हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 92 – “कमर-कमर अंधियारा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कमर-कमर अंधियारा…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 92 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कमर-कमर अंधियारा”|| ☆

 

एक बहिन गगरी

कलशा एक भाई

लौट रही पनघट से

मुदिता भौजाई

 

प्यास बहुत गहरी पर

उथली घड़ोंची

पानी की पीर जहाँ

गई नहीं पोंछी

 

एक नजर छिछली पर

जगह-जगह पसरी है

सम्हल-सम्हल चलती है

घर की चौपाई

 

कमर-कमर अंधियारा

पाँव-पाँव दाखी

छाती पर व्याकुल

कपोत सदृश पाखी

 

एक छुअन गुजर चुकी

लौट रही दूजी

लम्बाया इन्तजार

जो था चौथाई

 

नाभि-नाभि तक उमंग

क्षण-क्षण गहराती है

होंठों ठहरी तरंग

जैसे उड़ जाती है

 

इठलाती चोटी है पीछे को

उमड़ -घुमड़

आज यह नई सन्ध्या

जैसे बौराई

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



English Literature – Poetry ☆ A Ponderable Question… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem  विचारणीय.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना 

? संजय दृष्टि – विचारणीय ??

मैं हूँ

मेरा चित्र है;

थोड़ी प्रशंसाएँ हैं

परोक्ष, प्रत्यक्ष

भरपूर आलोचनाएँ हैं,

 

मैं नहीं हूँ

मेरा चित्र है;

सीमित आशंकाएँ

समुचित संभावनाएँ हैं,

 

मन के भावों में

अंतर कौन पैदा करता है-

मनुष्य का होना या

मनुष्य का चित्र हो जाना…?

 

प्रश्न विचारणीय

तो है मित्रो!

© संजय भारद्वाज

(शुक्रवार, 11 मई 2018, रात्रि 11:52 बजे)

 

 ☆  A Ponderable Question… ☆ 

I am there

My picture is there;

A few compliments are there

Direct, indirect

Outright, implicit

many criticisms are also there…

 

I’m not there

But my picture is there;

circumscribed conjectures,

fearful surmise;

but reasonable possibilities do exist…

 

Who creates this discrimination in the human minds

between a man, and

his being a picture..?

It sure is a ponderable inquisition..!!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – भाषा ??

नवजात का रुदन;

जगत की पहली भाषा,

अबोध की खिलखिलाहट;

जगत का पहला महाकाव्य,

शिशु का अंगुली पकड़ना;

जगत का पहला अनहद नाद,

संतान का माँ को पुकारना;

जगत का पहला मधुर निनाद,

प्रसूत होती स्त्री, केवल

एक शिशु को नहीं जनती,

अभिव्यक्ति की संभावनाओं के

महाकोश को जन्म देती है,

संभवतः यही कारण है;

भाषा स्त्रीलिंग होती है..!

अपनी भाषा में अभिव्यक्त होना अपने अस्तित्व को चैतन्य रखना है।….आपका दिन चैतन्य रहे।

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 3:14 बजे, 13.9.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 138 ☆ अहसास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता “अहसास”।)  

☆ कविता # 137 ☆ अहसास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अपने गांव की 

पगडंडी पर

चलते हुए

धूप क्यों नहीं

लग रही है ?

 

जबकि शहर में

दुपहरी काटे नही

 कटती चाहे

कितनी भी फेक दे

एसी अपनी हवा,

 

गांव की गली

 में अमलतास

पसर जाता है

हमें देखकर,

 

और शहर के

अमलतास में

चल जाता है

बुलडोजर विकास

के नाम पर,

 

गांव के आंगन में

दाना चुगने आ गई

गौरैया की भीड़

हमें देखकर,

 

जबकि शहर में

गौरैया आंगन से

गायब सी हो गई

नहीं दिखती बहुत

चाहने पर,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 82 ☆ # ये महानगर है # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# ये महानगर है #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 82 ☆

☆ # ये महानगर है # ☆ 

ये महानगर है

सपनों का शहर है

दौड़ते हुए पांव है

कहीं धूप कहीं छांव है

कुछ पाने की तड़प है

तपती हुई सड़क है

खाली खाली हाथ है

सपनों का साथ है

आंखों में एक आस है

होंठों पर प्यास है

झुलसाती दोपहर है

ये महानगर है

 

