आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( अन्य देवताओं की उपासना का विषय )

 

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌।।21।।

 

जिस जिस में दिखती मुझे पावन प्रीति प्रगाढ

उस उस के प्रति जगाता उनमें भक्ति की बाढ।।21।।

 

भावार्थ :  जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।।21।।

 

Whatsoever form any devotee desires to worship with faith-that (same) faith of his I make firm and unflinching.।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  संस्मरण

मेरे लिए प्रातःभ्रमण निरीक्षण, अपने आप से संवाद करने एवं आकलन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है। रोजाना की कुछ किलोमीटर की ये पदयात्रा अनुभव तो समृद्ध करती ही है, मुझे शारीरिक से अधिक मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करती है।
आज टहलते हुए हिंदी माध्यम के एक विद्यालय के सामने से निकला। अंग्रेजी स्कूलों में वैन, स्कूल बस और ऑटोरिक्शा से उतरनेवाने स्टुडेंट्स की बनिस्बत घर से पैदल आनेवाले विद्यार्थियों की भीड़ फुटपाथ पर थी।
आपस में बातचीत करती 10-12 वर्ष की दो बच्चियाँ स्कूल के फाटक पर पहुँची। प्रवेश करने के पूर्व दोनों ने स्कूल की माटी मस्तक से लगाई (जैसे मंदिर में प्रवेश से पहले भक्तगण करते हैं), फिर विद्यालय में प्रवेश किया।
मन भर आया। इच्छा हुई कि दोनों बच्चियों के चरणों में माथा नवाकर कहूँ , “बेटा आज समझ में आया कि विद्यालय को ज्ञान मंदिर क्यों कहा जाता था। ..दोनों खूब पढ़ो, खूब आगे बढ़ो!’
विश्वास से कह सकता हूँ कि ये बच्चियाँ अपने जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ावों का बेहतर सामना कर पाएँगी क्योंकि हरा वही हुआ जो माटी से जुड़ा।
आपका दिन हरा हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(31.10.2013)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ जीवन साथी का परिवार ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत

श्रीमती कृष्णा राजपूत

( श्रीमती कृष्णा राजपूत जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही आप साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू, माहिया, हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आपने अगले सप्ताह से प्रत्येक बुधवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य”  शीर्षक प्रकाशित करने के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया है जिसके लिए हम आपके ह्रदय से आभारी हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा “जीवन साथी का परिवार”।)

 

☆ लघुकथा – जीवन साथी का परिवार☆ 

 

नयी बहू नये-नये अरमानों संग ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही सकुचाई, पर उसनें घूंघट को सरकने न दिया.  एकाध स्थान पर तो नेग-दस्तूर  में गिरते-गिरते बची. खिला चेहरा नये अरमान और बहू के  लिये अनजाने नये एक दूसरे  मेहमानों  का अदब-कायदा  करती जा रही थी. सासू माँ आजकल की लड़कियों का रहन-सहन तो जानती  थी.

वर्तमान के वातावरण से  परिचित थी. जैसे ही बहू ससुर साहब के पैर छूने झुकी तुरन्त सासु माँ ने कहा – “बेटी इतना अधिक परदा मत करो, मै और तुम्हारे ससुर साहब आँखों के परदे पर विश्वास करते हैं. पर्दा बड़ो के सम्मान में किया जाता है.”

इतना सुनते ही बहू के चेहरे पर पहले से और ज्यादा निखार आ गया. उस चेहरे का क्या कहना मानो चार चाँद लग गये हों.

अगाध खुशी उसके चेहरे की रौनक पर चमक बढ़ाती  ही जा रही थी.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत 

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 – मन की इन्द्रियों पर विजय ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “मन की इन्द्रियों पर विजय।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 17 ☆

 

☆ मन की इन्द्रियों पर विजय

 

सबसे पहले इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर वरुण पाश (पानी के देवता वरुण का फंदा) चलाया। यह किसी भी प्राणी को हवा में लटकाकर उसके प्राण हर सकता था, चाहे वह देवता, असुर या मानव कोई भी हो। इस अस्त्र के फंदे से बचना असंभव था, उत्तर में, लक्ष्मण ने कुम्भ अस्त्र का प्रयोग किया जो संग्रह पात्र की तरह कार्य करता था, और इंद्रजीत द्वारा वरुण पाश को कुम्भ अस्त्र ने अपने अंदर एकत्रित करना शुरू कर दिया और जल्द ही वरुण पाश आकाश में लुप्त हो गया ।

तब इंद्रजीत ने कंकालम अस्त्र चलाया यह एक भरी मूसल नुमा अस्त्र था इसका उत्तर  लक्ष्मण ने धर्म पाश (अर्थ : सच्चाई का हथियार)से दिया ।

