(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “वो आभास हूँ मैं….”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“बर झालं, माझी खेप वाचली. बस, हिला चहा करायला सांगतो. अग ए, ऐकलंस का, मोरू आलाय जरा …..”
“नको नको पंत, उशीर होईल, अजून चाळीतल्या बाकीच्यांच्या ऑर्डरचा माल पण पोचवायचा आहे.”
“पण काय रे मोरू, तुझ्या पिशवीत आमचा एकुलता एक मोती साबण आणि दोन म्हैसूर सँडल साबण सोडले, तर बाकीचे सगळे डेटॉल साबणच दिसतायत मला !”
“तुम्ही म्हणताय ते बरोबरच आहे पंत. यातला एक म्हैसूर सँडल जोशी काकांचा आणि दुसरा लेले काकांचा !”
“आणि बाकी चाळीतले सगळे लोकं यंदा दिवाळीला काय डेटॉल साबण लावून अभ्यँग स्नान करणार आहेत की काय ?”
“हो ना पंत, तुम्ही त्या डेटॉलवाल्यांची टीव्हीवरची जाहिरात नाही का बघितलीत ?”
“नाही बुवा, कसली जाहिरात ?”
“अहो पंत, सध्या त्या करोनाच्या विषाणूने सगळीकडे धुमाकूळ घातला आहे आणि ते डेटॉलवाले जाहिरातीत म्हणतात की, आमचा साबण 99.99% विषाणू मारतो.”
“म्हणून सगळ्यांनी डेटॉल साबणाची ऑर्डर दिली की काय मोरू ?”
“हो ना पंत, मग मी तरी काय करणार ? तुमची तीन घर सोडून, आणले सगळ्यांना डेटॉल साबण !”
“मोरू, अरे हे फसव्या जाहिरातीच युग आहे, हे कळत कसं नाही लोकांना ?”
“आता नाही कळत त्यांना, तर आपण काय करणार पंत ?”
“बरोबर, आपण काहीच करू शकत नाही. अरे तुला सांगतो आमचा राजेश एवढा हुशार, पण तो सुद्धा एकदा अशा जाहिरातबाजीला फसला होता म्हणजे बघ.”
“काय सांगता काय पंत ?”
“हो ना, अरे त्याच काय झालं दोन वर्षापूर्वी तो एका सेमिनारला जपानला गेला होता…..”
“बापरे, म्हणजे जपान मध्ये सुद्धा अशी फसवाफसवी चालते ?”
“नाही रे, थोडी चूक राजेशची पण होती.”
“म्हणजे काय पंत, मी नाही समजलो ?”
“अरे त्याच काय झालं, तिथे एका दुकानात त्याला एक पांढरा साबण दिसला, ज्याच्यावर लिहिल होत, ‘ऍलर्जी फ्री, कुठल्याही प्रकारचे विषाणू, जीवजंतू 100% मारतो !”
“मग काय केलं राजेशने, घेतला का तो साबण ?”
“हो ना, चक्क आपले सहाशे रुपये मोजून एक वडी घेतली पठयाने.”
“बापरे, सहाशे रुपयाची एक साबण वडी ? पंत, याच पैशात आपल्याकडे कमीत कमी 12 लक्स आले असते आणि वर्षभर तरी पुरले असते !”
“अरे खरी मजा पुढेच आहे, हॉटेल मधे येवून त्याने त्या साबणाचे रॅपर काढले तर काय, आत साबणाच्या आकाराची तुरटीची वडी, आता बोल ?”
“पंत, म्हणजे ते जापनीज लोकं साबण म्हणून तुरटी विकत होते ?”
“हो ना, पण त्यात त्या लोकांची काय चूक ? अरे तुरटीच्या अंगी जंतूनाशकाचा गुण अंगीभूतच असतो हे तुला माहित नाही का ?”
“हो माहित आहे पंत, आम्ही गावाला गढूळ पाणी शुद्ध करायला त्यात तुरटी फिरवायचो.”
