English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 56 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 56 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 56) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 56 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

परिंदे  शुक्रगुजार  हैं

पतझड़ के भी , दोस्तों

तिनके कहाँ  से  लाते,

अगर सदा, बहार रहती…

 

Birds are grateful to

the autumn too,

Where else from would

they bring straws,

if spring remained

there  forever…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दिखाई कब दिया करते हैं

बुनियाद के पत्थर…

जमीं में जो दब गए, इमारत

उन्हीं पे तो क़ायम है…

 

When have the foundation

stones ever been seen…

Buried in the ground, they

only hold the building…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

नए  रिश्ते  बने  ना  बनें

इसका मलाल मत करना

कहीं पुराने  टूट ना जाएँ

बस इसका ख़्याल रखना…

 

Don’t regret whether new

relations are made or not

Just  make  sure  that

old ones aren’t broken!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

होगी तुमको लाख

समझ  इश्क़  की,

हमारी  इश्क़  में

नादानी ही अच्छी…

 

You may have a deep

understanding of love,

But my imprudence in

love, only is all fine..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 57 ☆ जबलपुर में शुभ प्रभात ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  भावप्रवण रचना ‘जबलपुर में शुभ प्रभात । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 57 ☆ 

☆ जबलपुर में शुभ प्रभात ☆ 

*

रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।

कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।

*

सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।

शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।

*

खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।

सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।

*

साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।

कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।

*

मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।

देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।

*

है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।

नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।

*

शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।

देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।

*

पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।

सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।

*

धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।

सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।

*

गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।

भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।

*

नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।

शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।

*

बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।

भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।

*

बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।

जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।

*

कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।

ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।

*

मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।

थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #86 ☆ भोजपुरी कविता – इहै प्लास्टिक सबके मारी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण रचना  “# इहै प्लास्टिक सबके मारी#। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 86 ☆ # इहै प्लास्टिक सबके मारी# ☆

आज का मानव समाज सुविधा भोगी हो चला है साधन और सुविधाओं के चक्कर में मानव समाज मौत के मुहाने पर खड़ा है, गाहे-बगाहे न सड़ने वाले बजबजाते प्लास्टिक कचरे के तथा उसकी दुर्गंध से हर व्यक्ति परिचित हैं, ऐसे में आने वाले भयावह खतरे से सावधान रहने का संदेश यह भोजपुरी रचना देती है। उम्मीद है सभी इस भोजपुरी भाषा की रचना को आत्मसात कर समसामयिक रचना का संदेश लोकहित में प्रसारित करेंगे। – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

पोलिएथ्रिन* के आयल जमाना,

साधन आ सुविधा के खुलल खजाना।

पोलीथीन प्लास्टिक नाम बा एकर,

सड़वले से कचरा बड़े नाही जेकर।

साधन आ सुविधा इ केतना बनवलस,

केतना गिनाई नाम बहुतै कमइलस।

कपड़ा अ लत्ता दवाई मिठाई,

गाड़ी मोटर टीवी अ गद्दा रजाई

।।1।।इहै प्लास्टिक एकदिन।।

प्लास्टिक क पत्तल अ प्लास्टिक क दोना,

वोही क ओढ़ना वोही क बिछौना।

वो से छुटल नाहीं कौनो कोना।

प्लस्टिक से सुविधा मिलै ढ़ेर सारी,

मिलै वाले दुख से ना केहू उबारी।

।।इहै प्लस्टिक एक दिन सबके मारी।।2।।

 

इ बाताबरन में प्रदूषण बढ़ाई,

न कौनों बिधि ओकर कचरा ओराइ।

ऐसी खातिर आदत तूं आपन सुधारा,

दूसर विकल्प खोजा कइला किनारा।

समझा अ बूझा सब कर जीवन संवारा,

नाहीं त कवनो दिन बनबा बेचारा।

देखा इ सुरसा जस मुंह बवलस भारी,

धरती हुलिया कबौ ई बिगारी।

।।इहै प्लास्टिक एक दिन सबके मारी।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

1–09–21

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 44 ☆ एक चित्र की चित्रकार से प्रार्थना ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित भावप्रवण कविता  एक चित्र की चित्रकार से प्रार्थना।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 44 ☆ एक चित्र की चित्रकार से प्रार्थना ☆

तुम्हारे ही हाथो बनाया गया, तुम्ही से मगर अब भुलाया गया हॅू।

कई साल पहले बना रूप रेखा, मुझे सौ निगाहों से तुमने था देखा।

कभी कुछ हॅंसे थे कभी मुस्कुराये कभी भौं सिकोडी कभी मुॅह था फेरा

मगर फिर मधुर गुनगुनाते हुये चित्र जिसमें कि तुम थे लगे रंग भरने

वही हॅू उपेक्षित सा बिसरा हुआ सा, चपेटो के बीचों दबाया गया हॅू।

 

