हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 124 ☆ “वेलेंटाइन डे पर पत्र” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर समसामयिक व्यंग्य वेलेंटाइन डे पर पत्र”।)  

☆ व्यंग्य # 124 ☆ “वेलेंटाइन डे पर पत्र” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

_

…………………….

प्राण प्यारी प्रिये,

     जुग जुग जियो।

यहां कुशल सब भांति सुहाई,

      वहां कुशल राखें रघुराई,

रघुराई का सहारा इसलिए लेना पड़ रहा है कि वेलेंटाइन डे सामने खड़ा हो गया है, और हमें चिंता है कि इस साल तुम सुरक्षित रहो, पिछले साल वेलेंटाइन डे मनाते समय तुम्हारी उन लोगों ने पिटाई कर दी थी, हालांकि उस पिटाई में हम भी शामिल थे, अपन दोनों वेलेंटाइन डे के स्वागत के लिए गार्डन में एक दूसरे से चिपके बैठे थे तो पीछे से कुछ लोगों ने लठ्ठ पटक दिया था। इस बार का वेलेंटाइन डे तुम किसी और के साथ कहीं और मना लेना क्योंकि इन दिनों अपना उपयोग गधे की भांति किया जा रहा है। टारगेटों से लदे हुए हम कराह रहे हैं। इधर सरकारी योजनाओं का टारगेट पूंछ उठा कर खड़ा है, डिपाजिट और एडवांस का टारगेट  ओमीक्रान बन गया है। पत्नी ने जो टारगेट दिया था वो हवा में उड़ गया है। ससुराल वालों का साहब बने रहो के टारगेट से टांग टूट गई है। बच्चे पैदा करने का टारगेट  हवा हवाई हो गया है। इस बार गरीबी रेखा के साथ मजबूरी में वेलेंटाइन डे मनाने का टारगेट हाथ लगा है, तुम चिंता नहीं करना, एंज्वॉय में कमी न करना, भरपूर एंज्वॉय के साथ वेलेंटाइन डे मनाना, चाहे जिसके साथ मनाओ पर बीच-बीच में हमें भी याद कर लेना। इस बार यदि वसूली का टारगेट पूरा हो जाएगा तो तुम्हारे लिए बरेली के बाजार से सोने का झुमका लेकर आयेंगे, तुम चिंता नहीं करना क्योंकि अभी हम मीटिंग में बैठे हैं और तरह तरह के टारगेट पर टारगेटेड हैं। थोड़ी देर में बाॅस गाली देने का टारगेट पूरा करेंगे, इस बार बाॅस की चमचागिरी का टारगेट नयी आयी सुंदर सी स्टेनो को दिया गया है, इस बार बाॅस अपने केबिन में नयी स्टेनो के साथ वेलेंटाइन डे मनाने वाले हैं, और हमें एनपीए महारानी के साथ वेलेंटाइन डे मनाने का टारगेट दिया गया है। अपनी इज्जत अपने हाथ बचाने का टारगेट हमने फिक्स कर लिया है इससे लठ्ठ पड़ने का डर खतम हो गया है। तुम अपना बहुत ख्याल रखना, इस बार लठ्ठ चलाने वाले बहुतायत से घूम रहे हैं, इन्हें बड़े बड़े टारगेट दिये गये हैं। ये टारगेट पूरा करने बहुरुपिए बनकर आयेंगे, इसलिए सेफ वेलेंटाइन डे मनाने के तरीकों का सहारा लेना। बहुत बहुत शुभकामनाएं तुम इस वेलेंटाइन डे को खूब ऐश करो और तुम्हें खूब सुख मिले।

शेष कुशल है।

 

तुम्हारा टारगेटेड प्रेमी

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 67 ☆ # बसंती बयार # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बसंती बयार  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 67 ☆

☆ # बसंती बयार # ☆ 

मैं कब इनकार करती हूँ 

हाँ ! मै तुमसे प्यार करती हूँ 

 

