हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #229 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 229 ☆

अधूरी ख़्वाहिशें… ☆

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें स्वप्न की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है। 

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते, उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 350 ⇒ रिश्ते और मर्यादा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्ते और मर्यादा।)

?अभी अभी # 350 ⇒ रिश्ते और मर्यादा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रिश्ता क्या है, तेरा मेरा !

मैं हूं शब, और तू है सवेरा।

कुछ तो ऐसा है हममें, जो हमें आपस में जोड़ता है। जिसे हम हयात कहते हैं, जिन्दगी कहते हैं, वह अकेले नहीं कटती, भले ही विपरीत हो, लेकिन सिक्के के भी दो पहलू होते हैं। सुख दुख, अमीरी गरीबी, धूप छाँव, दोस्त दुश्मन और जिंदगी और मौत का आपस में वही रिश्ता है जो एक मां का बेटे के साथ ही है, पति का पत्नी के साथ और अच्छाई का बुराई के साथ है। घर में दरवाजा जरूरी है और आटे में नमक, धरती आसमान बिना अधूरी और मीन पानी बिना। जिंदगी तो उसी को कहते हैं, जो बसर तेरे साथ होती है।

हमारा आपका भी आपस में वही रिश्ता है जो एक फूल का डाली से, बगीचे का माली से, और भोजन का थाली से है। आभूषण की शोभा जिस तरह से स्त्री से है, सिंदूर की सुहाग से और कपड़ों की पहनने वाले से। जिस तरह एक धागा मोतियों को माला में पिरोए रखता है, एक ऐसा रिश्ता, एक ऐसा चुंबकीय आकर्षण हम सबको दूर रहते हुए भी आपस में जोड़े रखता है। हमारा अस्तित्व ही जुड़ने से है, टूटना ही बिखरना है, एक कांच सा हमारा व्यक्तित्व है, बड़ी मुश्किल से जुड़ा हुआ, जिसे टूटते बिखरते, टुकड़े टुकड़े होते ज्यादा वक्त नहीं लगता।।

आखिर एक कमीज़ का हमसे क्या रिश्ता है। हमने उसे दर्जी से बनवाया अथवा बाज़ार से रेडीमेड खरीदकर लाए। रिश्ता हमारा दर्जी से भी हुआ और दुकानदार से भी। एक कमीज हमें कितने लोगों से जोड़ती है। इसी तरह एक घड़ी हमें समय से जोड़ती है, नौकरी मालिक से जोड़ती है, धंधा किसी को व्यापार से जोड़ता है तो खेती किसान से। दूध, बिजली, पानी और सब्जी हमें कितने लोगों से जोड़ती है, बस यही रिश्ता कहलाता है, जिस पर हमारा ध्यान अक्सर कम ही जाता है।

हम बड़े खुदगर्ज होते हैं, इन रिश्तों की अहमियत नहीं समझते। अच्छे रिश्ते, स्वार्थ वाले, हित कारी और गुणकारी को हम गले लगाते हैं और बाकी रिश्तों को नमक के गरारे की तरह, गले की खराश मिटते ही, निकाल बाहर फेंकते हैं। सब्जी में अधिक नमक हमें बर्दाश्त नहीं होता तो किसी को फीका खाना गले नहीं उतरता। हमारी आवश्यकता ही हमारी आदत बन जाती है।।

हर रिश्ता थोड़ी परवाह मांगता है, लापरवाही किसी रिश्ते को पसंद नहीं। अगर आप खाने के सामान को नहीं ढंकेंगे तो उसमें मक्खी गिर जाएगी, किताबों को नहीं संभालेंगे तो उनमें दीमक लग जाएगी और रिश्तों की कद्र नहीं करेंगे तो रिश्ते भी आपकी कद्र नहीं करेंगे। घर को साफ रखेंगे तो घर, घर कहलाएगा और खुद की भी परवाह नहीं करेंगे तो सेहत भी आपका साथ नहीं देगी।

