हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 121 ☆ दर्द की इंतहा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द की इंतहा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 121 ☆

☆ दर्द की इंतहा

‘दर्द को भी आधार कार्ड से जोड़ दो/ जिन्हें मिल गया है दोबारा ना मिले’ बहुत मार्मिक उद्गार क्योंकि दर्द हम-सफ़र है; सच्चा जीवन-साथी है, जिसका आदि अंत नहीं। ‘दु:ख तो अपना साथी है’ गीत की ये पंक्तियां मानव में आस्था व विश्वास जगाती हैं; मानव मन को ऊर्जस्वित व संचेतन करती है। वैसे तो रात्रि के पश्चात् भोर, अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा व दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित है; अवश्यंभावी है। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं और एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है।

समय निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; कभी रुकता नहीं। सो! जो आया है अवश्य जाएगा। इसलिए ऐ मानव! तू किसी के आने पर ख़ुशी व जाने का मलाल मत कर। ‘कर्म गति अति न्यारी’ इसके मर्म को आज तक कोई नहीं जान पाया। परंतु यह तो निश्चित् है कि ‘जो जैसा करता, वैसा ही फल पाता’ के माध्यम से मानव को सदैव सत्कर्म करने की सीख दी गयी है।

अतीत कभी लौटता नहीं; भविष्य अनिश्चित् है।  परंतु वह सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वर्तमान ही शाश्वत् सत्य है, शिव है और सुंदर है। मानव को सदैव आज के महत्व को स्वीकारते हुए हर पल को ख़ुशी से जीना चाहिए। चारवॉक दर्शन में भी ‘खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ’ का संदेश निहित है। आज की युवा पीढ़ी भी इसी का अनुसरण कर रही है। शायद! इसलिए ‘वे यूज़ एंड थ्रो’, ‘लिव इन’ व ‘मी टू’ की अवधारणा के पक्षधर हैं। वे पुरातन जीवन मूल्यों को नकार चुके हैं, क्योंकि उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। वे सदैव वर्तमान में जीते हैं। संबंध-सरोकारों का उनके जीवन में कोई मूल्य नहीं तथा रिश्तों की अहमियत को भी वे नकारने लगे हैं, जिसका प्रतिफलन विकराल सामाजिक विसंगतियों के रूप में हमारे समक्ष है।

अमीर-गरीब की खाई सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है और हमारा देश इंडिया व भारत दो रूपों में परिलक्षित हो रहा है। एक ओर मज़दूर, किसान व मध्यमवर्गीय लोग दिन-भर परिश्रम करने के पश्चात् दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते और आकाश की खुली छत के नीचे अपना जीवन बसर करने को विवश हैं। बाल श्रमिक शोषण व बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना रूप हमारे समक्ष है। एक घंटे में पांच बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं; बहुत भयावह स्थिति  है। दूसरी ओर धनी लोग और अधिक धनी होते जा रहे हैं, जिनके पास असंख्य सुख-सुविधाएं हैं और वे निष्ठुर, संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित व निपट स्वार्थी हैं। शायद! इसी कारण गरीब लोग दर्द को आधार-कार्ड से जोड़ने की ग़ुहार लगाते हैं, क्योंकि व्यक्ति छल-कपट से पुन: वे सुविधाएं प्राप्त नहीं कर सकता। उनके ज़हन में यह भाव दस्तक देता है कि यदि ऐसा हो जायेगा, तो उन्हें जीवन में पुन: दर्द प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि वे अपने हिस्से का दर्द झेल चुके हैं। परंतु इस संसार में यह नियम लागू नहीं होता। भाग्य का लिखा कभी बदलता नहीं; वह अटूट होता है। सो! उन्हें इस तथ्य को सहर्ष क़ुबूल कर लेना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक मानव के साथ-साथ चलता है और उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए सुंदर भविष्य की प्राप्ति हेतू सदैव अच्छे कर्म करें, ताकि हमारा भविष्य उज्ज्वल हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 120 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 120 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मध्वासव पीकर हुए, दृग प्रेमिल बेचैन।

अंग-अंग फडकन लगे, कैसे आए चैन।।

 

विजया तेरी आरती, करता हर पल राम।

कृपादृष्टि से आपकी, बनते बिगड़े काम।।

 

