हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – सूत्र  ??

बित्ता भर करता हूँ

गज भर बताता हूँ

नगण्य का अनगिन करता हूँ

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

 

सूत्र उलट देता हूँ

बेशुमार हथियाता हूँ

कमी का रोना रोता हूँ

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

 

धर्म, नैतिकता, सदाचार

सारा कुछ दुय्यम बना रहा

आदमी का मुखौटा जड़े पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

 © संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 155 ☆ आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 155 ☆

? आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ?

“एकता में अटूट शक्ति है” ग्रीक कथाकार एशॉप द्वारा प्राचीन युग के दौरान इस वाक्यांश को सर्वप्रथम उपयोग किया गया था। कथाकार ने इसका अपनी कथा “द ऑक्सन एंड द लायन” में प्रत्यक्ष रूप से और “द बंडल ऑफ स्टिक्स” में अप्रत्यक्ष रूप से इसका उल्लेख किया था।

ईसाई धार्मिक पुस्तक में भी ऐसे ही शब्द शामिल हैं जिनमें प्रमुख हैं “अगर एक घर को विभाजित कर दिया जाता है तो वह घर दोबारा खड़ा नहीं हो सकता” इसी पुस्तक के दूसरे वाक्यांश हैं ” यीशु अपने विचारों को जानते थे और कहते थे ” हर राज्य जिसमें फूट पड़ी है वह उजड़ गया है और हर एक नगर या घर जो विभाजित है वह खुद पर निर्भर नहीं रहता।

अमेरिकन  इतिहास में यह वाक्यांश पहले क्रांतिकारी युद्ध के अपने पूर्व गीत “द लिबर्टी सॉन्ग” में जॉन डिकिन्सन द्वारा इस्तेमाल किया गया था। यह जुलाई 1768 में बोस्टन गैजेट में प्रकाशित हुआ था।

दिसंबर 1792 में  केंटकी की जनरल असेंबली ने राष्ट्रमंडल की आधिकारिक मुहर को राज्य के आदर्श वाक्य के साथ अपनाया “एकता में अटूट शक्ति है”।

1942 से वाक्यांश केंटकी की आधिकारिक गैर-लैटिन राज्य का आदर्श वाक्य बन गया ।

यह वाक्यांश मिसौरी ध्वज पर सर्कल में केंद्र के चारों ओर लिखा गया है।

यह वाक्यांश ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान भारत में लोकप्रिय हुआ। इसका उपयोग लोगों को एक साथ लाने और स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करने के लिए किया गया था।

अल्टर वफादारों ने भी इस वाक्यांश का इस्तेमाल किया है। इसे कुछ वफादार उत्तरी आयरिश भित्ति चित्रों में देखा जा सकता है।

वाक्यांश “एकता में अटूट शक्ति है” का उपयोग विभिन्न कलाकारों द्वारा कई गानों में भी किया गया है।

एकता का मतलब संघ या एकजुटता से है।  एकजुट रहने वाले लोगों का समूह हमेशा एक व्यक्ति की तुलना में अधिक सफलता प्राप्त करता है। यही कारण है कि लगभग हर क्षेत्र जैसे कार्यालय, सैन्य बलों, खेल आदि में समूह बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी हम परिवार में एक साथ रहते हैं जिससे हमें अपने दुखों को सहन करने और हमारी खुशी मनाने के अवसर मिलते हैं। कार्यालय में  वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए टीम बनाई जाती हैं। इसी तरह खेल और सैन्य बलों में भी समूह बनाए जाते हैं और कुछ हासिल करने के लिए सामूहिक रणनीतियों का निर्माण होता है।

पुराने दिनों में मनुष्य अकेला रहता था। वह खुद लम्बा सफ़र तय करके शिकार करता था  फिर मनुष्य ने यह महसूस किया कि अगर वह अन्य शिकारियों के साथ हाथ मिला लेता है तो वह कई आम खतरों और चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगा। इस तरीके से गांवों का निर्माण हुआ जो बाद में कस्बों, शहरों और देशों में विकसित हुए। एकता हर जगह आवश्यक है क्योंकि यह एक अस्वीकार्य प्रणाली को बदलने के लिए इच्छा और शक्ति को मजबूत करती है।