जहाँ परवाह है, फिक्र है, चिंता है, वहां प्रेम है, आसक्ति है, लगाव है, रिश्ता है, जीवन है। हर रिश्ते की एक मर्यादा है। कपड़े तक रखरखाव और सफाई मांगते हैं, जूता पॉलिश मांगता है और आइना भी धूल बर्दाश्त नहीं करता। रिश्तों को सिर्फ करीने से सजाकर ही नहीं रखा जाता उनकी मर्यादा भी निभानी पड़ती है। मर्यादा एक अलिखित कानून है जिसका कहीं हया नाम दिया गया है तो कहीं आँखों की शर्म। मां बेटा, भाई बहन, पति पत्नी तो ठीक प्रेमी प्रेमिका के बीच भी अगर मर्यादा नहीं तो वह प्रेम नहीं। एक दूसरे का सम्मान सबसे बड़ी मर्यादा है।।

लेकिन जब रिश्तों में दरार आई, दोस्त ना रहा दोस्त, भाई ना रहा भाई। स्वार्थ और लालच में कैसा रिश्ता, कैसी मर्यादा। अक्सर जब भी मर्यादा की बात होती है, नैतिकता का जिक्र भी होता ही है। समाज के रीति रिवाज हमारे चरित्र का निर्धारण करते हैं। पति पत्नी के संबंधों को जायज और पवित्र माना गया है, मर्यादित माना गया है। लेकिन उस अंधे कानून का क्या करें, जो अवैध रिश्तों को भी लिव इन रिलेशन नाम देकर कानून की किताब को काली किताब बना रहा है।

अब समय आ गया है, रिश्तों की मर्यादा की रक्षा हम आप स्वयं ही करें। नैतिकता और कानून से ऊपर हमारा जागृत विवेक भी है जो स्वयं एक लक्ष्मण रेखा खींचने के लिए सक्षम है। हमारे रिश्तों को सहेजना और मर्यादित रखना हमारे हाथ में हैं। मन, वचन और कर्म की पवित्रता ही रिश्तों की बुनियाद है, मर्यादा है। सभी रिश्तों को एक नया नाम दें, सम्मान दें तब ही हमारे रिश्ते खुली हवा में सांस ले पायेंगे। जब तक रिश्ते लौकिक हैं, लौकिकता निभाएं अलौकिक रिश्ते तो सिर्फ राधा और मीरा के होते हैं। हमें तो अभी समय की धारा में ही बहना है, बहती गंगा में नहीं, पावन प्रेम की गंगा में हाथ धोना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हँसी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  हँसी ? ?

भीड़ को चीरती-सी एक हँसी

मेरे कानों पर आकर ठहर गई थी

कैसी विद्रूप, कैसी व्यावसायिक

कैसी जानी-बूझी लंपट-सी हँसी थी

मैं टूटा था, दरक-सा गया था

क्या यह वही थी, क्या वह उसकी हँसी थी…..?

 

पुष्पा गाँव की एक घसियारिन थी,

सलीके से उसके  हाथ

आधा माथा ढके जब घास काटते थे

तो उसके रूप की कल्पना मात्र से

कई कलेजे कट जाते थे…..

 

थी फूल अनछुई-सी

जंगली घास में जूही-सी

काली भरी-भरी सी देह

बोलती बड़ी-बड़ी-सी सलोनी आँखें

मुझे शायद आँखों से सुंदर

उसमें तैरते उसके भाव लगते थे

भाव जिनकी मल्लिका को

शब्दों की जरूरत ही नहीं

यों ही नि:शब्द रचना रच जाती थी…..

पुष्पा थी तो मधवा की घरवाली

पर कुँआरी लड़कियाँ भी

उसके रूप से जल जाती थीं,

गांव के मरदों के अंदर के जानवर को,

कल्पनाओं में भी

उसका ब्याहता रूप नहीं भाता था

लोक-लाज-रिवाज़ों के कपड़ों के भीतर भी

उनका प्राकृत रूप नज़र आ ही जाता था…..

 

पुष्पा न केवल एक घसियारिन थी

पुष्पा न केवल एक ब्याहता थी

पुष्पा एक चर्चा थी, पुष्पा एक  अपेक्षा थी…..