तुझे देख कहते सभी, मदिर तुम्हारा रूप।

चाल ढाल बदली हुई, दिखती नहीं अनूप।।

 

मन्मथ का जिसको कभी, लगा प्यार का बाण।

रक्षा उसकी हो रही, बचे रहेंगे प्राण।।

 

अंगूरी के स्वाद का, जो करते रसपान।

उनके नयनों में बसे, अक्सर हालाजान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 110 ☆ मोरे केशव कुँज बिहारी…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “मोरे केशव कुँज बिहारी….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 110 ☆

☆ मोरे केशव कुँज बिहारी….

 

राधा के हैं श्याम मनोहर, मीरा के गिरधारी

ललना पुकारें माँ यसोदा, देवकि के अवतारी

नन्दबाबा के प्रभु गोपाला, सखियन कृष्ण मुरारी

ग्वाल-बाल सखा सब टेरें, कह कह कर बनवारी

वृजवासी कन्हैया कहते, कर चरणन बलिहारी

चरण शरण “संतोष” चाहता, रखियो लाज हमारी

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 114 – धुंद झाले मन माझे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 114 – विजय साहित्य ?

☆ धुंद झाले मन माझे  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

धुंद झाले मन माझे

शब्द रंगी रंगताना

आठवांचा मोतीहार

काळजात गुंफताना…….॥१॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझें मन ‌वाचताना

प्रेमप्रिती राग लोभ

अंतरंगी नाचताना……..॥२॥

 

धुंद झाले मन माझे

हात हातात घेताना

भेट हळव्या क्षणांची

प्रेम पाखरू होताना……..॥३॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझ्या मनी नांदताना

सुख दुःख समाधान

अंतरात रांगताना……….॥४॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुला माझी म्हणताना

भावरंग अंगकांती

काव्यरंगी माळताना……॥५॥

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! बॅलेन्टाईन डे ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? बॅलेन्टाईन डे ! ?

“काय पंत, आज एकदम ठेवणीतला ड्रेस घालून स्वारीचे प्रस्थान कुठे ?”

“अरे आज आमच्या सिनियर सिटीझनचा ‘बॅलेंटाईन डे’ आहे बर.”

“तुमची काहीतरी गडबड होत्ये पंत, तुम्हाला ‘व्हॅलेंटाईन डे’ म्हणायचं आहे का ?”

“उगाच नेहमी सारखा आगाऊ पणा नकोय, तो ‘व्हॅलेंटाईन डे’ तुमचा, आमचा ‘बॅलेंटाईन डेच’ आहे आज.”

“म्हणजे मी नाही समजलो?”

“अरे परवा लेल्याचा मुलगा आला US वरून आणि येतांना त्याने ‘बॅलेंटाईन स्कॉच’ आणली आहे आमच्या सिनियर सिटीझन ग्रुपसाठी.  मग लेले म्हणाला या सगळयांनी घरी शनिवारी संध्याकाळी, आपण आपला ‘बॅलेंटाईन डे’ साजरा करू.  म्हणून त्याच्याकडेच चाललोय.”

“Ok, एन्जॉय करा पण लेले काकूंना हे चालत ?”

“अरे नाही चालत, पण त्या गेल्यात पुण्याला, सत् संग करायला आणि तोच मोका साधून आमचे आज ‘बॅलेंटाईन डेच’ सेलेब्रेशन आहे.”

“पुण्याला आणि सत् संग करायला ?”

“का, पुण्याचे लोक सत् संग करत नाहीत ?”

“तसच काही नाही, पण आपल्या शिवाजी पार्कात कुठंही सत् संग चालत नाही की काय, उगाच एव्हढे त्यासाठी लांब पुण्याला कशाला जायला हवे ?”

“तू म्हणतोयस ते बरोबर आहे, पण त्यांचे माहेर पुण्याचे, उभे आयुष्य पुण्यात…. “

“गेले असेल, पण सत् संग तो  सत् संग, तो मुंबईत केला काय आणि पुण्यात केला…. “

“असे तुला वाटत, पण त्यांच मत थोडं वेगळे आहे.”

“यात कसलं आलं आहे मत, सत् संग सगळीकडे सारखाच असतो ना ?”

