हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खूबसूरती ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  खूबसूरती  

 

..लाल रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..पीले रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..सफेद रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..नीले रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

..गुलाबी रंग में तुम बहुत खूबसूरत लगती हो।

“ऐसे मैसेज भेजता है रोज़। उसकी आँखों में कहीं ‘कलर ब्लाइंडनेस’ तो नहीं आ गया”, आशंकित होकर उसने अपनी सहेली से पूछा।

“बेवकूफ है तू। दरअसल खूबसूरती उसकी आँख में बसी हुई है”, सहेली ने गहरा साँस लेकर कहा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 9.50, 24.12.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 6 ☆ गीत –  कुछ मित्र मिले ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  मित्रों को समर्पित एक गीत  “ कुछ मित्र मिले.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 6 ☆

☆   कुछ मित्र मिले ☆ 

 

ये कैसा

सफर सुहाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

जीवन तो आना जाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

आशाओं में

खोजा जीवन

यह धरा बनी सुख संजीवन

हर चेहरे पर ही

खिले सुमन

पावन मन चंदन-सा उपवन

 

ये कैसा

खोना -पाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

पथ नए बने

गंतव्य नया

फिर भी हम

भूले-भटके हैं

कुछ प्रश्न अधूरे हैं

अब भी

पूरा करने में अटके हैं

 

ये कैसा

ताना-बाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

 

मैं खोज रहा हूँ

अपने को

पर चाहत अभी अधूरी है

झरने-सा बहता हूँ

पावन

सागर से

अब भी दूरी है

 

ये कैसा

गीत पुराना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

 

जो प्रेम डगर

मुझको भाती

दे जाती है नूतन सपने

हर दिल को

पढ़कर यह जाना

जो कटे-कटे रहते अपने

 

ये कैसा

मन भरमाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 25 ☆ व्यंग्य – एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी”.  समाज में सोशल मीडिआ पर संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करते  हुए इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 25 ☆ 

☆  एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी

 

एक बुढ़िया जो जिंदगी से बहुत परेशान थी जंगल से लकड़ियां बीनकर उन्हें बेचकर अपनी गुजर बसर कर रही थी। एक दिन वह थकी हारी लकड़ी का गट्ठर लिये परिस्थितियो को कोसती हुई लम्बी सांस भरकर बोल उठी, यमराज भी नहीं ले जाते मुझे ! बाई दि वे यमराज वहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बुढ़िया की पुकार सुनाई दी तो वे तुरंत प्रगट हो गये। बोले कहो अम्मा पुकारा। तो अम्मा ने तुरंत पैंतरा बदल लिया बोली, हाँ बेटा जरा यह लकड़ी का गट्ठर उठा कर सिर पर रखवा दे। कहने का आशय है कि मौत से तो हर आदमी बचना ही चाहता है। जीवन बीमा कम्पनियो की प्रगति का यही एक मात्र आधार भी है,पर भई मान गये आतंकवादी भैया  तो बड़े वीर हैं उन्हें तो खुद की जान की ही परवाह नहीं, बस जन्नत में मिलने वाली की हूरो की फिकर है। तो तय है कि समूल नाश होते तक ये तो आतंक फैलाते ही रहेंगे। आज दुनिया में कही भी कभी भी कुछ न कुछ  करेंगे ही। निर्दोषों की मौत का ताण्डव करने का सोल कांट्रेक्ट इन दिनो आई एस आई एस को अवार्डेड है।

बड़ी फास्ट दुनिया है, इधर बम फूटा नही, मरने वालो की गिनती भी नही हो पाई और ट्वीट ट्रेंड होने लगे। फ्रांस के आतंकी ट्रक की बैट्रेक दौड़ पर, हर संवेदन शील आदमी की ही तरह दिल तो मेरा भी बहुत रोया। दम साधे,पत्नी की लाई चाय को किनारे करते हुये मैं चैनल पर चैनल बदलता रहा। जब इस दुखद घटना की रिपोर्ट के बीच में ही ब्रेक लेकर चैनल दन्त कान्ति से लेकर निरमा तक के विज्ञापन दिखाने लगा पर मैं वैसा ही बेचैन होता रहा तो पत्नी ने झकझोर कर मेरी चेतना को जगाया और अपनी मधुर कर्कश आवाज में अल्टीमेटम दिया चाय ठण्डी हो रही है, पी लूं वरना वह दोबारा गरम नही करेगी। चाय सुड़पते हुये  बहुत सोचा मैने, इस दुख की घड़ी में, मानवता पर हुये इस हमले में मेरे और आपके जैसे अदना आदमी की क्या भूमिका होनी चाहिये ?

