मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ मला तुमचा चेहरा आठवायचा आहे ☆ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) ☆

📖 वाचताना वेचलेले 📖

🌼 मला तुमचा चेहरा आठवायचा आहे  🌼 सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) 

“ मला तुमचा चेहरा आठवायचा आहे, जेणेकरून मी तुम्हाला स्वर्गात भेटेन तेव्हा मी तुम्हाला ओळखू शकेन आणि पुन्हा एकदा धन्यवाद देऊ शकेन.”

जेव्हा भारतीय अब्जाधीश रतनजी टाटा यांना एका रेडिओ प्रेजेंटरने टेलिफोन मुलाखतीत विचारले: ” सर, तुम्हाला जीवनात सर्वात जास्त आनंद झाला, ती आठवण सांगाल का?”

रतनजी टाटा म्हणाले: ” मी जीवनात आनंदाच्या चार टप्प्यांतून गेलो आणि शेवटी मला खऱ्या आनंदाचा अर्थ समजला.—

पहिला टप्पा संपत्ती आणि संसाधने जमा करण्याचा होता. पण या टप्प्यावर मला हवा तसा आनंद मिळाला नाही.

मग मौल्यवान वस्तू गोळा करण्याचा दुसरा टप्पा आला. पण या गोष्टीचा परिणामही तात्पुरता असतो आणि मौल्यवान वस्तूंची चमक फार काळ टिकत नाही हे मला जाणवलं.

त्यानंतर महत्वाचा तिसरा टप्पा आला. तेव्हा भारत आणि आफ्रिका या देशातील ९५%डिझेलचा पुरवठा माझ्याकडे होता. भारत आणि आशियातील सर्वात मोठ्या स्टील कारखान्याचा मी मालकही होतो. पण इथेही मला कल्पनेतला आनंद मिळाला नाही.

चौथा टप्पा होता, जेव्हा माझ्या एका मित्राने मला काही अपंग मुलांसाठी व्हीलचेअर विकत घेण्यास सांगितले. सुमारे २०० मुले होती. मित्राच्या सांगण्यावरून मी लगेच व्हीलचेअर घेतल्या.—

—पण मित्राने आग्रह धरला की मी त्याच्यासोबत जाऊन मुलांना व्हीलचेअर स्वहस्ते द्याव्या . मी त्यांच्यासोबत गेलो. तिथे सर्व पात्र मुलांना मी स्वतःच्या हाताने व्हीलचेअर दिल्या. या मुलांच्या चेहऱ्यावर मला आनंदाची विचित्र चमक दिसली. मी त्या सगळ्यांना व्हीलचेअरवर बसून इकडे तिकडे फिरताना आणि मजा करताना पाहत होतो..जणू ती सगळी मुलं पिकनिक स्पॉटवर पोहोचली होती, जणू काही कसलातरी विजयोत्सवच होता तो. त्या दिवशी मला माझ्या आत खरा आनंद जाणवला. मी तिथून परत जायला निघालो तेव्हा त्या मुलांपैकी एकाने माझा पाय धरला. मी हळूवारपणे माझा पाय सोडण्याचा प्रयत्न केला, परंतु मुलाने सोडले नाही आणि त्याने माझ्या चेहऱ्याकडे पाहिले आणि माझे पाय घट्ट धरले. मी झुकलो आणि मुलाला विचारले: “ तुला आणखी काही हवे आहे का?”

—- तेव्हा त्या मुलाने मला जे उत्तर दिले, त्याने मला धक्काच दिला नाही, तर आयुष्याकडे पाहण्याचा माझा दृष्टीकोन पूर्णपणे बदलून टाकला—-

—मुलाने म्हटले: ” मला तुमचा चेहरा लक्षात ठेवायचा आहे जेणेकरून मी तुम्हाला स्वर्गात भेटेन तेव्हा मी तुम्हाला ओळखू शकेन आणि पुन्हा एकदा धन्यवाद देऊ शकेन.”—- “ 

वरील विस्मयकारक कथेचे सार हे आहे की आपण सर्वांनी आपल्या अंतरंगात डोकावून विचार केला पाहिजे की, हे जीवन, संसार आणि सर्व ऐहिक कार्ये सोडल्यानंतर आपली आठवण राहील का?