इंद्रजीत का क्रोध सभी असफल अस्त्रों के साथ बढ़ रहा था। क्रोध में इंद्रजीत ने लक्ष्मण की ओर त्रिशूल फेंक दिया, भगवान शिव का विनाशक अस्त्र । यह अचूक है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता है। इसे बिना किसी समानांतर के सबसे शक्तिशाली हथियार कहा जाता है । परन्तु जैसे ही यह इंद्रजीत के हाथ से त्रिशूल निकला, लक्ष्मण ने अपने दोनों हाथों को उसकी ओर जोड़ दिया, और त्रिशूल आकाश में उड़ गया और सीधे कैलाश गया, और भगवान शिव के बायीं ओर बर्फ की जमीन पर  गड  गया। बिना भगवान शिव की अनुमति के लक्ष्मण पर शक्ति का उपयोग किया गया था, जिससे शिव जी  इंद्रजीत से नाराज थे तो ऐसा लगा की जैसे उनका त्रिशूल भी इंद्रजीत से नाराज है ।

त्रिशूल एक परंपरागत भारतीय हथियार है। यह एक हिन्दु चिन्ह की तरह भी प्रयुक्त होता है। यह एक तीन चोंच वाला धात्विक सिर का भाला या हथियार होता है, जो कि लकडी़ या बांस के डंडे पर भी लगा हो सकता है। यह हिन्दु भगवान शिव के हाथ में शोभा पाता है। यह शिव का सबसे प्रिय अस्त्र हैं शिव का त्रिशूल पवित्रता एवं शुभकर्म का प्रतीक है। इसके तीन सिरों के कई अर्थ लगाए जाते हैं: –यह त्रिगुण मयी सृष्टि का परिचायक है, –यह तीन गुण सत्व, रज, तम का परिचायक है

इन तीनों के बीच सांमजस्य बनाए बगैर सृष्ट‌ि का संचालन कठ‌िन हैं, इसल‌िए श‌िव ने त्रिशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण क‌िया। यह त्रिदेव का परिचायक है। भगवान शिव के त्रिशूल के बारे में कहा जाता है कि यह त्रिदेवों का सूचक है यानि ब्रम्हा, विष्णु, महेश के अनुसार ही इसे रचना, पालक और विनाश के रूप में देखा जाता है। इसे भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ धऱती, स्वर्ग तथा पाताल का भी सूचक माना जाता हैं। यह दैहिक, दैविक एवं भौतिक ये तीन दुःख, के नाश के रूप में त्रिताप के रूप में जाना जाता है। यह हिन्दु देवी दुर्गा के हाथों में भी शोभा पाता है। खासकर उनके महिषासुर मर्दिनी रूप में, वे इससे महिषासुर राक्षस को मारती हुई दिखाई देतीं हैं। विभिन्न देवी दुर्गा के मंदिरो की प्रतिमा में त्रिशूल सोने चाँदी या पीतल के देखे जा सकते हैं । मनुष्य शरीर में भी त्रिशूल, जहाँ तीन नाड़ियां मिलती हैं, उपस्थित है और यह ऊर्जा स्त्रोतों, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को दर्शाता है। सुषुम्ना जो कि मध्य में है, को सातवां चक्र और ऊर्जा का केंद्र कहा जाता है ।

अगर तत्त्वमीमाँसा की दृष्टि से देखे तो इंद्रजीत और लक्ष्मण के बीच का संग्राम क्या सूचित करता है ? इंद्रजीत अर्थात जिसने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया हो या जिसकी कर्म इन्द्रियाँ और ज्ञान इन्द्रियाँ भोग विलास की वस्तुओं को स्वीकार ना करती हो। ये दस, पाँच कर्म इन्द्रियाँ और पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ वाह्य मुखी होती है पर एक आंतरिक इन्द्रिय भी होती है जिसे मन कहते है मन वह इन्द्रिय  है जो मस्तिष्क में बाहरी वासनाओं के प्रति आने वाली पहली लहर की प्रतिक्रिया देता है । तो  भले ही कोई मनुष्य दस बाहरी इन्द्रियों पर काबू कर ले तो भी उसकी वासनाएँ जीवित रहेंगी जब तक कि उसका मन संतुलित ना हो। दूसरी ओर लक्ष्मण का अर्थ है जिसका मन सदैव अपने लक्ष्य पर रहे और किसी भी वासना के प्रति तनिक भी ना डिगे। अगर मन स्थिर हो तो बाहरी इन्द्रियाँ आपने आप काबू में आ जाती है। तो इंद्रजीत की बाहरी इन्द्रियाँ भले ही उसके नियंत्रण में हो लकिन उसका मन लंका और उसके पिता के अहंकार की वासनाओं से जुड़ा हुआ था जबकि लक्ष्मण का मन सदैव भगवान राम की भक्ति में लगा था इसी लिए लक्ष्मण इंद्रजीत को मार पाए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शब्द सामर्थ्य ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  शब्दों के सामर्थ्य पर आधारित आलेख  “शब्द सामर्थ्य ”।)

 

☆ शब्द सामर्थ्य ☆

भाषा व्याकरण की दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञात होताहै, कि अक्षरों के समूह से शब्द बनते हैं। पहला सार्थक, दूसरा निरर्थक निरर्थक शब्दों का प्रयोग भाषा लिपि की आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। वाक्य रचना, तथा काव्य रचना में उद्देश्य की आवश्यकता के अनुसार एकही शब्द अनेक अर्थो में प्रयुक्त होते हैं। नीचे उदाहरण से लेखक के मन्तव्यों को समझें।

