(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं अनुकरणीय लघुकथा नया पाठ। यह लघुकथा हमें वर्तमान को सुधारकर अतीत को भुलाने की प्रेरणा देती हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस अनुकरणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 63 ☆
☆ नया पाठ ☆
बचपन से ही वह सुनती आ रही थी कि ’तुम लडकी हो, तुम्हें ऐसे बैठना है, ऐसे कपडे पहनने हैं, घर के काम सीखने हैं’और भी ना जाने क्या – क्या। कान पक गए थे उसके यह सब सुनते – सुनते। ’सारी सीख बस मेरे लिए ही है, भैया को कुछ नहीं कहता कोई’ – बडी नाराजगी थी उसे।
आज बच्चों को आपस में झगडते देखकर सारी बातें फिर से याद आ गईं। झगडा खाने के बर्तन उठाने को लेकर हो रहा था। ‘माँ देखो मीता अपनी प्लेट नहीं उठा रही है। उसे तो मेरा काम करना चाहिए, बडा भाई हूँ ना उसका।‘ तो – उसने गुस्से से देखा। ‘बडा भाई छोटी बहन के काम नहीं कर सकता क्या? जब मीता तेरा काम करती है तब? चल बर्तन उठा मीता के।‘
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का बांधों की भूमिका के सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण पर सार्थक विमर्श करता एक विचारणीय तथा पठनीय विशेष आलेख ‘बिजली उत्पादन में बाँधों की भूमिका’।इस शोधपरक विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 99☆
बिजली उत्पादन में बाँधों की भूमिका
व्यवसायिक बिजली उत्पादन की जो विधियां वर्तमान में प्रयुक्त हो रही हैं उनमें कोयले से ताप विद्युत, परमाणु विद्युत या बाँधो के द्वारा जल विद्युत का उत्पादन प्रमुख हैं. पानी को उंचाई से नीचे गिराकर उसकी स्थितिज उर्जा को विद्युत उर्जा में बदलने की जल विद्युत उत्पादन प्रणाली लिये बाँध बनाकर ऊंचाई पर जल संग्रहण करना होता है. तापविद्युत या परमाणु विद्युत के उत्पादन हेतु भी टरबाइन चलाने के लिये वाष्प बनाना पड़ता है और इसके लिये भी बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है अतः जल संग्रहण के लिये बांध अनिवार्य हो जाता है. ताप विद्युत संयत्र से निकलने वाली ढ़ेर सी राख के समुचित निस्तारण के लिये एशबंड बनाये जाते हैं, जिसके लिये भी बाँध बनाना पड़ता है. शायद इसीलिये बांधो और कल कारखानो को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के तीर्थ कहा था.पर वर्तमान संदर्भो में बड़े बाँधों से समृद्धि की बात शायद पुरानी मानी जाने लगी है. संभवतः इसके अनेक कारणो में से कुछ इस तरह हैं.