 

गाँव के छोटे ठाकुर …… बस ठाकुर थे

नतीजतन रसिया तो होने ही थे,

जिस किसी पर उनकी नज़र पड़ जाती

वो चुपचाप उनके हुक्म के आगे झुक जाती,

मुझे लगता था गाँव की औरतों में भी

कोर्ई अपेक्षा पुरुष बसा है,

अपनी तंग-फटेहाल ज़िन्दगी में

कुछ क्षण ठाकु र के,

उन्हें किसी रुमानी कल्पना से कम नहीं लगते थे

काँटों की शैया को सोने के पलंग

सपने सलोने से कम नहीं लगते थे…..

 

खेतों के बीच की पतली-सी पगडंडी

डूबते क्षितिज को चूमता सूरज

पक्षियों क ा कलरव,

घर लौटते चौपायों का समूह

दूर जंगल में शेर की गर्जना

अपने डग घर की ओर बढ़ाती

आतांकित बकरियों की छलांग,

इन सब के बीच,

सारी चहचहाट को चीरते

गूँज रही थी पुष्पा की हँसी …..

 

सर पर घास का बोझ, हाथ में हँसिया

घर लौटकर, पसीना सुखाकर

कुएँ का एक गिलास पानी पीने की तमन्ना

मधवा से होने वाली जोरा-जोरी की कल्पना…..

 

स्वप्नों में खोई परीकुमारी-सी

ढलती शाम को चढ़ते यौवन-सा

प्रदीप्त करती अक्षत कुमारी-सी

चली जा रही थी पुष्पा …..

 

एकाएक,

शेर की गर्जना ऊँची हुई

मेमनों में हलचल मची

एक विद्रूप चौपाया

मासूम बकरी को घेरे खड़ा था

ठाकुर का एक हाथ मूँछोें पर था

दूसरा पुष्पा की कलाई पकड़े खड़ा था …..

 

हँसी यकायक चुप हो गई

झटके से पल्लूू वक्ष पर आ गया

सर पर रखा घास का झौआ

बगैर सहारे के तन गया था

हाथ की हँसुली

अब हथियार बन गया था…..

 

रणचंडी का वह रूप

ठाकुर देखता ही रह गया

शर्म से ऑँखें झुक गई

आत्मग्लानि ने खींचकर थप्पड़ मारा,

निःशब्द शब्दों की जननी

सारे भाव ताड़ गई

ठाकुर, पुष्पा को क्या ऐसी-वैसी समझा है

तू तो गाँव का मुखिया है

हर बहू-बेटी को होना तुझे रक्षक है

फिर क्यों तू ऐसा है,

क्यों तेरी प्रवृत्ति ऐसी भक्षक है …..?

 

ऐ भाई!

आज जो तूने मेरा हाथ थामा

तो ये हाथ रक्षा के लिये थामा,

ये मैंनेे माना है,

एक दूब से पुष्पा ने रक्षाबंधन कर डाला था,

ठाकुर के पाप की गठरी को

उसके नैनों से बही गंगा ने धो डाला था,

ठाकुर का जीवन बदल चुका था

छोटे ठाकुर, अब सचमुच के ठाकुर थे…..

 

पुष्पा की हँसी का मैं कायल हो गया था

निष्पाप, निर्दोष छवि का मैं भक्त हो चला था,

फिर शहर में घास बेचती

ग्राहकों को लुभाकर बातें करती

ये विद्रूप हँसी, ये लंपट स्वरूप,

पुष्पा तेरा कौन-सा है सही रूप ?

 

उसे मुझे देख लिया था

पर उसकी तल्लीनता में

कोई अंतर नहीं आया था,

उलटे कनखियों से

उसे देखने की फ़िराक़ में

मैं ही उसकी आँखों से जा टकराया था

वह फिर भी हँसती रही……

गाँव के खेतों के बीच से जाती

उस संकरी पगडंडी पर

उस शाम पुष्पा फिर मिली थी

वह फिर हँसी थी…..

 

बोली, बाबूजी! जानती हूँ,

शहर की मेरी हँसी

तुमने गलत नहीं मानी है,

पुष्पा वैसी ही है

जैसी तुमने शुरू से जानी है

हँसती चली गई, हँसती चली गई

हँसती-हँसती चली गई दूर तक…..