“बरोबर, तर त्याच तुरटीचा त्यांनी साबण करून विकला तर त्यांची काय चूक ? अरे तुला सांगतो, आम्ही सुद्धा पूर्वी दाढी झाल्यावर तुरटीचा खडा फिरवायचो चेहऱ्यावर, तुमच्या या हल्लीच्या आफ्टरशेव लोशनचे चोचले कुठे होते तेंव्हा ?”
“पंत या जाहिरातीच्या युगात, काय खरं काय खोटं तेच कळेनास झालं आहे. बर आता निघतो बाकीचे लोकं पण वाट बघत….”
“जायच्या आधी मोरू मला एक सांग, चाळीतल्या इतर लोकांसारखा तू पण डेटॉल साबणच वापरणार आहेस का दिवाळीला ?”
“नाही पंत, ते डेटॉलवाले त्यांचा साबण 99.99% विषाणू मारतो असं सांगतात, पण मी या विषाणूवर माझ्यापुरता 100% जालीम उपाय शोधून काढला आहे!”
“असं, कोणता उपाय ?”
“अहो मी चाळीतली खोली भाड्याने देवून…..”
“अरे काय बोलतोयस काय मोरू, तुला कोणी चाळीत कसला त्रास दिला का ? तसं असेल तर मला सांग, मी बघतो एकेकाला.”
“नाही पंत, त्रास वगैरे काही नाही….”
“मग असा टोकाचा निर्णय का घेतलास आणि तुझी खोली भाड्याने देवून तू कुठे रहायला जाणार आहेस ?”
“आपल्या चाळीपासून जवळच असलेल्या संगम नगर मधे !”
“अरे काय बोलतोयस काय मोरू ? तिथे आमच्याकडे काम करणाऱ्या सखूबाई, जोश्याकडे काम करणाऱ्या पारूबाई राहतात आणि ती एक अनधिकृत वस्ती आहे तुला माहित …..”
“आहे पंत, ती एक अनधिकृत वस्ती आहे ते….”
“आणि तरी सुद्धा तुला तिथे रहायला जायचय ?”
“हो पंत, कारण सध्याच्या करोनाच्या काळात, मुंबईतल्या अशा वस्त्याच जास्त सेफ असल्याचा खात्रीलायक रिपोर्ट आला आहे ! त्यासाठीच मी माझ्या कुटूंबासकट हे करोनाचे संकट टळे पर्यंत संगम नगर मधे राहण्याचा निर्णय घेतला आहे.”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ’.डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 78 ☆
☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆
पुलिस की रेड पडी थी। इस बार वह पकडी गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम।‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर सी हो गई है। पहली बार नहीं पडी थी यह लताड, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खडे होते हैं पर —।
महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक है कहाँ? यह अधिकार तो समाज के तथाकथित सभ्य समाज को ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में माँ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड तो इंद्र को मिलना चाहिए।
उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढकेल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब जीवन भर इस शाप को ढोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती- जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता?
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख ‘समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से’। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 126☆
समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से
व्हाट इज योर मोबाईल नम्बर? जमाना मोबाईल का है. खत का मजमूं जान लेते हैं लिफाफा देखकर वाले शेर का नया अपडेटेड वर्शन कुछ इस तरह हो सकता है कि ” समझ लेते हैं गुफ्तगू, रिंग टोन से “.
लैंड लाइन टेलीफोन, मोबाईल के ग्रांड पा टाइप के रिलेशन में “था ” हो गया है.
वो टेलीफोन के जमाने की बात थी जब हमारे जैसे अधिकारियो को भी, लोगो को छोटी मोटी नौकरी पर रख लेने के अधिकार थे. आज तो नौकरियां विज्ञापन, लिखित परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम, फिर फ़ाइनली कोर्ट केस के रास्ते मिला करती हैं, पर उन दिनो नौकरी के इंटरव्यू से पहले अकसर सिफारिशी टेलीफोन कामन था. सेलेक्शन का एक क्राइटेरिया यह भी होता था कि सिफारिश किसकी है. मंत्री जी की सिफारिश और बड़े साहब की सिफारिश के साथ ही रिश्तेदारो की सिफारिश के बीच संतुलन बनाना पड़ता था. ससुराल पक्ष की एक सिफारिश बड़ी दमदार मानी जाती थी । फोन की एक घंटी केंडीडेट का भाग्य बदलने की ताकत रखती थी.