सजग कल्पना के चटक रंग कई मिल लगे थे मेरा यह कलेवर सजाने

या जिन जिनने देखा सभी ने कहा था मुझे अपने गृह का सुषोभक बनाने

तुम्हें भी खुषी थी, मगर तूलिका से टपक एक कणिका गई अश्रुकण बन

तभी से मेरा हास्य रोदन बना पर मेै रोया नही हॅू रूलाया गया हॅू।

 

बनने के पहले ही बिगडा नया और होने के पहले पुराना हुआ जो

उठा शुष्क को आर्द्र कर अश्रुजल से कि जिस तूूलिका ने सजाया है मुझको

उसी की कृपाकर लगाचार कूचे ये आंसू मिटा दो औं मुस्कान भर दो

तुम्हारे ही हाथो है निर्माण मेरा तुम्ही से अधूरा बनाया गया हॅू।

 

प्रकृति के पटल पर समय धूल से क्यो परिवृत होते दिया त्याग तुमने

हुये रंग फीके मेरे किंतु तब से हुये नित नये किंतु निर्माण कितने

मैं आषा लिये ही पडा सह चुका सब प्रखर ग्रीष्म वर्षा के झोके जकोरे

बनाया है मुझको तो पूरा बना दो मिटाओ न क्योंकि भुलाया गया हॅू।

तुम्हारे ही हाथों है निर्माण मेरा, न जाने कि क्यों यो भुलाया गया हॅू।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 8 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-8 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

1794-95 के दौरान गढ़वाल क्षेत्र गंभीर अकाल से ग्रस्त रहा तथा पुनः 1883 में यह क्षेत्र भयानक भूकंप से त्रस्त रहा। तब तक गोरखाओं ने इस क्षेत्र पर आक्रमण करना शुरू कर दिया था और इस क्षेत्र पर उनके प्रभाव की शुरुवात हुयी। सन 1803 में उन्होंने पुनः गढ़वाल क्षेत्र पर महाराजा प्रद्युम्न शाह के शासन काल में आक्रमण किया। महाराजा प्रद्युम्न शाह देहरादून में गौरखाओं से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए परन्तु उनके एक मात्र नाबालिग पुत्र सुदर्शन शाह को उनके विश्वासपात्र राजदरबारियों ने चालाकी से बचा लिया। इस लड़ाई के पश्चात गोरखाओं की विजय के साथ ही उनका अधिराज्य गढ़वाल क्षेत्र में स्थापित हुआ। इसके पश्चात उनका राज्य कांगड़ा तक फैला और उन्होंने यहाँ 12 वर्षों तक राज्य किया जब तक कि उन्हें महाराजा रणजीत सिंह के द्वारा कांगड़ा से बाहर नहीं निकाल दिया गया। वहीँ दूसरी ओर सुदर्शन शाह ईस्ट इंडिया कम्पनी से मदद का प्रबंध करने लगे ताकि गोरखाओं से अपने राज्य को मुक्त करा सकें। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कुमाउं, देहरादून एवं पूर्वी गढ़वाल का एक साथ ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर दिया तथा पश्चिमी गढ़वाल को राजा सुदर्शन शाह को सौंप दिया जो टिहरी रियासत के नाम से जाना गया।

राजा अजयपाल और उनके उत्तराधिकारियों ने लगभग तीन सौ साल तक गढ़वाल पर शासन किया था, इस अवधि के दौरान उन्होंने कुमाऊं, मुगल, सिख, रोहिल्ला के कई हमलों का सामना किया था। गढ़वाल के इतिहास में गोरखा आक्रमण एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह अत्यधिक क्रूरता के रूप में चिह्नित है और ‘गोरखायनी’ शब्द नरसंहार और लूटमार सेनाओं का पर्याय बन गया था। गोरखा ने दती और कुमाऊं को अधीन करने के बाद, गढ़वाल पर हमला किया और गढ़वाली सेनाओ द्वारा कठोर प्रतिरोधों के बावजूद लंगूरगढ़ तक पहुंच गए। लेकिन इस बीच, चीनी आक्रमण की खबर आ गयी और गोरखाओं को घेराबंदी हटाने के लिए मजबूर किया गया। हालांकि 1803 में उन्होंने फिर से एक आक्रमण किया। कुमाऊं को अपने अधीन करने के बाद  गढ़वाल में तीन तरफ़ से आक्रमण किया। पांच हज़ार गढ़वाली सैनिक उनके इस आक्रमण  के रोष के सामने टिक नही सके और राजा प्रदीमन शाह अपना बचाव करने के लिए देहरादून भाग गए। लेकिन उनकी सेनाएं की  गोरखा सेनाओ के साथ कोई तुलना नही हो सकती थी। गढ़वाली सैनिकों  भारी मात्रा में मारे गए और खुद राजा खुडबुडा की लड़ाई में मारे गए। 1804 में गोरखा पूरे गढ़वाल के स्वामी बन गए और बारह साल तक क्षेत्र पर शासन किया।

