हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 114 – “काजल लगी आँख में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –काजल लगी आँख में।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 114 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “काजल लगी आँख में” || ☆

नीचे को, छज्जे से कोई

झाँका करता है ।

मेरे प्रतिमानों को अक्सर

आँका करता है ॥

 

उधर जहाँ पत्तों के

मनहर झूमर हैं लटके ।

जिनसे छनकर धूप

चकत्ते दिखते हैं हटके ।

 

उन्हें धरा के आँचल पर

चुपचाप हवाओं से ।

लहरा कर दिन के गौरव

में टाँका करता है ।

 

मधुछन्दा दोपहर दिखा

कर  बुन्दे कानों के

काजल लगी आँख में

भरकर, बिम्ब मकानों के

 

ज्योंकि बजाज बैठ गद्दी पर

दिन भर की विक्री

का आदर करता ,जैसे वह

माँ का करता  है

 

साथ खडा है पेड़ मगन

जैसे कि चरवाहा

अपने में हो मस्त गा रहा

मीठा मनचाहा

 

और पोटली में लाये

उस चना चबैने को

पूरा तन्मय होकर के

ज्यों फाँका करता है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कमाल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – कमाल ??

नाराज़ हो मुझसे,

उसने पूछा…,

मैं हँस पड़ा,

कमाल है;

वह नाराज़ हो गई मुझसे..!!!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 9.06 बजे, 27.10.20

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा – “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे”)  

☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 – लोग उनको उच्च क्वालिटी का मंत्री बताते हैं।

-उनके एक खास भक्त ने कालेज की जमीन में कब्जा करके बाउंड्री वॉल बनाना चालू किया तो कालेज के प्रिंसिपल ने आपत्ति जताई।

– भक्त ने प्राचार्य को ट्रांसफर की धमकी दे दी।

– प्रिंसिपल की उचक्के मंत्री के दरबार में पेशी हुई।

– मंत्री ने ऐंठकर कहा- तुमने हमारे अंधमूक प्रिय भक्त के काम में बाधा पहुंचाने की कोशिश की ?

– प्राचार्य ने डरते हुए जबाब दिया -सर वो तो कालेज की जमीन है।

– भक्त ने डांटते हुए कहा-   कालेज तो सरकारी है, मंत्री जी की सरकार है और जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है, तो आपत्ति करने वाले तुम कौन होते हो ?

– मंत्री ने पूछा -कहां जाना चाहते हो,या सस्पेंड होकर घर बैठना चाहते हो?

– पीए को बुलाया गया और प्राचार्य का नाम नोट कर राजधानी मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी को फोन लगाकर तुरंत कार्यवाही करने के आदेश मंत्री ने दे दिए।

– प्रिंसिपल हाथ जोड़े बड़बड़ाता रहा, फिर गार्ड ने घसीटते हुए बंगले के बाहर कर दिया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार   के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक भावप्रवण एवं प्रेरक लघुकथा भविष्य निधि – दीप दीपावली के। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

दिवाली के दिन पूर्वान्ह में गांव के प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में खड़ा एक अधेड़ चुपचाप शाला के भवन को देख रहा था। यह व्यक्ति जिले के हायर सेकेंडरी विद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य महेश पाठकजी थे।

शाला के भवन को देखते- देखते वे पुरानी स्मृतियों में खो गये। बचपन में छोटे से गांव की इसी शाला से उन्होंने पढ़ाई का श्रीगणेश किया था। उस समय से देखते देखते इसका भवन पुराना होकर गिरता ही चला गया था। जिले में रहते हुये उन्हें गांव आने पर इसे देखने का अवसर चलते फिरते मिलता रहता था। भवन जर्जर होने के कारण उसमें नियमित कक्षायें लगना भी धीरे धीरे कम होने लगी, स्थानीय शिक्षकों की इसी कारण रुचि भी घटने लगी पर सबसे अधिक हानि हुई उन छोटे-छोटे बच्चों की, जिनके विद्यारंभ का एकमात्र आधार यही शाला थी। बच्चे चाह कर भी पढ़ने नहीं आ सकते थे।

पाठक जी को यह बात बहुत कचोटती थी। इसके जीर्णाेद्धार के लिये पंचायत विभाग से बहुत जुगत भिड़ाई पर सरपंच के रुचि नहीं लेने के कारण काम हो नहीं पाया।