एकता मानवता का सबसे बडा गुण है। जो एक टीम या लोगों के समूह द्वारा हासिल किया जा सकता है वह कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं प्राप्त कर सकता है। असली ताकत एकजुट होने में निहित है। जिस देश का नागरिक एकजुट है तो वह देश मजबूत है। जिस परिवार के सदस्य एक साथ रहते हैं तो वह परिवार भी मजबूत है। कई उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि एकता में अटूट शक्ति है।

संगीत या नृत्य मंडली में भी यदि समूह एकजुट है, सद्भाव में काम करते हैं और सुर-ताल बनाए रखते हैं तो परिणाम आशावादी होंगे वहीं अगर हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा दिखाने शुरू करता है तो परिणाम अराजक और विनाशकारी हो सकते हैं। एकता हमें अनुशासित होना सिखाती है। यह हमारे लिए विनम्र, विचारशील, सद्भाव और शांति में एक साथ रहने के लिए सबक है। एकता हमें चीजों की मांग और परिणाम प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास और शक्ति देती है। यहां तक ​​कि कारखानों आदि में भी मजदूरों को यदि उनके मालिकों द्वारा प्रताड़ित या दबाया जाता हैं तो वे समूह के रूप में यूनियन बनाकर काम करते हैं। जो लोग अकेले काम करते हैं उन्हें आसानी से हराया जा सकता है और वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए आत्मविश्वास से काम नहीं कर सकते लेकिन अगर वे समूहों में काम करते हैं तो नतीज़े चमत्कारी हो सकते हैं।

 इस प्रकार हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकता बहुत महत्वपूर्ण है।सबसे बड़ा उदाहरण हमारे राष्ट्र की स्वतंत्रता है। महात्मा गांधी ने विभिन्न जाति और धर्म से संबंधित सभी नागरिकों को एकजुट किया और अहिंसा आंदोलन शुरू किया। दुनिया जानती है यह उनकी इच्छा और महान शहीद स्वतंत्रता सेनानियों तथा नागरिकों की एकता के कारण ही हो सका जो अंततः भारत की स्वतंत्रता के रूप में सबके सामने आया। आज इसी एकता की पुनः प्रतिस्थापना आवश्यक है , धर्म , जाति , क्षेत्र , निजी स्वार्थ की राजनीति को परे रखकर देश के व्यापक हित में एकता ही अखंडता को बनाए रख सकती है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 108 ☆ गज़ल – इंसान तो वही है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 108 ☆

☆ गज़ल – इंसान तो वही है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

पूरी उम्र लग गई आशियाँ बनाने में।

पल भर नहीं लगता उसको ढहाने में।

 

ये लोगो मत दो दुख एक – दूसरे को यहाँ,

चुटकियां लगती हैं आदमी को जाने में।।

 

इंसान तो वही है, जो दूसरों के काम आए।

आदमी ही क्या, जो खपा खुद के कमाने में।।

 

जीवन गुजर गया , न सुधर पाए आलसी,

उम्र ही बीती उनकी,  कर – कर बहाने में।।

 

कहाँ ये देश जगा, भाषा, जाति झगड़े में,

अनगिन हवन हो गए , इसको जगाने में।।

 

वक्त थोड़ा खुद समझ, ये नासमझ आदमी,

न मिलेगा जन्म, धरा को फिर से पाने में।।

 

मत बढ़ा समस्याएँ, खुद सुलझा भी ले मनुज,

मत बर्बाद कर समय, ताने व उलाहने में।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #114 – बालगीत – पानी चला सैर को ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बाल गीत  – “पानी चला सैर को।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 114 ☆

☆ बालगीत – पानी चला सैर को ☆ 

पानी चला सैर को 

संगी-साथी से मिल आऊ.

 

बादल से बरसा झमझम 

धरती पर आया था.