1815 में जब अंग्रेजों ने गोरखाओं को उनके कड़े विरोध के बावजूद पश्चिम में काली नदी तक खिसका दिया था तब गोरखों का शासन गढ़वाल क्षेत्र से समाप्त हुआ। गोरखा सेना की हार के बाद, 21 अप्रैल 1815 को अंग्रेजों ने गढ़वाल क्षेत्र के पूर्वी, गढ़वाल का आधा हिस्सा, जो कि अलकनंदा और मंदाकिनी नदी के पूर्व में स्थित है, जोकि बाद में, ‘ब्रिटिश गढ़वाल’ और देहरादून के दून के रूप में जाना जाता है, पर अपना शासन स्थापित करने का निर्णय लिया। पश्चिम में गढ़वाल के शेष भाग जो राजा सुदर्शन शाह के पास था, उन्होंने टिहरी में अपनी राजधानी स्थापित की। प्रारंभ में कुमाऊं और गढ़वाल के आयुक्त का मुख्यालय नैनीताल में ही था लेकिन बाद में गढ़वाल अलग हो गया और 1840 में सहायक आयुक्त के अंतर्गत  पौड़ी  जिले के रूप में स्थापित करके उसका मुख्यालय पौड़ी में गठित किया गया।

महाराजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी नगर में स्थापित की तथा इसके पश्चात उनके उत्तराधिकारियों प्रताप शाह, कीर्ति शाह तथा नरेन्द्र शाह ने अपनी राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर एवं नरेंद नगर में स्थापित की। इनके वंशजों ने इस क्षेत्र में 1815 से 1949 तक शासन किया। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय इस क्षेत्र के लोगों ने सक्रिय रूप से भारत की आजादी के लिए बढ़ चढ़ कर भाग लिया और अन्त में जब देश को 1947 में आजादी मिली टिहरी रियासत के निवासियों ने स्वतंत्र भारत में विलय के लिए आन्दोलन किया। इस आन्दोलन के कारण परिस्थियाँ महाराजा के वश में नहीं रहीं और उनके लिए शासन करना कठिन हो गया जिसके फलस्वरूप पंवार वंश के शासक महाराजा मानवेन्द्र शाह ने भारत सरकार की सम्प्रभुता स्वीकार कर ली। अन्ततः सन 1949 में टिहरी रियासत का भारत में विलय हो गया। इसके पश्चात टिहरी को उत्तर प्रदेश के एक नए जनपद का दर्जा दिया गया।

आजादी के समय, गढ़वाल, अल्मोड़ा और नैनीताल जिलों को कुमाऊं डिवीजन के आयुक्त द्वारा प्रशासित किया जाता था। 1960 के शुरुआती दिनों में, गढ़वाल जिले से चमोली जिले का गठन किया गया। 1969 में गढ़वाल मण्डल पौड़ी मुख्यालय के साथ गठित किया गया। 1998 में रुद्रप्रयाग के नए जिले के निर्माण के लिए जिला पौड़ी गढ़वाल के खिर्सू विकास खंड के 72 गांवों के लेने के बाद जिला पौड़ी गढ़वाल आज अपने वर्तमान रूप में पहुंच गया है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #56 – निंदा का फल ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #56 – निंदा का फल ☆ श्री आशीष कुमार

राजा पृथु एक दिन सुबह सुबह घोड़ों के तबेले में जा पहुंचे। तभी वहां एक साधु भिक्षा मांगने आ पहुंचा। सुबह सुबह साधु को भिक्षा मांगते देख पृथु क्रोध से भर उठे। उन्होंने साधु की निंदा करते हुए बिना विचार किये ही तबेले से घोडे की लीद उठाई और उस के पात्र में डाल दी, साधु भी शांत स्वभाव का था।

