हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 35 – कसक… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कसक…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 35 – कसक… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हुक्मरानों के आगे, निडर है ग़ज़ल 

लेकर विद्रोही तेवर, मुखर है ग़ज़ल

घुंघरू परतंत्रता के, न पाँवों में अब 

आशिकी का, न केवल हुनर है ग़ज़ल

हर्म से अब नवाबों के, बाहर निकल 

होकर आजाद, फुटपाथ पर है ग़ज़ल

महफिलों का, न केवल ये शृंगार है 

जिन्दगी का, समूचा सफर है ग़ज़ल

ऐशो-आराम का मखमली पथ नहीं 

कंटकों, पत्थरों की डगर, है ग़ज़ल

खेत-खलिहान, जंगल, नदी, ताल, जल

मोट, हल, बैलगाड़ी, बखर है ग़ज़ल 

गाँव, तहसील, थाना, कचहरी जिला 

राष्ट्र क्या, विश्व से बाखबर है ग़ज़ल

प्रान्त, भाषा न मजहब की सीमा यहाँ 

आप जायें जिधर, ये उधर है गजल

मुक्तिका, गीतिका, तेवरी कुछ कहें 

आज हिन्दी में भी, शीर्ष पर है ग़ज़ल

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 111 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 111 – मनोज के दोहे… ☆

1 नया साल

नया साल यह आ गया, लेकर खुशी अपार।

जन-मन हर्षित आज है, झूम उठा संसार।।

2 नववर्ष

स्वागत है नव वर्ष का,  देश हुआ खुशहाल।

विश्व जगत में अग्रणी, उन्नत-भारत-भाल।।

3 शुभकामना

मोदी की शुभकामना, मिले सभी को मान।

देश तरक्की पर बढ़े, बने विश्व पहचान ।।

4 दो हजार चौबीस

लेकर खुशियाँ आ रहा, दो हजार चौबीस ।

भूलो अब तेईस को, मिला राम आसीस।।

5 अभिनंदन

अभिनंदन है आपका, नए वर्ष पर आज।

कार्य सभी संपन्न हों, बिगड़ें कभी न काज।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 253 ☆ व्यंग्य – मौसम ठंड का ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक व्यंग्य – मौसम ठंड का)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 253 ☆

? व्यंग्य – मौसम ठंड का ?

मौसम के बदलाव के साथ, हवाएं सुस्त और शीतल हो जाती हैं। सुबह सूरज को भी अपनी ड्यूटी पर निकलने के लिए कोहरे की रजाई हटानी होती है। ऑपरेशनल कारणों से बिना बताए हवाई जहाज लेट होने लगते हैं। द्रुत गति की ट्रेन मंद रफ्तार से चलने को बाध्य हो जाती हैं। कम्बल बांटने वाली समाज सेवी संस्थाओं को फोटो खिंचाने के अवसर मिल जाते हैं। स्थानीय प्रशासन अलाव के लिये जलाऊ लकड़ी खरीदने के टेंडर लगाने लगता है। पुराने कपड़ों को बांटकर मेरे जैसे लोग गरीबों के मसीहा होने के आत्म दंभ से भर जाते हैं। श्रीमती जी के किचन में ज्वार, बाजरे, मक्के की रोटी बनने लगती है। स्वीट्स शाप पर गुड़ के मेथी वाले लड्डू और गाजर का हलुआ मिलने लगता है। गीजर और रूम हीटर के चलते बिजली का बिल शूट होने लगता है।

मित्रों के मन में कुछ पार्टी शार्टी, पिकनिक विकनिक हो जाये वाले ख्यालों की बौछार बरसने लगती है। रजाई से बाहर निकलने को शरीर तैयार नहीं होता। बाथरूम से बिना नहाये ही बस कपड़े बदल कर निकल आना अच्छा लगता है। धूप की तपिश, पत्नी के तानों सी सुहानी लगने लगे। जब ऐसे सिमटम्स नजर आने लगें तो समझ जाइये कि ठंड का मौसम अपने शबाब पर है। ऐसे सीजन में  पुरानी शर्ट के ऊपर नई स्वेटर डालकर आप कांफिडेंस से आफिस जा सकते हैं। शादी ब्याह में बरसों से रखा सूट और टाई पहनने के सुअवसर भी ठंड के मौसम में मिल जाते हैं। ठंड की शादियों में एक अनोखा दृश्य भी देखने मिल जाते जो किंचित जेंडर बायस्ड लगता है। जब शीतलहर से जनता का हाल बेहाल हो तब भी  शादियों में महिलाओ को खुले गले के ब्लाउज के संग रेशमी साडी में रात रात भर सक्रिय देखा जा सकता है।