१ बड़े क्षेत्रफल के वन डूब क्षेत्र में आने से नदी के केचमेंट एरिया में भूमि का क्षरण
२ सिल्टिंग से बांध का पूरा उपयोग न हो पाना,वाटर लागिंग और जमीन के सेलिनाईज़ेशन की समस्यायें
३ वनो के विनाश से पर्यावरण के प्रति वैश्विक चिंतायें, अनुपूरक वृक्षारोपण की असफलतायें
४ बहुत अधिक लागत के कारण नियत समय पर परियोजना का पूरा न हो पाना
५ भू अधिग्रहण की समस्यायें,पुनरीक्षित आकलनो में लागत में निरंतर अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि
६ सिंचाई,मत्स्यपालन व विद्युत उत्पादन जैसी एकीकृत बहुआयामी परियोजनाओ में विभिन्न विभागो के परस्पर समन्वय की कमी
७ डूब क्षेत्र के विस्थापितों की पीड़ा, उनका समुचित पुनर्वास न हो पाना
८ बड़े बांधो से भूगर्भीय परिवर्तन एवं भूकंप
९ डूब क्षेत्र में भू गर्भीय खनिज संपदा की व्यापक हानि,हैबीटैट (पशु व पौधों के प्राकृतिक-वास) का नुकसान
१० बड़े स्तर पर धन तथा लोगो के प्रभावित होने से भ्रष्टाचार व राजनीतीक समस्यायें
विकास गौण हो गया, मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय बन गया
नर्मदा घाटी पर डिंडोरी में नर्मदा के उद्गम से लेकर गुजरात के सरदार सरोवर तक अनेक बांधो की श्रंखला की विशद परियोजनायें बनाई गई थी, किंतु इन्ही सब कारणो से उनमें से अनेक ५० वर्षो बाद आज तक रिपोर्ट के स्तर पर ही हैं. डूब क्षेत्र की जमीन और जनता के मनोभावो का समुचित आकलन न किये जाने, विशेष रूप से विस्थापितो के पुनर्वास के संवेदन शील मुद्दे पर समय पर सही तरीके से जन भावनाओ के अनुरूप काम न हो पाने के कारण नर्मदा बचाओ आंदोलन का जन्म हुआ.इन लोगों की अगुवाई करने वाली मेधा पाटकर ने एक वृहद, अहिंसक सामाजिक आंदोलन का रूप देकर समाज के समक्ष सरदार सरोवर बाँध की कमियो को उजागर किया. मेधा तेज़तर्रार, साहसी और सहनशील आंदोलनकारी रही हैं. मेधा के नर्मदा बचाओ आंदोलन से सरकार और विदेशी निवेशकों पर दबाव भी पड़ा, 1993 में विश्व बैंक ने मानावाधिकारों पर चिंता जताते हुए पूँजीनिवेश वापस ले लिया. उच्चतम न्यायालय ने पहले परियोजना पर रोक लगाई और फिर 2000 में हरी झंडी भी देखा दी.प्रत्यक्ष और परोक्ष वैश्विक हस्तक्षेप के चलते विकास गौण हो गया, मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय बन गया. मानव अधिकार, पर्यावरण आदि प्रसंगो को लेकर आंदोलनकारियो को पुरस्कार, सम्मान घोषित होने लगे. बांधो के विषय में तकनीकी दृष्टिकोण की उपेक्षा करते हुये, स्वार्थो, राजनैतिक लाभ को लेकर पक्ष विपक्ष की लाबियिंग हो रही है. मेधा पाटकर और उनके साथियों को 1991 में प्रतिष्ठित राईट लाईवलीहुड पुरस्कार मिला, जिसकी तुलना नोबल पुरस्कार से की जाती है.मेघा मुक्त वैश्विक संस्था “वर्ल्ड कमीशन ओन डैम्स” में शामिल रह चुकी हैं. 1992 में उन्हें गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार भी मिला.
इन समस्याओ के निदान हेतु जल-विद्युत योजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी के बारे में विमर्श हो रहा है. बड़े बांधो की अपेक्षा छोटी परियोजनाओ पर कार्य किये जाने का वैचारिक परिवर्तन नीती निर्धारको के स्तर पर हुआ है.