मुझे याद है जब मैं छोटा था, मेरे स्कूल से लौटते समय  एक बच्चे का स्कूल के सामने ही ट्रक से एक्सीडेंट हो गया था, हम सारे बच्चे बदहवास से उसे अस्पताल लेकर भागे थे, मैं देर रात तक बस्ता लिये अस्पताल में ही खड़ा रहा था, और उस छोटी उम्र में भी अपना खून देने को तत्पर था।  थोड़ा बड़ा हुआ तो बाढ़ पीड़ीतो के लिये चंदा बटोरकर प्रधानमंत्री सहायता कोष में जमा करने का काम भी मेरे नाम दर्ज है । मेरा दिल तो आज भी वही है। जब भी आतंकवादियो द्वारा निर्मम हत्या का खेल खेला जाता है तो मेरे अंदर का  वही बच्चा मुझ पर हावी हो जाता है। पर अब मैं बच्चा नहीं बचा,दुनिया भी बदल गई है न तो किसी को मेरा खून चाहिये न ही चंदा। मुझे समझ ही नही आता कि इस स्थिति में मैं क्या करूं ?

तो आज ट्रेंडिग ट्वीट्स ने मेरी समस्या का निदान मुझे सुझा दिया है। और मैने भी हैश टैग फ्रांस वी आर विथ यू पर अपनी ताजा तरीन संवेदनायें उड़ेल दी हैं और मजे से बर्गर और पीजा उड़ा रहा हूं। हो सके तो आप अपनी भी एक ट्वीटी संवेदना जारी कर दें और जी भरकर कोसें आतंकवादियो को हा हा ही ही के साथ।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 27 – गोष्ट..! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता गोष्ट..! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #27☆ 

 

☆  गोष्ट..! ☆ 

 

माझा बाप

माझ्या लेकरांना मांडीवर घेऊन

गावकडच्या शेतातल्या खूप गोष्टी सांगतो..

तेव्हा माझी लेकरं

माझ्या बापाकड हट्ट करतात

राजा राणीची नाहीतर परीची

गोष्ट सांगा म्हणून तेव्हा..

बाप माझ्याकडं आणि मी बापाकड

एकटक पहात राहतो

मला…

कळत नाही लेकरांना

कसं सांगाव

की राजा राणीची आणि परीची

गोष्ट सांगायला

माझ्या बापान कधी अशी स्वप्न

पाहिलीच नाहीत..,

त्यान..

स्वप्न पाहिली ती फक्त..

शेतातल्या मातीची

पेरणीनंतरच्या पावसाची..,

त्याच्या लेखी

नांगर म्हणजेच राजा

अन् माती म्हणजेच राणी

मातीत डोलणारी पिक म्हणजेच

त्यान जिवापाड जपलेली परी…,

 

© सुजित कदम, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 29 ☆ चिंता / फिकर ( हिन्दी / मालवी ) ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी  एक  मालवो  मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक मालवी कथा एवं उसका हिंदी भावानुवाद  “ चिंता / फिकर ” बच्चों के लिए ही नहीं बड़ों के लिए भी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #29 ☆

☆ हिन्दी लघुकथा – चिंता☆

 

“अरे किसन ! लाठी ले कर किधर जा रहा है ? मछली खाने की इच्छा है ?”

“नहीं रे माधव ! गर्मी में पांच मील पानी लेने जाना पड़ता है. उसी का इंतजाम करना चाहता हूँ.”

“इस लाठी से ?” किसन से लम्बी और भारी लाठी देख कर माधव की हंसी छुट गई.

“हंस क्यों रहा है माधव. पिताजी की लाठी से डर कर मैं स्कूल जाना छोड़ सकता हूँ तो नदी बहना क्यों नहीं छोड़ सकती है ?”

 

☆ लघुबाता – फिकर (मालवी) ☆

`

“अरे ओ किसनवा ! लठ ले के कठे जा रियो हे  ? मच्छी मारवा की ईच्छा हे कई ?”

“नी रे , माधवा ! गरमी मा पाच कौस पाणी लेवा नी जानो पड़े उको बंदोबस्त करी रियो हु.”