कोणीतरी तुमचा चेहरा पुन्हा पाहू इच्छित आहे, ही भावना सगळ्यात जास्त आनंद देणारी असते.

©  शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे.३८.

   मो.९५९५५५७९०८ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 58 – सजल – रामराज्य का सपना खोया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “रामराज्य का सपना खोया… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 58 – सजल – रामराज्य का सपना खोया… 

समांत- इया

पदांत- में

मात्राभार- 16

 

प्रजातंत्र की इस बगिया में।

खुशियाँ रूठीं हैं कुटिया में ।।

 

रामराज्य का सपना खोया,

भ्रष्टाचारों की कुठिया में ।

 

भीत खड़ी हैं भेद भाव की,

लटकीं हैं फोटो खुटिया में।

 

हिंदुस्तानी बचे कहाँ हैं,

सभी सो गए हैं खटिया में।

 

हवलदार की ताकत होती,

उसकी वर्दी सँग लठिया में।

 

खेत और खलिहान कृषक के,

देकर बैठे हैं अधिया में ।

 

चलो बचाएँ वर्षा-पानी,

भर-भरकर अपनी लुटिया में।

 

…………………..

6 सितम्बर 2021

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 124 – ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंह जी द्वारा लिखी कृति ““बिना मतलब” का मतलब” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 124 ☆

☆ ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब

रचना के बिम्ब, लेखक, प्रकाशक, किताब, समीक्षक और पाठक का अटूट साहित्यिक संबंध होता है. मतलबी दुनिया की भागम भाग के बीच भी यह संबंध किंचित बेमतलब बना हुआ है, यह संतोष का विषय है. भीड़ के हर शख्स का जीवन एक उपन्यास होता है, और आदमी की जिजिविषा से परिपूर्ण दैनंदिनी घटनायें बिखरी हुई बेहिसाब कहानियां होती हैं. जब कोई कहानीकार आम आदमी के इस संघर्ष को पास से देख लेता है तो वह उसमें रचना के बिम्ब ढ़ूंढ़ निकालता है. इस तरह बुनी जाती है कहानी. वास्तविक किरदार अनभिज्ञ रह जाता है पर उसकी जिंदगी का वह हिस्सा, जिसे पढ़कर लेखक ने अपने कौशल के अनुरूप कहानी गढ़ी होती है, जब प्रकाशित होती है तो वह पाठको का मर्म स्पर्श कर उन्हें चिंतन, मनोरंजन, और आंसू देती है. पत्रिका का जीवन एक सीमित अवधि का होता है, पर किताबें दीर्घ जीवी होती हैं. इसलिये किताब की शक्ल में छपी कहानियां उस किरदार और घटना को नव जीवन देती हैं. आम आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब समझने का प्रयास मैने किया. दो सौ पन्नो में फैली हुई कुल जमा तेरह कहानियां हैं. कुछ तो ऐसी हैं जिनको स्वतंत्र उपन्यास की शक्ल में पुनर्प्रस्तुत किया जा सकता है. छल ऐसी ही कहानी है, जो पात्र शालिनी के नाम से उपन्यास के रूप में विस्तारित की जा सकती है. मजे की बात है कि पाठको को उनके आस पास कोई न कोई शालिनी जरूर दिख जायेगी. क्योंकि शालिनी को एक वृत्ति के रूप में प्रस्तुत करने में राजा सिंह ने सफलता पाई है. फेसबुक की आभासी दुनिया के इस समय में कई शालिनी हमारे इनबाक्स में घुसी चली आ रही मिलती हैं.

प्रबंधन, नियति, बिना मतलब कुछ लम्बी कहानियां है. रिश्तों की कैद, सफेद परी पठनीय हैं. दरअसल प्रत्येक कहानीकार की बुनावट का अपना तरीका होता है. राजा सिंह बड़ी बारीक घटनाओ का सविस्तार वर्णन करने की शैली अपनाते हैं, इसलिये वे लम्बी कहानियां लिखते है. उसी कथानक को छोटे में भी समेटा जा सकता है. पत्र पत्रिकाओ में मैं राजा सिंह की कहानियां पढ़ता रहा हूं. किताब में पहली बार पढ़ा जब उन्होंने समीक्षार्थ “बिना मतलब” भेजी. वे देशज मिट्टी से जुड़े रचनाकार हैं. कहानियों के साथ कविताई भी करते हैं. उनके दो कथा संग्रह अवशेष प्रणय और पचास के पार शीर्षकों से पहले आ चुके हैं. हंस, परिकथा, पुष्पगंधा, अभिनव इमरोज, साहित्य भारती, रूपाम्बरा, वाक्, कथा बिम्ब, लमही, मधुमती, बया, आजकल आदि पत्रिकाओ के अंको में उनकी ये कहानियां जो इस संग्रह में हैं पूर्व प्रकाशित हैं.