क्लीन ग्रीन बिजली पन बिजली
जल विद्युत के उत्पादन में संचालन संधारण व्यय बहुत ही कम होता है साथ ही पीकिंग अवर्स में आवश्यकता के अनुसार जल निकासी नियंत्रित करके विद्युत उत्पादन घटाने बढ़ाने की सुविधा के चलते किसी भी विद्युत सिस्टम में जल विद्युत बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, इससे औद्योगिक प्रदूषण भी नही होता किंतु जल विद्युत उत्पादन संयत्र की स्थापना का बहुत अधिक लागत मूल्य एवं परियोजना का लंबा निर्माण काल इसकी बड़ी कमी है. भारत में हिमालय के तराई वाले क्षेत्र में जल विद्युत की व्यापक संभावनायें हैं, जिनका दोहन न हो पाने के कारण कितनी ही बिजली बही जा रही है.वर्तमान बिजली की कमी को दृष्टिगत रखते हुये, लागत मूल्य के आर्थिक पक्ष की उपेक्षा करते हुये, प्रत्येक छोटे बड़े बांध से सिंचाई हेतु प्रयुक्त नहरो में निकाले जाने वाले पानी से हैडरेस पर ही जल विद्युत उत्पादन टरबाईन लगाया जाना आवश्यक है. किसी भी संतुलित विद्युत उत्पादन सिस्टम में जल विद्युत की न्यूनतम ४० प्रतिशत हिस्सेदारी होनी ही चाहिये, जिसकी अभी हमारे देश व राज्य में कमी है. वैसे भी कोयले के हर क्षण घटते भंडारो के परिप्रेक्ष्य में वैकल्पिक उर्जा स्त्रोतो को बढ़ावा दिया जाना जरूरी है.
छत्तीसगढ़ के प्रसंग में
छत्तीसगढ़ देश का उर्जा हब रहा है, यहां प्रचुर संभावनायें हैं कि ताप विद्युत के साथ साथ व्यापक जल विद्युत भी पैदा की जा सकती है. केशकाल की घाटी, बिजली की घाटी भी बनने की क्षमता रखती है . बोधघाट परियोजना को पर्यावरण व वन विभाग से अनुमति मिलने में जो वर्षौ की देरी हुई उसका खामियाजा पुराने समग्र म. प्र. को भोगना पड़ा है. आवश्यकता है कि इंद्रावती, महानदी, व अन्य नदियो पर जल विद्युत उत्पादन को लेकर नये सिरे से कार्यवाही की जावे, गवर्नमेंट पब्लिक पार्टनरशिप से परियोजनायें लगाई जावें और उन्हें नियत समय पर पूरा किया जावे.
जल विद्युत और उत्तराखंड
भारत में उत्तराखंड में जल विद्युत की प्रचुर सँभावनाओ के संदर्भ में वहां की परियोजनाओ पर समीक्षा जरूरी लगती है. दुखद है कि बाँध परियोजनाओं के माध्यम से उत्तराखंड में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति चल रही है. शुरूआती दौर से स्थानीय जनता बाँधों का विरोध करती आयी है तो कम्पनियाँ धनबल और प्रशासन की मदद से अवाम के एक वर्ग को बाँधों के पक्ष में खड़ी करती रही है. ‘नदी बचाओ आन्दोलन’ की संयोजक और गांधी शान्ति प्रतिष्ठान की अध्यक्षराधा बहन भट्ट का कहना है कि ऊर्जा की जरूरत जरूर है, लेकिन सूक्ष्म परियोजनायें प्रत्येक गाँव में बनाकर बिजली के साथ रोजगार पैदा करना बेहतर विकल्प है. इस वर्ष इण्डोनेशिया की मुनिपुनी को गांव गांव में सूक्ष्म जल विद्युत परियोजनाओ के निर्माण हेतु ही मैग्सेसे अवार्ड भी मिला है. क्या बड़े टनल और डैम रोजगार दे सकेंगे? पहाड़ी क्षेत्रो में कृषि भूमि सीमित है,लोगों ने अपनी यह बहुमूल्य भूमि बड़ी परियोजनाओं के लिये दी, बाँध बनने तक रोजगार के नाम पर उन्हें बरगलाया गया तथा उत्पादन शुरू होते ही बाँध प्रभावित लोग परियोजनाओं के हिस्से नहीं रहे, मनेरी भाली द्वितीय पर चर्चा करते हुए राधा बहन ने विफोली गाँव का दर्द बताया, जहाँ प्रभावित ग्रामीणों ने अपनी जमीन और आजीविका के साथ बाँध कर्मचारियों की विस्तृत बस्ती की तुलना में वोटर लिस्ट में अल्पमत में आकर लोकतांत्रिक तरीको से अपनी बात मनवाने का अधिकार भी खो दिया.