जो दौड़ते दौड़ते गिर गया

वो दुखों से घिर गया

कितने रोज गिरते हैं

कितने रोज मरते हैं

किसको इसकी खबर है

सरकारें बेखबर है

सब अपने में मस्त हैं

रोटी कमाने में व्यस्त हैं

ना सर पर छप्पर

ना रहने को घर है

हां जी यह महानगर है

 

इस शहर के कई रंग है

यहां कदम कदम पर जंग है

यहां अमीर भी है

यहां गरीब भी है

यहां पल पल

बनते बिगड़ते नसीब भी है

ज़मीन से उठकर

कोई सितारा बन गया

लोगों की आंखों का

तारा बन गया

कोई अपनी प्रतिभा से

लोगों के दिलों में घर कर गया

कोई फुटपाथ पर जन्मा

फुटपाथ पे मर गया

ये शहर सबको देता अवसर है

हां भाई! ये महानगर है

 

जिनको यहां आना है

शिक्षित होकर आयें

अपने पसंद के क्षेत्र में जायें

संघर्ष करें, मेहनत करें

ना घबरायें

लक्ष्य को पाने

तन-मन से जुट जाएं

वो ही जीतकर

बाजीगर कहलाए

हार के आगे जीत है

आंसुओं के आगे प्रीत है

जो सदा जीतने के लिए

खेला है

उसके ही आगे पीछे

लगा मेला है

यहां हर रोज बनती

एक नई खबर है

हां भाई हां! यह महानगर है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (16 – 20) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

तब गये अहिनगु लोक त्याग, ‘परियात्र’ उठा सिर नग समान।

राजा हुये वैभवयुक्त सफल, निज पिता अहिनगु से महान।।16।।

 

पारियात्र पुत्र ‘शिल’ नामक था, जिसका था वक्षस्थल विशाल।

उसने अरियों को जीत बाण से भी, निज रक्खा विनत भाल।।17।।

 

तब विनत विवेकी युव ‘शिल’ को युवराज बनाकर राजा ने।

सुख पाया क्योंकि वैसे तो आती रहती सुख बाधायें।।18।।

 

आतृप्ति विषय-भोगो में तो, यौवन में लगती सुखदायी।

सौंदर्य-भोग में अक्षमता पर वृद्धावस्था नित लाई।।19।।

 

उस ‘शिल’ राजा का पुत्र हुआ ‘उन्नाभ’ जो था निश्चय गँभीर।

था विष्णु सदृश राजाओं के समुदाय में अनुपम धीर-वीर।।20।।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माहेर… ! ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माहेर… ! ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

(षडाक्षरी)

   माहेर विसावा,

  मनाला गारवा,

  भावाची ही छाया

  वहिनीची माया!

 

 आईची नजर,

प्रेमाची पाखर !

 थकल्या देहात,

माया ती अपार!

 

माहेर बंगली,

 प्रेमाची सावली!

माहेर प्रेमाने,

मनात गुंतली!

 

 माहेर ओसरी,

 प्रेमाची शिदोरी!

ओढ राही मनी,

  नित्य मनांतरी!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे #82 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 82 ? 

☆ अभंग…   ☆

 

वात कफ पित्त, त्रय दोष युक्त

नच कधी मुक्त, जीव पहा…!!

 

रोगाचे आगार, मानवाचा देह

सुटतो का मोह, कधी याला…!!

 

संपूर्ण आयुष्य, हावरट बुद्धी

नाहीच सुबुद्धी, याच्याकडे…!!

 

शेवट पर्यंत, पाहिजे म्हणतो

स्वतःचे करतो, अहंकारी…!!

 

वाईट आचार, सदैव साधतो

देवास भजतो, स्वार्थ हेतू…!!