एक वर्ष पूर्व वे सेवानिवृत्त हो गये और अपने मूल निवास वाले गांव में पत्नी सहित लौट आये। एक दिन अचानक उन्हें अपनी समस्या का समाधान मिल गया। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी अतः अब घर में केवल वे दो ही जीव थे सो एक दिन अपने मन की बात पत्नी से कह ही दी। वह भी सीधी-सादी सी थी तो तत्काल स्वीकृति दे दी और अपने भविष्य निधि के संचित धन को उन्होंने इसमें लगा कर शाला में पांच पक्के कमरे बनवा कर ऊपर टिन की छत डलवा दी। एक कोने में शौचालय बनवा दिया। अपने सेवाकाल में परिचित व्यवसायी से उचित दामों में मेज कुर्सी भी बनवा कर लगवा दी।  बच्चों के कक्षा की समस्या एकाएक सुलझ गई थी और अब शाला भी नियमित चल सकती थी।  

आज उसी नये भवन की  पहली दीपावली के लिये बच्चे सजावट कर रहे थे और खुशी से शोर मचाते हुये दौड़ते फिर रहे थे। सुबह की धूप में उन बच्चों की चमकती हुई आंखों को देख कर पाठक जी को ऐसा लगा मानो दीपावली की सांझ के दीपक उनके विद्यालय के आंगन अभी से जगमगा उठे हों।

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 104 ☆ # एक दीप… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# एक दीप…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 104 ☆

☆ # एक दीप… # ☆ 

इस दीपावली में दीप जलाइए

जग को आलोकित कीजिये  

 

एक दीप

अंधकार रूपी

तम, द्वेष, ईर्ष्या, नफरत और

हिंसा

को दूर करने के लिए

 

एक दीप

पर्यावरण के

बढ़ते विनाश को

रोकने के लिए

 

एक दीप

शहर में फैली हुई गंदगी

को दूर कर

तन और मन की

सफाई के लिए

 

एक दीप

उस महामानव के लिए

जिसने तुम्हें

जीने की राह दिखाई

 

एक दीप

उस गुरु के लिए

जिसने तुम्हें ज्ञान दिया

 

एक दीप

अपने माता पिता के लिए

जिन्होंने अपना सर्वस्व

तुम पर न्योछावर किया

श्रेष्ठ इंसान, सुपुत्र

बनाने के लिए

 

एक दीप

उन तमाम लोगों के लिए

जिन्होंने तुम्हें

जीवन के किसी ना किसी

मोड़ पर

कभी ना कभी

प्रभावित किया हो

 

एक दीप

उन निर्धन, असहाय

शोषित, पीड़ित, वंचित

समाज के लिए

 

एक दीप

उस झोपड़ी के द्वार पर

जहां से तुम ने कभी

अपने जीवन की

शुरुआत की थी /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नियमांस सक्त येथे… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नियमांस सक्त येथे… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त : आनंदकंद – गागाल गालगागा गागाल गालगागा)

नियमांस सक्त येथे अपवाद फार होते

दाते भिकार काही याचक उदार होते !

 

कळपात होयबांच्या शिरलो कधीच नाही

मानी बुलंद माझे काही नकार होते !

 

तपसाधना युगांची नाही फळास आली

होण्यास संधिसाधू…साधू तयार होते !

 

संग्राम घोर होता…संताविरुद्ध संत

श्वासात रोखलेले काही थरार होते !

 

सरला वसंत आता अधिराज्य पावसाचे

जलशात बेडके पण कोकिळ फरार होते !

 

झाले मरण सुगंधी अंतिम तुझाच घाव

किरकोळ बेहिशेबी बाकी प्रहार होते !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 104 ☆ माझ्या आईचे गुणवर्णन… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 104 ? 