नेता जी से संबंध टेलीफोन की सिफारिशी घंटी बजवाने के काम आते थे. सिफारिशी खत से लिखित साक्ष्य के खतरे को देखते हुये सिफारिश करने वाला अक्सर फोन का ही सहारा लेता था. तब काल रिकार्डिंग जैसे खतरे कम थे.हमारे जैसे ईमानदार बनने वाले लोग रिंग टोन से अंदाज लगा लेते कि गुफ्तगू का प्रयोजन क्या होगा और “साहब नहा रहे हैं ” टाइप के बहाने बनाने के लिये पत्नी को फोन टिका दिया करते थे. तब नौकरियां आज की तरह कौशल पर नही डिग्रियों से मिल जाया करती थीं. घर दफ्तर में फोन होना तब स्टेटस सिंबल था. आज भी विजिटिंग कार्ड का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मोबाईल और टेलीफोन नम्बर बने हुये हैं. दफ्तर की टेबिल का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण टेलीफोन होता है. और टेलीफोन का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है सिफारिश.न सही नौकरी पर किसी न किसी काम के लिये देख लेने, या फिर सीधे धमकी के रूप में देख लेने के काम टेलीफोन से बखूबी लिये जाते हैं. टेलीफोन की घंटी से, टेबल के सामने साथ बैठा व्यक्ति गौण हो जाता है,और दूर टेलीफोन के दूसरे छोर का आदमी महत्वपूर्ण हो जाता है.
जिस तरह पानी ऊंचाई से नीचे की ओर प्रवाहित होता है उसी तरह टेलीफोन या मोबाईल में हुई वार्तालाप का सरल रैखिक सिद्धांत है कि इसमें हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण आदमी, कम महत्वपूर्ण आदमी को आदेशित करता है. उदाहरण के तौर पर मेरी पत्नी मुझे घर से आफिस के टेलीफोन पर इंस्ट्रक्शन्स देती है. मंत्री जी, बड़े साहब को और बड़े साहब अपने मातहतो को महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण कार्यो हेतु भी महत्वपूर्ण तरीके से मोबाईल पर ही आदेशित करते हैं. टेलीफोन के संदर्भ में एक व्यवस्था यह भी है कि बड़े लोग अपना टेलीफोन स्वयं नहीं उठाते. इसके लिये उनके पास पी ए टाइप की कोई सुंदरी होती है जो बाजू के कमरे में बैठ कर उनके लिये यह महत्वपूर्ण कार्य करती है और महत्वपूर्ण काल ही उन तक फारवर्ड करती है. नेता जी के मोबाईल उनके विश्वस्त के हाथों में होते हैं, जो बड़े विशेष अंदाज में जरूरी काल्स पर ही नेता जी को मोबाईल देते हैं, वरना संदेशन खेती करनी पड़ती है. और राजगीर के लड्डुओ के संदेश जितने टोकनों से गुजरते हैं, हर टोकने में इतना तो झर ही जाते हैं कि एक नया लड्डू बन जाता है, इस तरह सभी को बिना गिनती कम हुये लड्डुओ का भोग चढ़ जाता है, लोगों के काम हो जाते हैं.
