मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #140 ☆ दुष्काळ नाही ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 140 ?

☆ दुष्काळ नाही 

पावसावर झोडण्याचा आळ नाही

पंचनामा सांगतो दुष्काळ नाही

 

काळ हा नाठाळ आहे एवढा पण

मानले त्याला कधी जंजाळ नाही

 

गळत आहे छत बदलतो कैकदा मी

पण बदलता येत मज आभाळ नाही

 

शरद आला घेउनी थंडी अशी की

अग्निला मग शेक म्हणती जाळ नाही

 

मार्ग स्वर्गाचा मला ठाऊक होता

मी धरेवर शोधला पाताळ नाही

 

देउनी चकवा ससा निसटून गेला

पारध्याची आज शिजली डाळ नाही

 

मी मनाचे कोपरेही साफ केले

साचलेला आत आता गाळ नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 90 – गीत – ओ, मेरे हमराज… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – ओ, मेरे हमराज।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 90 –  गीत – ओ, मेरे हमराज…✍

जरा जोर से बोल दिया तो

हो बैठे नाराज

ओ, मेरे हमराज।

 

माना मन की बहुत पास हो, लेकिन योजन दूरी है

दुविधाओं के व्यस्त मार्ग पर, चलना भी मजबूरी है कोलाहल के बीच खड़े हम चारों ओर समाज।

ओ मेरे हमराज..

 

यादों के आंगन में बिखरी, छवियों की रांगोली है

शायद तुमने केश सुखाकर, गंध हवा में घोली है

चुप्पी की चादर के नीचे, सोई हैआवाज।

ओ मेरे हमराज ओ मेरे…

 

कितना तुम्हें मनाऊं मानिनि पैसे क्या मैं समझाऊं

जिसने मुझको गीत बनाया, उसको मैं कैसे गाऊं

सब कुछ तो कह डाला तुमसे,

कैसा लाज लिहाज।

जरा जोर से बोल दिया तो हो बैठे नाराज।

ओ मेरे हमराज।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 92 – “इंतजार करते-करते हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “इंतजार करते-करते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 92 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इंतजार करते-करते हैं”|| ☆

इस घर के इतिहास कथन में, निम्न बिन्दु उभरे

भूखे रहे पिता कुछ दिन, तब जा कर कहीं मरे

 

पता चला है बडे

पुत्र के मरने में दारू-

की थी उच्च भूमिका

ऐसा कहती मेहरारू

 

कोई औरत थी जो चुपके उस से मिलती थी

आती थी वह पहिन-पहिन कर बेला के गजरे

 

वह जो है अड़तीस बरस की इस घर की बेटी

मिला नहीं उसको सुयोग्य वर जब कि वही जेठी

 

सूख गई है माँ अनगिन

उपवास – बिरत रखते

इंतजार करते-करते हैं

कई बरस गुजरे

 

एक और भाई जो क़द में

कुछ लगता छोटा

मगर वही है इन सब में

बेशक थोडा खोटा

 

वही शहर में अपनी तिकड़म को जारी रखने

काम किया करता है सारे पीले-लाल-हरे

 

बड़ी बहू विधवा होकर भी

बनी-ठनी रहती

चलती है जब झूम-झूम के

हिलती है धरती

 

कहती मेरा करम फूटना था आकर इस घर

कोट-कंगूरे, मेहराबें तक

यहाँ सभी अखरे

 

नौकरानियाँ जिद्दी जिसको जो करना करतीं

इन्हें देख कर उम्मीदें तक

आहें हैं भरतीं

 

सासू के घटिया मिट्टी के

जीर्ण -शीर्ण  भान्डों

को खंगाल देती हैं सन्ध्या

दिखा- दिखा नखरे

 

जो मुनीम था यहाँ गृहस्थी के हिसाब खातिर

वही एक है कर्मचारियों में सबसे शातिर

 

घर का कोई बन्दा उससे जो हिसाब मांगे

काले नाग सरीखा वह

उन  सब पर है  विफरे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 139 ☆ हरियाली ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता “हरियाली”।)  

