(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ…”।)
ग़ज़ल # 65 – “मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆लघुकथा – “नामकरण” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
कच्चे घर में जब दूसरी बार भी कन्या ने जन्म लिया तब चंदरभान घुटनों में सिर देकर दरवाजे की दहलीज पर बैठ गया । बच्ची की किलकारियां सुनकर पड़ोसी ने खिड़की में से झांक कर पूछा -ऐ चंदरभान का खबर ए ,,,?
-देवी प्रगट भई इस बार भी ।
-चलो हौंसला रखो ।
-हाँ , हौसला इ तो रखेंगे बीस बरस तक । कौन आज ही डिक्री की रकम मांगी गयी है । डिक्री ही तो आई है । कुर्की जब्ती के ऑर्डर तो नहीं ।
-नाम का रखोगे ?
-लो । गरीब की लड़की का भी नाम होवे है का ? जिसने जो पुकार लिया सोई नाम हो गया । होती किसी अमीर की लड़की तो संभाल संभाल कर रखते और पुकार लेते ब्लैक मनी ।
दोनों इस नाम पर काफी देर तक हो हो करते हंसते रहे । भूल गये कि जच्चा बच्चा की खबर सुध लेनी चाहिए ।
पड़ोसी ने खिड़की बंद करने से पहले जैसे मनुहार करते हुए कहा -ऐ चंदरभान, कुछ तो नाम रखोगे इ । बताओ का रखोगे?
-देख यार, इस देवी के भाग से हाथ में बरकत रही तो इसका नाम होगा लक्ष्मी । और अगर यह कच्चा घर भी टूटने फूटने लगा तो इसका नाम होगा कुलच्छनी ।
पड़ोसी ने ऐसे नामकरण की उम्मीद नहीं की थी । झट से खिड़की के दोनों पट आपस में टकराये और बंद हो गये ।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 कृपया आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना जारी रखें। होली के बाद नयी साधना आरम्भ होगी💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक कविता – “प्रल्हाद के विश्वास का संसार है होली…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #121 ☆ कविता – “प्रल्हाद के विश्वास का संसार है होली…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। कोशिश करो कि जिंदगी पहेली नहीं कि सहेली बन जाये।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 57 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।। कोशिश करो कि जिंदगी पहेली नहीं कि सहेली बन जाये ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 11 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
☆
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
☆
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।
☆
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
☆
अर्थ:–
हे हनुमान जी आपने बाल्यावस्था में ही हजारों योजन दूर स्थित सूर्य को मीठा फल जानकर खा लिया था।
आपने भगवान राम की अंगूठी अपने मुख में रखकर विशाल समुद्र को लाँघ गए थे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
संसार में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे आपकी कृपा से सरल हो जाते हैं।
भावार्थ:-
इन चौपाइयों में हनुमान जी की शक्ति के बारे में बताया गया है। सबसे पहले यह बताया गया है कि जन्म के कुछ दिन बाद ही हनुमान जी ने 1000 युग-योजन की दूरी पर स्थित सूर्य देव को अच्छा फल समझकर खा लिया था।
हनुमान जी को समस्त शक्तियां प्राप्त हैं। उनके ह्रदय में प्रभु विराजमान है। समस्त शक्तियां उनके पास है इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रभु की मुद्रिका को मुंह में रखकर उन्होंने समुद्र को पार कर लिया था।
दुनिया में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे दूसरों के लिए कठिन हैं राम कृपा से तथा हनुमान जी की कृपा से आसान हो जाते हैं।
संदेश:-
श्री हनुमान जी जैसी दृढ़ता सभी के अंदर होनी चाहिए। अगर आपके अंदर इतनी दृढ़ता होगी तब ही सूर्य को निगलने अर्थात कठिन से कठिन कार्य को करने की क्षमता आपके अंदर आ पाएगी।
मन में अगर किसी कार्य को करने का भाव हो तो वह कितना ही मुश्किल हो पूरा हो ही जाता है।
इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों से सूर्यकृपा विद्या, ज्ञान और प्रतिष्ठा मिलती है। दूसरी और तीसरी चौपाई के बार-बार वाचन से महान से महान संकट से मुक्ति मिलती है और सभी समस्याओं का अंत होता है।
विवेचना:-
पहली दो चौपाइयों में हनुमान जी के बलशाली और कार्य कुशल होने के बारे में बताया गया है। तीसरी चौपाई में यह कहा गया है कि इस जगत में जितने भी कठिन से कठिन कार्य हैं वे सभी भी आपके लिए अत्यंत आसान हैं। इस प्रकार उदाहरण दे कर के हनुमान जी को सभी कार्यों के करने योग्य बताया गया है।
संकट मोचन हनुमान अष्टक में कहा भी गया है:-
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो।
(संकटमोचन हनुमान अष्टक)
इसका भी अर्थ यही है की है हनुमान जी आप समस्त कार्यों को करने में समर्थ है। ईश्वर की जिस पर कृपा होती है सभी कार्यों को करने में समर्थ रहता है। भगवान श्री राम की कृपा हमारे बजरंगबली पर थी। इसलिए हमारे बजरंगबली सभी कार्यों को करने में समर्थ है।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥
कुछ इसी तरह का श्रीरामचरितमानस के बालकांड में भी लिखा हुआ है:-
मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।।
(रामचरितमानस /बालकांड/सोरठा क्रमांक 2)