दोहा—-

चरण धरत चिंता करत, चितवत चारिउ ओर।
सुबरन  को खोजत  फिरत, कवि, ब्यभिचारी, चोर।।

यहां सुबरन का अर्थ कवि के लिए सुन्दर वर्ण, व्याभिचारी के लिए सुन्दर स्त्री, तथा चोर के अर्थ में सोना है।

अथवा

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून।

यहां पानी शब्द का प्रयोग, मोती मानुष चून (पक्षी) के लिए  किया गया है जो अलग अलग परिपेक्ष में है। इस प्रकार परिस्थिति जन्य परिपेक्ष की आवश्यकता अनुसार शब्दों के अर्थ तथा। भाव बदलते ही रहते हैं। शब्द ही साहित्य विधा के लेखन की  प्राण चेतना है।

शब्द ही हृदय के भावों  एवं मन के विचारों का प्रस्तोता (प्रस्तुत ) करने वाला है। साहित्यिक विधा में शब्दों से अलंकारिक भाषा का  सौन्दर्य बोध, रस छंद अलंकार के सुन्दर भावों की उत्पत्ति होती है। शब्दों में ही मंत्रो की शक्ति बसती है। जिनके विधि पूर्वक अनवरत जाप के बड़े चमत्कृत कर देने वाले परिणाम देखे  गये हैं। और निर्धारित उद्देश्यो की सफलता  भी।

शब्दों का प्रभाव सीधे सीधे मन मस्तिष्क तथा हृदय पर होता है। शब्दों से ही दुख के समय संवेदना, सुख के समय प्रसन्नता, तथा आक्रोश के समय में क्रोध प्रकट होताहै। जो हजारों किलोमीटर बैठे। मानव के मन को सुख दुःख पीड़ा का एहसास करा जाता है, इसका अनुभव मुझे आपको तथा सभी को होगा। तथा वे शब्द ही तो है जो सामनेवाले के आचार विचार तथा व्यवहार पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। कहा भी गया है कि गोली के घाव तो भर जाते हैं, बोली के घाव जो शब्दों से मिलते हैं वो जल्दी नहीं भरते।

शब्दों से ही स्तुति गान प्रशस्तिगान है क्योंकि उसमें बहुत जान है। शब्द ही बोलचाल भाषा तथा अभिव्यक्ति के माध्यम के मूलाधार है। वाणी से शब्द प्राकट्य तथा लेखन से उसका स्वरूप बनता है।

तभी तो श्री कबीर साहेब कहते हैं—–

ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।

और इन्हीं भावों के समर्थन में वाणी की महत्ता बताते हुए श्री तुलसी दास जी कह उठते हैं—–

तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजै चंहुओर।
मधुर बचन इक मंत्र है, तजि दे बचन कठोर।।

इस प्रकार मधुर शब्दों से सराबोर वाणी जो मंत्र सा चमत्कारिक प्रभाव छोड़ती है। और सामने वाले को अपने प्रभाव मे ले लेती है।

ऐसे अनुभव आप सभी के पास होंगे जहां कठोर वाणी। अपनो से भी दूर कर देती है, वही मृदु वाणी सबको ही अपना बना लेती है।

शब्दों में समाये भावों का बड़ा ही सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मेरे अपने विचारों से शब्द ही भाषा ,भाव व वाणी के मूल श्रोत है तो साहित्य सृजन के सौन्दर्य बोध भी।  जहाँ अक्षर शब्दो के जनक है, तो शब्द ही गीत संगीत विधा के माधुर्य भी, जिसके सम्मोहन से आदमी तो क्या जानवर भी नहीं  बचते। ऐसा पौराणिक कथाओं में मिलता है जब कृष्ण की बांसुरी ने सबके मन को मोहा था।

अपनी गरिमा मय प्रभाव एवं स्वभाव से शब्द प्रतिपल मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। शब्दकोश  बढ़ने से ही मानव कवि, लेखक, रचनाकार, पत्रकार बन जाता है। तथा आदर्श अभिव्यक्ति कर भावों का चितेरा बन जाता है।

बिना अक्षरों के ज्ञान के भी शब्द ज्ञान संभव है, तभी तो बिना पढ़े लिखे छोटे बच्चे भी तो अपनी भाषा में बात कर पाते हैं। अक्षर ज्ञान शब्द ज्ञान प्राथमिक पाठशाला के प्रथम कक्षा के छात्रों की नींव की ईंट है। प्रत्येक शब्द में असीम सामर्थ्य है।

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – ☆ “शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त ☆ काव्यांजलि ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त

सुश्री स्वपना अमृतकर

ई-अभिव्यक्ति की ओर से स्वर्गीय शिरीष व्यंकटेश पै जी को सादर नमन।

प्रख्यात मराठी कवी, लेखिका और नाटककार स्वर्गीय शिरीष व्यंकटेश पै जी आचार्य अत्रे जी की पुत्री थी।  उनका  जन्म 15 नवम्बर 1924 को हुआ और देहांत 2 सितंबर 2017 को मुंबई में हुआ था।