“अरे त्या इथे पण एक दोनदा

सत् संगाला गेल्या होत्या, पण त्यांच म्हणणं असं पडलं की इथल्या सत् संगाला पुण्याची सर नाही.”

“म्हणजे काय पंत, मी नाही समजलो?”

“अरे ती एक पुण्याची मानसिकता आहे, आमच्याकडे जे जे आहे, मग ते काहीही असो, ते जगात कुठेच नाही आणि आपण मुंबईकर त्यांचा तो भ्रम दूर करू शकत नाही, एव्हढे बरीक खरे.”

“ते ही खरच आहे म्हणा.”

“आणि लेले काकू पुण्याला गेल्यात हे आमच्या दृष्टीने बरेच नाही का ? नाहीतर आम्ही आमचा ‘बॅलेन्टाईन डे’ कसा साजरा केला असता, काय बरोबर ना ?”

“Ok, एन्जॉय करा पंत, पण मला एक कळत नाही हे तुमच्या नातवाचे चांदीचे बोंडले कशाला घेतले आहे तुम्ही बरोबर ?”

“अरे आज आम्ही तेच पेग मेझर म्हणून वापरणार आहोत !”

“काय, चांदीचे बोंडले पेग मेझर म्हणून वापरणार तुम्ही ?”

“तुझी चेष्टा कळते बर मला, पण आता वय झाले. तुझ्या वयाचा होतो तेव्हा….. “

“ते तुम्ही मागे एकदा सांगितले होतं आणि माझ्या ते चांगल लक्षात आहे.  आत्ताच्या या तुमच्या पेग मेझरच काय ते…. “

“सांगतो, सांगतो.  मगाशीच मी तुला म्हटलं, लेले काकू मूळच्या पुण्याच्या, तर त्यांनी

पुण्याला जाताना, लेल्याने काही उद्योग करू नयेत म्हणून, पार्टीचा सगळा सरंजाम कपाटात ठेवून, चावी आपल्या बरोबर नेली आहे पुण्याला, अस मला लेल्यानेच  सकाळीच फोन करून कळवले, म्हणून हे…. “

“पण म्हणजे तुमची ‘बॅलेन्टाईन’ पण कपाटात…… “

“नाही नाही, ती आधीच जोशाच्या घरी सुखरूप आहे आणि जोश्या ती येतांना घेऊनच येणार आहे.”

“काय सॉलिड फिल्डिंग लावली आहे तुम्ही लोकांनी पार्टी साठी, मानलं तुम्हाला !”

“मानलंस ना, मग आता तू जा तुझ्या रस्त्याने आणि मी…. “

“जातो जातो, पण एक शंका आहे.”

“आता कसली शंका?”

“पेग मेझरच काम झाल, पण ग्लासचे काय, पाहिजे तर माझ्याकडचे….. “

“काचेचे अजिबात नको आणि तुझ्या कडचे नकोच नको, उगाच सगळीकडे बोंबाबोंब करशील.”

“मग काय द्रोणातून स्कॉच…. “

“उगाच वाटेल ते बडबडू नकोस, तेव्हढी अक्कल आहे आम्हाला.”

“पण मग ग्लासांचा प्रश्न… “

“आम्ही सोडवला आहे.”

“तो कसा काय पंत?”

“अरे असं बघ, आमच्या ग्रुप मधे बहुतेक सगळ्यांनाच डायबेटीस आहे आणि प्रत्येकाकडे जांभळाच्या झाडाच्या खोडापासून बनवलेला लाकडी ग्लास आहे, त्यामुळे तो पण प्रश्न…. “

“निकाली लागला असंच ना ?”

“बरोबर ओळखलस !”

“पंत, म्हणजे पेग मेझर आणि ग्लासांचा प्रश्न तर सुटला, पण मग ही ‘बेनाड्रील सिरप’ची बाटली कशाला बरोबर घेतली आहे तुम्ही? “

“अरे सांगतो सांगतो, एकदा अशाच सेलेब्रेशनच्या वेळेला कुलकर्णीला एक पेग मध्येच झाली आणि सगळ्यांनी ठरवले की आता त्याला आणखी द्यायची नाही.”

“बर मग !”

