(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर संस्मरण “यादों में रानीताल”।)
☆ संस्मरण # 126 ☆ “यादों में रानीताल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
कल जबलपुर के रानीताल की बात निकल आयी भत्तू की पान की दुकान पर ,,
ठंडी सुबह में दूर दूर तक फैला कोहरा… रानीताल के सौंदर्य को और निखार देता था । चारों तरफ पानी और बाजू से नेशनल हाईवे से कोहरे की धुन्ध में गुजरता हुआ कोई ट्रक ………
पर अब रानीताल में उग आए हैं सीमेंट के पहाड़नुमा भवन ……….।
परदेश में बैठे लोगों की यादों में अभी भी उमड़ जाता है रानीताल का सौंदर्य ……
पर इधर रानीताल चौक में आजकल लाल और हरे सिग्नल मचा रहे हैं धमाचौकड़ी ………।
यादों में अभी भी समायी है वो रानीताल चौक की सिंधी की चाय की दुकान जहाँ सुबह सुबह 15 पैसे में गरम गरम चाय मिलती थी ।
रात को आठ बजे सुनसान हो जाता था रानीताल चौक ……… रिक्शा के लिए घन्टे भर इन्तजार करना पड़ता था,अब ओला तुरन्त दौड़ लगाकर आ जाती है ।
संस्कारधानी ताल – तलैया की नगरी……
किस्सू कहता “ताल है अधारताल, बाकी हैं तलैयां ” फिर सवाल उठता है इतना बड़ा रानीताल ?
रानीताल चौक, रानीताल श्मशान, रानीताल बस्ती, रानीताल मस्जिद और रानीताल के चारों ओर के चौराहे……. पर अब सब चौराहे बहुत व्यस्त हो गए हैं चौराहे के पीपल के नीचे की चौपड़ की गोटी फेंकने वाले अब नहीं रहे पीपल के आसपास गोटी फिट करने वाले दिख जाते हैं……… कभी कभी।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# युद्ध की मानसिकता #”)
[भारतीय संस्कृतीतमध्ये आपल्या जीवनात असणार्या गुरूंना अर्थात मार्गदर्शन करणार्या व्यक्तिंना अत्यंत महत्वाचे स्थान आहे, हे महत्व आपण शतकानुशतके वेगवेगळ्या पौराणिक, वेदकालीन, ऐतिहासिक काळातील अनेक उदाहरणावरून पाहिले आहे. आध्यात्मिक गुरूंची परंपरा आपल्याकडे आजही टिकून आहे. म्हणून आपली संस्कृतीही टिकून आहे.
एकोणीसाव्या शतकात भारताला नवा मार्ग दाखविणारे आणि भारताला आंतरराष्ट्रीय विचारप्रवाहात आणणारे, भारताबरोबरच सार्या विश्वाचे सुद्धा गुरू झालेले स्वामी विवेकानंद.
आपल्या वयाच्या जेमतेम चाळीस वर्षांच्या आयुष्यात, विवेकानंद यांनी गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस यांचे शिष्यत्व पत्करून जगाला वैश्विक आणि व्यावहारिक अध्यात्माची शिकवण दिली आणि धर्म जागरणाचे काम केले, त्यांच्या जीवनातील महत्वाच्या घटना आणि प्रसंगातून स्वामी विवेकानंदांची ओळख या चरित्र मालिकेतून करून देण्याचा हा प्रयत्न आहे.]
विविधा
☆ विचार–पुष्प – भाग ६ – अनुकरण ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
मुलं अनुकरणप्रिय असतात. घरात आपले आई वडील कसे वागतात, कसे बोलतात, कपडे काय घालतात, नातेवाईकांशी कसे संबंध ठेवतात हे सर्व ते रोज बघत असतात. त्यांच्या सवयी काय आहेत ,कोणत्या आहेत? हे मनात साठवत असतात. मुली असतील तर त्या आईची नक्कल करतात,उदा. भातुकली च्या खेळात मुली आईची भूमिका नेहमी करत असतात. आजही. मुले वडिलांची नक्कल करतात. म्हणजे आई वडील या नात्याने आपल्या मुलांच्या भविष्यात चांगले काही घडण्यासाठी ची आईवडिलांची जबाबदारी किती मोठी असते हे लक्षात येईल. घरात जसे वातावरण असेल तशी तशी मुलं घडत जातात.