जब हम पहली बार मिले थे

मिलकर दूर किये

जो शिकवे गिले थे

भ्रमर बन जिन कलियों को

तुमने चूमा था

वो आज पुष्प बन

उपवन में खिले थे

तुम्हारी खुशबू से ही

मैं महकती हूं

हाँ ! मैं तुमसे प्यार करती हूँ 

 

पीले पीले फूलों की रूत आई है

संग संग “बसंत”की खुशी लाई है

मदनोत्सव में डूबें है नर-नारी

मदन को जगाती यह पुरवाई है

मैं भी हर घड़ी

तुम्हारा इंतज़ार करतीं हूँ 

हाँ ! मैं तुमसे प्यार करती हूँ 

 

“बसंत” प्रेमियों के लिए उपहार है

जिसके कण कण में बस

प्यार ही प्यार है

फूलों से सजे स्वागत द्वार है

सजनी के गले में बाहों का हार है

तुमसे मिलने को

मन ही मन मैं दहकती हूँ 

हाँ ! मै तुमसे प्यार करती हूँ 

 

इस रूत में,

कामदेव-रति पृथ्वी पर आते हैं

प्रेम प्रणय का संदेश साथ लाते हैं

तुम भी आ जाओ,

कहीं बीत ना जाए यह घड़ी

मैं प्रणय-विव्हल

तुमसे बार बार कहती हूँ 

हाँ ! मै तुमसे प्यार करती हूँ 

हाँ ! मै तुमसे प्यार करती हूँ /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 69 ☆ शृंगारिक… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 69 ? 

शृंगारिक… ☆

सखे अवखळ तू, अल्लड मोहक तू

तुझी काया प्रिये,  वसंताचा बहार तू

 

सुरेख तुझी कांती,  सुरेख तुझा बांधा

तुला पाहुनी मग,  मला झाला प्रेमबाधा

 

तुझे केस रेशमी,  त्यात तो गजरा

गजरा खुणावतो,  ये जरा सामोरा

 

गुलाबी तुझे ओठ, जसे डाळिंब पिकले

पिकून डाळिंब, आपोआप जसे फुटले

 

गोबरे गोबरे गाल,  नाजूक त्यावर खळी

स्मित तुझे हास्य,  गेला माझा बळी

 

गोरे गोरे नाजूक पाय,  मंद मंद त्याची चाल

ठुमकत आली जेव्हा,  मिठी मारावी खुशाल

 

एक आणले पैंजण,  तुझ्याच सारखे मस्त

पैंजण बांधताना पायात,  लाजली तू जास्त

 

अशी तू मंदाकिनी, तारुण्यात मुक्त बहरली

तुझ्यात अलवार माझी,  प्रीती बहू जडली

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #127 ☆ व्यंग्य – एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

 

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 127 ☆

☆ व्यंग्य – एक उद्भट विद्वान और बड़े बाबू 

शहर के जाने-माने विद्वान प्रोफेसर विद्याधर प्रसाद की फाइल नगर निगम के बड़े बाबू के पास अटकी थी। मामला मकान के नक्शे का था जो नगर निगम से पास होना था। प्रोफेसर साहब को रिटायरमेंट पर मोटी रकम मिली थी और उन्होंने ऊपर एक मंज़िल बनाने की योजना बनायी थी ताकि बढ़ते किरायों के दौर का फायदा उठाकर मुकम्मल आमदनी का ज़रिया बनाया जा सके।

प्रोफेसर साहब का एक चेला कुछ दिन से बड़े बाबू के चक्कर लगा रहा था और बड़े बाबू उसे टरका रहे थे। अमूमन गुरूजी के रिटायरमेंट के बाद चेले दाहिने बायें हो जाते हैं, लेकिन कुछ नासमझ चेले फिर भी गुरूजी के प्रति समर्पित रहते हैं। ऐसा ही एक चेला गुरूजी के लिए दौड़ लगा रहा था।

आख़िरकार एक दिन बड़े बाबू द्रवित हुए। फाइल को पलटते हुए चेले से बोले, ‘ये कौन  से गुरूजी हैं जिनके लिए चक्कर लगा रहे हो?’