रामचंद्र जी की कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है। कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु भगवान मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥
अब हम इस विवेचना की पहली चौपाई या यूं कहें तो हनुमान चालीसा के अट्ठारहवीं चौपाई पर आते हैं।
जुग सहस्र जोजन पर भानू | लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||
यहां पर सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने सूर्य लोक से पृथ्वी की दूरी के बारे में बताया है। उनका कहना है कि सूर्य से पृथ्वी एक युग सहस्त्र योजन दूरी पर है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी विश्व में सबसे पहले बाराहमिहीर नामक भारतीय वैज्ञानिक ने बताया था। यह खोज उनके द्वारा 505 ईसवी में की गई थी। उन्होंने अपनी किताब सूर्य सिद्धांत में यह दूरी बताई है। वर्तमान में यह मूल पुस्तक उपलब्ध नहीं है परंतु उसको अन्य विद्वानों ने 800 ईसवी तक लिखा है।
बाराहमिहीर ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। बाराहमिहीर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा।
हनुमान चालीसा में दिए गए सूर्य की दूरी का अर्थ निम्नवत है।
सूर्य सिद्धांत के अनुसार एक योजन’ का मतलब 8 मील से होता है (1 मील में 1.6 किमी होते हैं)। अब अगर 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 (15 करोड़ 36 लाख किमी),
bbc.com के अनुसार सूर्य की औसत दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है।
इस घटना का उल्लेख संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी मिलता है। संकटमोचन हनुमान अष्टक का पाठ बजरंगबली के भक्तों में अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें लिखा है :-
बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहूँ लोक भयो अँधियारो |
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो ||
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो || 1 ||
हनुमान जी द्वारा सूर्य को निगल जाने की घटना को हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 23 और 24 पर दिया गया है। इस ग्रंथ में लिखा है कि माता अंजना अपने प्रिय पुत्र हनुमान जी का लालन-पालन बड़े ही मनोयोग पूर्वक करती थी। एक बार की बात है कि वानर राज केसरी और माता अंजना दोनों ही राजमहल में नहीं थे। बालक हनुमान पालने में झूल रहे थे। इसी बीच उनको भूख लगी और उनकी दृष्टि प्राची के क्षितिज पर गई। अरुणोदय हो रहा था। उन्होंने सूर्यदेव को लाल रंग का फल समझा। बालक हनुमान, शंकर भगवान के 11 वें रुद्र के अवतार थे। रुद्रावतार होने के कारण उनमें अकूत बल था। वे पवन देव के पुत्र थे अतः उनको पवनदेव ने पहले ही उड़ने की शक्ति प्रदान कर दी थी। हनुमान जी ने छलांग लगाई और अत्यंत वेग से आकाश में उड़ने लगे। पवन पुत्र रुद्रावतार हनुमान जी सूर्य को निगलने के लिए चले जा रहे थे। पवन देव ने जब यह दृश्य देखा तो हनुमान जी की रक्षा हेतु पीछे-पीछे चल दिए। हवा के झोंकों से पवन देव हनुमान जी को शीतलता प्रदान कर रहे थे। दूसरी तरफ जब सूर्य भगवान ने देखा की पवनपुत्र उनकी तरफ आ रहे हैं तो उन्होंने भी अपने को शीतल कर लिया। हनुमान जी सूर्य देव के पास पहुंचे और वहां पर सूर्य देव के साथ क्रीड़ा करने लगे।
उस दिन ग्रहण का दिन था। राहु सूर्य देव को अपना ग्रास बनाने के लिए पहुंचा। उसने पाया कि भुवन भास्कर के रथ पर भुवन भास्कर के साथ एक बालक बैठा हुआ है। राहु बालक की चिंता ना कर सूर्य भगवान को ग्रास करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि हनुमान जी ने उसे पकड़ लिया। बालक हनुमान की मुट्ठी में राहु दबने लगा। वह किसी तरह से अपने प्राण बचाकर भागा। उन्होंने इस बात की शिकायत इंद्रदेव जी की से की। इंद्रदेव ने नाराज होकर हनुमान जी के ऊपर बज्र का प्रहार किया जो हनुमान जी की बाईं ढोड़ी पर लगा। जिससे उनकी हनु टूट गयी। इस चोट के कारण हनुमान जी मूर्छित हो गए। हनुमान जी को मूर्छित देख वायुदेव अत्यंत कुपित हो गए। वे अपने पुत्र को अंक में लेकर पर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गए।
वायु देव के बंद होने से सभी जीव धारियों के प्राण संकट में पड़ गए। सभी देवता गंधर्व नाग आदि जीवन रक्षा के लिए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी सब को लेकर वायुदेव जिस गुफा में थे उस गुफा पर पहुंचे। ब्रह्मा जी ने प्यार के साथ हनुमान जी को स्पर्श किया और हनुमान जी की मुर्छा टूट गई। अपने पुत्र को जीवित देख कर के पवन देव पहले की तरह से प्राणवायु को बहाने लगे।
इस समय सभी देवता उपस्थित थे। सभी ने अपनी अपनी तरफ से हनुमान जी को वर दिया। जैसे कि ब्रह्मा जी ने कहा कि उनके ऊपर ब्रह्मास्त्र का असर नहीं होगा। इंद्र देव ने कहा कि हनुमान जी के ऊपर उनके वज्र का असर नहीं होगा आदि, आदि।
इस प्रकार ब्रह्मा जी के नेतृत्व में सभी देवताओं ने मिलकर हनुमान जी को बहुत सारे आशीर्वाद एवं वरदान दिए।
वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है। किष्किंधा कांड के 66वें सर्ग समुद्र पार करने के लिए जामवंत जी हनुमान जी को उत्साहित करते हैं। यह उत्साह बढ़ाने के दौरान वे हनुमान जी द्वारा सूर्य को सूर्य लोक में जाने की बात को बताते हैं।