दरअसल फेसबुक डी पी के लिये, फोटो और फैशन के दम पर उनका बाडी थर्मोस्टेट बिगडा बिगडा नजर आता है। सुबह की कोहरे वाली सर्द हवा, कभी हल्की फुल्की बारिश और यदि कहीं ओले भी गिर गये तो गर्मी के मौसम में जिस नैनीताल मसूरी के लिये हजारों खर्च करके दूर पहाड पर जाना होता है, वह परिवेश स्वयं आपके घर चला आता है। अपनी तो गुजारिश है कि ऐसे बढ़िया ठंड के मौसम में रिश्तों को गर्म बनाये रखें और मूंगफली को काजू समझकर खायें, बस।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 176 – तपिश – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा तपिश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 176 ☆

☆ लघुकथा – 🎪 तपिश 🎪 

घर की छत पर हमेशा की तरह माही– आज भी बैठी अपनी माँ के साथ पढ़ाई कर रही थी, परंतु आज पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। जो बात उसके दिलों दिमाग पर बढ़ते जा रही थी। वह अपनी माँ का अकेलापन, हमेशा देखती और उन्हें कामों में लगी देख माही आज पूछ बैठी – – “माँ मुझे आपसे एक बात पूछनी थी?” माँ ने कहा– “पूछो।” माही ने माँ की आंखों को झांकते हुए कही– “मेरे स्कूल के कार्यकाल में या कोई और भी मौके पर कभी भी मैंने पिताजी को हस्ताक्षर करते नहीं देखा। हमेशा आप ही मुझे प्रोत्साहन देकर  पढ़ाती रही और आगे बढ़ने के नियम सिखाती रही।

माँ क्या सच में पिताजी मुझे अपनी बेटी नहीं मानते?” सीने में दबाये सामने अपने मासुम सवाल आज पूछ कर  माही ने माँ  को सोचने पर मजबूर कर दिया।

तार पर कपड़ा सुखाते अचानक माँ ने माही बिटिया की ओर देखकर बोली – – -” बेटा आज अचानक यह सवाल क्यों पूछ रही हो???”  माही ने बड़े ही धीर गंभीर से अपनी माँ का आँचल हाथों से लेकर अपने सिर पर ढाँकती हुई बोली— “मैं जानती हूँ मेरे इस सवाल का जवाब आप नहीं दे सकेंगी।

अक्सर इस सवाल को लेकर मेरे स्कूल में अध्यापिका और प्रिंसिपल को बातें करते मैंने सुना है।”

आज माँ ने देखा माही बहुत समझदार और उस मानसिक वेदना से झुलस रही है जिसे वह बरसों से अपने सीने में दबाये हुए है।

समय आ गया है उसे सच बता दिया जाए। बड़े हिम्मत से उसने कहा — ” माही तुम मेरे प्यार की वह अमिट निशानी हो। जो देश सेवा के लिए अपनी जान निछावर कर सदा – सदा के लिए हमें छोड़कर चले गए।

समाज और परिवार की तानों को सुनते- सुनते तुम्हारी माँ एक जिंदा लाश बन चुकी थी।

परंतु उस समय तुम्हारे पिताजी जो अभी है, उन्होंने हाथ थामा। रिश्ते में तुम्हारे बड़े पिताजी लगते हैं। जिन्होंने अपनी शादी कभी नहीं की।

उन्होंने अपने भाई की अमानत को दुनिया की नजरों से बचा कर रखा है।”

दरवाजे के कोने में खड़े पिताजी सब सुन रहे थे। माही के सवाल ने आज उन्हें अंदर तक हिला दिया।

स्कूल में नए साल का आयोजन था। सभी अभिभावक खड़े थे। अपने-अपने बच्चों के साथ जाने के लिए। माही का नाम जैसे ही पुकारा गया। माँ उठती इसके पहले ही पिताजी ने इशारे से जो भी कहा, आज माँ बहुत प्रसन्नता से भर उठी। और पिताजी- माँ का हाथ थामे बीच में किसी मजबूत बंधन के साथ अपने परिवार के साथ जाते दिखे।

