श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #56 – निंदा का फल ☆ श्री आशीष कुमार

राजा पृथु एक दिन सुबह सुबह घोड़ों के तबेले में जा पहुंचे। तभी वहां एक साधु भिक्षा मांगने आ पहुंचा। सुबह सुबह साधु को भिक्षा मांगते देख पृथु क्रोध से भर उठे। उन्होंने साधु की निंदा करते हुए बिना विचार किये ही तबेले से घोडे की लीद उठाई और उस के पात्र में डाल दी, साधु भी शांत स्वभाव का था।

साधु भिक्षा ले कर वहाँ से चला गया और वह लीद कुटिया के बाहर एक कोने में डाल दी। कुछ समय उपरान्त राजा पृथु शिकार के लिए जंगल में गए। राजा पृथु ने जब जंगल में देखा कि एक कुटिया के बाहर घोड़े की लीद का बड़ा सा ढेर लगा हुआ है। उन्होंने देखा कि यहाँ तो न कोई तबेला है, और न ही दूर-दूर तक कोई घोडे दिखाई दे रहे हैं। वह आश्चर्य चकित हो कुटिया में गए और साधु से बोले। “महाराज! आप हमें एक बात बताइए यहाँ कोई घोड़ा भी नहीं है, ना ही यहां कोई तबेला है  तो यह इतनी सारी घोड़े की लीद कहां से आई! “साधु ने कहा” राजन्! यह लीद मुझे एक राजा ने भिक्षा में दी है, अब समय आने पर यह लीद उसी को खानी पड़ेगी। यह सुन राजा पृथु को पूरी घटना याद आ गई, वह साधु के पैरों में गिर कर क्षमा मांगने लगा। उन्होंने साधु से प्रश्न किया हम ने तो थोड़ी-सी लीद दी थी, पर यह तो बहुत अधिक हो गई है? साधु ने कहा “हम किसी को जो भी देते है, वह दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होता जाता है और समय आने पर हमारे पास लौट कर आ जाता है, राजन! यह उसी का परिणाम है।” यह सुन कर पृथु की आँखों में अश्रु भर आये। वह साधु से विनती कर बोला “महाराज! मुझे क्षमा कर दीजिए। आइन्दा मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।” मुझे कृपया कोई ऐसा उपाय बताए जिस से मैं अपने दुष्ट कर्मों का प्रायश्चित कर सकूँ!” राजा की ऐसी दुख मयी हालात देख कर साधु बोला “राजन्! एक उपाय है, आप को कोई ऐसा कार्य करना है, जो देखने मे तो गलत हो पर वास्तव में गलत न हो। जब लोग आप को गलत देखेंगे, तो आप की निंदा करेंगे। जितने ज्यादा लोग आप की निंदा करेंगे, आप का पाप उतना ही हल्का होता जाएगा। आप का अपराध निंदा करने वालों के हिस्से में आ जायेगा। यह सुन राजा पृथु ने महल में आ कर काफी सोच विचार किया और अगले दिन सुबह ही उस ने शराब की बोतल ली और चौराहे पर बैठ गया। सुबह सुबह राजा को इस हाल में देख कर सब लोग आपस में राजा की निंदा करने लगे कि कैसा राजा है, कितना निंदनीय कृत्य कर रहा है। क्या यह शोभनीय है आदि! पर निंदा की परवाह किये बिना राजा पूरे दिन शराबियों की तरह अभिनय करता रहा। इस पूरे कृत्य के पश्चात जब राजा पृथु पुनः साधु के पास पहुंचे तो लीद का ढेर के स्थान पर एक मुट्ठी लीद देख कर आश्चर्य से बोला “महाराज! यह कैसे हुआ? इतना बड़ा ढेर कहाँ गायब हो गया!”

साधू ने कहा “राजन! यह आप की अनुचित निंदा के कारण ही हुआ है। जिन जिन लोगों ने आप की अनुचित निंदा की है, आप का पाप उन सब मे बराबर बराबर बट गया है। गुरु जी कहते हैं, जब हम किसी की बेवजह निंदा करते है। तो हमें उस के पाप का बोझ भी उठाना पड़ता है तथा हमे अपने किये गए, कर्मो का फल तो भुगतना ही पड़ता है। अब चाहे हँस के भुगतें या रो कर, हम जैसा किसी को देंगें, वैसा ही लौट कर उस से वापिस भी आएगा! इस लिये सदेव अच्छे कर्म करें और किसी की निंदा से बचें। साध संगत की सेवा करें, सत्संग सुने और सत्संग में फरमाए गए वचनों को अपने हृदय में बिठाए। किसी की यूं ही निंदा कर के अपने कर्मों को मत बढ़ाइए। दुनिया में जो करता है, उसे उस का फल जरूर मिलता है। इस लिए हम अपने आप को देखे, अपने अंदर झांके ना कि दूसरों की निदा करें, चुगली करें। अगर हम किसी की निंदा चुगली करने से नहीं हटते है, तो हमारे कर्मों का ढेर भी उस लीद के ढेर की तरह बढ़ता जाएगा। इस लिए अच्छे कर्म करें, अच्छे कर्म करना ही जीव का कर्त्तव्य है और इसी से जीवन सफल हो सकता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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