत, पो. माळगाव, ता. मालवण, जि. सिंधुदुर्ग. 416606

संपर्क – 9420738375

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 122 ☆ रानमेवा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 122 ?

☆ रानमेवा ☆

पंख मनाला फुटावे मला जाता यावे गावा

माझी प्रार्थना येवढी स्वीकारावी माझ्या देवा

 

माझं माहेर हे खेडं त्याचं मनाला ह्या वेड

माझ्या सोबत वाढलं सोनचाफ्याचं ते झाड

किती दूर गेलं तरी मनी गंध आठवावा

 

काट्यातली पाय वाट होती नागिनी सारखी

काटे टोचती पायाला तरी होते त्यात सुखी

त्याच धुळीच्या वाटेचा मला वाटतोय हेवा

 

थाटमाट शहराचा माया ममतेला तोटा

लेप चेहऱ्यावरती आत मुखवटा खोटा

अशा खोट्या सौंदर्याचा मला मोह कसा व्हावा

 

किती दिसाचे ते अन्न सांगा असेल का ताजे ?

रोज खातात मिठाई शहरातले हे राजे 

रोज दिवाळी साजरी त्यात नाही रानमेवा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ खरंच कां? …. सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) ☆ रसग्रहण.. सुश्री गायत्री हेर्लेकर

सुश्री गायत्री हेर्लेकर

? काव्यानंद ?

☆ खरंच कां? …. सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) ☆ रसग्रहण.. सुश्री गायत्री हेर्लेकर ☆ 

 

कविता – खरंच कां? – सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) 

 

खरंच कां?

बघतां बघतां हे काय झालं?

गृहसम्राज्ञीच पद माझ्या हातुन गेलं–

कळलं नाही माझं मला,

असं कसं झालं?

खरंच कां वय माझं उताराला लागलं?

 

आपणही काही चवीढवीचं ,

करावंसं वाटलं

 कसं कोण जाणे ,

भांडं हातातुन निसटलं

आवाज कानी आदळला—

कोण आत कडमडलं?

तेल तर सांडलंच—अन्–

पाठी धुपाटणं आलं—    

खरंच का वय माझं उताराला लागलं?

 

फुलांच्या ठेल्याजवळ

घुटमळले मी जरा,

हळुच,स्वारींना म्हटलं–

“घ्याना गडे –गजरा—“

डोळे मोठे करीतच हे वदले,

“जरा वयाचा विचार करा”

माझी मीच गोरीमोरी,

भोवताली पाहिलं–

खरंच का वय माझंउताराला लागलं?

 

हौसेनं नातवंडांच करायला गेले,

तर सुनबाईनं मान हलवत

नाक की हो मुरडलं—

नात म्हणाली,

 “आजी नको मधे मधे येऊ,

तुझं तू बघ आपलं—“

तुम्हीच सांगा आता—

माझं काय चुकलं–?

खरंच का वय माझं उताराला लागलं?

 

हसतच हे म्हणाले,

“बाईसाहेब,संपली तुमची सद्दी,

स्वखुशीने सोडलीत ना ,

तुम्ही तुमची गादी?

बाहेर पडा यातुन जरा,

पुसा डोळे ,चेहरा करा हसरा

साहित्य-साधनेसारखा

मित्र नसे दुसरा”

मलाही सारं पटलं—

ष्रसन्नपणे हसतच,

कुठे कुठे विसावायचं,

माझं मी ठरवलं–

माझं मी ठरवलं.

 

सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) 

कोथरूड- पुणे. मोबा. 9595557908/02

 

आवडलेल्या कवितेचे रसग्रहण.. सुश्री गायत्री हेर्लेकर

स्थूलमानाने, कवितेचे  २ महत्वाचे पैलु म्हणजे आशय आणि  अभिव्यक्ती. सोप्या भाषेत—

“काय सांगितले?” आणि “कसे सांगितले?”