टेलीफोन एटीकेट्स के अनुसार मातहत को अफसर की बात सुनाई दे या न दे, समझ आये या न आये, किन्तु सर ! सर ! कहते हुये आदेश स्वीकार्यता का संदेश अपने बड़े साहब को देना होता है. जो बहुत ओबीडियेंट टाइप के कुछ पिलपिले से अफसर होते हैं वे बड़े साहब का टेलीफोन आने पर अपनी सीट पर खड़े होकर बात करते हैं. ऐसे लोगो को नये इलेक्ट्रानिक टेलीफोन में कालर आई डी लग जाने से लाभ हुआ है और अब उन्हें एक्सटेंपोर अफसरी फोन काल से मुक्ति मिल गई है, वे साहब की काल पहचान कर पहले ही अपनी मानसिक तैयारी कर सकते हैं. यदि संभावित गुफ्तगू के मकसद का अंदाज इनकमिंग काल के नम्बर से लगा लिया जाता है, तो यह पहचान बड़े काम की होती है. सावधानी में सुरक्षा निहित होती ही है. बड़े साहब का मोबाईल आने पर ऐसे लोग तुरंत सीट से उठकर चलायमान हो जाते हैं. यह बाडी लेंगुएज,उनकी मानसिक स्थिति की परिचायक होती है. एसएमएस से तो बचा जा सकता है कि मैसेज पढ़ा ही नही, पर मुये व्हाट्सअप ने कबाड़ा कर रखा है, इधर दो टिक नीले क्या हुये सामने वाला कम्पलाइंस की अपेक्षा करने लगता है. इससे बचाव के लिये अब व्हाट्सअप सैटिंग्स में परिवर्तन किया जाना पसंद किया जाने लगा है.
हमारी पीढ़ी ने चाबी भरकर इंस्ट्रूमेंट चार्ज करके बात करने वाले टेलीफोन के समय से आज के टच स्क्रीन मोबाईल तक का सफर अब तक तय कर लिया है. इस बीच डायलिंग करने वाले मेकेनिकल फोन आये जिनकी एक ही रिटी पिटी ट्रिन ट्रिन वाली घंटी होती थी. इन दिनो आधे कटे एप्पल वाले मंहगे मोबाईल हों या एनड्राइड डिवाईस कालर ट्यून से लेकर मैसेज या व्हाट्सअप काल, यहां तक की व्यक्ति विशेष के लिये भी अलग,भांति भांति के सुरों की घंटी तय करने की सुविधा हमारे अपने हाथ होती है. समय के साथ की पैड वाले इलेक्ट्रानिक फोन और अब हर हाथ में मोबाईल का नारा सच हो रहा है, लगभग हर व्यक्ति के पास दो मोबाइल या कमोबेश डबल सिम मोबाईल में दो सिम तो हैं ही. आगे आगे देखिये होता है क्या? क्योकि टेक्नालाजी गतिशील है. क्या पता कल को बच्चे को वैक्सिनेशन की तरह ही सिम प्रतिरोपण की प्रक्रिया से गुजरना पड़े. फिर न मोबाईल गुमने का झंझट होगा, न बंद होने का. आंखो के इशारे से गदेली में अधिरोपित इनबिल्ट मोबाईल से ही हमारा स्वास्थ्य, हमारा बैंक, हमारी लोकेशन, सब कुछ नियंत्रित किया जा सकेगा. पता नही इस तरह की प्रगतिशीलता से हम मोबाईल को नियंत्रित करेंगे या मोबाईल हमें नियंत्रित करेगा.
एक समय था जब टेलीफोन आपरेटर की शहर में बड़ी पहचान और इज्जत होती थी, क्योकि वह ट्रंक काल पर मिनटो में किसी से भी बात करवा सकता था. शहर के सारे सटोरिये रात ठीक आठ बजे क्लोज और ओपन के नम्बर जानने, मटका किंग से हुये इशारो के लिये इन्हीं आपरेटरो पर निर्भर होते थे.समय बदल गया है आज तो पत्नी भी पसंद नही करती कि पति के लिये कोई काल उसके मोबाईल पर आ जाये. अब जिससे बात करनी हो सीधे उसके मोबाईल पर काल करने के एटीकेट्स हैं.पर मुझे स्मरण है उन टेलीफोन के पुराने दिनो में हमारे घर पर पड़ोसियो के फोन साधिकार आ जाते थे.बुलाकर उन्हें बात करवाना पड़ोसी धर्म होता था. तब निजता की आज जैसी स्थितियां नहीं थी, आज तो बच्चो और पत्नी का मोबाईल खंगालना भी आउट आफ एटीकेट्स माना जाता है. उन दिनो लाइटनिंग काल के चार्ज आठ गुने लगते थे अतः लाइटनिंग काल आते ही लोग किसी अज्ञात आशंका से सशंकित हो जाते थे. विद्युत विभाग में बिजली की हाई टेंशन लाइन पर पावर लाइन कम्युनिकेशन कैरियर की अतिरिक्त सुविधा होती है, जिस पर हाट लाइन की तरह बातें की जा सकती है, ठीक इसी तरह रेलवे की भी फोन की अपनी समानांतर व्यवस्था है. पुराने दिनो में कभी जभी अच्छे बुरे महत्वपूर्ण समाचारो के लिये लोग अनधिकृत रूप से इन सरकारी महकमो की व्यवस्था का लाभ मित्र मण्डली के जरिये उठा लिया करते थे.