☆ माझ्या आईचे गुणवर्णन..… ☆

माझ्या आईचे गुणवर्णन

मी कसे ते करावे

शब्दात कसे तोलावे.. ०१

माझ्या आईचे गुणवर्णन

शब्दातीत आहे आई

बहुगुणी प्रेमळ माई..०२

माझ्या आईचे गुणवर्णन

असह्य वेदना तिला झाल्या

न मी पहिल्या, न अनुभवल्या..०३

माझ्या आईचे गुणवर्णन

आई प्रेमाचा निर्झर

आई सौख्याचा सागर..०४

माझ्या आईचे गुणवर्णन

कोणते कोणते दाखले द्यावे 

ऋणातून कैसे मुक्त व्हावे..०५

माझ्या आईचे गुणवर्णन

पवित्र तुळस अंगणातली

मंदिरात समई तेवली..०६

माझ्या आईचे गुणवर्णन

मजला न करवे आता

देवा नंतर, तीच खरी माता ..०७

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प, भाग -४१  परिव्राजक १९.  कन्याकुमारी ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प, भाग -४१  परिव्राजक १९.  कन्याकुमारी डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजी धारवाड, बंगलोर करत करत म्हैसूरला आले. म्हैसूर संस्थांचे दिवाण सर के. शेषाद्री अय्यर यांच्याकडे स्वामीजी राहिले होते. त्यांनी म्हैसूर संस्थानचे महाराज चामराजेंद्र वडियार यांचा परिचय करून दिल्यानंतर त्यांनी स्वामीजींना संस्थानचे खास अतिथि म्हणून राजवाड्यावर ठेऊन घेतले. एव्हढी सत्ता आणि वैभव असलेल्या या तरुण महाराजांना धर्म व तत्वज्ञान याविषयी आस्था होती. म्हैसूर हे भारतातील सर्वात मोठ्या संस्थांनांपैकी एक होते. इथे अनेक विषयांवर स्वामीजी बरोबर चर्चा आणि संवाद घडून येत.

महाराजांशी स्वामीजींचे चांगले निकटचे संबंध निर्माण झाले होते. त्यांनी एकदा स्वामीजींना विचारलं स्वामीजी मी आपल्यासाठी काय करावं ? त्यावर तासभर झालेल्या चर्चेत स्वामीजी म्हणाले, “भारताचा अध्यात्म विचार पाश्चात्य देशात पोहोचला पाहिजे आणि भारताने पाश्चात्यांकडून त्यांचे विज्ञान घेतले पाहिजे. आपल्या समजतील सर्वात खालच्या थरापर्यंत शिक्षण पोहोचले पाहिजे आणि धर्माची खरी तत्वे सामान्य माणसाला समजून सांगितली पाहिजेत. शिकागोला जाण्याचा विचार ही त्यांनी बोलून दाखवला होता, यावर महाराजांनी आवश्यक ती सर्व मदत तत्काळ करण्याची तयारी दाखवली होती पण, स्वामीजींनी प्रत्येक वेळेसारखा इथेही नकार दिलेला दिसतो. तरीही महाराजांनी स्वामीजींनी त्यांच्या आवडीची भेटवस्तू आमच्या कडून घ्यावी याचा खूप आग्रह केला आणि बाजारात कारकूनाबरोबर एक हजार रुपये देऊन स्वामीजींबरोबर पाठविले. त्यामुळे स्वामीजी त्यांच्या कौतुकासाठी सर्व बाजार फिरले आणि त्यांना बरं वाटावं म्हणून एक सर्वात उत्तम सिगारेट घेतली. ती एक रुपयाची होती. ती तिथेच ओढून संपवली. असे हे निरिच्छ वृत्तीचे स्वामीजी राजेरजवाड्यात पाहुणचार घेत ठिकठिकाणी राहिले होते पण, तेंव्हाही त्यांच्या डोळ्यासमोर खेडोपाड्यातली दरिद्री जनता आणि राज्यकर्त्याकडून दीन दुबळ्या प्रजेचे काहीतरी कल्याण होईल एव्हढाच विचार असायचा. क्वचित एखादाच राजा हे करू शकतो असा त्यांचा अनुभव होता. त्यातलेच हे म्हैसूरचे महाराज होते.