नरेंद्रही अशा वेगळ्या वातावरणात घडत होता. १८७७ मध्ये नरेंद्र विश्वनाथबाबूंच्या बरोबर रायपूर येथे राहत होता. तेथे शाळा नव्हती. त्यामुळे ते स्वत:च नरेंद्रला शालेय पाठ्यपुस्तकाशिवाय इतिहास तत्वज्ञान, साहित्य विषय शिकवीत असत. शिवाय घरी अनेक विद्वान व्यक्तीं येत असत. त्यांच्या चर्चाही नरेंद्रला ऐकायल मिळत असत. त्याचं वाचन इतकं होतं कि, तो वादविवादात पण सहभागी होत असे. नरेंद्रची बुद्धी आणि प्रतिभा बघून ते वेगवेगळ्या विषयांवर मोकळेपणी मत मांडण्याची संधी नरेंद्रला देत असत.
नरेंद्रचही असच होत होतं. वडिलांचे गुण, दिलदारपणा, दुसर्याच्या दु:खाने द्रवून जाणं, संकटकाळी धीर न सोडता, उद्विग्न न होता, शांतपणे आपलं कर्तव्य बजावत राहणं अशी वैशिष्ठ्ये त्यानं आत्मसात केली होती. दुसर्यांची दुखे पाहू न शकल्याने दिलदार विश्वनाथांनी मुक्त हस्ताने आपली संपत्ती वाटून टाकली होती. तर ज्ञानसंपदा दोन्ही हातांनी मुलाला देऊन टाकली होती. एकदा कुणाच्या तरी सांगण्यावरून नरेंद्रनी आपल्या भविष्यकाळाबद्दल वडिलांना विचारले , “ बाबा तुम्ही आमच्या साठी काय ठेवले आहे?” हा प्रश्न ऐकताच विश्वनाथबाबूंनी भिंतीवरच्या टांगलेल्या मोठ्या आरशाकडे बोट दाखवून म्हटलं, “ जा, त्या आरशात एकदा आपला चेहरा बघून घे, म्हणजे कळेल तुला, मी तुला काय दिले आहे”. बुद्धीमान नरेंद्र काय समजायचं ते समजून गेला. मुलांना शिकविताना त्यांच्यात आत्मविश्वास निर्माण व्हावा म्हणून विश्वनाथबाबू त्यांना कधीही झिडकारत नसत, की त्यांना कधी शिव्याशाप ही देत नसत.
आपल्या घरी येणार्या आणि तळ ठोकणार्या ऐदी आणि व्यसनी लोकांना वडील विनाकारण, फाजील आश्रय देतात म्हणून नरेंद्रला आवडत नसे. तो तक्रार करे. त्यावर नरेंद्रला जवळ घेऊन वडील म्हणत, “ आयुष्य किती दुखाचे आहे हे तुला नाही समजणार आत्ता, मोठा झाला की कळेल. हृदय पिळवटून टाकणार्या दु:खाच्या कचाट्यातून सुटण्यासाठी, जीवनातला भकासपणा थोडा वेळ का होईना विसरण्यासाठी हे लोक नशा करत असतात. हे सारे तुला जेंव्हा कळेल, तेंव्हा तू पण माझ्यासारखाच त्यांच्यावर दया केल्याखेरीज राहणार नाहीस”.