कोणतीही कविता वाचतांना हे दोन्ही पैलु डोळसपणे ,वेगवेगळ्या अंगाने पारखणे ,आणि त्याच कसोटीवर कवितेचा जनमानसावर होणाऱ्या परिणामांचा विचार करणे म्हणजे रसग्रहण.त्यामुळे कवितेचा आस्वादही मनापासुन घेता येतो. दुःख, आनंद,आश्चर्य, भिती, प्रेम, वात्सल्य राग, चीड ,संताप अशा कोणत्या ना कोणत्यातरी भावना मनात निर्माण होतात.कविता मनाची पकड घेते. कविता भावते.

अशीच एक भावलेली कविता.,ज्यावर आज मी माझे विचार मांडणार आहे.

ही कविता आहे शुभदा कुलकर्णी ,पुणे यांच्या भावफुले या काव्यसंग्रहातील. डॉ अमृता ह. मराठे यांनी अभ्यासपूर्ण,सविस्तर प्रस्तावना लिहिली आहे. अमृताताईंनी म्हटल्याप्रमाणे वैयक्तिक, कौटुंबिक,सामाजिक, वैचारिक, निसर्गविषयक, सणांसंबंधी अशा विविध विषयांवरील कवितांनी समृध्द असा हा काव्यसंग्रह आहे.सर्वच कविता मनाला भिडणाऱ्या आहेत.

पण मी ही कविता निवडली कारण ती वाचतांना मला वाटले की मी जणु माझेच प्रतिबिंब आरशात पहात आहे.

विषय तसा साधाच, — सामान्य संसारी स्त्रीचा. ती स्वीकारत असलेल्या  वेगवेगळ्या भुमिका,.

त्या वठवतांना ,कालानुरूप बदलतांना,मनाला जाणवणारी थोडीफार खंत उदास करते.

खरंच ,हे कारण असेल का?

हा संभ्रमही मनात निर्माण होतो. शुभदाताईंनीकवितेला दिलेले नावही साधे पण सार्थ आहे.

खरंच कां?

कवितेच्या आधी व्यक्त केलेल्या मनोगतात त्या म्हणतात, “वय उतारा लागलं ,cहे स्विकारलं की ,सगळं सोपं होत.—थोडा मनःस्ताप—पण आनंदाचे नविन मार्ग शोधावे—“

पहिल्या ४ कडव्यात नेहमीच्या चाकोरीबद्ध पध्दतीने स्वीकारलेल्या भुमिका,अन् त्यामुळे येणारा काहीसा खेदजनक अनुभव मांडला आहे.

स्त्री –घराचा केंद्रबिंदू –सर्वेसर्वा-.-गृहस्वामिनी,–ही तिला आवडणारी भुमिका .पण कळतनकळत ती या भूमिकेतून बाहेर पडते .अन् तिला काय वाटते ते शुभदाताईंनी १ ल्या कडव्यात सांगितले आहे.

“बघता बघता हे काय झालं?

गृहसम्राज्ञीच पद माझ्या हातुन गेलं– कळलं नाही माझं मला,असं कसं झालं?

खरंच का माझं वय उताराला लागलं?””

पुर्ण घराची राणी राहिली नाही तरी ,स्वयंपाक —तिचा हुकमाचा एक्का तरी हातात आहे असे वाटते. त्याच्या वापर करुन खेळात बाजी मारता येईल असे तिला वाटते.. पण तिथला अनुभव–? छान शब्दांत मांडला आहे या दुसऱ्या कडव्यात–

 “”आपणही काही चवीढवीचं,

करावंसं वाटलं,

कसं कोण जाणे ,भांडं हातातुन निसटलं,

आवाज कानी आदळला—

कोण आत कडमडलं?

तेल तर सांडलच–अन्

पाठी धुपाटणं आलं–

खरंच का वय माझं उताराला लागलं?”