साधु भिक्षा ले कर वहाँ से चला गया और वह लीद कुटिया के बाहर एक कोने में डाल दी। कुछ समय उपरान्त राजा पृथु शिकार के लिए जंगल में गए। राजा पृथु ने जब जंगल में देखा कि एक कुटिया के बाहर घोड़े की लीद का बड़ा सा ढेर लगा हुआ है। उन्होंने देखा कि यहाँ तो न कोई तबेला है, और न ही दूर-दूर तक कोई घोडे दिखाई दे रहे हैं। वह आश्चर्य चकित हो कुटिया में गए और साधु से बोले। “महाराज! आप हमें एक बात बताइए यहाँ कोई घोड़ा भी नहीं है, ना ही यहां कोई तबेला है  तो यह इतनी सारी घोड़े की लीद कहां से आई! “साधु ने कहा” राजन्! यह लीद मुझे एक राजा ने भिक्षा में दी है, अब समय आने पर यह लीद उसी को खानी पड़ेगी। यह सुन राजा पृथु को पूरी घटना याद आ गई, वह साधु के पैरों में गिर कर क्षमा मांगने लगा। उन्होंने साधु से प्रश्न किया हम ने तो थोड़ी-सी लीद दी थी, पर यह तो बहुत अधिक हो गई है? साधु ने कहा “हम किसी को जो भी देते है, वह दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होता जाता है और समय आने पर हमारे पास लौट कर आ जाता है, राजन! यह उसी का परिणाम है।” यह सुन कर पृथु की आँखों में अश्रु भर आये। वह साधु से विनती कर बोला “महाराज! मुझे क्षमा कर दीजिए। आइन्दा मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।” मुझे कृपया कोई ऐसा उपाय बताए जिस से मैं अपने दुष्ट कर्मों का प्रायश्चित कर सकूँ!” राजा की ऐसी दुख मयी हालात देख कर साधु बोला “राजन्! एक उपाय है, आप को कोई ऐसा कार्य करना है, जो देखने मे तो गलत हो पर वास्तव में गलत न हो। जब लोग आप को गलत देखेंगे, तो आप की निंदा करेंगे। जितने ज्यादा लोग आप की निंदा करेंगे, आप का पाप उतना ही हल्का होता जाएगा। आप का अपराध निंदा करने वालों के हिस्से में आ जायेगा। यह सुन राजा पृथु ने महल में आ कर काफी सोच विचार किया और अगले दिन सुबह ही उस ने शराब की बोतल ली और चौराहे पर बैठ गया। सुबह सुबह राजा को इस हाल में देख कर सब लोग आपस में राजा की निंदा करने लगे कि कैसा राजा है, कितना निंदनीय कृत्य कर रहा है। क्या यह शोभनीय है आदि! पर निंदा की परवाह किये बिना राजा पूरे दिन शराबियों की तरह अभिनय करता रहा। इस पूरे कृत्य के पश्चात जब राजा पृथु पुनः साधु के पास पहुंचे तो लीद का ढेर के स्थान पर एक मुट्ठी लीद देख कर आश्चर्य से बोला “महाराज! यह कैसे हुआ? इतना बड़ा ढेर कहाँ गायब हो गया!”

साधू ने कहा “राजन! यह आप की अनुचित निंदा के कारण ही हुआ है। जिन जिन लोगों ने आप की अनुचित निंदा की है, आप का पाप उन सब मे बराबर बराबर बट गया है। गुरु जी कहते हैं, जब हम किसी की बेवजह निंदा करते है। तो हमें उस के पाप का बोझ भी उठाना पड़ता है तथा हमे अपने किये गए, कर्मो का फल तो भुगतना ही पड़ता है। अब चाहे हँस के भुगतें या रो कर, हम जैसा किसी को देंगें, वैसा ही लौट कर उस से वापिस भी आएगा! इस लिये सदेव अच्छे कर्म करें और किसी की निंदा से बचें। साध संगत की सेवा करें, सत्संग सुने और सत्संग में फरमाए गए वचनों को अपने हृदय में बिठाए। किसी की यूं ही निंदा कर के अपने कर्मों को मत बढ़ाइए। दुनिया में जो करता है, उसे उस का फल जरूर मिलता है। इस लिए हम अपने आप को देखे, अपने अंदर झांके ना कि दूसरों की निदा करें, चुगली करें। अगर हम किसी की निंदा चुगली करने से नहीं हटते है, तो हमारे कर्मों का ढेर भी उस लीद के ढेर की तरह बढ़ता जाएगा। इस लिए अच्छे कर्म करें, अच्छे कर्म करना ही जीव का कर्त्तव्य है और इसी से जीवन सफल हो सकता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 70 – वणव्यातालं चांदण ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 70 –वणव्यातालं चांदण ☆

 

तुझ्या हास्यानं रे फुललं वैशाख वणव्यात चांदणं।

विसरले सारे दुःख अन् उघडे पडलेले गोंदणं।।धृ।।

 