त्यांना स्वामीजींनी शिकागोहून पाठवलेल्या पत्रात म्हटले आहे “हे उदार महाराजा, मानवाचे जीवन फार अल्पकालीन आहे आणि या जगात हव्याशा वाटणार्‍या सुखाच्या गोष्टी केवळ क्षणभंगुर आहेत. पण जे इतरांसाठी जगतात तेच खर्‍या अर्थाने जगतात. भारतातील तुमच्यासारखा एखादा सत्ताधीश जर मनात आणेल, तर तो या देशाला आपल्या पायावर उभे करण्यासाठी महान कार्य करू शकेल. त्याचे नाव पुढच्या पिढ्यांत पोहोचेल आणि जनता अशा राजाबद्दल पूज्यभाव धरण करेल”. यावरून स्वामीजीं स्वत:साठी काहीही मागत नसत. महाराजांनी स्वामीजींची पाद्यपूजा कराची इच्छा व्यक्त केली तर त्यांनी स्पष्ट नकार दिला. शेवटी त्यांनी स्वामीजींचा आवाज एखादी आठवण म्हणून ध्वनीमुद्रित करून द्यावा अशी कल्पक मागणी केली. त्याला होकार दिला आणि त्या वेळच्या फोनोग्रामच्या तबकडीवर चार पाच मिनिटांचे बोलणे रेकॉर्ड करून घेतले. बर्‍याच वर्षांनंतर तो पुसट झाला. मग महाराजांचा निरोप घेऊन स्वामीजी केरळ प्रदेशात गेले.

त्रिचुर, कोडंगल्लूर,एर्नाकुलम, कोचीन इथे फिरले. केरळ, मलबार या भागातल्या जुनाट चालीरीती आणि ख्रिस्त धर्मी मिशनर्‍यांचा तिथे चाललेला धर्मप्रचार या गोष्टी स्वामीजींच्या लक्षात आल्या होत्या. त्यामुळे त्यांना वाटलं की हिंदू धर्माच्या दृष्टीने ही गोष्ट चांगली नाही. स्वामीजींना उत्तर भारतापेक्षा दक्षिण भारतात आलेले अनुभव वेगळे होते. त्यांच्या लक्षात आले की, दक्षिणेत पाद्री लोक खालच्या वर्गातील लाखो हिंदूंना ख्रिस्त धर्मात घेत आहेत. जवळ जवळ एक चतुर्थांश लोक ख्रिस्त धर्मात गेले आहेत.

(असा स्पष्ट उल्लेख स्वामीजींच्या चरित्र ग्रंथात आहे).

कोचीनहून स्वामीजी त्रिवेंद्रमला आले. एर्नाकुलम पासून त्रिवेंद्रम सव्वा दोनशे किलोमीटर अंतरावर, बैलगाडी आणि पायी प्रवास करताना केरळचं निसर्ग वैभव त्यांना साथ करत होतं. आंबा, फणस, नारळ यांची घनदाट झाडी, लहान मोठ्या खाड्या, पक्षांचे मधुर आवाज असा रमणीय रस्ता स्वामीजी चालत होते.

त्रिवेंद्रमला स्वामीजी सुंदरराम यांच्याकडे राहत असताना घरातील लहान, मोठे, नोकर, चाकर यांच्याशी पण मनमोकळे बोलत असत. एकदा, सुंदरराम यांचा चौदा वर्षांचा मुलगा रामस्वामी याला स्वामीजी म्हणाले, “तू अगदी तरुण आहेस,लहान आहेस. माझी फार इच्छा आहे की तू कधीतरी उपनिषदं, ब्रह्मसूत्रे, भगवद्गीता यांचा निष्ठापूर्वक अभ्यास कर. या तिन्हीना मिळून प्रस्थानत्रयी म्हणतात. त्याच बरोबर इतिहास पुराणाचा पण अभ्यास कर. या तोलामोलाचे ग्रंथ तुला सार्‍या जगात दुसरीकडे कुठेही मिळणार नाहीत. कोणतीही गोष्ट कशामुळे निर्माण झाली, तिचं पर्यवसान कशात होणार, ती का अस्तित्वात आली आणि तिची दिशा कोणती? हे जाणून घेण्याची जिज्ञासा केवळ मानवप्राण्यातच असू शकते तिचा पूर्ण उपयोग करून घे”.