चिपको आन्दोलन की प्रणेता गौरा देवी के गाँव रैणी के नीचे भी टनल बनाना इस महान आन्दोलन की तौहीन है। वर्षों पूर्व रैणी के महिला मंगल दल द्वारा इस परियोजना क्षेत्र में पौधे लगाये गये थे। मोहन काण्डपाल के सर्वेक्षण के अनुसार परियोजना द्वारा सड़क ले जाने में 200 पेड़ काटे गये और मुआवजा वन विभाग को दे दिया गया। पेड़ लगाने वाले लोगों को पता भी नहीं चला कि कब ठेका हुआ। गौरा देवी की निकट सहयोगी गोमती देवी को दुःख है कि पैसे के आगे सब बिक गये। रैणी से 6 किमी दूर लाता में एन.टी.पी.सी द्वारा प्रारम्भ की जा रही परियोजना में सुरंग बनाने का गाँव वालों ने पुरजोर विरोध किया। मलारी गाँव में भी मलारी झेलम नाम से टीएचडीसी विद्युत परियोजना लगा रही है। मलारी के महिला मंगल दल ने कम्पनी को गाँव में नहीं घुसने दिया तथा परियोजना के बोर्ड को उखाड़कर फैंक दिया। कम्पनी ने कुछ लोगों पर मुकदमे लगा रखे हैं। इसके अलावा धौलीगंगा और उसकी सहायक नदियों में पीपलकोटी, जुम्मा, भ्यूँडार, काकभुसण्डी, द्रोणगिरी में प्रस्तावित परियोजनाओं का प्रबल विरोध है।
उत्तराखंड की जल-विद्युत परियोजनाओं पर कन्ट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल (कैग) की रपट
उत्तराखंड की जल-विद्युत परियोजनाओं पर भारत के कन्ट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल (कैग) ने 30 सितंबर 2009 को एक बहुत कड़ी टिप्पणी कर स्पष्ट कहा है कि योजनाओं का कार्यान्वयन निराशाजनक रहा है। उनमें पर्यावरण संरक्षण की कतई परवाह नहीं की गई है जिससे उसकी क्षति हो रही है. कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उत्तराखंड सरकार की महत्वाकांक्षी योजना थी कि वह अपनी जलशक्ति का उपयोग तथा विकास सरकारी तथा निजी क्षेत्र के सहयोग से करेगा. राज्य की जल-विद्युत बनाने की नीति अक्टूबर 2002 को बनी। उसका मुख्य उद्देश्य था राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाया जाय और उसकी बनाई बिजली राज्य को ही नहीं बल्कि देश के उत्तरी विद्युत वितरण केन्द्र को भी मिले. उसके निजी क्षेत्र की जल-विद्युत योजनाओं के कार्यांवयन की बांट, क्रिया तथा पर्यावरण पर प्रभाव को जाँचने तथा निरीक्षण करने के बाद पता लगा कि 48 योजनाएं जो 1993 से 2006 तक स्वीकृत की गई थीं, 15 वर्षों के बाद केवल दस प्रतिशत ही पूरी हो पाईं. उन सब की विद्युत उत्पादन क्षमता 2,423.10 मेगावाट आंकी गई थी, लेकिन मार्च 2009 तक वह केवल 418.05 मेगावाट ही हो पाईं. कैग के अनुसार इसके मुख्य कारण थे भूमि प्राप्ति में देरी, वन विभाग से समय पर आज्ञा न ले पाना तथा विद्युत उत्पादन क्षमता में लगातार बदलाव करते रहना, जिससे राज्य सरकार को आर्थिक हानि हुई. अन्य प्रमुख कारण थे, योजना संभावनाओं की अपूर्ण समीक्षा, उनके कार्यान्वयन में कमी तथा उनका सही मूल्यांकन, जिसे उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड को करना था, न कर पाना. प्रगति की जाँच के लिए सही मूल्यांकन पद्धति की आवश्यकता थी जो बनाने, मशीनरी तथा सामान लगने के समय में हुई त्रुटियों को जाँच करने का काम नहीं कर पाई, न ही यह निश्चित कर पाई कि वह त्रुटियाँ फिर न हों. निजी कंपनियों पर समझौते की जो शर्तें लगाई गई थीं उनका पालन भी नहीं हो पाया.यह रिपोर्ट कैग की वेबसाइट पर उपलब्ध है.