“मग काय, पठया ऐकायला तयार नाही, आणखी पाहिजे म्हणून हट्ट धरून बसला. पण त्याची एक पेग नंतरची अवस्था बघून त्याला आणखी स्कॉच द्यायला कोणीच तयार नव्हतं.”

“पुढे”

“पुढे काय, जोश्यानेच अक्कल चालवून देतो, देतो म्हटलं आणि त्याचा ग्लास घेवून गेला किचन मधे आणि कपाटातली बेनाड्रीलची बाटली काढून ते चांगल अर्धा ग्लास भरून वर  पाणी टाकून ग्लास फुल करून दिला कुल्कर्ण्याच्या हातात, तेव्हा कुठे तो थंड झाला आणि आज पण कुलकर्णी पार्टीला आहे, म्हणून म्हटलं असावी एखादी बेनाड्रीलची बाटली इमर्जंसी म्हणून.”

“खरच धन्य आहे तुमची पंत !”

“आहे ना, मग येतोस का आम्हाला कंपनी द्यायला, बोल ? “

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 86 ☆ माँ सी …! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 86 ☆

☆ लघुकथा – माँ सी …! ☆

मीना की निगाहें कमला के घर पर ही लगी थीं। दो लडके बडी देर से उसके घर के बाहर चक्कर लगा रहे थे। दूर बैठी वह कमला के घर की चौकसी कर रही थी। कमला जब भी घर से बाहर जाती तो मीना की आँखें उसके घर पर ही लगी रहतीं। आँखें क्या तन मन से मानों वह उसी के घर में होती। कमला की जवान लडकी अकेली है घर में। पंद्रह- सोलह साल की ही होगी पर  अभी से बहुत सुंदर दिखती है, नजर हटती ही नहीं चेहरे से। वह मन ही मन सोच रही थी कि माँएं अपनी बेटियों की सुंदरता से कितनी खुश होती हैं लेकिन हमारे जैसी औरतें बेटी की सुंदरता से सहम जाती हैं।

बाईक पर आए दो लडकों को तांक – झांक करते देख उसने पूछा —

“ऐ – ऐ कहाँ जा रहे हो?”

“तेरा घर है यह? अपने काम से मतलब रख।”

वह तेजी से बोली — “हाँ मेरा ही घर है, अब बोल।”

“कमला बाई की लडकी से काम है।”

“क्या काम है? वही तो पूछ रही हूँ मैं?”

“उसी को बताना है। तू क्यों बीच में टांग अडा रही है?”   

वह कमला के घर का रास्ता रोक, कमर पर हाथ रखकर खडी हो गई- “तू पहले मुझे काम बता।”

“जबर्दस्ती है क्या? क्यों बताएं तुझे? साली धंधेवाली होकर बहुत नाटक कर रही है। चल यार, फिर कभी आएंगे हम।”

बात बढती देख वे दोनों तेजी से बाईक घुमाकर उसे गाली देते हुए वहाँ से चले गए।

“अरे! जब भी आएगा ना तू मीना ऐसे ही दरवाजे पर खडी मिलेगी। तू छू भी नहीं सकता मेरी बच्ची को।”

मीना जोर-जोर से चिल्लाकर बाईक पर पत्थर मारती जा रही थी। आस – पडोसवालों की भीड लग गई थी। वे हतप्रभ थे। मीना बाई की लडकी को तो बहुत पहले गुंडे उठा ले गए थे। ये तो कमला की लडकी है। भीड में खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

मीना आँसू पोंछते हुए बोली – “जानती हूँ मेरी लडकी नहीं है पर बेटी जैसी तो है ना ! अकेली कैसे छोड दूँ उसे?”

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 146 ☆ जीवन यात्रा – श्री सुशील सिद्धार्थ, एक  व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और सहज इंसान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  आपका एक आलेख  श्री सुशील सिद्धार्थ, एक  व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और सहज इंसान

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 146 ☆

? जीवन यात्रा – श्री सुशील सिद्धार्थ, एक  व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और सहज इंसान ?