कन्याकुमारी भारत वर्षाच्या दक्षिणेचे शेवटचे टोक. त्रिवेंद्रम हून नव्वद किलोमीटर. डिसेंबरला त्रिवेंद्रमहून स्वामीजी निघाले आणि कन्याकुमारीला पोहोचले. संपूर्ण वंदेमातरम  या गीतातलं मातृभूमीचं वर्णन स्वामीजींनी ऐन तारुण्यात ऐकलं होतं. याच वर्णनाचा भारत देश स्वामीजींनी पूर्वेकडून पश्चिमेकडे आणि उत्तरेकडून दक्षिणेकडे हजारो किलोमीटर प्रवास करून पालथा घातला होता. डोळ्यात साठवून ठेवला होता. अशी ही स्वदेशाची आगळीवेगळी यात्रा  करायला त्यांना अडीच वर्ष लागली होती. कन्याकुमारीच्या आपल्या मातृभूमीच्या दक्षिण टोकावरच्या खळाळत्या लाटांच्या हिंदुमहासागराला ते भेटणार होते आणि या अथांग सागराला वंदन करून आपल्या विराट भ्रमणाची पूर्तता करणार होते.

स्वामीजींनी दक्षिणेश्वरच्या मंदिरातील कालीमातेचं/जगन्मातेचं दर्शन घेऊन परिव्राजक म्हणून प्रवास सुरू केला तो आता कन्याकुमारी मंदिराच्या दर्शनाने संपणार होता.

या मंदिरात स्वामीजी गेले आणि कन्यारूपातील जगन्मातेचं दर्शन घेऊन बाहेर आले. तशी समोर लांबवर नजर गेली, दीड फर्लांग अंतरावर दोन प्रचंड शिलाखंड दिसले. आपल्याच भूमीवरच्या या शिलाखंडावर जायची त्यांना मनोमन इच्छा झाली. तिथे गेलो तर खर्‍या अर्थाने मातृभूमीचे दक्षिण टोक आपण गाठले असा अर्थ होईल. म्हणून कसही करून त्या खडकांवर आपण जाव असं वाटून ते किनार्‍यावर आले. जवळच होड्या होत्या. काही कोळी पण उभे होते. स्वामीजींनी चौकशी केली. त्या नावेतून खडकापर्यंत पोहोचविण्यास नावाडी तयार होते, फक्त पैसे द्यावे लागणार होते. स्वामीजी तर निष्कांचन होते. एक पैसा सुद्धा जवळ नव्हता. झळ त्यांनी त्या उंच लाटांमध्ये उडी घेतली पोहत पोहत जाऊन ते खडक गाठले. समुद्राला रोजचे सरावलेले असतांनाही नावाडी स्तब्धच झाले. लाटा उसळणार्‍या तर होत्याच पण तिथे शार्क माशांपासून पण धोका होता हे त्यांना माहिती होतं. हे पाहून दोन तीन नावाडी पाठोपाठ गेले. सुखरूप पोहोचले हे बघून, त्यांना काही हवे का विचारले. आम्ही आणून देऊ असे सांगीतल्यावर थोडे दूध आणि काही शहाळी पुरेशी आहेत असे स्वामीजींनी सांगितले. स्वामीजी या शिलाखंडावर तीन दिवस, तीन रात्र राहिले.ते दिवस होते 25,26,27 डिसेंबर 1892

लाटांच्या अखंड गंभीर नादाबरोबर स्वामीजींचे चिंतन सुरू झाले. कलकत्त्यातून बाहेर पडल्यापासुनचे सर्व दिवस, त्यात आलेले अनुभव, सगळं डोळ्यासमोर उभं राहिलं होतं. जगन्मातेचं ध्यान आणि भारत मातेचं चिंतन तीन दिवसात झालं.

प्रश्नचिन्ह – प्राचीन इतिहास असलेला हा विशाल देश, इतिहासाचे केव्हढे चढउतार, सार्‍या जगाला हेवा वाटेल असे प्राचीन काळातील द्रष्ट्या ऋषीमुनींनी दिलेले आध्यात्मिक धन. पण तरीही आज भारत कसा आहे? त्याची अस्मिताच हरवलेली दिसत आहे. सगळ्या मानव जातीने स्वीकारावीत अशी शाश्वत मूल्यं पूर्वजांकडून लाभली आहेत तरीही त्यातल्या तत्वांचा त्याला विसर पडला आहे. अभिमान वाटावा असं भूतकाळाचा वारसा आहे पण वर्तमानात मात्र घोर दुर्दशा आहे. यातून समाजाचं तेज पुनः कसं प्रकाशात आणता येईल?  अशा प्रश्नांची उत्तरे त्यांना शोधायची होती. उपाय शोधायचे होते.