बिना मतलब एक एकाकी बुजुर्ग साहित्यकार के इर्द गिर्द बुनी कहानी है जो बिन बोले मनोविज्ञान के पाठ पढ़ाती बहुत कुछ कहती है और जिंदगी का मतलब समझाती है. “कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बार में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्‍त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो”. इस परिभाषा पर “बिना मतलब” की कहानियां निखालिस खरी हैं.

मैं अकादमिक बुक्स इंडिया, दिल्ली से प्रकाशित इस किताब को थोड़ा फुरसत से पढ़ने की अनुशंसा करता हूं. मेरी मंगलकामना है कि राजा सिंह निरंतर लिखें, हिन्दी पाठको को उनकी ढ़ेरो और नई नई कहानियां पढ़ने मिलती रहें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विस्मय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

बुधवार 9 नवम्बर से मार्गशीष साधना आरम्भ होगी। इसका साधना मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – विस्मय ??

वे दिखते हैं

जनवादी और

प्रगतिशील मंचों पर

‘सांस्कृतिक अस्मिता’ की

बखिया उधेड़ते हुए,

संस्कृति और इतिहास की

रक्षा के लिए सन्नद्ध खेमों में

‘वाम’ शब्द के अक्षरों और

मात्रा के चीथड़े करते हुए,

घोर साम्प्रदायिक आयोजनों और

सरकारी सेकुलरों की जमात में

समानुपाती संतुलन बनाते हुए,

हर तरह की सत्ता से

करीबी नाता जोड़

व्यवस्था को सदा गरियाते हुए,

अनुदान, प्रकाशन;

पुरस्कार की फेहरिस्त पर छाते हुए,

‘विद्रोही’ से लेकर

‘उपासक’ तक की उपाधि पाते हुए,

सुनो साथियो!

मैं चकित हूँ

अपने समय पर,

राजनीति और साहित्य की

अंतररेखा का अपहरण हुए

अरसा बीत गया और

हमें पता भी न चला!

मैं सचमुच चकित हूँ!!

© संजय भारद्वाज 

( बुधवार, दि 31.5.2017, प्रातः 11.08)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संदेशपूर्ण चौपाईयाँ ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ संदेशपूर्ण चौपाईयाँ  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

मानवता का धर्म निभाना। ख़ुद को चोखा रोज़ बनाना।।

बुरे सोच को दूर भगाना। प्रेमभाव को तुम अपनाना।।(1)

 

दयाभाव के फूल खिलाना। पर-उपकारी तुम बन जाना।।

झूठ कभी नहिं मन में लाना। मानव बनकर ही दिखलाना।।(2)

 

निर्धन को तुम निज धन देना। उसके सारे दुख हर लेना।।

भूखे को भोजन करवाना। करुणा का तुम धर्म निभाना।।(3)

 

अंतर में उजियारा लाना। द्वेष,पाप तुम दूर भगाना।।

लोभ कभी नहिं मन में लाना। ख़ुद को सच्चा संत बनाना।।(4)

 

ईश्वर को तुम नहिं बिसराना। अच्छे कामों के पथ जाना।।

अपनी करनी को चमकाना। मानवता का सुख पा जाना।।(5)

 

भजन,जाप को तुम अपनाना। मंदिर जाकर ध्यान लगाना।।

वंदन प्रभुजी का नित करना। अपने पापों को नित हरना।।(6)

 

अहंकार को दूर भगाना। विनत भाव को उर में लाना।।

कोमलता से प्रीति लगाना। संतों की सेवा में जाना।।(7)

 

भजन,आरती में खो जाना। सद् वाणी प्रति राग जगाना।।

बुरी बात हर ,परे हटाना। दुष्कर्मों को आज मिटाना।।(8)

 