☆ कविता # 139 ☆ हरियाली ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

तुम्हारा हरियाली से 

इस तरह नाराज होकर 

सूख जाने का कोई 

न कोई मतलब होगा 

तुम्हारा इस तरह से 

नाराज होकर सूख जाना 

फिर सूख कर खड़े रहना 

हरियाली को आहत करता है

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 83 ☆ # जुहू चौपाटी पर एक शाम # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# जुहू चौपाटी पर एक शाम #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 83 ☆

☆ # जुहू चौपाटी पर एक शाम # ☆ 

(मुंबई दर्शन में जुहू चौपाटी परजो देखा उसको शब्दों में पिरोया है…)

जुहू की एक शाम

आप सबके नाम

शाम धीरे धीरे ढल रही थी

किनारे किनारे लाइटें

धीमें धीमें जल रही थी

ठंडी ठंडी हवा बह रही थी

आलिंगन बध्द युगलों को

कुछ कह रही थी

आ रहे थे रेले के रेले

लग रहे थे मेले के मेले

सज रही थी चौपाटी

सजे हुए थे ठेले

समंदर में ऊंची ऊंची

उठ रही थी लहरें

सिहर उठे थे लोग

जो थे किनारे पर ठहरे

शुभ्र शुभ्र लहरें

पांवों को चूम रही थी

छोटे, बड़े, तरूनाई

मस्ती में झूम रहीं थी

रेत के छोटे छोटे कण

पांव की उंगलियों में सज रहे थे

बिछिया बनकर

 धीमे धीमे चुभ रहे थे

रात धीरे धीरे आगे सरक रही थी

पागल पवन मदहोश हो

बहक रही थी

चांद तारे अंबर में

चमक रहे थे

भीगे भीगे वस्त्रों में

यौवन आग से दहक रहे थे

 

हम भी अपनी पत्नी के साथ

लेकर हाथ में हाथ

हमको भी लहरों के बीच

होना पड़ा खड़ा

पत्नी को खुश करने

लहरों से भीगना पड़ा

हम किनारे पर आकर बैठ गए

किराए की चटाई पर लेट गए

लहरों ने हमको

छेड़ना नहीं छोड़ा

यहां पर भी

भिंगोना नहीं छोड़ा

हम पुरानी यादों में खो गये

जवानी के दिन हमको

याद आ गये

विमान की गड़गड़ाहट ने

हमारी शांति लूटी

हमारी तंद्रा टूटी

हमने पाव भाजी खाई

आसमान के चांद को दी बधाई

धीरे धीरे ढल रही थी

मदहोश रात

बादलों में छुपी हुई थी

तारों की बारात

लहरें अभी भी

आ रही थी, जा रही थी

अपने प्रियतम समुद्र में

समा रहीं थी

और

हम दोनों

हाथों में हाथ लिए

निश:ब्द बिना कुछ कहे

आंखों में आंखें डालें

जज़्बातों को

संभाले संभाले

चल रहे थे

अपने अपने

ठिकाने की तरफ

धीरे धीरे ——!

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 19 – विवेक दे ! वैराग्य दे ! ज्ञान दे ! ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 19 – विवेक दे ! वैराग्य दे ! ज्ञान दे !  ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

आईची अवस्था, आजूबाजूच्या लोकांची वागण्याची रीत, पितृछत्राचं  दु:ख या सगळ्यांमुळे नरेंद्र अंतर्मुख झाला. गरीब आणि दु:खी लोकांचं आक्रंदन भगवंतांना दिसत नाही की काय? नुसता कमरेवर हात ठेऊन, ही निष्ठुर दानवी लीला तो निर्विकारपणे बघतोय? त्याच्या हृदयाला पाझर फुटत नाही? नरेंद्रचा ईश्वरावरचा विश्वासच उडू लागला होता.

आपल्या मित्रांनाही तो हे कधी कधी बोलून दाखवे. त्यावरून त्यांचाही समज दृढ झाला की नरेंद्र आता नास्तिक झालाय. तसच त्याच्या बद्दल शिष्यवृंदांमध्ये आणखी अपप्रचार होऊन तो रामकृष्णांपर्यंत पोहचे. त्यांचा तर नरेंद्रवर पूर्ण विश्वास होताच. खात्री होती. नरेन्द्रबद्दल असे काहीही ऐकून न घेता त्यांनाच ते दटावत असत. पण हेच तर आपली परीक्षा घेत नसतील ना? अशी शंका नरेन्द्रनाथांना आली खरी.      