तावदापपत स्तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।
क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन धीमता।।
(वा रा /कि का/66/.23 )
तदा शैलाग्रशिखरे वामो हनुरभज्यत।
ततो हि नामधेयं ते हनुमानिति कीर्त्यते।।
(वा रा /कि का/66/.23 )
अर्थ:- एक दिन प्रातः काल के समय सूर्य भगवान को उदय हुआ देख तुमने उन्हें कोई फल समझा। उस फल को लेने की इच्छा से तुम कूदकर आकाश में पहुंचे और 300 योजन ऊपर चले गए। वहां सूर्य की किरणों के ताप से भी तुम नहीं घबराए। हे ! महाकपि उस समय तुम को आकाश में जाते देख इंद्र ने क्रोधवश तुम्हारे ऊपर बज्र मारा। तब तुम पर्वत के शिखर पर आकर गिरे। तुम्हारी बायीं और की ठोड़ी टूट गई।
इसके बाद का वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी वैसा ही है जैसा कि हनुमत पुराण में है। इस वर्णन को हम आपको बता चुके हैं।
अर्थात वाल्मीकि रामायण से यह प्रतीत होता है हनुमान जी पृथ्वी से 300 योजन ऊपर तक पहुंच गए थे। वहां पर इंद्र ने उनके ऊपर बज्र प्रहार किया। ऐसा प्रतीत होता है इंद्रदेव की प्रवृत्ति अमेरिका जैसी ही थी जिस तरह से अमेरिका किसी दूसरे देश को आगे नहीं बढ़ने देता है वैसे ही इंद्र देव बालक हनुमान को सूर्य तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे। परंतु इस समय पवन देव ने अपनी शक्ति दिखाई। जिसके कारण भगवान ब्रह्मा ने बीच-बचाव कर शांति की प्रक्रिया को स्थापित किया।
अब हम चर्चा करेंगे वर्तमान समय के बुद्धिमान लोग इस घटना के बारे में क्या कहते हैं और उसका उत्तर क्या है।
वर्तमान समय के अति बुद्धिमान प्राणी कहते हैं पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी पृथ्वी से बड़ा नहीं हो सकता है अतः यह कैसे संभव है कि पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी सूर्य को अपने मुंह में कैद कर ले। इसका उत्तर हनुमत पुराण में अत्यंत स्पष्ट रूप से है। हनुमत पुराण पढ़ने से यह प्रतीत होता है हनुमान जी ने बाल अवस्था में ही पवन और सूर्य देव की सहायता से सूर्य लोक पर कब्जा कर लिया था। भगवान सूर्य के साथ जो उस समय सूर्य लोक के स्वामी थे मित्रवत व्यवहार बना लिया था। यह बात राहु और इंद्र को बुरी लगी। इंद्र के पास अति भयानक अस्त्र था जिसे वज्र कहते हैं। उससे उन्होंने हनुमान जी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण को हनुमान जी बर्दाश्त नहीं कर सके। हनुमान जी के पिता पवन देव ने फिर अपने बल का इस्तेमाल कर पूरे ब्रह्मांड को विवश कर दिया कि वह हनुमान जी के सामने नतमस्तक हो। ब्रह्मांड के सभी बड़े देवता आये और उन्होंने अपनी अपनी तरफ से वरदान दिया। जैसे भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने अपने हथियार ब्रह्मास्त्र और वज्र का उन पर असर ना होने का वरदान दिया। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने हनुमान जी के ऊपर कभी भी ब्रह्मास्त्र और वज्र को का इस्तेमाल न करने का आश्वासन दिया।
रामचरितमानस काव्य है काव्य में कवि अपनी भाषा-शैली के अनुसार विभिन्न अलंकार आदि का प्रयोग करते हैं रामचरितमानस में भी इन सब का प्रयोग किया गया है। बाल्मीकि रामायण उस समय का ग्रंथ है जिस समय रामचंद्र जी अयोध्या में पैदा हुए तथा राज किया। इस प्रकार हम बाल्मीकि रामायण को शत प्रतिशत सही मान सकते हैं।
श्री हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है :-
“प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं |
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ||”
इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी ने प्रभु द्वारा दी गई मुद्रिका को अपने मुख में रख लिया और समुद्र को पार कर गए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
अब प्रश्न उठता है कि महावीर हनुमान जी ने लंका जाते समय मुद्रिका को अपने मुंह में क्यों रखा। मुद्रिका उनके पास पहले जिस स्थान पर थी उसी स्थान पर क्यों नहीं रहने दिया। आइए हम इस प्रश्न के उत्तर को खोजने का प्रयास करते हैं।
हनुमत पुराण के पेज क्रमांक 73 पर लिखा हुआ है कि सीता जी की खोज के लिए निकलते समय श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा “वीरवर तुम्हारा उद्योग, धैर्य एवं पराक्रम और सुग्रीव का संदेश इन सब बातों से लगता है कि निश्चय ही तुमसे मेरे कार्य की सिद्धि होगी। तुम मेरी यह अंगूठी ले जाओ। इस पर मेरे नामाक्षर खुदे हुए हैं। इसे अपने परिचय के लिए तुम एकांत में सीता को देना। कपिश्रेष्ठ इस कार्य में तुम ही समर्थ हो। मैं तुम्हारा बुध्दिबल अच्छी तरह से जानता हूं। अच्छा जाओ तुम्हारा कल्याण हो।
इसके उपरांत पवन कुमार ने प्रभु की मुद्रिका अत्यंत आदर पूर्वक अपने पास रख ली। और उनके चरण कमलों में अपना मस्तक रख दिया। इसका अर्थ स्पष्ट है कि महावीर हनुमान जी के पास उस अंगूठी को रखने के लिए मुंह के अलावा कोई और स्थान भी हो सकता है। हो सकता है कि उन्होंने अपने वस्त्र में उस अंगूठी को बांध लिया हो।