आपल्या समाजातील अज्ञान आणि दारिद्र्य दूर कसे होईल आणि भारताचे पुनरुत्थान कसे होईल?त्याच्या आत्म्याला जाग कशी येणार? याच प्रश्नावर जास्त वेळ चिंतन करत होते.

प्राचीन ऋषीमुनींनी दिलेले उदात्त आध्यात्मिक विचार आणि जीवनाची श्रेष्ठ मूल्ये खालच्या थरातील माणसांपर्यंत पोहोचवण्याची गरज आहे असे त्यांना तीव्रतेने वाटत होते. सामान्य माणसाच्या सेवेसाठी आणी उन्नतीसाठी आपण प्रयत्न करायचा असा स्वामीजींचा निर्णय झाला. हे करण्यासाठी पाच दहा माणसं आणि पैसा हवाच. पण या दरिद्री देशात पैसे कुठून मिळणार? त्यांना आलेल्या अनुभवा नुसार धनवान मंडळी उदार नव्हती. आता अमेरिकेत सर्वधर्म परिषद भरते आहे. तिथे जाऊन त्यांना भारताच्या आध्यात्मिक संस्कृतीचा परिचय करून द्यावा आणि तिकडून पैसा गोळा करून आणून इथे आपल्या कामाची ऊभारणी करावी. आता उरलेले आयुष्य भारतातल्या दीन दलितांच्या सेवेसाठी घालवायचे असा संकल्प स्वामीजींनी केला आणि शिलाखंडावरून  ते परतले. तीन दिवस तीन रात्रीच्या चिंतनातून प्रश्नाचं उत्तर स्वामीजींना मिळालं होतं.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ महिना अखेरचे पान – 10 ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? विविधा ?

महिना अखेरचे पान – 10 ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

सांगावसं वाटलं म्हणून….10

अश्विन शुद्ध एक म्हणजे घटस्थापना!कधी सप्टेंबर महिन्याच्या अखेरीला सुरू होणारा तर कधी ऑक्टोबर महिन्यात सुरू होणारा अश्विन महिना घेऊन येतो नवरात्रोत्सव आणि जाता जाता दीपोत्सव देऊन जातो.

घटस्थापनेला घटांची स्थापना केली जाते. शारदीय नवरात्रीला प्रारंभ होतो. ललितापंचमी, दुर्गाष्टमी, खंडेनवमी असे एक एक दिवस साजरे होत असतात. नऊ दिवसांचे, नव्हे नव्हे नऊ रात्रींचे, नवरात्र संपते आणि विजयादशमीचा दिवस उजाडतो.विजयादशमी म्हणजेच दसरा,दशहरा!असूरीय वृत्तींचा वध करून सत्प्रवृत्तींचा विजय साजरा करण्याचा दिवस.पारंपारिक सीमोलंघनाबरोबरच वैचारिक सीमोलंघन करण्याचा दिवस. अन्यायाचा प्रतिकार करून मानवतेचा संदेश पसरवण्यासाठी मानवी मनाचे परिवर्तन करण्याचा दिवस!नवरात्रीतील लक्ष लक्ष दीपज्योतीच सांगत असतात आता तमाचा नाश फार दूर नाही. या दीपाप्रमाणेच आकाशातील पूर्णचंद्राचा दीपही उजाळून निघतो आणि को जागरती,कोण कोण जागे आहे हे पाहण्यासाठी अश्विन पौर्णिमेला सहस्त्ररश्मी तेजाने उजळून निघालेला असतो.आकाशाचा तो नीलमंडप जणू काही मोग-याच्या फुलांनी बहरून जावा असा फुललेला असतो. चांदण्याची ही फुले प्रत्येक क्षण उल्हसित करत असतात. जणू काही ही पुढच्या आनंदमयी दिवसांची सुरूवातच असते.