पेड़ मिले न पौधे 

देख, मगर यह चकराया था.

कहाँ गए सब संगी-साथी 

उन को गले लगाऊं.

 

नाला देखा उथलाउथला 

नाली बन कर बहता.

गाद भरी थी उस में 

बदबू भी वह सहता .

उसे देख कर रोया 

कैसे उस को समझाऊ.

 

नदियाँ सब रीत गई 

जंगल में न था मंगल.

पत्थर में बह कर वह 

पत्थर से करती दंगल.

वही पुराणी हरियाली की चादर 

उस को कैसे ओढाऊ.

 

पहले सब से मिलता था 

सभी मुझे गले लगते थे.

अपने दुःख-दर्द कहते थे 

अपना मुझे सुनते थे.

वे पेड़ गए कहाँ पर 

कैस- किस को समझाऊ. 

 

जल ही तो जीवन है 

इस से जीव, जंतु, वन है.

इन्हें बचा लो मिल कर 

ये अनमोल हमारे धन है.

ये बात बता कर मैं भी 

जा कर सागर से मिल जाऊ. 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/05/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (6 -10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (6 – 10) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

चन्द्र-ज्योत्सना कुमुदपति में ज्यों होती लीन।

त्यों कुश के संग हो सती कुमुद भी हुई विलीन।।6।।

 

कुश ने पाया स्वर्ग में अर्द्ध इन्द्रासन भाग।

इन्द्राणी की सखी हुई कुमुद भी पा पारिजात।।7।।

 

कुश के अंतिम वचन का रख मन मे अनुदेश।

बुद्ध मंत्रियों ने किया ‘‘अतिथि’’ का राजभिषेक।।8।।

 

बुला मिस्त्रियों को कहा करने नव निर्माण।

चौखम्भों पर वेदिका अभिषेक हित आसान।।9।।

 

भद्रपीठ पर बिठा तब अतिथि को सह सम्मान।

तीर्थ जलों से कराया सचिवों ने स्नान।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ५ मे – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ ५ मे -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

बालकवी  

मराठी वाङ्मयात ‘निसर्ग कवी’ म्हणून ज्यांचं नाव आजही कौतुकाने, आदराने, सन्मानाने घेतले जाते, ते बालकवी म्हजेच त्र्यंबक बापूजी ठोंबरे. त्यांचा जन्म १३ ऑगस्ट १८९० मध्ये झाला. ते अल्पायुषी होते. अवघं २८ वर्षाचं आयुष्य त्यांना लाभलं. ५ मे १९१८ मधे त्यांचं निधन झालं. लहानपणापासून ते कविता करायचे. रेव्ह. ना. वा. टिळक यांच्या सहवासात त्यांचा काही काळ गेला. त्यांची प्रतिभा ओळखून, टिळकांनी त्यांना आपल्या घरी नेले. ते आणि त्यांची पत्नी लक्ष्मीबाई यांनी त्यांच्यावर पुत्रवत प्रेम केले.

लक्ष्मीबाईंनी आपल्या ‘स्मृतिचित्रे’ या आत्मचरित्रात बालकवींच्या काही आठवणी दिल्या आहेत.

१९०७ मध्ये जळगाव येथे पहिले महाराष्ट्र कवीसंमेलन झाले. त्याचे अध्यक्ष होते, डॉ. कान्होबा रणछोडदास कीर्तिकर. या संमेलनात ठोंबरे यांनी कविता वाचल्यावर कीर्तिकरांनी त्यांना ‘बालकवी’ ही पदवी दिली.    

बालकवींनी निसर्गातील आनेक घटकांवर कविता केल्या. त्यामध्ये निसर्गातील घटकांचे मानवीकरण केलेले दिसते. उदा. ‘फुलराणी’, औदुंबर’ वास्तव वर्णनापेक्षा कल्पनेचा साज चढवून केलेलले वर्णन त्यांच्या कवितेत दिसते. त्यांच्या अनेक कवितेतून उदासीनता व्यक्त झालेली दिसते.