घरगुती कारणांमुळे नरेंद्र दक्षिणेश्वरला श्रीरामकृष्णांकडे जाऊ शकत नव्हते. रामकृष्ण त्यांच्या शिष्यांकरवी नरेंद्रला भेटायला येण्याचे निरोप देत. पण नाही. मनात त्रागा होताच. ईश्वराचा मनातून राग आला होता. पण प्रेमळ अशा रामकृष्णांची आपल्या हृदयातली मूर्ती ते काही केल्या पुसू शकले नव्हते. त्यांच्या बरोबर आलेल्या आतापर्यंतच्या आध्यात्मिक अनुभवामुळे त्यांनी कल्पिलेली नास्तिकता दूर होऊ लागली होती. एका क्षणी त्यांना स्वत:चेच आश्चर्य वाटले की मी हे काय करतोय? त्यांना जाणीव झाली आपल्या अस्तित्वाची.

‘केवळ पैसा मिळवून, कुटुंबाचं अटीतटीने पोषण करत आयुष्य कंठीत राहायचं? आणि एक दिवस मरून जायचं? नाही, नाही माझा जन्म यासाठी झाला नाही. माझ्या जीवनाचं उद्दीष्ट महान आहे. अखंड सच्चिदानंदाचा लाभच माझे लक्ष्य आहे’. असे मनाशी ठरवून, नरेन्द्रनाथांनी  कुणालाही नकळत एक दिवस घरादारचा त्याग करण्याचा दिवस निश्चित केला.

गृहत्याग करण्यापूर्वी एकदा  गुरूंना वंदन करून मग कायमचा निरोप घ्यायचा असं ठरवलं. त्याच दिवशी गुरु कलकत्त्यात आपल्या एका भक्ताकडे आले आहेत हे कळल्याने नरेंद्रनाथ त्याच्याकडे गेले. तर श्रीरामकृष्णांनी त्यांनाच आग्रह करून दक्षिणेश्वरला नेले. रात्रभर गुरुशिष्यांमध्ये अद्भुत असा संवाद घडत राहिला.

अत्यंत करुण नेत्रांनी श्री रामकृष्ण नरेंद्रनाथांकडे बघून म्हणले, बेटा, कामिनी-कांचनचा त्याग केल्याखेरीज काहीही व्हायचे नाही. श्रीरामकृष्णांना भीती होती की न जाणो हा संसारात गुरफटून बसेल. त्यांनी नरेंद्रनाथांना एका बाजूला नेऊन परोपरीने सांत्वन केलं. सांगीतलं की, माझा देह असेपर्यंत तुला या जगात राहावे लागेल. आणि विशिष्ट कार्यासाठीच हा देह तू धारण केला आहे, याचं रहस्य ते सांगत होते.

दुसर्‍या दिवशी सकाळी नरेंद्रनाथ दक्षिणेश्वरहून घरी आले. मनावरचं एक मोठं ओझं कमी झाल्यासारखं वाटत होतं. आता, रामकृष्ण त्यांचे आदर्श, गुरु, पिता आणि सर्वस्व झाले होते. नातेवाईकांनी कटकारस्थान करुन त्यांच्या विरोधात केलेली केस हाणून पाडण्यासाठी त्यांनी कंबर कसली. ‘अन्याय, असत्यापुढे काहीही झालं तरी मान झुकविणार नाही’. हा त्यांचा बाणा होता. नामांकित बॅरिस्टर उमेशचंद्र बंडोपाध्याय यांनी नरेंद्रनाथ यांच्याकडून केस लढवली. 