सुश्री स्वपना अमृतकर जी ने अपनी आदर्श स्व. शिरीष व्यंकटेश पै जी को हायकू विधा में जन्मदिवस पर काव्यांजलि समर्पित की है। सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी के ही  शब्दों में –

ज्येष्ठ हायकूकार स्व. शिरीष पै जी का  का जन्म 15 नवम्बर 1929 को हुआ था।  आदरणीय गुरू माँ हम सबके लिए बहूत सारा महत्वपूर्ण हायकू साहित्य की रचना कर के अनंत यात्रा पर चली गई । उनकी यह हायकू साहित्य की तपस्या, हर एक के लिए प्रेरणादायी बन गई हैं। आज भी उनकी लिखीं हुई पुस्तकें  नये-पुराने हायकू समावेशकों  के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं। इनमें प्रमुख हैं :-

१. हे ही हायकू,

२. हे का हायकू,

३. फक्त हायकू

और बहूत सारी हायकू पुस्तके हमे पढ़ने को आज भी मिलती हैं । मुझे काव्य की इस विधा में अभिरुचि का एकमात्र कारण है आदरणीया  “शिरीष पै”  जी का प्रकाशित हायकू साहित्य। उनसे मिलने की इच्छा तो अधूरी रह गई पर उन्होंने हायकू की जो राह दिखाई है, उसमे प्रयास करके चलते रहने की ख्वाहिश जरूर पूरा करने का साहस जुटा रहीं हूँ।  इस अद्भुत काव्य विधा की पहचान बनी आदरणीया “शिरीष पै” जी के लिए उनके जन्मदिन पर मैने अपने शब्दों मे हायकू काव्य विधा में  बधाई देने का एक छोटा सा प्रयास किया है ।

पुढील हायकू स्वरचित काव्यरचना ज्येष्ठ हायकूकार – “शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त :

 

☆ “शिरीष पै” यांच्या 15 नोव्हेम्बर वाढदिवस निमित्त ☆

 

काव्यांजलि – शिरीष पै

हायकू :

 

कवी जीवाला
हायकू पायवाट
छंद मनाला ,    १

हायकू ऋतू
निसर्गात जन्मतो
शीळ घालतो ,   २

हायकू काव्य
अल्प शब्द सोहळे
जगावेगळे ,      ३

साथ गुरूंची
लिखाणांतून भासे
वाढ ज्ञानाची ,    ४

पुन्हा नव्याने
हायकूंचे दिवस
ताजेतवाने,       ५

जन्मदिवस
शिरीष पैंचा आज
हर्ष मनांस ,      ६

शुभेच्छांचीच
हायकूची हो खोळ
सदा निर्मळ ,     ७

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 14 ☆ चिंधी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका  एक भावप्रवण  आलेख  चिंधी  जिसमें उन्होंने  कपडे के टुकड़ों “ का महत्व एवं  उसका धार्मिक, पौराणिक एवं सामाजिक जीवन में योगदान पर विस्तृत चर्चा की है। उन्होंने महाभारत काल में द्रौपदी के चीरहरण, साईँ बाबा के वस्त्र और ग्रामीण महिलाओं द्वारा चिन्दी से गुदड़ी  सिलने के व्यवसाय तक  की चर्चा की है। इस आलेख को पढ़ते वक्त हमें हिंदी की कहावत “गुदड़ी  के लाल” सहज ही याद आ जाती है। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 14 ☆

 

☆ चिंधी ☆

“भरजरी गं पितांबर दिला…. फाडून..!

द्रौपदीसी बंधू शोभे नारायण..!! ”

आचार्य अत्रे दिग्दर्शित ‘श्यामची आई ‘ चित्रपटातलं ,आशाताईंच्या सुरेल आवाजातलं गाणं ऐकत होते.. किती छान गाणं..!

ऐकताना विचार करु लागले खरंच चिंधी ही किती क्षुल्लक व टाकावू पण तिला श्रीकृष्णाच्या बोटावर विराजमान होण्याचं भाग्य लाभलं अन् ती अजरामर झाली.

महाभारतातल्या एका प्रसंगात श्रीकृष्णाच्या बोटाला कापलं रक्ताची धार लागली ते पाहून त्याची सख्खी बहीण सुभद्रा कपडा आणायला अंतर्गृहाकडे धावली तर मानलेली बहीण द्रौपदीनं क्षणाचाही विचार न करता स्वत:च्या अंगावरच्या भरजरी शेल्याचा पदर फाडून त्याची चिंधी भाऊ श्रीकृष्णाच्या बोटाला तात्काळ बांधली.

देवही परीक्षा पहात असतो.!