 

अपने चिथड़ा-चिथड़ा हुए

अस्तित्व को लिए

निस्तब्ध, लज्जित-सा मैं

क्षितिज को देखता रहा

जाती पुष्पा के पदचिह्नों को घूरता रहा,

खुद ने खुद से प्रश्न किया

ठाकुर और तेरे जैसों की

सफेदपोशी क्या सही थी,

उत्तर में गूँजी फिर वही हँसी थी !

(यह रचना लिखते समय लगभग बीस वर्ष पहले पढ़ी महान कथाकार प्रेमचंद जी की कहानी ‘घासवाली’ का धुँधला चरित्र मस्तिष्क में था।)

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ जन्मदिवस विशेष – कथाकार – व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आपकी साहित्यिक एवं संस्कृतिक जगत की विभूतियों के जन्मदिवस पर पर शोधपरक आलेख अत्यंत लोकप्रिय हैं। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है 85 वें जन्मदिवस पर आपका आलेख कथाकार – व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह हार )

☆ जन्मदिवस विशेष – कथाकार – व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

(25 अप्रैल को जन्म दिवस पर विशेष)

सामान्यतः कुर्ता पजामा धारण करने वाले, औसत कद काठी के डॉ. कुन्दन सिंह परिहार देश के शिक्षा और साहित्य जगत के अति विशिष्ट व्यक्ति हैं । ज्ञान के प्रकाश से आलोकित मुख मंडल, कुछ खोजती / ढूंढती, जिज्ञासा से भरी आंखें और लोगों को स्वयं से जोड़ लेने वाली आत्म विश्वास से परिपूर्ण प्रभावशाली वाणी जबलपुर वासी राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वरिष्ठ कथाकार, व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार के व्यक्तित्व का श्रंगार हैं ।

डॉ. परिहार ने जिस सहजता – सरलता,कोमलता और करुणा के साथ प्रेम और वात्सल्यता की भावना से भरे पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों पर कथाएं लिखी हैं उतनी ही खूबी से उन्होंने बनते – बिगड़ते रिश्तों, सामाजिक विसंगतियों, अत्याचार, अनाचार व एक आम कामकाजी व्यक्ति की परेशानी और बेचारगी को भी अपनी कहानियों के माध्यम से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है । आपके द्वारा रचित कहानियां सम्पूर्ण कथा तत्वों के साथ आपके श्रेष्ठ लेखन का प्रमाण हैं । वहीं जब आप बिखरते टूटते रिश्तों, सामाजिक विसंगतियों, अत्याचार, अनाचार, राजनीति आदि पर सीधा प्रहार करने वाले करारे व्यंग्य लिखते हैं तो लगता जैसे आपको बज्र निर्माण से बची दधीचि की अस्थियों से बनी सख्त कलम मिल गई हो जो आपकी मर्जी से बिना भेदभाव चलती जा रही है । आपकी कहानियों में परिस्थितियों व प्रसंगवश सहज ही व्यंग्य प्रवेश पा जाता है इसी तरह आपके व्यंग्य कथात्मक प्रवाह पाकर पाठकों पर पकड़ बनाए रखते हैं । भाषा शैली सहज सरल, प्रवाह पूर्ण है ।

25 अप्रैल 1939 को मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के ग्राम अलीपुरा में आपका जन्म हुआ । आपने अंग्रेजी साहित्य एवं अर्थशास्त्र में एम.ए., पीएच-डी., एल एल.बी. की उपाधियां प्राप्त कर अपनी जन्म भूमि को गौरवान्वित किया । मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के महाविद्यालयों में अध्यापन के उपरांत आपने जबलपुर के गोविंदराम सेकसरिया अर्थ वाणिज्य महाविद्यालय में सेवाएं दीं और प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त हुए ।