गेला सोडून रे धनी गेलं डोईचं छप्पर।

भरण्या पोटाची गार भटकंती ही दारोदार।

लाभे दैवानेच तुला समजदारीचं  देणं।।१।।

 

कुणी देईना रे काम कशी रे दुनियादारी।

नजरेच्या विषापरी सापाची ही जात बरी।

याला पाहून रे फुले तुझ्या  हास्याचं चांदणं।।२।।

 

रोजचाच नवा गाव रोज तोच नवा खेळ।

दमडी दमडीत रे कसा बसेल जीवनाचा मेळ।

कसा आणू दूध भात कसा आणू रे खेळणं।।३।।

 

नसे पायात खेटर पायपीट दिसभर।

घेऊ कशी सांग राजा तुला झालरी टोपरं।

करपलं झळांनी या गोजिरं,हे बालपणं।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 97 ☆ ज़िंदगी समझौता है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी समझौता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 97 ☆

☆ ज़िंदगी समझौता है ☆

‘ज़िंदगी भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और हर स्थिति में आपको अपनी भावनाओं का त्याग कर यथार्थ को स्वीकारना पड़ता है।’ यदि हम यह कहें कि ‘ज़िंदगी संघर्ष नहीं, समझौता है’, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे औरत को तो कदम-कदम पर समझौता करना ही पड़ता है, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है और कानून द्वारा प्रदत्त समानाधिकार भी कागज़ की फाइलों में बंद हैं। प्रसाद जी की कामायनी की यह पंक्तियां ‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि-पत्र लिखना होगा’—औरत को उसकी औक़ात का अहसास दिलाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ द्वारा नारी का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी नियति, असहायता, पराश्रिता व विवशता का आभास कराया गया है; जो सतयुग से लेकर आज तक उसी रूप में बरक़रार है।

यहां हम आधी आबादी की बात न करके, सामान्य मानव के जीवन के संदर्भ में चर्चा करेंगे, क्योंकि औरत के पास समझौते के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं। चलिए! दृष्टिपात करते हैं कि ‘जीवन भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और वह मानव की नियति है।’ यह संघर्ष है…हृदय व मस्तिष्क के बीच अर्थात् जो हमें मिला है… वह हक़ीक़त है; यथार्थ है और जो हम चाहते हैं; अपेक्षित है…वह आदर्श है, कल्पना है। हक़ीक़त सदैव कटु और कल्पना सदैव मनोहारी होती है; जो हमारे अंतर्मन में स्वप्न के रूप में विद्यमान रहती है और उसे साकार करने में इंसान अपना पूरा जीवन लगा देता है। मानव को अक्सर जीवन के कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ता है और उन परिस्थितियों का विश्लेषण व गहन चिंतन कर समझौता करना पड़ता है। वैसे भी जीवन की हक़ीक़त व सच्चाई कड़वी होती है। सो! मानव को ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल कर, विपरीत

परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है। इस स्थिति में यथार्थ को स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। इसमें सबसे अधिक योगदान होता है…हमारी पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का …जो मानव को विषम परिस्थितियों का दास बना देती हैं और लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त उसे हरपल उनसे जूझना पड़ता है। वास्तव में वे विकास के मार्ग में अवरोधक के रूप में सदैव विद्यमान रहती हैं।

आइए! चर्चा करते हैं, पारिवारिक परिस्थितियों की… जैसाकि सर्वविदित है कि प्रभु द्वारा प्रदत्त जन्मजात संबंधों का निर्वाह करने को व्यक्ति विवश होता है। परंतु कई बार आकस्मिक आपदाएं उसका रास्ता रोक लेती हैं और वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाने को विवश हो जाता है। पिता के देहांत के बाद बच्चे अपने परिवार का आर्थिक-दायित्व वहन करने को मजबूर हो जाते हैं और उनके स्वर्णिम सपने राख हो जाते हैं। अक्सर पढ़ाई बीच में छूट जाती है और उन्हें मेहनत-मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है। वे सृष्टि-नियंता को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर बैठते हैं कि ‘आखिर विधाता ने उन्हें जन्म ही क्यों दिया? अमीर-गरीब के बीच इतनी असमानता व दूरियां क्यों पैदा कर दीं? ये प्रश्न उन के मनोमस्तिष्क को निरंतर कचोटते रहते हैं और सामाजिक विसंगतियां–जाति-पाति विभेद व अमीरी-गरीबी रूपी वैषम्य उन्हें उन्नति के समान अवसर प्रदान नहीं करतीं।