बरसों की तपिश आज भरी ठंडक में सुखद एहसास दे रही थी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – देश-परदेश – हिट एंड रन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 65 ☆ देश-परदेश – हिट एंड रन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आजकल उपरोक्त विषय को लेकर सब चर्चा कर रहें हैं। देश  के ट्रांसपोर्टर नए कानून के विरुद्ध चक्का जाम के लिए लाम बंद हैं। जब भी कोई परिवर्तन होता है, तो प्रभावित लोग उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं।

सामाजिक मंचों पर इस बात को लेकर राजनीति करना और पक्ष /विपक्ष में विचार परोसने की प्रतिस्पर्धा आरंभ हो जाती हैं। लोगों का काम है कहना, किसी ने नव वर्ष पर मदिरालयों पर लगने वाली की लाइनों की तुलना पेट्रोल पंप पर लगी मीलों लंबी लाइनों से कर दी हैं। किसी ने इसको राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से जोड़ दिया हैं।

बचपन में भी हम सब हिट एंड रन खेलते थे। मोहल्ले के बच्चों की पिटाई कर घर में दुबक जाते थे। वो बात अलग है, जब बच्चों की मां आकर इस बात का उल्लाहना देती थी, तो हमारी डंडे से हुई पिटाई आज तक जहन में हैं। शिकायतकर्ता के घर में लगी द्वारघंटी बजा कर आंटी को कुछ दिन तक तंग अवश्य किया जाता था।

वर्तमान में यदि आप किसी बच्चे से उसके पेरेंट्स को शिकायत करते हैं, तो बच्चों की पिटाई /कुटाई की बात तो अब इतिहास की बात हो गई है। उल्टा परिजन झूट बोल कर कह देंगे की हमारा बच्चा तो घर से बाहर ही नहीं निकलता हैं। इस प्रकार के व्यवहार से बच्चे भविष्य में आतंकवादी की श्रेणियों में शामिल हो जातें हैं।

“हिट एंड रन” का सबसे प्रसिद्ध किस्सा जिसके नायक बॉलीवुड के चर्चित नाम सलमान खान थे। उनके इस कृत से लोग मुंबई में  फुटपाथ पर रात्रि में सोते समय लोग आज भी  सजग रहते हैं।

आज के हिट और रन के विरोधियों से तो एक ही बात समझ में आती है ” चोरी और ऊपर से सीनाजोरी”। 

.© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #219 ☆ जोखड आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 219 ?

जोखड आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

जीवन सोपे झालेले पण जगणे अवघड आहे

गायीचा मुडदा पडतो ती होता भाकड आहे

पैशाच्या मोहापायी मज भवती जमले सारे

पण श्वास थांबला नाही दाखवली रोकड आहे

सण आनंदाचा होता उत्साही होते सारे

मी ईद मुबारक म्हणता घाबरला बोकड आहे

खाणीत कोळशाच्या मी अन् तो आहे सोन्याच्या 

मी गुहेत अंधाराच्या का खेळत धुलवड आहे

जीवनदाते जेथे त्या जागेला किंमत येते

श्रावण बाळाच्या हाती सोन्याची कावड आहे

झाडावर जागा होती पिल्लाला रुचली नाही

त्या जुनाट घरट्याचीही झालेली पडझड आहे

शेतात राबतो आहे डोईवर कपास त्याच्या

बैलाच्या खांद्यावरती अजूनही जोखड आहे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मुंबईची जीवनरेखा… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– मुंबईची जीवनरेखा… – ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