चेला बोला, ‘हमारे गुरू हैं। यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए हैं। हिन्दी और उर्दू के माने हुए विद्वान हैं।’

बड़े बाबू बोले, ‘कभी हमसे मिलवाओ। हम भी समझें कितने बड़े विद्वान हैं।’

फाइल से बँधे प्रोफेसर साहब एक दिन चेले के साथ बड़े बाबू के सामने हाज़िर हो गये। बड़े बाबू बड़े प्रेम से मिले। बोले, ‘आपकी विद्वत्ता के बारे में बहुत सुना है। दरअसल हमको भी उर्दू का सौक है। कभी कभी सेर कह लेते हैं। आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी।’

बड़े बाबू के पीछे खड़ा एक छोटा बाबू बोला, ‘बड़े बाबू उर्दू के भारी सौकीन हैं। बात बात पर सेर पटकते हैं। एक मुसायरे में सेर पढ़े तो बरेली के एक सायर कहने लगे आप कहाँ दफ्तर में अपना टाइम खराब कर रहे हैं। मुसायरों में आइए,नाम और नावाँ दोनों मिलेगा। लेकिन बड़े बाबू कहते हैं कि हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे दफ्तर, किसे देखकर फाइल निपटाइएगा?’

बड़े बाबू कुछ शर्मा कर बोले, ‘अरे आप जैसे विद्वानों के सामने हम क्या हैं?हाँ,आप जैसे लोगों की सोहबत से कभी कभी दो चार सेर कह लेते हैं। दरअसल हमको बड़े सायरों के सेरों से लिखने का हौसला मिलता है। जैसे वो एक सेर है, ‘हसरते कतरा है दरिया में फना हो जाना’।’

प्रोफेसर साहब के भीतर का सोया हुआ मास्टर कसमसा कर जाग उठा। बोले, ‘वो लफ्ज़ ‘हसरते कतरा’ नहीं, ‘इशरते क़तरा’ है।’

बड़े बाबू अप्रतिभ हुए। बोले, ‘नहीं, वह हसरते कतरा है। हम पढ़े हैं।’

प्रोफेसर साहब सिर हिलाकर बोले, ‘नहीं, वह इशरते क़तरा है। इशरत का मतलब समृद्धि होता है, जैसे ऐशो-इशरत। हमें मालूम है।’

बड़े बाबू चुप हो गये। थोड़ी देर बाद बोले, ‘और भी अच्छे सेर हैं, जैसे वह ‘मौत का एक दिन मुकर्रर है, नींद क्यों रात भर नहीं आती।’

प्रोफेसर साहब बोले, ‘वह शब्द ‘मुकर्रर’ नहीं, ‘मुअय्यन’ है। ये दोनों शेर ग़ालिब के हैं।’

बड़े बाबू माथा सिकोड़कर बोले, ‘यह मुअय्यन क्या होता है?’

प्रोफेसर साहब ने जवाब दिया, ‘मुकर्रर जैसा ही है, लेकिन है मुअय्यन।’

बड़े बाबू का चेहरा बिगड़ गया। थोड़ी देर में सँभलकर बोले, ‘एक और सेर है जो हमें बहुत पसन्द है। वो ‘गिरते हैं सहसवार ही मैदाने जंग में, वो तिल्फ क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले।’

प्रोफेसर साहब मौके की नज़ाकत को नहीं समझ रहे थे। तपाक से बोले, ‘वो लफ्ज़ तिफ़्ल है, तिल्फ नहीं। तिफ़्ल का मतलब बच्चा होता है।’

सुनकर बड़े बाबू पूरी तरह बुझ गये। कनखियों से दाहिने बायें देखा कि कोई उनकी फजीहत को तो नहीं देख रहा है। सौभाग्य से सब बाबू अपनी अपनी फाइलों में मसरूफ थे।