बालकवींच्या कवितेला आज 100 वर्षे होऊन गेली, तरी त्यांची कविता ताजी वाटते. नव्याने कविता लिहू लागलेली कविमंडळी आजही त्यांचं अनुकरण करताना दिसतात. ‘आनंदी आनंद गडे’, फुलराणी, औदुंबर, श्रवणमास, निर्झरास इ. त्यांच्या अनेक  कविता प्रसिद्ध आहेत.

बालकवींच्या निवडक कविता असलेली पुस्तके, वी.वा.शिरवाडकर, ना. धों महानोर, अनुराधा पोतदार, नंदा आपटे इ. नी संपादित केली आहेत.

बालकवींवर कृ. बा. मराठे, विद्याधर भागवत, दमयंती पंढरपांडे इ. नी लिहीले आहे. प्दमावती जावळे यांनी बालकवी आणि हिन्दी कवी सुमित्रानंदन पंत यांचा तौलनिक अभ्यास करून पुस्तक लिहिले आहे. आज त्यांचा स्मृतीदिन. त्या निमित्त त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ऊनझळा !… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ऊनझळा ! … ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

फुललेल्या पांगार्याने शिकवले मला,

दु:खातेही कसे हसायचे!

स्वत: झळा सोसून,

दुसर्यांना आनंद द्यायचे!

 

   केशरी पिसारा फुलवीत

    गुलमोहराने केला डौल,

   उन्हाला सांगितले

     मागे घे तुझे पाऊल!

 

  जांभळी,पिवळी तोरणे लावली

      कॅशियाने सभोवती!

  उन्हापासून धरतीला

      शीतलता देती!

 

  निवडुंगानेही साधली

   त्यातच आपली संगती

 लाल लाल बोंडफुलांनी

    सजवली ती हिरवी सृष्टी!

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #108 – कामगार…!☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 108 – कामगार…! ☆

परवा आमच्या कारखान्यातला

कामगार मला म्हणाला

आपण आपल्या हक्कासाठी

आदोलन करू.. मोर्चा काढू..

काहीच नाही जमल तर

उपोषण तरी करू…

पण..

आपण आपल्या हक्कासाठी

आता तरी लढू

बस झाल आता हे असं लाच्यारीने जगणं

मर मर मरून सुध्दा काय मिळतं आपल्याला

तर दिड दमडीच नाणं..

आरे..

आपल्याच मेहनतीवर खिसे भरणारे..

आज आपलीच मज्जा बघतात

आपण काहीच करू शकणार

नाही ह्या विचारानेच साले आज

आपल्या समोर अगदी ऐटीमध्ये फिरतात

आरे..

हातात पडणार्‍या पगारामध्ये धड

संसार सुध्दा भागत नाही…!

भविष्याच सोड उद्या काय

करायच हे सुद्धा कळत नाही

महागड्या गाडीतून फिरणार्‍या मालकांना

आपल्या सारख्या कामगारांच जगण काय कळणार..

आरे कसं सांगू..

पोरांसमोर उभ रहायचीही

कधी कधी भिती वाटते

पोर कधी काय मागतील

ह्या विचारानेच हल्ली धास्ती भरते

वाटत आयुष्य भर कष्ट करून

काय कमवल आपण..

हमालां पेक्षा वेगळं असं

काय जगलो आपण..!

कामगार म्हणून जगण नको वाटतं आता..!

बाकी काही नाही रे मित्रा..

म्हटल..एकदा तरी

तुझ्याशी मनमोकळ बोलाव

मरताना तरी निदान कामगार

म्हणून जगल्याच समाधान तेवढ मिळावं…!

म्हणूनच म्हटलं

आपण आपल्या हक्कासाठी

आदोलन करू… मोर्चा काढू…

नाहीच काही जमल तर

उपोषण तरी करू…पण

आपण आपल्या हक्कासाठी आता तरी लढू..

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अप्सरांचे गाणे… ☆ बालकवी ☆

? कवितेचा उत्सव  ?