मोबाईल सिखाता है कि बातो के भी पैसे लगते हैं और बातो से भी पैसे बनाये जा सकते हैं. यह बात मेरी पत्नी सहित महिलाओ की समझ आ जाये तो दोपहर में क्या बना है से लेकर पति और बच्चो की लम्बी लम्बी बातें करने वाली हमारे देश की महिलायें बैठे बिठाये ही अमीर हो सकती हैं.अब मोबाईल में रिश्ते सिमट आये हैं. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल कैमरे के पिक्सेल वगैरह अब महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से हैं.अंबानीज ने बातो से रुपये बनाने का यह गुर सीख लिया है, और अब सब कुछ जियो हो रहा है. मोबाईल को इंटरनेट की शक्ति क्या मिली है, दुनियां सब की जेब में है.अब कोई ज्ञान को दिमाग में नही बिठाना चाहता इसलिये ज्ञान गूगल जनित जानकारी मात्र बनकर जेब में रखा रह गया है. मोबाईल काल रिकॉर्ड हो कर वायरल हो जाये तो लेने के देने पड़ सकते हैं. काल टेपिंग से सरकारें हिल जाती हैं. मोबाईल पर बातें ही नही,फोटो, जूम मीट, मेल,ट्वीट्स, फेसबुक, इंस्टा, खेल, न्यूज, न्यूड सब कुछ तो हो रहा है, ऐसे में मोबाइल विकी लीक्स, स्पाइंग का साधन बन रहा है तो आश्चर्य नही होना चाहिये. मोबाईल लोकेशन से नामी गिरामी अपराधी भी धर लिये जाते हैं. बाजार में सुलभ कीमत के अनुरूप गुणवत्ता का मोबाईल चुनना और मोबाईल प्लान के ढ़ेरो आफर्स में से अपनी जरूरत के अनुरूप सही विकल्प चुनना आसान नही है. कही कुछ है तो कहीं कुछ और, आज मोबाइल का माडल अभिजात्य वर्ग में स्टेटस सिंबल है. इतनी अधिक विविधताओं के बीच चयन करके हर हाथ मोबाईल के शस्त्र से सुसज्जित है यह सबके लिये गर्व का विषय है.
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “आरामगाह की खोज”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 77 – आरामगाह की खोज☆
दौड़भाग करके मनमौजी लाल ने एक कार्यक्रम तैयार किया किन्तु बात खर्चे पर अटक गयी । संयोजक, आयोजक, प्रतिभागी सभी तैयार थे, बस प्रायोजक को ढूंढना था। क्या किया जाए अर्थव्यवस्था चीज ही ऐसी है, जिसके इर्द गिर्द पूरी दुनिया चारो धाम कर लेती है । बड़ी मशक्कत के बाद गुनीलाल जी तैयार हुए ,बस फिर क्या था उन्होंने सारी योजना अपने हाथों में ले ली अब तो सबके रोल फीके नजर आने लगे उन्हें मालुम था कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा करना पड़ेगा ।
दूसरी तरफ लोगों ने समझाया कि कुछ लोग मिलकर इसके प्रायोजक बनें तभी कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा हो सकेगा । सो यह निर्णय हुआ कि साझा आर्थिक अभियान ही चलायेंगे । कार्य ने गति पकड़ी ही थी कि दो दोस्तों की लड़ाई हो गयी, पहले ने दूसरे को खूब भला बुरा कहा व आसपास उपस्थित अन्य लोगों के नाम लेकर भी कहने लगा मेरा ये दोस्त मन का काला है, आप लोगों की हमेशा ही बुराई करता रहता है , मैंने इसके लिए कितना पैसा और समय खर्च किया पर ये तो अहसान फरामोश है इसे केवल स्वयं के हित के अलावा कुछ सूझता नहीं ।