“ई लाठी थी ?” किसनवा से मोटी व वजनी लाठी देख कर माधवा की हंसी छुट गइ.

“हंस की रियो रे माधवा. बापू की लाठी से डरी ने मूँ सकुल जानो रुक सकू तो ये नदि का नी रुक सके”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – नवम अध्याय (3) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

नवम अध्याय

( प्रभावसहित ज्ञान का विषय )

 

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ।।3।।

 

धर्महीन श्रद्धारहित पुरूष सभी हे पार्थ!

मुझे न पा नित भटकते मृत्यु दुख के मार्ग।।3।।

 

भावार्थ :  हे परंतप! इस उपयुक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं।।3।।

 

Those who have no faith in this Dharma (knowledge of the Self), O Parantapa (Arjuna), return to the path of this world of death without attaining Me!।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 29 – मला प्रभावित करणा-या स्त्रिया ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनका एक संस्मरणात्मक आलेख   “मला प्रभावित करणा-या स्त्रिया.  सुश्री प्रभा जी  ने  अतिसुन्दर, सहज एवं सजीव  रूप से उन सभी स्त्रियों  के साथ अपने संस्मरणों पर विमर्श किया है, जिन्होंने उनके जीवन को प्रभावित किया है। ऐसा अनुभव होता है जैसे वे क्षण चलचित्र की भांति हमारे नेत्रों के समक्ष व्यतीत हो रहे हों।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 29 ☆

☆ आलेख – मला प्रभावित करणा-या स्त्रिया ☆ 

मला वाचनाची आवड  इयत्ता  आठवी/ नववीत लागली. मी शिरूर च्या विद्याधाम प्रशालेत शिकत होते. आम्ही पुण्याहून  शिरूर ला आमचे  नातेवाईक पवार यांच्या घराजवळ रहायला गेलो. पवारांचं सरदार घराणं! पवार काकी खरोखरच एक घरंदाज खानदानी व्यक्तिमत्व, त्यांचा प्रभाव माझ्यावर निश्चितच पडला. त्यांच्याच घरात वाचनाची गोडी लागली. पवार काकींची पुस्तकाची लायब्ररी समोरच होती. एक कादंबरी  आणि  एक मासिक मिळत  असे. तो काळ मराठी लेखिकां चा सुवर्णकाळ होता. पण शैलजा राजे या लेखिकेच्या कथा कादंब-या मी त्या काळात खुप वाचल्या. साकव .साकेत.. दोना पाॅवला, अनुबंध   इ. त्या काळात त्या माझ्या आवडत्या लेखिका बनल्या. पुढे पुण्यात आल्यावर माझ्या घराच्या  अगदी जवळच “सुंदर नगरी” त त्या रहायला होत्या. मी धाडस करून त्यांना भेटायला गेले. त्या काळात आमचा दूधाचा व्यवसाय होता. मी त्यांच्या साठी डब्यात खरवस घेऊन गेले होते. त्या डब्यात त्यांनी बोरं घालून दिली.. रिकामा डबा देऊ नये म्हणून… त्या नंतर मी त्यांच्या घरी  अनेकदा गेले… त्या खुप छान आणि  आपुलकीने बोलायच्या. माझ्या कविता त्यांनी खुप लक्षपूर्वक  ऐकल्या होत्या आणि छान दाद ही दिली होती. पुढे मी अभिमानश्री हा दिवाळी अंक सुरु केल्यावर त्यांनी अंकासाठी कथा ही दिली होती.

विद्या बाळ, छाया दातार, गौरी देशपांडे या स्रीवादी लेखिकांचाही माझ्यावर खुप प्रभाव राहिला आहे…..

मी स्रीवादी बनू शकले नाही. पण स्रीवादी चळवळीचा आणि विचारसरणी चा प्रभाव माझ्यावर आहे. विद्याताई बाळ यांचा नारी समता मंच  आणि मिळून सा-याजणी मासिकामुळे परिचय झाला. गौरी देशपांडे चे साहित्य मी झपाटल्यासारखे वाचले आणि पीएचडी साठी “गौरी देशपांडे च्या समग्र साहित्याचा चिकित्सक  अभ्यास” हा विषय घेतला होता त्या संदर्भात गौरी देशपांडें शी काही पत्रव्यवहारही झाला (त्या काळात त्या परदेशात  असल्यामुळे) पण  माझे संशोधन पूर्ण होऊ शकले नाही. आणि त्यांच्या प्रत्यक्ष भेटीची  इच्छा ही पूर्ण होऊ शकली नाही.