पदोपदी चालतो

जगण्याचा  हा संघर्ष |

धक्काबुक्की खात,

लोटती वर्षामागून वर्षं |

लोकल ट्रेन सेवा,

मुंबापुरीची लाईफ लाईन |

ती आहे म्हणूनच,

कामधंदा चालतो फाईन |

घड्याळाच्या काट्यावर,

मुंबई मेरी जान धावते |

लोकलची वेळ गाठायाला,

मुंबई वायू गतीने पळते |

दिवसागणिक गर्दी तिच्यात,

वाढता वाढत  आहे |

तुडुंब भरलेल्या डब्यात,

चाकरमानी दिवस काढत आहे |

भार तिचा हलका व्हायला,

मोनो-मेट्रो जन्मल्या बहिणी |

दोघींचीही तिच्याचप्रमाणे,

होत चालली आहे कहाणी |

ऑन ड्युटी RPF-स्ट्रेचर हमाल,

कोणीतरी गेला हे ऐकून कळते |

कोणा कुटुंबाचा आधार तुटला,

कुठेतरी मन त्यांच्याप्रती काकूळते |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 170 – दोहे – मीरा ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – क्यों कर पालिश करती हो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 170 – दोहे  –  मीरा…  ✍

चित्रकार चित्रित करेलिखें ग्रंथ विद्वान

पर मीरा के ‘रहस’ को, कौन सका कब जान॥

पहुंची मीरा द्वारकाथी गिरधर से होड़

पल भर में ही हो गये‘मीरा-मय’ रणछोड़।।

मीरा जन्मी जगत् में, साक्षी सकल समाज

देख न पाये विदाईरहे सभी मुहताज ॥

तुलसी सूर कबीर के, जीवन चरित अनुप

मीरा अपने आप-सी, हो गई श्याम स्वरूप।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 169 – “ऑंगन का अपना दुख था…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  ऑंगन का अपना दुख था...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 169 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “ऑंगन का अपना दुख था...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

यह भी तो छत की मुँडेर का

अपना अनुभव था ।

उस पर ही बैठेगी चिडिया

कैसे संभव था ॥

 

ऑंगन का अपना दुख था

ना छा पायी बदली ।

अगर कभी उस तरफ मुड़ी

तो भी बदल बदली ।

 

आमों के पेडों के नीचे

छाँव नहीं लौटी ।

मौसम के अपनेपन का

यह कथित पराभव था ॥

 

दीवारें चुपचाप अहंकारी

जैसी दिखतीं ।

दरवाजे, खिड़कियाँ, चौखटें

खिंची खिंची लगतीं ।

 

जिन पर प्रसन्नता का कुछ

कुछ था चढ़ा घमंड रहा ।

यह उनकी निर्वाध सोच का

चिन्तन लाघव था ॥

 

आत्म प्रचारक दिखी पौर,

व चिन्तक दालाने ।

जो अपने वैविध्य समन्वय

की थीं पहचानें ।

 

जो खपरैलों से होकर

सब से बस यह कहतीं ।

यहाँ जिंदगी जीना शायद

बहुत असंभव था ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-10-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 219 ☆ चिंतन – “लकीर का सवाल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक चिंतनीय आलेख – “लकीर का सवाल”)

☆ चिंतन – “लकीर का सवाल☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

एक सवाल कुछ दिनों से मन में उमड़ घुमड़ रहा है कि सोशल मीडिया में इन दिनों व्यंग्य बहुत चर्चा में है, पर कुछ लोग अपनी बड़ी लकीर खींचकर सामने वाले को फकीर बनाने में विश्वास कर रहे हैं और कुछ विधा और शैली को लेकर खेमेबाजी में व्यस्त हैं ?

एक आलोचक कम व्यंग्यकार ने घुटना रगड़ते हुए जबाब दिया – व्यंग्य पहले हाशिये में था। कवि सम्मेलन में हास्य कवि बुलाये जाते थे फिर धीरे-धीरे हास्य के साथ व्यंग्यकार को भी बुलाया जाने लगा और मंच में इनको चूरन चटनी की तरह इस्तेमाल किया गया। धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं भी हास्य – व्यंग्य छापतीं थीं। व्यंग्य धीरे-धीरे आया लेकिन व्यंग्य को मजबूत करने की बजाय कुछ लोग विधा और शैली के बहाने खेमेबाजी करने में लग गए, जबकि आज व्यंग्य का एक मानक बनाया जाना चाहिए। व्यंग्य के व्याकरण पर चर्चा होनी चाहिए, हास्य की तरह व्यंग्य को ग्यारहवां रस बनाने पर विचार होना चाहिए क्योंकि लय, गति और रस के बगैर कोई बात गले नहीं उतरती। व्यंग्य की लान में बहुत सी जंगली घास अनजाने में ऊगती है तो उसको निकालते रहना बेहद जरूरी है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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