समोरच्याचा दु:खाचा विचार करणार्या वडिलांबद्दल गाढ श्रद्धा नरेंद्रच्या मनात निर्माण झाली होती. मित्रांमध्ये तो मोठ्या अभिमानाने वडिलांचे भूषण सांगत असे. त्यामुळे, उद्धटपणा नाही, अहंकार नाही, उच्च-नीच , गरीब-श्रीमंत असा भाव कधीच त्याच्या मनात नसायचा. वडीलधार्या माणसांचा अवमान करणे नरेंद्रला आवडत नसे. अशा प्रकारे नरेंद्रला घरात वळण लागलं होतं.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 129 ☆
☆ व्यंग्य – महाकवि ‘उन्मत्त’ की शिष्या ☆
हमारे नगर के गौरव ‘उन्मत्त’ जी का दृढ़ विश्वास है कि ‘निराला’ के बाद अगर किसी कवि को महाकवि कहलाने का हक है तो वे स्वयं हैं,भले ही दुनिया इसे माने या न माने।दाढ़ी-मूँछ हमेशा सफाचट रखे और कंधों तक केश फैलाये ‘उन्मत्त’ जी हमेशा चिकने-चुपड़े बने रहते हैं।उनके वस्त्र हमेशा किसी डेटरजेंट का विज्ञापन लगते हैं।बढ़ती उम्र के साथ रंग बदलते बालों को वे सावधानी से ‘डाई’ करते रहते हैं।कोई बेअदब सफेद खूँटी सर उठाये तो तत्काल उसका सर कलम कर दिया जाता है। घर-गृहस्थी को पत्नी के भरोसे छोड़ ‘उन्मत्त’ जी कवि-सम्मेलनों की शोभा बढ़ाने के लिए पूरे देश को नापते रहते हैं।उनके पास दस पंद्रह कविताएँ हैं, उन्हीं को हर कवि सम्मेलन में भुनाते रहते हैं। कई बार एक दो चमचों को श्रोताओं के बीच में बैठा देते हैं जो उन्हीं पुरानी कविताओं की फरमाइश करते रहते हैं और ‘उन्मत्त’ जी धर्मसंकट का भाव दिखाते उन्हीं को पढ़ते रहते हैं।
‘उन्मत्त’ जी के पास कई नवोदित कवि मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आते रहते हैं। ऐसे ही एक दिन एक कवयित्री अपनी कविता की पोथी लिये सकुचती हुई आ गयीं। ‘उन्मत्त’ जी ने उनकी पोथी पलटी और पन्ने पलटने के साथ उनकी आँखें फैलती गयीं। फिर नवोदिता के मुख पर दृष्टि गड़ा कर बोले, ‘ आप तो असाधारण प्रतिभा की धनी हैं। अभी तक कहाँ छिपी थीं आप? आपको सही अवसर और मार्गदर्शन मिले तो आपके सामने बड़े-बड़े जीवित और दिवंगत कवि पानी भरेंगे। अपनी प्रतिभा को पहचानिए, उसकी कद्र कीजिए।’
फिर उन्होंने एक बार और कविताओं पर नज़र डालकर चिबुक पर तर्जनी रख कर कहा, ‘अद्भुत! अद्वितीय!’
नवोदिता प्रसन्नता से लाल हो गयीं। आखिर रत्न को पारखी मिला। ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘आपको यदि अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करना हो तो मेरे संरक्षण में आ जाइए। मैं
आपको कवि- सम्मेलनों में ले जाकर कविता के शिखर पर स्थापित कर दूँगा।’
कवयित्री ने दबी ज़बान में घर-गृहस्थी की दिक्कतें बतायीं तो ‘उन्मत्त’ जी बोले, ‘यह घर-गिरस्ती प्रतिभा के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। कितनी महान प्रतिभाएँ घर-गिरस्ती में पिस कर असमय काल-कवलित हो गयीं। थोड़ा घर- गिरस्ती से तटस्थ हो जाइए। बड़े उद्देश्य के लिए छोटे उद्देश्यों का बलिदान करना पड़ता है।’
‘उन्मत्त’ जी ने उस दिन नवोदिता को ‘काव्य-कोकिला’ का उपनाम दे दिया। बोले, ‘मैं सुविधा के लिए आपको ‘कोकिला’ कह कर पुकारूँगा।’