तुम्ही किती मायेनं तत्परतेनं,आस्थेनं करता ते तो कधीही विसरत नाही. म्हणूनच द्रौपदी वस्त्रहरणाचे वेळी सर्व स्वकीयांना बोलावले पण तिने बंधू श्रीकृष्णाला हाक मारताच क्षणाचाही विलंब न करता कृष्णाने एका चिंधीच्या बदल्यात एकाचवेळी असंख्य साड्या पुरवून तिचे अब्रूरक्षण केले.

जगात कोणतीही वस्तू टाकावू नसते हा महान मंत्र द्रौपदीच्या चिंधीने जगाला दिला.

चिंधी चिंधी जोडून आई फाटक्या लुगड्याची गोधडी लेकरासाठी शिवते ती त्याला आयुष्यभर प्रेमाची ऊब देते.

रंगीबेरंगी चिंध्या रंगसंगती साधून एकत्र जोडून बाळासाठी देखणी दुपटी बारशाचेवेळी शिवली जातात. त्याला आईच्या मायेची ऊब असते त्यामुळे बाळ त्यात शांतपणे झोपी जातं.

शिर्डीचे महान संत श्रीसाईबाबांच्या अंगावर नेहमी चिंध्यांनी जोडून केलेला अंगरखा असे. आज मात्र त्यांच्या प्रतिमेला भरजरी कपड्यांनी सजवलं जातंय!

स्वत: अशिक्षित असूनही शिक्षणाचा व स्वच्छतेचा संदेश देणाऱ्या संत गाडगेबाबा यांच्या अंगावरही गोधडीचाच अंगरखा असायचा, म्हणून त्यांना गोधडेबुवाही म्हणत असत.

माझ्या लहानपणी मी त्यांना पंढरपूर,देहू आळंदी इथं प्रत्यक्ष पाहिलेलं आहे.मी इतकी भाग्यवान की माझे वारकरी काका-काकू त्यांचे अनुयायी त्यामुळे आम्हा सर्वांना हातात झाडू घेऊन त्यांचेबरोबर आळंदीला थोडीफार स्वच्छता सेवा करण्याचं भाग्य मला लाभलं.

माणदेशी महिला महोत्सवात बचत गटाच्या महिलांनी बनविलेल्या अतिशय सुंदर गोधड्या मला पहायला मिळाल्या.भारतात त्यांना रुपये पाचशे पासून अंदाजे पाच हजारांपर्यंत किंमत मिळते., तर परदेशातही त्यांना भरपूर मागणी असल्याचे समजले. श्रमजीवी महिलांना या चिंध्यांपासून एक चांगला रोजगार मिळाला व त्यांच्या श्रमाचं चीज झालं असं म्हणावं लागेल.

खेड्यातल्या महिलांना शेतातली उन्हाळी कामं झाली की दुपारचा भरपूर मोकळा वेळ असतो त्यावेळी बऱ्याचजणी एकत्र येऊन ‘वाकळा ‘ शिवतात. खेड्यात गोधडीला वाकळ म्हणतात. वाकळ जोडत असते एक एक चिंधी, तशा त्या महिलाही एकमेकींशी जोडल्या जातात. त्यांची मन एकमेकींकडं मोकळी होतात. मनात साठलेलं सगळं मळभ निघून जातं व त्या नवी ऊर्जा घेऊन ताज्या दमाने पुढल्या वर्षीच्या कामाला लागतात.

थोडा विचार केला तर माणसाच्या मनातल्या कप्प्यातही अशा अनेक चिंध्या असतात. त्या सकारात्मक व नकारात्मक दोन्ही प्रकारच्या असू शकतात. त्यातली कुठली चिंधी कशी व कुठं जोडायची अन् आयुष्य कसं सांधायचं, जोडायचं, उभं करायचं हे प्रत्येकानं ठरवायचं असतं.

एकेक चिंधी जोडत त्याची वाकळ होऊ शकते  तसेच आपल्या मनातले विचार एकत्र गुंफले तर त्यांच्या प्रतिभेला स्फुरण चढते व सुंदर प्रासादिक काव्य लेखन निर्मिती होऊ शकते !…. हो नां…!

©®उर्मिला इंगळे
दि.१५-११-२०१९
!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!
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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 15 ☆ आज बाजारात….. ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “आज बाजारात…..”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 15 ☆

 

☆ आज बाजारात…..

आज पाहिलं
विजेच्या कडाक्यात
जोरदार पावसात
वादळी वा-यात
जख्खड वृक्ष उन्मळून
कोसळला आज बाजारात
आणि एक गरीब शेतकरी
तत्क्षणी जागीच मेला.

फक्त काही जण गलबलले
काही क्षण रेगांळले
पुन्हा काही क्षणात यथावत
आज बाजारात.
काही लोक सरसावले
त्याच झाडाच्या फांद्या,
ढपल्या तोडण्यात
आज बाजारात.

वर्मी लागलेला
तोच बुंधा उचलून नेला
काही पोटं भरण्यासाठी
काही जीव जगवण्यासाठी
आज बाजारात.
मृत्युच्या कारणाला
घरी नेलं गोळा करून
आज पाहिलं…..
मरण सुध्दा जीव जगवतं
कुणाची अश्रु तर कुणा
जीव देऊन जातं……!!