ठीक आहे.,काम होत नसेल आता.शरीर,भले थकले तरी मन जवानीत रमु पहाते.  . आयुष्यभराचा जोडीदार तरी आपल्या भावना समजुन घेणार ही अपेक्षा असते.आणि तेही रास्तच आहे. पण?

त्याबाबत काय होते ते सांगणारे पुढचे कडवे —

“”फुलांच्या ठेल्याजवळ घुटमळले

मी जरा,

हळुच स्वारींना म्हटलं–‘घ्या ना गडे गजरा’

डोळे मोठे करीतच हे वदले,’जरा वयाचा विचार करा’

माझी मीच गोरीमोरी,भोवताली पाहिलं—

खरंच का वय माझं उताराला लागलं?”

नातवंडे —- दुधावरची साय.अन् आजी म्हणुन मनात मायाममतेचा पुर भरुन येतो.त्याची ऊधळण नातवंडावर करावी असे वाटणे स्वाभाविक आहे.पण त्याही बाबतीत

काय होऊ शकते हे ४  थ्या कडव्यात सांगितले आहे.

“”हौसेनं नातवंडांचं करायला गेले ,

तर सुनबाईंनं मान हलवत नाक की

हो मुरडलं—

नात म्हणाली, ‘आजी नको मधे मधे येऊ,

तुझं तु बघ आपलं-‘-

तुम्हीच सांगा आता,माझं काय चुकलं?

खरंच का वय माझं उताराला लागलं?”

कोणीही समजुन घेत नाहीत ,मनासारखे होतच नाही मग निराशा येणारच. पण,शुभदाताईंनी शेवटच्या ५ व्या कडव्यात एकदम यु टर्न घेतला.

“”हसतच हे म्हणाले,

‘बाईसाहेब, संपली तुमची सद्दी,

स्वखुषीने सोडलीत ना,

तुम्ही तुमची गादी?

बाहेर पडा यातुन जरा,पुसा डोळे,

चेहरा करा हसरा,

साहित्य-साधनेसारखा मित्र नसे दुसरा

            मलाही सारं पटलं–

 प्रसन्नपणे हसतच,कुठे कसं विसावायचं

माझं मी ठरवलं, —माझं मी ठरवलं

बदलत्या काळाप्रमाणे, वाढत्या वयामुळे जुन्या मार्गावरून चालणे शक्य होणार नाही. तिथे नाकारले गेलो तरी त्याची खंत न करता, नविन मार्गावरून नेणारा कोणीतरी जोडीदार भेटतो. आणि वाढत्या वयातही नव्या मार्गक्रमणाचा आनंद मिळवता येतो.

खरंच, किती सकारात्मक विचार शुभदाताईंनी आपल्या कवितेतुन मांडला आहे.

मला वाटते,काही तरुण मैत्रिणी अपवाद आहेत.पण बर्‍याच ज्येष्ठ मैत्रिणींच्या दृष्टीने  आपला साहित्यसमुह म्हणजे  असाच भेटलेला जोडीदार .आणि आपणही त्याच्या हातात हात घालुन साहित्यसेवेच्या या मार्गावरून आनंदाने विहार करीत आहोत,.

कारण आपले ब्रीदवाक्य

” लिहा आणि लिहित्या व्हा”

हेच आहे.

माझ्या एका मैत्रिणीनेच लिहीलेली ही कविता  मला आवडली, म्हणुनच तुमच्यासाठी  निवडली.

धन्यवाद.

©  सुश्री गायत्री हेर्लेकर

201, अवनीश अपार्टमेंट, कोथरुड, पुणे.

दुरध्वनी – 9403862565

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पंडीत बिरजु महाराज ☆ सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

 

?विविधा ?

☆ पंडीत बिरजु महाराज ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

प्रसिद्ध कथ्थक कलाकार पंडीत बिरजु महाराज यांचे वयाच्या ८३व्या  वर्षी नुकतेच निधन झाले…

जणू भारतीय संगीताची लयच थांबली.