डॉ. कुन्दन सिंह परिहार 1960 से निरंतर कहानी और व्यंग्य लेखन कर रहे हैं । आपकी दो सौ से अधिक कहानियां और इतने ही व्यंग्य देश की प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । आपके द्वारा रचित प्रमुख कथा संग्रह हैं – तीसरा बेटा, हासिल, वह दुनिया, शहर में आदमी, कांटा । आपके प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों अंतरात्मा का उपद्रव, एक रोमांटिक की त्रासदी और नवाब साहब का पड़ोस आदि ने आपको  राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की । कथा संग्रह “वह दुनिया” के लिए 1994 में आपको वागीश्वरी पुरस्कार तथा 2004 में कहानी “नई सुबह” के लिए राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मकता पुरस्कार प्राप्त हो चुका है । अनेक संस्थाओं, संगठनों से सम्मानित आप नगर के युवा रचनाकारों के प्रेरणा स्रोत, मार्गदर्शक व जबलपुर के गौरव हैं । आज 25 अप्रैल को आपके 85 वें जन्मोत्सव पर आपके समस्त मित्रों, परिचितों, प्रशंसकों और व्यंगम परिवार की ओर से आपको स्वस्थ, सुदीर्घ, यशस्वी जीवन की शुभकामनाएं ।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार जन्म दिवस विशेष – 85 पार – साहित्य के कुंदन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ – संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी) ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है डॉ कुंदन सिंह परिहार जन्म दिवस पर विशेष – 85 पार – साहित्य के कुंदन। 

? डॉ कुंदन सिंह परिहार जन्म दिवस विशेष – 85 पार – साहित्य के कुंदन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ?

☆ कुंदन सिंह परिहार … तय करना कठिन है कि वे पहले व्यंग्यकार हैं या कहानीकार ☆

(इस संदर्भ में ई-अभिव्यक्ति ने 85 पार – साहित्य के कुंदन शीर्षक से फ्लिप बुक एवं प्रिंट स्वरूप में प्रकाशित किया है।)

ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से हर हफ्ते वरिष्ठ व्यंग्यकार, कहानीकार श्री कुंदन सिंह परिहार जी को पढ़ने के अवसर सारी दुनियां को हर हफ्ते मिलते हैं। अब तक साप्ताहिक स्तंभ में उनकी २३८ रचनायें हम प्रकाशित कर चुके हैं। उनकी उम्र ८५ पार हो रही है, उनकी रचनायें पढ़ें तो स्पष्ट समझ आता है कि वे खामोशी से दुनियां को पढ़ कर ही परिपक्व अनुभव से लिखते हैं। उनकी एक कहानी है दद्दू। समाज में बुजुर्गों की जो स्थितियां बन रही हैं यह कहानी उस परिवेश, परिस्थितियों को रेखांकित करती है। परिहार जी के पांच कहानी संग्रह तथा तीन व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, उनका व्यंग्य संग्रह नबाब साहब का पडोस चर्चित रहा है। तीसरा बेटा, हासिल, वह दुनिया, शहर में आदमी एवं कांटा शीर्षकों से छपे उनकी कहानियों एवं विशेष रूप से लघुकथाओ में उनकी व्यंग्यात्मक लेखन शैली दृष्टिगत होती है। उन्हें १९९४ में ही हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान प्राप्त हो चुका है। साहित्य की राजनीति और खेमेबाजी से दूर वे चिंतनशील, शांत लेकन करते नजर आते हैं। उनके लेखन में किंचित वामपंथी प्रभाव भी दिखता है। उनका समूचा जीवन जबलपुर में व्यतीत हुआ है, वे लगभग चालीस वर्षो तक महाविद्यालयीन शिक्षा से जुड़े रहे और वर्ष २००१ में जबलपुर के प्रतिष्ठित जी एस कालेज के प्राचार्य पद से सेवा पूरी कर अब पूर्णकालिक रचनाकार के रूप में साहित्यिक योगदान कर रहे हैं। उन्होंने अपने शैक्षिक जीवन में भांति भाति के छात्रों के जीवन को सकारात्मक दिशा दी। घर परिवार में भी वे साहित्यिक वातावरण और संस्कार अगली पीढ़ी तक पहु्चाने में सफल रहे हैं।

ई-अभिव्यक्ति में उनके साहित्य संसार की रचनाओ, कहानियो॓, व्यंग्य का इंतजार पाठक हर हफ्ते करते हैं।

🙏💐 ई-अभिव्यक्ति परिवार उनके सुखद, स्वस्थ्य दीर्घायु जीवन और सकारात्मक शाश्वत लेखन की शुभकामनाएं 💐🙏