 

कवी राज म्हणे, स्वभाव जीवाचा

उपाय कुणाचा, चाले ना हो…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 18 – असतील शिते तर जमतील भुते ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 18 –  असतील शिते तर जमतील भुते ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प

नरेंद्र ब्राह्मो समाजाच्या कामात, त्यांच्या मतप्रणालीत आतापर्यंत चांगला मुरला होता. त्यामुळे श्री रामकृष्णांबरोबर पूर्ण वेळ काम करण्याचे अजून त्याचे मन मानत नव्हते. बर्‍याच दिवसांत नरेंद्र दक्षिणेश्वरला गेला नव्हता. त्यामुळे रामकृष्णांचे मन सुद्धा नरेंद्रला भेटण्यास उत्सुक होते. ब्राह्मो  समाजात गेलं तर, नरेंद्र तिथे नक्की भेटेल असं त्यांना वाटलं आणि ते सरळ संध्याकाळी उपासनेच्या वेळी ब्राह्मो समाजात गेले. त्यावेळी आचार्य, वेदिवरून धर्मोपदेश देत होते. त्यांच्या ईश्वरीय गोष्टी ऐकून रामकृष्ण सरळ वेदीजवळ जाऊन पोहोचले, याचा अंदाज नरेंद्रला होताच. लगेच तोही त्यांच्या पाठोपाठ वेदीजवळ गेला आणि त्यांना सावरू लागला. यावेळी आचार्य, आसनावरून उठले नाहीत आणि रामकृष्णान्शी बोलले देखील नाहीत. साधा शिष्टाचार सुद्धा पाळला नाही. नरेन्द्रनी, कसेतरी     श्री रामकृष्णांना सभागृहाबाहेर काढून, त्यांना दक्षिणेश्वरला रवाना केले. त्यांचा आपल्यासाठी असा झालेला अपमान नरेंद्रला सहन झाला नाही. या जाणिवेने क्षुब्ध आणि व्यथित होऊन नरेन्द्रने त्या दिवसापासून ब्राह्मो समाजाचे काम सोडले ते कायमचेच.

नरेंद्र बी.ए.ला शिकत असतानाच विश्वनाथ बाबूंनी त्यांचे मित्र, निमईचरण बसू यांच्याकडे कायद्याच्या शिक्षणाची सोय केली होती. त्याच्या जीवनात स्थैर्य यावं, म्हणून त्यांचा प्रयत्न चालला होता. घरी नेहमी पाहुणे रावळे, येणारे जाणारे, नातेवाईक यांची वर्दळ असे. त्यामुळे नरेंद्र अभ्यासाला आजीकडे जात असे. साधे अंथरूण, आवश्यक पुस्तके, एक तंबोरा एव्हढेच त्याचे सामान असे. एकांतवास, ध्यानधारणा, कठोर शारीरिक नियम असा ब्रम्हचार्‍याचा दिनक्रम असे. काही वेळा तर श्रीरामकृष्ण सुद्धा तिथे येऊन साधनेसंबंधी उपदेश देऊन जात असत. काही नातेवाईक आणि मित्रांना हे वागणे आवडत नसे. सर्वजण आध्यात्मिकतेपासून नरेंद्रला परावृत्त करण्याचा प्रयत्न करत असत. मात्र तरीही नरेंद्र चे मित्रांना भेटणे सुरू असे.

एकदा असेच वराहनगर मध्ये मित्राकडे सर्व जमले होते. गप्पागाणी यात सर्व दंग झाले असताना, अचानक घाबरलेल्या अवस्थेत एकाने येऊन, नरेंद्रच्या वडिलांची हृदयक्रिया बंद पडून ते गेल्याची बातमी दिली. या बातमीने सगळ्या झगमगाटात सुद्धा नरेंद्रला सगळीकडे अंधार दिसू लागला. ताबडतोब तो घरी आला. ते दृश्य पाहून, पितृशोकाने नरेंद्रचे वज्रदृढ हृदय वितळून अश्रुंच्या धारा लागल्या.

आता भविष्यकाळ कसा असेल? आता दर महिन्याचा हजारो रूपयांचा खर्च कसा चालवायचा? भुवनेश्वरी देवींना आकाश फाटल्यासारखं झालं. संसारासंबंधी नेहमी उदासीन असलेल्या नरेंद्रला दारिद्र्याच्या कल्पनेने गांगरून जायला झालं. अनुकूल अवस्थेत अगदी जवळची म्हणवणारी, प्रतिकूल अवस्था येताच जवळचीच मंडळी पारखी होऊ लागली. विपन्नावस्थेत कुणी साथ देत नाहीत ही जगाचीच रीत. नरेन्द्रनाथाच्या तीक्ष्ण बुद्धीला सर्व उमजलं आणि समजलं सुद्धा. हे बसणारे चटके ते नेटाने आणि धैर्याने सहन करू लागले होते.