वरील सर्व स्त्रियां चा माझ्या  आयुष्यावर  प्रभाव राहिला आहे हे नक्की.

प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी हे सुद्धा लहानपणापासून आवडणारं प्रभावी व्यक्तिमत्व!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  समीक्षा 

आज कुछ

नया नहीं लिखा?

उसने पूछा..,

मैं हँस पड़ा,

वह देर तक

पढ़ती रही मेरी हँसी,

फिर ठठाकर हँस पड़ी,

लंबे अरसे बाद मैंने

अपनी कविता की

समीक्षा पढ़ी!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 12.46, 23.12.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 9 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 9 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

श्री रामचंद्रन ने गांधीजी से सरल भाव से पूंछा :  “ क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?

गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा : ‘ वैसा मैं कैसे कह सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत-कुरेदनी  भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, पर वह किसी ख़ास वर्ग की नहीं बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। कुछ गिने गिनाये लोगों के पास सम्पत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोडो की गर्दन पर कुछ लोगों के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रो के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण हैं वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। आज की इस चालू अर्थ-व्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी तमाम ताकत लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।

श्री रामचंद्रन ने आतुरता से पूंछा : ‘तब तो बापूजी, आपका झगड़ा यंत्रों के खिलाफ नहीं, बल्कि आज यंत्रों का जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके खिलाफ है?’

गांधीजी ने कहा : ‘ज़रा भी आनाकानी किये बिना मैं कहता हूँ कि ‘हाँ’। लेकिन मैं इतना जोड़ना चाहता हूँ कि सबसे पहले यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए। फिर मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जायेगा, और यंत्र रुकावट बनने के बजाय मददगार हो जायेंगे। मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है।

श्री रामचंद्रन ने कहा: ‘इस दलील को आगे बढ़ाएं तो उसका मतलब यह होता है कि भौतिक शक्ति से चलने वाले और भारी पेचीदा तमाम यंत्रों का त्याग करना चाहिए।‘

गांधीजी ने मंजूर करते हुए कहा: ‘त्याग करना भी पड़े। लेकिन एक बात मैं साफ़ करना चाहूँगा। हम जो कुछ करें उसमे मुख्य विचार इंसान के भले का होना चाहिए। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। इसलिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। जैसे सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा। आज की सब खोजों में जो बहुत काम की थोड़ी चीजें हैं, उनमे से एक यह सीने की मशीन है। उसकी खोज के पीछे अद्भुत इतिहास है। सिंगर ने अपनी पत्नी को सीने और बखिया लगाने का उकतानेवाला काम करते देखा। पत्नी के प्रति रहे उसके प्रेम ने गैर-जरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए सिंगर को ऐसी मशीन बनाने की प्रेरणा दी। ऐसी खोज करके उसने ना सिर्फ अपनी पत्नी का श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी सीने की मशीन खरीद सकते हैं, उन सबको हाथ से सीने के उबानेवाले श्रम से छुड़ाया है।‘

श्री रामचंद्रन ने कहा: ‘लेकिन सिंगर की सीने की मशीनें बनाने के लिए तो बड़ा कारखाना चाहिए और उसमे भौतिक शक्ति से चलने वाले यंत्रों का उपयोग करना पडेगा।‘

गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा : ‘हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुंचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुंचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं,उनमे से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था,इसलिए मानव-सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है कि मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लोहारों का तकुवे बनाने का काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढा हो जाय तब हरेक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए  लोभ की जगह हम प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।‘

महादेव हरी भाई देसाई इस चर्चा के समापन में लिखते हैं कि : ‘ मुझे नहीं लगता कि ऊपर के संवाद में गांधीजी ने जो कहा है, उसके बारे में इन आलोचनाओं में से किसी का सिद्धांत के दृष्टी में विरोध हो। देह की तरह यंत्र भी, अगर वह आत्मा के विकास में मदद करता हो तो, और जितनी हद तक मदद करता हो उतनी हद तक ही उपयोगी है।‘

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सच्चा फैसला ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

( आज प्रस्तुत है  श्रीमती छाया सक्सेना जी का एक विचारणीय  व्यंग्यात्मक किन्तु सत्य के धरातल पर रचित विचारणीय आलेख “सच्चा फैसला”. हम भविष्य में भी उनकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे.)