प्रेम सृष्टि का मूल है तथा प्राणी-मात्र में व्याप्त है। कई बार इसके अभाव के कारण उन अभागे बच्चों का बचपन तो खुशियों से महरूम रहता ही है; वहीं युवावस्था में भी वे माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल, मनचाहे साथी के साथ विवाह-बंधन में नहीं बंध पाते; जिसका घातक परिणाम हमें ऑनर-किलिंग व हत्या के रूप में दिखाई पड़ता है। अक्सर उनके विवाह को अवैध क़रार कर, खापों व पंचायतों द्वारा उन्हें भाई-बहिन के रूप में रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है; जिसके परिणामस्वरूप वे अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और चंद दिनों पश्चात् आत्महत्या तक कर लेते हैं।

‘शक्तिशाली विजयी भव’ के रूप में समाज शोषक व शोषित दो वर्गों में विभाजित है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु रूप में खड़े दिखाई पड़ते हैं; जिससे सामाजिक-व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है और उसका प्रमाण इंडिया व भारत के रूप में परिलक्षित है। चंद लोग ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में सुख-सुविधाओं से रहते हैं; वहीं अधिकांश लोग ज़िंदा रहने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। उनके पास सिर छुपाने को छत भी नहीं होती; जिसका मुख्य कारण अशिक्षा व निर्धनता है। इसके प्रभाव व परिणाम -स्वरूप वे जनसंख्या विस्फोटक के रूप में भरपूर योगदान देते हैं।

जहां तक चुनाव का संबंध है…हमारे नुमांइदे इन के आसपास मंडराते हैं; शराब की बोतलें देकर इन्हें भरमाते हैं और वादा करते हैं– सर्वस्व लुटाने का, परंंतु सत्तासीन होते ये दबंगों के रूप में शह़ पाते हैं।’ आजकल सबसे सस्ता है आदमी…जो चाहे खरीद ले…सब बिकाऊ है…एक बार नहीं, तीन-तीन बार बिकने को तैयार है। यह जीवन का कटु यथार्थ है; जहां समझौता तो होता है, परंतु उपयोगिता के आधार पर और उसका संबंध हृदय से नहीं, मस्तिष्क से होता है।

मानव के हृदय पर सदैव बुद्धि भारी पड़ती है। हमारे आसपास का वातावरण और हमारी मजबूरियां हमारी दिशा-निर्धारण करती हैं और मानव उन के सम्मुख घुटने टेकने को विवश हो जाता है …क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प होता ही नहीं। अक्सर लोग विषम परिस्थितियों में टूट जाते हैं; पराजय स्वीकार कर लेते हैं और पुन:उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते। ‘वास्तव में पराजय गिरने में नहीं, बल्कि न उठने में है’ अर्थात् जब आप धैर्य खो देते हैं; परिस्थितियों को नियति स्वीकार सहर्ष पराजय को गले लगा लेते हैं… उस असामान्य स्थिति से कोई भी आपको उबार नहीं सकता अर्थात् मुक्ति नहीं दिला सकता और वे निराशा रूपी गहन अंधकार में डूबते-उतराते रहते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छे की उम्मीद रखना; हमारे आधे दु:खों का कारण है और आधे दु:ख अच्छे लोगों में दोष-दर्शन से आ जाते हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति से शुभ की अपेक्षा करना आत्म-प्रवंचना है, क्योंकि उसके पास जो कुछ होगा, वही तो वह देगा। बुराई-अच्छाई में शत्रुता है… दोनों इकट्ठे नहीं चल पातीं, बल्कि वे हमारे दु:खों में इज़ाफ़ा करने में सहायक सिद्ध होती हैं। अक्सर यह तनाव हमें अवसाद के उस चक्रव्यूह में ले जाकर छोड़ देता है; जहां से मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। इस स्थिति में भावनाओं से समझौता करना हमारे लिए हानिकारक होता है। दूसरी ओर जब हम अच्छे लोगों में दोष व अवगुण देखना प्रारंभ कर देते हैं, तो हम उनसे लाभान्वित नहीं हो पाते और हम भूल जाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति सदैव कल्याणकारी व लाभदायक होती है। इसलिए हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे चंदन घिसने के पश्चात् उसकी महक स्वाभाविक रूप से अंगुलियों में रह जाती है और उसके लिए मानव को परिश्रम नहीं करना पड़ता। भले ही मानव को सत्संगति से त्वरित लाभ प्राप्त न हो, परंतु भविष्य में वह उससे अवश्य लाभान्वित होता है और उसका भविष्य सदैव उज्ज्वल रहता है।