अश्विनातील अमावस्येचा अंधःकार विरत जातो आणि कार्तिकातील पहिल्या पहाटेच घरोघरी दारापुढे पणत्यांच्या मंद ज्योती प्रकाशाचा निरोप घेऊन येतात. कधी ऑक्टोबरच्या शेवटच्या आठवड्यात तर कधी नोव्हेंबरच्या सुरूवातीला सुरू होणारा हा प्रकाशोत्सव म्हणजेच दीपावली! दिवाळी. आनंद, उत्साह, तेज घेऊन येणारा हा सण. गोवत्स द्वादशी म्हणजेच वसूबारस, गुरूद्वादशी, धनत्रयोदशी, नरकचतुर्दशीला अभ्यंगस्नान,  लक्ष्मीचे पूजन करून समृद्धी आणि संपन्नता मिळावी म्हणून प्रार्थना करण्याचा लक्ष्मीपूजनाचा दिवस!. त्यानंतर येणारा, नवे व्यावसायिक वर्ष सुरू करणारा  आणि पती पत्नीतील प्रेम आणि विश्वास दृढ करणारा दिवाळी पाडव्याचा दिवस. दिवाळीतील पाडव्यालाच विक्रम संवत व महावीर जैन संवत या नववर्षांचा प्रारंभ होत असतो. 

भाऊ आणि बहिण यांच्यातील स्नेहाच्या मोत्यांच्या माळा गुंफणारी भाऊबीज. दीपांच्या मालिकांप्रमाणे एका मागोमाग एक  येणा-या या मंगलमयी दिवसांमुळे दीपावलीचे हे  पर्व सर्वत्र चैतन्य पसरवित जाते. नवे कपडे, भेट वस्तू, नवी खरेदी, फराळाच्या पदार्थांनी भरलेली ताटे, आतषबाजी, रोषणाई या सगळ्याची लयलूट करणारा हा दिवाळीचा सण मनाला एक वेगळीच उर्जा देऊन जातो.

हा ऑक्टोबर महिना अन्य काही कारणांसाठी लक्षात राहणारा असतो. महिन्याच्या सुरुवातीलाच म्हणजे दोन ऑक्टोबरला महात्मा गांधी आणि लालबहाद्दूर शास्त्री यांची जयंती असते.तर हाच दिवस अर्थशास्त्रज्ञ, रिझर्व्ह बँकेचे माजी गव्हर्नर, पहिले अर्थमंत्री व साहित्यिक श्री.चिंतामणराव देशमुख यांचा हा स्मृतीदिन. याच ऑक्टोबर महिन्यातील दसरा  हा क्रांतीकारक सीमोलंघन करणारा ठरला तो धम्मचक्र प्रवर्तनामुळे. तर दुसरीकडे ईद-ए-मिलाद मुळे मुस्लिम धर्मियांसाठीही हा महिना तितकाच महत्त्वाचा.

जागतिक स्तरावर एक ऑक्टोबर हा दिवस ज्येष्ठ नागरिक दिन म्हणून पाळला जातोच पण त्याशिवाय तो काॅफी दिन, संगीत दिन आणि रक्तदान दिनही आहे. पाच ऑक्टोबर जागतिक शिक्षक दिन व सात ऑक्टोबर हा जागतिक वन्य पशू दिन आहे. आठ ऑक्टोबर हा भारतीय हवाई दल दिन म्हणून साजरा केला जातो.जागतिक टपाल दिन नऊ ऑक्टोबरला तर दहा ऑक्टोबरला राष्ट्रीय टपाल दिन पाळून टपाल खाते व कर्मचारी यांच्या कार्याची दखल घेतली जाते. अंधांच्या प्रश्नांकडे लक्ष वेधून त्यांना मदत करण्यासाठी पंधरा ऑक्टोबर हा अंध सहायता दिन म्हणून पाळला जातो.जागतिक पोलिओ दिन चोवीस ऑक्टोबरला असतो तर तीस ऑक्टोबरला  बचत दिन साजरा करून बचतीकडे लक्ष वेधले जाते. एकतीस ऑक्टोबर या दिवशी भारतात राष्ट्रीय एकता दिवस  पाळला जातो.

याच महिन्यात महर्षि वाल्मिकी, श्री जलाराम तसेच सरदार वल्लभभाई पटेल यांची जयंती असते; तर राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज व राजे यशवंतराव होळकर यांची पुण्यतिथि ऑक्टोबर महिन्यातच येते.

सामाजिक, राजकीय, धार्मिक अशा विविध कारणांनी गजबजलेल्या या ऑक्टोबरच्या शेवटी शेवटी हवेतही बदल होत जातो. थंडीची चाहुल लागते. दिवाळीच्या सुट्ट्या संपत आलेल्या असतात. त्या संपण्यापूर्वी पर्यटनाला उत्सुक असणारे पर्यटक घराबाहेर पडत असतात. त्याच वेळेस निसर्ग एक पाऊल पुढे टाकून आपला प्रवास चालूच ठेवत असतो.व र्षा ऋतुला पूर्ण निरोप देऊन शरद आणि हेमंत ऋतुचा आल्हाददायक अनुभव घेण्यासाठी काळ पुढे पुढे सरकत असतो.एका नव्या महिन्यात प्रवेश करण्यासाठी !