रामचरितमानस में भी यह प्रसंग किष्किंधा कांड में मिलता है। किष्किंधा कांड के 22वें दोहे के बाद एक से सात चौपाई तक इस बात का वर्णन है।
पाछें पवन तनय सिरु नावा।
जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी।
करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।
कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना।
चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥
भावार्थ:- सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी और कहा कि बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चल दिए ॥6॥
बाल्मीकि बाल्मीकि रामायण में भी इस घटना को ज्यों का त्यों लिखा गया है। यह घटना वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड के 44वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 12 13 14 एवं 15 में वर्णित है:-
ददौ तस्य ततः प्रीतस्स्वनामाङ्कोपशोभितम्।
अङ्गुलीयमभिज्ञानं राजपुत्र्याः परन्तपः।।
अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नाऽनुपश्यति।।
व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रमः।
सुग्रीवस्य च सन्देशस्सिद्धिं कथयतीव मे।।
स तद्गृह्य हरिश्रेष्ठः स्थाप्य मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।
वन्दित्वा चरणौ चैव प्रस्थितः प्लवगोत्तमः।।
(वा रा/ कि का/44./12,13,14,15)
यहां भी वर्णन बिल्कुल रामचरितमानस जैसा ही है। पन्द्रहवें श्लोक में लिखा है की वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ने उस अंगूठी को माथे पर चढ़ाया। श्री रामचंद्र जी के चरणों को हाथ जोड़कर प्रणाम करके महावीर हनुमान जी चल दिए।
तीनों ग्रंथों में कहीं पर यह नहीं लिखा है की हनुमानजी ने श्री रामचंद्र जी से अंगूठी लेने के उपरांत उसको कहां पर रखा। यह स्पष्ट है कि उन्होंने अंगूठी को अपने पास रखा अर्थात अपने वस्त्रों में उसको सुरक्षित किया।
हनुमान जी जब समुद्र को पार करने लगे तो सभी ग्रंथों में यह लिखा है कि उन्होंने वायु मार्ग से समुद्र को पार किया हनुमान जी के पास इस बात की शक्ति थी कि वह हवाई मार्ग से गमन कर सकते थे। जब वे बाल काल में धरती से सूर्य तक की दूरी उड़ कर जा सकते थे तो समुद्र के किनारे से लंका तक जाने की दूरी तो अत्यंत कम ही थी। इतनी लंबी उड़ान उस समय धरती पर लंकापति रावण पक्षीराज जटायु और संपाती ही कर सकते थे। वायु मार्ग से उड़ते समय इस बात का डर था की वायु के घर्षण के कारण अंगूठी वस्त्रों से निकल सकती है। अंगूठी को बचाने के लिए उन्होंने सबसे सुरक्षित स्थान अपने मुख में अंगूठी को रख लिया। हनुमान जी ने अपने वस्त्रों से उस अंगूठी को निकालकर मुंह में सिर्फ सुरक्षा के कारणों से रखा था।
हनुमानजी को योग की अष्ट सिद्धियां प्राप्त थी। इन आठ सिद्धियों के नाम है:- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, इशीता, वशीकरण। उपरोक्त शक्ति में से लघिमा ऐसी शक्ति है जिसके माध्यम से उड़ा जा सकता है। हनुमानजी महिमा और लघिमा शक्ति के बल पर समुद्र पार कर गए थे।
विमान को संचालित करने के लिए गुरुत्वाकर्षण विरोधी (anti-gravitational) शक्ति की आवश्यकता होती है और ‘लघिमा’ की (anti-gravitational) शक्ति प्रणाली अनुरूप होती है। लघिमा (laghima) को संस्कृत में लघिमा सिद्धि कहते हैं और इंग्लिश में इसे लेविटेशन (levitation) कहा जाता है। लघिमा योग के अनुसार आठ सिद्धियों में से एक सिद्धि है।
दैनिक भास्कर के डिजिटल एडिशन में आज से 8 वर्ष पुराना एक लेख है। जिसमें बताया गया है कि वाराणसी के चौका घाट पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर है। इस मंदिर के बनने की कहानी भी हनुमान जी के शक्ति को बयान करती है। 18वीं शताब्दी में वाराणसी का डी एम हेनरी नाम का अंग्रेज था। वाराणसी के वरुणा नदी के किनारे रामलीला होती थी। हेनरी वहां पहुंचा। उसने रामलीला को बंद कराने का प्रयास किया। जिसका कि वहां के निवासियों ने विरोध किया। हेनरी ने चैलेंज किया कि आप लोग कहते हैं कि हनुमान जी ने समुद्र को छलांग लगाकर पार कर लिया था। अगर आपका हनुमान इस नदी को छलांग लगाकर पार कर ले तो मैं मान लूंगा यह रामलीला का उत्सव सही है। लोगों ने इस तरह का टेस्ट ना लेने की बात की परंतु वह टेस्ट लेने पर अड़ा रहा। हनुमान बने पात्र को आखिर कूदना पड़ा। कूदने के लिए जब उन्होंने श्री रामचंद्र जी बने पात्र से आज्ञा मांगी तो उन्होंने कहा ठीक है। तुम कूद करके नदी पार कर लो। परंतु पीछे मुड़कर मत देखना। हनुमान बने पात्र ने नदी कूदने का प्रयास किया। परंतु जब दूसरी तरफ पहुंच गया तो उसने पीछे मुड़कर देख लिया और वही पत्थर की तरह से जम गया। आज उस स्थान पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर बना हुआ है।
महाबली हनुमान जी धरती से सूर्य लोक तक जाने के लिए समर्थ है। अतः यह सोचना कि समुद्र के किनारे से लंका तक समुद्र को पार करके नहीं जा सकते हैं मूर्खता की पराकाष्ठा होगी। अतः उनका समुद्र को पार करके जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है।
हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है :-
“दुर्गम काज जगत के जेते |
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते “
इसका शाब्दिक अर्थ दो तरह से कहा जा सकता है। पहला अर्थ है जगत के बाकी लोगों के लिए जो कार्य दुर्गम होते हैं आपके लिए अत्यंत आसान होते हैं। इसका दूसरा अर्थ भी है संसार के दुर्गम कार्य भी आपकी कृपा से आसान हो जाते हैं। मुझे दूसरा अर्थ ज्यादा सही लग रहा है। अगर हनुमान जी की आप पर कृपा है तो आप मुश्किल से मुश्किल कार्य भी आसानी से कर सकते हैं। जैसे कि अभी ऊपर रामलीला के प्रसंग में मैंने बताया कि रामलीला के एक साधारण से पात्र पर जब हनुमान जी की कृपा हो गई तो उसने वरुणा नदी को पार कर लिया। आपकी कृपा जिस व्यक्ति पर है वह किसी भी कार्य को बगैर किसी परेशानी के आराम से कर सकता है। चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि कोई भी कार्य को करने के लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा। चाहे वह काम आसान हो और चाहे कठिन। परंतु केवल प्रयास करने से कार्य नहीं हो जाएगा। काम होने के लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक है। अगर हनुमान जी की कृपा आप पर है तो कार्य को होने से कोई भी रोक नहीं सकता है। अगर आप इस घमंड में हैं कि आप बहुत शक्तिशाली हैं आपका रसूख समाज में बहुत ज्यादा है और आप किसी भी कार्य को करने में समर्थ हैं तो यह आपकी भूल है। हो सकता है आप कार्य करने को आगे बढ़े और जहां आपको कार्य करना है उस जगह तक जाने का संसाधन ही आपको ना मिल पाए। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें विद्यार्थी को सब कुछ आ रहा होता है परंतु भ्रम वश वह पास होने लायक प्रश्न भी हल नहीं कर पाता है।
एक लड़का था। मान लेते हैं कि लड़के का नाम विजय था। देश के प्रमुख 10 इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक से उसने बी ई की परीक्षा दी और अपने गांव चला गया। गांव पर ही उसको अपने एक साथी का पत्र मिला जिसमें उसने बताया था कि 16 तारीख तक एक अच्छे संस्थान में ग्रैजुएट ट्रेनी के लिए वैकेंसी आई है। यह पत्र उसको 13 तारीख को प्राप्त हुआ था। विजय ने यह मानते हुए की अब अगर लिखित परीक्षा का फार्म आ भी जाए तो कोई फायदा नहीं है। लिखित परीक्षा के फार्म हेतु उसने आवेदन दे दिया। लिखित परीक्षा का आवेदन फार्म 20 तारीख के आसपास आ गया। उसके साथ यह भी लिखा था कि इस फॉर्म को आप 30 तारीख तक भर सकते हैं। विजय ने तत्काल फार्म भरा और भेजा। लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के उपरांत प्रथम नंबर पर आया और हनुमान जी की कृपा से ही अंत में विजय को उस संस्थान के उच्चतम पद पर पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि यह कहानी बिल्कुल सच्ची है संभवतः आप लोगों के आसपास भी ऐसी कई घटनाएं घटित हुई होंगी।
अगर आपके पेट में खाना पच जाता है उससे शरीर में खून बनता है मांस बनता है और मांसपेशियां बनती है। आपके दिन भर का कार्य उस खाने पचने की वजह से हो जाता है। अगर यह खाना न पचे तो आप बीमार हो जाएंगे और किसी कार्य के काबिल नहीं रहेंगे। इसी प्रकार अगर आप की सफलताएं पच जाएं अर्थात आपको सफलताओं का अहंकार ना हो तो आप जिंदगी में आगे बढ़ते चले जाएंगे। अगर आप यह माने यह सब प्रभु की कृपा से हुआ है तो आपके अंदर अहंकार नहीं आएगा। अगर आपको अपनी सफलता नहीं पचेगी तो आपके अंदर अहंकार आ जाएगा। किसी न किसी दिन यह अहंकार आपको जमीन पर ला देगा। उसी के लिए पुराने जमाने के लोग कहते थे कि सफलता मिले तो भगवान को नमस्कार करो, अहंकार न बढे उसके लिए वह परहेज है। लोग कहते हैं कि तुम्हे सफलता मिली है वह वृद्धो के आशीर्वाद से मिली है, अत: वृद्धों को प्रणाम करो।
कुछ लोग कह सकते हैं कि वृद्धो के आशीर्वाद से सफलता मिली वह सत्य नहीं है, गलत बात है। आशीर्वाद से क्या होता है? जो सफलता मिलती है वह परिश्रम से मिलती है। लडका एम.बी.बी.एस. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुआ। इतना होने पर भी उसके पिताजी कहते हैं कि वृद्धों के आशीर्वाद से तुम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, उन्हे नमस्कार कर। परंतु ऐसे लोग यह नहीं जानते हैं कि आपके अंदर सफलता का अहंकार ना आ जाए इसलिए बड़ों को प्रणाम करने के लिए कहा जा रहा है।
जीवन में यदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचना है, सफलताएं प्राप्त करना है तो उसमें पुरुषार्थ के साथ भगवान पर अटूट विश्वास का होना भी आवश्यक है। भगवान की सहायता के बिना हमारा कल्याण नहीं होगा, इसलिए जीवन उन्नत करने के लिए हम प्रयत्न अवश्य करेंगे, फिर भी भगवान की सहायता की जरुरत है। उनकी सहायता से ही हम आगे बढ सकेंगे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे।
अगर हम हनुमान जी के शरणागत हो जाएं और प्रयास करें तो हमारी सभी इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है। अंत में
हे मनोहर, वायुवेग से चलने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, बुद्धिमानो में सर्वश्रेष्ठ। हे वायु पुत्र, हे वानर सेनापति, श्री रामदूत हम सभी आपके शरणागत है॥
एखाद्या व्यक्तीबद्दल सहज बोलतांना आपण कधीकधी म्हणतो, तो चांगला आहे, पण…….. या पण नंतर सगळे वाईटच असते असे नाही. पण त्यामुळे संमीश्र भावना मनात येतात.