‘मानव का स्वभाव कभी नहीं बदलता।’ सोने को भले ही सौ टुकड़ों में तोड़ कर कीचड़ में फेंक दिया जाए; उसकी चमक व मूल्य कभी कम नहीं होता। उसी तरह ‘कोयला होय न उजरो, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् ‘जैसा साथ, वैसी सोच’… सो! मानव को सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए, क्योंकि इंसान अपनी संगति से ही पहचाना जाता है। शायद! इसीलिए यह सीख दी गयी है कि ‘बुरी संगति से व्यक्ति अकेला भला।’ सो! व्यक्ति के गुण-दोष परख कर उससे मित्रता करनी चाहिए, ताकि आपको शुभ फल की प्राप्ति हो सके। आपके लिए बेहतर है कि आप भावनाओं में बहकर कोई निर्णय न लें, क्योंकि वे आपको विनाश के अंधकूप में धकेल सकती हैं; जहां से लौटना नामुमक़िन होता है।

सो! यथार्थ से कभी मुख मत मोड़िए। साक्षी भाव से सब कुछ देखिए, क्योंकि व्यक्ति भावनाओं में बहने के पश्चात् उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए सत्य को स्वीकारिए; भले ही उसके उजागर होने में समय लग जाता है और कठिनाइयां भी उसकी राह में बहुत आती हैं। परंतु सत्य शिव होता है और शिव सदैव सुंदर होता है। सो! सत्य को स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। जीवन में संघर्ष रूपी राह पर यथार्थ की विवेचना करके समझौता करना सर्वश्रेष्ठ है। जब गहन अंधकार छाया हो; हाथ को हाथ भी न सूझ रहा हो…एक-एक कदम निरंतर आगे बढ़ाते रहिए; मंज़िल आपको अवश्य मिलेगी। यदि आप हिम्मत हार जाते हैं, तो आपकी पराजय अवश्यंभावी है। सो! परिश्रम कीजिए और तब तक करते रहिए; जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। संबंधों की अहमियत स्वीकार कीजिए; उन्हें हृदय से महसूसिए तथा बुरे लोगों से शुभ की अपेक्षा कभी मत कीजिए। बिना सोचे-विचारे जीवन में कभी कोई भी निर्णय मत लीजिए, क्योंकि एक ग़लत निर्णय आपको पथ-विचलित कर पतन की राह पर ले जा सकता है। सो! भावनाओं को यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही सदैव निर्णय लेना तथा उसकी हक़ीक़त को स्वीकारना श्रेयस्कर है। यथा-समय, यथा-स्थिति व अवसरानुकूल लिया गया निर्णय सदैव उपयोगी, सार्थक व अनुकरणीय होता है। उचित निर्णय व समझौता जीवन-रूपी गाड़ी को चलाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, उपादान है; जो सदैव ढाल बनकर आपके साथ खड़ा रहता है और प्रकाश-स्तंभ अथवा लाइट-हाउस के रूप में आपका पथ-प्रशस्त करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 49 ☆ वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म”.)

☆ किसलय की कलम से # 49 ☆

☆ वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म ☆

आस्था और विश्वास सहित धर्म के पथ पर चलना इंसान अपना कर्त्तव्य मानता है। विश्व के हर धर्म में कुछ ऐसी अच्छाईयाँ होती हैं कि वे धर्मावलंबी किसी अन्य धर्म को अपनाने की सोचते भी नहीं है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि वे अन्य धर्मों के प्रति ईर्ष्या या द्वेष रखते हैं। अधिकांश लोग इतर धर्मों की गहन जानकारी रखते हैं, आदर और श्रद्धा का भाव भी रखते हैं। वैसे तो मेरी दृष्टि से धर्म संकीर्णता से परे होता है। यदि संकीर्णता को अपनाया जाए तो इसका मतलब यही होगा कि उस धर्म के लोग यह सब किसी स्वार्थवश ऐसा कर रहे हैं। भारतवर्ष सनातन-धर्म प्रधान राष्ट्र है। सनातन धर्म की विराटता एवं तरलता विश्वविख्यात है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ एवं ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसे सनातन धर्म के ये वाक्य विश्वव्यापी हो गए हैं।

सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है कि प्रत्येक धर्मावलंबी मूर्ति उपासक होता है। मूर्ति उपासक होने का आशय यही है कि लोग मूर्तियों के सामने बैठकर पूजा-अर्चना, भक्ति-साधना, उपवास-तपस्या आदि के माध्यम से मोक्ष के साथ-साथ ईश्वर की शरण भी चाहते हैं।

