हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 115 ☆ एक रिकवरी ऐसी भी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य  ‘एक रिकवरी ऐसी भी…!’ )  

☆ संस्मरण # 115 ☆ एक रिकवरी ऐसी भी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

बैंकों में बढ़ते एनपीए जैसे समाचार पढ़ते हुए उस ईमानदार मृतात्मा की याद आ गई, जिसने अपने बेटे को सपना देकर अपने पुराने लोन को पटाने हेतु प्रेरणा दी। 

किसी ने ठीक ही कहा है कि कर्ज, फर्ज और मर्ज को कभी नहीं भूलना चाहिए, लेकिन इस आदर्श वाक्य को लोग पढ़कर टाल देते है। कर्ज लेते समय तो उनका व्यवहार अत्यंत मृदु होता है, लेकिन मतलब निकलने के बाद वे नजरें चुराने लगते है, कई ऐसे लोग है जो बैंक से काफी लोन लेकर उसे पचा जाते है, लेकिन ऐसे भी लोगों की कमी नहीं जो कर्ज, फर्ज और मर्ज का बराबर ख्याल रखते है। 

नारायणगंज (मंडला) एरिया के एक कर्जदार ने अपनी मृत्यु के बाद भी बैंक से लिए कर्ज को चुकाने सपने में अपने परिजन को प्रेरित किया जिससे उसके द्वारा २० साल पहले लिया कर्ज पट गया। जब लोगों को इस बात का पता चला तो लोगों ने दातों तले उगलियाँ दबा कर हतप्रद रह गए।

बात सोलह साल पुरानी है जब हम स्टेट बैंक नारायणगंज (म.प्र.) में शाखा प्रबन्धक के रूप में पदस्थ थे। इस मामले का खुलासा करने में हमें भी तनिक हिचक और आश्चर्य के साथ सहज रूप से विश्वास नहीं हो रहा था।  इसीलिए हमने कुछ अपनों को यह बात बताई, साथ ही अपनों को यह भी सलाह दी कि ”किसी से बताना नहीं ….. पर कुछ दिन पहले एक रिकवरी ऐसी भी आई।……..यह बात फैलते – फैलते खबरनबीसों तक पहुच गई, फिर इस बात को खबर बनाकर स्थानीय संवाददाता ने  खबर को प्रमुखता से अपने पत्र में प्रकाशित करवा दिया। खबर यह थी कि २० साल पहले एक ग्राहक ने बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन कर्ज चुकाने के पहले ही वह परलोक सिधार गया …………। उसके बेटे ने एक दिन बैंक में आकर अपने पिता द्वारा लिए गए कर्ज की जानकारी ली, बेटे ने  बताया कि उसके पिता बार-बार सपने में आते है और बार-बार यही कहते है कि बेटा बैंक का कर्ज चुका दो, पहले तो शाखा के स्टाफ को आश्चर्य हुआ और बात पर भरोसा नहीं हुआ, लेकिन उसके बेटे के चेहरे पर उभर आई चिंता और उसके संवेदनशील मन  पर गौर करते हुए अपलेखित खातों की सूची में उसके पिता का नाम मिल ही गया,उसकी बात पर कुछ यकीन भी हुआ, फिर उसने बताया कि पिता जी की बहुत पहले मृत्यु हो गई थी, पर कुछ दिनों से हर रात को पिता जी सपने में आकर पूछते है की कर्ज का क्या हुआ? और मेरी नींद खुल जाती है फिर सो नहीं पता, लगातार २० दिनों से नहीं सो पाया हूँ, आज किसी भी हालत में पिता जी का कर्ज चुका कर ही घर जाना हो पायेगा। अधिक नहीं मात्र १६,५००/ का हिसाब ब्याज सहित बना, उसने हँसते -हँसते चुकाया और बोला – आज तो सच में गंगा नहाए जैसा लग रहा है।