कोर्टात लोकांना नरेन्द्रनाथांचे प्रसंगावधान,चारित्र्याची दृढता आणि सद्गुण्णांची चुणूक दिसलीच. पण विरोधी पक्षाचे वकील, उलट तपासणीत नरेंद्रनाथांची निर्भयपणे, स्पष्ट, धीरगंभीर, उत्तरे ऐकून आश्चर्य चकित झाले. न्यायमूर्तिंनी दोन्ही बाजू ऐकून घेऊन, शेवटी नरेन्द्रनाथ यांच्या बाजूने निकाल दिला. नरेन्द्रनाथ हे ऐकताच धावतच घरी आले आणि आईला म्हणाले, “आई घर बचावले”. त्याक्षणीच, भुवनेश्वरी देवींनी अत्यानंदाने विजयी पुत्राला हृदयाशी धरले. दोघांचा आनंद गगनात मावेना.

दिवसांमागून दिवस जात होते. पण आता आर्थिक दृष्टीने काहीतरी सोय व्हायला हवी होती. श्रीरामकृष्णांच्या कृपेने यावर काही तरी उपाय नक्की निघेल असे वाटून, नरेन्द्रनाथ ताबडतोब दक्षिणेश्वरास गेले. नरेंद्रनाथांना बघून रामकृष्ण आनंदित झाले. नरेंद्रनाथांनी म्हटले, “ महाराज माझ्या आईच्या आणि भावंडांच्या दोन घासांची कशीतरी तरतूद होईल असे तुम्ही आपल्या जगन्मातेजवळ धरणे धरावे. माझ्यासाठी”.

श्री रामकृष्णांनी उत्तर दिले, “काय सांगू रे? मी आईला असे चुकूनही कधी काही मागितलेले नाही. तरीपण तुम्हा लोकांची काहीतरी सोय व्हावी म्हणून आईची विनवणी केली होती. पण काय करू? तू तर आईला मानत नाहीस. म्हणून तीही तुझ्याबद्दलच्या सांगण्याकडे लक्षच देत नाही”. कट्टर निराकारवादी नरेंद्रची साकारावर तीळमात्र निष्ठा नव्हती. म्हणून ते गप्प राहिले. बोलायला जागाच नव्हती आणि आईच्या कृपेखेरीज काहीही घडणार नाही असे ठाम मत गुरूंचे होते.

ते एक प्रकारे नरेंद्रनाथांची परीक्षाच घेत होते. शेवटी ते म्हणाले, “बरं, आज मंगळवार आहे. मी सांगतो तुला, आज रात्री कालीमंदिरात जाऊन, आईला प्रणाम करून तू जे मागशील ते आई तुला देईल”. आणि विश्वास असो की नसो श्रीरामकृष्णांची ‘दगडी’ जगन्माता आहे तरी कशी हे एकदा पाहिलंच पाहिजे, म्हणून नरेंद्रनाथ काली मातेच्या देवालयात भारल्यासारखे गेले. आज श्रीरामकृष्णांच्या कृपेने त्यांच्या सांसारिक दु:ख दारिद्रयाचा अंत होणार या उत्कंठेने त्यांना भरून आले होते.

ते गेले तिथे त्यांना दिसले की, जगदंबेच्या रूपाने मंदिर प्रकाशित झाले आहे. दगडी मूर्ती नव्हे, ‘मृण्मय आधारी चिन्मयी जगन्माता’  वर आणि अभय देणारे कर वर करून, असीम अनुकंपापुर्ण, स्नेहमय मंदस्मित करीत आहे. ते पाहून नरेन्द्रनाथ सर्वकाही पार विसरून गेले. फक्त भक्ताप्रमाणे प्रार्थना करू लागले. “ आई विवेक दे, वैराग्य दे, ज्ञान दे. भक्ती दे. आई जेणेकरून तुझ्याच कृपेने तुला सर्वदा पाहू शकेन असं कर”.

नरेंद्र परत आले तसे रामकृष्णांनी विचारले काय रे काय मागितलंस? तेंव्हा कुठे त्याच्या लक्षात आलं की अरेच्च्या खरच की हे काय करून बसलो मी? मागायचं ते राहूनच गेलं की. गुरूंच्या आदेशानुसार पुन्हा गेले. पुन्हा तेच. दोनतीन वेळा जाऊनही काहीच मागितले नाही . नरेंद्रनाथांना सारं लक्षात आलं. गुरु म्हणाले, ज्या अर्थी तू मागू शकला नाहीस त्याअर्थी तुझ्या कपाळी ऐहिक सुख नाही. तरी पण तुम्हाला अन्नवस्त्राची ददात पडणार नाही. नरेंद्रनाथ आश्वस्त झाले. त्यांना कुठे हवे होते ऐहिक सुख? पण त्या दिवसापासून नरेंद्रनाथांच्या जीवनातल्या नव्या अध्यायाला सुरुवात झाली.