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – ऋतुपति

? रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

अनुरक्त हुए ऋतुपति को मैं,

पीने को हाला देती हूँ।

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

मधुरिम अधरों पर रसासिक्त,

आँखें सुंदर भी  हैं नीली।

यौवन मद में मखमली बदन,

स्वर्णिम आभा नथ चमकीली,

प्रेयसी प्राणदा प्रियतम को,

प्यारी मधुशाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

नित मदिर -गीत गाता  यौवन,

बौराती पुलकित तरुणाई।

मैं बँधीं प्रीति की डोरी से,

हूँ बिना पिया के अकुलाई।।।

सिंदूरी माथे को खुश हो,

निज मन मतवाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

यौवन का झीना घूँघट पट,

रेशम की अँगिया शरमाती।

अभिसार वल्लरी नित पुष्पित,

है चन्द्र प्रभा सी  मुस्काती।।

प्रिय प्रांजल मूरत प्रांजल को

मैं प्रेमिल प्याला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #229 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के मुक्तक।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 229 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

हवाओं का ये झोंका तो हमें जीना सीखाता है।

थपेड़े जो लगे जीवन में वो सब कुछ बताता है।

हमें महसूस होता है ये जीवन  के निराले रंग –

हवा का रूख निराला है वो ही हमको जताता है।

*

चुनावी रंग है अब तो हवा वैसी ही बहती है।

किसे हमको तो चुनना है हवा वैसी बहकती है।

नेताओं का परचम तो हरपल  रंग ही बदले है-

समझना है हमें अब तो हवा हमको जो कहती है।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #211 ☆ बाल गीत – तोता मेरा… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – तोता मेरा आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 211 ☆

☆ बाल गीत – तोता मेरा… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तोता    मेरा   गाता    गाना

घर   लाये   थे   मेरे    नाना

तोता    मेरा    गाता    गाना

*

सीख सीख कर वो बतियाता

सुन  सुन  बातें  वो   दुहराता

रहकर  पिंजड़े  में  भी  तोता

टे  टे  कर -कर खाता  खाना

तोता     मेरा    गाता    गाना

*

लाल  चोंच  और  रंग- विरंगे 

दिखते  हमको  खूब  ही चंगे

जब  भी  कोई  घर  में आता

राम  राम  कह  उसे   बुलाना

तोता     मेरा    गाता     गाना

*

हरी  मिर्च   लगती   है  प्यारी

केरी   खाकर   करता  व्यारी

मीठे   बोल   कंठ   है   सुंदर

मैना  बिन  वह  लगे  दिवाना

तोता     मेरा    गाता    गाना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 219 ☆ पुस्तक माझा सखा… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ उदेला भाग्यरवी… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ उदेला भाग्यरवी… ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले

आनंदाश्रू गालावरती सहजची ओघळले ||

*

सुहास्य मुद्रा कमल लोचनी वत्सल मोहक भाव

हास्य तयाचे वेधुन घेते मनामनाचा ठाव

सगुण शुभंकर रघुरायाचे बालरूप भावले

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले ||१||

*

रत्नजडित हा मुकुट वाढवी मुखकमळाचे तेज

कानी कुंडल जणू फाकती नवरत्नांचे  ओज

असीम सुंदर लावण्याने रोमांचित जाहले

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले ||२||

*

दिव्य भूषणे भूषविताती रामचंद्र देखणा

रूप पाहुनी भान हरपते नाम मुखाने म्हणा

पूर्व पुण्य  मम थोर म्हणुनिया दर्शन सुख लाभले

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले ||३||

*

कोदंडराम रक्षणास घे रामबाण हा करी

आश्वासक ही वत्सल दृष्टी कृपावर्षाव करी

शुभचिन्हांनी मूर्तीभवती प्रभावलय फाकले

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले ||४||

*

अयोध्यापुरी प्राप्त जाहली गतवैभवास आज

अवघी सृष्टी धारण करते आनंदाचे साज

नगरीमधुनी पौरजनांचे हास्य मधुर गुंजले

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले ||५||

*

शतकांच्या या प्रतीक्षेतुनी उदेला भाग्यरवी

चराचराच्या आशा फुलल्या वाट गवसली  नवी

कालचक्र हे नवीन फिरले परिवर्तन जाहले

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले ||६||

*

नयनमनोहर रूप साजिरे गाभारी प्रकटले

आनंदाश्रू गालावरती सहजची ओघळले ||

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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