जरूरी है कि सजग सामयिक नीति ही न बनाई जावे उसका समुचित परिपालन भी हो
इन संदर्भो में समूची जल विद्युत नीति, बांधो के निर्माण, उनके आकार प्रकार की निरंतर समीक्षा हो, वैश्विक स्तर की निर्माण प्रणालियो को अपनाया जावे, गुणवत्ता, समय, जनभावनाओ के अनुरूप कार्य सुनिश्चित कया जावे. प्रोजेक्ट रिपोर्ट को यथावत मूर्त रूप दिया जाना जरूरी है, तभी बिजली उत्पादन में बांधो की वास्तविक भूमिका का सकारात्मक उपयोग हो सके.
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “एकला चलो रे… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 58 – एकला चलो रे… ☆
छोटे – छोटे घाव भी नासूर बनकर पीड़ा पहुँचाते हैं। माना परिवर्तन प्रकृति का नियम है, परंतु अक्सर ऐसा क्यों होता है कि जब कोई व्यक्ति सफलता के चरम पर हो तभी उसे किसी न किसी कारण अपदस्थ होना ही पड़ता है। हम सभी एक लीक पर चलने के आदी होते हैं इसलिए आसानी से कोई भी बदलाव नहीं चाहते हैं। बस एक ही ढर्रे पर बने रहना हमारी नियति बन चुकी है। शायद इसी को मोटिवेशनल स्पीकर कंफर्ट जोन कहकर परिभाषित करते चले आ रहे हैं। बदलाव हमेशा बुरा नहीं होता है वैसे भी एक ही रंग देखकर मन परेशान हो उठता है, कुछ न कुछ नया होते ही रहना चाहिए तभी रोचकता बनी रहती है।
देश विदेशों सभी जगह बदलाव की ही बयार चल रही है। दरसल ये तो एक बहाना है, कुछ अपने लोगों को ही हटाना है। अब जो सच्चे सेवक हैं, उन्हें किस विधि से पदच्युत किया जावे सो बदलूराम जी ने एक नया ही राग अलापना शुरू कर दिया। चारो ओर गहमा – गहमी का माहौल बन गया। सोए हुए लोग भी सक्रिय हो गए, कहीं कोई अपने पद को छोड़ने से डर रहा था तो कहीं कोई नए पद के लालच में पूरे मनोयोग से कार्यरत दिखने लगे थे। अब तो उच्च स्तरीय कमेटी भी सक्रिय होकर अपनी भूमिका सुनिश्चित करने लगी। जो जिस पद पर है वो उससे आगे की पदोन्नति चाहता है। सीमित स्थान के साथ, एक अनार सौ बीमार की कहावत सच होती हुई दिख रही थी। अपने – अपने कार्यों का पिटारा सब ने खोल लिया। पूरे सत्र में जितने कार्य नहीं हुए थे उससे ज्यादा की सूची बना कर प्रचारित की जाने लगी।
लोग भी भ्रम में थे क्या करें, पर चतुरलाल जी समझ रहे थे कि ये सब कुछ कैबिनेट को भंग करने की मुहिम है, जब प्रधान बदलेगा तो अपने आप पुरानी व्यवस्था ध्वस्त होकर सब कुछ नया होगा, जिसमें वो तो बच जायेगा परन्तु पुराने लोग रिटार्यड होकर वानप्रस्थ के नियमों का पालन करते हुए,स्वयं सन्यास की राह पकड़ने हेतु बाध्य हो जायेंगे। खैर ये तो सदियों से होता चला आ रहा है। फूल कितना ही सुंदर क्यों न हो उसे एक दिन मुरझा कर झरना ही होता है।
