श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “ज्ञानदीप…”)

☆  तन्मय साहित्य # 157 ☆

☆ लघुकथा – ज्ञानदीप… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

“यार चंदू! इन लोगों के पास इतने सारे पैसे कहाँ से आ जाते हैं, देख न कितने सारे पटाखे बिना जलाये यूँ ही छोड़ दिए हैं। ये लछमी माता भी इन्हीं पर क्यों, हम गरीबों पर  मेहरबान क्यों नहीं होती”

दीवाली की दूसरी सुबह अधजले पटाखे ढूँढते हुए बिरजू ने पूछा।

“मैं क्या जानूँ भाई, ऐसा क्यों होता है हमारे साथ।”

“अरे उधर देख वो ज्ञानू हमारी तरफ ही आ रहा है , उसी से पूछते हैं, सुना है आजकल उसकी बस्ती में कोई मास्टर पढ़ाने आता है तो शायद इसे पता हो।”

“ज्ञानु भाई ये देखो! कितने सारे पटाखे जलाये हैं इन पैसे वालों ने। ये लछमी माता इतना भेदभाव क्यों करती है हमारे साथ बिरजू ने वही सवाल दोहराया।”

“लछमी माता कोई भेदभाव नहीं करती भाई! ये हमारी ही भूल है।”

“हमारी भूल? वो कैसे हम और हमारे अम्मा-बापू तो कितनी मेहनत करते हैं फिर भी…”

“सुनो बिरजू! लछमी मैया को  खुश करने के लिए पहले उनकी बहन सरसती माई को मनाना पड़ता है।”

“पर सरसती माई को हम लोग कैसे खुश कर सकते हैं” चंदू ने पूछा।

“पढ़ लिखकर चंदू।  सुना तो होगा तुमने, सरसती माता बुद्धि और ज्ञान की देवी है। पढ़ लिख कर हम अपनी मेहनत और बुद्धि का उपयोग करेंगे तो पक्के में लछमी माता की कृपा हम पर भी जरूर होगी।”

“पर पढ़ने के लिए फीस के पैसे कहाँ है बापू के पास हमें  बिना फीस के पढ़ायेगा कौन?”

“मैं वही बताने तो आया हूँ तम्हे, हमारी बस्ती में एक मास्टर साहब पढ़ाने आते है  किताब-कॉपी सब वही देते हैं,  चाहो तो तुम लोग भी उनसे पढ़ सकते हो।”

चंदू और बिरजू ने अधजले पटाखे एक ओर फेंके  और ज्ञानु की साथ में चल दिए।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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