‘उन्मत्त’ जी ने ‘कोकिला’ जी को एक और बहुमूल्य सलाह दी। कहा, ‘कवि- सम्मेलनों में सफलता के लिए कवयित्रियों को एक और पक्ष पर ध्यान देना चाहिए। थोड़ा अपने वस्त्राभूषण और शक्ल-सूरत पर ध्यान दें। बीच-बीच में ‘ब्यूटी पार्लर’ की मदद लेती रहें। कारण यह है कि श्रोता कवयित्रियों को कानों के बजाय आँखों से सुनते हैं। कवयित्री सुन्दर और युवा हो तो उसके एक-एक शब्द पर बिछ बिछ जाते हैं, घटिया से घटिया शेरों पर भी घंटों सर धुनते हैं। यह सौभाग्य कवियों को प्राप्त नहीं होता। हमारा एक एक शब्द ठोक बजाकर देखा जाता है।’
‘कोकिला’ जी घर लौटीं तो उनके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। घर पहुँचने पर उन्हें अपना व्यापारी पति निहायत तुच्छ प्राणी नज़र आया। घर पहुँचते ही उन्होंने पति को निर्देश दिया कि उनके लिए तत्काल नई मेज़-कुर्सी खरीदी जाए ताकि उनकी साहित्य-साधना निर्बाध चल सके और जब वे मेज़-कुर्सी पर हों तब उन्हें यथासंभव ‘डिस्टर्ब’ न किया जाए।साथ ही उन्होंने पतिदेव से यह भी कह दिया कि खाना बनाने के लिए कोई बाई रख ली जाए ताकि उन्हें इन घटिया कामों में समय बर्बाद न करना पड़े।पतिदेव की समझ में नहीं आया कि उनकी अच्छी-भली पत्नी को अचानक कौन सी बीमारी लग गयी।
इसके बाद ‘उन्मत्त’ जी के साथ कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी अवतरित होने लगीं।बाहर के दौरे भी लगने लगे।देखते देखते ‘कोकिला’ जी कवयित्री के रूप में मशहूर हो गयीं।वे ‘उन्मत्त’ जी से ज़्यादा दाद बटोरती थीं।जल्दी ही उन्होंने ‘ज़र्रानवाज़ी, इरशाद, इनायत, तवज्जो, पेशेख़िदमत, मक़्ता, मतला, नवाज़िश, हौसलाअफज़ाई का शुक्रिया’ जैसे शब्द फर्राटे से बोलना और मंच पर घूम घूम कर माथे पर हाथ लगाकर श्रोताओं का शुक्रिया अदा करना सीख लिया।
अब बहुत से पुराने, पिटे हुए और कुछ नवोदित कवि ‘कोकिला’ जी के घर के चक्कर लगाने लगे थे।रोज़ ही उनके दरवाज़े पर दो चार कवि दाढ़ी खुजाते खड़े दिख जाते थे।शहर के बूढ़े, चुके हुए कवि उन्हें अपने संरक्षण में लेने और उन्हें मार्गदर्शन देने के लिए रोज़ फोन करते थे।
लोकल अखबार वाले उनके इंटरव्यू छाप चुके थे।हर इंटरव्यू में ‘कोकिला’ जी आहें भरकर कहती थीं, ‘मेरा हृदय एक अनजानी पीड़ा से भारी रहता है।संसार का कुछ अच्छा नहीं लगता।यह दुख क्या है और क्यों है यह मुझे नहीं मालूम।बस यह समझिए कि यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?मैं नीर भरी दुख की बदली।इसी दुख से मेरी कविता जन्म लेती है।इसी ने मुझे कवयित्री बनाया।’
‘उन्मत्त’ जी शहर के बाहर कवि- सम्मेलनों में ‘कोकिला’ जी को ले तो जाते थे लेकिन जो पैसा-टका मिलता था उसका हिसाब अपने पास रखते थे। थोड़ा बहुत प्रसाद रूप में उन्हें पकड़ा देते थे। पूछने पर कहते, ‘इस पैसे- टके के चक्कर से फिलहाल दूर रहो। पैसा प्रतिभा के लिए घुन के समान है। कविता के शिखर पर पहुँचना है तो पैसे के स्पर्श से बचो। ये फालतू काम मेरे लिए छोड़ दो। आप तो बस अपनी कविता को निखारने पर ध्यान दो।’
अब कवि-सम्मेलनों के आयोजक ‘कोकिला’ जी से अलग से संपर्क करने लगे थे। कहते, ‘आप ‘उन्मत्त’ जी के साथ ही क्यों आती हैं? हम आपको अलग से आमंत्रित करना चाहते हैं। ‘उन्मत्त’ जी हमेशा पैसे को लेकर बखेड़ा करते हैं।’