सूर मुके झाले.

भाव शून्य झाले..एक विलोभनीय मुद्रा लोप पावली..

कथक नृत्य हा शब्द उच्चारताच,बिरजु महाराजांचेच नाव ओठावर येते.कथ्थक आणि बिरजु महाराज यांचे असे घट्ट नाते होते.

नृत्याला अभिजात कला न मानता,केवळ अंगविक्षेप म्हणून हेटाळणी केली जायची. त्या काळात,बिरजु महाराजांनी नृत्याला प्रतिष्ठा मिळवून दिली.नृत्यकलेतील अस्सलअभिजातता त्यांनी जपली.

शिवाय नृत्य हे स्त्रियांनी करण्याचा प्रकार आहे.

पुरुषांच्या जातीला हे बरोबर नव्हे,अशा मध्ययुगीन मानसिकतेला बिरजु महाराजांचे नृत्यमय  आयुष्य हे एक पद्धतशीर प्रभावी ऊत्तर आहे.

गायन ,वादन, व नृत्य याचा एकत्रित अविष्कार म्हणजे संगीत.पण गायन आणि वादनाकडे प्रतिष्ठेने पाहिले जाते.त्यामानाने नृत्याला ही प्रतिष्ठा फार उशीरा प्राप्त झाली.

बिरजु महाराज हे लखनौ घराण्यातील प्रमुख प्रतिनिधी होते.कालिकाबिंदादीन या घराण्याची गौरवशाली परंपरा त्यांनी जपली आणि जगभर त्याचा प्रसार केला.

बिरजुमहाराजांचे मूळ नाव, ब्रिजमोहन मिश्रा.

४फेब्रुवारी १९३८रोजी त्यांचा कथ्थक कुटुंबात जन्म झाला.त्यांचे वडील अच्छान महाराज आणि काका शंभुराज हे ही जागतिक स्तरावर प्रसिद्ध कलाकार होते.वडीलांचे अकाली निधन झाल्यामुळे बिरजु महाराजांवर लहान वयात कुटुंबाची जबाबदारी येउन पडली.त्यांनी कथ्थक नृत्याचे धडे आपल्या काकांकडून घ्यायला सुरवात केली.

त्यांचे आयुष्य म्हणजे एक ध्यास होता. शास्रीय नृत्याचा..कथ्थक नृत्याविषयी त्यांनी समाजभान जागृत केले. कोठीतले नृत्य म्हणून ओळख असणार्‍या कलेला त्यांनी लोकांपर्यंत पोहचवले.

त्यांनी अनेक शिष्य घडवले.

या वयातही त्यांचा नृत्याविष्कार तरुणांना लाजवेल इतका लोभस होता..

सरकारने त्यांना पद्मविभूषणाने गौरवले.

पुण्याच्या कला आणि आध्यात्म जगताने त्यांना लक्ष्मी—वासुदेव—कलाभूषण पुरस्कार दिला.

बिरजु महाराज यांनी अनेक बाॅलीवुड चित्रपटात नृत्यदिग्दर्शन केले. उमराव जान,बाजीराव मस्तानी, देढ ईश्कीया या चित्रपटांतील त्यांनी दिलेले नृत्याविष्कार हे अत्यंत प्रेक्षणीय आणि विलोभनीय आहेत…

दिल्लीत कलाश्रम नावाचे नाट्य विद्यालय त्यांनी सुरू केले..या माध्यमातून अनेक शिष्य घडले,घडत आहेत आणि कथ्थक या भारतीय नृत्यकलेची परंपरा जपली जात आहे..

बिरजुमहाराज हे कथ्थक गुरु तर होतेच.

पण ते उत्कृष्ट गायक होते.तबला,सरोद,व्हायोलिन या वाद्यांचे निष्णात वादकही होते.उत्तम दर्जाचे चित्रकार होते.तसेच कोशाकार,लोकसाहित्याचे अभ्यासक,संग्राहक आणि संपादकही होते..

गुरुंकडून मिळालेली विद्या,असामान्य प्रतिभा,आणि अं त:प्रेरणा या त्रयींवर त्यांनी कथ्थक नृत्याचे नवनवे प्रयोग केले.

दरबारातली ही कला त्यांनी रंगमंचावर आणली.

बिरजु महाराज यांचे नृत्य पहाणे म्हणजे स्वर्गीय आनंद असायचा.त्यांच्या मुद्रेवरच्या सहज सुंदर रेषा,अप्रतीम पवित्रे,म्हणजे एक चित्रशिल्पच.

मोराच्या गतीत जेव्हां ते चालत,तेव्हां खरोखरच लखलखीत पिसार्‍याचा डौलदार मोरच आपल्यासमोर नाचतोय असे वाटायचे…इतके सुंदर त्यांचे भावांग…

“मी महाराष्ट्राला माझा पिता आणि बंगालला माता मानतो.कारण बंगालमधे मी माझ्या कलेचा आरंभ केला.पण मला अनेक मानसन्मान व नावलौकिक महाराष्ट्राने दिला..”

हे त्यांचे नम्र उद्गार आहेत…

आज हा महान कलाकार ,नृत्य सम्राट,कथ्थक नृत्य कलेचा सरताज अनंतात विलीन झाला..

जातो तो कलाकाराचा नश्वर देह..

पण त्यातला कलात्मा अमर असतो..!!

त्या देवत्वाचा अंश अंतहीन असतो..

या कलेच्या देवतेला आदरयुक्त श्रद्धांजली…???

 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रखमाचं काय झालं ? – भाग-4 ☆ श्री आनंदहरी

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ रखमाचं काय झालं ? – भाग-4 ☆ श्री आनंदहरी 

रखमाचा काहीच मागमूस लागला नव्हता. रात्रभर सदाचा डोळा लागला नव्हता. मनातील शंका -कुशंका थांबत नव्हत्या. मनात उलट-सुलट नाना विचार येत होते पण नुसता विचारांचा गोंधळ होत होता. पहाटे दूध तापवून, झोपलेल्या तान्ह्या बाळाला घरात एकटं टाकून, घराचे दार नुसते ओढून घेऊन रखमा कुठे आणि का गेली असेल ? ती स्वतःहून कशी जाईल ? मग..तिला कुणी  जबरदस्तीने नेली  असेल  का ? पण कुणी आणि का ? जर कुणी तिला जबरदस्तीने नेले असे म्हणावे तर त्यावेळी तिने आरडाओरडा का केला नाही ?

पोलीस स्टेशनला तक्रार द्यायला सदा गेला. तिथेही याच निरुत्तर करणाऱ्या प्रश्नानंतर पोलिसांचा सदालाच प्रश्न… ‘ रखमा ला का मारलेस ? ”  पोलिसी खाक्याने सदाला सारे विचारून झाले. आधीच रखमाच्या  जाण्याने गलितगात्र झालेल्या सदाला मरणप्राय वेदना झाल्या.  अनेक लोक, अनेक पावसाळे पाहिलेली बायजाआज्जी सोबत आली होती ती सदाचा पुन्हा एकदा आधार झाली होती.