बड़े बाबू ठंडे स्वर में बोले, ‘आपसे मिलकर खुसी हुई। बहुत ज्ञान भी मिला। दो तीन दिन में चेले को भेज दीजिएगा। मैं बता दूँगा।’

दो तीन दिन बाद चेला मिला तो बड़े बाबू उखड़े हुए थे। बोले, ‘टाइम लगेगा। फाइल में बहुत सी कमियाँ हैं। पन्द्रह बीस दिन बाद आना। मैं देखूँगा। गनेस जी की तरह रोज चक्कर मत लगाओ।’

चेला समझदार था। लौट कर गुरूजी से बोला, ‘सर, आपने बड़े बाबू की गलतियाँ निकालकर गड़बड़ कर दी। वे बिलकुल उखड़ गये हैं। उन्हें सँभालना पड़ेगा।’

दो दिन बाद चेला फिर बड़े बाबू के पास पहुँचा। मुलायम स्वर में बोला, ‘गुरूजी ने आपके लिए संदेसा भेजा है कि उनसे ही देखने में गलती हो गयी थी। दरअसल वो शेर वैसे ही हैं जैसे आपने बोले थे। गुरूजी की याददाश्त गड़बड़ हो गयी थी। आप खयाल मत कीजिएगा।’

बड़े बाबू गर्व से मुस्कराये, बोले, ‘हो जाता है। बढ़ती उम्र में याददास्त गड़बड़ाने लगती है। लेकिन हमें प्रोफेसर साहब की विद्वत्ता में सक नहीं है। उनसे हमारा सलाम कहना और बता देना कि सोमवार तक उनका काम हो जाएगा। आप आकर हाथोंहाथ आर्डर ले लेना।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ English translation of Urdu poetry couplets of Pravin ‘Aftab’ # 79 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

English translation of Urdu poetry couplets of Pravin ‘Aftab’ # 79 ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of Pravin Aftab # 79 ☆

(Today, enjoy some of the Urdu poetry couplets written and translated in English by Pravin ‘Aftab’.  Pravin ‘Aftab’ is nick name of Capt. Pravin Raghuvanshi.)

बड़ी रौनक होगी आज

खुदा की महफिल में,

मौसिकी का खज़ाना है

जो पहुंचा ज़मीन से जन्नत में…

 

There must a great festivity

in the God’s gathering today…

Treasure of music has just

arrived in heaven from the Earth.

 

 

कितना दुश्वार है…

यूँ ज़िंदगी बसर करना

तुम्हीं से फासला रखना

और तुम्हीं से इश्क़ करना…!

 

How difficult it is

to live life like this…

To keep distance from you

and love you too…!

 

 

न एक सांस ज़्यादा

न एक साँस कम,

फिर काहे की फिक्र

और काहे का ग़म

 

Neither a breath more

nor a breath less,

Then why to worry

and why to feel sad…!

 

पहले परिंदों के शोर हुआ करते थे

अब तो बस दबे पाँव शाम होती है

बहारों में भी खिंजा का गुमाँ होता है

ज़िंदगी यूँही तमाम हुए जाती हैं… 

 

Earlier there used to be boisterous chirping of birds

Now it’s just inane turning of dusk into night

Even the blooming spring gives a feel of autumn

Life just keeps on passing in a Sambre plight…!

 

Pravin ‘Aftab’

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 125 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 124 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आये, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 80 ☆ सॉनेट – चुनाव ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट – रस।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 80 ☆ 

☆ सॉनेट – चुनाव

लबरों झूठों के दिन आए।

छोटे कद, वादे हैं ऊँचे।

बातें कड़वी, जहर उलीचे।।

प्रभु ये दिन फिर मत दिखलाए।।

 

फूटी आँख न सुहा रहे हैं।

कीचड़ औरों पर उछालते।

स्वार्थ हेतु करते बगावतें।।

निज औकातें बता रहे हैं।।

 

केर-बेर का संग हो रहा।

सुधरो, जन धैर्य खो रहा।

भाग्य देश का हाय सो रहा।।

 

नाग-साँप हैं, किसको चुन लें?