दो-तीन साल ऐसे ही उड़ गए। कवि-सम्मेलन, गोष्ठियाँ, अभिनन्दन, सम्मान। ‘कोकिला’ जी आकाश में उड़ती रहतीं। जब घर लौटतीं तो दो चार लोकल या बाहरी कवि टाँग हिलाते, दाढ़ी खुजाते, इन्तज़ार करते मिलते। घर- गिरस्ती की तरफ देखने की फुरसत नहीं थी।
एक दिन ‘कोकिला’ जी के पतिदेव आकर उनके पास बैठ गये। बोले, ‘कुछ दिनों से तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा था लेकिन तुम्हें तो बात करने की भी फुरसत नहीं। तुम कवयित्री हो, बड़ा नाम हो गया है। मैं साधारण व्यापारी हूँ। मुझे लगने लगा है कि अब हमारे रास्ते अलग हो गए हैं। अकेले गृहस्थी का बोझ उठाते मेरे कंधे दुखने लगे हैं। मेरा विचार है कि हम स्वेच्छा से तलाक ले लें।’
‘कोकिला’ जी जैसे धरती पर धम्म से गिरीं। चेहरा उतर गया। घबरा कर बोलीं, ‘मुझे थोड़ा सोचने का वक्त दीजिए।’
दौड़ी-दौड़ी ‘उन्मत्त’ जी के पास पहुँचीं। ‘उन्मत्त’ जी ने सुना तो खुशी से नाचने लगे। नाचते हुए उल्लास में चिल्लाये, ‘मुक्ति पर्व! मुक्ति पर्व! बधाई ‘कोकिला’ जी। छुटकारा मिला। कवि की असली उड़ान तो वही है जिसमें बार-बार पीछे मुड़कर ना देखना पड़े।’ फिर ‘कोकिला’ जी का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अब हम साहित्याकाश में साथ साथ निश्चिन्त उड़ान भरेंगे। टूट गई कारा। मैं कल ही आपके अलग रहने का इन्तज़ाम कर देता हूँ।’
‘कोकिला’ जी उनका हाथ झटक कर घर आ गयीं।
दो दिन तक वे घर से कहीं नहीं गयीं। दो दिन बाद वे स्थिर कदमों से आकर पति के पास बैठ गयीं, बोलीं, ‘मैंने आपकी बात पर विचार किया। मैं महसूस करती हूँ कि पिछले दो-तीन साल से मैं घर गृहस्थी की तरफ ध्यान नहीं दे पायी। कुछ बहकाने वाले भी मिल गये थे। लेकिन अब मैंने अपनी गलती समझ ली है। भविष्य में आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’
उसके बाद वे जा कर ड्राइंग रूम में ऊँघ रहे कवियों से बोलीं, ‘अभी आप लोग तशरीफ ले जाएँ। मैं थोड़ा व्यस्त हूँ। अभी कुछ दिन व्यस्त ही रहूँगी, इसलिए आने से पहले फोन ज़रूर कर लें।’
कविगण ‘टाइम-पास’ का एक अड्डा ध्वस्त होते देख दुखी मन से विदा हुए।
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 81 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 81) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 127 ☆ स्टैच्यू..! ☆
संध्याकाल है। शब्दों का महात्म्य देखिए कि प्रत्येक व्यक्ति उनका अर्थ अपने संदर्भ से ग्रहण कर सकता है। संध्याकाल, दिन का अवसान हो सकता है तो जीवन की सांझ भी। इसके सिवा भी कई संदर्भ हो सकते हैं। इस महात्म्य की फिर कभी चर्चा करेंगे। संप्रति घटना और उससे घटित चिंतन पर मनन करते हैं।
सो अस्त हुए सूर्य की साक्षी में कुछ सौदा लेने बाज़ार निकला हूँ। बाज़ार सामान्यत: पैदल जाता हूँ। पदभ्रमण, निरीक्षण और तदनुसार अध्ययन का अवसर देता है। यूँ भी मुझे विशेषकर मनुष्य के अध्ययन में ख़ास रुचि है। संभवत: इसी कारण एक कविता ने मुझसे लिखवाया, ‘उसने पढ़ी आदमी पर लिखी किताबें/ मैं आदमी को पढ़ता रहा।’