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ दोन हिरे…. लेखक – अज्ञात ☆ भावानुवाद – सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆  दोन हिरे…. लेखक – अज्ञात ☆ भावानुवाद – सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

🐪

एका व्यापाऱ्याला बाजारात एक भव्य उंट विकत घ्यायचा होता.

आणि एक उंट निवडल्यानंतर त्या उंटाची किंमत ठरवण्यासाठी उंट विक्रेता व व्यापारी यांच्यात बोलणी सुरू झाली .

व्यापारी आणि उंट विक्रेत्यामध्ये करार झाला आणि शेवटी त्या व्यापाऱ्याने उंट विकत घेऊन घरी नेला !

घरी पोहोचल्यावर व्यापाऱ्याने आपल्या नोकराला उंटाचा काजवा (खोगीर) काढण्यासाठी बोलावले ..!

काजवेच्या खाली सेवकास एक लहान मखमली पिशवी सापडली ज्यामुळे उघडकीस आले की ते मौल्यवान हिरे व रत्नांनी परिपूर्ण आहेत  ..!

सेवक ओरडला, “मालक , तुम्ही  एक उंट विकत घेतला, परंतु त्या बरोबर काय?  विनामूल्य आले आहे. ते पहा!”

व्यापारी देखील आश्चर्यचकित झाला, त्याने आपल्या नोकरांच्या हातात हिरे पाहिले. ते सूर्यप्रकाशामध्ये आणखी चमकत होते आणि चमकत होते.

व्यापारी म्हणाले:

“मी उंट खरेदी केला आहे, हिरे नव्हे, मी ते त्वरित परत करावे!”

नोकर मनात विचार करत होता “माझा मालक  किती मूर्ख आहे …!”

तो म्हणाला:

“मालक काय?  आहे. हे कुणालाही कळणार नाही!”  तथापि, व्यापाऱ्याने त्याचे ऐकले नाही आणि ताबडतोब बाजारपेठेत पोचले आणि मखमलीची पिशवी त्या दुकानदाराला परत केली.

उंट विक्रेता खूप खूष झाला, म्हणाला, “मी विसरलो होतो की मी माझे मौल्यवान हिरे  काजवेखाली लपवले होते!

आता आपण बक्षीस म्हणून कोणताही एक हिरा निवडा!

व्यापारी म्हणाला,

“मी उंटासाठी योग्य किंमत दिली आहे म्हणून मला कोणत्याही भेटवस्तू आणि बक्षिसाची आवश्यकता नाही!”

जितका व्यापारी नकार देत होता, तितकाच उंट विकणारा आग्रह धरत होता!

शेवटी, व्यापारी हसला आणि म्हणाला:

खरं तर मी थैली परत आणण्याचा निर्णय घेतला तेव्हा मी दोन मौल्यवान हिरे आधीच माझ्याकडे ठेवले होते.

या कबुलीजबाबा नंतर, उंट विक्रेता खूप चिडला आणि त्याने थैली रिकामी केली आणि त्यातील हिरे मोजले !

पण जेव्हा त्याला लक्षात आले की त्याचे सर्व हिरे जशेच्या तसे आहेत अन एकही हिरा कमी झालेला नाही तेव्हा तो म्हणाला, “हे माझे सर्व हिरे आहेत, तर मग तुम्ही ठेवलेले दोन सर्वात मौल्यवान हिरे कोणते?

व्यापारी म्हणाला:… “माझा प्रामाणिकपणा आणि माझा स्वाभिमान.”

विक्रेता मूक होता!

यापैकी दोन हिरे आपल्याकडे आहेत की नाही हे शोधण्यासाठी आपण स्वतःमध्ये पहावे.

ज्याच्याकडे हे दोन हिरे आहेत, ‘स्वाभिमान अन् प्रामाणिकपणा’ तो जगातील सर्वात श्रीमंत व्यक्ती आहे…

लेखक  : अज्ञात 

भावानुवाद – सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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