जीवन को नहिं व्यर्थ गँवाना। दान,पुण्य से प्रीति लगाना।।

हर प्राणी से दया दिखाना। स्वारथ को तो दूर भगाना।।(9)

 

नैतिकता के पथ पर चलना। समय गँवा,नहिं आँखें मलना।।

मानव बन ही रहना होगा। गंगा जैसा बहना होगा।।(10)

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -10 – परदेश का मोहल्ला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 10 – परदेश का मोहल्ला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मोहल्ला शब्द इसलिए चुना, क्योंकि वर्तमान निवास एक विदेश की आवासीय सोसाइटी में है, जिसमें करीब पंद्रह सौ फ्लैट्स हैं। अब तो हमारे जयपुर में भी ऐसी कई सोसायटी है जिसमें एक हजार से अधिक फ्लैट्स हैं, प्रमुख रूप से गांधी पथ के पास “रंगोली” है, जिसमें भी सोलह सौ से अधिक फ्लैट्स हैं।

यहां की सोसाइटी में सभी किराये से रहते हैं। कोई कंपनी इसको विगत साठ वर्षों से किराए पर चला रही हैं। आसपास इतनी बड़ी और पंद्रह मंजिल कोई और भवन ना होने से दूर से ही दृष्टि पड़ जाती हैं। हमारे जैसे प्रवासियों को ढूंढने में कठिनाई नहीं होती हैं। वैसे आजकल तो लोग पड़ोसी के घर जाने से पहले भी गूगल से ही रास्ता पूछते हैं।

भवन बड़ा होने के कारण नगर बस सेवा भी अंदर तक सुविधा देती है,वो बात अलग है, कि यहां बहुत कम लोग बस से यात्रा करते हैं। कार पार्किंग में दो गाड़ियां खड़ी रखने का कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं हैं। बिना सोसाइटी के स्टिकर वाली गाड़ी अवश्य क्रेन द्वारा उठा दी जाती हैं। अतिथि के लिए भी अलग से पार्किंग व्यवस्था हैं। विशेष योग्य जन जिनकी गाड़ी में इस बाबत स्टिकर होता हैं, को  प्रवेश द्वार के पास आरक्षित स्थान मिलता हैं।

कार पार्किंग के लिए स्थान बहुत ही सलीके से चिन्हित किए गया हैं। कार रखना और निकलना अत्यंत सुविधा जनक हैं। कार एकदम सीधी लाइन में खड़ी देखकर अपने पाठशाला के दिन याद आ गए,जब रेखा गणित में हम स्केल की सहायता से भी सीधी रेखा नहीं खींच पाते थे। गुरुजन हमारे स्केल से ही हाथ  पर सीधी लाल लाइन खींच दिया करते थे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 – ग्रहण से मोक्ष ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 142 ☆

🌺लघु कथा 🌗ग्रहण से ोक्ष 🌕

नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।

12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।

पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।

आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।

अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।

बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।

बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे।  मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।

पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।

नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ येशील केव्हा पुन्हा परतुन… ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

सौ. विद्या पराडकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ येशील केव्हा पुन्हा परतुन… 💐 ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

(विरह काव्य)

ताजमहालचया वाटेने प्रिये

का?तू गेली मजला सोडून

बसलो आहे मी मात्र येथे

प्रणय गीतांचे सूर लावून

 

संगमरवरी स्वप्ना चे त्या

भंगलेले‌ अवशेष राहिले

भावनांचे प्रीती पुष्प ‌हे

कोमेजुन गंध हीन ़झाले

 

जलविण जैसा मीन तळमळे

तैसा तळमळे मी रात्रंदिन

तुझ्या प्रीतिचा असे पुजारी

अहोरात्र करी मी‌ तुझेच पूजन

 

येशील केव्हा पुन्हा परतुन

संगमरवरीचया कलाकृतीतुन

की यमुनेच्या या धुंद जलातुन

स्वर्गीय ते भोग सोडून

 

वाट पहातो तुझी प्रिये ग

पुन्हा मीलनाची आस धरुन

तुझ्याविणा मज नसे किनारा

तव‌ स्मृतीच्या श्रावणधारा 💐

 

© सौ. विद्या पराडकर

वारजे  पुणे..

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #164 ☆ अंधार रात्र आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 164 ?