एकीकडे वकिलीची परीक्षा देत होते. दुसरीकडे कामधंदा, नोकरी शोधत होते. तीन चार महीने असेच गेले. घरात धान्याचा कण नसल्याने एखाद्या दिवशी सर्वांना उपाशीच झोपावे लागे. जवळच्या मित्रांना त्याने हे कळू दिलं नव्हतं. कधी अन्न आहे पण सर्वांना पुरेसे नाही. असे पाहून नरेंद्रनाथ, “आज मला एकाने जेवायला खूप आग्रह केला आहे, तेंव्हा, मी आज घरी जेवणार नाही” असे खोटेच भुवनेश्वरी देवींना सांगून कडकडीत उपास करत असे.

अशा लागोपाठ उपवासांनी तर एकदा ग्लानी येऊन  निपचीतच पडले. काही जवळचे मित्र आर्थिक मदत करायला पुढे येत, त्यांची मदत ते सविनय परत करत असत. पोटाची खळगी भरण्यासाठी भिक्षा स्वीकारायची हे त्यांना असह्य होत असे. कधी कधी मित्र त्याला घरी जेवायला बोलावण्याचा प्रयत्न करीत. तेंव्हा कामाचा बहाणा करून नरेंद्र टाळत असे. नाहीतर कधी खोटा खोटा आव आणत जेवायला जात असे तेंव्हा त्यांच्या मनात कालवाकालव होऊन, डोळ्यासमोर, भुकेने कोमेजलेली आपली लहान लहान भावंडे दिसत.

तारुण्यात पाय ठेवत असतानाच भाग्यचक्र अचानक पालटल्यामुळे, पितृछत्र गेल्याने नरेन्द्रनाथ कुटुंबाचा पालनपोषणाचा भार सांभाळत असतानाच आणखी एक अरिष्ट आलं. नातेवाइकांनी कुटुंबाला घराबाहेर काढण्याचा डाव रचून कोर्टात फिर्याद दाखल केली.

एक दिवस सकाळच्या प्रहरी उठता उठता भगवंताचे नाव घेऊन नरेंद्र अंथरुणातून उठत असताना, आईने ऐकले आणि त्वेषाने संतपून त्यांना म्हणाली, “ चूप रहा कार्ट्या, लहानपणापासून केवळ भगवान आणि भगवान. फार छान केलं भगवानानं?” हे शब्द ऐकून नरेन्द्रनाथाच्या व्यथित मनाला घरे पडली. तसच भाग्य फिरताच, वडिलांच्या जुन्या मित्रांचं वागणं पाहून नरेंद्र अचंभीत झाला. जगाच्या ह्या शोचनीय कृतघ्नतेचे बीभत्स रूप पाहून त्याचं मन बंडखोर होऊन उठलं.

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तो आणि ती – भाग -1 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? जीवनरंग ❤️

☆ तो आणि ती – भाग -1 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

वयाच्या विसाव्या वर्षी कॉलेजमध्ये भेटलेले तो आणि ती. पहिल्या नजरेत नाही पण जसजसे एकत्र दिवस गेले तेंव्हा  त्यांना कळून चुकले की ते एकमेकांसाठीच जन्माला आले आहेत. चोरून भेटणे आणि चोरून प्रेम करण्याची एक वेगळी मजा असते ती दोघांनी चांगल्या प्रकारे अनुभवली. कॉलेजमधले प्रेमाचे ते सुवर्ण दिवस भराभर पुढे सरकले आणि दोघांनी विवाहबंधनात अडकण्याचा निर्णय घेऊन स्वतःचं एक घरकुल  उभं केलं. लग्नाची पहिली २-३ वर्षे छान गुलाबी, मऊ, तरल आणि स्वप्नाळू असतात,  हातात हात घालून गप्पा मारायची  असतात, नवनवीन स्वप्न रंगवायची असतात. त्यांचीही ती दोन तीन वर्षे तशीच गेली. थोडी हौस मौज झाली.  थोडे हिंडणे फिरणे झाले, एकमेकांना भेट वस्तू दिल्या गेल्या. तो आणि ती खूप खुषीत होते.