किसी भी कवि लेखक या व्यंग्यकार की रचनाओ में उसके अनुभवो की अभिव्यक्ति होती ही है.  रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है, उसकी रचनाओ में

उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देकने को मिलती है. जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविता में परिलक्षित होती है , कहानी और आलेखो में दृश्य वर्णन की वास्तविकता भी रचनाकार की स्वयं या अपने परिवेश के जीवन से तादात्म्य की क्षमता पर निर्भर होते हैं. रोजमर्रा  की दिल को  चोटिल कर देने वाली घटनायें व्यंग्यकार के तंज को जन्म देती हैं.

श्री सुशील अग्निहोत्री एक प्राध्यापक के पुत्र थे. अध्ययन में अव्वल. हिन्दी में उन्होने पी एच डी की उपाधि गोल्ड मेडल के साथ अर्जित की. स्वाभाविक था कि विश्वविद्यालय में ही वे शिक्षण कार्य से जुड़ जाते. पर  नियति को उन्हें  अनुभव के विविध संसार से गुजारना था. सुप्रतिष्ठित नामो के आवरण के अंदर के यथार्थ चेहरो से सुपरिचित करवाकर उनके व्यंग्यकार को मुखर करना था. आज तो अंतरजातीय विवाह बहुत आम हो चुके हैं किन्तु पिछली सदी के अतिम दशक में जब सिद्धार्थ जी युवा थे यह बहुत आसान नही होता था. सुशील जी को विविध अनुभवो से सराबोर लेखक संपादक समीक्षक बनाने में उनके  अंतरजातीय प्रेम विवाह का बहुत बड़ा हाथ रहा. इसके चलते उन्होने विवाह के एक ऐसे प्रस्ताव को मना कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वविद्यालयीन शिक्षण कार्य की नौकरी नही मिल सकी, और वे फ्रीलांसर लेखक बन गये. स्थायित्व के अभाव में वे लखनऊ, मुम्बई, वर्धा, दिल्ली में कई संस्थाओ और कई व्यक्तियो के लिये अखबार, पत्रिकाओ, शिक्षण संस्थाओ, प्रकाशन संस्थानो के लिये लेखन कर्म से जुड़े तरह तरह के कार्य करते रहे.

प्रारंभ में वे लखनऊ से अवधी में अधिक लिखते रहे. तभी उनके दो अवधी कविता संग्रह आये जिसके लिये उन्हें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान से नामित पुरस्कार मिले.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #89 ☆ चाहे जितना जोर लगा लो… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चाहे जितना जोर लगा लो…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 89 ☆ चाहे जितना जोर लगा लो… 

वादों के जुमलों से घिरे हुए मतदाता आखिरकार वोटिंग बूथ तक पहुँच ही गए। अब किस चुनाव चिन्ह का बटन दबाएंगे ये तो उनके विवेक पर निर्भर करता है। यहाँ तक आने से पहले उन्होंने वाद, विवाद, संवाद, प्रतिवाद सभी का सहारा लिया है। अंत में निर्विवाद रूप से जातिगत समीकरणों को धता देते हुए कार्यों की गुणवत्ता को ही आबाद करने का सामूहिक निर्णय नजरों ही नजरों में ले लिया है।

मजे की बात ये है कि इस बार रिपोर्टर ये नहीं पूछ रहे हैं कि आपने किसे वोट दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए ये पता लगाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं कि किन मुद्दों पर मतदान हुआ है। अक्सर ही ओपिनियन पोल चुनावी परिणामों से नहीं मिलता है जिससे उनके चैनल की प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाती है। जितनी मायूसी हारने वाले खेमे को होती है उससे कहीं ज्यादा चैनल के सी ई ओ को होती है। उसे बड़े दलों का जिम्मा आगे के चुनावों में नहीं दिया जाता है। यही तो समय है ये देखने का कि उन्होंने माहौल निर्मित करने में कितना जोर लगाया है। निष्पक्ष होने का दावा करने के बाद भी कौन किस दल के प्रचार में लगा हुआ ये साफ दिखता है।