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 13 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 13 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

[२०]

कमळ उमललं, तेव्हा

माझं मन वाऱ्यावर नव्हतं

त्याच्या उमलण्याची जाणीवच

मला तेव्हा नव्हती

माझी परडी रिकामी होती,

 माझं दुर्लक्ष झालं होतं

 

आता स्वप्नातून जागा झाल्यावर

दु: खाणं सावट माझ्यावर पसरलं.

दक्षिणेकडून वाहणाऱ्या वाऱ्याचा

मधुर सुगंध मला जाणवू लागला.

 

पूर्णत्वाचा ध्यास घेऊन

वसंताचा अस्पष्ट, आतुर गंध

माझ्या काळजात ठेवून गेला

 

तो गंध माझ्या इतका जवळ होता,

त्याचा परिपूर्ण गोडवा

माझ्या ह्रदयात उमलला होता.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

pmk2146@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #142 ☆ व्यंग्य – एक धार्मिक जुलूस ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘एक धार्मिक जुलूस’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 142 ☆

☆ व्यंग्य – एक धार्मिक जुलूस

धार्मिक जुलूस निकलने को है। सूचनाएँ स्थानीय अखबारों में निकल चुकी हैं। जुलूस के नेताओं की अपीलें भी निकल चुकी हैं कि सब लोग सहयोग देकर धर्म को पुख़्ता करें और शांति बनाए रखें। धार्मिक जुलूसों के वक्त शांति बनाए रखने की अपील ज़रूरी होती है क्योंकि धर्म की शांति से पटरी बैठती नहीं। हमेशा शांति-भंग का ख़तरा रहता है। जुलूस के नेताओं में भी ज़्यादातर वे हैं जिन्हें जुलूसों और और तेज़-तर्रार वक्तव्यों को छोड़कर सच्चे अर्थों में धर्म से कुछ लेना-देना कम ही होता है। अब लोग धार्मिक कम हैं, धर्म के ठेकेदार ज्यादा हैं।

जुलूस को लेकर पूरे प्रशासन की जान हलक में है। महीना भर पहले से बैठकें हो रही हैं। धर्म के ठेकेदारों को बुलाकर मशवरा लिया जा रहा है कि भैया, ऐसा करो कि काम शांति से निपट जाए। धार्मिक नेताओं के भाव ऊँचे हैं। जुलूस किस रास्ते से जाए, इसे लेकर मान- मनौव्वल हो रहा है। ठेकेदार और उनके छुटभैये ज़िद करते हैं, ‘नहीं साहब, जुलूस तो उसी रास्ते से निकलेगा,चाहे कुछ भी हो जाए।’ बात यह है कि जुलूस निकालने वालों का काम जुलूस निकालना है। अमन बनाये रखने का ठेका प्रशासन का है। जुलूस तो ज़रूर निकलेगा, लेकिन अगर कोई गड़बड़ी हो जाए तो उचक कर प्रशासन की गर्दन थाम लो। फिर इंक्वायरी हो और फिर अंत में कोई बेचारा गरीब कांस्टेबल बलि का बकरा बना कर लाइन अटैच कर दिया जाए।

प्रशासन सब काम छोड़कर जुलूस की फिक्र में लगा है। बाकी सब काम बन्द। कोई आला अफसर अभी नहीं मिलेगा क्योंकि साहब अभी जुलूस वाली मीटिंग में हैं। जिसको कोई काम कराना हो वह जुलूस निकल जाने तक रुके,  चाहे काम जीवन-मरण का ही क्यों ना हो। जुलूस निकलने तक ज़िंदा रह सकते हो तो ठीक है, नहीं तो हरि इच्छा।
            ज़िले के सब हिस्सों से पुलिस की टुकड़ियाँ  बुलायी जा रही हैं क्योंकि धार्मिक जुलूस निकलना है। जहाँ पुलिस कम हो गयी है वहाँ तथाकथित असामाजिक तत्वों के हौसले कुछ ऊँचे हुए हैं और शांतिप्रिय भद्र लोगों के हौसले गिरे हैं, क्योंकि भद्र लोगों की भद्रता पुलिस के भरोसे ही कायम है।