पण त्यांचे हे दिवस पटकन उडून गेले. त्याच काळात त्यांचे बँकेत जमवलेले शून्य थोडेसे कमी झाले. त्याचवेळी त्यांना हळूच चाहुल लागली बाळाची आणि वर्षभरातच त्यांच्या नवीन घरात एक पाळणा हलू लागला. आता तो आणि ती जरा गंभीर झाले. त्यांच्या वयापेक्षा ते जास्त जबाबदार झाले. त्या दोघांनी एकमेकांच्या खुषीचा विचार न करता त्यांचे सर्व लक्ष आता त्यांच्या बाळावर केंद्रीत केले. त्याचे खाणे पिणे, शू – शी,  त्याची खेळणी, त्याचे कपडे,  त्याचे लाड कौतुक वेळ कसा फटाफट निघून जात होता. सुरूवातीला  सगळे दोघे मिळून करत होते ॰नंतर तिच्यावर  बाळाच्या सगळ्या जबाबदाऱ्या आल्या आणि तिचा हात नकळत त्याच्या हातून सूटत गेला. तो ही आता जास्त मेहनत घेऊन जास्तीत जास्त पैसा कमविण्याचा प्रयत्न करत होता. त्यासाठी त्याचा जास्त वेळ  घराबाहेर जाऊ लागला होता. त्यांचे गप्पा मारणे, हिंडणे, फिरणे केव्हाचं बंद झालेले होते आणि विशेष म्हणजे दोघांच्याही हे लक्षात आलेले नव्हते.

अशातच दोघांनी तिशीचा उंबरठा ओलांडलेला होता. बाळ मोठा होत होता.  तो आणि ती दोघेही स्वतःच्या  आवडी निवडी आणि गरजा बाजूला ठेऊन बाळाचे जमेल तसे लाड करत होते. . ती बाळात जास्त गुरफटत जाते आणि तो आपल्या कामात जास्त गुरफटत जातो. घराचा हप्ता, बाईकचा हप्ता आणि त्यात बाळाची वाढत जाणारी जबाबदारी, त्याच्या  शिक्षणाची, भविष्याची सोय आणि महत्वाचे म्हणजे बँकेतल्या शिलकीचे शून्य वाढवायचा ताण. घरात  लहान  लहान  कारणांवरून  दोघांमध्ये  वाद  चालू  होऊन  त्याचे  रूपांतर  छोट्या  भांडणात  होऊ  लागले  तरीही  तो  पूर्णपणे  स्व:तला  कामामध्ये झोकून देतो. बाळाचे शाळेत जाणे चालू होते. बाळ  मोठा  होऊ लागतो. आता  तिचा  सगळा वेळ त्याच्या मागे मागे करण्यातच सरतो.

एव्हाना पस्तीशी आलेली असते. स्वतःचे  घर त्यांनी  चांगले सजविलेले असते.  हप्त्याने  दाराशी  चार  चाकी गाडी  आलेली  असते.  बैंकेत बऱ्यापैकी नाही पण पाच शून्य जमा झालेले असतात पण तरीही काही तरी कमी असते आणि ते म्हणजे समाधान.

रोजच्या धावपळीमुळे तिची चिडचिड वाढलेली असते आणि त्याचा ही वैताग वाढलेला असतो. आणि तो मग दर वीकेंड ला आपल्या मित्रांबरोबर बैठका सुरु करतो. सुरवातीच्या एकच प्यालाने झालेली सुरवात पुढच्या पाच एक वर्षात एका क्वार्टर पर्यंत पोचते.

दिवसामागुन दिवस जात असतात. बाळ मोठे होते. आता त्याचे स्व:तचे एक विश्व तयार होते. त्याची दहावी येते आणि त्याची दहावी येईपर्यंत दोघांनीही चाळीशी ओलांडलेली असते.

क्रमशः…

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