जो दिखता है वही बिकता है। ये स्लोगन केवल वस्तुओं की बिक्री हेतु लागू नहीं होता है। इसका उपयोग सभी क्षेत्रों में बखूबी हो रहा है। एक- एक मतदाता को लुभाना उसे अपनी पार्टी की विचारधारा से जोड़ना; ये सब कुछ ही दिनों के भीतर करना कोई जादुई कार्य ही तो है।आँखों की नींद उनकी वाणी से साफ झलकती है। कोई मुखिया अपने प्रत्याशी को ही नहीं पहचानता क्योंकि उसने हाल में ही पार्टी की बागडोर संभाली है। उसके शुभचिंतक ही उसे बताते हैं कि आज आपको इनके लिए बोलना है। बोलने से याद आया, कुछ भी बोलो; बस अंत में चुनाव चिन्ह सही बोलना क्योंकि कोई कुछ भी ध्यान नहीं दे रहा है वो तो स्टार प्रचारक को नजदीक से देखना चाहता है सो यहाँ बैठा हुआ है।

कई लोग तो विवशता वश अपना ही प्रचार नहीं कर पा रहे हैं पर उन्हें व उनके समर्थकों को विश्वास है कि वे भारी बहुमत से जीतेंगे। कथनी और करनी का तालमेल तो चुनाव परिणाम वाले दिन ही पता चलेगा बस इंतजार है कि मतदाता किन बातों से प्रभावित हो रहा उसकी समीक्षा का क्योंकि अगले चुनावों की भी भूमिका इसी बात पर तो निर्भर करेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 98 ☆ बाल कविता – चले शयन को अपने घर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता  “चले शयन को अपने घर”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 98 ☆

☆ बाल कविता – चले शयन को अपने घर ☆ 

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।

कई दिनों में धूप है निकली

जाड़े जी भागे डर कर।।

 

श्वान खेलते हैं बालू में

गंगा की लहरें अनुपम।

बनती, बिगड़ें बार – बार हैं

आँखें भी थकती हैं कब।

 

पुष्प गुच्छ ,मालाएँ बहकर

चले जा रहे नई डगर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

चली शुकों की टोली – टोली

गीतों का गायन करतीं।

बुलबुल बोलें नई धुनों में

जीवन के रस हैं भरतीं।

 

कटी पतंग गिरी है जल में

बही जा रही नई समर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जलमुर्गी और सोनचिरैया

गंगा के जल में तैरें।

शीतल जल भी लगता कोमल

खूब मजे से करतीं सैरें।

 

पूर्व से पश्चिम को गंगा

बहती हैं जीवन पथ पर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जलपक्षी भी कभी तैरते

कभी उड़ें जल के ऊपर।

घर भी उनका गंगा तट है

आसमान की छत सिर पर।

 

जाने क्या – क्या चलीं बहाकर

मानव के पापों को भर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जो भी आए खुश हो जाए

गंगा के पावन तट पर।

स्वच्छ रखें गंगा को हम सब

नहीं डालते कचरा पर।

 

पुण्य करें , न पाप कमाएँ

हम सब रखें स्वच्छ मगर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा श्री पवन कुमार वर्मा जी की पुस्तक “पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियांकी समीक्षा।

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

पुस्तक- पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां

प्रकाशक- निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, 37-शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज, आगरा (उत्तर प्रदेश) 94588 009 531

पृष्ठ संख्या- 160 

मूल्य- ₹500

बच्चों की पुस्तक बच्चों के अनुरूप होना चाहिए। उनकी कहानी रोचक हो। आरंभ में जिज्ञासा का पुट हो। कहानी पढ़ते ही उसमें आगे क्या होगा? का भाव बना रहे। वाक्य छोटे हो। प्रवाह के साथ कथा आगे बढ़ती रहे। तब वे बच्चों को अच्छी लगती है।

इस हिसाब से पवन कुमार वर्मा की कहानियां उम्दा है। वे पेशे से अभियंता है। मगर मन से बाल साहित्यकार। आपने बालसाहित्य में अपनी कलम बखूबी चलाई है। इनकी समस्त कहानियां सोउद्देश्य होती है। बिना उद्देश्य इन्होंने कुछ नहीं लिखा है।

प्रस्तुत समीक्ष्य कहानी संग्रह आपकी कहानियों का चुनिंदा संग्रह है। इसमें संग्रहित कहानियां आप के विभिन्न संग्रह से ली गई है। इनका चयन कहानियों की श्रेष्ठता के आधार पर किया गया है। आपकी जो कहानियां ज्यादा चर्चित रही है उन्हीं कहानियों को इस संग्रह में लिया गया है।