वहाँ उपस्थित लोगों ने शांति कराने के उद्देश्य से ज्ञान बघारना शुरू कर दिया जिससे पहले दोस्त को बड़ा गुस्सा आया उसने कहा आप लोग पत्थर के बनें हैं क्या ? मैंने इतना कहा पर आप सबके कानों में जूँ तक नहीं रेंगी, खासकर मैडम जी तो बिल्कुल अनजान बन रहीं इनको कोई फर्क ही नहीं पड़ा जबकि सबसे ज्यादा दोषारोपण तो इनके ऊपर ही किया गया ।
मैडम जी ने मुस्कुराते हुए कहा मैं अपने कार्यों का मूल्यांकन स्वयं करती हूँ, आपकी तरह नहीं किसी ने कह दिया कौआ कान ले गया तो कौआ के पीछे भागने लगे उसे अपशब्द कहते हुए, अरे भई देख भी तो लीजिए कि आपके कान ले गया या किसी और के ।
समझदारी इस बात में नहीं है कि दूसरे ये तय करें कि हम क्या कर रहें हैं या करेंगे बल्कि इस बात में है कि हम वही करें जिससे मानवता का कल्याण हो । योजनाबद्ध होकर नेक कार्य करते रहें ,देर- सवेर ही सही कार्यों का फल मिलता अवश्य है ।
आर्थिक मुद्दे से होती हुई परेशानी अब भावनाओं तक जा पहुँची थी बस आनन फानन में दो गुट तेयार हो गए । शक्ति का बटवारा सदैव से ही कटुता को जन्म देता आया है सो सारे लोग गुटबाजी का शिकार होकर अपने लक्ष्य से भटकते हुए पुनः आरामगाह की खोज में देखे जा रहे हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “बने रहो….”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 ☆
☆ लघुकथा — बने रहो…. ☆
मोहन को चार डाक बना कर देना थी। महेश से कहा तो महेश बोला,” लाओ कागज ! अभी बना देता हूं,” कह कर महेश ने कागज लिया। जानकारी भरी। जोड़ लगाई ।
” 9 धन 6 बराबर 14 ।” फिर अचानक बोला, ” अरे ! यह तो गलत हो गया। 9 धन 6 बराबर 16 होता है।” कहते हुए उसने जोड़ के आंकड़े को घोटकर 14 के ऊपर 16 बना दिया।
तभी अचानक माथे पर हाथ रख कर बोला, ” साला ! दिमाग भी कहां जा रहा है ? 9 धन 6 तो 15 होते हैं।”
” हां, यह ठीक है।” जैसे ही महेश ने यह कहा तो मोहन बोला, ” यह क्या किया सर ? जानकारी में काटपीट ?”
” कोई बात नहीं सर । एक कागज और दीजिए । अभी नई बना देता हूं, ” कह कर महेश ने दूसरा कागज लिया। कॉलम खींचे। मगर यह क्या ? एक कालम छूट गया था।
” सर! यह क्या किया? आपने तो एक कालम ही छोड़ दिया?”
यह सुनकर महेश बोला,” अच्छा! देखें। कौन सा कॉलम छूटा है ?” कहकर महेश ने माथे पर हाथ रख कर कहा,” अरे! यार एक और कागज दो ।अभी बना देता हूं।”
बहुत देर से पत्रवाहक यह सब देख रहा था । वह खड़ा होते वह बोला, ” सर! मुझे देर हो रही है । आप डाक बनाकर भेज दीजिएगा। मैं चलता हूं।”
” अरे! नहीं सर जी। मोहन ने हड़बड़ा कर कहा, ” आप थोड़ी देर बैठिए। मैं स्वयं बनाकर दे देता हूं।”
मोहन के यह कहते हुए ही महेश हमेशा की तरह मुस्कुरा कर अपने तकिया कलाम वाक्य को धीरे से सीटी बजा कर दोहराने लगा, “बने रहो पगला, काम करेगा अगला।”
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता “शामियाने…”। )