जब बात फूलों की हो तो काँटों की उपस्थिति भी जरूरी हो जाती है। यही तो असली रक्षक होते हैं। कहा भी गया है, सफलता की राह में जब तक कंकड़ न चुभे तब तक मजा ही नहीं आता है। वैसे भी शरीर को स्वस्थ्य रखने हेतु एक्यूप्रेशर का प्रयोग किया ही जाता। लाइलाज रोगों को ठीक करने हेतु इन्हीं विधियों का सहारा लिया जाता रहा है। व्यवस्था को ठीक करने हेतु इन्हीं उपायों का प्रयोग शासकों द्वारा किया जाता रहा है। कदम – कदम पर चुनौतियों का सामना करते हुए उम्मीदवार उम्मीद का दामन थामें, एकला चलो रे का राग अलापते हुए चलते जा रहे हैं। वैसे भी एकल संस्कृति का चलन परिवारों के साथ – साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी नज़र आने लगा है। जब भी जोड़ -तोड़ की सरकार बनती है, तो छोटे – छोटे दलों की पूछ – परख बढ़ जाती है, क्योंकि उन्हें अपने में समाहित करना आसान होता है।
खैर परिणाम चाहें जो भी निष्ठा व आस्था के साथ सुखद जीवन हेतु हर संभव प्रयास सबके द्वारा होते रहने चाहिए।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है “हाइबन- धुआंधार जलप्रपात”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79☆
☆ हाइबन- धुआंधार जलप्रपात ☆
संगमरमर एक सफेद व मटमैले रंग का मार्बल होता है। मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले से 20 किलोमीटर दूर भेड़ाघाट में इसी तरह के मार्बल पहाड़ियों के बीच नर्मदा नदी बहती है। नदी के दोनों किनारों की ऊंचाई 200 फीट के लगभग है।
भेड़ाघाट का दृश्य रात और दिन में अलग-अलग रूप में दर्शनीय होता है। रात में चांदनी जब सफेद और मटमैले संगमरमर के साथ नर्मदा नदी में गिरती है तो अद्भुत बिंब निर्मित करती है। इस कारण चांदनी रात के समय में नर्मदा नदी में नौकायन करना अद्भुत व रोमांचक होता है।
दिन में सूर्य की किरणें नर्मदा नदी के साथ-साथ संगमरमर की चट्टानों पर अद्भुत बिंब निर्मित करती है। सूर्य की रोशनी में नहाई नर्मदा नदी और संगमरमर की उचित चट्टानों के बीच नौकायन इस मज़े को दुगुणीत कर देती है।
इसी नदी पर एक प्राकृतिक धुआंधार जलप्रपात बना हुआ है। इस प्रपात में ऊंचाई से गिरता हुआ पानी धुएं के मानिंद वातावरण में फैल कर अद्भुत दृश्य निर्मित करता है। यहां से नर्मदा नदी को निहारने का रोमांच और आनंद ओर बढ़ जाता है। इसी दृश्य प्रभाव के कारण इसका नाम धुआंधार जलप्रपात पड़ा है।
यह स्थान पर्यटकों का सबसे मन पसंदीदा स्थान है। आप भी एक बार इस स्थान के दर्शन अवश्य करें।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है चतुर्थ अध्याय।
(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना पगडंडी सी लचक कहाँ …। )
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। प्रस्तुत है 8 मार्च महिला दिवस पर विशेष आलेख “महिला दिवस और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास ”)
☆ आलेख ☆ महिला दिवस और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