इस मापदंड से देखें तो यह कहानी संग्रह अन्य कहानी संग्रह से उम्दा है। इसमें चयनित कहानियां बहुत चर्चित व पठनीय रही है। इस कारण से इन्हें पवन कुमार की श्रेष्ठ कहानियां के रूप में संकलित किया गया है।

भाषा शैली की दृष्टि से आपने मिश्रित भाषाशैली का उपयोग किया है। अधिकांश कहानियां वर्णन के साथ शुरू होती है। मगर वर्णन में रोचकता का समावेश हैं। संवाद चुटीले हैं। भाषा सरल और संयत है। कहानी में तीव्रता का समावेश है। इस कारण कथा में गति बनी रहती है।

मिट्ठू चाचा कहानी आपके मिट्ठू चाचा संग्रह से ली गई है। इस कहानी में शरारती बच्चों को मिट्ठू चाचा की सहृदयता का ज्ञान अचानक हो जाता है। वे अपनी शरारत छोड़ देते हैं। तीन-तीन राजा- कहानी पर्यावरण की स्वच्छता पर एक नई दृष्टि से बुनी गई है। इसका कथानक बहुत ही बढ़िया और रोचक है।

घमंड चूर हो गया- आपसी ईर्ष्या को दर्शाती एक अच्छी कहानी है। इसमें घमंड को दूर करने का अच्छा रास्ता अपनाया गया है। कहानी में अंत का पैरा अनावश्यक प्रतीत होता है। मोटा चूहा पकड़ा गया- घर के सामान की परेशानी और चूहे की समस्या का अच्छा समाधान प्रस्तुत करती है।

मोती की नाराजगी- में गौरैया और मोती के द्वारा कहानी का सुंदर ताना-बाना बुना गया है। कौन, किससे और कैसे नाराज हो सकता है? बच्चों को अच्छी तरह समझ में आ जाता है। वही पिंकू सुधर गया- कहानी में पिंकू की शरारत का अच्छा चित्रण किया गया है।

अनोखी दोस्ती- में दीपू के द्वारा तोते की आजादी को बेहतर ढंग से प्रदर्शित किया गया है। खुशी के आंसू- सृष्टि द्वारा गर्मी की छुट्टियों के सदुपयोग पर प्रकाश डालती है। दावत महंगी पड़ी- में कौए और कोयल द्वारा नारद विद्या पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।

प्रणय ने राह दिखाई- बच्चों को स्कूल में श्रम सिखाने का प्रयास करती है। वही सुधर गया विनोद- में शरारत का अंत बेहतर ढंग से किया गया है। वहीं खेल-खेल में- बहुत बढ़िया सीख दे जाती है।

सच्चा दोस्त, समझदारी, असली जीत, दीपू की समझदारी, बात समझ में आई, अंधविश्वास, हम सबका साथ हैं, नई साइकिल, कहानी बच्चों को अपने शीर्षक अनुरूप बढ़िया कथा प्रस्तुत करती है। वही अच्छा सबक मिला, देश हमारा हमको प्यारा, दादाजी का मौनव्रत, गांव की सैर, आदत छूट गई, कल की बात पुरानी, नया साल, रामदेव काका, चोर के घर में चोर, मम्मी मान गई, कहानियां कथानक के हिसाब से रोचक व शीर्षक के हिसाब से उद्देशात्मक है। इनकी सकारात्मकता बच्चों को बहुत अच्छी लगेगी।

कुल मिलाकर पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ कहानियां बच्चों के मन के अनुरूप व श्रेष्ठ है। इनमें रोचकता का समावेश है। वाक्य छोटे और प्रभावी हैं। कथा में प्रवाह हैं। अंत सकारात्मक है। यानी बालसाहित्य के रूप में कहानी संग्रह उम्दा बन पड़ा है।

त्रुटिरहित छपाई और आकर्षक मुख्य पृष्ठ ने पुस्तक का आकर्षण द्विगुणित हो गया है। हार्ड कवर में 160 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹500 ज्यादा लग सकता है। मगर साहित्य की उपयोगिता के हिसाब से यह मूल्य वाजिब है। आशा की जा सकती है कि बाल साहित्य के क्षेत्र में इस संग्रह का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाएगा।

समीक्षक –  ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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