☆ सच्चा फैसला☆

जब भी सम्मान पत्र बँटते हैं, उथल -पुथल, गुट बाजी,  किसी भी संस्था का दो खेमों में बँट जाना स्वाभाविक होता है ।  कई घोषणाएँ सबको विचलित करने हेतु ही की जाती हैं  जिससे जो जाना चाहे चला जाए क्योंकि ये दुनिया तो  कर्मशील व्यक्तियों से भरी है ऐसा कहते हुए संस्था के एक प्रतिनिधि  उदास होते हुए माथे पर हाथ रखकर बैठ गए।

इस समूह में कुछ विशिष्ट जनों पर ही टिप्पणी दी जाती है, वही लोग आगे- आगे  बढ़कर  सहयोग करते दिखते हैं या नाटक करते हैं पता नहीं ।

क्या मेरा यह अवलोकन ग़लत है …?  मुस्कुराते हुए एक सामान्य सदस्य ने पूछा ।

वर्षो से संस्था के शुभचिन्तक रहे विशिष्ट सदस्य ने गंभीर मुद्रा अपनाते हुए, आँखों का चश्मा ठीक करते हुए कहा बहुत ही अच्छा प्रश्न है ।

सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु सभी कार्यों में तन मन धन से सहभागी बनें, सबकी सराहना करें, उन्हें सकारात्मक वचनों से प्रोत्साहित  करें, ऐसा करते ही सभी उत्तर मिल जाएंगे ।

सामान्य सदस्य ने कहा मेरा कोई प्रश्न ही नहीं, आप जानते हैं, मैं तो ….

अपना काम और जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाता हूँ । आगे जो समीक्षा कर रहा है कामों की वो जाने।

एक अन्य  विशिष्ट  सदस्य  ने कहा आप भी  कहाँ की  बात ले बैठे  ये तो सब खेल है कभी भाग्य, कभी कर्म का, बधाई पुरस्कृत होने के लिये आपका भी तो नाम है ।

आप हमेशा ही सार्थक कार्य करते हैं, आपके कार्यों का सदैव मैं प्रशंसक हूँ ।

तभी एक अन्य सदस्य  खास बनने की कोशिश करते हुए कहने लगा,  कुछ लोगों को गलतफहमी है मेरे बारे में, शायद पसंद नहीं करते ……मुँह बिचकाते हुए बोले,  मैं तो उनकी सोच बदलने में असमर्थ हूँ और समय भी नहीं  ये सब सोचने का….।

पर कभी कभी लगता है  चलिए  कोई बात नहीं ।

जहाँ लोग नहीं चाहते मैं रहूँ सक्रियता कम कर देता हूँ । जोश उमंग कम हुआ बस..।

सचिव महोदय जो बड़ी देर से सबकी बात सुन रहे थे  कहने लगे #इंसान की कर्तव्यनिष्ठा उसके कर्म सबको आकर्षित करते हैं। समयानुसार  सोच परिवर्तित  हो जाती है।

मुझे ही देखिये  कितने लोग पसंद करते हैं.. …. हहहहहह ।

अब भला संस्था के दार्शनिक महोदय भी  कब तक चुप रहते  कह उठे #जो_व्यक्ति_स्वयं_को_पसंद_करता_है उसे ही सब पसंद करते हैं ।

सामान्य सदस्य जिसने शुरुआत की थी बात काटते हुए कहने लगा शायद यहाँ वैचारिक भिन्नता हो ।

जब सब सराहते हैं  तो किये गए कार्य की समीक्षा और सही मूल्यांकन होता है तब खुद के लिये भी अक्सर पाजिटिव राय बनती है और बेहतर करने की कोशिश भी ।

दार्शनिक महोदय ने कहा दूसरे के अनुसार चलने से हमेशा दुःखी रहेंगे अतः जो उचित हो उसी अनुसार चलना चाहिए जिससे कोई खुश रहे न रहे कम से कम हम स्वयं तो खुश होंगे।

#सत्य_वचन, आज से आप हम सबके गुरुदेव हैं, सामान्य सदस्य ने कहा  ।

सभी ने #हाँ_में_हाँ मिलाते हुए फीकी  सी मुस्कान  बिखेर दी और अपने-अपने गंतव्य की ओर चल  दिए ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘ प्रभु 

जबलपुर (म.प्र.)
मो.- 7024285788

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