8 मार्च को महिला दिवस मनाया गया। ऐसे पर्व पर दो महिलाओं की याद आती है। एक तो बा, गांधीजी की पत्नी, जिन्हें उनके माता-पिता ने कस्तूर बाई नाम दिया और महात्मा गांधी ने पहले उन्हें इसी नाम से संबोधित किया, बाद में वे भी सभी लोगों की भांति ‘बा’ कहने लगे। बाद को दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आने के बाद, बा के लिए आयोजित सम्मान समारोह में किसी ने बा को महात्मा जी की मां कह दिया तो बापू भी बोल उठे कि चालीस साल हुए मैं बेमांबाप हो गया और तीस वर्षों से वह मेरी मां का काम कर रही है। वह मेरी मां, सेविका, रसोइया, बोतल धोने वाली सब कुछ रही है । अगर वह इतने सबेरे आपके दिए सम्मान में हिस्सा लेने आती तो मैं भूखा रह जाता और मेरे शारीरिक सुख की कोई परवाह नहीं करता। इसलिए हमने आपस में समझौता कर लिया है कि सभी सम्मान मुझे मिले और सारी मेहनत उसे करनी पड़े। यह संस्मरण पति पत्नी के आपसी प्रेम व समर्पण का प्रतीक है। बा तो अनपढ़ थी पर गांधीजी की प्रेरणा पाकर वह पढ़ना लिखना सीख गई, स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहीं और अपना जीवन महात्मागांधी के शिष्यों के लिए समर्पित कर दिया।
दूसरी महिला जिससे मैं प्रभावित हुआ वह है अमरकंटक निवासिनी गुलाबवती बैगा, अनपढ़ माता पिता की पुत्री और जिसका ब्याह दस वर्ष की उम्र में होने वाला था। मां, बाप गांव के मुखिया आदि उसके प्रतिरोध को अनसुना कर रहे थे। तब इस कन्या की नानी आगे आई, उसने विरोध किया विवाह का, डाक्टर प्रवीर सरकार के मां सारदा कन्या विद्यापीठ पौंडकी में पहुंचकर डाक्टर साहब के सुपुर्द इस अबोध बालिका को किया और फिर यह कन्या पढ़ती गई बढ़ती गई, आज दो नन्हे नटखट बच्चों की मां है और बैगा समुदाय की प्रथम महिला स्नातक भी। स्कूल में शिक्षिका गुलाबवती बैगा जब फटफटिया में फुर्र से स्कूल जाती है तो उसकी प्रौढा नानी भी खुशी से फूली नहीं समाती। सत्तर से अधिक वर्षों में महिला सशक्तिकरण की दिशा में ऐसे अनेक प्रयास ग्रामीणों ने किए हैं, उन प्रयासों को मेरा नमन।
महिला दिवस पर ‘ बा’, ‘गुलाबवती बैगा’ और महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयासों को नमन
( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता लोग इतने क्यों बेचैन है। )
Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>> मृग तृष्णा
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 37 ☆
☆ लोग इतने क्यों बेचैन है ☆
खुश हो जा आज तू खामोश क्यों है,
देख तेरी शान में राह में लोगों ने फूल बिछाये हैं ||
कल तक जो लोग तेरे चेहरे से नफरत करते थे,
वे आज तुझे बार-बार कंधा देने को बेचेन हो रहे हैं ||
आज तो तेरी शान ही निराली है,
सब अदब से खड़े होकर तुझे हाथ जोड़ रहे हैं ||
बस एक पल ऑंखे खोल नजारा तो देख ले,
लोग तो तेरी एक झलक पाने को बेचैन हो रहे हैं ||
कल तक जो तेरी तरफ झांकते तक ना थे,
आज वो सब खिड़कियां खोलकर तुझे देखने को तरस रहे हैं ||
यादगार लम्हें हैं उसे देख वापिस आंख मूंद लेना,
एक ही मौका आता है जीवन में, लोगों के आंसू थम नहीं रहे हैं ||
जनाजे में कौन-कौन शामिल है,
एक झलक तो देख ले, इतने तो पराये भी कभी रूठते नहीं हैं ||
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “वो कोह”। )
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