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – सप्तम अध्याय (20) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

सप्तम अध्याय

ज्ञान विज्ञान योग

( अन्य देवताओं की उपासना का विषय )

 

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।

तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।।20।।

 

भिन्न कामनायें लिये भटके ज्ञान विहीन

भिन्न देवों को पूजते अपनी प्रकृति अधीन।।20।।

 

भावार्थ :  उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं।।20।।

 

Those whose  wisdom  has  been  rent  away  by  this  or  that  desire,  go  to  other  gods,  following this or that rite, led by their own nature.।।20।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 24 ☆ पुरुष वर्चस्व और नारी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “पुरुष वर्चस्व और नारी”.  इस महत्वपूर्ण तथ्य पर डॉ मुक्ता जी ने  अपनी बेबाक राय बड़े ही सहज तरीके से रखी है।  यह एक ऐसा विषय है जिसके विभिन्न  पहलुओं पर  किसी भी प्रकार की विवेचना कोई स्त्री ही कर सकती हैऔर इस दायित्व को उन्होंने बड़ी बखूबी निभाया है। इस सशक्त रचना में  धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, आपराधिक और ऐसा शायद ही कोई  तथ्य छूटा हो जिसकी विवेचना उन्होंने सोदाहरण प्रस्तुत न की हो।  डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  ) . 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 24 ☆

☆ पुरुष वर्चस्व और नारी 

पितृसत्तात्मक युग के पुराने कायदे-कानून आज भी धरोहर की भांति सुरक्षित हैं और उनका प्रचलन बदस्तूर जारी है। हमारे पूर्वजों ने पुरूष को सर्वश्रेष्ठ समझ सारे अधिकार प्रदान किए और नारी के हिस्से में शेष बचे… मात्र कर्त्तव्य, जिन्हें गले में पड़े ढोल की भांति उसे आज तक बजाना पड़ रहा है। उसे घर की चारदीवारी में कैद कर लिया गया कि वह गृहस्थ के सारे दायित्वों का वहन करेगी…यथा प्रजनन से लेकर पूरे परिवारजनों की हर इच्छा, खुशी व मनोरथ को पूर्ण करेगी,उनके इशारों पर कठपुतली की भांति ताउम्र नाचेगी, उनके हर आदेश की सहर्ष अनुपालना करेगी और पति के समक्ष सदैव नतमस्तक रहेगी… जहां उसकी इच्छा का कोई मूल्य नहीं होगा। नारी के लिए निर्मित आदर्श-संहिता में ‘क्यों’ शब्द नदारद है, क्योंकि उसे तो हुक्म बजाना है दासी की तरह और गुलाम की भांति ‘जी हां ‘कहना है। इसके लिए सीता का उदाहरण हमारे समक्ष है। वह पतिव्रता नारी थी, जिसने पति के साथ बनवास झेला और लक्ष्मण-रेखा पार करने पर क्या हुआ उसका अंजाम..सीता-हरण हुआ और आगे की कथा से तो आप परिचित हैं। ज़रा स्मरण कीजिए…शापित अहिल्या का, जिसे पति के श्राप स्वरूप वर्षों तक शिला रूप में स्थित रहना पड़ा, क्योंकि इंद्र ने उसकी अस्मत पर हाथ डाला था। महाभारत की पात्रा द्रौपदी के इस वाक्य ‘अंधे की औलाद अंधी’ ने बवाल मचा दिया और उस रज:स्वला नारी को केशों से खींच कर भरी सभा में लाया गया, जहां उसका चीर-हरण हुआ। प्रश्न उठता है, किसने दुर्योधन व दु:शासन को दुष्कृत्य करने से रोका, उनकी निंदा की। सब बंधे थे मर्यादा से, समर्पित थे राज्य के प्रति..अंधा केवल धृतराष्ट्र नहीं, राज सभा  में उपस्थित हर शख्स अंधा था। गुरू द्रौण, भीष्म व विदुर जैसे वरिष्ठ-जन, पुत्रवधु की अस्मत लुटते हुए देखते रहे…आखिर क्यों? क्या उनका अपराध क्षम्य था?