सोच-सोच अपना सिर धुन लें।

जन जागे, नव सपने बुन ले।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१३-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #109 ☆ ‌दानेन पाणिर्नतुकंकणेन ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 109 ☆

☆ ‌आलेख – दानेन पाणिर्नतुकंकणेन ☆

 

कश्चधर्म:परालोके,‌ कश्चधर्म: सदाफल:।

किं नियम्य न शोचन्ति, कैश्चसंधिर्न जिर्यते।

अर्थात्- लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? सदा फलदाई धर्म क्या है? किसे बस में कर लेने से चिंता मुक्त रहा जा सकता है? किसकी मित्रता कभी पुरानी नहीं पडती?

आनृसंस्यंपरो धर्म:,  स्त्रयीधर्म:सदाफल:।

मनोयम्य न शोचंति, संधि:सद्भीर्नजिर्यते।।

अर्थात्- लोक में सर्वोत्तम धर्म दया है, वेदोक्त धर्म सदा फलदाई है, मन को वशीभूत रखने वाले सदा सुखी एवम् चिंता मुक्त रहते हैं। सज्जन पुरुष की मित्रता कभी पुरानी नहीं पड़ती।

संस्कृत वांग्मय में भी यह सूक्ति है,

विभुक्षितं किं न किं न करोति  पापं।।

(महाभारत वन पर्व ३१३)

अर्थात्- भूखा प्राणी कौन सा अधम पाप नहीं करता, वह अपनी क्षुधा पूर्ति के लिए चोरी के अलावा भी तमाम जघन्यतम कृत्य करने के लिए विवश होता है। वहीं पर विभिन्न लोक कहावतों में भी  भूख की पीड़ा ही प्रतिध्वनित होती है।

यथा – क्षुधापीर सहित सकै न जोगी। अथवा  भूखे भजन न होई गोपाला।

उपरोक्त संस्कृत सूक्ति, लोक कहावतों के निहितार्थो का स्पष्ट संकेत क्षुधाजनित पीड़ा की तरफ करते हैं, वहीं पर पौराणिक अध्ययन के दौरान जीवन में अन्न के महत्व पर प्रकाश डालती अनेक घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं। जो मानव जीवन में खाद्यान्न के महत्व को दर्शाती हैं। इस क्रम में द्रौपदी के जीवन की अक्षयपात्र कथा, सुदामा, रत्नाकर, महर्षि कणाद्  का जीवन दर्शन का पौराणिक घटना क्रम अवश्य ही पठनीय है, जो क्षुधा पूर्ति में अन्न की महत्ता दर्शाती है। इस क्रम में याद करिए भूख से बिलबिलाते, विप्र सुदामा के परिवार की कथा, तथा रत्नाकर, महर्षि कणाद् का जीवन वृत्त सारे प्रसंग भूख भोजन तथा अन्न के इर्द-गिर्द गोल गोल घूमते नजर आयेंगे।

मानव हों, पशु हों, पंछी हों, कीट पतंगे हो, हर जीव क्षुधा पूर्ति हेतु प्रयासरत दीखता है। इस क्रम में प्रकृति ने हमें दूध, दही, फल, फूल, शाकवर्गीय वनस्पतियां, प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले खाद्यान्न फसलों का उपहार दिया, लेकिन उसके बावजूद एक तरफ जहां विश्व की बहुसंख्यक आबादी  भूख तथा कुपोषण की पीड़ा जनक परिस्थितियों से दो-चार होती दीख रही है, वहीं पर अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णयों के चलते होटलों, वैवाहिक समारोहों, खुले आसमान के नीचे भंडारित सड़ते अन्न तथा पके निष्प्रयोज्य खाद्य-पदार्थ जिससे लाखों भूखों की भूख मिटाई जा सकती थी, लेकिन ऐसा होता कहां दीखता है, एक तरफ जहां आज भी गरीब वर्ग दीन हीन अवस्था में साधन सुविधा से वंचित अन्न के दाने दाने को मोहताज दीखता भूख एवम् कुपोषण से मरता दीख रहा है। वहीं पर नवधनाढ्य वर्ग अन्नो की बरबादी का जश्न महंगे होटलों तथा आयोजन के साथ मनाता है। जो कहीं न कहीं से उसके झूठी शान तथा अहं की तुष्टि का हिस्सा है।