☆ अप्सरांचे गाणे … ☆ बालकवी ☆ 

सुमनाच्या गर्भामाजी/रसगंगा भरली ताजी//

आलिंगुनि तिज ही बसली/ शुभ्र अद्रिशिखरे सगळी//

 

सांभाळुनि उतरा बाई/वेळ गडे! स्नानाची ही//

गर्द दाट मधली झाडी/मंद मंद हलवा थोडी//

 

पराग सुमने इवलाली/नीट बघता पायांखाली/

पुष्पांचा बसला थाट/हळूं हळूं काढा वाट//

 

गोड सुवासांचे मेघ/आळसले जागोजाग//

जलकणिका त्यांच्या पडती/थंडगार अंगावरती//

 

स्नान करू झडकरि बाई/पुनित ही गंगामाई//

रवि किरणांचे नवरंगी /रम्य झगे घालुनि अंगी//

 

गुंजतसे मंजुळ गीते/बैसुनि त्या भृंगावरते//

रंगत मग जगती जाऊ/हसू रूसू गाणी गाऊ//

 

 –  बालकवी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जागतिक व्यंगचित्रकार दिन ☆ श्री मिलिंद रतकंठीवार ☆

? विविधा ?

☆ जागतिक व्यंगचित्रकार दिन ☆ श्री मिलिंद रतकंठीवार ☆ 

जागतिक व्यंगचित्रकार दिनानिमित्त सर्व सामान्य नागरिकांचे, राजकीय सामाजिक कार्यकर्त्यांचे, पुढाऱ्यांचे, साहित्यिकांचे आणि व्यंगचित्रकारांचे मन:पूर्वक अभिनंदन !

आपल्या प्राचीन अन उन्नत अश्या भारतीय संस्कृतीने सर्व समावेशक ६४ कलांना मान्यता दिलेली आहे.  यात व्यंगचित्रकलेचा समावेश आहे की नाही, याची खात्री मला देता येत नाही. पण अर्वाचीन काळात व्यंगचित्रे हि एक स्वतंत्र कला म्हणून विकसित झालेली आहे.  एखादा चित्रकार व्यक्तिचित्रे रेखाटतांना मूळ व्यक्तीचे प्रमाणबद्ध चित्र रेखाटून त्या व्यक्ती विषयीची माहिती एक लेख लिहून व्यक्त करू शकतो. पण अर्कचित्रकला किंवा … व्यंगचित्रकला हि तर एक पराकोटीचीच कला आहे असे मला वाटते  ! कारण एक वेळ सरळ सरळ चित्रे रेखाटणे त्या मानाने सोप्पे.. कारण ती तत्सम प्रमाणबद्धतेने काढायची असतात.. पण एखाद्या व्यक्तीचे अतिशयोक्तीपूर्ण, उपरोधिक, प्रमाणाबाहेर असूनही प्रमाणातच चित्र काढणे केवळ अशक्यच… ती कला साधणे हे एक कठीण कार्य आहे. किंबहुना  ती कला उपजतच असावी. प्रमाणाबाहेरच्या रेषांनी देखील ती व्यक्ती बघणाऱ्यात ओळखायला येणे हे अत्यंत अवघड असे काम आहे. स्व इंदिरा गांधी यांचे चित्र आर के लक्ष्मण यांच्या अर्कचित्रांमध्ये बघताना इंदिराजींचे नाक बाकदार आणि प्रमाणाबाहेर मोठे असे काढलेले असायचे.. त्यावर इंदिरा गांधींनी आर के लक्ष्मण यांना विचारले, ” आप मेरी नाक इतनी लंबी क्यूँ बनते हो..? ” त्यावर हसून आर के नी तो विषय टाळला. पण इंदिराजींचे नाक, केश रचना इत्यादी त्यांची एक ओळख होती, ते वैशिष्ट्ये होते. त्यावर अधिक बल देऊन त्यांचे व्यंगचित्र अनेक कार्टूनिस्ट काढत होते. त्याला स्व बाळा साहेब ठाकरे हे देखील अपवाद नव्हते. बाळासाहेब ठाकरे हे जसे व्यंगचित्रकार होते, तसेच ते अन्य व्यंगचित्रकाराच्या दृष्टीने राजनेता देखील होते.. त्यामुळे ते देखील अनेकांच्या अर्कचित्राचे विषय असत.