अगले दो-तीन दिनों तक उसकी खोज -खबर ली गई उसने बताया की कर्ज चुकने के बाद पिता जी बिलकुल भी नहीं दिखे, उस दिन से उसे खूब नीदं आ रही है। जिन लोगों ने इस बात को सुना उन्हें भले इस खबर पर अंधविश्वास की बू आयी है, पर उस पवित्र आत्मा की प्रेरणा से जहाँ बैंक की वसूली हो गई वहीँ एक पुत्र पितृ-लोन से मुक्त हो गया,इस खबर को तमाम जगहों पढ़ा गया और हो सकता है कि  कई दूर-दराज शाखाओं की पुरानी अपलेखित खातों में इस खबर से वसूली हुई हो। पर ये सच है कि पहले के जमाने में स्टेट बैंक  का ग्राहक होना गर्व और इज्जत का विषय होता था। तभी तो लोग कहते थे कि स्टेट बैंक में ऐसे ईमानदार कर्जदार भी होते थे जो मरकर भी अपने कर्ज को चुकवाते हुए बैंक की वसूली का माहौल भी बनाते थे…… 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #58 ☆ # शहंशाह # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# शहंशाह#”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 58 ☆

☆ # शहंशाह # ☆ 

कौन जानता है कल क्या होगा

अच्छा होगा या बुरा होगा

जो कुछ भी है बस यह पल है

जो भी होगा अच्छा होगा

 

बदलियां आसमां पर जायेगी

बिजलियाँ कहर बरपायेगी

तूफान भी आयेंगे बहुत

तूफानों से हमें लड़ना होगा

 

धूप ही धूप होंगी अगर

जिस्म सारे झुलस जायेंगे मगर

रूह भी छांव को तरसेंगी

बादल बन हमें बरसना होगा

 

फूलों के संग यहां कांटे भी होंगे

दुनिया ने अपनी सहूलियत से

बांटें भी होंगे

अपनी अस्मिता को बचाने के लिए

अपना सब कुछ दांव पर लगाना होगा

 

कई सिकंदर आये

और ना जाने किधर गये

कई साम्राज्य बनें

और अंत में बिखर गये

गाते गाते कह रहा है

वो राह का फकीर

वक्त शहंशाह है

हमें संभलना होगा /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 60 ☆ कुठे हरवली प्रीत… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 60 ? 

☆ कुठे हरवली प्रीत… ☆

(दश-अक्षरी…)

कुठे हरवली प्रीत सांगा

तुटला कसा प्रेमाचा धागा…०१

 

स्नेह कसे आटले विटले

तिरस्काराचे बाण रुतले…०२

 

अशी कशी ही बात घडली

संयमाची घडी विस्कटली…०३

 

मधु बोलणे लोप पावले

जसे अंगीचे रक्त नासले…०४

 

तिटकारा हा एकमेकांचा

नायनाट ऋणानुबंधाचा…०५

 

अंधःकार भासतो सर्वदूर

लेकीचे तुटलेच माहेर…०६

 

भावास बहीण जड झाली

पैश्याची तिजोरी, का रुसली…०७

 

कोडे पडले मना-मनाला

गूढ उकलेना, ते देवाला…०८

 

माणूस मी कसा घडवला

होता छान, कसा बिघडला…०९

 

राज विषद, मन मोकळे

सु-संस्कार, सोनेचं पिवळे…१०

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – 25 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – 25– रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

[११७]

या माझ्या लहानशा जगात

राहतो मी दिवसरात्र जपत

क्षुद्र …क्षुल्लक … क्षीण गोष्टी

उचलून घे ना मला

तुझ्याच जगात

आणि दे स्वातंत्र्य

अगदी आनंदाने

स्वत:लाच हरवून टाकण्याचे

पुसून टाकण्याचे … 

 

[११८]

परिवर्तनाचं वैभव असतो

काळ म्हणजे

पण घड्याळ जेव्हा

विडंबन करतं काळाचं

तेव्हा शिल्लक रहातं

केवळ परिवर्तन

एका क्षणाचं दुसर्‍या क्षणात

वैभवाचा मागमूसही

नसतो त्यात….

 

[११९]

दिवा विझल्यावर

अधिकच मादक बनून

मला बिलगणार्‍या

माझ्या प्रियेसारखी

चारी बाजूंनी

जाणवत रहाते मला

ही काळोखी रात्र

विलक्षण सौंदर्याचा

रेशमी पोत असलेली

 

[१२०]

धुकं पूर्णपणे वितळल्याशिवाय

स्वच्छ प्रकाशात नाही

सकाळचा सूर्य

तशी

माझं नाव पुसून टाकल्याशिवाय

ओसंडत नाही

तुझ्या नामाची माधुरी  

 

मूळ रचना – स्व. रविंद्रनाथ टैगोर 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #118 ☆ व्यंग्य – पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 118 ☆

☆ व्यंग्य – पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट 

पैंतीस पुस्तकों के लेखक और देश में फैली नाना समितियों और संगठनों से पैंतालीस पुरस्कार-प्राप्त यशस्वी लेखक उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। एक हाथ में उनकी पैंतीस पुस्तकों का बंडल और दूसरे में मिठाई का डिब्बा।  घुटनों की तकलीफ के कारण कराहते, मुँह बनाते चढ़ रहे थे। वे यहाँ प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से सौजन्य-भेंट करने आये थे। पुरस्कारों का मौसम चल रहा था।

सीढ़ी पर बीच में रुककर लेखक महोदय पीड़ा से बुदबुदाये, ‘ससुरे सरग में रहते हैं। दर्द से परान निकले जा रहे हैं।’

ऊपर पहुँच कर घंटी बजायी तो अध्यक्ष महोदय सामने आये। सामान से लदे फँदे,पस्त लेखक जी सामने पड़े सोफे पर ढेर हो गये। थोड़ा सँभले तो बत्तीस दाँतों वाली मुस्कान फेंककर हाथ जोड़कर बोले, ‘मैं हजारीलाल ‘चातक’। पचास साल से साहित्य के क्षेत्र में हूँ। पैंतीस किताबें छप चुकी हैं। आपको भेंट करने के लिए लाया हूँ।’ उन्होंने बंडल की तरफ इशारा किया।

अध्यक्ष महोदय बोले, ‘हाँ,आपका नाम ज़रूर कहीं पढ़ा है। कैसे पधारे?’

‘चातक’ जी बोले, ‘इस शहर में कुछ काम से आया था। सोचा आपको पुरस्कार समिति का अध्यक्ष बनने की बधाई दे आऊँ।’

अध्यक्ष जी बोले, ‘पुरस्कार समिति का अध्यक्ष बने तो डेढ़ साल हो गया।’

‘चातक’ जी ने जवाब दिया, ‘तो क्या हुआ? देर आयद, दुरुस्त आयद। जब जागे तभी सबेरा। अंग्रेजी में भी कहते हैं बैटर लेट दैन नेव्हर। और वह सरकारी नारा है, दुर्घटना से देर भली।’

अध्यक्ष जी ने पूछा, ‘दुर्घटना कैसी?’

‘चातक’ जी बोले, ‘अब देखिए न, पैंतीस किताबों के स्थापित और लोकप्रिय लेखक को पचास साल की साहित्य-सेवा के बाद भी कोई बड़ा पुरस्कार न मिले तो यह दुर्घटना से क्या कम है? इसीलिए समय रहते जरूरी कार्यवाही कर लेना चाहिए।’

अध्यक्ष जी बोले, ‘आपसे पहले कहीं भेंट नहीं हुई?’

‘चातक’ जी बोले, ‘हुई थी। आपको याद नहीं है, लेकिन मेरे पास प्रमाण है। पिछले साल लखनऊ में हुए लेखक-सम्मेलन में मैंने आपके साथ फोटो खिंचवाया था। हाथ भी मिलाया था। यह देखिए फोटो।’

अध्यक्ष जी ने देखा फोटो में ‘चातक’ जी लेखकों की भीड़ में दो लेखकों के कंधों पर से झाँक रहे थे।

‘चातक’ जी ने मिठाई का डिब्बा बढ़ाया। अध्यक्ष जी बोले, ‘यह क्या है?’

‘चातक’ जी ने जवाब दिया, ‘कुछ नहीं। रास्ते में अच्छी मिठाई की दूकान मिल गयी तो थोड़ी सी ले ली। सोचा हमारी भेंट कुछ मधुर हो जाएगी और आपके ज़ेहन में मेरी मधुर स्मृतियाँ रहेंगीं।’

दरअसल ‘चातक’ जी शहर में किसी दूसरे काम से नहीं, अध्यक्ष जी के साथ पुरस्कार की गोटी बैठाने के लिए ही पैसा खर्च करके आये थे और एक होटल में टिके थे। होटल में रुकने का खर्च उन्हें अखर गया था लेकिन पुरस्कार के लालच में उन्होंने उसे भावी लाभ हेतु किया गया विनियोग मान लिया था।

मिठाई का डिब्बा देकर ‘चातक’ जी बोले, ‘आप शिष्टाचारवश मुझे चाय पिलायेंगे ही, इसलिए बता देता हूँ कि मेरी चाय में चीनी नहीं रहेगी। बैठे बैठे साहित्य-सेवा करते करते डायबिटीज़ हो गयी। यों समझिए कि अपना पूरा जीवन ही साहित्य की भेंट चढ़ गया, लेकिन विडंबना देखिए इतने बड़े त्याग के बाद भी अभी तक कोई बड़ा पुरस्कार हाथ नहीं आया।’

फिर उन्होंने एक पुस्तक अध्यक्ष जी की तरफ बढ़ायी, बोले, ‘यह पाक-शास्त्र के नुस्खों की पुस्तक है। भाभी जी को दीजिएगा। आपको बना बना के उत्तम व्यंजन खिलाएँगीं तो आपका स्वास्थ्य और मन बढ़िया रहेगा।’

इसके बाद थोड़ा सुस्ता कर बोले, ‘एक बात मन की कहता हूँ। पिछले जो अध्यक्ष जी थे वे मुँह देख कर,चीन्ह चीन्ह कर पुरस्कार देते थे। आपको देख कर विश्वास होता है कि आप के हाथों नाइंसाफी नहीं होगी, सुपात्रों को ही पुरस्कार मिलेंगे।’

फिर अध्यक्ष जी के चेहरे पर आँखें टिकाकर बोले, ‘बहुत से साहित्यकार मुझसे कहते हैं कि तुम्हें तो साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए। मैं कहता हूँ कि भैया, चने के झाड़ पर मत चढ़ाओ। अपने देश के पुरस्कार मिल जाएँ यही बहुत है। अपन को नोबेल फोबेल की कोई इच्छा नहीं है। अपने देश के पुरस्कार मेंं जो बात है वह विदेशी पुरस्कार में कहाँ!’

थोड़ी देर इधर उधर की बातें करके ‘चातक’ जी बोले, ‘अब चलता हूँ, आपका बहुत समय लिया। अपनी ये पैंतीस पुस्तकें छोड़े जा रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि इन्हें पढ़कर आपको लगेगा कि इस पुरस्कार का सही हकदार मैं ही हूँ। समिति के दूसरे सदस्य अपने भाई-भतीजों के नाम सुझाएँगे, लेकिन आप डटे रहेंगे तो सही आदमी के साथ पक्षपात और अन्याय नहीं होगा। साहित्य- संसार बड़ी उम्मीद से आपकी तरफ देख रहा है।’

अध्यक्ष महोदय ने हँसकर उन्हें आश्वस्त किया।’चातक’ जी उठकर बाहर आये। सामने नीचे उतरती सीढ़ियों को देखकर उनका मूड फिर गड़बड़ हो गया। ज़बान पर फिर ‘ससुरे’ शब्द आया लेकिन अध्यक्ष महोदय को दरवाज़े पर खड़ा देख वे उसे पीछे धकेल कर मुस्करा दिये। फिर वे पीड़ा से मुँह बिगाड़ते, सीढ़ियाँ उतरने लगे। गनीमत यही थी कि वे पैंतीस किताबों के बंडल और मिठाई के डिब्बे के बोझ से मुक्त हो गये थे, अन्यथा और फजीहत होती।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 70 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 70 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 70) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 70☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हम कहाँ तुमसे अपने

सवालों के जवाब मांगते हैं,

सिर्फ अपनी आँखों के

हिस्से के ख्वाब मांगते हैं…

 

When have I asked you

to answer my questions,

I only asked for the part of

my dreams in your eyes!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ये बिखरी-बिखरी ज़ुल्फें

ये उखड़ी-उखड़ी सांसें

तेरी आँखें बयां कर रही हैं

बीती रात का फसाना…!

 

These scattered swirls,

these unsettled breaths..

Your eyes are narrating

the testimony of last night..

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कितनी अज़ीब है ये

मेरे अंदर की तन्हाई

कितने अपने हैं पर याद

हमेशा तुम ही आते हो…

 

How strange is this

loneliness inside me…

So many loved ones are there

but remember do I you only..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

अंजान हो अगर तो

गुजर क्यों नहीं जाते,

पहचान रहे हो तो

ठहर क्यों नहीं जाते….!

 

If you are a stranger, then

why don’t you go away,

If you recognize me, then

why don’t you stop….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 117 ☆ विश्वास से विष-वास तक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 117 ☆ ? विश्वास से विष-वास तक

एक चुटकुला पढ़ने के लिए मिला। दुकान में चोरी के आरोप में मालिक के विश्वासपात्र एक पुराने कर्मी को धरा गया। जज ने आरोपी से कहा- तुम किस तरह के व्यक्ति हो? जिसने तुम पर इतना विश्वास किया, तुमने उसी के साथ विश्वासघात किया? चोर ने हँसकर उत्तर दिया-  कैसी बात करते हैं जज साहब? यदि वह विश्वास नहीं करता तो मैं विश्वासघात कैसे करता?

चुटकुले से परे विचार कीजिएगा। पिछले कुछ दशकों से समाज का चित्र इसी तरह बदला है और विश्वास का फल विश्वासघात होने लगा है।

अपवाद तो सर्वदा रहे हैं, तब भी वह समय भी था जब परस्पर विश्वास प्रमुख जीवनमूल्य था।  महाराष्ट्र के एक वयोवृद्ध शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया। साठ के दशक में वे ग्रामीण भाग में अध्यापन करते थे। मूलरूप से कृषक थे पर आर्थिक स्थिति के चलते शिक्षक के रूप  नौकरी भी किया करते थे। उन दिनों गरीबी बहुत थी। अधिकांश लोगों की गुज़र- बसर ऐसे ही होती थी। विद्यालय में वेतन तो मिलता था पर बहुत अनियमित था।  कभी-कभी दो-चार माह तक वेतन न आता। इससे घर चलाना दूभर हो जाता।

एक बार लगभग छह माह वेतन नहीं आया। स्थिति बिगड़ती गई। कुल छह शिक्षक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनमें से एक कर्नाटक के थे। उनके घर में पत्नी के पास यथेष्ट गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने एक राजस्थानी महाजन के पास गिरवी रखे। उससे जो ऋण मिला, वह छहों शिक्षकों ने आपस में बांट लिया।

कर्ज़ लेने के लिए यहाँ तक तो ठीक है पर उनका सुनाया इस कथा का उत्तरार्द्ध आज के समय में कल्पनातीत है। उन्होंने कहा कि सम्बंधित महाजन भी पास के ही गाँव में रहते थे। सब एक दूसरे से परिचित थे। महाजन ने कहा, ” गुरु जी,  अपना घर चलाने के लिए हुंडी रखकर ऋण देना मेरा व्यवसाय है। अत:  गहने मेरे पास जमा रखता हूँ। लेकिन यदि घर परिवार में किसी तरह का शादी-ब्याह आए, अन्य कोई प्रसंग हो जिसमें पहनने के लिए गहनों की आवश्यकता हो तो नि:संकोच ले जाइएगा। काम सध जाने के बाद  फिर जमा करा दीजिएगा।”  उन्होंने बताया कि हम छह शिक्षकों को तीन वर्ष लगे गहने छुड़वाने में। इस अवधि में सात-आठ बार ब्याह-शादी और अन्य आयोजनों के लिए उनके पास जाकर सम्बंधित शिक्षक गहने लाते और आयोजन होने के बाद फिर उनके पास रख आते। कैसा अनन्य, कैसा अद्भुत विश्वास!

सम्बंधित पात्रों के राज्यों का उल्लेख इसलिए किया कि वे अलग-अलग भाषा, अलग-अलग रीति-रिवाज़ वाले थे पर मनुष्य पर मनुष्य का विश्वास वह समान सूत्र था जो इन्हें एक करता था।

आज इस तरह के लोग और इस तरह का विश्वास कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे जीवन के केंद्र में पैसा प्रतिष्ठित होने लगा, विश्वास में विष का वास होने लगा। अमृतफल दे सकनेवाली मनुष्य योनि को विष-वास से पुन: विश्वास की ओर ले जाने का संभावित सूत्र, मनुष्यता को बचाये रखने के लिए समय की बड़ी मांग बन चुका है। इस मांग की पूर्ति हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 70 ☆ घनाक्षरी ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘घनाक्षरी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 70 ☆ 

☆ घनाक्षरी ☆

*

चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,

उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।

रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,

बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।

गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,

थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।

न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,

न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #100 ☆ मैं उसको पावन कहता था ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 100 ☆

☆ मैं उसको पावन कहता था ☆

माँ की छाती का मिला दूध,

उसको मैं पावन कहता था।

उसकी आँखों से ढुलके मोती,

 उसको मैं सावन कहता था।

उसके आँचल की छाँव मिली,

उसमें ही जीवन पलता था।

उसकी उँगली का मिला सहारा,

 नन्हें पाँवों से चलता था।

।। माँ की छाती का मिला दूध।।1।।

 

माँ जब जब गुस्सा होती थी,

तब मुझे डाँटती जाती थी।

दिल में प्यार उमड़ता था,

आँखों से बदली बरसाती थी।

वह हर मंदिर में जाती थी,

मेरी ही कुशल मनाती थी ।

उसकी आँखें भर आती थी,

जब मेरी याद सताती थी।

।। माँ की छाती का मिला दूध।।2।।

 

आँखों में गुस्सा दिल में प्यार,

ना आए समझ तेरा व्यवहार।

जो भी रूखा सूखा मिलता,

वह पहले मुझे खिलाती थी।

पेट मेरा भरने की खातिर,

तू खुद भूखी सो जाती थी।

न जाने कितने जतन किए,

तूने  मुझे पढ़ाने की खातिर।

अपने सारे श्रम का फल ,

तूने मुझे चढ़ाने की खातिर।

अपने आंखों के पीकर आंसू,

तूने तो मुझको पाला था।

माँ तेरी फौलादी हिम्मत,

ने ही तो मुझे संभाला था।

।। माँ की छाती का मिला दूध।।3।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 11 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – ‘व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान’।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 11 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य के प्रतिमान और वर्तमान ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य की जब भी बात होती है. तब स्वभावतः होता है कि कबीर के समय पर चले जाते हैं. कबीर ने अपने समय की विसंगति पाखंड प्रपंच पर कठोरता से प्रहार किया है. उनके शबद, बानी और दोहों ने समाज को जगाने का काम किया. कबीर ने बहुत बेबाकी से अपने समय की बात रखी. उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास पाखंड प्रपंच पर तीखे तेवर से बातो को समाज के सामने आगे बढ़ाया.. कबीर के समय में धर्म की सत्ता अधिक प्रभावशाली थी. कबीर कहते हैं

मेरा मन समरई राम को मेरा मन रामाहि आहि

इब  मन रामहि है चला सीस नवाबों काहि

यहाँ पर कबीर ने मनुष्यता को उच्चतर स्तर दिया है. राम को जीवन का पर्याय माना है. कबीर राम और मनुष्य के अंतर को मिटा देते हैं। उनका मानना है रामत्व भरे जीवन से भय, त्रास अभाव दूर रहते हैं. अभिमान लुप्त हो जाता है. तब ऐसी स्थिति में अन्य के आगे शीश नबाने क्या फायदा.

कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ

जो घर फूकों आपनो चलै हमारे साथ

यह समझने की जरूरत है. यहाँ कबीर साहित्य मनुष्य और मनुष्यता को बड़ा बनाने में प्रयास रत है. उस समय का बाजार अलग था. उस समय के बाजार में सकारात्मक पहलू थे. उस समय के बाजार में सबके लिए विशेष कर किसानों के लिए आर्थिक आधार था. उनका सम्मान था. इस बाजार ने किसानों को स्वायत्तता प्रदान कर मनुष्य और मनुष्यता को आगे बढ़ाया. कबीर का रास्ता वे ही अपना सकते हैं जो अपना सब कुछ त्याग मनुष्यता के पक्ष में खड़े हैं. कबीर के साहित्य ने मानवीय सरोकारों के साथ सामाजिक संवेदनों के महत्व का आकलन कर मनुष्य के प्रतिमान स्थापित किए हैं यह परंपरा कबीर से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त से आगे बढ़कर हरिशंकर परसाई और शरद जोशी तक हमें देखने में मिल जाती हैं उसके बाद इसमें ठहराव सा नजर आता है. स्वतंत्रता के बाद परसाई ने सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक विसंगति, मानवीय कमजोरियों और प्रवृत्तियों पर तीखे तेवर के साथ बात उठाई है. जिस सत्ता, समुदाय, और व्यक्ति की प्रवृत्तियों पर अपनी कलम चलाई है. वह सत्ता या व्यक्ति तिलमिला उठता है. परसाई पर अनेक प्रकार के दबाव और हमले हुए. पर वे डरे नहीं. अपने उद्देश पर डटे रहे. पुलिस की कार्यप्रणाली और भर्राशाही पर उन्होंने ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर”, ‘भोलाराम  का जीव’ में शासकीय कार्यालयों में व्याप्त अराजकता और भ्रष्टाचार, ‘अकाल उत्सव’ में अकाल के समय पर अफसरों की अफसर शाही और उनके भ्रष्टाचार के नंगेपन को बेदर्दी से उजागर किया है. व्यक्ति की अपने स्वार्थवश फिसलती आस्था पर’ वैष्णव की फिसलन’ मानवीय चरित्र और परिवार की सत्ता पर ‘कंधे श्रवण कुमार के’ माध्यम से मानवीय सरोकारों की बात करते हैं धार्मिक अंधविश्वास और अवसरवाद पर ‘टार्च बेचने वाले’ में व्याप्त प्रपंच को सामने रखते हैं. यहां परसाई का सरोकार समाज, सत्ता में गिरे आचरण पर प्रहार कर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित करना है. उनके समकालीन शरद जोशी ने शासकीय भर्राशाही ठाकुरसुहाती पर ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’ अफसरों की अवसरवादिता  और भ्रष्टाचार पर वे’ जीप पर सवार इल्लियां’, ‘पुलिया पर बैठा आदमी’ आदि रचनाओं से पाठक और सत्ता को सचेत करते हैं. उनके समकालीन शंकर पुणतांबेकर, अजातशत्रु, लतीफ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, श्रीराम ठाकुर ‘दादा’, रमेश सैनी आदि की लंबी परंपरा रही है. जिन्होंने व्यक्ति को मानवीय और सामाजिक सरोकारों से जोड़कर वंचितों, शोषितों पीड़ितों के पक्ष में खड़े होकर व्यंग्य के प्रतिमान को स्थापित किया है. इस कारण साहित्य और समाज में व्यंग्य प्रमुखता से उभर कर सामने आया है. आज व्यंग्य अखबार और पत्रकारों की आवश्यकता बन गया है. व्यंग्य संग्रहों का प्रकाशन प्रचुर मात्रा में हो रहा है. ये व्यंग्य के स्थायित्व  के प्रतिमान है जिसके पीछे व्यंग्यकार की निष्पक्षता निर्भरता के साथ जन सरोकारों के साथ खड़ा होना है. पाठक और जन सामान्य को ऐसा महसूस होता है कि यह यह हमारे मन की बात कह रहा है. हमारी आवाज को उठा रहा है. यह सत्ता की शक्ति के साथ नहीं शोषितों के साथ दिख रहा है. इसके पीछे पूर्व के व्यंग्यकारों द्वारा ईमानदारी से किए गए लेखकीय उपक्रम है जिस पर पाठक का विश्वास जगा है

जब हम वर्तमान समय को देखते हैं तो निराशा होती है. व्यंग्य का पाठक पर प्रभाव को देखते हुए अखबार और पत्रिका में स्पेस तो दे रहे हैं. पर उसको बौना बना दिया है. सीमित संख्या म़े सिकोड़कर रख दिया है. व्यंग्यकार देखने दिखाने और छपने के लालच में उसी ढर्रे पर चल निकला है वह अपनी बात को सीमित शब्दों में कहने का प्रयास कर रहा है. जिस कारण बात का संक्षिप्तीकरण होकर संकेतों में सीमित हो जाता है. कभी-कभी पाठक संकेतों को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाता है. सीमितता के चलते सभी व्यंग्य  अपने उद्देश्य में पूरी तरह खुल नहीं पाते हैं, या फिसल जाते हैं. फिर वर्तमान समय में कुछ ऐसी रचनाएं आ रही हैं. जो अपने समय की विसंगतियों, कमजोरियों को उजागर करती हैं. आज साहित्य का पूरा परिदृश्य बदल गया है. इसका पूरा प्रभाव व्यंग्य पर भी पड़ा है. आज लेखक, मीडियाकर, पत्रकार नफा नुकसान के गणित के साथ आगे बढ़ रहे हैं. सत्ता की कमजोरियों को छुपा कर उसे बचाकर चलने लगे हैं. इस कारण समाज में व्याप्त समस्याओं और प्रवृत्तियों का सच सामने नहीं आ रहा है. सत्ता भी अपने उपकरणों का उपयोग ऐन केन प्रकारेण सच को छुपाने में ही प्रयास करती है आज का व्यंग्यकार रिस्क नहीं लेना चाहता है. वरन सत्ता से लाभ लेने हेतु उसके साथ देखने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता है. इसकी परिणति यह है कि वह अपने मानवीय सरोकारों से हटकर गैरजरूरी विषयों पर घूम गया है. आज अनेक व्यंग्यकार स्वयं  यह सवाल उठाने लगे हैं कि सत्ता का विरोध क्यों? जबकि व्यंग्य  का उद्देश्य सत्ता का विरोध करना होता है. पर वह सत्ता घर में पिता की, ऑफिस में बॉस  की, या वे सभी प्रकार की सत्ता जो जबरन अपने विचार और प्रभाव को थोपना या मनवाना चाहती हैं. अधिकांश सत्ता का अर्थ है राजनीति से लेते हैं और वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते उस सत्ता का विरोध नहीं कर पाते. जबकि वहां पर बड़े-बड़े ब्लैक होल्स है. यह साहित्य और व्यंग्य की बहुत बड़ी विडंबना है जो अपने सच को उजागर करने में अक्षम है. फिर भी  वर्तमान पूरी तरह धुंधला नहीं है. यहां भी दिए की रोशनी है जो सच का रास्ता दिखाने में सक्षम है. इन सब चीजों का आकलन विगत कारोना काल में आ रही रचनाओं से भली-भांति कर सकते हैं. इस समय हमें दोनों प्रकार के दृश्य देखने को मिल गए. शायद यही प्रकृति का चलन है।

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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