हमारे प्रत्येक मांगलिक कार्यों तथा धार्मिक आयोजन का संबंध देवी देवताओं के आवाहन पूजन एवम् विसर्जन से जुड़ा है, हम जीवन के उन सुखद पलों ‌को यादगार बनाने के क्रम में हर आयोजन के प्रारंभ अथवा अंत में प्रीति भोजों का आयोजन करते हैं।उन आयोजन के निर्विघ्न समापन हेतु देवियों देवताओं का आवाहन पूजन करके भांति-भांति के प्रसाद फल फूल समर्पित करते हैं। लेकिन आयोजन की पूर्णता के बाद शेष बचे हुए व्यंजन अवशेषों को खुले आसमान तले  सड़कों के किनारे  कूड़े के ढेर पर  फेंक देते हैं, जो सड़ कर वातावरण को प्रदूषित तो करता ही है, वह फिजूलखर्ची तथा अकुशल प्रबंधन का भी प्रतीक है, क्या ही अच्छा होता जब प्रायोजक द्वारा आयोजक की सेवा शर्तों में यह बात भी जोड़ दी जाती कि  सफल आयोजन के बाद बचे अन्न अवशेषों को किसी लोक सेवी संस्था को दान कर दिया जाता जिससे सेंकड़ों नहीं हजारों की संख्या में भूख तो मिटती है, वातावरण भी प्रदूषित होने से बच जाता तथा उन दरिद्रनारायणों के हृदय से मिलने वाले आशिर्वाद से जीवन में मंगल ही मंगल होता। वर्ना लक्ष्मीऔर अन्नपूर्णा के रूठने पर दरिद्रता भूख पीड़ा बीमारी से उपजा आसन्न संकट आप के दरवाजे पर खड़ा खड़ा अपने गृहप्रवेश के अशुभ घड़ी का इंतजार कर रहा होगा।

हम सभी से आज भी अपने आसपास तमाम ऐसे गरीबवर्गीय महिलाओं बच्चों से आमना-सामना होता होगा, जिनके तन पर फटे झूलते चीथडों में बंटे वस्त्र तथा खाली पेट उनकी गरीबी लाचारी तथा बेबसी को बयां करते मिल जायेंगे, तो वहीं दूसरी तरफ नवधनाढ्यों की अलमारियों में अटे पड़े पुरानें कपड़े जो उपयोग में नहीं है, वे चाहे तो उन तमाम कपड़ों को धुलवाकर तमाम गरीबों का तन ढक कर नर से नारायण की श्रेणी में जा सकते हैं। इधर बीच कुछ लोकोपकारी  संस्थाओं के ऐसे लोग सामने आये हैं, जिनका नारा ही है “नर सेवा, नारायण सेवा”।  

जो नेकी की दीवार बनाते हैं, जो घर घर से बचें पके अन्न संग्रह कर तथा आयोजनों के बाद बचे हुए अवशेष तथा दान में प्राप्त पुराने वस्त्रो से गरीब का पेट भरने तथा उनके तन ढकने कार्य करते हैं, तथा उन धनवानों को भी पुण्य ‌लाभ का अतिरिक्त अवसर उपलब्ध कराते हैं। जिसे देख सुन कर बड़ी ही सुखद अनुभूति होती है, वरना हम मिथकीय मान्यताओं को ढोते हुए मंदिरों, मस्जिदों, गुरद्वारों आदि तीर्थ स्थानों में भटकते ही रहेंगे।