आदमी को पढ़ने की यात्रा पुराने मकानों के बीच की एक गली से गुज़री। बच्चों का एक झुंड अपने कल्लोल में व्यस्त है। कोई क्या कह रहा है, समझ पाना कठिन है। तभी एक स्पष्ट स्वर सुनाई देता है, ‘गौरव स्टेच्यू!’ देखता हूँ एक लड़का बिना हिले-डुले बुत बनकर खड़ा हो गया है। . ‘ ऐ, जल्दी रिलीज़ कर। हमको खेलना है’, एक आवाज़ आती है। स्टैच्यू देनेवाली बच्ची खिलखिलाती है, रिलीज़ कर देती है और कल्लोल जस का तस।
भीतर कल्लोल करते विचारों को मानो दिशा मिल जाती है। जीवन में कब-कब ऐसा हुआ कि परिस्थितियों ने कहा ‘स्टैच्यू’ और अपनी सारी संभावनाओं को रोककर बुत बनकर खड़ा होना पड़ा! गिरना अपराध नहीं है पर गिरकर उठने का प्रयास न करना अपराध है। वैसे ही नियति के हाथों स्टैच्यू होना यात्रा का पड़ाव हो सकता है पर गंतव्य नहीं। ऐसे स्टैच्यू सबके जीवन में आते हैं। विलक्षण होते हैं जो स्टैच्यू से निकलकर जीवन की मैराथन को नये आयाम और नयी ऊँचाइयाँ देते हैं।
नये आयाम देनेवाला ऐसा एक नाम है अरुणिमा सिन्हा का। अरुणिमा, बॉलीबॉल और फुटबॉल की उदीयमान युवा खिलाड़ी रहीं। दोनों खेलों में अपने राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं। सन 2011 में रेलयात्रा करते हुए बैग और सोने की चेन लुटेरों के हवाले न करने की एवज़ में उन्हें चलती रेल से नीचे फेंक दिया गया। इस बर्बर घटना में अरुणिमा को अपना एक पैर खोना पड़ा। केवल 23 वर्ष की आयु में नियति ने स्टैच्यू दे दिया।
युवा खिलाड़ी अब न फुटबॉल खेल सकती थी, न बॉलीबॉल। नियति अपना काम कर चुकी थी पर अनेक अवरोधक लगाकर सूर्य के आलोक को रोका जा सकता है क्या? कृत्रिम टांग लगवाकर अरुणिमा ने पर्वतारोहण का अभ्यास आरम्भ किया। नियति दाँतो तले उँगली दबाये देखती रह गयी जब 21 मई 2013 को अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। अरुणिमा सिन्हा स्टैच्यू को झिंझोड़कर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचने वाली पहली भारतीय दिव्यांग महिला पर्वतारोही बनीं।
चकबस्त का एक शेर है,
कमाले बुज़दिली है, पस्त होना अपनी आँखों में अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो क्या हो सकता नहीं।
स्टैच्यू को अपनी जिजीविषा से, अपने साहस से स्वयं रिलीज़ करके, अपनी ऊर्जा के सकारात्मक प्रवाह से अरुणिमा होनेवालों की अनगिनत अद्भुत कथाएँ हैं। अपनी आँख में विजय संजोने वाले कुछ असाधारण व्यक्तित्वों की प्रतिनिधि कथाओं की चर्चा उवाच के अगले अंकों में करने का यत्न रहेगा। प्रक्रिया तो चलती रहेगी पर कुँवर नारायण की पंक्तियाँ सदा स्मरण रहें, ‘हारा वही जो लड़ा नहीं।’..इति।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ‘सॉनेट गीत – वसुंधरा’।)
☆ पुस्तक चर्चा – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
यदि अगर हम या आप रचना धर्मिता की बात करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक कुशल रचनाकार अपने कथा पात्रों का चयन तथा पटकथा का ताना-बाना बुनने का कार्य अपने ही इर्द गिर्द के परिवेश से चयनित करता है जो यथार्थ होने के साथ कल्पना प्रधान भी होती है, जो साहित्यिक सौंदर्य को भावप्रधान बना देती है।