आइए! लौट चलते हैं सीता की ओर, जिसे रावण की अशोक-वाटिका में प्रवास झेलना पड़ा और लंका- दहन के पश्चात् अयोध्या लौटने पर, सीता को एक धोबी के कहने पर विश्वामित्र के आश्रम में धोखे से छुड़वाया गया… वहां लव कुश का जन्म होना और अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर, राम से भेंट होना…राम को उसकी संतति सौंप पुन: धरती में समा जाना.. क्या  संदेश देता है मानव समाज को? नारी को कटघरे में खड़ा कर इल्ज़ाम लगाने के पश्चात्, उसे अपना पक्ष रखने का अधिकार न देना क्या न्यायोचित है? यही सब हुआ था, अहिल्या के साथ… गौतम ऋषि ने कहां हक़ीक़त जानने का प्रयास किया? उसे अकारण अपराधिनी समझ शिला बनने का श्राप दे डालना क्या अनुचित नहीं था?  इसमें आश्चर्य क्या है… आज भी यही प्रचलन जारी है। नारी पर इल्ज़ाम लगाकर उसे बेवजह सज़ा दी जाती है, जबकि कोर्ट-कचहरी में भी मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर प्रदान किया जाता है। परंतु नारी को जिरह करने का अधि- कार कहां प्रदत है? वह हाड़-मांस की पुतली…जिसे भावहीन व संवेदनविहीन समझा जाता है, फिर उसमें हृदय व मस्तिष्क होने का प्रश्न ही कहां उठता है? वह तो सदियों से दोयम दर्जे की प्राणी स्वीकारी जाती है, जिसे संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों की एवज़ में एक ही अधिकार प्राप्त है ‘सहना’ और ‘कुछ नहीं कहना।’  यदि अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है तो उसे ज़लील किया जाता है अर्थात् सबके सम्मुख प्रताड़ित कर कुलटा, कलंकिनी, कुलनाशिनी आदि विशेषणों द्वारा अलंकृत कर, घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है। और उसके साथ ही हमारे समाज में पग-पग पर जाल बिछाए बैठे दरिंदे, उसकी अस्मत लूट किस नरक में धकेल देते हैं… यह सब तो आप जानते हैं। जुर्म के बढ़ते ग्रॉफ़ से तो आप सब परिचित हैं। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ता होगा उस मासूम, बेकसूर, निर्दोष महिला को .. कितने ज़ुल्म सहने पड़ते होंगे उसे…कारण दहेज हो या पति के आदेशों की अवहेलना,उसके असीमित दायरों की कारस्तानियों की कल्पना तो आप कर ही सकते हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पुरूष-वर्चस्व की…जन्म लेने से पूर्व कन्या-भ्रूण को नष्ट करने के निमित्त ज़ोर- ज़बर्दस्ती करना, जन्म के पश्चात् प्रसव पीड़ा का संज्ञान न लेते हुए पत्नी पर ज़ुल्म करना और दूसरे ही दिन प्रसूता को घर के कामों में झोंक देना या घर से बाहर का रास्ता दिखला देना, दूसरे विवाह के स्वप्न संजोना… सामान्य-सी बात है, घर-घर की कहानी है। बेटे-बेटी में आज भी अंतर समझा जाता है। पुत्र को कुल-दीपक समझ उसके सभी दोष अक्षम्य अपराध स्वीकारे जाते हैं और पुत्री की अवहेलना, पुत्र की उतरन व जूठन पर उसका पालन-पोषण, हर पल मासूम पर दोषारोपण, व्यंग्य-बाणों की बौछार व उसे दूसरे घर जाना है… न जाने किस जन्म का बदला लेने आई है… ऐसे जुमलों का सामना उसे आजीवन करना पड़ता है।

विवाह के पश्चात् पति हर पल उस निरीह पर निशाना  साधता है। वैसे भी हर कसूर के लिए अपराधिनी तो औरत ही कहलाती है, भले ही वह अपराध उसने किया हो, या नहीं…क्योंकि उसे तो विदाई की वेला में समझा दिया जाता है कि अब उसे अपने ससुराल में ही रहना है, कभी अकेले इस चौखट पर पांव नहीं रखना है… आजीवन एकपक्षीय समझौता करना है, बापू के तीन बंदरों के समान आंख, कान, मुंह बंद करके अपना जीवन बसर करना है। इसलिए वह नादान सब ज़ुल्म सहन करती है, कभी कोई शिकवा -शिकायत नहीं करती। अक्सर सभी हादसों का मूल कारण होता है… गैस के खुला रह जाने पर उसका जल जाना, कभी नदी किनारे पांव फिसल जाना, तो कभी बिजली की नंगी तारों को छू जाना, मिट्टी के तेल, पेट्रोल या तेज़ाब से ज़िंदा जलने की यातना से कौन अपरिचित है? प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी पुत्रवधु के साथ ही क्यों होते हैं? उस घर की बेटी इन हादसों का शिकार क्यों नहीं होतीं? यदि वह इन सबके चलते ज़िंदा बच निकलती है, तो ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर, पिता के दायित्वों का वहन बखूबी करती है। केवल चेहरा बदल जाता है, क़िरदार नहीं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।