हमें अपने धर्म पर कभी शंका या अविश्वास नहीं करना चाहिए। हमारे महान ऋषि-मुनियों, तपस्वियों ने हजारों-हजार वर्ष पूर्व कठोर तप-साधना, चिंतन-मनन व एकाग्रता से परहितार्थ, समाजहितार्थ अथवा यूँ कहें कि विश्व कल्याणार्थ जो कुछ लिखा, जो दिशानिर्देश दिए, जिसे धर्म सम्मत बताया वह निर्मूल तो हो ही नहीं सकता। प्राचीन संतों व महापुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथ आज भी विश्वकल्याण का ही पाठ पढ़ाते नजर आते हैं।

सनातन धर्म मात्र एक धर्म  नहीं है, एक विकसित विज्ञान भी है। सनातन धर्म अथवा प्रचलित भाषा में कहें तो हिंदू धर्म में इंगित अधिकांश बातें, विधियाँ, पर्व, तिथियाँ, खगोलीय घटनाएँ, ऋतु-परिवर्तन आदि का विज्ञानपरक विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। आज का हिंदू धर्मावलंबी किसी न किसी अज्ञानता वश धर्म की बातों को गंभीरता से नहीं लेता और मुसीबतों को स्वयमेव आमंत्रण देता रहता है।

यदि हम सनातन धर्म की वैज्ञानिकता पर आधारित दिनचर्या का पालन करें तो आपका नीरोग, निश्चिंत और संतुष्ट रहना अवश्यंभावी है। महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन पढ़ें। उसे यथासंभव अपनाएँ। प्रथम पूज्य गणेश जी के विराट व्यक्तित्व को जानें और उनके द्वारा अपनाई गई बातों को अंगीकृत करने का प्रयास करें। देखिए फिर आप कैसे सुखी और शांत नहीं रहते।

एक छोटी सी बात यह भी है कि हम जब सच्चे मन से अपने ईश्वर की मूर्ति के समक्ष उनकी आराधना करते हैं तब  हमारे मन में इतर भाव नहीं आते। यदि आते हैं तब कहना होगा कि आप सच्चे मन से ईश्वर की पूजा-अर्चना नहीं कर रहे हैं।

यह भी अनुभव कीजिये कि कम से कम जितना भी समय आपने ईश्वर आराधना में लगाया, उतने समय तक आपका मस्तिष्क एकाग्र रहा। अर्थात शांत रहा। उसमें मात्र ईश्वर रचा-बसा रहा। अब वैज्ञानिक बात लीजिए कि साधारण रूप से मन के तनाव को सामान्य स्थिति में लाने के लिए जहाँ 20 घंटे भी लग सकते हैं वहीं ईश-आराधना के माध्यम से घड़ी दो घड़ी में ही आपका तनाव समाप्त हो जाता है। क्या यह विज्ञान नहीं है।

प्रातः स्नान करना, जल्दी शयन करना, सूर्योदयपूर्व जागना, ध्यान-योग करना, ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखना, संतोषी होना, परोपकार करना, सादगी और सद्भाव को अपनाना। क्या इन बातों को निराधार कहा जा सकता है? हिन्दुधर्म की कोई भी बात लो, कोई भी पक्ष लो, हर कहीं आपको मानवता के ही दर्शन होंगे।

सच्चा धर्म वही है जिसे धारण करने से हमें मनुष्यता पर गर्व हो। हम दूसरों के काम आएँ, हमारे कृत्यों से किसी अन्य को पीड़ा न हो, हमारे व्यवहार से लोगों के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठें, हमारा नाम सुनते ही लोगों के मानस पटल पर सच्चरित्र व्यक्तित्व की छवि उभर आए। यही है सच्चे और श्रेष्ठ धर्म को मानने वाले इंसान की पहचान। आईए, हम भी ऐसे ही पथ पर चलना प्रारम्भ करें, जो कहीं न कहीं श्रेष्ठ धर्म की सार्थकता सिद्ध करे।

                       

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 96 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 96 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बिजली

कड़क कड़क कर चमकती, बिजली चारों ओर।

आसमान में छा रही, उड़े घटा घनघोर।।

 

बदरी

बदरी घन पर छा गई, मंगल है हर ओर

गरजे घन वर्षा हुई, नाच रहे है मोर।।

 

मेघ

मेघ गरजते दे रहे, प्यारा सा संदेश।

देखो साजन आ रहे, वापस अपने देश।।

 

चौमास

चौमासे की धूम है, हर दिन है त्यौहार।

संग सखी, भाई बहन, मिले पिया का प्यार।।

 

ताल

तपन बहुत ही बढ़ गई, सूखे नदिया ताल

वर्षा जाने कहां गई, बुरा फसल का  हाल।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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