एखाद्या अक्षरा पासून तयार होणाऱ्या शब्दांबद्दल अशाच भावना मनात येतात का?……..
कसं काय ते सांगता येणार नाही, पण क या अक्षरा पासून सुरू होणाऱ्या शब्दांसाठी मनात अशा संमीश्र भावना येतात. हा माझा बालीशपणा असेल. (हो बालीशपणा, कारण सगळे मनातल्या भावना शब्दात उतरवतात, माझ्या मनात मात्र शब्दांमुळे संमीश्र भावना येतात.) यांचे कारण त्यात प्रश्न, निषेध, राग, तीरकसपणा, वाईटपणा, नाराजी बरोबरच चांगलेपणा देखील बरोबरीने जाणवतो.
आपल्याला पडणारे किंवा विचारले गेलेले बरेचसे प्रश्न हे क पासूनच सुरु होतात. आणि त्याच बाराखडीतले (कुटुंबातील) असतात असे वाटले. जसे…..
क – कधी? कसे? कशाला? कशासाठी? कळेल का?
का – का? काय? कारण काय? काय करशील?
कि की – किंमत किती? किंमत आहे का? किती वेळा? किती?
कु कू – कुठे?
के – केव्हा?
को – कोण? कोणी? कोणाला? कोण आहे? कोणासाठी? कोणी सांगितले? कोण म्हणतो? कोण समजतो?
असे बरेच प्रश्न क पासूनच सुरु होतात. इतकेच नाही तर वाईट अर्थाने, किंवा नाराजीने वापरले जाणारे क पासून सुरू होणारे बरेच शब्द आढळतील.
काळा पैसा, काळा धंदा, कट कारस्थान, कारावास, करणी, कुरापत, कुख्यात, कावेबाज, कळलाव्या.
एखाद्या गोष्टीकडे मुद्दाम लक्ष दिले नाही तरी कानाडोळा केला असे म्हणतात.
“स्वतःच्या डोळ्यातलं मुसळ दिसत नाही, पण दुसऱ्याच्या डोळ्यातंल कुसळ दिसतं.” हा कुसळ देखील चांगल्या अर्थाने वापरलेला नसतो.
निरर्थक गप्पा मारल्या तरी म्हणतात “बसले असतील कुटाळक्या करत.”
नको त्या वेळी कोणी आलं तरी म्हणतो “कोण कडमडलं आता.”
कोणाचा संसार मोडू नये असे वाटते. पण तसे झाले तरी काडीमोड झाला असे म्हणतात.
अती शुल्लक गोष्टीला कवडीमोल म्हणतो. तर अबोला धरल्यास देखील कट्टी झाली असे म्हणतो.
नाराजीच्या अथवा विरोधाच्या सुरात हळूच बोललं तरी कुरकुर नकोय, कटकट नकोय असे म्हणतात.
त्रासदायक वाटणारी, खोड्या, मस्ती, दंगा करणारी लहान मुले कौरवसेना म्हणून ओळखली जाते. तर माणूस कंसमामा म्हणून.
अपरिपक्व असेल तर कच्चा आहे असे म्हणतो. पण ताजा आणि हवासा असतो तो कोवळा.
बरं वाटतं नसले, चांगले दिसत नसले तरी म्हणतो कसंतरी होतय, किंवा कसंतरीच दिसतंय. हिंमत हरली तरी कच खाल्ली असे म्हणतो. घर झाडण्यापूर्वी पायाला जाणवते ती कचकच. आणि टाकायचा असतो तो कचरा. आणि टाकतो (कचरा) कुंडीत.
वाइटाशी वाइट वागून काम साध्य करायचे असेल तर, “काट्याने काटा काढायचा.” (सगळेच शब्द क पासून सुरू होणारे.)
निषेध नोंदवण्यासाठी रंग सुध्दा काळा. वाइट घटना घडली तरी काळा दिवस, काळी रात्र असे म्हणतो.
अर्जुनाला पडलेले अनेक प्रश्न आणि झालेले युद्ध ते ठिकाण देखील कुरुक्षेत्रच. पण उत्तर देणारे मात्र कृष्ण.
पण सगळेच क पासून सुरू होणारे शब्द प्रश्न निर्माण करणारे आणि नकारात्मकच आहेत असे नाही.
सकाळी उठतानांच “कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती. कर मुले……….” म्हणतात.
नमस्कार करतांना कर जोडावे लागतात. देवालयाचा कळस पवित्र भावना जागवतो. धार्मिक विधीसाठी कद नेसावा लागतो. पहाटे होणारी आरती काकड आरती असते. तसेच किर्तन देखील असते. काशी, केदारनाथ, करवीर (कोल्हापूर) पवित्र स्थान. तर काश्मीर, कोकण, केरळ निसर्गाने नटलेले. कन्याकुमारीचे आकर्षण वेगळेच.
वस्तू आणि स्थळ नाहीत. तर माणसांमध्ये देखील वेगवेगळ्या स्वभावाच्या माता कौशल्या, कैकयी, कु़ंती पण सुरुवात क पासून. दानशूर पणाचे उदाहरण म्हणजे कर्ण. तर झोपाळू माणूस म्हणजे कुंभकर्ण.
प्राणी पक्षी यात स्वामीनीष्ठ असतो तो कुत्रा, तर लबाड, धुर्त कोल्हा. बारीक नजर ठेवणारा कावळा. तर गाणारी कोकीळा.
सहज खुशाली विचारतांना देखील काय? कसं काय? असे विचारले तरी त्यात सुखाचे उत्तर अपेक्षित असते. पण सुरुवात होते क पासूनच. आणि ते प्रश्नच असतात.
कट्टर हा शब्द मात्र शत्रू आणि मित्र दोघांसाठी असतो. ठाम पणे किंवा निश्चयाने बोलणे म्हणजे काळ्या दगडावरची रेघ.