एखाद्या प्रसंगातील विरोधाभास ओळखून, त्यातील फोलपणा सिद्ध करण्यासाठी , टीका करण्यासाठी, एका गंभीर विषयाचे विडंबन , त्यातील मेख ओळखून आपल्या चित्रांद्वारे समाजापुढे विचारार्थ ठेवणे एवढे प्रचंड सामर्थ्य अर्कचित्रकारांमध्ये  असावे लागते. त्यात विनोद आला, अतिशयोक्ती आली, मौन देखील आले..  रिडींग बिटवीन द लाईन्स हे या रेषांमध्ये साहित्या इतकेच नव्हे तर त्यापेक्षा अधिकच दिसते. मला आठवते, आणीबाणीच्या काळात टाइम्स ऑफ इंडियाने कार्टूनची जागा हि कोरीच ठेवली.. पण संपादकांची ती कृती निरंकुश राजकीय नेतृत्वाची, अहंकाराची निर्देशक ठरली. अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याची गळचेपी दर्शवणारी होती. एकदा एका वर्तमानपत्रातील संपादकीय अग्रलेखाची जागा देखील व्यक्तिस्वातंत्र्याच्या गळचेप्या वृत्ती निषेधार्थ संपादकांनी कोरी ठेवलेली होती. मौनं सर्वार्थ साधनम्…  दोन्ही कृती ह्या तश्या तुल्यबळच ! कदाचित कोऱ्या संपादकीयाने किंवा कोऱ्या अग्रलेखाने जे साध्य केले असेल, नसेल त्याहीपेक्षा अधिक व्यंगचित्राने साधल्या गेले असेल. एखादा अक्षरशत्रू देखील, व्यंगचित्राने व्यंगचित्रकाराच्या मनातील कटाक्ष, भाष्य, विरोधाभास, विपर्यास, उपहास  एका क्षणात समजू शकतो.

सुप्रसिद्ध व्यंगचित्रकार आर के लक्ष्मण यांनीं ” द डिस्टोरटेड मिरर” ह्या त्यांच्या गाजलेल्या कादंबरीत  त्यांनी रेखाटलेल्या व्यंगचित्रांची पार्श्वभूमी, भूमिका विशद केली. ” द डिस्टोरटेड मिरर” हे अतिशय समर्पक असे  शीर्षक त्यांच्या या अजोड कलाकृतीचे होते. आरश्यातील प्रतिमा हि प्रतिबिंबच असतो.. पण आपण स्वतःला  आरश्यात बघतो तेंव्हा अगदी तंतोतंत जसे च्या तसे प्रतिबिंब दिसत नाही .. डाव्यांचे उजवे, अन उजव्याचे डावे त्या प्रतिबिंबात दिसते. तसे ट्रू मिरर मध्ये मात्र जसेच्या तसे दिसते. याशिवाय अंतर्गोल, बाह्यगोल अर्थात कोन्वेक्स वा कोन्केव्ह आरसे हे त्या त्या व्यक्तीचे जणू व्यंगचित्रच दर्शवतात. एक प्रमाणबद्ध नसलेली, अवास्तव वेडीवाकडी प्रतिमा.. तरीही ओळखू येणारी त्यात दिसते. ती प्रतिमा, ते प्रतिबिंब आपले व्यंगचित्र आपण समजू या.

एखाद्या परिस्थितीचे आकलन एक तटस्थ, त्रयस्थ भूमिकेतून करून, सर्व सामान्यजनांपुढे शब्द विरहित, अक्षर विरहित किंवा मितभाषिक अशी रेषांची अभिव्यक्ती हि साधी कला नव्हे. अर्कचित्रकार हा अभ्यासू असायलाच हवा, त्याला परिस्थितीचे भान देखील असायला हवे .