शहर में असामाजिक तत्वों की धरपकड़ हो रही है ताकि जुलूस शांति से निकल जाए। जो  समझदार असामाजिक तत्व हैं वे पहले ही रिश्तेदारों के यहाँ चले गये हैं क्योंकि हर धार्मिक जुलूस के समय उन्हें सरकार की मेहमानदारी कबूल करनी पड़ती है। वैसे असामाजिक तत्वों में सिर्फ ऐरे-ग़ैरे-नत्थू-ख़ैरे ही आते हैं जिनका कोई माई-बाप नहीं होता। जिनके पास माल है या जिनका कोई धर्मपिता होता है वे असामाजिक तत्वों की फ़ेहरिस्त में नहीं आते।

पुलिस और प्रशासन जुलूस के पूरे रास्ते का निरीक्षण करते हैं। कहाँ-कहाँ फोर्स लगायी जाए, कहां निरीक्षण-मीनारें बनें, कहां एस.पी. साहब बैठें और कहाँ डी.आई.जी. साहब। रिज़र्व फोर्स कहाँ रहे, जो गड़बड़ी होते ही दौड़ पड़े। अश्रुगैस का पर्याप्त प्रबंध रहे।

जुलूस निकल रहा है। पुलिस अफसर जैसे उन्माद में हैं। कोई भी इधर-उधर दौड़ता- भागता दिखता है कि लाठी भाँजते दौड़ते हैं। जनता उत्सव के मूड में है, लेकिन प्रशासन के प्राण चोटी में हैं।

जुलूस एक-एक इंच  सरक रहा है और प्रशासन को एक-एक इंच सफलता मिल रही है। तनाव एक-एक इंच घट रहा है। कंट्रोल रूम को एक-एक क्षण की सूचना मिल रही है। जुलूस के लोग धर्मोन्माद में झूम रहे हैं, गा रहे हैं और प्रशासन असली धर्मपरायण की तरह राम और ख़ुदा को याद कर रहा है।

अंततः जुलूस ख़त्म हो गया है। लोग आखिरी जय-जयकारों के बाद बिखरने लगे हैं। जुलूस के नेताओं के चेहरे गौरवमंडित हैं। जब आखिरी जत्था भी चला जाता है तो प्रशासन ईश्वर को धन्यवाद देता है।

फिर प्रशासन के लोग एक दूसरे को बधाइयाँ देते हैं। ‘बधाई सर, सब ठीक-ठाक निपट गया।’ प्रदेश की राजधानी को प्रसन्नता भरे संदेश जाते हैं कि जुलूस शांतिपूर्वक निपट गया। राजधानी में भी बड़े लोग ठंडी साँस लेते हैं। अफसर घर लौट कर यूनिफॉर्म उतारते हुए तनावग्रस्त पत्नी को सूचना देते हैं कि सब काम ठीक से निपट गया,और पत्नी छत की तरफ आँखें उठाकर साड़ी का पल्लू आँखों से लगाती है।कारण यह है कि जुलूस अफसर को लाइन अटैच से लेकर सस्पेंड तक करा सकता है। इसलिए सही- सलामत घर लौटना भारी सुखकर होता है।

जुलूस ख़त्म हो गया है। अब बेचारे छोटे असामाजिक तत्व इस प्रतीक्षा में हैं कि हुकुम जारी हो तो वे सरकारी मेहमानख़ाने से बाहर आयें  और अगले जुलूस तक खुली हवा का सेवन करें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 94 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 94 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 94) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 94 ?

☆☆☆☆☆

कांटा क्या चुभा पैर में

एक आस सी बंध गई

कोई तो गुलाब जरूर

होगा इस गली में …!  

Just a thorn prick in the foot,

kindled a ray of hope

That atleast a rose must be

there in this street…!