कृतघ्न जरी क पासून सुरू होत असला, तरी कर्तृत्व, कर्तबगार, कृतज्ञ, कलावंत, कलाकुसर, कलात्मक, कसब, कणखर असे आब वाढवणारे क पासून सुरू होणारे शब्द देखील आहेत.
कवी, कथाकार, कादंबरीकार असे सगळे साहित्यिक, तर प्रेमळ असणारा कनवाळू हे शब्द क पासूनच सुरु होतात.तर चित्रकाराच्या हाती असतो कुंचला.
त्यामुळेच माझ्या मनात क ने सुरु होणाऱ्या शब्दाबद्दल संमीश्र भावना असतात.
☆ अम्मी आणि मम्मी – भाग 3 – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ☆
डॉ हंसा दीप
(मागील भागात आपण पाहिले – पाकिस्तानने कॅ. अभिनंदन ना पकडलं. आता मात्र अगदी हद्द झाली! दोन्ही मुलींच्या घरच्यांनी कडक पावले उचलली. तृपित आणि तहरीमचं एकमेकींशी बोलणं बंद करून टाकलं. कडक आज्ञा दिली गेली, की आपापल्या कामाशी काम ठेवा, सरळ घरून शाळा आणि शाळा ते घर! एकमेकींशी बोलताना दिसलात, तर तुमचं काही खरं नाही! – आता इथून पुढे)
परिस्थितीच तशी झालेली होती. केंव्हाही युद्ध सुरु होण्याची शक्यता होती. युद्ध तर युद्धच असतं. ते जरी सीमेवर चालू असलं, तरी त्याचा परिणाम त्या देशाच्या प्रत्येक नागरिकावर होत असतो, मग तो जगाच्या कुठल्याही कोपऱ्यात का रहात असेना. मुलींची परिस्थिती फारच वाईट झालेली होती. वर्गात फक्त एकमेकींकडे बघता यायचं, बोलणं शक्य नव्हतं. रिकाम्या डोळ्यांनी अशा बघत असायच्या, की जणू दोघी काळ्या पाण्याची शिक्षा भोगत आहेत! तहान भूक सगळं हरपलं होतं दोघींचं. अशा काही चिडीचूप झाल्या होत्या, जसं काही त्यांचा मनमीत त्यांच्यापासून कोणी हिराऊन घेतला होता. त्यांचं हे गुपचूप रहाणं अम्मी आणि मम्मीला व्यवस्थितपणे समजत होतं. पण त्याच्यावर काही उपाय करू शकत नव्हत्या, त्यावर एकच उपाय होता, तो हा, की भारत आणि पाकिस्तान या दोन्ही देशातील संबंधातील भडकलेल्या आगीवर कुठून तरी थंड पाणी पडावं.
घरांमध्येही तणाव वाढत होता. या दोन्ही देशांच्या बाहेरही, जिथे जिथे या दोन्ही देशातले लोक होते, ते सगळे टी. व्ही. ला चिकटलेले असत. कॅ. अभिनंदनची जेंव्हा पाकिस्तानातून सुटका झाली, तेंव्हा सगळ्यात जास्त आनंद झाला होता, तो मम्मीला. तिच्या स्वतःच्या मुलीच्या मैत्रीसाठी ती आनंदित झाली होती. अभिनंदनचं परत येणं जसं काही तिच्या मुलीची आणि तहरीमची मैत्री वाढवणं होतं. या परतण्याने भडकलेल्या आगीवर थंड पाण्याचा थोडाफार तरी शिडकावा झालेला होता. परंतु, आजीने अजुनही हार मानलेली नव्हती. तहरीमशी मैत्री तोडून टाकण्यासाठी मागेच लागलेली असायची. पाकिस्तान्यांच्या गोष्टी सांगत रहायची – “या लोकांनी आपल्याला असं केलं, तसं केलं.”
तृपितला मात्र समजायचंच नाही, की यात तहरीमचा काय दोष आहे! आणि तिनं स्वतः काय करायला हवं? ती तर तहरीमसाठी जीव पण देऊ शकते. मम्मीला समजायचं, की तृपितच्या मनात काय चाललंय. पण कसं समजावणार तिला, की तहरीम आणि तृपितच्या मधे, अम्मी आणि मम्मीच्या मधे, नुसता हिंदी-उर्दूचा फरक नाही, तर दोन देशांचा फरक आहे, दोन देशातील तिरस्काराचा फरक आहे! एका आईच्या दोन मुलांमधील फरक आहे, जे एकमेकांशी झगडत,लढत एकमेकांच्या जीवावर उठले आहेत.
परंतु, आता ते इथे, तिसऱ्याच देशात होते, जो या दोघांपैकी कोणाचाच नव्हता, तर सगळ्याच देशांचा होता. एक एक करून वेगळं काढलं, तर जगातले सगळेच देश एका शाळेत मिळाले असते. वेगवेगळ्या देशांच्या या स्थानाला, भारत आणि पाकिस्तानची लढाई असो, की इस्त्राईल-पॅलेस्टाईनची लढाई असो काही फरक पडत नव्हता. सगळे आपापसातील तेढ बाजुला सारून एकमेकात मिळून, मिसळून रहायचा प्रयत्न करत असत. शेजारी पाजारी भलेही एकमेकांना ओळखत नसतील, पण कोणी कोणाशी अपमानास्पद पद्धतीने वागत नसत. सगळे आपापले रस्ते निवडून चालत रहात असत.