किसी विद्वान का मत है कि – “प्रार्थना करने वाले ओठों से किसी की सहायता में उठने वाले हाथ ‌ज्यादा पवित्र होते हैं आइए हम किसी की सहायता का संकल्प ले।” (अज्ञात)

तभी तो धर्म कर्म की व्याख्या करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा कि-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीडा सम नहिं अधमाई।।

(रा०च०मानस०)

इसी सिद्धांत का समर्थन संस्कृत भाषा का यह श्लोक भी करता है।

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन , दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||

(अज्ञात)

अर्थात्- कानों की शोभा शास्त्रों के श्रवण से है, कुण्डल पहनने से नहीं। हाथों की शोभा दान देने से है, कंगन पहनने से नहीं। दयालु पुरूषों की शोभा परोपकार से है चंदनादि लेपन से नहीं ।इस लिए शरीर को आभूषण से नहीं सुंदर गुणों से सजाना चाहिए।

इस क्रम में उन दयावानों का अभिनंदन, वंदन, सहयोग तथा समर्थन अवश्य किया जाना चाहिए। जो तन मन धन तीनों से ही नेकी के कार्यों से जुड़े हैं। आप और हम सभी नेक व्यवस्था का अंग बनें औरअंत में  “शुभंभवतु“।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #129 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 16 – “हमने उनके ख़्वाबों को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हमने उनके ख़्वाबों को …”)

? ग़ज़ल # 15 – “हमने उनके ख़्वाबों को …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

 

मुहब्बत वाले क़यामत की नज़र रखते हैं,

महबूब को हो तकलीफ़ तो ख़बर रखते हैं।

 

हमने उनके ख़्वाबों को आँखों पर सजाया,

हमपर आई सख़्त धूप वो शजर रखते हैं।

 

उन्होंने हमारी रातों को ख़्वाबों से सजाया,

उनकी यादें हम दिल में हर पहर रखते हैं।

 

ग़ज़ल सिर्फ़ आपही लिखना नहीं जानते हो,

हम रदीफ़ संग क़ाफ़िया ओ बहर रखते हैं।

 

हमने तो लुटा दी जन्नत उनकी चाहत में

वो हमेशा मिल्कियत पर तेज नज़र रखते हैं।

 

फ़लक से तोड़ तारे बिछाए तेरी रहगुज़र,

खुद के लिए टूटे प्यालों में ज़हर रखते हैं।

 

उन पर होवे इनायात की बारिश हर पहर,

आतिश उनकी मुसीबतों से बसर रखते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 68 ☆ गजल – ’माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 68 ☆ गजल – ’माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

खबरें सुनाती हर दिन आँसू भरी कथायें

दुख-दर्द भरी दुनियाँ, जायें तो कहाँ जायें ?

बढ़ती ही जा रही है संसार में बुराई

चल रही तेज आँधी हम सिर कहाँ छुपायें ?

उफना रही है बेढब बेइमानियों की नदियॉ

ईमानदारी डूबी, कैसे उसे बचायें ?

सद्भाव, प्रेम, ममता दिखती नहीं कहीं भी

है तेज आज जग में विद्वेष की हवायें।

है जो जहाँ भी, अपनी ढपली बजा रहा है

लगी आग है भयानक, जल रहीं सब दिशाएं।

दिखता न कहीं कोई सच्चाई का सहारा

अब सोचना जरूरी कैसे हो कम व्यथायें।

सब धर्म कहते आये है, प्रेम में भलाई

पर लोगों ने किया जो किसकों व्यथा सुनायें ?

बीता समय कभी भी वापस नहीं है आता

सीखा न पर किसी ने कि समय न गँवायें।

माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है

कैसे ’विदग्ध’ ऐसे में, चैन कहाँ पायें ?          

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares