डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 118 ☆

☆ व्यंग्य – पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से भेंट 

पैंतीस पुस्तकों के लेखक और देश में फैली नाना समितियों और संगठनों से पैंतालीस पुरस्कार-प्राप्त यशस्वी लेखक उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। एक हाथ में उनकी पैंतीस पुस्तकों का बंडल और दूसरे में मिठाई का डिब्बा।  घुटनों की तकलीफ के कारण कराहते, मुँह बनाते चढ़ रहे थे। वे यहाँ प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार-समिति के अध्यक्ष से सौजन्य-भेंट करने आये थे। पुरस्कारों का मौसम चल रहा था।

सीढ़ी पर बीच में रुककर लेखक महोदय पीड़ा से बुदबुदाये, ‘ससुरे सरग में रहते हैं। दर्द से परान निकले जा रहे हैं।’

ऊपर पहुँच कर घंटी बजायी तो अध्यक्ष महोदय सामने आये। सामान से लदे फँदे,पस्त लेखक जी सामने पड़े सोफे पर ढेर हो गये। थोड़ा सँभले तो बत्तीस दाँतों वाली मुस्कान फेंककर हाथ जोड़कर बोले, ‘मैं हजारीलाल ‘चातक’। पचास साल से साहित्य के क्षेत्र में हूँ। पैंतीस किताबें छप चुकी हैं। आपको भेंट करने के लिए लाया हूँ।’ उन्होंने बंडल की तरफ इशारा किया।

अध्यक्ष महोदय बोले, ‘हाँ,आपका नाम ज़रूर कहीं पढ़ा है। कैसे पधारे?’

‘चातक’ जी बोले, ‘इस शहर में कुछ काम से आया था। सोचा आपको पुरस्कार समिति का अध्यक्ष बनने की बधाई दे आऊँ।’

अध्यक्ष जी बोले, ‘पुरस्कार समिति का अध्यक्ष बने तो डेढ़ साल हो गया।’

‘चातक’ जी ने जवाब दिया, ‘तो क्या हुआ? देर आयद, दुरुस्त आयद। जब जागे तभी सबेरा। अंग्रेजी में भी कहते हैं बैटर लेट दैन नेव्हर। और वह सरकारी नारा है, दुर्घटना से देर भली।’

अध्यक्ष जी ने पूछा, ‘दुर्घटना कैसी?’

‘चातक’ जी बोले, ‘अब देखिए न, पैंतीस किताबों के स्थापित और लोकप्रिय लेखक को पचास साल की साहित्य-सेवा के बाद भी कोई बड़ा पुरस्कार न मिले तो यह दुर्घटना से क्या कम है? इसीलिए समय रहते जरूरी कार्यवाही कर लेना चाहिए।’

अध्यक्ष जी बोले, ‘आपसे पहले कहीं भेंट नहीं हुई?’

‘चातक’ जी बोले, ‘हुई थी। आपको याद नहीं है, लेकिन मेरे पास प्रमाण है। पिछले साल लखनऊ में हुए लेखक-सम्मेलन में मैंने आपके साथ फोटो खिंचवाया था। हाथ भी मिलाया था। यह देखिए फोटो।’

अध्यक्ष जी ने देखा फोटो में ‘चातक’ जी लेखकों की भीड़ में दो लेखकों के कंधों पर से झाँक रहे थे।

‘चातक’ जी ने मिठाई का डिब्बा बढ़ाया। अध्यक्ष जी बोले, ‘यह क्या है?’

‘चातक’ जी ने जवाब दिया, ‘कुछ नहीं। रास्ते में अच्छी मिठाई की दूकान मिल गयी तो थोड़ी सी ले ली। सोचा हमारी भेंट कुछ मधुर हो जाएगी और आपके ज़ेहन में मेरी मधुर स्मृतियाँ रहेंगीं।’

दरअसल ‘चातक’ जी शहर में किसी दूसरे काम से नहीं, अध्यक्ष जी के साथ पुरस्कार की गोटी बैठाने के लिए ही पैसा खर्च करके आये थे और एक होटल में टिके थे। होटल में रुकने का खर्च उन्हें अखर गया था लेकिन पुरस्कार के लालच में उन्होंने उसे भावी लाभ हेतु किया गया विनियोग मान लिया था।

मिठाई का डिब्बा देकर ‘चातक’ जी बोले, ‘आप शिष्टाचारवश मुझे चाय पिलायेंगे ही, इसलिए बता देता हूँ कि मेरी चाय में चीनी नहीं रहेगी। बैठे बैठे साहित्य-सेवा करते करते डायबिटीज़ हो गयी। यों समझिए कि अपना पूरा जीवन ही साहित्य की भेंट चढ़ गया, लेकिन विडंबना देखिए इतने बड़े त्याग के बाद भी अभी तक कोई बड़ा पुरस्कार हाथ नहीं आया।’

फिर उन्होंने एक पुस्तक अध्यक्ष जी की तरफ बढ़ायी, बोले, ‘यह पाक-शास्त्र के नुस्खों की पुस्तक है। भाभी जी को दीजिएगा। आपको बना बना के उत्तम व्यंजन खिलाएँगीं तो आपका स्वास्थ्य और मन बढ़िया रहेगा।’

इसके बाद थोड़ा सुस्ता कर बोले, ‘एक बात मन की कहता हूँ। पिछले जो अध्यक्ष जी थे वे मुँह देख कर,चीन्ह चीन्ह कर पुरस्कार देते थे। आपको देख कर विश्वास होता है कि आप के हाथों नाइंसाफी नहीं होगी, सुपात्रों को ही पुरस्कार मिलेंगे।’

फिर अध्यक्ष जी के चेहरे पर आँखें टिकाकर बोले, ‘बहुत से साहित्यकार मुझसे कहते हैं कि तुम्हें तो साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए। मैं कहता हूँ कि भैया, चने के झाड़ पर मत चढ़ाओ। अपने देश के पुरस्कार मिल जाएँ यही बहुत है। अपन को नोबेल फोबेल की कोई इच्छा नहीं है। अपने देश के पुरस्कार मेंं जो बात है वह विदेशी पुरस्कार में कहाँ!’

थोड़ी देर इधर उधर की बातें करके ‘चातक’ जी बोले, ‘अब चलता हूँ, आपका बहुत समय लिया। अपनी ये पैंतीस पुस्तकें छोड़े जा रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि इन्हें पढ़कर आपको लगेगा कि इस पुरस्कार का सही हकदार मैं ही हूँ। समिति के दूसरे सदस्य अपने भाई-भतीजों के नाम सुझाएँगे, लेकिन आप डटे रहेंगे तो सही आदमी के साथ पक्षपात और अन्याय नहीं होगा। साहित्य- संसार बड़ी उम्मीद से आपकी तरफ देख रहा है।’

अध्यक्ष महोदय ने हँसकर उन्हें आश्वस्त किया।’चातक’ जी उठकर बाहर आये। सामने नीचे उतरती सीढ़ियों को देखकर उनका मूड फिर गड़बड़ हो गया। ज़बान पर फिर ‘ससुरे’ शब्द आया लेकिन अध्यक्ष महोदय को दरवाज़े पर खड़ा देख वे उसे पीछे धकेल कर मुस्करा दिये। फिर वे पीड़ा से मुँह बिगाड़ते, सीढ़ियाँ उतरने लगे। गनीमत यही थी कि वे पैंतीस किताबों के बंडल और मिठाई के डिब्बे के बोझ से मुक्त हो गये थे, अन्यथा और फजीहत होती।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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