आज परत तो दिवस आला होता, की तिरस्काराच्या नद्या वाहू लागल्या होत्या. सीमेवर तणाव होता. काकांच्या मरणाची आठवण परत जखम बनून भळभळू लागली होती. हुतात्मा झालेल्या सगळ्या सैनिकांचे मृतदेह आणले जात होते. ज्या लोकांचा दुरान्वयानेही या युद्धाशी संबंध नव्हता, अशा लोकांच्या भावनांशी खेळ चाललेला होता. मुली घाबरून चुपचाप असायच्या. त्यांच्या मैत्रीवर परत एकदा कडक पहारे बसवले गेले होते.
आणि तेंव्हाच एक मोठी दुर्घटना घडली. न्यूयॉर्क शहरातल्या फ्लशिंग हायस्कूलमधे एका माथेफिरूने गोळ्या झाडल्या होत्या. बातमी वाऱ्यासारखी फैलावली. कित्येक पालकांनी शाळेकडे धाव घेतली. आधीच असा सगळा गोंधळ चाललेला असताना तिथेच एक बॉम्बस्फोट झाला. पण तोपर्यंत शाळा रिकामी झालेली होती. पोलिसांचे कडक पहारे लागलेले होते. आपापल्या मुलांचा शोध घेण्याची परवानगी फक्त आई वडिलांनाच दिली जात होती. धावत पळत मम्मी जेंव्हा शाळेत पोचली, तेंव्हा तिथे नुसता धूरच पसरलेला दिसत होता. तो धूर एवढा दाट होता, की लोकांच्या नाका-तोंडात जाऊन लोकांचा खोकून खोकून जीव हैराण होत होता, तरीसुद्धा प्रत्येक जण आपापल्या मुलांना जीव तोडून शोधत होता. कुठून तरी तृपित दिसावी, ती मिळावी या आशेने वेडावून गेलेल्या मम्मीची नजर आपल्या मुलीची एक झलक बघण्यासाठी शोधत होती. तिचे वडीलही आजीला घेऊन तिथे आले होते. सगळं काही ठीक असल्याची एकही खूण नजरेला पडत नव्हती. जिथं बघावं तिथे निराशा पदरात पडत होती. मनात एक अनोळखी भीति होती, जी मुलीच्या सुरक्षिततेबद्दल प्रश्न उभे करत होती.
इतरही अनेक पालक आपापल्या मुलांना हाका मारत वेड्यासारखे सर्वत्र धावत होते. जवळ जवळ अर्धा तास मम्मी, तृपितचे वडील आणि आजी तृपितला शोधत होते. शेवटी हार मानून त्या दोघी जोरजोरात हुंदके देऊन रडायला लागल्या, तृपितच्या वडिलांच्या डोळ्यातूनही अश्रू वहायला लागले. आजी जोरजोरात किंचाळून रडत होती, इतक्या जोरात, की त्या बॉम्बस्फोट करणाऱ्यांच्या कानावरही तो आवाज जावा, की या निष्पाप मुलांनी तुमचं काय बिघडवलं होतं? आजी जोरजोरात किंचाळत होती – “माहित आहे मला, हा बॉम्ब माझ्या मुलाच्या खुन्यांनीच फोडला असणार. रक्तपिपासू आहेत हे लोक, माझ्या नातीला पण मारायचं आहे आता ह्यांना!” पण त्या कोलाहलात अश्रू गाळण्याशिवाय कोणाच्या काही लक्षात येत नव्हतं. आणि ही वेळ अशी होती, की कोणीच काही करूही शकत नव्हतं.
धूर, पोलिसांच्या सायरनचा आवाज आणि लोकांचं रडणं! जेंव्हा द्वेषाची आग हसत्या-खेळत्या लोकांचं आयुष्य आपल्या धगीने जाळून, भाजून काढते, असा हा एक अभद्र, काळा दिवस होता. तेवढ्यात समोरून आवाज येऊ लागले. धुराचे ढग थोडे विरळ झाल्याबरोबर समोरचं दृश्य दिसू लागलं. पोलिसांच्या बंदुकांच्या संरक्षणात काही लोक बाहेर येत होते. त्या येणाऱ्या लोकांच्या गर्दीत तहरीमची अम्मी दिसत होती, तिच्या एका बाजूला तहरीम तर दुसऱ्या बाजुला तृपित होती. त्या धुरात अजुनी जमीन दिसत नव्हती की आकाश दिसत नव्हतं, सगळं धूसर-धूसर होतं, सावल्या होत्या आणि दोन्ही मुलींच्या पाठीवर आईचा हात होता. त्या दोघी घाबरून, अम्मीला चिकटून चालत येत होत्या.
तो एक क्षण असा होता, की ना कोणी भारतीय होतं, की ना कोणी पाकिस्तानी, फक्त दहशत होती आणि घाबरलेले लोक होते. एक आई होती, जिचा संबंध ना कुठल्या देशाशी होता, ना कुठल्या सीमेशी! ती फक्त आणि फक्त मुलांची आई होती! एकेका बाजुला तहरीम आणि तृपित होत्या आणि त्यांच्या पाठीवर अम्मीचा हात होता. मंटो यांच्या कथेतील टोबा टेकसिंहचे ते दृश्य जसं काही परत एकदा जिवंत झालेलं होतं, जिथे जमिनीच्या त्या तुकड्यावर कुठल्याही देशाचं नाव नव्हतं. अगदी तसेच इथे अम्मीचे ते हात होते, जे ना भारताचे होते, ना पाकिस्तानचे! हे एका मातेचे हात होते, माता जी मुलांची जननी असते! आपल्या मुली सुरक्षित आहेत हे बघून आज पहिल्यांदाच अम्मी आणि मम्मी एकमेकींच्या गळ्यात पडून रडत होत्या. समोर उभ्या असलेल्या आजीच्या डोळ्यातही अश्रू होते, जे तिच्या मनातला द्वेष धुवून टाकण्याचा यथाशक्ती प्रयत्न करत असावेत!
– समाप्त –
मूळ हिंदी कथा – अम्मी और मम्मी – मूळ लेखिका – डॉ हंसा दीप, कॅनडा