Should cartoonists have a slant when it comes to their satire? “ I don’t feel that cartoonists have to take any side. I believe that a cartoonist is never a leftist or a rightist but can be a sadist”

राजकारणात व्यंगचित्रकाराने पक्षपाती असूच नये. डावा अतिडावा, उजवा अति उजवा असे कदापि असू नये. टीका टिप्पणी करताना त्याची भूमिका एखाद्या स्थितप्रज्ञा सारखीच असावी. त्याची संवेदनशीलता समाज हिताची, राष्ट्रहिताची असावी. 

पूर्वी जातक कथांमध्ये, विविध प्राणी आपापसात बोलतांना दाखवीत .. आणि त्यातून एक संदेश, एक बोध, एक संस्कार  मुलांना मिळायचा. अलीकडे राजकीय पक्षाला न रुचणारे विचार कार्टून द्वारे प्रकाशित झाल्याने, व्यंगचित्रकाराला जबर शिक्षा करण्यात आली. एवढेच नव्हे तर व्यंगचित्रकाराच्या हत्या देखील आपण बघितल्या . एवढे सामर्थ्य या कलेत आहे.

स्वातंत्र्यप्राप्तीनंतर वृत्तपत्रात तसेच साप्ताहिक, मासिकांत राजकीय व्यंगचित्राला मोठे करण्याचे काम शंकर्स विकलीचे शंकर आणि प्रसिद्ध चित्रकार व व्यंगचित्रकार दीनानाथ दलाल वगैरेंचे. त्यानंतरची पिढी अर्थातच आर. के. लक्ष्मण, ‘मार्मिक’कार बाळ ठाकरे, मारिओ मिरांडा, अबू इब्राहिम, सुधीर दास, कूटी वगैरे पिढीने गाजवली आणि भारतीय राजकारणात सत्ताधाऱ्यांना कायम चर्चेत आणि नैतिक धाकात ठेवत आपली व्यंगचित्र कारकीर्द गाजवली.

स्व बाळासाहेब ठाकरे यांनी तर आपल्या कुंचल्याने मार्मिक या त्यांच्या साप्ताहिकातून जागृती करून मराठी मन चेतवले, त्यांना संघटित करून एक बलाढ्य  राजकीय पक्ष उभारला.

व्यंगचित्र कला हि साहित्य या प्रकारात देखील मोडावी असे वाटते.. शब्दातीत असूनही, किंवा मितभाषी ही असून साहित्याचे कार्य ती साधते, ती एक परिपूर्ण अशी अभिव्यक्तीच आहे.

रविवार, 5 मे, 1895 रोजी, न्यूयॉर्क वर्ल्डच्या वाचकांना त्यांच्या  रोजच्या वर्तमान पत्रात एक नवीन पुरवणी मिळाली. ती पुरवणी म्हणजे त्या वर्तमान पत्राच्या पृष्ठांवर, वाचकांना रिचर्ड आउटकॉल्टची पूर्ण-रंगीत रेखाचित्रे आढळली. त्यात मोठ्या कानाचा, अनवाणी पायांचा लहान मुलगा खोडकर हसत असलेला दाखवल्या गेला. होगन आल्ये या नावाच्या कार्टूनची पहिली व्यक्तिरेखा कालांतराने द यलो किड म्हणून ओळखल्या जाऊ लागली. तीच व्यक्तीरेखा व्यावसायिकदृष्ट्या यशस्वी कार्टून आयकॉन ठरली. स्व आर के लक्ष्मण यांची कॉमन मॅन हि व्यक्तिरेखा वाचकांच्या मनात यशस्वीपणे रुजली. आंतरराष्ट्रीय स्तरावर देखील तिला मानाचे स्थान मिळाले. न्यूयॉर्क वर्ल्डच्या त्या ५ मे रोजी सुरु केलेल्या यशस्वी बदलामुळे दरवर्षी ५ मे हा राष्ट्रीय व्यंगचित्रकार दिन म्हणून पाळल्या जातो. अश्या या अद्भुत कलेचे आपण साक्षीदार आहोत, हि एक सन्मान्य बाब आहे.

 – श्री मिलिंद रतकंठीवार

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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