पोलिसांच्या समोर संशयित म्हणून एकमेव नाव होतं ते सदाचे.. त्या दिशेने तपास सुरू झाला.. घराची झडती घेतली, काना- कोपरा तपासला, वस्तू न वस्तू विस्कटून पाहिली.. हाती काहीच लागले नाही.  घरा पासून जाणारा रस्ता चौकात जाणारा.. जवळचा सीसीटीव्ही म्हणजे चौकातला.. त्या सीसीटीव्हीच्या फुटेज मध्ये रखमा एकटी किंवा कुणासोबत कुठे जाताना दिसत नव्हती.चौकातून रात्रीपासून सकाळपर्यंत फार तुरळक वाहने जाता-येताना दिसत होती पण त्यात संशयास्पद असे  पोलिसांना काहीही आठळले नव्हते. सदावरचा संशय आता जास्तच दृढ होत होता… पण त्याने रखमाला मारल्याचा कोणताही पुरावा सापडत नव्हता…रखमाचा मृतदेहही सापडत नव्हता..  पोलिसांनी अनेकवेळा  त्यांच्या पद्धतीने सदाची चौकशीही केली पण सदाचे एकच उत्तर होते.. आणि ते खरेही होते.. सदाला रखमाबद्दल काहीही माहिती नव्हते. तो संध्याकाळी सहा वाजता डबा घेऊन रात्रपाळीला कामावर गेला होता व सकाळी आठ च्या दरम्यान परतला होता.

चौकातल्या तसेच त्याच्या कामावर जाण्याच्या मार्गावरच्या सीसीटीव्हीच्या फुटेज मध्ये तो जाताना , येताना दिसत होता. त्याच्या कामाच्या ठिकाणच्या कॅमेऱ्याचे  फुटेजही पोलिसांनी तपासले होते. त्यात ही तो रात्रभर कामावर असल्याचे दिसत होते.. दोन -चार मिनीटाहून जास्त तो कॅमेऱ्याच्या बाहेरही नव्हता.. किंवा आवर्जून कॅमेऱ्यात राहण्याचा प्रयत्नही करत असल्याचेही जाणवत नव्हते.. त्याचे फोन रेकॉर्ड तपासायला त्याच्याकडे फोनच नव्हता. पोलिसांनी त्याच्या विषयी गल्लीत, मित्रपरिवारात, कामाच्या ठिकाणी चौकशीही केली..  सदा सरळ, साधा, कष्टाळू, आपण बरे आपले काम बरे अशा वृत्तीचा होता.  जसजशी सदाबद्दलची माहिती मिळत गेली तसतसा सदा पोलिसांच्या संशयितांच्या यादीतून मुक्त होत गेला. सदाने काहीही केलेले नाही याची पोलिसांना खात्री पटली आणि… रखमाचे नेमकं काय झाले ? हा प्रश्न पुन्हा अनुत्तरितच राहिला..

रखमा जणू हवेत अदृश्यच झाली होती.. पोलिसांनी वेगवेगळ्या बाजूनी कसोशीने तपास करून पाहिला होता. गल्लीत अनेकच्याकडे चौकशी केली होती..तपास केला होता.   पोलिसांनी अगदी रखमाच्या माहेरीं जाऊन, तिच्या लग्नाआधीपासूनचा तिचा भूतकाळ आणि लग्नानंतरचा भूत आणि वर्तमानकाळ अगदी बारकाव्याने, कसोशीने तपासून पाहिला. त्यांना रखमाबद्दल कुठेही वावगा शब्द ऐकायला मिळाला नाही की कुठे कधी शंकास्पद आढळले नाही. पोलिसही चक्रावून गेले होते.. एक व्यक्ती अशी गायब झाली होती की जणू ती कधी अस्तित्वातच नसावी.. कुठलाच मागमूस नव्हता.. कुठलेच धागे-दोरे गवसत नव्हते.. रखमा होती आणि ती गायब झाली होती हे आणि एवढंच मात्र अगदी खरे होते.. पण ती गायब झाली ते नेमके कधी ? नेमकी  कशी ? नेमकी  कुठे ? दिशा गवसत नव्हती.. नेमकेपणाने काही कळत नव्हते.. सांगताही येत नव्हते.. तपासाचा प्रवास जिथून सुरु होत होता तिथंच येऊन थांबत होता… प्रत्येकवेळी.

क्रमशः ….

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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