☆☆☆☆☆

तेरी आँखों में पढ़ लेते हैं *

लोग मेरे इश्क की आयतें,

*किसी के दिल में इतना *

बस जाना भी अच्छा नहीं होता…

People read in your eyes

the verses of my love,

Staying so much in someone’s

heart is also not good…

☆☆☆☆☆

हम किसी और के हो जायें

तो हैरत कैसी…

तुमने जो जख्म दिए हैं

उन्हें भरना भी तो है…

Why should you be surprised

if I become someone else’s

The wounds that you gave,

too, have the right to heal…

☆☆☆☆☆

किसने किसको छोड़ा

इससे क्या फ़र्क पड़ा,

तन्हा तुम भी हुए

तन्हा हम भी रहे…

Who left  whom,

what difference does it make

You too became alone

I too remained lonely only

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 140 ☆ एकोऽहम् बहुस्यामः  ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 140 ☆ एकोऽहम् बहुस्यामः ?

शहर में ट्रैफिक सिग्नल पर बल्ब के हरा होने की प्रतीक्षा में हूँ। लाल से हरा होने, ठहराव से चलायमान स्थिति में आने के लिए संकेतक 28 सेकंड शेष दिखा रहा है। देखता हूँ कि बाईं ओर सड़क से लगभग सटकर  पान की एक गुमटी है। दोपहर के भोजन के बाद किसी कार्यालय के चार-पाँच कर्मी पान, सौंफ आदि खाने के लिए निकले हैं। एक ने सिगरेट खरीदी, सुलगाई, एक कश भरा और समूह में सम्मिलित एक अपने एक मित्र से कहा, ‘ले।’  सम्बंधित व्यक्ति ने सिगरेट हाथ में ली, क्षण भर ठिठका और मित्र को सिगरेट लौटाते हुए कहा, “नहीं, आज सुबह मैंने अपनी छकुली (नन्ही बिटिया)  से प्रॉमिस की है कि आज के बाद कभी सिगरेट नहीं पीऊँगा।” मैं उस व्यक्ति का चेहरा देखता रह गया जो संकल्प की आभा से दीप्त हो रहा था। बल्ब हरा हो चुका था, ठहरी हुई ऊर्जा चल पड़ी थी, ठहराव, गतिमान हो चुका था।

वस्तुत: संकल्प की शक्ति अद्वितीय है। मनुष्य इच्छाएँ तो करता है पर उनकी पूर्ति का संकल्प नहीं करता। इच्छा मिट्टी पर उकेरी लकीर है जबकि संकल्प पत्थर पर खींची रेखा है। संकल्प, जीवन के आयाम और दृष्टि बदल देता है। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,

कह दो उनसे,

संभाल लें

मोर्चे अपने-अपने,

जो खड़े हैं

ताक़त से मेरे ख़िलाफ़,

कह दो उनसे,

बिछा लें बिसातें

अपनी-अपनी,

जो खड़े हैं

दौलत से मेरे ख़िलाफ़,

हाथ में

क़लम उठा ली है मैंने

और निकल पड़ा हूँ

अश्वमेध के लिए…!

संकल्प अपनी साक्षी में अपने आप को दिया वचन है। संकल्प से बहुत सारी निर्बलताएँ तजी जा सकती हैं। संकल्प से उत्थान की गाथाएँ रची जा सकती हैं।

संकल्प की सिद्धि के लिए क्रियान्वयन चाहिए। क्रियान्वयन के लिए कर्मठता चाहिए। संकल्प और तत्सम्बंधी क्रियान्वयन के अभाव में तो सृष्टि का आविष्कार भी संभव न था। साक्षात विधाता को भी संकल्प लेना पड़ा था, ‘एकोऽहम् बहुस्यामः’ अर्थात मैं एक से अनेक हो जाऊँ। एक में अनेक का बल फूँक देता है संकल्प।

संकल्प को सिद्धि में बदलने के लिए स्वामी विवेकानंद का मंत्र था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक  मत रुको।

संकल्प मनोबल का शस्त्र है, संकल्प, असंभव से ‘अ’ हटाने का अस्त्र है। उद्देश्यपूर्ण जीवन की जन्मघुट्टी है संकल्प, मनुष्य से देवता हो सकने की बूटी है संकल्प।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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