मेरा यह कहना भी समसामयिक है कि किसी भी संग्रह का मुखपृष्ठ ही बहुत कुछ कह जाता है। लेखन के बारे में और पाठक को पहली ही नजर में ललचा देता है। यदि हम गांव देस की बात करें तो इसका मुख पृष्ठ अपने उद्देश्य में सफल रहा, और यदि रचना धर्मिता की बात करें तो हम यह पाते हैं कि इस रचना कार को मात्र यही एक संग्रह मुंशी प्रेमचंद के समकालीन तो नहीं, समकक्ष अवश्य खड़ा कर देता है।
लेकिन एक की दूसरे से तुलना एक दूसरे की रचनाधार्मिता के प्रति अन्याय होगा। दोनों रचना कारों में कुछ लक्षण सामूहिक दिखते हैं , जैसे पटकथा, पात्र संवाद शैली तथा कहानी का ग्रामीण परिवेश एक जैसा है अगर कुछ फर्क है तो समय का ज़हां मुंशी प्रेमचंद आज का परिवेश देखने तथा लिखने के लिए जीवित नहीं है, जब कि लेखक महोदय वर्तमान समय में वर्तमान परिस्थितियों का बखूबी चित्रण कर रहे हैं। जैसे–बैजू बावरा, नियुक्ति पत्र, तथा अचिरावती का प्रतिशोध, वर्तमान कालीन सामाजिक विद्रूपताओं, योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा कथा नायकों की मजबूरी का कच्चा चिट्ठा है, तो प्रतिज्ञा सामूहिक परिवार में घट रही घटनाओं के द्वारा मन के भावों का उत्कृष्ट नमूना पेश करती है जिनके कथा पात्रों के भावुक कर देने वाले संवाद में पाठक खो सा जाता है, जब कि काफिर की बेटी तथा चिकवा कहानी सामाजिक समरसता और इंसानियत की ओर इशारा करती है, तथा हमारे संकुचित दृष्टिकोण और विचार धारा को आवरणहीन कर देती है। इसके साथ ही साथ दिदिया कहानी इस पुस्तक रचनाओं में सिरमौर है। यह रचना भावनाओं का पिटारा ही नहीं है जिसमें दया करूणा प्रेम मजबूरी बेबसी समाई है बल्कि उसका दूसरा राजनैतिक पहलू भी बड़े ही बारीकी से उजागर किया गया है कि आर्थिक उदारीकरण किस प्रकार विदेशी पूंजी वाद बढ़ावा देता है और कैसे हमारे छोटे-छोटे गृहउद्योगों को लील जाता है।
उससे रोजी-रोटी कमाने वालों को दर्द और पीड़ा, तथा बर्बादी इसके साथ ही साथ यह कहानी बुनकर समाज दुर्गति को दिखाती है । नए विषय वस्तु के ताने-बाने में बुनी कथा तथा उसके संवाद तो इतने मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं कि बचपन में हम उनको तानी फैलाते समेटते हुए देख चुके हैं। इस लिए कहानी पढ़ते हुए वे दिन याद आते हैं साथ ही आंचलिक भाषा भोजपुरी शैली के संवाद भले ही अहिंदी भाषी लोगों की समझ से परे हो, लेकिन उसनेे रचना सौंदर्य को निखारने में महती भूमिका निभाने का कार्य किया है। यह रचना बनारसी साड़ी उद्योग को केंद्रित कर लिखी गई है। सर्वथा नया विषय है। उसके भावुक संवाद पाठक को अंत तक रचना पढ़ने को बांधे रखने में सक्षम है।
इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू और भी है कि इसके कहानी शीर्षक कुछ अजीब से है जो पाठक के मन कहानी पढ़ने समझने की जिज्ञासा तथा ललक जगाते हैं। जैसे अचिरावती का प्रतिशोध,काला नमक, चिकवा आदि। वहीं अंतिम कहानी शीर्षक बिदाई कथा संग्रह के समापन की घोषणा करता जान पड़ता है।और यहीं एक रचना कार की कार्य कुशलता का परिचायक है।
हर्ष प्रकाशन दिल्ली का त्रुटिहीन मुद्रण तारीफ के काबिल है अन्यथा त्रुटि से युक्त मुद्रण तो भोजन में कंकड़ पत्थर के समान लगता है।यह पुस्तक पढ़ने के बाद आप के पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा सकती है ।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दरमियाँ …”।)