☆ अंधार रात्र आहे… ☆

काळोख शमविण्याला येतात काजवे हे

घेऊन दीप हाती फिरतात काजवे हे

 

अंधार रात्र आहे पत्ता न चांदण्यांचा

त्यांचीत फक्त जागा घेतात काजवे हे

 

गुंफून हात हाती करतात नृत्य सारे

सुंदर प्रकाश गीते गातात काजवे हे

 

छळतो तिमिर तरीही थोडा उजेड आहे

आधार जीवनाचा होतात काजवे हे

 

नाजूक जीव आहे हलक्या मुठीत माझ्या

घेतो कधी कधी मी हातात काजवे हे

 

शेतात चोर रात्री येऊ नयेत म्हणुनी

घालून गस्त रात्री जातात काजवे हे

 

आहे स्वयंप्रकाशी इवला प्रकाश तरिही

निर्माण राज्य येथे करतात काजवे हे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जान है तो जहाँ है ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ जान है तो जहाँ है ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सहसा कुठलाही आजार हा अकस्मात येत नाही. आपलं शरीर वेळोवेळी आपल्याला तसे संकेत देत असतं ,आपण मात्र त्याकडे विशेष गंभीरपणे न बघता तसंच दामटायला वा रेटायला बघतो. सध्या सगळीकडे व्हायरल इंफेक्शनचा सामना जनताजनार्दनाला करावा लागतोयं. सध्याच्या असमतोल हवामानामुळे हे चढउतार आपल्याला अनुभवावे लागतात.

इकडे लगातार तीन दिवस तीन वेगवेगळ्या टोकाच्या हवामानाचा अनुभव सगळ्यांनी घेतला. पहिल्या दिवशी ढगाळ वातावरण,कुंद हवा, पाऊस तर दुसऱ्या दिवशी थंडी, बोचरे वारे,आणि तिस-या दिवशी अचानक सर्वत्र ऊन. ह्या अचानक बदलत्या हवामानाने सगळीकडे सर्दी, ताप,घसा खवखवणे आणि खोकला ह्यांच्या मा-याला आपल्याला तोंड द्यावं लागतयं.

खरतरं एकादिवसाच्या मुलाचं देखील कोणावाचून काहीही अडत नाही. जो जन्माला घालतो तोच सोय करतो ही म्हण खरी असली तरी अशा संकटाच्या काळात मानसिक, शारीरिक भक्कम राहतांना  शेवटी माणसाला माणसाचीच गरज लागते.मग ती कोठल्याही रूपात का असेना,कधी ती गरज आपली जवळची घरची माणसं भागवतात तर कधी आपली जोडून ठेवलेली मित्रमंडळी वा स्नेही भागवतात.

त्यामुळे ह्या आजारपणाच्या काळात मात्र माणसाला माणसाची खरी किंमत कळायला लागते.सध्या ह्या आजारपणात घरात वा नोकरीच्या जागी तीन गट पडलेतं.पहिल्या गटात  संपूर्णपणे आजारी असलेल्या व्यक्ती, दुसऱ्या गटात थोडफार बरं वाटत नसलेल्या व्यक्ती आणि तिस-या गटात एकदम ठणठणीत व्यक्ती. ह्यापैकी तिसऱ्या गटातील व्यक्तींचे संख्याबळ अगदी कमी आहे.

काल परवापर्यंत ह्या आजारपणात मी दुसऱ्या गटात मोडत होते.नंतर मात्र अंगावर काढल्याने शेवटी तिसऱ्या फेज मध्ये प्रवेशकर्ती झालीय. आता दोन दिवस सक्तीची विश्रांती घेतल्या शिवाय पर्यायच नाही.

त्यामुळे आता दोन दिवस सक्तिची विश्रांती घेऊन झाल्यावर ह्या आजारपणात आलेल्या चांगल्या अनुभवांविषयीची पोस्ट काही दिवसात लिहीनच.

औषधांपेक्षाही सर्वांगीण आराम,शांत स्वस्थ झोप,डोळ्यांना डोक्याला त्रास होणाऱ्या मोबाईल चा अत्यंत कमी वापर ह्याने लौकर बरं वाटायला लागतं. असो शेवटी काय तर “जान है तो जहाँ है”.,”सर सलामत तो पगडी पचास” ही मोलाची गोष्ट प्रत्येकाने लक्षात ठेवायलाच हवी.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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