आधुनिक युग में नारी को प्राप्त हुए हैं समानाधिकार … उसे स्वतंत्रता प्राप्त तो हुई है और वह मनचाहा भी कर सकती है, अपने ढंग से जी सकती है तथा कोई भी ज़ुल्म व अनहोनी होने पर, उसकी शिकायत कर सकती है। मन में यह प्रश्न कुलबुलाता है … आखिर कहां हैं वे कायदे-कानून, जो महिलाओं के हित में बनाए गए हैं?  शायद! वे फाइलों के नीचे दबे पड़े हैं। कल्पना कीजिए, जब एक मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म होने के पश्चात्, उस के माता-पिता रिपोर्ट दर्ज कराने जाते हैं…तो वहां कैसा व्यवहार होता है उनके साथ…’ जब संभाल नहीं सकते, तो पैदा क्यों करते हो? क्यों छोड़ देते हो उन्हें, किसी का निवाला बनने हित ? शक्ल देखी है इसकी… कौन इसका अपहरण कर, दुष्कर्म करने को ले जायेगा… कितना चाहिए …इससे कमाई करना चाहते हो न… ले जाओ! इस मनहूस को… अपने घर संभाल कर रखो ‘ और न जाने कैसे-कैसे घिनौने प्रश्न पूछे जाते हैं… पहले पुलिस स्टेशन और उसके पश्चात् कचहरी में… यह सब सुनकर वे ठगे-से रह जाते हैं और लंबे समय तक इस सदमे से उबर नहीं पाते।यह सुनकर कलेजा मुंह को आता है… उस मासूम के माता-पिता को बोलने का अवसर कहां दिया जाता है और वे निरीह प्राणी लौट आते हैं … प्रायश्चित भाव के साथ…क्यों उन्होंने वहां का रूख किया। उम्रभर वह मासूम कहां उबर पाती है उस हादसे से।वे दुष्कर्मी, सफेदपोश रात के अंधेरे में अपनी हवस शांत कर, सूर्योदय से पूर्व लौट जाते हैं और दिन के उजाले में पाक़-साफ़ व दूध के धुले कहलाते हैं।

कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायत करने वाली महिलाओं को जो कुछ झेलना पड़ता है, कल्पनातीत है। सब उसे हेय दृष्टि से देखते हैं, कुलटा-कुलनाशिनी समझ उसकी निंदा करते हैं… यहां तक कि उसके लिए नौकरी करना भी दुष्कर हो जाता है।15अक्टूबर 2019 के ट्रिब्यून को पढ़कर आप हक़ीक़त से रू-ब -रू हो सकते हैं। तमिलनाडु की महिला पुलिस अधीक्षक द्वारा महानिरीक्षक-स्तरीय अधिकारी पर कार्यस्थल पर उत्पीड़न के आरोपों की जांच को उच्च न्यायालय द्वारा दूसरे राज्य में भेजने का मामला प्रश्नों के घेरे में है, जिनके उत्तर सुप्रीम कोर्ट तलाश रहा है। परंतु इससे क्या होने वाला है? उच्च न्यायालय अपनी अधीनस्थ अदालतों में लंबित किसी मामले या अपील को निष्पक्ष व स्वतंत्र जांच तथा सुनवाई के लिए मुकदमे या प्रकरण अपने अधिकार-क्षेत्र में आने वाले किसी भी अन्य ज़िले में स्थानांतरित कर सकता है। और स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच के लिए उसे तमिलनाडु से तेलंगाना स्थानांतरित कर दिया गया।

अक्सर कार्यस्थल पर यौन हिंसा के मामलों में महिला व उसके परिवार को हानि पहुंचाने की बात कही जाती है। उस पीड़िता पर समझौता करने का दबाव बनाया जाता है और उसे तुरंत कार्यालय से बर्खास्त कर दिया जाता है तथा हर पहलू से उसे बदनाम करने की कोशिश की जाती है। क्या यह पुरूष वर्चस्व नहीं है,जो समाज में कुकुरमुत्तों की भांति अपनी पकड़ बनाता जा रहा है।

आइए! इसके दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें … आजकल ‘लिव-इन व मी-टू’ का बोलबाला है। चंद  स्वतंत्र प्रकृति की उछृंखल महिलाएं सब बंधनों को तोड़, विवाह की पावन व्यवस्था को नकार, ‘लिव-इन’   को अपना रही हैं। अक्सर इसका खामियाज़ा भी महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है, जब पुरूष साथी  उसे यह कहकर छोड़ देता है… ‘तुम्हारा क्या भरोसा …जब तुम अपने माता-पिता की नहीं हुई, कल किसी ओर के साथ रहने लगोगी ? ‘इल्ज़ाम फिर उसी महिला के सर’…वैसे भी चंद महीनों बाद महिला को दिन में तारे दिखाई देने लगते हैं और वह धरती पर लौट आती है। कोर्ट का ‘लिव-इन’ के साथ, पुरुष को पर-स्त्री के साथ, संबंध बनाने की स्वतंत्रता ने हंसते- खेलते परिवारों की खुशियों में सेंध लगा दी है। इसके साथ ही ‘मी-टू’ अर्थात् पच्चीस वर्ष में अपने साथ घटित किसी हादसे को उजागर कर, पुरूष को सीखचों के पीछे पहुंचाने का औचित्य समझ से बाहर है। इसके परिणाम-स्वरूप हंसते-खेलते परिवार उजड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं की  साख पर भी तो आंच आती है, परंतु वे ऐसा सोचती कब हैं… कि इसका अंजाम उन्हें भविष्य में अवश्य भुगतना पड़ेगा। परंतु पुरूष महिला पर पूर्ण अधिकार चाहता है… उसका अहं फुंकारने पर, वह उसे घर-परिवार व ज़िन्दगी से बेदखल करने में तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करता। अंततः मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि वह पहले भी गुलाम थी और सदा रहेगी।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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